डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"मेरी पावन मधुशाला "


जिसके भीतर प्रेम अनन्ता वह मेरा पावन प्याला,
प्रीति रसासव सी अद्भुत स्वादिष्ट मधुर मेरी हाला,
प्रेम पंथ के दिग्सूचक सा प्रेम दीवाना भी साकी,
प्रेम सिन्धु के उर में स्थापित मेरी पावन मधुशाला।


प्रेमपात्र बन सदा मचलता मेरा अति मोहक प्याला,
प्रेम रसामृत बन जिह्वा से मिलने को आतुर हाला,
प्रेम रत्न अनमोल खजाना का मालिक मेरा साकी,
विश्व प्रेम के विद्यालय सी मेरी पावन मधुशाला।


निज में प्रेम छिपाये बैठा है मेरा प्यारा प्याला,
निज भावों में मधुर समेटे आह्लादित मेरी हाला,
निजता के पावन  प्रिय अमृत का वरदाता है साकी,
निज मन मुकुर सुघर मधुदर्शिनि मेरी पावन मधुशाला।


प्रेम विरोधी गतिविधियों के है विरुद्ध मेरा प्याला,
प्रेम वंचितों की औषधि सी सभ्य चंचला सी हाला,
प्रेमचिकित्सक जैसा बनकर देखत रोगी को साकी,
प्रेम-चिकित्सा के आलय सी मेरी पावन मधुशाला।


प्रेमसिन्धु के नौ रत्नों में मणि जैसा मेरा प्याला,
 कामधेनु सी बनी हुई है मेरी प्यारी सी हाला,
रत्नाकर सा चमक रहा है मेरा प्रेमजड़ित साकी,
रत्नदेश के मादक मंथन से निकली है मधुशाला।


प्रेम-मदिर मधुशाला का कितना मादक होगा प्याला,
प्रेमपेय मधुरामृत आसव से भी मधुतर है हाला,
सकल विश्व के सकल चराचर को देता नित साकी है,
इच्छा हो यदि पीने को मधु आओ मेरी मधुशाला।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"इधर-उधर"


कोई नहीं है इधर-उधर
है भी तो इधर-उधर।


जहाँ देखता हूँ सब बेखबर
लगता जैसे सब बेघर।


कोई तो अपना हो
भले ही सपना हो।


हम तो सब स्वीकार करते हैं
सबका इंतजार करते हैं।


कोई तो हो
अच्छा या बुरा हो।


बुरे से भी मिलो
कमलवत खिलो।


बात हो या न हो
मन में खटास न हो ।


कोई कैसा भी हो
आप अच्छा बने रहो ।


 आदमी रहते हुए भी नहीं है
जो कुछ है सब सही है।


सृजन बेजोड़ है
भले ही मुठभेड़ है।


जो न बोले उससे भी बोलो
ग्रन्थि को खोलो।


आत्मोद्धार करो
सबका सत्कार करो।


स्वयं निर्मल बनो
निर्दल बनो।


गुटवंदी सम्बंधों की दुश्मन है
मन में परायापन है।


 विरोध से बचो
सुन्दर संसार रचो।


अधूरी कविता लिख रहा हूँ
मनुष्यता को नमन कर रहा हूँ।


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"श्री सरस्वती अर्चनामृतम"


ब्रह्मतेजमय ज्ञानमय ममतामयी महान।
मातृ शारदे का करो सतत प्रीतिमय ध्यान।।


ब्रह्मनायिका ब्रह्मवादिनी।बनी लेखनी हंसवाहिनी।।
सदा पुस्तकाकार शरीरा।वीणा वादिनि मह-गंभीरा।।
भक्तों की रसना की शोभा।सरस अनन्त अमित नित आभा।।
महा व्योम बन तुम दिखती हो।पावन ग्रन्थों को लिखती हो।।
पारस बन कंचन रचती हो।ज्ञान अथाह सिन्धु सम सी हो।।
सर्व पर्व त्यौहार सकल हो।दयासिन्धु सम नेत्र सजल हो।।
दिव्य दीन-हित दिशा दशा हो।हरितक्रांतिमय मृदु वर्षा हो।।
खुश होती माँ जिसके ऊपर।करती उसको सबसे ऊपर।।
न्यायाधीश सर्वहितकारी।हृदयस्थिता सर्व पियारी।।
परमानन्ददायिका ज्ञाना।जग कल्याण हेतु विज्ञाना।।
सुन्दर नैतिक मनुज बनाओ।मानवतामय तरल पिलाओ।।
सदा तुम्हें ही याद करें हम।तुमसे सब फरियाद करें हम।।


