सुरेंद्र सैनी बवानीवाल  झज्जर, (हरियाणा )

इश्तहार की तरह.... 



सुबह होते ही 
मैं सजा लेता हूँ अपने आप को 
अख़बार के इश्तहार की तरह 
दुनियादारी में सबसे हँसके मिलता हूँ 
जबकि कुछ लोग मुझे पसंद नहीं 
बाज़ार के रंगों में रंग जाता हूँ 
और खुद को कहीं खो देता हूँ 
इश्तहार हूँ इसलिए 
हर किसी की नज़र में हूँ. 
चलो अच्छा है "उड़ता "
इस इश्तहार में सबके लिए कुछ छपा है. 



द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल 
झज्जर, (हरियाणा )


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल        झज्जर (हरियाणा )

बड़ा मोहल्ला... 


सदियों से रह रहे 
यहीं इसी मकान में 
एक छोटा सा 
बड़ी इमारतों के बीच 
शहर का कोई पाश इलाका 
या फिर एक बड़ा मोहल्ला 
यहाँ पाए सभी सम्बन्ध 
जो छूट रहे हैं 
भौतिकता की दौड़ में 
धीरे -धीरे बिखर रहे हैं 
कभी अपने रूठ रहे हैं 
कुछ सपने झूठ रहे हैं 
भूलते जा रहे 
जीवन के सभी अनुबंध 
सिमटते जा रहे हैं हम. 
हम -तुम वहीं रहे
इसी मकान में "उड़ता "
ये मोहल्ला शायद और बड़ा हो गया. 


✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल        झज्जर (हरियाणा )

कुछ सवाल एैसे ही.... 


क्यों हर बार कोई सवाल,  
ज़हन में क्रोंध जाता है. 
और मैं सोचने पर मज़बूर हो जाता हूँ. 


क्यों हम उम्मीद लगाते हैं, 
इस भरी पूरी दुनियादारी से. 
लोग जबकि धत्ता बताकर, 
निकल जाते हैं करीब से. 


सपनों की कुंद ज़ुबान, 
जिसे केवल हम समझ पाते हैं. 
क्यों दूसरों के लिए 
बेमानी हो जाती है, 
क्यों नहीं देख पाता कोई, 
हमारी आँखों के भित्तिचित्र. 


कुछ सवाल आँखों में 
ला देते हैं सूनापन. 
और महसूस हो जाता है, 
 अपना छोटा कद. 
जो की मुकम्मल नहीं 
इस भागती ज़िन्दगी में. 


सवालों का पिटारा लिए "उड़ता ", 
इधर से उधर भागते लोग. 


✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल 
      झज्जर (हरियाणा )


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मेरे जीवन में रंग भरने वाले
माधव तुमको नमन मेरा
मेरे मन की अंतर्ज्योति तुम 
बार बार प्रभु वन्दन तेरा
कृष्णा बना कृपा पात्र मैं तेरा
धरा लोक को मैंने पाया
भूल न जाऊँ तुमको मैं स्वामी
तुमसे अस्तित्व में आया
हे सर्वेश्वर हे मुरली मनोहर
मोह बंधन मुझे न बांधें
तेरा ही बल पाकर जगदीश्वर
सत्य ने सब रिश्ते साधे।


जय श्रीराधे कृष्ण🌸🌸🌸🌸🌹🌹🌹🌹🙏🙏🙏🙏
सत्यप्रकाश पाण्डेय


एस के कपूर श्री* *हंस।।।।।।।बरेली

*चुनौतियाँ ही जीवन है।।।।।*
*।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।।*


