नूतन लाल साहू

बचत का तरीका
मैंने अपने,पत्नी से कहा
पैसे बचाने की आदत
अच्छी है, डियर
पुरानी साड़ी को फाड़कर
सीती हो,मेरा अंडर वियर
मेरा कुर्ता भी, अपनी
रेशमी साड़ी से,निकाल दो
साड़ी के किनारी,वाला हिस्सा को
आस्तीन और गले पर, डाल दो
साड़ी चल चुकी हैं,दस साल
कुर्ते भी कुछ साल,चल जाएंगे
बचत का ये तरीका है आसान
एक दिन बात की बात में
बात बढ़ गई
मेरी घरवाली,हमसे ही लड़ गई
वो बोली, जो कमा कर खिलाते हो
सभी खिलाते हैं
तुमने आदमी,नहीं देखे है ऐसे
झूले में झुलाते है
मैंने भी कहा
उनके घर,जाकर देखना
पति के लिए झगड़ा नहीं
आरती सजाते हैं
उस दिन,खाना नहीं बना
मैंने कहा,चलो एक दिन का
खाने का खर्चा,बच गया
पर ये तरीका,आप मत अपनाना
क्योंकि बचत का ये अंदाज
है सबसे बड़ा,खतरनाक
मैंने कहा,माना कि मै बाप हूं
तुम भी तो, मां हो
बच्चो के जिम्मेदार
तुम भी तो,हाफ हो
बच्चे हो गये,आठ आठ
अभी एक रुपया किलो में
चावल मिल रहा है
बिहान योजना से
जिन्दगी चल रहा है
जिस दिन होगी,अधिक तंगी
पुराना पेटीकोट
जो तुम कमर में बांधती हो
मै गले में,बांध लूंगा
सारा तन,उसी में ढांक लूंगा
इससे बढ़कर बचत का और
क्या हो सकता है,अलौकिक उपाय
बचत का ये तरीका है,सबसे आसान
नूतन लाल साहू


 


 


मधु शंखधर स्वतंत्र प्रयागराज

*कुण्डलियां छंद*


कैसे दिल्ली जल रही, किसका है यह काम।
जाति धर्म के नाम पर,कब तक ये संग्राम।
कब तक ये संग्राम, बताएगा भी कोई।
बढ़े सियासतदार, वहीं बस जनता रोई।
*मधु* कहती यह बात, करोगे कब तक ऐसे?
नेह बने जल धार, जले तब दिल्ली कैसे।। 
*©मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*


अभिलाषा देेेशपांडे मुंबई

विषय-पिता
शिर्षक- फर्ज
पापा हर फर्ज निभाते हैं, 
जीवनभर कर्ज चुकाते हैं!
बच्चे के एक खुशी के लिये
अपने सुख भूल जाते हैं!
फिर क्यों ऐसे पापा के लिये
बच्चे कुछ करही नहीं पाते!
ऐसे सच्चे पापा को  क्यों,
पापा कहने भी सकुचते!
पापा का आशिष बनाता हैं,
बच्चे का जीवन सुखदाई,
पर बच्चे भूल ही जाते हैं, 
यह कैसी आँधी हैं आई!
जिससे सब कुछ पाया हैं,
जिसने सबकुछ सिखलाया हैं!
कोटि नमन ऐसे पापा को ,
जो हरपल साथ निभाया हैं!
प्यारे पापा के प्यार भरे, 
सीनेसे जो लग जाते हैं!
सच कहती हूँ विश्वास करो, 
जीवन में सदा सुख पाते हैं!
स्वरचित
अभिलाषा देेेशपांडे मुंबई


 


 


कवि अतिवीर जैन "पराग " मेरठ,उ प्र

सभी को नमन
ग़म :-


जितना ग़म है साथी,
प्यार बढ़ ही जाता है,
ऐसे जीने पे अपने, 
हमको तरस आता है.



मय भी पीता हूँ मैं,
ग़म भी भुला लेता हूँ,
फिर भी बेहोशी का आलम,
तेरे नाम से ही आता है.


तेरा प्यार वादा है क्या, क्यों इतना तड्फाता है? जितना ग़म है साथी,
प्यार बढ़ ही जाता है.


