दिनांक: २७.०२.२०२०
दिन: गुरुवार
शीर्षक: उठी घृणा की धूम
विधा: दोहा
छन्द: मात्रिक
आसमान काला हुआ , उठी घृणा की धूम।
उड़े मौत भी गिद्ध बन , देख अमन महरूम।।१।।
कट्टर है नेतागिरी , भड़काते जन आम।
जला रहे, खुद भी जले, बस भारत बदनाम।।२।।
क्या जाने वे दहशती , क्या माने है धर्म।
परहित प्रीत सुमीत क्या , दया कर्म या मर्म।।३।।
शान्ति नेह समरस मधुर, क्या जाने शैतान।
सौदागर जो मौत के , खुद जलते ले जान।।४।।
अफवाहें भड़काव के , फैलाते जन भ्रान्ति।
मार काट दंगा वतन , मिटा रहे वे शान्ति।।५।।
देर हुई सरकार की , कत्ल हुआ जन आम।
निर्दोषी लूटे गये , मौत खेल अविराम।।६।।
आज बने जयचंद बहु ,आस्तीन का सर्प।
वैर भाव हिंसा घृणा , सदा मत्त डस दर्प।।७।।
महाज्वाल प्रतिशोध की, जले पचासों जान।
लुटी खुशी उजड़े चमन , बन मातम हैवान।।८।।
रहो सजग हर पल सबल, अनहोनी आगाज़।
निर्भय नित जीवन्त पथ ,कर आपदा इलाज़।।९।।
कवि निकुंज करता विनत,जागो जन सरकार।
बांटो मत भारत वतन , करो नाश गद्दार।।१०।।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली
कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" हरिद्वार से
दिनांकः ७२.०२.२०२०
वारः गुरुवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः 🙋महाशक्ति बन प्रलय सम☝️
महाशक्ति बन प्रलय सम, कौन कहे कमजोर।
कहो न अबला नारियाँ , निर्भयता बेजोड़।।१।।
पढ़ी लिखी मेधाविनी,चहुँदिशि करे विकास।
भर उड़ान छूती गगन , अंतरिक्ष रनिवास।।२।।
गहना बन कुलधायिका ,ममता बन जगदम्ब।
बेटी बन लज्जा पिता , भातृ प्रीत अवलम्ब।।३।।
प्रियतम का अहसास बन,वधू रूप कुल मान।
पतिव्रता सीता समा , बन दुर्गा संहार।।४।।
शील त्याग मधुभाषिणी , कुपिता बन अंगार।
याज्ञसेनि वीराङ्गना , प्रिय वल्लभ शृंगार।।५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
नयी दिल्ली
दिनांकः २७.०२.२०२०
वारः गुरुवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः🥀निशिचन्द्र✍️
पत्नी है अर्द्धांगिणी , सुख दुख की सहभाग।
वधू मातु गृहलक्ष्मी , रणचण्डी अति राग।।१।।
स्नेह शील तनु त्याग नित,अर्पण निज सम्मान।
लज्जा श्रद्धा अंचला, कुलदात्री वरदान।।२।।
दारा भार्या प्रियतमा , स्त्री जीवन संगीत।
बन यायावर सारथी , मीत प्रीत नवनीत।।३।।
निश्छल मन पावन हृदय,स्वाभिमान व्यक्तित्व।
प्रिया प्रसीदा भाविनी , महाशक्ति अस्तित्व।।४।।
कवि निकुंज जीवन सफल,निशिचन्द्र अनुराग।
बनी सफल कविकामिनी , कीर्तिपुष्प रतिराग।।५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
हरिद्वार से 👉
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल झज्जर (हरियाणा )
बांसुरी सा....
सुबह जब उठा
तो मीठी सी ध्वनि
कानों में गूँजी
देखा जो दूर नज़र उठा
एक यौवना बांसुरी बजाती हुई
अपने आप में मस्त
धुनों में रमती हुई
सुर-ताल से सजी
होठों से बजती हुई.
एैसा लगे मानो
ढूंढ़ती हो अपने स्वप्नों को
अनरचे गीतों को
आकांक्षाओं को
दूसरी दुनिया से अन्जान
जैसे कुसुमित निर्झर फुहार
खेतों में, खलियानों में,
कुंजों में, निकुंजों में,
यमुना के कछारों में,
आरती में, भजन की तरंगो में
जो भी पुकार सुने चलता राही
ठहर जाता है
खींचा चला आता है.