मुश्किलों  से घबरा   कर जीना 
कोई     जीना         नहीं      है।


हर  वक़्त  ग़मों का  घूँट    पीना  
जीने   का    करीना   नहीं    है।।


जिसने   छोड़  दी उम्मीद  मानो  
जीते   जी     ही      मर    गया।


बिना संघर्ष  के पाता  सफलता 
का  कोई       नगीना  नहीं   है।।


*रचयिता।।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।।बरेली।।।।।।।।।।*


मोब 9897071046।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।


एस के कपूर श्री* *हंस।बरेली।

*तेरी कहानी हमेशा जिंदा रहे।*
*मुक्तक*


हमेशा जोशो जनून खून 
में  रवानी   जिंदा     रहे।


हर  मुश्किल में  भी  तेरी
जिंदगानी     जिंदा   रहे।।


कम न हो तेरी आँखों की
चमक दुखों के  साये  में।


करो कुछ यूँ कि   मर कर
भी तेरी कहानी जिंदा रहे।।


*रचयिता।एस के कपूर श्री*
*हंस।बरेली।*
मो  9897071046
      8218685464


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली।*

*बहुत छोटी सी तेरी जिंदगानी है।*
*मुक्तक*


बचपन,   जवानी,   बुढ़ापा
फिर खत्म कहानी है।


मुट्ठी की रेत   की तरह  बस
यूँ   ही  बीत जानी है।।


देख ले   यूँ ही   जाया  न हो 
धरती पर  तेरा  जीवन।


याद रहे कि  बहुत  छोटी  सी
तेरी     जिंदगानी   है।।


*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली।*
मो  9897071046
     8218685464


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
    *" कौन- आया"*
"कौन -आया जीवन में,
इतनी खुशियाँ लेकर-
पहचान न पाया उसको।
साथी साथी था अपना,
संग चलने से उसे-
रोक न पाया उसको।


सोचता रहा जीवन में,
मिल कर न बिछुडे-
खो न दूँ जीवन मे उसको।
कौन -आया जीवन में,
हरता रहा मन का चैन-
क्यों-पहचान न पाया उसको?
मन में छाई कटुता हर ले,
दे सुख ही जीवन में-
कौन -आया पहचान ले उसको?"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः         सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

पीयूष पर्व  छंद पर एक रचना - -


हे विधाता हाय  तूने  क्या  किया।
 खून से आॅ॑चल धरा का भर दिया।
   पूछती  माॅ॑  भारती  तुझसे   यही।
  किस जनम का आज है बदला लिया।


फिर न ऐसे दिन  दिखाना  हे प्रभो।
  लाश  ऐसे  मत  बिछाना  हे  प्रभो।
    काॅ॑पती   है   रूह   मंज़र  देखकर,
      जल गया सब का ठिकाना हे प्रभो।


दोष जिनका था नहीं मारे गए।
  पूत  मां  के  देख  ले प्यारे गए।
     द्वेष की आॅ॑धी  चली  ऐसी यहाॅ॑,
       राम  या  रहमान  हों  सारे गए।


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

होली
भक्त प्रहलाद की बात को छोड़
नरसिंग अवतार की याद को छोड़
चाहे भिगो लो,सारे कपड़े
चाहे भिगो लो,किसी का अंग
जब तक प्रभु भक्ति से
दिल नहीं भीगे,सारे रंग है कम
कोई बजावे,झांझ मंजीरा
कोई बजावे, नगाड़ा
कवि खेले कविता के होली
भक्ति के रंग में रंग जाना है
रंग गुलाल पिचकारी से
होली खेलना तो, एक बहाना है
जब तक प्रभु भक्ति से
दिल नहीं भीगे,सारे रंग हे कम
अब ये त्योहार,पीने का बहाना है
दरुहा के ऊपर,दारू चढ़ा होता है
हर रंग में,भंग मिला होता है
सिधवा होली खेलने से डरता है
इसलिए खोली में ही रहता है
चाहे कोई रंग डाले,चाहे कोई भंग डाले
जब तक प्रभु भक्ति से
दिल नहीं भीगे,सारे रंग हे कम
मै तो कहता हूं कि कलिया बन जाओ
फूल बन तुम मुस्कुराओ
मधुर मधुर,मस्त मस्त
होली गीत,तुम सुनाओ
जैसे नाचे थे,श्याम संग भानु दुलारी
फगुआ की फाग,बन जाओ तुम
भक्त प्रहलाद की बात को छोड़
नरसिंग अवतार की याद को छोड़
चाहे भिगो लो सारे कपड़े
चाहे भिगो लो किसी का अंग
जब तक प्रभु भक्ति से
दिल नहीं भीगे,सारे रंग हे कम
नूतन लाल साहू


 


मधु शंखधर स्वतंत्र* *प्रयागराज

*मधु के मधुमय मुक्तक*
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷


दर्द उसे होगा अधिक,जिसके मन में प्यार।
दर्द जगे अनुभूति से, जब मिल जाए हार।
रिश्ते सारे झूठ से, करना यह महसूस,
सच्चा रिश्ता बस वही, जिसमें प्यार अपार।।


