डॉ अखण्ड प्रकाश                               कानपुर

शारदा शतक से
"अक्षर का श्रृंगार"
###########
वीणा वादिनि आज तुम्हारा,
करने बैठा हूं अभिनंदन।
अक्षर अक्षर नव प्रसून और,
भव्य वन्दना अक्षत चंदन।।
अ से अब आ से आओ मां,
इ से इक्षा पूरी कर दो।
ई से ईश रूप जगदम्बे,
उ से उर में भक्ती भर दो।।
ऊ से ऊंचा उठूं गगन सम,
चाह रहा है यह मेरा मन।
अक्षर अक्षर नव प्रसून और,
भव्य भावना अक्षत चंदन।।
ए से एक तुम्हीं हो माता,
हैं ऐश्र्वर्य शक्तियां तेरी।
ओ से ओज की औढर किरपा,
बुद्धि विमल कर देगी मेरी।।
अं से अंगीकार करो मां,
अ: समर्पित है यह जीवन।
अक्षर अक्षर नव प्रसून और,
भव्य भावना अक्षत चंदन।।


क से कुछ ख से खोजूं मां,
ग से गाऊं  गीत  तुम्हारे।
घ से घिसक घिसक कर माता
आऊंगा(ड़) मैं पास तुम्हारे।।
यह कवर्ग का पुष्प हार लो,
 मैं करता तेरा अभिनंदन।
अक्षर अक्षर.......
च से चरण छ से छू लुंगा,
ज से जिस क्षण दर्शन पाऊं।
झ से झंकृत होगा तन मन,
अयं (ञ) ह्री क्लीं मंत्र सुनाऊं।।
यह चवर्ग का पुष्प गुच्छ लो,
रखता हूं मैं तेरे चरणों।
अक्षर अक्षर........
ट से कहीं टूट न जाऊं,
ठ से ठिठका हुआ खड़ा हूं।
ड से डमरू ढ से ढोल बन,
शरण तुम्हारी इन पड़ा हूं।।
ण से कण कण इस शरीर का,
करूं समर्पित अपना तन मन।
अक्षर अक्षर.......
त से तन थ से थकता है,
द से दान दया का दीजै।
ध से धैर्य धरा सम पाऊं,
न से नवल शक्ति भर दीजै।।
तेरे दिये कार्य करने है,
कहता है मैया मेरा मन।
अक्षर अक्षर........
प से पाप किए जो मैने,
फ से फल जो भी बन पावे।
ब से बड़ी कृपा हो मैया,
भ से भुक्तमान हो जावे।।
म से मैया करो कृपा अब,
विचलित होता है मेरा मन।
अक्षर अक्षर.......
य से यम से डर लगता है,
र से रक्षा मेरी कीजै।
ल से लक्ष प्राप्त कर पाऊं,
मन को व से वीरता दीजै।
पार करूं भव सागर मैया,
सत्य अहिंसा मय हो जीवन।
अक्षर अक्षर...........
श से शक्ति कुछ ऐसी दीजै,
ष से षट् विकार ते पाऊं।
स से हो संतोष प्राप्त जब,
ह से हे मां दर्शन पाऊं।।
श्रृद्धा और विश्वास फलित हों,
कण कण में तेरा अवलम्बन।
अक्षर अक्षर..........
क्ष से क्षणिक न सुख चाहूं मैं,
मैं चाहूं सामीप्य तुम्हारा।
त्र से त्राहि त्राहि जग जननी,
ज्ञ से चाहूं ज्ञान तुम्हारा।।
हरो तमस अब दो "प्रकाश",
हे मैया चाह रहा मेरा मन।
अक्षर अक्षर.......
     स्वरचित।  डॉ अखण्ड प्रकाश
                              कानपुर


