नारी दिवस 8मार्च के उपलक्ष्य पर
विषय- "नारी"
शीर्षक-"नारी तू महान है"
नारी तू महान है,
दोनों कुल की शान है ।
नारी तू नर की पहचान है,
नारी तू घर की वरदान है ।
तू चाहे तो घरती को जन्नत कर दे,
तू चाहे तो घर को स्वर्ग बना दे ।
तू चाहे तो दुनिया बदल सकती है,
तू चाहे तो नई सृष्टि रच सकती है ।
नारी तू सहन शक्ति की मूरत है,
नारी तू त्याग तपस्या की सूरत है ।
नारी तू समदर्शी हो,
नारी तू भविष्यदर्शी हो ।
कदम पड़ते जहाँ-जहाँ तेरे,
वो तीरथ हो जाते शाम सवेरे।
तुम गंगा हो तुम यमुना हो,
कृष्णा, कावेरी,ताप्ती,शिप्रा और नर्मदा हो।
दुनिया के लिए तुम जरूरी हो,
पर पुरुष बिन तुम सदा अधूरी हो।
"दीनेश"आज तेरी शत-शत वंदना गाये,
नारी की महिमा सारे जग को बताये ।
दिनेश चंद्र प्रसाद "दिनेश" कलकत्ता
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
दिनेश चंद्र प्रसाद "दिनेश" कलकत्ता
अनन्तराम चौबे अनन्त जबलपुर म प्र
जल ही जीवन है
पेड़ पौधे इन्सान सभी का
जल से ही सबका जीवन है ।
पशु पक्षी हो या हो जानवर
जल के बिना नही जीवन है ।
जल के बिना प्यास नहीं बुझती
पानी बिन कोई फसल न ऊगती ।
पेड़ पौधे हर जगह है ऊगते
जल के बिना न जीवित रहते ।
घर में जब कोई मेहमानआता है
पानी देकर ही स्वागत करते हैं ।
मेहमान को पानी मिले न पीने
जाने पर उन घर वालो को कोसते हैं ।
पानी की बूंद की कीमत समझो
चिड़ियाँ पानी बूंद बूंद पीती है
एक एक बूंद पानी पीकर ही
वह अपनी प्यास बुझाती है ।
पानी की कीमत को समझो
वेबजह रोड़ पर नहीं बहाओ ।
जिसको पानी नही मिलता है
कैसे वो प्यास बुझाता है ।
एक समय जब नल नही आते
घर में हाहाकार मच जाता है ।
पानी पीने जब नही मिलता है
पानी का मोल समझ आता है ।
जल से ही सबका जीवन है
जल की कीमत को पहचानों ।
जल के बिना न भोजन बनता है
जल से ही सबका जीवन चलता है ।
अनन्तराम चौबे अनन्त
जबलपुर म प्र
9770499027
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
"मेरी पावन मधुशाला"
साफ-स्वच्छ निर्मल तन-मन जैसा चमक रहा मेरा प्याला,
अति सुरभित अति शुद्ध पावनी वाष्पीकृत सी है हाला,
सदा अपावन को पावन करनेवाला सा साकी है,
सहज पावनी देव-व्यवस्था जैसी मेरी मधुशाला।
अति प्रतिरोधी क्षमता से सम्पन्न सदृश मेरा प्याला,
स्वस्थ प्रवल उर के आँगन में शुद्ध नीर सी है हाला,
अथक शक्तिशाली अभिकर्त्ता जैसा मेरा साकी है,
शक्तिवर्धिनी नित्य बलप्रदा जैसी मेरी पावन मधुशाला।
नहीं व्यथा जिसके जीवन में वह मेरा प्रसन्न प्याला,
हर्षोल्लासों से रचिता है मेरी हर्षरसा हाला,
पुष्प-कांट से ऊपर रहना सीखा है मेरा साकी,
महापर्व की दिनचर्या में नित्य जागती मधुशाला।
सरस रसामृत सदा निरखता रखता है पीनेवाला,