गोपियों सा मन -मीत बन जाता है
कुछ तो बात थी
उसकी उँगलियों में "उड़ता "
जो हल्का सा शौर भी
गीत -ए -मंजर बन जाता है.
✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
झज्जर (हरियाणा )
📱9466865227
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल झज्जर (हरियाणा )
उन्हें याद रख.....
नेकी का रास्ता मुकम्मल है,
तू इंसानियत के साथ चल.
एहसास के धागे से बांध ले,
तू रोमानियत के साथ चल.
दिल में थोड़ा तरस रख,
हैवानियत को नकार चल.
किसी के लिए छत बन,
रवायतों के हिसाब चल.
उनकी कुर्बानियों को याद रख,
शहादतों के समाज चल.
जज़्बातों से जुड़े रिश्ते,
अमानतों के आज चल.
चरित्रहीन हुए कुछ लोग,
उनकी जमानतों के बाद चल.
भला करके भूल जा,
सब खयानतों के हाथ चल.
ज़माने के एहसान तुझपर "उड़ता ",
तू बस नियामतों को याद रख.
✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
झज्जर (हरियाणा )
📱9466865227
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
शेर
हमारा हर गम उठा कर कभी भी उफ़ तक न करते।
ज़माने भर को ख़ुशी बाँटते खूब अजीब है वो।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
श्याम कुँवर भारती ,बोकारो ,झारखंड
ओज कविता –भारत की मुस्कान लिखुंगा
कहोगे मुझसे मै तो नाम हिंदुस्तान लिखुंगा ।
एक बार नहीं सौ बार नहीं शुबहों शाम लिखुंगा ।
नही भुला मै महाराणा के भालाऔर चेतक को ।
बीर भुजाए ऊंचा ललाट मातृभूमि के रक्षक को ।
अंतिम दम लड़नेवाला भारत का स्वाभिमान लिखुंगा ।
वीर शिवाजी लक्षमी बाई की वीर गाथा गाउँ ।
सम्राट अशोक विक्रमादित्य को सिर माथा नवाऊँ ।
भारत माता चरणों का जुग जुग दास्तान लिखुंगा ।
बंद आंखो से बेध दिया सीना गोरी पृथवी राज ने ।
चंदबरदाई ने किया कविता इसारा कविराज ने ।
गाजर मुली जैसा काटा मुगलो का कब्रिस्तान लिखुंगा ।
साल नहीं दो साल नहीं हजारो साल इतिहास हमारा है ।
संग्राम हजारो झेला हमने फिर भी भारत खास सवारा है ।
नहीं मिटा है नहीं मिटेगा भारत का घमासान लिखुंगा ।
गंगा यमुना सरस्वती चरण पखारती है जिसका ।
चोटी हिमालय सिर ऊंचा उठाती है जिसका ।
चहके चहु सोन चिरइया भारत का मुस्कान लिखुंगा ।
श्याम कुँवर भारती ,बोकारो ,झारखंड
कैलाश , दुबे होशंगाबाद
दो घड़ी हमसे भी प्यार कर ले ,
भले ही झूटा इकरार कर ले
हम भी मनचले हैं बहुत ही यारा ,
ज़रा नजरों के बारे इधर भी कऱ ले ,
कैलाश , दुबे
रीतु प्रज्ञा दरभंगा, बिहार
सितम
ये कैसी सितम है आयी
शैतानों ने नींद है चुरायी
दुकान,घर सब है जला
लोभी भेड़िया है इधर-उधर खड़ा
दरिंदगी से धुआँ-धुआँ सा है पवन
खौफ समाया है प्रति जन के बदन
माँ खोती जा रही हैं सुनहरा कल
रहा न कोई देने वाला मीठा फल
बहने ढूंढू रही हैं रक्षाबंधन वास्ते कलाईयाँ
घड़ी-घड़ी मिल रही हैं रुसवाईयाँ
अश्रुपूरित नैना करती हैं सवाल
सितमगर क्यों देते गमों का सैलाब?