नूतन लाल साहू

प्रजातंत्र
जनता दर्द का खजाना है
आंसुओ का समंदर है
जो भी उसे लूट ले
वहीं मुकद्दर का सिकंदर है
क्योंकि भारत में प्रजातंत्र है
सरकार भी क्या करे
किस किस को पकड़े
धर्मात्मा दान,खा रहा है
बेईमान, ईमान खा रहा है
जिसे देखो,वहीं
कुछ न कुछ खा रहा है और
जिसे कुछ नहीं मिला
वो आपके कान,खा रहा है
क्योंकि भारत में प्रजातंत्र है
हमारे देश का, प्रजातंत्र
वह तंत्र है
जिसमे हर बीमारी स्वतंत्र है
बाजार में,जासूसी उपन्यास
रामायण से ज्यादा बिक रहा है
क्योंकि भारत में प्रजातंत्र है
गीता में भगवान,कृष्ण ने कहा है
कर्म करो और फल मुझ पर छोड़ दो
पर क्या बताये मजबूरी
हिंदुस्तान में पैदा हुये थे
कब्रिस्तान में जी रहे है
जब से मां का दूध छोड़ा है
आंसू पी रहे हैं
भगवान जाने
देश की जनता का,क्या होगा
आंसू को मोती और
वेदना को हीरा
समझने वाला,कोई नहीं मिल रहा है
जनता दर्द का,खजाना है
आंसुओ का समंदर है
जी भी उसे लूट ले
वहीं मुकद्दर का सिकंदर है
क्योंकि भारत में प्रजातंत्र है
नूतन लाल साहू


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित)  नयी दिल्ली

🌹कुण्डलियाँ फागुन के✍️
कण्ठहार   प्रिय पास , हर्षित   सजन इतराए।
प्रिया  धरे प्रिय  हाथ , प्रियतम मधुर मुस्काए।।१।।
गाता  फागुन   गीत , पी भांग नशा   मदमाते।
मिलन प्रिया मनप्रीत , मुदित सजन  शरमाते।।२।।
मलती  गाल  गुलाल , नैन  नशीली  नटखटें । 
रोमांचित  तन  सजन, मचल रहा ले  करवटें।।३।।
व्याकुल रति अभिसार,बनी अधीरा प्रियतमा।
खींच रही प्रिय हाथ ,बोल लोल वह मधुरिमा।।४।।  
मीन सम   सजल नयन, काली वेणी लहराए।
बिम्ब लाल स्मित अधर,पतली कमर लचकाए।।५।।
रंजित मानस निकुंज , रंगों   से  फागुन  सजे।
लगा प्रीत      सतरंग , प्रेमयुगल  लेते     मजे।।६।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित) 
नयी दिल्ली


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"हे भारत महान!"* (गीत)
****************************
*हे भारत महान! हे भूमि की शान! तुमको है लाखों प्रणाम।
तुमको है लाखों प्रणाम।।
माटी है चंदन, करते हैं वंदन, पावन तुम्हारा है नाम।
तुमको है लाखों प्रणाम।।


*ममता की मूरत, समता की सूरत, बहे सरिता पवित्रता की।
शांति का संदेश, है साधु सम वेश, मिसाल है मित्रता की।।
भाव भरे मन में, जोश जगे तन में, अल्लाह का हुस्न, रूप-राम।
तुमको है लाखों प्रणाम।।


*लगे प्यारा वतन, है सुहाना चमन, यह पुष्पों से भरी क्यारी।
झरने हैं झरते, वन मन को हरते, है शोभा यहाँ की न्यारी।।
निधियों का स्थान, हरा हिंदुस्तान, स्वर्ग तुम्हारा है धाम।
तुमको है लाखों प्रणाम।।


*अटल चट्टान बन, काल का काल बन, हम तोड़ेंगे सबका भरम।
चमकायें भाग्य, भगायें दुर्भाग्य, हम खाते तुम्हारी कसम।।
करेंगे कुर्बान, जान पर हम जान, होने न देंगे स्याह-शाम।
तुमको है लाखों प्रणाम।।
****************************
मरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
****************************