मद-मादकता प्रिय-प्रियता अरु दिव्य-दिव्यता को हाला,
मादक रसमयता का दाता-दानी पावन साकी है,
बनी व्यवस्था मधुमयता की मेरी पावन मधुशाला।
घृणा-द्वेष का परित्याग कर तपा-तपाया है प्याला,
सबकी जिह्वा को आनन्दित करती रहती है हाला,
एक पैर पर उछल-कूद करता रहता मेरा साकी,
आकुल-व्याकुल-सानुकूल हो आना मेरी मधुशाला।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
"मेरी पावन मधुशाला"
ब्राह्मण संस्कृति के प्रतीक सा सदा चमकता है प्याला,
ब्राह्मी आसव जैसी औषधि जीवदायिनी सी हाला,
ब्रह्म सरीखा त्रय-लोकी सम दृश्यमान मेरा साकी,
ब्रह्मलोक से आच्छादित है मेरी पावन मधुशाला।
सत्व धर्म का पालक जैसा अति सात्विक निज का प्याला,
सात्विकता की मादकता से ओत-प्रोत मेरी हाला,
सत्युग धर्म कर्म से भूषित मेरा सतमय साकी है,
सात्विक शाकाहार सदन सी मेरी पावन मधुशाला।
सत्य पंथ के संकेतों को बता रहा मेरा प्याला,
सत्यपन्थ की अति दीवानी है मेरी सच्ची हाला,
सत्यपंथ के स्वयं पथिक सा घूम रहा मेरा साकी,
सच्चाई की निज बाहों में खेल रही है मधुशाला।
सुन्दर मोहक सुखद प्रथा का वाहक है मेरा प्याला,
उपयोगी कल्याणी भावों से निर्मित मेरी हाला,
अमर प्रथा का शास्त्र प्रणेता मेरा अनुपम साकी है,
दिव्य प्रथा की सहज प्रचारक मेरी पावन मधुशाला।
दिनकर बना खड़ा दिखता है मेरा ज्ञान सदृश प्याला,
अति प्रकाश की पुंज सरीखी है आलोकित मम हाला,
बन प्रकाशमान चमकीला थिरक रहा प्रिय साकी है,
बनी सौर -मण्डल -आभा सी चमक रही है मधुशाला।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
"जल रहा है देश"
जल रहा है देश यह क्या हो रहा,
कौन विष की वेलरी को बो रहा?
दल विभाजित कर रहे हैं देश को,
फूँकने को हैं खड़े परिवेश को।
स्वार्थ के मैले वसन को पहन कर,
हिंस्र बन बदनाम करते वेश को।
भूख सत्ता की लगी है जोर से,
चाहते सत्ता पलटना शोर से,
पागलों सा पलटते हर बात को,
घेरते घिर जा रहे चहुँओर से।
अर्थ अरु सम्मान की है भूख इनको सालती,
कामना की कोख इनको पालती,
बेशरम इंसान इनका नाम है,
चाह इनको कुपित मन में ढालती।
कायरों का ही वेश है परिधान है,
अति हताशा बन गयी पहचान है,
जी रहे हैं जिन्दगी खुदगर्ज बन,
मर रहे हर पल पतित इंसान हैं।
राष्ट्र को ही तोड़कर सुख चाहते,
राष्ट्र का की कत्ल करना जानते,
राष्ट्र से इनका नहीं मतलब है कुछ,
राष्ट्र को पीने का मकसद मानते।
मर गयी वैचारिकी सद्भावना,
हो रही अन्याय की ही वन्दना,
खुद रही नफरत की खाईं आज है,
हो रही इंसानियत की निन्दना।
एक केहरि को गिराने के लिये,
एक गौरव को झुकाने के लिये,
संगठित होते यहाँ गीदड़ सभी,
एक सुन्दर छवि मिटाने के लिये।
नीचता की सरहदों को पार कर,
सुन्दरम की भावना को मार कर,