रीतु प्रज्ञा
दरभंगा, बिहार
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
एक फागुनी छंद
होली मा रंग गुलाल, उड़ावति भिगोवति,
निज चोली बड़ा वह, लट लहराती हैं।
मेलति गुलाल मुख, पे सबै के दौड़ि दौड़ि,
चुनरि उठाइ हाथ, निज फहराती हैं।
किसी की न सुनति हैं, कोई भी न बात वह,
भरे पिचकारी बस, रंग बरसाती हैं।
अब नर नारी कोई, पहिचाने न जाति है,
रंग सनी छवि उसकी, हिय हरसाती हैं।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
आलोक मित्तल रायपुर
मुक्तक
आप में से वो विधाता कौन है,
आग आ आ कर लगाता कौन है
हर तरफ इंसान रहते है यहाँ
फिर वतन आ कर जलाता कौन है ।
** आलोक मित्तल **
निधि मद्धेशिया कानपुर
देश
थाह नहीं पा सकता चिड़ा
पैठ गयी कितनी गन्दगी
सागर के पानी में है।
घोंसला चिड़ियों का अब
बाजों की निगरानी में है।
मंच से कह दी जाए कितनी
अच्छी बातें, विष घुला है
दूध में, पानी में है।
गाते जो गाथा,शौर्य
इतिहास का
उन्हें ही भा रही चित्कार
जो नर-नारी में है।
निधि मद्धेशिया
कानपुर
कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली
स्वतंत्र रचना सं. २७८
दिनांकः २९.०२.२०२०
वारः शनिवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः होली दे संदेश
माघ फाग अहसास बन, आयी मादक संग।
पर खूनों की होलिका , की होली बदरंग।।१।।
नफ़रत की पिचकारियाँ , भर खूनों का रंग।
छायी दहशत की नशा , मार काट हुरदंग।।२।।
घर दूकान वाहन सब , चढ़े होलिका भेंट।
जले ज्वाल दंगा अनल,स्कूली परिणय सेट।।३।।
बैठ होलिका गोद में , प्रेम शान्ति प्रह्लाद।
जली आग इन्सानियत,निर्ममता अवसाद।।४।.
हालाहल दुर्भाव में , जलता देश समाज।
मिली कपट हिंसा घृणा,भांग फाग आगाज।।५।।
आतंकी साजीश सच,हिरण्यकशिपु अनेक।
घोल रहे हिंसक बने , घृणा रंग अतिरेक।।६
बन गुलेल पिचकारियाँ , पत्थर रंग फुहार।
बने शस्त्र पेट्रोल बम , मौत फाग उपहार।।७।।
मिटी फाग सारी खुशी, खोकर अपने लोग।
छा मातम जन मन वतन,फँसे नफ़रती रोग।।८।।
नग्न नृत्य जब मौत की , तब चेती सरकार।
छूट मिली रक्षक वतन , रोक थाम गद्दार।।९।।
अपनों को खोकर मनुज,शोकाकुल है मौन।
है प्रश्न मानस निकुंज , सोचो दोषी कौन।।१०।।
बने मीत हम प्रीत फिर ,भरे घृणा मन खाई।
रहे शान्ति एका वतन , हम सब भाई भाई।।११।।
आओ मिल मन्नत करें , जले होलिका द्वेष।
प्रीत नीति बन फागुनी , होली दे संदेश।।१२।।
भूलें हम सब गम सितम,बढ़े पुन: नव जोश।
रंगे रंग उत्थान पथ , रह जाग्रत नित होश।।१३।।
नवजीवन नवरंग बन ,अधर सुखद मुस्कान।
बिना भेद सबकी प्रगति, हो सबको सम्मान।।१४।।
सर्व धर्म सद्भावना , होली हो त्यौहार।
फिर निकुंज आहत चमन,सजे प्रीति शृङ्गार।।१५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली
पी एस ताल
*मालवी में रचना*
मु तो उठिग्यो
अखबार पढ़ी न
खटिया पर लेटिग्यो।
दूध वारो आयो
तपेला में दूध
उड़ेग्यो।
तपेलो किचन में लेग्यो,,
गैस के चूल्हा पर चढायो
चाय पत्ती नाक्यो।
थोड़ी बाद चाय उबारियो,
चाय छलनी में चांयो,
कप में ली पियो,
गण्णी गण्णी
मीठी लागी ,
पर चाय सुहादी।
फिर बिस्तर गादी
पलँग ती उठादी।
✒पी एस ताल
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
शेर
जगह तमाम फ़क़त ढूढ़ता तुझे ही था।
तिरा निगार मुझे पर कहीं नही मिलता।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
प्रिया सिंह लखनऊ
ये रंग होली का नहीं
जम्हूरीयत का खून है
ये रंग टोली का नहीं
सियासी ये जूनून है....
ये रंग होली का नहीं....
जम्हूरीयत का खून है...