बलराम सिंह यादव धर्म एवं अध्यात्म शिक्षक

कविता की आध्यात्मिक व्याख्या


सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान।।
सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  चतुर पुरुष उसी कविता का आदर करते हैं जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक बैर को भूलकर सराहना करने लगें।ऐसी कविता निर्मल बुद्धि के बिना सम्भव नहीं और मेरी बुद्धि का बल बहुत कम है।इसीलिए मैं आपसे बार बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियों!आप कृपा करें,जिससे मैं प्रभुश्री हरि का वर्णन कर सकूँ।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
  सरल कविता वह है जिसे सरलता से समझा जा सके क्योंकि कठिन और प्रभुश्री रामजी की कीर्ति से रहित कविता का सन्तजन सम्मान नहीं करते।यथा,,
भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ।
रामनाम बिनु सोह न सोऊ।।
रामनाम जस अंकित जाही।
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही।।
सहज बैर उसे कहते हैं जो अकारण ही होता है जैसे चूहे-बिल्ली का, सर्प-नेवले का,गौ-सिंह का आदि।जो बैर किसी कारण से होता है उसे कृत्रिम बैर कहते हैं जो उस कारण के समाप्त होने से छूट जाता है।गो0जी के मतानुसार प्रभुश्री हरि के सुयश से युक्त सरल काव्य सहज बैर को भी समाप्त कर देता है।अतः वे अन्य सभी कवियों से कृपा करने की बात करते हैं क्योंकि वे अपनी काव्यशक्ति को प्रभुश्री हरि के सुयश कथन करने के लिए पूर्ण रूप से सक्षम नहीं मानते हैं।गो0जी की इसी महान भावना ने श्रीरामचरितमानस को सम्पूर्ण विश्व में प्रशंसनीय बना दिया।निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना करने वाले, अवतारवाद के कट्टर विरोधी, वैष्णव सम्प्रदाय के घोर विरोधी तथा अन्य धर्मों के मतावलंबियों को भी किसी न किसी रूप में श्रीरामचरितमानस की प्रशंसा करते हुए देखा जा सकता है।यही सहज या स्वाभाविक बैर का त्याग करना है।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


सुनीता असीम आगरा

चोट लगती है मुहब्बत में किसी दिल को जो।
आशिकी के ऐसे अंजाम पे रोना आया।
***
रोज बढ़ती ही रही सिर्फ ये महंगाई है।
चीजों के बढ़ते रहे दाम पे रोना आया।
***
रोशनी सबको नहीं जो दे सके दुनिया में।
उस सितारों से भरे बाम पे रोना आया।
***
आपने कर्म किए थे ऐसे दुनिया में आ।
आपके नाम ए बदनाम पे रोना आया।
***
बस बुराई की सभी की ही जमाने में तुमने।
हर तुम्हारे जो किए काम पे रोना आया।
***
सुनीता असीम
2/3/2020


संजय जैन (मुम्बई)

*भूल जाते है....*
विधा : कविता


किस बात पर गम करे,
और किस बात पर हँसे।
इंसान की सोच है तो,
कुछ तो वो करेगा ही।
वैसे ज्यादातर लोग तो,
जख्मो पर नमक लगाएंगे ।
और उसके एहसानों को, 
अच्छे दिनों में भूल जाएंगे।।


इंसान की फिदरत होती है

जो बुरे वक्त में,
साथ देने वाले होते है।
उन्हें अक्सर भूल जाते है।
और अपने फायदे के लिए,
दुश्मनों को गले लगाते है।
और अपनों का दिल,
वो जरूर दुखाते है।।


इस तरह से कितने लूट गये, 
अपनो के हाथों से।
और कितने अभी, 
लूटने को बाकी है।
जो उनका नहीं हुआ,
जिन्होंने उसे बचाया था।
उसकी डूबती हुई नैया को,
किनारे लगवाया था।
अब कलयुग का जमाना है,
इंसान ही इंसान को खाता है।।


 जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
02/03/2020


प्रवीण शर्मा ताल*

*विषय -तन्द्रा*


*मालवी रचना*


मु तो हवेरा -हवेरा तन्द्रा खोली,
 देखन तावड़ो की भर भर आई झोली।


तन्द्रा खोली न मुंडो कण्णी को देख्यो
हामे जो पेला वण्णी को मुंडो देख्यो।


तावड़ो देखिन आँगन में कुकड़ो बोल्यो
गली- गली में हगरा की तंद्रा खोल्यो।


आँगन में धमक सी कई  हुन्यो कि
 कोई आयो अखबार जोर ती नाक्यो।


एक -एक पन्ना पर तन्द्रा फेरीन,
अखबार उठाईन  खबरा वाच्यो।


फटाफट वाचता -वाचता खबरा,
मारी लुगाईन ने  गर्म चा लादी,


थोड़ी देर में कई देख्यो कि कोई
हाटा फूटा वारो आवाज लगा दी।


मारी तन्द्रा देखिन वण्णी की ओर
ध्यान में मगन- मगन ती सुहादी.।



*😁✒प्रवीण शर्मा ताल*


 


 


देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"

..............कविता(रचना)...............