रिश्ते सजते नेह से, सहज ह्रदय आभास।
दर्द मीत का जान ले,वह ही होता खास।
करे प्रीत की रीत में, बातें सब स्वीकार,
प्रीत वही जो मीत का, दर्द करे अहसास।।


दूजे- अपने एक से, ऐसा हो जब भाव।
दर्द सभी महसूस यूँ, ज्यूँ निज का ही घाव।
देश बने समृद्ध वो, जिसका यह इतिहास,
मधु जीवन की कल्पना,सबसे रहे लगाव।।
*©मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*
*04.03.2020*
🌹🌹 *सुप्रभातम्*🌹🌹


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग

*"जो तू चाहे तो"* (ताटंक छंद गीत)
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
विधान- १६+१४=३० मात्रा प्रतिपद, पदांत SSS, युगल पद तुकांतता।
""""""""""""""""""""'""""'""""""'"''"'"""""""
●क्यों न भला मानव बन सकता, बनना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।
क्यों न स्वर्ण कुंदन बन सकता, तपना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।


●जग के नभ में पतंग डोले, ऊपर उड़ती ही जाए।
पल-पल यह जीवन मर्मों का, भेद खोलती ही जाए।।
क्यों न साधना सध सकती है, सधना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।


●आचंभित क्यों होता है तू, अपनी हर करनी से ही।
प्रारब्ध बनाता मानव है, करनी की भरनी से ही।।
क्यों न कभी खुशियाँ ला सकता, लाना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।


●अगस्त बन सिंधु सोख लेगा, अगर सोखना चाहेगा।
उमंग साहस युत कोई क्यों, भला रोकना चाहेगा??
क्यों न कभी किस्मत गढ़ सकता, गढ़ना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।


●संकल्प-शिला पर पग अपना, दृढ़ हो जब रख लेगा तू।
साहस-संबल-समीकरण से, सपना निज पा लेगा तू।।
क्यों न कभी मंजिल पा सकता, पाना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।


●'नहीं' नहीं है शब्द मनुज के, सुन शब्द-कोश में कोई।
स्तब्ध करे करनी मानव की, धुन साथ होश में कोई।।
क्यों न कभी 'नायक' बन सकता, बनना जो तू चाहे तो।
क्यों न कर्म भावन कर सकता, करना जो तू चाहे तो।।
""""""""""""""""'"'"""""""'""""""""""""""""""
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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जसवीर हलधर -9897346173

ग़ज़ल (हिंदी )
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दीप की लौ है अधूरी तम उसे भरमा रहा है ।
सूर्य के हस्ताक्षरों पर धुंध कुहरा छा रहा है ।


हर सुबह तेजाब डूबी रक्त रंजित शाम देखो ,
बागबां देखो चमन से अधखिले गुल खा रहा है।


मज़हबी आलेख अंकित है यहां सब चैनलों में ,
सुर्ख है अखबार सारे कौन लिखकर ला रहा है ।


देवता मूर्छित हुए  अब  मूक है सब प्रर्थनाएँ ,
शोकपत्रों पर विजय के गीत कोई गा रहा है ।


किस समय में जी रहे हम कौन है इसका रचियता ,
कौन अक्षत थाल, रोली ,पुष्प ,को ठुकरा रहा है ।


लोग अंधे हो रहे हैं मजहबी चश्मा पहनकर ,
 मस्जिदों में कौन है जो कौम को भटका रहा है ।


अब यहां गांधी नहीं जो शांति का पैगाम लाये ,
कौन है जो देश को इस नाम  से फुसला रहा है ।


नागरिक समता हमारे राष्ट्र का आधार है तो ,
 कौन इसकी राह में रोड़े यहाँ अटका रहा है ।।


नागरिक कानून को जो तूल इतनी दे रहा है ,
घाव पर मरहम उसे "हलधर"नहीं क्यों भा रहा है ।


             हलधर -9897346173


डा0विद्यासागर मिश्र  सीतापुर/लखनऊ उ0प्र0

माँ


अवधी छन्द
महतारी पियारु करे हमका,
दिन रात हमें कनिया मा खेलावैं।
नह्वावैं धोवावैं सुबेरे हमें,
अरु लोरी सुनाके हमें बह्लावैं।
जब भूख लगे हमका कबहू,
महतारी हमै भरि पेट खवावैं।
नजराये कही मेरा लाल नहीं,
अंचरा मा छुपाय कै दूध पियावैं।।
रचनाकार
डा0विद्यासागर मिश्र 
सीतापुर/लखनऊ
उ0प्र0