इन्हें शौक कत्ले आम का
इन्हें शौक नशीले जाम का
धर्म ना है जात उनकी "बस"
भीड़ का ये... कानून है
सियासी ये जूनून है...
ये रंग होली का नहीं .....
जम्हूरीयत का खून है.....
हिन्द ना ही मान उसका
हिन्द ना ही जान उसका
अस्तित्व का उसके पता नहीं
बस खून खराबा मालूम है
सियासी ये जूनून है ....
ये रंग होली का नहीं......
जम्हूरीयत का खून है.....
ये चोट उनको लगा नहीं
उन्हें घाव जरा हुआ नहीं
उन्हें तब तलक कहाँ सूकून है
सियासी ये जूनून है....
ये रंग होली का नहीं...
जम्हूरीयत का खून है...
उरूज का ये दस्तूर है
कुर्सी पर उन्हें गुरूर है
उन्हें आवाम से क्या वास्ता
उनका तो साफ हो ये रास्ता
उन्हें उजाड़ का हुकुम है
सियासी ये जूनून है..
ये रंग होली का नहीं ...
जम्हूरीयत का खून है ..
Priya singh
श्याम कुँवर भारती [राजभर] कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,
हिन्दी होली गीत – मत तरसाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
अबकी फागुन तुमको लगाएंगे रंग |
मुझे मत तड़पाओ ना |
गोरे गालो गुलाल लगाएंगे हम सारा |
रंग देंगे कोरी चुनरिया गोरी हम तुम्हारा |
डलवा लो रंग अबकी तुम रानी ,
मत छिप जाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
आओ खेले होली दोनों खेल रहा जमाना |
बच ना पाओगी हमसे मत बनाओ बहाना |
भर लेंगे बाहो मे तुमको जानी |
तुम मत इठलाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
मस्ती मे झूमे होली हम खेले संग |
चुनरी भिंगा लो चोली रंगा लो रंग |
संतोष भारती का यही है कहना |
जालिम दिल ना जलाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
श्याम कुँवर भारती [राजभर]
कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,
मोब /वाहत्सप्प्स -9955509286
गनेश रॉय "रावण" भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
"शब्दों की महत्व"
"""''""""""""""""""""""""
शब्द - शब्द की फेर है
शब्दो का है खेल
जहाँ शब्द सीतल करै
होता दिलो का मेल
ना शब्दो की हाथ है
ना शब्दो की है पाँव
एक शब्द चूक हो जाये
देता अनेको घांव
शब्द सिखाती उच्च - नीच
शब्द सिखाती बैर
शब्दों का है बड़ा झमेला
शब्दों का है फेर
जो, शब्दो की गरिमा समझा
मिला मान सम्मान
जो शब्दो की गरिमा खोया
हुआ बड़ा अपमान
शब्दों में ही अहंकार है
शब्दों में ही विनम्रता
सदा शब्द का सम्मान करो
ऊँचा हो या नीचा
धन तो घटता - बड़ता है
रहता शब्द स्थिर
इसी शब्द की मंथन देखो
मिले शत्रु और पीर
शब्दों में ही ज्ञान है
शब्दों में ही सँस्कार
सारे जग को ढूंढ लो
शब्दों में ही संसार
मैं "रावण" अज्ञानी हूँ
ढूँढता दर - दर ज्ञान
छोटे - बड़ो के शब्दों से
मिले अनेको ज्ञान ।।
गनेश रॉय "रावण"
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
9772727002
®●©●
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, "प्रेम"
हायकु
संग हमारे।
एक दूजे के होले।
मितवा प्यारे।
रेशम वाली
कुड़ियां अलबेली।
छमक छल्ली।
जिओ ,जीने दो।
बुरी नजर वालों।
खुदा के बन्दो।
मझधार मे,
डूबते नाविकों से।
कैसी उम्मीदें।
वफा बेवक्त।
गैर की जरूरत।
हैवानियत।
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, "प्रेम"
स्वरचित व मौलिक रचना।
।
देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी
................पिता जन्मदाता है..................