कविता नहीं है सिर्फ शब्दों का खेल।
अच्छी रचना है भावनाओं का मेल।।


सही   रचना   वही   कर   सकते  हैं;
जो आगे बढ़ते परेशानियों को झेल।।


रचनाओं में पैदा,  दर्द तब  हो पाता ;
जब अनुभव हो परिस्थिति के जेल।।


जो  रचनाएं  पाठकों  को भा  जाए ;
उन्हें लोकप्रिय बना  देते हैं  वे ठेल।।


कुछ रचनाएं होते हैं स्वांतः सुखाय ;
कुछ भक्ति,देशभक्ति देते हैं उड़ेल।।


कल की रचना आज के लिए दर्पण;
आज की रचना कल के लिए बेल।।


रचना में जो गहरे डूबा है "आनंद" ;
अब अच्छा नहीं लगता कोई खेल।।


-----देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"


एस के कपूर श्री* *हंस।बरेली।*

*कम न हो महक रिश्तों की।*
*मुक्तक।*


रिश्ते चंदन से बने चाहे
टुकड़े    रहे      हज़ार।


महक कम न हो इनकी
ये  भरी   रहे घर द्वार।।


दिल से दिल का लगाव
हो  मन  से   मन    का।


हो दुःख सुख  कैसा भी
दुआयों का रहे अम्बार।।


*रचयिता।एस के कपूर श्री*
*हंस।बरेली।*
मो 9897071046
    8218685464


।एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली।

*होली के रंग(हाइकु)*


होली के रंग
राग  द्वेष  मिटे  ये
गुजिया संग


रंग गुलाल 
सब कुछ धो डाले
मन मलाल


होली दहन
नफरत जला दे
साफ जहन


रंग बरसे
आसमान रंगीन
मन हरषे


रंग चिपटे
लाल नीले पीले ये
गले लिपटे


घृणा दीवार
भरभरा   गिरे ये
गिले हज़ार


सब रंग लो
तन मन दोंनों ही
प्रेम भर लो


होली का पर्व
हर आदमी खेले
भारत  गर्व


*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली।*
मो 9897071046
     8218685464


एस के कपूर "श्री* *हंस"।बरेली।

*बस प्रीत की रीत हो।*
*मुक्तक।*


न ही किसी की  हार और
नहीं किसी की जीत हो।


बस हर दिल में  बसी एक
दूजे   के  लिए  प्रीत  हो।।


सद्भावना,  स्नेह, प्रेम  की
रस धार बहे  हर  दिल  में।


स्वर्ग  सी  इस   दुनिया  में
बस यही एक ही  रीत हो।।


*रचयिता। एस के कपूर "श्री*
*हंस"।बरेली।*
मो  9897071046
      8218685464


एस के कपूर श्री* *हंस।।बरेली।।

*क्यों नफरत के रास्ते जा है आदमी।*
*।।।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।।।।।*


बाग को  तो अब    बागवान 
ही     खा     रहा    है।


क्यों   आदमी    जिंदगी    में
नफरत   ला    रहा  है।।


अपनी   करनी    से  ही   तो
बनती जिंदगी स्वर्ग नर्क।


जाना था प्रेम की गली  जाने
कौन   राह   जा  रहा है।।


*रचयिता।।।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।बरेली।।।।।।।।।।।।।*


मोब  9897071046।।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।


राजेंद्र रायपुरी

👨‍👧‍👧👨‍👧‍👧   एक गीत   👨‍👦‍👦👨‍👦‍👦


   (होरी आवन को है सखी री)


होरी आवन को है सखी री, 
                  आए नहीं बलमुआ मोरे।
डर लागे ये गाल गुलाबी, 
                   रह जाएं मत कोरे कोरे।