चाह मन में खुद दिखें नित सुन्दरम,
देव का प्रतिकार कर ललकार कर।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
"श्री सरस्वती वंदना"
माँ सरस्वती की कृपा बरसे नित्य अनन्त।
दिव्य भावमय बन बहें माताश्री जिमि सन्त।।
मायामुक्त सहज गरिमा हो।नित्यानन्द परम मगिमा हो।।
लिखने-पढ़ने की प्रेरक हो।क्रियाशील तुम उत्प्रेरक हो।।
कृपदायिनी वृष्टि नित्य कर।सुन्दर सात्विक सृष्टि रचा कर।।
बनो सदा खुशियों का सागर।हे दयालु माँ हे करुणाकर।।
भक्तहृदय की तुम शोभा हो।सकल संपदा की आभा हो।।
ज्ञान समझ चिन्तन पावन हो।विज्ञानी ध्यानी भावन हो।।
सत्यम शिवम सुन्दरम छवि हो।परम प्रकाशमान प्रिय रवि हो।।
गायन विद्या की दाता हो।शुभ गीतामय प्रिय माता हो।।
स्वच्छ दिव्य मन कर दो माता।हंसवाहिनी हे शिव ज्ञाता।।
बने मनुज तेरा ही सेवक। नैया पार करो हे खेवक।।
माँ सरस्वती शारदा का हो नित यशगान।
अद्वितीय माँ ज्ञानदा का ही हो नित ध्यान।।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
डा.नीलम अजमेर
*मैं नारी हूँ*
मैं शिवी,मैं रति,मैं दूर्गा
महाकाली हूँ
मैं वाणी-वाग्देवी,सृष्टा की
सहगामिनी हूँ
महामाया मैं,मैं सावित्री
मैं कल्याणी हूँ
मैं अन्नपूर्णा,मैं कात्यायनी
मैं भवानी हूँ
हाँ मैं नारी हूँ
असूरों की संहारिणी
देवाधिदेवों की जननी,
रक्षादायिनी हूँ मैं
मैं नीर,मैं अगन,मैं
मदमाती पवन हूँ
मैं धरित्री,मैं ही अनंत
शुन्याकाश हूँ
मैं श्रद्धा,मैं कामना,मैं ही
पीयूष हूँ
रचनाकार की अनुपम कृति मैं,मैं जग जननी हूँ
हाँ नारी हूँ मैं
पंचभूत तत्व-निरुपा
प्रकृति की अनुपम
उपमा हूँ मैं
मैं प्रीत की प्रतिरुपिणी
करुणा की प्रतिच्छाया मैं
हर्ष निनादिनी भी मैं हूँ
मैं ही कण-कण व्यापिनी हूँ
दिवस की उजियारी सविता
तारकभरी रजनी हूँ मैं
कलकल नाद करती सरिता
मादक मदभरी मदिरा हूँ
हाँ नारी हूँ मैं
सार तत्व रसधारिणी
मदमस्त ,मनमोहक
महक हूँ मैं
मनु की श्रद्धा मैं हूँ
मैं ही मनु-मानस इड़ा
सम्मोहिता स्वर्णमृग की सीता मैं,मैं ही सतीत्व की प्रतिका हूँ
मैं सृष्टि संचलिका
मैं सहगामिनी हूँ
मैं लास्या नर्तकी
मैं ही संहारिका हूँ
हाँ मैं नारी हूँ
जग से जीती
पर अपनों से
हारी हूँ मैं ।
डा.नीलम
संजय जैन (मुंबई)
अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर मेरा विशेष लेख ।
शीर्षक *नारी जिद्द*
साथियो आज एक ऐसा विषय को लेकर आपके सामने आया हूँ। जिस पर हर इंसान एक दम से वोना हो जाता है। उसे अच्छे बुरे का ज्ञान होते हुए भी वह असहाय सा दिखता है। और ये विषय है नारी की जिद्द ? बड़े बड़े विद्धमान लोग भी इस विषय पर अपनी प्रतिक्रिये देने से कतराते है। क्योकि उन्हें भी नहीं पता की क्या कुछ हो सकता है, इस विषय के सन्दर्भ ?