कवि अतिवीर जैन
"पराग "
मेरठ,उ प्र


अनुरंजन कुमार "अंचल"        अररिया, बिहार

बादल आया (बाल कविता)


 


बादल आया, बादल आया
बहते हुए तो बादल आया 
नीले - नीले  आसमान  में
स्याह रंग का बादल आया।


आओ  बादल , काले  बादल
किधर - किधर जाता है बादल
कितने   आगे  ओर   जाएगा
यहां तो बरस  जाओ बादल।


बादल लगता  छाया जैसा
प्रकृति से  बना  माया जैसा
कभी कभी हम सब को लगते
बादल  में शिव  सोया जैसा ।


बादल में पानी आयेंगे
हम सब पानी में कूदेगें
हम सभी मस्ती से डूबेगें
हम सभी झूम के नाचेगें।


 अनुरंजन कुमार "अंचल"
       अररिया, बिहार


चंचल पाण्डेय 'चरित्र'

😁हास्य😆
*कवित्त छंद*
दिन भर टिक टॉक,
                         हैलो हाय जिट जॉट|
फटे जीन्स घुटना पे,
                         कॉर्न सिल्क बाल है||
जिगजैग चले चाल, 
                         माने खुद बेबी डॉल|
कोन जैसा तीखे भाल 
                         पॉप कोर्न  गाल है||
कान खजुराहो नाक, 
                         नागफनी  जैसे लगे|
कर्ण लटकाए गिरि,
                          होंठ सुर्ख लाल है||
गिरिवा सुराही कटि,
                         सेतु बंध सम लगे|
नैन कजरारे हील, 
                       मानो नैनीताल है||
                  चंचल पाण्डेय 'चरित्र'


प्रीति शर्मा "असीम " नालागढ़ हिमाचल प्रदेश

किताब पढ़ना 


पढ़ना............ किताब
 हर किसी के ,
बस की बात नहीं। 


यह आधार ....है ।
जिंदगी का,


 डिजिटल होती ,
सोच के भी बस नहीं।‌।


 पढ़ना .......किताब 
हर किसी के ,
बस की बात नहीं ।


किताब ....किताब है ।
जिंदगी का असली लिबास है।


 नेटवर्क  जाते ही ,
सब...... बेकार है ।


तब किताब ही,
 जिंदगी की ,
असली पहचान ,
याद आती है ।


यह तो पोटली है ...जादू की 
पन्नों से कितने राज खोल जाती है।
स्वरचित रचना
 प्रीति शर्मा "असीम "
नालागढ़ हिमाचल प्रदेश


अंजू प्रजापति सहारनपुर

तमाम पापा के लिए


ये पापा भी कितने अजीब होते हैं
पहले तो बेटी के आने की खुशी में आंसू बहाते हैं


ओर जब बेटी बड़ी हो जाती है
उसकी विदाई पर आंसू बहाते हैं
ये पापा सच में बड़े अजीब होते हैं


सही कहा है किसी ने
बेटी का बाप होना आसान नहीं
एक छोटे-से पौधे को पेड़ बनाकर विदा करना पड़ता है
अपने कलेजे के टुकड़े को दिल से
 जुदा करना पड़ता है


पहले अपनी बेटी को एक शहजादी की तरह पालते हैं
फिर एक दिन उसी शहजादी को दूसरे के हवाले कर देते हैं
ये पापा भी बड़े अजीब होते हैं


अपनी बेटी के खातिर दुनिया से लड़ जाते हैं उसकी खुशी के खातिर आंसू अपने छीपाते है
फिर भी पता नहीं अपनी बेटी को 



 विदा कर  इतना बड़ा गम सह लेते हैं पता नहीं क्यों ये पापा इतने पत्थर दिल हो जातें हैं
ये पापा सच में बड़े अजीब होते हैं


देखो इन पापा लोगों को
बेटी के सामने मुस्कुराता हुआ चेहरा कैसे दिखाते हैं
फिर बेटी की विदाई पर आंसू सारा दर्द बयां कर देते हैं
ये पापा भी बड़े अजीब होते हैं


कैसे बयां करुं पापा को शब्दों में
ये पापा तो सच में बड़े अजीब होते हैं


ये अपनी नन्ही गुड़िया को पाल-पोस कर पता नहीं कैसे अपने से जुदा कर देते हैं
ये पापा सच में बड़े अजीब होते हैं