दो सुन्दर वरदान माँ तव चरणों से प्यार।
बसो हृदय में अनवरत दो अपना घर-द्वार।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"मेरी पावन मधुशाला"


अंतस की  ही सकल संपदा सदा देखता है प्याला,
व्यापक उर की प्रिया दिव्यता के वाष्पों की है हाला,
तीन लोक से न्यारे अन्तःपुर का दिग्दर्शक साकी,
पावन अन्तर्जग सी पावन मेरी पावन मधुशाला।


पारसनाथ विश्वनाथ की नगरी का मेरा प्याला,
बम बम बम बम सदा टेरती है मेरी पावन हाला,
शिव शिव शिव शिव कहते कहते शिव जिमि बन जाता साकी,
शिवशंकर की पावन नगरी शिवकाशी सी मधुशाला।


काशी के पावन मनभावन सा प्रिय पावन है प्याला,
काशी की मधुमय शिवता से बनी हुई मेरी हाला,
कालेश्वर श्री महादेव सा दयासिन्धु मेरा साकी,
रामेश्वर श्री महा धाम सी मेरी पावन मधुशाला।


काशी पंचक्रोश के यात्री सा चलता मेरा प्याला,
हर हर महादेव का नारा रोज लगाती है हाला,
सह-यात्री बन रामचन्द्र जी चलते दिखते साकी सा,
पँचक्रोशियों की टोली सी मेरी पावन मधुशाला।


काशीवासी रमते रहते बोला करते शिव -प्याला,
शिवमय मधुमय भंग जमाये बोल रहे हाला-हाला,
चेतन प्रभु सा ढोल बजाता मस्त फकीरा सम साकी,
मस्तानी  शिवकाशी महिमा गाया करती मधुशाला ।


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।


श्याम कुँवर भारती (राजभर ) कवि/लेखक /समाजसेवी  बोकारो झारखंड

हिन्दी कविता – आज की युवा पीढ़ी |
आज की युवा पीढ़ी अपने संस्कार क्यो भूल गई |
माता पिता का प्यार गुरुजनों सम्मान भूल गई |
नेट मोबाइल का जमाना हुआ तो क्या हुआ |
जो सामने फिक्र नहीं माँ बीमार तो क्या हुआ |
नित करते परिवार अपमान एहसान क्यो भूल गई |
पिता की डांट सहना नहीं माँ की बात सुनना नहीं |
छोटों को प्यार बड़ो आदर नहीं दायरे मे रहना नहीं |
बनेंगे वे भी पिता और माँ ये वरदान क्यो भूल गई |
पढ़ाई मे खर्चा बहुत है परीक्षा लिखना परचा बहुत है |
किताब मे मन नहीं मोबाइल दोस्तो चरचा बहुत है |
संभालना उनको ही बागडोर हिंदुस्तान क्यो भूल गई |
खाने की फिक्र नहीं नसा की जिक्र करते है सभी |
गुटखा तंबाकू सिगरेट पान युवाओ फैसन है अभी |
नसा शराब कभी करती नहीं कल्याण क्यो भूल गई |
माँ बहन बेटी नारी इज्जत कोई करता नहीं |
कानून कायदा है कोई चीज कोई डरता नहीं |
नारी बलात्कार अत्याचार करता शैतान क्यो भूल गई |
लाज हया और शर्म का पर्दा अब उतार चले है |
फेसबुक व्हात्सप नेट पर युवा करने प्यार चले है |
संभहल जाओ युवाओ संस्कार है पहचान क्यो भूल गई | 
श्याम कुँवर भारती (राजभर )
कवि/लेखक /समाजसेवी 
बोकारो झारखंड ,मोब 9955509286