कुमार कारनिक  (छाल, रायगढ़, छग)  


  *हाथी से परेशान*
   मनहरण घनाक्षरी
   ----------------------
हाथियों    से   परेशान,
है    फसल    नुकसान,
होते    सब   हलाकान,
         फसल बचाईये।
0
जंगल   से  आते  गांव,
चुपके   से   दबे   पांव,
दशहत  मे   है    जान,
        जिंदगी बचाईये।
0
नित   पेड़   कट   रहा,
वन   नही    बच   रहा,
वो जाएं तो जाएं कहां,
         जंगल बचाईये।
0
अभ्यारण्य  बनाना  है,
पशुओं  को  बचाना है,
वनों  से  है  जिनगानी,
     स्वयं को जगाईये।



■छग के वन ग्रामों में 
हाथियों  का  दशहत है,
इस    समस्याओं    को 
 उकेरने    की   कोशिश 
किया है।■
                    *****


कुमार कारनिक
 (छाल, रायगढ़, छग)  


वसंत जमशेदपुरी

कुछ मोती कुछ कंकड़-पत्थर


मैं झोली में ले कर आया
कुछ मोती कुछ कंकड़-पत्थर
तुमको यदि स्वीकार नहीं तो
और नहीं कुछ इससे बेहतर |


मैंने वचन दिया था तुमको
गीत तुम्हारे नाम लिखूँगा
जब-जब उगता सूरज देखूँ
दिलबर तुम्हें सलाम लिखूँगा
इसी लिए निकले हैं कैसे
गीत मेरे देखो सज-धज कर |


गीत तुम्हारे अधरों के हैं
गीत तुम्हारे हैं कपोल पर
कटिचुंबी केशों पर मैंने
गीत लिखे मीठे सुबोल पर 
गीत लिखे दिन के उजास में
गीत लिखे रातों में जग कर |


मृदु भावों के शब्द-सुमन ले
हार बनाया है गीतों का
और तुम्हारी ही सुधियों से
द्वार सजाया है गीतों का
होगा अति उपकार तुम्हारा
स्वीकारो यदि आगे बढ़ कर |


मैं झोली में ले कर आया
कुछ मोती कुछ कंकड़-पत्थर
तुमको यदि स्वीकार नहीं तो
और नहीं कुछ इससे बेहतर |
-वसंत जमशेदपुरी


सुनील चौरसिया 'सावन',    प्रवक्ता, केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली,     अरुणाचल प्रदेश

 


कविता-
ज़िन्दगी इक नदी...


जिंदगी इक नदी है
 अनवरत प्रवाह
 किए बिना परवाह
 आगे बढ़ते ही जाना 
वापस कभी ना आना 
'सावन' समय के साथ
 कदमताल मिलाना
 धार से अलग हो
 खेतों में जाना
 लोक कल्याण हेतु
 खुद को मिटाना
 यही तो नदी है
 यही जिंदगी है



कहीं है सुखद- शांति 
कहीं अशांति- क्रांति 
कहीं है पारदर्शिता
 तो कहीं भ्रम- भ्रांति 


मन से गुनो
नदी से सुनो-


 मृत्यु की निनाद 
और जीवन का संगीत 
करो फूलों से, शूलों से,
पत्थरों से प्रीत


 वह जीवन है नीरस
 जहां आंसू नहीं 
जहां समस्याएं नहीं 
जहां आलोचक नहीं 


है दुख में ही गति 
है दुख में प्रगति 


सोया है सुख का सागर 
ओढकर दुख का तरंग 
यही है जीवन का रंग


 दुख हो या सुख
 सदा गुनगुनाना 
सदा मुस्कुराना
आगे बढ़ते ही जाना 
यही तो नदी है
 यही जिंदगी है



   सुनील चौरसिया 'सावन',
   प्रवक्ता, केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली, 
   अरुणाचल प्रदेश
   9044974084, 8414015182