ये पापा सच में बड़े अजीब होते हैं



अंजू प्रजापति


आलोक मित्तल रायपुर

मुक्तक
*******


आज हम सबको डराता कौन है।
अपनी ताकत यूँ दिखाता कौन है।
क्या मरी इंसानियत उनकी अभी।
देश मेरा ये जलाता कौन है।।


 


कभी दर्द अपना बताती नही है।
नदी तो किसी को डराती नहीं है।
भले आड़ी टेडी वो बहती जमीं पर
कभी भी किसी को सताती नहीं है।


** आलोक मित्तल **


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

पहली मुलाकात पर पेश हैं दो छंद


पहली  मुलाकात  में, और भीगती रात में,
वो गोरी बोली हमसे, क्यों राह में खड़े हो।
कब से मैं देख रही, आते जाते  मुझको तू,
देखता  हैं  घूर - घूर, यूँ  पीछे क्यों पड़े हो।
बात  मान  नही  रहे, कुछ  ध्यान  नही  रहे,
अब पीछा मेरा छोड़ो, क्यों जिद पे अड़े हो।
तेरे  जैसे  दीवाने  भी,  देखे  हैं   बहुत  मैंने,
किसी के न हाथ  आयी, क्या उनसे बड़े हो।


 


 


पहली  मुलाकात  में, ऐसी बाते सुनकर,
मेरे  हाथ  पाँव  झन्न, झन्न   करने  लगे।
साहस  बटोरकर, मैंने  कहा  प्रिये  सुनो,
जब  से   देखा  तुमको, हम  मरने  लगे।
मुलाकात आपसे जो, ऐसे रोज होती रही,
पीर  दिल  की  हमारे,  सारी  हरने  लगे।
ये सुनकर  मुस्काई, वो  पलकें  झुकाकर,
अब  तो   बोलने  पर,   फूल  झरने  लगे।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल

CAA का धरना..... 


एैसी आग लगी ना जाने, कितने लाल निगले हैं. 
अब भी जूं ना रेंगी, 
नेता झांके क्यों बगलें है. 


हिन्दू -मुस्लिम की शक्ल में, 
जल उठी दिल्ली. 
पता नहीं हैं कौन से पिछले, 
और कौन से अगले हैं. 


CAA,NRC का अर्थ पता नहीं,
 चले धरने को. 
या तो वो समझदार बहुत हैं, 
या फिर सब पगले हैं. 


शाहीन बाग की आड़ में, 
हो रहे कु-कृत्य भी, 
बेसुरी सी ताल पर, 
रात-दिन बज रहे तबले हैं. 


जिनसे तीन-तलाक लेते थे, 
उनको हथियार बना लिया, 
अब वो शेरनी हो गयी, 
जो कल तक रहे अबले हैं. 


सरकार क्यों बेबस हुई, 
नहीं कुछ कर सकती. 
विपक्ष सारा एक हो गया, 
हर बात में झमले हैं. 


फ्री की आदत लगी लोगों को, 
क़ानून लचर है "उड़ता ", 
ये वोट -बैंक की राजनीति 
और चलने वाले मेले हैं. 


✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल


कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" नई दिल्ली

 गान राष्ट्र का गाता हूँ
मुक्त मैं उन्मुक्त स्वर में, 
गान  राष्ट्र  का  गाता हूँ,
मैं भारत, भारत मेरा है,
शान्ति दूत बन जाता हूँ। 
राग बदल अनुराग बनूँ,
प्रगति पथी बन जाता हूँ,
खिले खुशी मुस्कान मुखी,
नवजीवन का उद्गाता हूँ। 
मानव हूँ रक्षक मानवता,
नीति  प्रीति उन्नायक हूँ ,
मर्यादित मर्यादापुरुषोत्तम,
मुक्तिबोध  बन जाता हूँ। 
मन निर्मल गंगा सम पावन ,
समरस शीतल नेह बहाता हूँ,
रवि शशि सम बिन भेद भाव के 
सहयोगी बन जाता हूँ।
नद निर्झर गिरि बन सरिता मैं,
अविरल  परहित गीत सुनाता हूँ , 
मानव हूँ ममता की मूरत ,
करुणाकर बन जाता हूँ।
बनूँ ज्ञान विज्ञान परंतप,
रण महावीर  बन जाता हूँ ,
जीवन दे निज राष्ट्र भक्ति में ,
बलिदानी  बन  जाता  हूँ।
मानदण्ड भारत सीमा का
राष्ट्र मुकुट बन जाता हूँ,
शील कर्म गुण त्याग मनुज मैं,
भारत का गान सुनाता हूँ।
धर्म अर्थ और काम मुक्ति का,
जीवन रस निर्माता हूँ,
मानव हूँ नैतिकता पोषक,
लोकतंत्र बन  जाता हूँ । 
नया पौध मैं कोमल किसलय,
पुष्पित सुरभित बन जाता हूँ,
मानव हूँ नित फलित सुयश फल,
अभिराम राष्ट्र बन जाता हूँ। 
ऋषि मुनियों की पूजित धरा 
देवलोक  बन  जाता  हूँ,
मानव हूँ निर्माणक जग का,
सुख शान्ति गीत मैं गाता हूँ।
बन विहगवृन्द उन्मुक्त गगन में,
जय भारत माँ संगीत सुनाता हूँ।
मानक मैं उत्थान वतन का,
पालक किसान बन जाता हूँ,
निर्भय नित सबला नारी मैं
महाशक्ति प्रलय बन जाता हूँ।
नर हूँ मैं नारायण नित पल,
सत्यं शिव सुन्दर बन पाता हूँ,
हरित भरित उर्वर वसुधा मैं  
भूमि  भरत   कहलाता हूँ।
स्वाभिमान मैं संवाहक यश का,
अमर  गीत बन जाता हूँ,
मानव हूँ यायावर चिन्तक,
मधुरिम जीवन गीत सुनाता हूँ। 
मुक्त सदा उन्मुक्त व्योम में 
तिरंग ध्वजा  लहराता  हूँ ,
जय भारत जय हिन्द गीत मैं 
वन्दे मातरं संगीत सुनाता हूँ।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


श्याम कुँवर भारती [राजभर]  कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी

हिन्दी गीत- क्यो हुआ 
मुझे पहली बार प्यार हुआ |
यार क्यो हुआ |
झूठा ही कोई दिलदार हुआ |
यार क्यो हुआ |
मैंने चाहा नहीं मैंने सोचा नहीं |
हुआ क्या मुझको पता नही |
क्यो उसका मुझे इंतजार हुआ |
यार क्यो हुआ |
था मै बेपरवाह कितना मजा था |
होगी उसकी चाह किसको पता था |
मै क्यो इतना लाचार हुआ | 
यार क्यो हुआ |
धड़कने नाम उसका लेती है |
बिना उसके न जागती न सोती है |
मै उसका बड़ा तलबगार हुआ |
यार क्यो हुआ |
हर जगह हर शय वो दिखता है |
हर पल दिल मेरे वो रहता है |
काया मुझे उससे प्यार हुआ |
यार क्यो हुआ |
मुझे पहली बार प्यार हुआ |
यार क्यो हुआ |


श्याम कुँवर भारती [राजभर]
 कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,


 मोब /वाहत्सप्प्स -9955509286


प्रखर दीक्षित*. *फर्रुखाबाद

*~एक प्रयास~*
*कोरा कागज लाल हो गया*


तार-तार मानवता सिसके, घृणित दृश्य विकराल हो गया।
आतंकी कुंठा प्रतिशोधी, सहमा सब्र हलाल हो गया।।


सिसक रही थीं धर्मध्वजाऐं, आर्तनाद क्रंदन घर-घर।
निर्ममता चंड़ाल हो गयी, निरीह वेदना कांपी थर थर।।
     समझ सका न वक्त कुचालें, 
              भय का मंज़र काल हो गया ।।
*सहमा सब्र हलाल.......*


कहीं सिसकता माँ सा आंचल , कहीं राखियाँ मौन हुईं ।
संतति कहीं अनाथ हो गयी, परिणीता कहिं  पौन हुई।।
     ह्रदय विचारक दृश्य रुलाते,
           शर्मसार नत भाल हो गया।।
*सहमा सब्र हलाल.......*