रंग न भाए कोई मोहें, 
            बिन साजन के मान सखी री।
सच कहती हूॅ॑ अपने जैसे, 
           तू मुझको मत जाना सखी री।
नींद आज- कल खुल जाती है,
              आधी रात, बिहिनिया भोरे।
होरी आवन को है सखी री, 
                  आए नहीं बलमुआ भोरे।


कैसे उनसे बात करूॅ॑ मैं,
                 कहते उनसे बात डरूॅ॑ मैं।
सरहद पर वो आज खड़े हैं,
            क्यों मन में कुछ पीर भरूॅ॑ मैं।
मन में संशय रोज़ अनेकों, 
                   मार रहे हैं सखी हिलोरे।
होरी आवन को  है सखी री, 
                  आए नहीं बलमुआ मोरे।


मन में अगर उमॅ॑ग नहीं तो,
            फिर क्या होरी बोल सखी री।
पियवा जब है संग नहीं तो, 
            फिर क्या होरी बोल सखी री।
बंद किवाड़ रखूॅ॑गी मैं तो, 
               आ मत जाएॅ॑ गाॅ॑व के छोरे।
होरी आवन को है सखी री, 
                  आए नहीं बलमुआ मोरे।


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

श्रीराधे कृष्ण की परमज्योति
मेरे हृदय समाय रही है
वह बन करके जीवन सुरभि
हिय चमन महका रही है


आनन्द कन्द गिरिधर गोविन्द
तुम्ही हो राह जिन्दगी की
तुम्हारी कृपा से कृतार्थ हुआ
अब परवाह न बन्दगी की


करुणाधार की करुणा सदा ही
आप्लावित मुझे करती रहे
सत्य की अभिव्यक्ति नारायण
राधे कृष्ण ही जपती रहे।


जय जय श्रीराधे कृष्णा🌹🌹🌹🌹🌹🙏🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


 


 


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
      *" मंगल"*
"मंगलमय हो जीवन सारा,
प्रभु का मिलता-
जो पग पग सहारा।
अपनत्व की धरती पर साथी,
साथी-साथी-
साथी अपनो से ही हारा।
स्वार्थ की धरती पर साथी,
कब- तक संग चलता-
मन से वो भी हारा।
बिन प्रभु कृपा में साथी,
मिलता नहीं कुछ भी-
कैसे- होगा मंगल तुम्हारा?
सत्य-पथ पर चलकर ही,
मिलता सच्चा साथी-
बनता जीवन का सहारा।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः          सुनील कुमार गुप्ता


कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड

नव संकल्प ले
************
नये - नये  संकल्प लें
नई - नई आशाये,
नये स्वप्न हम रोज बुन चलें,
नई -नई धारायें।


यह जीवन केवल,
अपने लिए नहीं है,
अपना यह जीवन
देश सेवा के लिए भी हो।


स्वार्थ का त्याग करें,
अर्पित कर दें हम,
राष्ट्र को अपना तन-मन,
तभी है जीवन सुखमय।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


अखण्ड प्रकाश कानपुर

आखर आखर जोड़ कर 
शब्द हुए साकार|
अनुपम रचना लिख रहे,
हिन्दी रचनाकार||
हिन्दी रचनाकार,
भरें भावों का चन्दन|
पढ़ते सुनते झूम उठे,
लोगो के तन मन||
कह अखण्ड है छन्द बन्द,
कविता का सागर|
बूँद बूँद कल्लोल कर रहे,
आखर आखर||


प्रखर दीक्षित

(कन्नौजी रसरंग)


*हो री होरी*


*होरी में अवसर तकें , कुछ रसिया मुँहजोर।*
*नौनी अंगना भीड़ में ढूँढें रस की पोर।।*
*    *    *
रंग घोर घेलना चौक धरो, हाय अबीर गुलाल भरे झोरी।
रंग डारी करी सरबोर सखी, सखि राह के बीच करै बरजोरी।।
कंचुकि लंहगा चुनरी टपटप, करे गाल गुलाल भई फचफच,
मग आंगन गैल अटा घेरी, हुरियारे कहैं  भौजी होरी।।