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

नारी की महिमा



हे! जगतजननी नारी तुमको मम कोटि प्रणाम हैं।
तुम्हीं से  ही  पुष्पित  पल्लवित  सारे  आयाम  हैं।
इसी    संसार    में    तुम्हारे   उपकार   घनेरे   हैं।
तुमसे  जहाँ  की  शोभा  और  हर  साँझ सवेरे हैं।
हर हारे थकित मनुज को तुम इक हौसला दिलाती।
जो प्यास से हो व्याकुल उसे शीतल वारि  पिलाती।
तुम बिन ये  जीवन  सूना  हर  सुख फ़ीके लगते हैं।
साथ  आपका  हो तो हर  लब्ज  सलीक़े  लगते हैं।
बौने   शब्द  पड़  जाते   कीर्ति  तुम्हारी  कहने  में।
रण  में  भी  संबल  देती  हो   तलवारें   गहने  को।
जब जब जरूरत पड़ी साहस अदम्य दिखलाया हैं।
आँच देश पर न आये सबको सबक  सिखलाया हैं।
हम  ऋणी  आपके  हे  नारी  जीवन  भर  रहते  हैं।
इस सकल विश्व मे सबसे  उत्तम  तुमको  कहते  हैं।
तिमिर  में  चपला  बनती  मृगसिरा  में  पुरवाई  हो।
स्वर  कर्ण  प्रिय  लगते तुम पाणिग्रहण शहनाई हो।


अवनीश त्रिवेदी "अभय


 


कवि अतिवीर जैन पराग, मेरठ

सभी को नमन,


अजीब सनम :-


करती है प्यार भी और नफरत भी,
कभी हँसती औ मुस्कराती है,
कभी बेबात ही रुठ जाती है,
बुन्दा- बादी को बाढ़ बनाती है.
अजीब सनम है मेरी, 
अपनी भी है परायी भी.


कभी पास आने नही देती, 
कभी बिन कहे लिपट जाती है,
चाहती है उससे दूर ना जाऊँ,
पास रहूँ पर पास ना आऊं.
अजीब सनम है मेरी,
अपनी भी है परायी भी.


स्वरचित 
कवि अतिवीर जैन पराग, मेरठ


सुनीता असीम

हमें तो आ रही है बू बगावत की अदावत की।
चली है चारसू कैसी हवा देखो हिकारत की।
***
किया दुख दर्द साझा था सदा जिसने मुहब्बत से।
वो अब तो भेंट चढ़ता जा रहा केवल सियासत की।
***
रहा जो प्यार का सागर बना है खौफ का साया।
उतारा शर्म का पर्दा बना मूरत ज़हालत की।
***
अगर हिम्मत करें इंसान तो लांघे वो पहाड़ों को।
मगर उसने चुनी कब है डगर कोई भी महनत की।
***
बदलता रूप है हैवान अक्सर आदमी का ये।
वो भूला है खुदा की पाक खिदमत को इबादत को।
***
खुदा को भूलकर इंसान बनता जा रहा दानव।
खुदा समझे खुदी को वो जरूरत क्या जियारत की।



***
सुनीता असीम
3/3/2020


रवि रश्मि 'अनुभूति 'मुंबई

 


  ग़ज़ल 
÷÷÷÷÷÷
मिसरा ---
चुभता है दिल में बबूल जैसा 


बह्र ----
121    22    121    22


क़ाफ़िया --- ऊल  ( धूल , फूल , बबूल 
                   आदि ) 
रदीफ़  ----  जैसा 


मिला मुझे वो ही भूल जैसा .....
चुभा है दिल में शूल जैसा .....


हुआ है रोशन दिखा हमें तो .....
मिला हमें वो रसूल जैसा .....


रहें हम जाकर उसी जगह पर .....
मिला जो हमको यह कूल जैसा .....


 रक्षा हितार्थ अड़ा है जो भी .....
उगा है वह तो लो शूल जैसा .....


डरा नहीं वह तूफ़ान में भी .....
रहा खड़ा जो उसूल जैसा .....


लगा चमकता चेहरा भी तो.....
खिला - खिला वो तो फूल जैसा .....


चुभी है किरकिरी आँख ही में .....
उठा गुब्बार भी धूल जैसा .....
*****************************


(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"

........... ख़ुशगवार जन्मदिन ...........