श्याम कुँवर भारती (राजभर) गीतकार /कवि /लेखक  ढोरी ,बोकारो ,झारखंड 

चंद शेर 
• जितना चाहा तुझको क्या मेरा हो गया तू |
कितना यकीन दिलाया क्या मेरा हो गया तू |
• दिल मे जो नाम उसे जुबां पर लाते क्यो नही |
करके इकरार उससे गले मिल जाते क्यो नहीं |
• पुछते हो तुम्हें मै दिलाऊँ यकीन कैसे |
लेके मेरा नाम तू बन गया हसीन कैसे |
• प्यार भी इंकार भी और तकरार भी |
कहते क्यो नहीं तुम्हें इश्क हमी से है | 
• तुम मुझसे दूरिया बनाए बैठे हो |
दिल मे क्या गम है छुपाए बैठे हो |
• दिखाते हो हुश्ने आफ़ताब जलवा जमाने को | 
इक हमी से परदादारी किया करते हो तुम |
• तुम समझते हो तुम्हारी खामोशी समझ न पाएंगे |
मेरी मोहब्बत का बोझ दिल पर न लिया करो तुम |
• अब दिल ही दिल बात कर लेंगे हम |
इस तरह तेरे दिल घर कर लेंगे हम |  


श्याम कुँवर भारती (राजभर)
गीतकार /कवि /लेखक 


ढोरी ,बोकारो ,झारखंड 
मोब -9955509286


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

एक चित्रात्मक घनाक्षरी


करती  विनोद सदा, सखियों के साथ में तू,
जब  भी  निकलती  हैं, उर  में  समाती  है।
कोमल   चरण   जब,  धरती   हैं  धरती  पे,
चाल  मतवाली   देख,  हिरनी   लजाती  हैं।
करती  हैं   जब   बात, हँसते   हैं  सब  गात,
अधरों  से  खूब  मृदु,  मुस्कान  मुस्काती हैं।
आती है समीप कभी, दिल के  करीब कभी,
पलकें  झुकाके  नैनों,  से  ही   इठलाती  हैं।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


 


श्याम कुँवर भारती (राजभर ) कवि/लेखक /समाजसेवी  बोकारो झारखंड

हिन्दी गजल- निभाते चले गए |
हम अपनी वफा निभाते चले गए |
वो मुझसे दूरिया बढ़ाते चले गए |
शामिल था उनकी खुशी ओ गम |
मेरे वक्त वो मुंह चिढ़ाते चले गए |
प्यार के सिवा कुछ नहीं दुनिया मे |
वो आग दुश्मनी क्यो बढ़ाते चले गए| 
तन्हा आना जाना मगर जरूरत सबकी |
नीसा रिश्तो ज़िंदगी मिटाते चले गए |
तन्हा रहना दोस्त जरूरी हंसी के लिए |
दिल अजीज दोस्तो दुखाते चले गए |
पसीना जरूरी दो वक्त रोटी के लिए |
चाह ज्यादा छवि खुद गिराते चले गए |  
कर लो चराग रोशन अंधेरों डर जाओगे |
उम्मीदों के दिये सारे बुझाते चले गए |
तुम देवता न शैतान अकेले रह लोगे |
हर रिश्ता जरूरी कीमत सुनाते चले गए | 
श्याम कुँवर भारती (राजभर )
कवि/लेखक /समाजसेवी 
बोकारो झारखंड ,मोब 9955509286


    डा.नीलम

*मेरा गाँव मेरी धरोहर*


पक्की सड़क से उतर
खेतों की मेड़ मेड़ चलकर
मिट्टी की पगडंडी पर
उतर आता है मेरा गाँव


है धरोहर आज भी वो
के उसमें हैं अभी कुछ
छोटी सी मुंडेर वाले
कच्चे-पक्के माटी के घर


कुछ है साँझे आँगन 
जहाँ  उतरती सीढ़ियां से
कमली,राजी,निम्मी,सीता
उतर आती हैं रूई लेकर