उठो आर्य कर लायक साधो, अब मात भारती रही पुकार।
विध्वंस करो नफरत दीवारें, करो कुमति का  द्रुत संहार ।।
     मिलें खाक में नियति दोगली,
          शंका भय तत्काल हो गया।।
*सहमा सब्र हलाल.......*


मुट्ठी भर नाखून विषैले, क्या अमन चैन का हरण करेंगे।
विस्तारवाद को झूठे मंज़र, क्या गंग ओ जमन का मरण करेंगे।।
      प्रखर भारती यही सोचती,
            क्यों कोरा कागज लाल हो गया।।
*सहमा सब्र हलाल.......*


*प्रखर दीक्षित*.
*फर्रुखाबाद*


नूतन लाल साहू

इंतजार
समय के खेल आय
अंधियार मिट जा ही
अंजोर बगर जा ही
सबो दिन एके सही,नइ होय
इंतजार कर इंतजार कर
सरसो के फुल, अामा के मंजरी
लट लट ले, फुल जा ही
डेहरी म बइठे रददा जोहत रह
बर बिहाव, के नेवता आ ही
बने शुभ घड़ी,महुरत मा
बसंत ऋतु,ह आ जाही
सबो दिन एके सही, नइ होय
इंतजार कर इंतजार कर
रतिहा कुलुप,अंधेरी हे
त का होइस संगी
बिहनिया सुरुज आ जा ही
हिम्मत झन हार,भरोसा ल राख़
रोग राई संकट, दुरगत म
जब कोनो नइ रहय,आंछु पोछइया 
तब माता पिता गुरु के आशीष ह
नवा रददा दिखा जा ही
सबो दिन एके सही,नइ होय
इंतजार कर इंतजार कर
घुरुवा के दिन ह, बहुरथे
तोर छितका कुरिया ह
महल अटारी बन जा ही
साधू के भेष म, कतको शैतान हे
सोझ के पुछंता नइये
लबरा के सान हे
पर मौत के अगोरा म अटके
ओखर परान हे
समय के खेल आय
अंधियार मिट जा ही
अंजोर बगर जा ही
सबो दिन एके सही,नइ होय
इंतजार कर इंतजार कर
नूतन लाल साहू


 


 


प्रवीण शर्मा ताल

क्यों गये पिया परदेशवा?,"तुम्हरी याद आती हैं।"



कैसे मेरी निंदियाँ चुराती हैं,
जैसे चाँदनी सरहद से उतर जाती  हैं,
जैसे कोई  सन्देशा लेकर आती हैं,
क्यों गये पिया परदेशवा, 
तुम्हारी याद आती हैं।


आँगन में बैठी बैठी राहों में पलके 
बिछाये  हवाएँ कुछ कह जाती है,
जलते हुए प्रीत के दीये में आँसुओ से
बून्द बून्द तेल उड़ेला जाती है,
क्यो गये पिया परदेशवा ?
तुम्हारी याद आती हैं।


हँसी मजाक की चलती थी बाती
दिन उजाले में मुस्कान लाती।
अब तुम्हारे बिन ये आँगन के परिंदे में
बिखलती- बिखलती मुरझा जाती।
क्यों गये पिया परदेशवा?
तुम्हारी याद आती हैं।


अब तो आजाओ  मेरे पिया 
फागुन की होली आई हैं,
रंग बिरंगे अमवा की डाली पर
खुशियाँ झोली भरके लाई हैं।
तुम्हारे आने से मेरे मन की तितलियाँ
 हर्षाती है,
तेरे बिन मेरा दिल धक- धक तड़पाती
 है,
क्यों गये पिया परदेशवा ?
तुम्हारी याद आती है।



*✒प्रवीण शर्मा ताल*


रवि रश्मि 'अनुभूति

विधाता छंद


चला करतीं कहीं तो शीत लहरें प्राण लेती हैं ।
कहीं लहरें सुनो सर्दी बढ़ा ही रोज़ देती हैं ।।
ज़रा सोचो गरीबों का सदा ही हाल क्या होता ।
किसी कंबल रजाई के बिना बच्चा रहे रोता ।।