परन्तु इसका सही उत्तर हमारे मां बाप और घर के बड़े बूढ़े बड़ी ही सरलता से इस समस्या को सुलझा देते है। तभी तो एकल परिवार की प्रथा हमारे हिंदुस्तान में कायम रही। परन्तु समय के साथ लोग पढ़ लिखकर आधुनिकता की आंधी में तो बाहते चले गए। परन्तु व्यवहारिक और सामाजिक ज्ञान को छोड़ते गए, क्योकि ये सब बाते हमारे वर्त्तमान पाठ्यक्रमों में नहीं है। ये सब तो अनुभव और समाज में रहते हुए अनपढ़ लोग भी बहुत ही अच्छे तरीके से सुलझा लेते है। परन्तु आज की पीढ़ी ये सब नहीं सुलझा पाती।और वो पत्नी की हर जिद्द को बिना सोचे समझे पूरी करते रहते है। तो क्या हम ऐसे लोगो को शिक्षित कहेंगे या उन लोगो को जिन्होंने बड़ी बड़ी यूनिवर्सिटी से कोई भी डिग्रियां नहीं ली .......? परन्तु हर समस्या का समाधान उन लोगो के पास होता था।
एक परिवार की ये छोटी सी घटना आप को बताना चाहा रहा हूँ। एक अनपढ़ माँ ने अपने बेटे को उसके बाप का साया सिर पर न होते हुए भी तमाम कष्टों को सहते हुए, पढ़ा लिखाया और इस काबिल उसे बनाया की लोग उसे बहुत ही इज्जत और आदर की नजरो से देखने लगे।बेटे ने भी अपनी माँ को देखते हुए मेहनत लगन से उच्च शिक्षा ग्रहण करके अपनी माँ को समाज और अपने गांव में सम्मान दिलाया। परन्तु इस हँसे परिवार में जब उथल पुथल जब मच गई जब बेटे ने अपनी पसंद की एक उच्च शिक्षित लड़की से शादी का प्रस्ताव मां के सामने रखा, और मां ने अपनी स्वीकृति दे दी और दोनों की शादी हो गई। बेटा अपनी मां को बहुत पूजता था, और हर बात उनसे शेयर करता था, की आज आफिस में क्या कुछ हुआ और मां भी कभी उसे सत्य और असत्य की परिभाषा समझा देती थी ताकि वो कभी गलत दिशा में न भटके। अब जब घर में एक नया सदस्य शामिल हुआ तो उसे भी इस मंत्रिणा में मां ने शामिल होने के लिए बहु को भी कहाँ। परन्तु उच्च शिक्षित बहु को ये सब पसंद नहीं आता था, और वो अपने दूसरे मनोरंजन साधनो में अपने आप को व्यस्त रखती थी। परन्तु मां बेटा अपनी आदत के अनुसार ही रोज चर्चा करते रहे। ये बात बहु को अब चुभने लगी, क्योकि वो इस में शामिल नहीं होती थी। एक दिन घर में खाना खाते समय पत्नी ने एक सवाल पति से किया की मानो की एक नदी में और माँ डूब रहे है, तो तुम किस को पहले बचाओगे ? पति ने इस प्रश्न को हंसी में टाल दिया। परन्तु नारी की जिद्द तो जिद्द होती है न। इस प्रश्न का उसने उत्तर न देने के कारण हँसता खिल खिलाता परिवार में कलह होने लगी। बेटा इस प्रश्न का उत्तर क्या दे ? मां अनपढ़ होते हुए भी बहुत समझदार थी। जबकि उसे तैरना नहीं आता था, परन्तु घर की कलह को मिटने के लिए माँ ने तैराकी ६० साल की उम्र में सीखना शुरू किया और १५ दिनों में सिख गई। बेटा को अब समझ आ गया की मां ने ऐसा क्यों किया ?