चलती चरखे की लूम
चला,गीतों में अपनी
अपनी गाथा कहतीं
या हंसी-ठिठोली करतीं


लगी नहीं शहरी हवा उसे अभी
ना ही पानी में हुई मिलावट है
तभी साँझे चूल्हे से उठती
रोटी की मीठी महक आज भी


कहीं मटर,धनिया,मूँली की
कहीं सरस सरसराती है
कभी धान उगलते खेत हैं
कहीं सोना उगलती भूमि है


अमराई की छाँव में
आज भी मांचे बिछते हैं
बच्चे,बड़े,भाई,बीबीयों को
मिलता वहाँ बुजुर्गों का आशीष है


नहरें निर्मल नीर लिए
बीच गाँव में बहती हैं
पावन पानी के कलकल में
बचपन चहक-चहक नहाता है


सबसे सुंदर,सबसे पावन
गुरु का है यहाँ द्वार है
सुबह-शाम जहाँ पीठ लगा
होती अरदास और अजान है


छोटा सा दवाखाना है
एक तरफ,दूजी ओर
शिक्षा का मंदिर भी है
जहाँ बिना भेदभाव के
मिलता ज्ञान है


कुछ मिट्टी के खण्डहर भी हैं
भूली-बिसरी यादों से
जिसकी माटी में बसी हुई हैं
खट्टी -मीठी यादें


मेरी यादों में आज भी
मेरा गाँव सजीव है
उसकी धड़कन में बहती है
मेरी कितनी यादें


आज भी मेरा गाँव मेरी धरोहर है
हर बार सहेजा हूँ उसको मैं
हर बार खयालों में है मेरे।


      डा.नीलम


उत्तम मेहता "उत्तम"

बह्र: २१२२ २१२२ २१२
काफ़िया: आना
रदीफ़: छोड़ दे


आग नफ़रत की लगाना छोड़ दे।
खुद को अब बिस्मिल बताना छोड़ दे।


हर तरफ़ फैली  सियासत है यहाँ
तू शराफ़त को  दिखाना छोड़ दे।


बेवफ़ा तो बावफ़ा होगा नहीं।
याद कर अब दिल जलाना छोड़ दे।


कर हक़ीक़त जो है उसका सामना 
ख़्वाब पलकों पर सजाना छोड़ दे।


बेकसी हो बेबसी या बेख़ुदी।
अब तो खुद को बरगलाना छोड़ दे।


देख दामन तू ज़रा अपना कभी।
आइना सबको दिखाना छोड़ दे।


जब पिया हो जाम उत्तम दर्द का।
 ख़्वाब में  फ़िर मुस्कुराना छोड़ दे।


©@उत्तम मेहता "उत्तम"
       ०६/२०


सत्यप्रकाश पाण्डेय

कौंन है वो......................


सदभावों की वो ज्योति जलाती,
खुद मिटकर वह संसार सजाती।
सहकर के सारे दुःख दुनियां के,
घर उपवन को हरपल महकाती।।
कौंन है वो .........
वो नारी है बस,चलती ही जाती।।


नित आशाओं के दीप जलाती,
वो कल्पनाओं के महल बनाती।
हार न मानूँगी मैं जीवन पथ में,
हर उलझन से वह टकरा जाती।।
कौंन है वो.........
वो नारी है बस,चलती ही जाती।।


मुसीबतों से वह जब घिर जाती,
आंसुओं में ही दुःख सह जाती।
उन्मुक्त सदा वो मंजिल पाने को,
रवि बनकर के वह राह दिखाती।।
कौंन है वो.........
वो नारी है बस,चलती ही जाती।।


उठती गिरती वो लहरों की भाँती,
कभी प्रकटती वो कभी खो जाती।
मिटते उभरते वेदनाओं के स्वर,
पल पल आशा के दीप जलाती।।
कौंन है वो.........
वो नारी है बस,चलती ही जाती।।


बन सरोज कीचड़ में खिल जाती,
सुरभि बनकर जग में घुल जाती।
खोलकर पंख हौसले के वह तो,
नित नित नवल इतिहास रचाती।।
कौंन है वो............
वो नारी है बस,चलती ही जाती।।