करता  रहा  इंतज़ार , गिनते हुए दिन ।
मुबारक़ हो बहुत , आपको जन्मदिन।।


आपकी  सलामती  की , दुआ है मेरी ;
गुजरे सुख-चैन से,जिंदगी के हरदिन।।


नसीब हो जहां की , हर एक खुशियाँ ;
करता  हूँ  दुआ , ख़ुदा  से हर  दिन  ।।


पूरी  हो  आपकी , हर  एक ख्वाहिशें ;
करता हूँ दिल से , इल्तज़ा  हर  दिन।।


भरमार  हो आपमें , सारे खूबियों की;
बढ़ाएं  प्यार  सबसे ,  दिन-प्रतिदिन।।


लग  जाये आपको ,  बाँकी  उम्र मेरी;
गुज़ारिश  है  मेरी , रब  से हर  दिन ।।


और  क्या  करूँ , बतायें  मुझे  आप ;
"आनंद"की हो बौछार , प्रत्येक दिन।।


-------देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"


 


डा.नीलम अजमेर

*बेकरार*


दिल ग़म से लबरेज था
मगर *बेकरार* न था
था दूर बहुत मुझसे मगर
तू कहीं आसपास ही था


धड़कनें हमारीं थड़कती थीं
इकदूजे के सीने में
जिस्म दो थे मगर 
एक जान थे हम


साँसों में घुलती थीं साँसे हमारीं,चोट कभी लगती थी मुझको, दर्द भरी कराहट 
तुम्हारी होती थी


ना जाने किसकी नज़र लगी
 हमारी मुहब्बत को
निगाह फेर तुमने मेरे
दिल को चाक-चाक किया


छीन कर सारी धड़कनें 
मेरी ,मुझे निःष्प्राण किया
अब साँसों में गुम हो 
कहीं खो गई बेकरारी मेरी।


       डा.नीलम


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली

दिनांकः ०३.०३.२०२०
वारः मंगलवार
विधाः विधा
छंदः  मात्रिक
शीर्षक: लज्जित है संवेदना
न्याय    लचीला   है   यहाँ , लोकतंत्र  है  मीत। 
अन्यायी पातक खली , न्याय  गेह   हो   जीत।।१।।
निर्भय है   कामी   खली , न्याय  गेह   लाचार।
अधिवक्ता धन लोभ में , विरत न्याय   आचार।।२।।
भक्षक  के    रक्षक  बहुत , बनते     पैरोकार।
पाये   कैसे   निर्भया , सबल   न्याय   उपहार।।३।।
भ्रष्ट तंत्र व्यभिचार अब, नित बढ़ता  अपराध।
हो विलम्ब  जब  न्याय में , घूमें  खल  निर्बाध।।४।।
कहाँ  सुरक्षित  बेटियाँ , कहाँ   सुरक्षित   धर्म।
कहाँ त्याग गुण शील अब,कहँ नैतिक सत्कर्म।।५।।
तड़प  रहा  है  न्याय अब , अन्यायी के हाथ।
संविधान की ली शपथ,तज विधान का साथ।।६।।
मत गाओ मनमीत अब, नारी मन  का क्लेश।
लज्जित   है  संवेदना , कहाँ  न्याय  परिवेश।।७।।
दुस्साहस  देखो  नृशंस, माँग प्राण की भीख।
न्याय गेह दिल है सदय,कौन सुने अब चीख।।८।। 
बार  बार  फाँसी टले , बढ़ता  जन आक्रोश।
घटी आस्था न्याय का , पापी  बढ़ता   जोश।।९।।
कवि निकुंज अन्तःकरण,आहत नारी  पीर।
मिले न्याय कब निर्भया , रूके नैन  की नीर।।१०।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

...........जिंदगी में ये कौन आया.............


मेरी  अंधेरी   जिंदगी   में  ये  कौन  आया ।
मेरी  बिगड़ती  जिंदगी  में ये  कौन आया।।


हर  तरफ   से  हो   चुका  था  मैं   निराश ;
मेरी  बहकती  जिंदगी  में ये  कौन आया।।


मेरी कोशिश थी किसी  तरह संवर जाऊं ;
मेरी भटकती  जिंदगी  में ये  कौन आया।।


ज़फा  की  आग  में   जलता  रहा  हूं   मैं ;
मेरी  सुलगती  जिंदगी में ये  कौन आया।।


वफादारी  का अब तक  मिला नहीं सिला;
मेरी  गुजरती  जिंदगी  में ये  कौन आया।।


अब तक नहीं जगी थी उम्मीद की किरण;
मेरी बिलखती जिंदगी  में ये कौन आया।।


अंत समय  में दिखा  है  उम्मीद "आनंद" ;
मेरी  संवरती  जिंदगी  में  ये कौन आया।।


---------- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"


 


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