पत्नी अपनी जिद्द पर अड़ी हुई थी और बार बार उत्तर देने को कहती अपने पति को। एक दिन पति ने उत्तर दिया तो आप सब सुनकर अचंभित रह जाओगे। बेटे कहा देखो प्रिये जब इस तरह की परस्थिति आएगी तो मां तो तैरकर नदी से निकल जाएगी और मुझे और तुम्हे तैरना नहीं है आता तो तुम्हारा हाल क्या होगा ये तुम ......समझ सकती हो। ये बात सुनकर बहु की जो हालत हुई, उसके बाद उसने कभी भी अपने परिवार में कोई भी ऐसा काम नहीं किया और रोज की बातचीत में अपने को भी शामिल करके अपनी आधुनिकता वाली आदत को बदलकर एक सभ्य और अच्छी पत्नी और बहु का फर्ज अदा किया। दोस्तों इसलिए हमारे ऊपर हमारे बड़े बूढ़ो का हाथ, यदि सर पर रहेगा तो कभी भी परिवार टूट नहीं सकते है। और न ही कभी बिखर सकते है। कहते है न बंद मुट्ठी लाख की और यदि खुल गई तो खाक की। इसलिए हम माँ बाप से अनुरोध करते है की अपने बच्चो में शिक्षा के साथ संस्कार और व्यवाहरिक ज्ञान भी दे। ताकि वो अपने जीवन में कभी भी गलत दिशा में न भटकेंगे।
*अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर सभी महिलाओं को बहुत बहुत बधाई और शुभ कामनाएं।*
करता हूँ नारी को
दिल से प्रणाम।
कितना करती है
निस्वार्थ भाव से।
परिवार की सेवा
और उसका संचालन।
न कोई पैसा
और न कोई छुट्टी।
फिर भी लगी रहती
तन मन धन से सदा।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुंबई)
07/03/2020
एस के कपूर श्री* *हंस।।।।।।।बरेली
*दुआयें प्रभु का मिला वरदान*
*हों जैसे।।।।।मुक्तक।।।।।।।*
दुआयें लेकर चलो कि
बहुत काम देती हैं।
मिट जाती हस्ती फिर भी
दुआयें तमाम देती हैं।।
दुआयें तो मानो प्रभु का
मिला वरदान हों जैसे।
जब लग जाये ठोकर तो
दुआयें थाम देती हैं।।
*रचयिता।।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।।।।बरेली।।।।।।।।*
मोब 9897071046।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।
एस के कपूर श्री* *हंस।।।।।।।बरेली
*स्वर्ग को उतार ला जमीन पर।*
*।।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।*
बस जन्नत की तम्मना नहीं
जिन्दगी में यकीन कर।
हो सबका भला बस इस
बात में ही आमीन कर।।
इक जन्म जो मिला वो प्रभु
की अनमोल देन है।
कर सके तो स्वर्ग को ही तू
उतार ला जमीन पर।।
*रचयिता।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।।बरेली।।।।।।।।।*
मोब 9897071046।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।
सुनील कुमार गुप्ता
कविता:-
*"दस्तूर"*
"दस्तूर ज़माने में सदियों से साथी,
माता-पिता-गुरू की-
सदा करें सेवा भरपूर।
नई सदी के बच्चें तो साथी,
भूल गये ये दस्तूर-
माता-पिता रहते उनसे दूर।
बुढ़ापे में भी होती नहीं सेवा,
घर नहीं उनका कोई-
वृद्धाश्रम में रहने को मज़बूर।
सात्विक भोजन करने का रहा दस्तूर,
भूल गये उसको-
फास्ट फूड खाने को मज़बूर।
मात-पिता-गुरू की सेवा का,
सपना बन गया-
कैसे हो साकार?