त्याग तपस्या की अदम्य विभूति,
है सृष्टि की अवर्चनीय खूबसूरती।
सतत प्रवाहिनी स्रोतस्विनी सी,
विधु के मनोयोग की सौम्य मूर्ती।।
कौंन है वो............
वो नारी है बस,निशदिन चलती।।



सत्यप्रकाश पाण्डेय


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

कुण्डलिया


कोरोना  के   कहर  से,   अखिल  विश्व  घबराय।
सब    इससे    कैसे    बचें,  सूझै    नही   उपाय।
सूझै   नही   उपाय,  बंद    सब   काम   धाम  हैं।
कैसे  मन  समझाय,  व्यथित  हर  सुबह  शाम हैं।
कहत 'अभय' समुझाय, हाथ मल मल कर धोना।
भीड़   भाड़   से   बचो,   रुकेगा   तब   कोरोना।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


कवि✍️डा. राम कुमार झा " निकुंज " रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली


विधाः दोहा
शीर्षकः 👰तन्हाई😢


यौवन   सरित   उफ़ान  पर , मादकता भर नैन।
तन्हाई   के    दर्द  से , सजनी   दिल      बेचैन।।१।।


अश्क   नैन  से  हैं  भींगे ,  पीन   पयोधर गाल। 
रूठो   मत   इतना   सज़न , है चितवन बेहाल।।२।।


बाट    जोहती   श्रावणी , बीता अब   मधुमास। 
चित्त चकोरी आश में , बरस    बुझाओ  प्यास।।३।।


तन मन धन अर्पण किया , सजन तुम्हारे नाम। 
रनिवासर खोयी सनम , समझ तुझे  घनश्याम।।४।।


तड़प  रही रति विरहणी, बीता  अब  मधुमास।
कुटिल हृदय मोहे सजन, तोडा़  दिल  विश्वास।।५।।


सोची  थी    होगा  मिलन, आएँगे      मनमीत।
भूलूँगी    सब    वेदना    , गाऊँगी      मधुगीत।।६।। 


क्षमा करो   भूलो  सनम , लौटो  सजनी   पास।
सलिल हीन बस मीन सम,तड़पी  हूँ   हर श्वांस।।७।।


बार बार जलती अनल,सिद्ध करूँ   निज प्यार।
एकबार अभिलाष मन ,मिलूँ  सजन   दिलदार।।८।।


माँग सजाऊँ  सजन से , समा  प्रीत   गल बाँह।
कंठहार प्रिय  प्रियतमा , मानो प्रिय   मन  चाह।।९।।


आलोकित कर प्रीत से,विरह पीड .निशि चन्द।
कर निकुंज कुसमित फलित,प्रेम गंध मकरन्द।।१०।।


तन्हाई    साये     तले ,  जीऊँ   हूँ  दिन    रात।
अब न आये तुम सजन , मरकर     दूँ  सौगात।।११।।


कवि✍️डा. राम कुमार झा " निकुंज "
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


गनेश रॉय "रावण" भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर छत्तीसगढ़

"इश्क दिखाना नही आता"
""""""""""""""""""""""""""""""""''''""
वो कहती है...
हमे इश्क करना नही आता
अगर कही मैं रुठ जाऊँ 
तो उसे मनाना नही आता
मेरी पसंद - नापसन्द 
उसे कुछ नही पता
मेरी खमोशी की अल्फाज
वो समझ नही पाता
लाख सजलूँ-सवरलूँ
पर मेरी तारीफ में 
एक शब्द भी नही कहता
ये कैसा सितमगर बालम है 
जो मेरी भावना को समझ नही पाता
कैसे समझायें यारो उसे
उसकी हर अदा पे प्यार आता है
इश्क करना भी आता है
इश्क जताना भी आता है
बस फर्क इतना है 
हमे औरों की तरह दिखना नही आता ।।


गनेश रॉय "रावण"
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर छत्तीसगढ़
9772727002
©®