रतनारे नयन काजर आंजो मुरकीं अलकैं कच श्याम बरन।
मुसकानि अधर नथ मोती दपै कटि तिलरी कंगन की खनखन।।
इत निकसी पनघट कौं तिय हा!तकि मारी धार रंगी मोहन ,
तुम छैल सताओ न नार नवल काय डोलौ रंग भरि    घरन घरन।।


 


कजरारे नयन उरझी अलकैं लब सुरुचि महावर पांयन में।
मनमोहनि छबि वपु गौर बरन मिसरी सी घुरै लय गायन में।।
सखि पंक गलिन बगिरो बगिरो अंधियारी निशा बिजुरी कौंधै 
किमि जाइए श्याम बुलावैं भटू हाय आग लगे जा साउन में।।


श्याम कुँवर भारती (राजभर) गीतकार /कवि /लेखक  ढोरी ,बोकारो ,झारखंड 

जोगिरा 
केवन देश मे जनम लिए घनश्याम |
केवन देश मे जनम लिए राम भगवान |
जोगिरा सारा रा रा रा रा |
गोकुला मे जनम लिए घनश्याम |
अयोध्या नगरी जनम लिए राम भगवान |
जोगिरा सारा रा रा रा रा |


केवन देश के नेता गरजे करे ऐलान |
थर थर काँपे दुशमन बचावे आपण जान | 
जोगिरा सारा रा रा रा रा |
भारत देश के नेता गरजे करे ऐलान |
पड़ोसी देश के दुश्मन बचावे आपन जान |
जोगिरा सारा रा रा रा रा |


केवन देश के झण्डा फहरे ऊंचा आसमान |
केतना रंग मे रंगल देशवा करे गुमान |
जोगिरा सारा रा रा रा रा |
हिन्द देश के झण्डा फहरे ऊंचा आसमान |
तीन रंग मे रंगल तिरंगा देशवा करे गुमान |
जोगिरा सारा रा रा रा रा |


श्याम कुँवर भारती (राजभर)
गीतकार /कवि /लेखक 
ढोरी ,बोकारो ,झारखंड 
मोब -9955509286


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"माता का मान बढ़ाना"*
      (कुकुभ छंद गीत)
""""""""""""""""""""""""""""""""""""'"'""""
विधान- 16 - 14 पर यति के साथ प्रतिपद 30 मात्रा, पदांत $$, युगल पद तुकांतता।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
¶सेवा करते सत्कर्मों से, माता का मान बढ़ाना।
जन्म जहाँ पर तुमने पाया, उस माटी पर मिट जाना।।
न्योछावर कर जीवन अपना, तुम वीर-प्रसूत कहाना।
जन्म जहाँ पर तुमने पाया, उस माटी पर मिट जाना।।


¶क्रन्दन करती-मातु बिलखती, अपनी ही संतानों से।
शर्मिंदा है भारत माता, उत्छृंखल-मनमानों से।।
अब तो सीधा राह चलो रे, मानव का धरम निभाना।
जन्म जहाँ पर तुमने पाया, उस माटी पर मिट जाना।।


¶मोह बहुत निज जीवन से है, पर पर-प्राणों का प्यासा।
करनी पर अति गर्व न करना, देर नहीं पलटत पासा।।
तम क्यों घिरता है नैनों में, हो जब-जब प्राण-लुटाना।
जन्म जहाँ पर तुमने पाया, उस माटी पर मिट जाना।।


¶लुटती लाज यहाँ जब-जब है, हा! मानवता रोती है।
देख दशा को दया न आती, नैन-झरे नित मोती है।।
सोच तनिक तो कभी कुकर्मी, निज करनी पर शर्माना।
जन्म जहाँ पर तुमने पाया, उस माटी पर मिट जाना।।
¶तत्पर सीमा की रक्षा को, सैनिक जैसे होते हैं।
काँपे कपटी-कुटिल-कुचाली, रिपु-गण रण में रोते हैं।
"नायक" अर्पण शीश करे जो, सीख वही तुम अपनाना।
जन्म जहाँ पर तुमने पाया, उस माटी पर मिट जाना।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
"""""""'"'""""""""""""""""""""""""""""""""""