दस्तूर ज़माने में सदियों से साथी,
माता-पिता-गुरू की-
सदा सेवा करें भरपूर।।"
ः सुनील कुमार गुप्ता
राजेंद्र रायपुरी
सरसी छंद पर एक रचना --
जीना-मरना हाथ उसी के,
अगर सही है यार।
आए "कोरोना" या कुछ भी,
डरना है बेकार।
जिस दिन जाना है इस जग से,
लाखों करो उपाय।
छोड़ दे पंछी पिंजरे को,
पल एक न रह पाय।
खाना-पीना मौज उड़ाना,
होली के त्यौहार।
सावधान रहना बस थोड़ा,
विनय यही है यार।
रबड़ी खीर मलाई खाओ,
करो मांस का त्याग।
नाचो कूदो मौज मनाओ,
गा-गा कर तुम फाग।
।। राजेंद्र रायपुरी।।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
हे परमज्योति मेरा जीवन आलोकित कर दो
अंधकार मिटे हिय का मुझे प्रकाशित कर दो
भाग्य सृजेता जगभूषण हृदय अलंकृत कर दो
करुणाधार जगदीश प्रभु ज्ञान हृदय में भर दो
साथ न छूटे राधेरानी का न रहों पल बंशी से दूर
वैसे स्वामी साथ रहूँ मैं करते रहना मुझे मजबूर
हे युगलछवि सदा सत्य का तेरे चरणों में स्थान रहे
आँखों में मूरत सुहानी जिव्हा से तेरा गुणगान रहे।
श्री युगलरूपाय नमो नमः🌹🌹🌹🌹🌹🙏🙏🙏🙏🙏
सत्यप्रकाश पाण्डेय
कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
हे मां वीणा धारणी
***************
हे मां शुभ्र वस्त्रधारिणी,
दिव्य दृष्टि निहारिणी,
पवित्रता की मूर्ति हो
हे मां वीणा धारणी।
पाती में वीणा धरै,
तुम कमल विहारिणी,
ज्ञान की देवी हो मां,
हे मां वीणा धारणी।
ज्ञान का वरदान दे,
दया का भाव दे मां,
कुपथ पर कभी न चलूं,
हे मां वीणा धारणी।
देश प्रेम भाव नित्य हो,
सरल सदाचारी बनूं ,
करूणा हृदय में रहे,
हे मां वीणा धारणी।
******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
डा इन्दु झुनझुनवाला जैन
Women's day special,,
हाँ मै औरत हूँ ।
उस-सा अहंकार नही मुझमें,
आत्मसम्मान मन में बसाया है।
हाँ मै औरत हूँ ।
व्यवसायिक बुद्धि नहीं मुझमें ,
पर दिल मैंने भरपूर पाया है।
हाँ मै औरत हूँ ।
दौलत नही कमाई बहुत मैंने ,
पर इज्जत मेरा सरमाया है ।
हाँ मै औरत हूँ ।
हर गल्ती को मुस्कुराके सहा ,
किसी को कभी ना जतलाया है ,
हाँ मै औरत हूँ ।
भूख प्यास की परवाह ना की मैने ,
बडे प्यार से सबको खिलाया है ।
हाँ मै औरत हूँ
मेरा परिवार पराया रहा जिसके लिए ,
उसके परिवार को अपनाया है ।
हाँ मै औरत हूँ ।
मुझे चहार दीवारी दे दी जिसने ,
उसको मैंने ही घर बनाया है।
हाँ मै औरत हूँ ।
हर सुख दुख में साथ दिया मैंने ,
पर कुछ ना कभी जताया है ,
हाँ मै औरत हूँ ।
मेरे गम को ना पहचाना फिरभी ,
मैने भी हँस के उसे छिपाया है।
हाँ मै औरत हूँ ।
प्यार भरे लफ्ज़ को तरसा है मन ,
हर पल प्यार ही बरसाया है।
हाँ मै औरत हूँ ।
भले ही मेरी कद्र करो ना करो ,
मेरा खुद पे खुद का सरमाया है ।
हाँ मै औरत हूँ ।
संवेदनशील हूँ, पर धैर्य बहुत है ,
हर कदम पर उत्साह बढाया है ।
हाँ मै औरत हूँ ।
अब पिंजड़े का बन्द पक्षी नही ,
उडने को पंख फडफडाया है।
हाँ मै औरत हूँ ।
सपनों की उँची उड़ान भरती हूँ ,
कदम ना कभी डगमगाया है।
हाँ मै औरत हूँ ।
"इन्दु" खिलता है आसमां पे अब ,
दो जहाँ देखो जगमगाया है।
हाँ मै औरत हूँ ।
डा इन्दु झुनझुनवाला जैन
रवि रश्मि 'अनुभूति '
उत्प्रेक्षा अलंकार से सज्जित दोहे
÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷
1 )
उजास चेहरे छाया , चमका ज्यों है भाल ।
धवल छा गयी चाँदनी , करती खूब धमाल ।
2 )
फूले फ़सल खड़ी रखो , छवि सुंदर सी धार ।
धानी ओढ़ी चुनरिया , दुल्हन ज्यों है नार ।।
3 )
टेसू खिलते दहकते , लगे लगी ज्यों आग ।
टेसू फूले कह रहे , आया है अब फाग ।।
4 )
चमके धवल चंदनिया , ठंडक लायी साथ ।
हाथ हाथ में ले चले , मानो हो बारात ।।
5 )
विरहन तड़पे साजना , ज्यों तड़पे है मीन ।
तुम तो जाते ओ पिया , लिए सभी सुख छीन ।
(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल झज्जर (हरियाणा )
हर मौसम चेहरा...