श्याम कुँवर भारती (राजभर ) कवि/लेखक /समाजसेवी  बोकारो झारखंड

भोजपुरी चइता लोक गीत -3- बयार पुरवा ये रामा 
लगे लागल आम के टिकोरवा ये रामा |
चइत मासे |
बहे लागल बयार पुरवा ये रामा |
चइत मासे |
मसूरी मटर खूब गदराई गइली |
पीयर सरसो अब नियराई गइली|
मगन कोयल गाए गनवा ये रामा |
चइत मासे |
पाकल बाली गेहूँ खेतवा लहराये |
पागल पपीहवा पीहू पीहू गाये |
चुये टप टप महुआ रस मदनवा ये रामा |
चइत मासे |
अँखियाँ मे नसा चढ़ल गोड्वा न जमीन पड़े |
बहकल बदनवा सजनवा कहा कहे |
मदन सतावे गोरी नजरवा ये रामा |
चइत मासे |
श्याम कुँवर भारती (राजभर )
कवि/लेखक /समाजसेवी 
बोकारो झारखंड ,मोब 9955509286


हलधर

मुक्तक -आजादी और चरखा 
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तलवारों पर गर्दन वारीं ,भालों से वक्ष अड़ाये थे ।


नाखूनों  से  पर्वत  काटे , लोहे के चने चवाये थे ।।


कुछ लोग मानते हैं ऐसा आजादी चरखे से आयी ,


फिर क्यों लाखों माँ बहनों ने अपने शृंगार चढ़ाये थे ।।


हलधर -9897346173


प्रदीप कुमार सुजातपुर, सम्भल(उ०प्र०)

गीतिका का व्याकरण, तू गीत का विज्ञान तू है।
तू मुहब्बत की धरोहर, प्रेम का प्रतिमान तू है।।


भावनाओं का समंदर नेह का भंडार तू है ।
तू समर्पण का शिखर है प्रीति का अभिसार तू है।
स्वप्न मेरे चक्षुओं का धड़कनों की ताल लय तू।
सौम्यता तू चाँदनी की रूप का श्रंगार तू है।


आशिकों की आशिकी तू इश्क का उन्वान तू है।
तू मुहब्बत की धरोहर, प्रेम का प्रतिमान तू है।।


कवि की करुणा से जो उपजा था कभी वह छंद है तू।
मात्र क्षण भर का नहीं है शाश्वत आनंद है तू।
तितलियों को लग रही तू पंखुड़ी फूलों की नाजुक।
किंतु भौंरें जानते हैं फागुनी मकरंद है तू।


तू गुलाबों की महक है काम का दिनमान तू है।
तू मुहब्बत की धरोहर प्रेम का प्रतिमान तू है।।


सभ्यता तुझसे यशस्वी दिव्यता का मान तुझसे।
तू हया का रंग पावन सादगी की शान तुझसे।
सृष्टि की संकल्पना तू संस्कृति युगश्रेष्ठ की है।
इस धरा से उस गगन तक कौन है अनजान तुझसे।


असलियत से आज भी अपनी मगर अनजान तू है।
तू मुहब्बत की धरोहर प्रेम का प्रतिमान तू है।।


प्रदीप कुमार
सुजातपुर, सम्भल(उ०प्र०)


मासूम मोडासवी

आये हैं  तलब  लेकर लोटेंगे सीफर लेकर
कैसाये नसीब अपना आया है बशर लेकर


ऐक  आगसी जलती हुइ सीने में सदा पाई
बरसे  हैं  सदा  बादल  माथे पे शरर लेकर


चाहत की तमन्ना ने खींचा हमें उस जानिब
छोटाबडा साया जहां चलताहे कमर लेकर


शीरीं सी  जबां  अपनी रखते हैं जहां वाले
हर सीमत नजर आया हर हाथ सीफर लेकर


मौकेतो बहोत आये ख्वाबों को सजाने के
जीना भी नहीं आया बंदो को हुनर लेकर 


मासूम  जमाने  के  अजब  तेवर  नये देखे
जीते  हैं सभी देखो बदले की नजर लेकर


                             मासूम मोडासवी


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल            713/16, झज्जर (हरियाणा )

क्या ठीक है.... 


