डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"मेरी पावन मधुशाला"


देख वांसुरी-ध्वनित-तरंगें अति विह्वल मेरा प्याला,
वंशी की आहट की मस्ती में पागल मेरी हाला,
पीनेवाले गोपी बनकर थिरक रहे अपने में ही खुद,
वृंदावन सी  आज दीखती मेरी पावन मधुशाला।


कहता मैँ अपने मित्रों से देखें वे केवल प्याला,
यही सलाह देता हूँ उनको पीते रहें सिर्फ हाला,
यही निवेदन उनसे मेरा देखें मेरे साकी को,
मित्रों!छोड़ जगत की माया, आओ मेरी मधुशाला।


मन को यदि आराम चाहिये रहो देखते बस प्याला,
महा शून्य की यात्रा करने हेतु चलो पीने हाला,
 सार्थक निष्कामी -अभिमानी बनने हेतु देख साकी,
अद्वितीय जीवन की संगिनि मेरी पावन मधुशाला।


सतत अहर्निश दिव्य साधना से मिलता शिव सा प्याला,
अति कोशिश  मन से करने पर मिलती शक्ति सदृश हाला,
 जन्म-जन्म के पुण्यार्जन का फल साकी कहलाता है,
 जीवन के संग्राम-समर की युद्धभूमि है मधुशाला।


देना है यदि मात जगत को कर सुन्दर बन वर -प्याला,
सुनो गुनी बन धावक जैसा पीना शौर्य सदृश हाला,
नवाचार नित करते रहना शान्त भाव से साकी बन,
प्रगति विरोधी की अवरोधक मेरी पावन मधुशाला।


असमंजस में डाला करता है सबको मेरा प्याला,
बुद्धिप्रदात्री -ज्ञानदायिनी अति कौतूहल निज हाला,
अचरज करता यह जग सारा देख परमप्रिय साकी को,
 बनी हुई आश्चर्य नित्य-नव मेरी पावन मधुशाला।


रचनाकार:


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।


डॉ०रामबली हरिहरपुरी

"अंधा"


स्वारथ में जो अंधा होय, समझो उसको असली अंधा.,
नहीं परोपकार का भाव, अपना मतलब सबसे ऊपर.,
करता अपने लाभ की बात, पहुंचाकर के हानि अन्य को.,
अपना उल्लू करता सीध, चाहे रोये भले दूसरा.,
कुकरम करता है दिन-रात, सत्कर्मी कहता खुद को ही.,
मन में नहीं है पश्चाताप, घोर निरंकुश अपयशभागी,.,
मन में रहती छोटी सोच, अंधकार में जीता स्वार्थी.,
घृणित कर्म सब धर्म समान, भोगी-रोगी-अंधा-कामी.,
देहवाद ही है पुरुषार्थ,सहज अलौकिक भाव नदारद.,
सदा धूर्तता की ही सोच, रखता मन में स्वार्थी-अंधा.,
करत लूटने का ही काम, चोरकट-लंपट-पतित भयंकर.,
मन में कभी न सुन्दर भाव, मन में मैली वृत्ति विचरती.,
जिसका पाये ले वह लूट, ताक-झाँक में रहता प्रति पल.,
मानवता से नहीं है प्यार, परम अपावन गन्दी हरकत.,
गन्दा नाला से ही स्नेह, कीड़ा जैसा जीवन अच्छा.,
स्वार्थवाद ही सच्चा धर्म, धर्म-कर्म सब मरे हुये हैं.,
अंधापन ही लगता नीक, स्वार्थी की यह जीवन-यात्रा।


नमस्ते हरिहरपुर से---


डॉ०रामबली हरिहरपुरी ।
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"श्री प्रीति महिमामृतम"