हर मौसम मुझे
लगता है एक -एक चेहरों सा
कि सभी का अलग मिज़ाज़ है
कोई चेहरा खिलती धूप सा
कोई चेहरा लाल फागुन सा
किसी चेहरे पर नमक है
कोई चेहरा ख़ुश्क हवा सा
लेकिन हर मौसम कि अपनी एक महत्ता
जैसे कि सभी चेहरों का
अपना एक अलग एहसास.
कोई महकता फूल अमराई सा
कुछ बहता दूर पुरवाई सा
कोई सख़्त बना मौसम.
ये दुनिया भरी है चेहरों से
लेकिन हर चेहरा नहीं भाता
कोई एक होता है अपना सा.
जिसे ताउम्र हम चाहते हैं.
"उड़ता " पसंद करते हैं,
उजले मौसम सा.
✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल
झज्जर (हरियाणा )
अर्चना कटारे
करो ना सही तो कह रहा
बंद करो ये रोना धोना
सनातन परंपरा अपनाओ ना
माँसाहार करोना
देशी भोजन करोना
डिब्बा बंद खाद्य का बहिष्कार
करोना
फास्ट फूड का त्याग करोना
बार हाथ साफ करोना
कहीं भी गंदगी करोना
तुलसी नीम का सेवन करोना
ग्लोय करेला जूस पियो ना
हैड सेक मत करोना
नमस्ते ही करोना
सर्दी कि इलाज जल्दी करोना
इसमे लापरवाही करोना
संक्रमित होने से बचोना
मुँह मे मास्क बाँधोना
धूप मे कपडे सुखाओ ना
धूप का सेवन करोना
भीढ भाड से बचोना
योग रोज करोना
हवन का धुआँ करोना
शुद्ध हिंदू बनोना
करोना को भगाओ ना
ये सभी आपनाओ ना
अर्चना कटारे
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
कुण्डलिया
होली भावति खूब हैं, सबके ह्रदय अपार।
रंग - बिरंगे पर्व की, जचती खूब बहार।
जचती खूब बहार, नेह के रंग लगाए।
अधरन मृदु मुस्काय, दिलों से वैर मिटाए।
कहत 'अभय' कविराय, बनें सबकी हमजोली।
हो सबके प्रति स्नेह, मनाये ऐसे होली।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
एक घनाक्षरी छंद
कभी जिन खेत बड़ी, फसल लहराती थी,
जाने कैसे वही आज, बंजर हो गए हैं।
खुशी मिलती अपार, जिनको थी देखकर,
ग़मगीन वो भी अब, मंजर हो गए हैं।
जो आशीर्वाद देते थे, आज उन हाथों में भी,
पीठ घोपने के खूनी, ख़ंजर हो गए हैं।
जीण क्षीण काया रही, जिनकी हमेशा सुनो,
आज वही मद मस्त, कुंजर हो गए हैं।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
आलोक मित्तल
मुझे ज़िंदगी अब नयी चाहिए ।
मुझे आज हर इक खुशी चाहिए।
सभी से मिलाया मैंने हाथ है,
सभी से हमें दोस्ती चाहिए ।।
सभी से मिला करता हूँ प्यार से,
किसी की नहीं दुश्मनी चाहिए।
हुए यार का खूब दीदार बस,
हरिक खिड़की थोड़ी खुली चाहिए।
कमा लूँ अगर मैं जरा सा यहाँ,
हमें एक ही नौकरी चाहिए।
न हो दर्द ज्यादा दुआ हो यही,
जरा प्यार की ज़िन्दगी चाहिए।
** आलोक मित्तल **
सत्यप्रकाश पाण्डेय
यौवन सुमन अनौखा देखा
रूप सौंदर्य का मकरन्द भरा
अतुलनीय आनन उजास
जैसे पतझड़ में हो चमन हरा
कली कली में लावण्यता
अवयव मानो सभी पल्लवित
अधरों पै मुस्कान मनोहर
था पूनम सा चेहरा मुखरित
कैसा अनुपम कुसुम सौम्य
जिस सुरभि का न पान किया
था अद्वितीय वो मधुर मधु
जिसका न किसी ने स्वाद लिया
भ्रमर भांति काले कुंतल
मानो मुखारविंद कर रहे पान
अवर्चनीय वह काला तिल
लगे अनुपमेयता की पहचान
चित्रित चारुता ललाट की
बांका चितवन मन को भाये
दिव्यलोक से आई परी सी
क्योंकर सत्य को तू ललचाये।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"
...........भारत की नारी...........