महबूब को हाल -ए -दिल सुनाना ठीक है. 
अपने दिल की आरज़ू बताना ठीक है. 


वैसे तो उसकी खातिर हाज़िर है जान, 
लेकिन उसे प्यार में, सताना ठीक है. 


राह चलते -चलते आँखे चार हो गयी, 
यूं उसका मुझे देख लज़ाना ठीक है. 


बिन मिले उससे, दिल मेरा लगता नहीं, 
क्यों अंदर ख़्वाहिश को दबाना ठीक है. 


मेरे सामने आकर खामोश हो जाना, 
और मेरे बाद, बातें बनाना ठीक है. 


नज़र को बचाकर रुमाल नीचे गिरा दिया, 
अदा से उनका,  झुककर उठाना ठीक है. 


एहसास का बंधन तुमसे जुड़ गया "उड़ता ", 
तेरा तहज़ीब से रिश्ता निभाना ठीक है. 



मौलिक रचना 


द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल 
          713/16, झज्जर (हरियाणा )
          संपर्क -9466865227
          udtasonu2003@gmail.com


कुमार कारनिक  (छाल, रायगढ़, छग)


   *कोरोना वायरस*
   मनहरण घनाक्षरी
  ^^^^^^^^^^^^^^^
चीनी   वायरस  आया,
पूरे  विश्व   को  डराया,
नाम कोरोना   कहाया,
       सतर्क हो जाईये।
❄🔅
आज  के  हो  भगवान,
बन     गये     बलवान,
मचा   दिये    कोहराम,
          दूर कर जाइये।
🔅❄
सर्दी  खासी  बहें नाक,
सांसों  में हो  व्यवधान,
कोरोना   का  पहचान,
        नहीं डर जाइये।
❄🔅
माँस कभी नहीं खाना,
डॉक्टर को है दिखाना,
हाथ   धोना  बारम्बार,
     आज से मिटाईये।


                *******


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"अबला बन सकती है सबला"*
(कुकुभ छंद गीत)
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
विधान- १६ + १४ = ३० मात्रा प्रतिपद, पदांत SS, युगल पद तुकांतता।
"""""'"""""""""""""''""""""""""""""'"''""""""""
¶प्यार भरा बंधन है परिणय, कोई व्यापार नहीं है।
नारी जैसा उत्तम कोई, जग में उपहार नहीं है।।
दहेज से धन मिल सकता है, पर मिलता प्यार नहीं है।
नारी जैसा उत्तम कोई, जग में उपहार नहीं है।।


¶बलि-बेदी पर और बेटियाँ, कब तक चढ़ती जायेंगी?
प्यार समझकर पीड़ा को ये, कब तक सहती जायेंगी??
पीड़ा तो पीड़ा ही होती, वह नेह दुलार नहीं है
नारी जैसा उत्तम कोई, जग में उपहार नहीं है।।


¶अगणित भावों का है सागर, मन की गागर को भालो।
भावों के तीरों से इसको, और न जर्जर कर डालो।।
करे न कोई नारी जैसा, जग में उपकार कहीं है।
नारी जैसा उत्तम कोई, जग में उपहार नहीं है।।


¶उद्वेलित-मन कभी-तरंगें, बंधन सातों फेरों को।
प्लावन कर दें न कभी ये भी, तोड़ तपन के घेरों को।।
दुर्गा-रूप कभी ले सकती, नारी साकार कहीं है।
नारी जैसा उत्तम कोई, जग में उपहार नहीं है।।


¶ठोकर खाकर आगे नारी, चुप हो न करेगी देरी।
गूँज उठी है उसके भी अब, हाथ-क्रांति की रणभेरी।।
क्लेश-कष्ट हर हरने वाली, नारी भू-भार नहीं है।
नारी जैसा उत्तम कोई, जग में उपहार नहीं है।।


¶लक्ष्मी-दुर्गा-सरोजिनी भी, शक्ति-सरूपा थीं नारी।
अबला बन सकती है सबला, पड़ सकती नर पर भारी।।
भूले से अब कहे न कोई, उसका अधिकार नहीं है।
नारी जैसा उत्तम कोई, जग में उपहार नहीं है।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