कहीं बाहर जला कर आग सेंकें पाँव -  हाथों को ।
यही है जो गरीबी तो भुलाते रोज़ बातों को ।।
गुज़ारा चाय पर करते भुलाते बदनसीबी को ।
नहीं कंबल नहीं बोलें किसी भी वे क़रीबी को ।।


न हीटर है न ही कोई अँगीठी पास उनके ही ।
जलाते हैं लकड़ियाँ भी सभी ही आज चुन के ही ।।
कड़ाके की अभी सर्दी सही जाती कहाँ अब तो । 
धरे रहते गरीबों के सुनो सपने यहीं सब तो ।।


गरीबों पर दया करना सदा इनका भला करना ।
अभावों में रहें वे तो सुनो झोली सदा भरना ।।
मिले आशीष प्रभु तेरा गरीबी दूर हो जाये ।
दिला दो आज कंबल भी कि अब मुस्कान आ जाये ।।
रवि रश्मि 'अनुभूति '


सत्यप्रकाश पाण्डेय

कोरा कागज लाल हो गया


कोरा कागज थी मेरी धरणी,
अब रंग इसका लाल हो गया।
राष्ट्रद्रोह के कुत्सित इरादों से,
संस्कृति का बेहाल हो गया।।


पत्थर वाजों के बेखौफ भाव,
जो देते रहे जेहाद का नाम ।
लूटते रहे है आबरू वतन की,
करते रहे देश को बदनाम।।


विश्वगुरू से मण्डित अलंकृत,
संस्कारों की जो जन्मदात्री।
कूटनीति के कुचक्रों में फंसी,
वहां अमानवीयता की रात्री।।


पर जाग रही वह पावन धरा,
बहने लगी है विकास बयार।
अब राष्ट्रप्रेम अंगड़ाई ले रहा,
पुनः प्रवाहित है शीतल धार।।


निश्चय ही कोरे कागज को हम,
कैसे भी लाल नहीं होने देंगे।
मर जायेंगे मिट जायेंगे भले ही
मां का सिर नहीं झुकने देंगे ।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय


संजय जैन (मुम्बई)

इंसान हो..*
विधा : गीत


इंसान की औलाद हो,
इंसान तुम बनो।
इंसानियत को दिलमें,
अपने जिंदा तुम रखो।
मतलब फरोश है ये दुनियाँ,
जरा इससे बचके रहो।
लड़वा देते है अपास में,
भाई बहिन को।
ऐसे साँपो से तुम,
अपने आप को बचाओ।।


कितना कमीना होता है, 
लोगो ये इंसान।
सब कुछ समझकर भी,
अनजान बन जाता है ये।
औरो के घर जलाओगें तो,
एकदिन खुद भी जलोगें।
फिर अपनी करनी पर,
तुम बहुत शर्मिदा होगें।
और अपनों की नजरों में,
खुद ही गिर जाओगें।।


जो अपनो का न हुआ,
वो गैरो का कैसे होगा।
इंसान की औलाद है,
फिर भी जानवर बन गया।
जानवर तो जंगल में,
हिल मिलकर रहते है।
इंसान होते हुए भी, 
जानवरों से भी नीचे गिर गया।
और इंसान कहलाने का, 
हक भी उसने खो दिया।। 


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
01/30/2020


अंजू प्रजापति सहारनपुर

ओ भैया प्यारे



ओ भाई मेरे तेरा प्यार रहे
संग संग हम ऐसे हंसते रहें
एक डोर से बांधे है रब ने
ये डोर कभी ना टूटे।


तेरी खुशियां मैं मांगू रब से
मेरी खुशियां तूं मांगे रब से
लड़ना झगड़ना ये हमारा
चोट लगें मुझे वो रोना तेरा
ओ भाई मेरे तूं हंसता रहें


तेरी आंखे कभी नम ना हो।
तुझे पाके मैंने रब को पा लिया
ओ भाई मेरे तूं खुशियों का गहना
मेरे लिए मेरी जान है तूं ओ भाई मेरे तूं रब का तोहफा प्यारा।



भैया प्यारे कभी तेरा मेरा प्यार ना छुटे कभी तूं मुझसे ना रूठे
खुशियों से भरी है मेरी जिंदगी
कभी मेरी जिंदगी मुझसे ना रूठे