माता जन्मदायिनी है तो पिता जन्मदाता है।
दोनों के योग से ही संतान जन्म पाता है।।
माता नौ महीने पेट में बच्चे को पालती है;
पिता भरन - पोषण की उम्मीद जगाता है।।
खुद कितने ही मुसीबतों से घिरे रहें पर ;
संतान की कोई तकलीफ़ सह नहीं पाता है।।
जरूरत हो तो खुद आधा पेट खाएं पर ;
संतान को सर्वोत्तम भोजन खिलाता है।।
खुद अनपढ़ या कम पढ़े - लिखे क्यों न रहें;
बच्चों को ऊंची से ऊंची तालीम दिलाता है।।
जीवन भर जिन मुश्किलों से परेशान रहे;
संतान को उन मुश्किलों से हमेशा बचाता है।।
माता - पिता दोनों ही बराबर हैं "आनंद" ;
उत्तम संतान ही दोनों का कर्ज चुकाता है।।
--------------- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
*मेरी कविता में जीवंतता हो*
*****************
मैं अपनी कविता के लिए तलाश रहा हूं,
शब्दों को बनाने वाले
अक्षर रेखाएं, मात्राएं
ताकि उनमें भर सकूं
जीवंतता, जिजीविषा
मैं अपनी कविता में
किसान की पीड़ा
गरीब मजदूर का दर्द
पहाड़ में खाली होते गांवो
सभी की करुण कथा
शामिल कराना चाहता हूं,
शब्दों को चुन-चुन कर
एक लतिका बनाना चाहता हूं,
आज प्रगति के नाम पर
जीवन कितना ऊबाऊ है
मैं अपनी कविता के माध्यम से
नव चेतना भरना चाहता हूं,
जीवन क्या है
अपनी कविता में शामिल कराना चाहता हूं।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
संजय जैन (मुम्बई)
*दिल तेरा है तो...*
विधा : कविता
तेरी तस्वीर को,
सीने से लगा रखा है।
और तुझे अपने,
दिल में बसा रखा है।
इसलिए तो आंखे,
देखने को तरसती है।।
दिल तेरा है,
पर हक तो मेरा है।
क्योंकि तुमने मुझे,
अपना दिल जो दिया है।
मेरा मन जब भी करेगा,
तेरे दिलमें आता रहूंगा ।
बस ये दिल तुम,
किसी और को मत देना।।
मोहब्बत करना और,
उसे निभाना बड़ी बात है।
दिल के अरमानोंको,
जलाना भी बड़ी बात है।
वैसे तो बहुत लोग,
मोहब्बत करते है जिंदगी से।
परन्तु हकीकतकी कहानी,
उनकी कुछ और कहती है।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
29/02/2020
सुनील कुमार गुप्ता
कविता:-
*"सागर"*
"सागर से गहरा प्रेम तेरा,
जीवन में हर पल -
संग निभाना है।
नदियों सी विचारधारा ,
अलग अलग-
सागर में मिल जाना है।
अपनत्व की खातिर ही तो यहाँ,
साथी जीवन में-
जीना और मर जाना है।
टूट कर न बिखरेगे हम,
बादल बन जाना-
बरस फिर सागर में मिल जाना हैं।
इन्द्रधनुष के रंगों से ही,
इस जीवन को-
साथी यहाँ महकाना है।
सागर से गहरा प्रेम तेरा,
जीवन में हर पल-
संग निभाना है।।
सुनील कुमार गुप्ता
एस के कपूर श्री* *हंस।बरेली।
*मशीन सा भावना शून्य*
*हो गया है आदमी।मुक्तक*
अपनेपन से हम अब दूर
अनजान हो गए हैं।
अहम से भरेअब खुद हम
भगवान हो गए हैं।।
एक चलती फिरती मशीन
से बन गये हैं हम।
आज हम भावना शून्य
बेजुबान हो गए हैं।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री*
*हंस।बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर श्री* *हंस।बरेली।*
*जादू सा असर दुआओं का ।*
*मुक्तक*
आँखों में भरकर जरा तुम
पानी तो लेकर जायो।
किसी के दर्द में तुम नई
जिंदगानी लेकर जायो।।
स्नेह और प्रेम तो निष्प्राण
में भी डाल देते हैं जान।
पास उसके जरा दुआओं
की कहानी लेकर जायो।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री*
*हंस।बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली।
*शब्द की महिमा(हाइकु)*
कभी हैं शब्द
कभी है वाचालता
कभी निःशब्द
शब्द से पीड़ा
शब्द से मरहम
शब्द से बीड़ा
शब्द प्रेम है
शब्द से होता बैर
शब्द प्राण है
शब्द जीवन
शब्द से मिले ऊर्जा
शब्द से गम
शब्द नरम
शब्द विष अमृत
शब्द गरम
शब्द से दूरी
बात हो सदा अच्छी
यह जरूरी
शब्द से प्यार
शब्द से हो दुश्मनी
शब्द से यार
*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
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