💀कैरोना आतंक😢
विपदा  है  चारों तरफ , कैरोना आतंक।
त्राहि त्राहि जग में मचा , राजा हो या रंक।।
रहें सहज परहेज से, स्वच्छ रहे इन्सान।
नमस्कार बस दूर से, अर्पण हो सम्मान।।
मास्क पहन निकलें सभी , बचें सर्दी जुकाम। 
करें स्वयं की सुरक्षा , करें गेह विश्राम।।
मांसाहारी  मत बने , तजें नशा का रोग।
पान करें ऊष्मित सलिल, करें सभी सहयोग।।
रखें ध्यान संतान का, स्वच्छ रखें परिवेश।
सदा चिकित्सक मंत्रणा, स्वयं स्वस्थ हो देश।। 
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


नूतन लाल साहू

अंतर
पहले पूजा पाठ में
घी का दीपक जलाएं जाते थे
अब जलती हुई,मोमबत्ती बुझाकर
बर्थ डे, मनाये जाता है
अब वो जमाना नहीं रहा
औरत पालने को कलेजा और
गृहस्थी चलाने को भेजा चाहिये
शादी में लड़की मंगनी का रस्म
बाप दादा निभाते थे
सात जन्मों का रिश्ता होता था
अब लड़की,पसंद कर लड़का ही
ब्याह रचाते है
अनेकों दुल्हन,दो चार साल बाद
फुर्र हो जाते है
हर गाव में,देखो कितने ही
परित्यकता बैठे है
अब वो जमाना नहीं रहा
औरत पालने को कलेजा और
गृहस्थी चलाने को भेजा चाहिये
पहले बहू, डरती थी
सास कैसे मिलेगा
अब सास, डरती है
बहू कैसे मिलेगी
क्योंकि अब तिजौरी का चाबी
बहू के पास होता है
अब वो जमाना नहीं रहा
औरत पालने को कलेजा और
गृहस्थी चलाने को भेजा चाहिये
पहले चार आने के साग में
पूरा परिवार खा ले
अब,चार रुपए का साग
अकेला खा जाता है
बरसात में पानी
ठंड में कड़ाके की ठंड और
ग्रीष्म ऋतु में गर्मी पड़ता था
अब समय, अनफिस्कड़ हो गया है
अब वो जमाना नहीं रहा
औरत पालने को कलेजा और
गृहस्थी चलाने को कलेजा चाहिये
नूतन लाल साहू


 


संजय जैन बीना (मुम्बई

*भरोसा..*
विधा : गीत


 लूटकर सब कुछ मेरा,
और क्या लूटने आये हो।
दिल के खालीपन को,
क्या देखने आए हो।
दिल है ये मेरा,
कोई धर्मशाला नहीं।
जिसमे लोग आते,
और जाते रहते है।।


चोट हमने खाई है,
तुम्हें है क्या पता।
अपने बनकर मुझे,
अपनो ने ही डसा।
अब में किससे कहूँ,
मुझे मेरे ने ही डसा।
जिस पर था यकीन,
वही गैर निकला।।


अब तो इंसानों पर,
है नहीं भरोसा।
क्योकिं इंसान को,
इंसान ही खा रहा।
जब इंसानियत ही,
दिलों में जिंदा नही।
फिर क्यो इंसानों से,
हम उम्मीदे रखे।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन बीना (मुम्बई)
14/03/2020


एस के कपूर* *श्री हंस बरेली

*चाहो तो छू सकते हो आसमान।।।।।*
*।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।।*


हौंसला   सितारों    को भी 
करीब ले   आता है।


हिम्मत से आदमी चाँद पर
भी पहुँच जाता  है।।


साहस से  निर्जीव में  प्राण
आ सकते हैं दुबारा।


जो डूब जाता   तन मन  से
मंज़िल वही पाता है।।


*रचयिता।।।।।एस के कपूर*
*श्री हंस।।।।।बरेली।।।।।।।*
मोब  9897071046।।।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।।


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