भैया तेरा मेरा रिश्ता सबसे प्यारा है तूने मुझे चिढ़ाया फिर तूने ही मुझे मनाया कैसे कहूं तूं मुझे मेरी जान से प्यारा है।


ओ जान मेरी कभी जान से अपनी रूठ  ना जाना
छोटी बहन हूं तेरी कभी तूं मुझको भूल ना जाना।


भाई बहन से कभी जूदा ना हो
रब से हर पल मैंने यही मांगा एक दूसरे के दिल में हमने घर बनाया
इस घर में प्यार बसा है इसको कभी तूं भूल ना जाना।


भाई बहन का प्यार है
दें दो वचन कभी बहन को छोड़कर ना जाना भाई मेरे तूं मेरी धड़कन में समाया।


भाई हम एक डाली  के दो फूल है
इस   डाली को कभी ना तोड़ना
भाई तूं मुझसे कभी ना रूठना
भाई तूं कभी मुझको ना छोड़ना


 


रिस्पेक्टेड  ऑल ब्रदर्स🙏🙏


 


अंजू प्रजापति


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली

*सितारों के आगे जाना है।*
*।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।*


कोशिश कर  कि सितारों
के आगे जहाँ और भी है।


हार से  मत   डर   मंजिल
आगे वहाँ   और   भी   है।।


खुद  बनाना है  इस दुनिया 
में   एक    मुकाम  अपना।


यकीन रख हर मुश्किल की
आगे  राह यहाँ और भी है।।


*रचयिता।।।।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*


मोब  9897071046।।।।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।।।


एस के कपूर श्री हंस।* *बरेली।*

*हर भरोसे का वफादार* 
*बनना पड़ता है।मुक्तक।*


मानती दुनिया  उसको  मगर
जिम्मेदार बनना पड़ता है।


चाहती दुनिया दिल से  मगर
दिलदार बनना पड़ता है।।


जगह   बनायो     अपनी हर
दिल अज़ीज़ के  सीने में।


चलेगी दुनिया तेरे पीछे मगर
किरदार बनना पड़ता है।।


*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस।*
*बरेली।*
मो  9897071046
      8218685464


एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली

*कागजी फूलों सा दिखावटी*
*इंसान हो गया ।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।*


कागजी फूलों जैसी आदमी
की   सीरत   हो   गई है।


जबानी खोखली सी आदमी
की   कीरत हो   गई  है।।


आदर,  सदभाव,  प्रेम , स्नेह 
हो  गई हैं  किताबी बातें । 


चमक  पैसे   की  आदमी  का
नया तीरथ   हो   गई   है।।


*रचयिता।।।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।।बरेली।।।।।।।।।।।*
मोब  9897071046।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।


एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली

*नकारात्मक व्यक्तित्व(हाइकु)*


जरा तिनका
आलपिन सा चुभे
मन  इनका


कोई बात हो
टोका टाकी मुख्य है
दिन रात हो


कोई न आँच
खुद पाक साफ हैं
दूजे को जाँच


खुद बचाव
बहुत  खूब  करें
यह दबाव


दोषारोपण
दक्ष इस काम में
होते निपुण


तर्क वितर्क
काटते उसको हैं
तर्क कुतर्क


कोई न भला
गलती  ढूंढते  हैं
शिकवा गिला


बुद्धि विवेक
और सब अपूर्ण
यही हैं नेक


जल्द आहत
तुरंत  आग  लगे
लो फजीहत


*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली।*
मो    9897071046
       8218685464


सत्यप्रकाश पाण्डेय

हे बृजठाकुर मैं हूं शरण तुम्हारी
जग आपद हरो मेरी कुंजबिहारी
बृषभानु लली श्रीराधे रानी जी
श्रीमाधव संग करो सहाय हमारी


मोहमाया में पड़ भूल न जाऊँ
जीवन के पल तुम्हारे संग बिताऊँ
तुम ही आराध्य आराध्या मेरी
मुख से श्रीराधे गोविन्द गुण गाऊं


युगलछवि मेरे मनमंदिर बसी
नयनाभिराम रूप दृष्टि मेरी कसी
सत्य जीवन के आधार नाथ
बिन तेरे प्रभु ज्योति लागे मसी।


श्रीराधे कृष्ण 🌸🌸🌸🌸🌸🙏🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


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