नूतन लाल साहू

बचत का तरीका
मैंने अपने,पत्नी से कहा
पैसे बचाने की आदत
अच्छी है, डियर
पुरानी साड़ी को फाड़कर
सीती हो,मेरा अंडर वियर
मेरा कुर्ता भी, अपनी
रेशमी साड़ी से,निकाल दो
साड़ी के किनारी,वाला हिस्सा को
आस्तीन और गले पर, डाल दो
साड़ी चल चुकी हैं,दस साल
कुर्ते भी कुछ साल,चल जाएंगे
बचत का ये तरीका है आसान
एक दिन बात की बात में
बात बढ़ गई
मेरी घरवाली,हमसे ही लड़ गई
वो बोली, जो कमा कर खिलाते हो
सभी खिलाते हैं
तुमने आदमी,नहीं देखे है ऐसे
झूले में झुलाते है
मैंने भी कहा
उनके घर,जाकर देखना
पति के लिए झगड़ा नहीं
आरती सजाते हैं
उस दिन,खाना नहीं बना
मैंने कहा,चलो एक दिन का
खाने का खर्चा,बच गया
पर ये तरीका,आप मत अपनाना
क्योंकि बचत का ये अंदाज
है सबसे बड़ा,खतरनाक
मैंने कहा,माना कि मै बाप हूं
तुम भी तो, मां हो
बच्चो के जिम्मेदार
तुम भी तो,हाफ हो
बच्चे हो गये,आठ आठ
अभी एक रुपया किलो में
चावल मिल रहा है
बिहान योजना से
जिन्दगी चल रहा है
जिस दिन होगी,अधिक तंगी
पुराना पेटीकोट
जो तुम कमर में बांधती हो
मै गले में,बांध लूंगा
सारा तन,उसी में ढांक लूंगा
इससे बढ़कर बचत का और
क्या हो सकता है,अलौकिक उपाय
बचत का ये तरीका है,सबसे आसान
नूतन लाल साहू


 


 


मधु शंखधर स्वतंत्र प्रयागराज

*कुण्डलियां छंद*


कैसे दिल्ली जल रही, किसका है यह काम।
जाति धर्म के नाम पर,कब तक ये संग्राम।
कब तक ये संग्राम, बताएगा भी कोई।
बढ़े सियासतदार, वहीं बस जनता रोई।
*मधु* कहती यह बात, करोगे कब तक ऐसे?
नेह बने जल धार, जले तब दिल्ली कैसे।। 
*©मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*


अभिलाषा देेेशपांडे मुंबई

विषय-पिता
शिर्षक- फर्ज
पापा हर फर्ज निभाते हैं, 
जीवनभर कर्ज चुकाते हैं!
बच्चे के एक खुशी के लिये
अपने सुख भूल जाते हैं!
फिर क्यों ऐसे पापा के लिये
बच्चे कुछ करही नहीं पाते!
ऐसे सच्चे पापा को  क्यों,
पापा कहने भी सकुचते!
पापा का आशिष बनाता हैं,
बच्चे का जीवन सुखदाई,
पर बच्चे भूल ही जाते हैं, 
यह कैसी आँधी हैं आई!
जिससे सब कुछ पाया हैं,
जिसने सबकुछ सिखलाया हैं!
कोटि नमन ऐसे पापा को ,
जो हरपल साथ निभाया हैं!
प्यारे पापा के प्यार भरे, 
सीनेसे जो लग जाते हैं!
सच कहती हूँ विश्वास करो, 
जीवन में सदा सुख पाते हैं!
स्वरचित
अभिलाषा देेेशपांडे मुंबई


 


 


कवि अतिवीर जैन "पराग " मेरठ,उ प्र

सभी को नमन
ग़म :-


जितना ग़म है साथी,
प्यार बढ़ ही जाता है,
ऐसे जीने पे अपने, 
हमको तरस आता है.



मय भी पीता हूँ मैं,
ग़म भी भुला लेता हूँ,
फिर भी बेहोशी का आलम,
तेरे नाम से ही आता है.


तेरा प्यार वादा है क्या, क्यों इतना तड्फाता है? जितना ग़म है साथी,
प्यार बढ़ ही जाता है.


कवि अतिवीर जैन
"पराग "
मेरठ,उ प्र


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