दुनियाँ में विचित्र है, भारत की नारी।
पृथ्वी पर पवित्र है, भारत की नारी।।
घर,समाज,राष्ट्र,विश्व के निर्माण में ;
बहुत ही सक्रिय है,भारत की नारी।।
सब के उन्नति-पथ प्रशस्त करते हुए;
बहुत ही झेलती है,भारत की नारी।।
बाधाओंऔर विपत्तियों मेंअडिग हो;
सशक्त दिखती है,भारत की नारी।।
कर्म के सभी क्षेत्रों में,देश-विदेश में;
परचम लहराती है,भारत की नारी।।
कुछ नारियों के कर्मों के बदौलत ;
बदनामभी होती हैभारत की नारी।।
जीवनसाथी के साथ सामंजस्य से ;
"आनंद"फैलाती हैभारत की नारी।।
-----देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"
कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड 246171
ये जिन्दगी
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क्या बताऊँ कैसी है ये जिन्दगी
क्या कहूँ कैसी है ये जिन्दगी
कभी तो फूल सी लगती है
ये जिन्दगी।
कभी तो काँटों में गुलाब सी
मुस्कुराती है ये जिन्दगी
कभी दूर डूबते सूरज सी
लगती है यह जिन्दगी।
कभी सूरज की पहली किरण
सी लगती है यह जिन्दगी
कभी कल्पनाओं के सागर में
गोते लगाती है यह जिन्दगी।
कभी दूसरे का दर्द को देख कर
रो पड़ती है ये जिन्दगी
कभी मौत के भय से
बदहवास सी दौड़ती है ये जिन्दगी।
कभी मंजिल के बहुत करीब
लगती है ये जिन्दगी
कभी एक -एक पर को
पीछे धकेलती है ये जिन्दगी।
क्या कहूँ कैसी है ये जिन्दगी
जैसे भी है
बहुत सुहावनी है ये जिन्दगी
ईश्वर का कृपा प्रसाद है ये जिन्दगी।।
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कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड 246171
निशा"अतुल्य"
राधे राधे
काहे तूने की है चोरी
6/ 2/ 2020
नटखट कान्हा करे शरारत
मैया झूठा क्रोध दिखाये है
बांध दिया आँगना में तुमको
दाऊ मंद मंद मुस्काये है ।
काहे तूने माखन खायो
काहे मटकी फोड़ी है ।
झूठ मुठ मैया रोष दिखाये
कान्हा को धमकाये है ।
मैया सगरी झूठ बोलती
माखन मैं नही खायो है
जबरन मोरी बाहँ पकड़ के
मुख मेरा लिपटायो है ।
न जाने क्या बैर है मुझसे
मुझको बांध सतायो है।
मैया नैन नेह छलकाये
पकड़ हृदय लगायो है ।
कान्हा मेरो कितनो भोलो
सब मिल काहे सतायो है ।
आने दे तेरे बाबा को
सबको आज बताती हूँ
जो मेरे कान्हा को सताये
गोकुल से बाहर कराती हूँ ।
छोटो सो कान्हा है मेरो
गैया चराने जाये है
साँझ सकारे लौट के आये
नित ही तो थक जाये है।
ग्वाल बाल सब खेलन लागे
गोपियाँ काहे सताती हैं
मेरा कान्हा भोला भाला
झूठे बैर दिखाती हैं ।
कह मैया ने अंक भर लीना
कान्हा मंद मंद मुस्काये हैं।
देख के लीला कान्हा जी की
दाऊ भी भरमाये हैं ।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
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