प्रिया पुनीता प्रियतमा प्रीति परस्पर प्राण।
स्नेह सहज सरलामृता सरस सलिल सम्मान।।


नित बरसत अमृत रस वाणी।तृप्त होत जगती का प्राणी।।
सबके उर में अमृत धारा।पाता सुख सारा संसारा।।
शुष्क भूमि में बीज अंकुरण।होत विशाल वृक्ष शीतलपन।।
प्रमुदित तन मन जन अविकारी।अति उत्साह उमंग सुखारी।।
बसत हृदय में सात्विक चंदा।अति निर्मल अति सुन्दर वन्दा।।
वन्दनीय मृदु मोहक मनसिज।होत न मन विकारमय हरगिज।।
एकीकृत होता जग मधुवन।सर अंश सम्मत जग उपवन।।
सबके मन का बनत समुच्चय।सब बनने को आतुर  अमिमय।।
सबमें प्रेम प्रवाह गनगमय।सब होते सुविचार सजनमय।।
कामवासना भस्मीभुता।सभी कृष्ण राम अवधूता।।
सब माया से मुक्त उदासी।बनकर जीते प्रितिनिवासी।।
रस प्रधान प्रीति जग यह हो।यही दिव्य रसधाम सुबह हो।।


प्रीति रसामृत सब चखें बढ़े सभी में चाह।
प्रीति गंग सागर बहे सबमें सहज अथाह।।


नमस्ते हरिहरपुर से ---


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"श्री सरस्वती महिमामृतम"


सत्यमेव जयते तुम्हीं सत्य तुम्हारा प्यार।
सच के बल पर कर रही सबका बेड़ा पार।।


सत्य स्वामिनी सत सत्यार्थी।सहज सरल शिव शुभ सत-प्रार्थी।।
सखी सखा संन्यास समुन्दर।श्रुति सुभाषिनी सद्गति सुन्दर।।
श्याम सलिल सरिता समभावी।सुखदा शुभदा शुभ्र स्वभावी।।
तारक साधक मंत्र महोत्सव।परम पवित्र पुष्प पुष्पोत्सव।।
ज्ञापक ज्ञापन ज्ञान ज्ञानिनी।सर्वा सर्व सद्गुणी सृजनी।।
पवन प्रात पातञ्जलि प्राणी।प्रभा प्रभाकर प्रातिभ वाणी।।
दिवस दसमुखी दशा दिशा दस।सत्यनिष्ठ सज्जन शिख सरबस।।
ज्ञान सकल अनमोल रतन हो।व्यापक बुद्धि विराट सुमन हो।।
भव बाधा हर ले हे माता।वीणा- पाणी भाग्यविधाता।।


सदा सघन मेधा बनी आ माँ घर में आज।
तेरे दम पर ही चले जग का नित्य स्वराज।।


नमस्ते हरिहरपुर से---


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल

कुछ बुँदे..... 


उमस भरी धरती पर, 
कुछ बूंदों ने दस्तक दी. 
छोड़ कर हवा का दामन, 
माथे पर मस्तक दी. 
सदियों से सूखी धरा, 
उसने हल्के से दस्खत दी. 
भागती रही ये ज़िन्दगी, 
ना कभी फुर्सत थी. 
हैं सभी के अपने सलीके, 
क्यों किसी ने हस्तक दी. 
बूंदो से बदला मौसम, 
नए रंगों में बरकत दी. 
जो बदला वो अच्छा है "उड़ता ", 
पुरानी बातों से क्यों आहत की. 


✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल

होता क्यों है.... 


एक बात समझने की, 
आम जीवन ओखा क्यों है. 
संवेदना से जुड़े हम, 
फिर इश्क़ में धोखा क्यों है. 
कुछ कर गुजरने की तमन्ना, 
हालात ने रोका क्यों है. 
तक़दीर कहाँ मिटती है, 
कर्म का लेखा -जोखा क्यों है. 
दूर तलाक समुन्द्र -ए -नीर, 
सिर्फ साँस की नौका क्यों है. 
आत्मा के चित्र नहीं बनते, 
तन संग अक्स होता क्यों है. 
अश्रुओं से लिखी एक नज़्म "उड़ता ", 
तू बात पर पलकें भिगोता क्यों है. 



✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल


बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - बिन्दु बाढ़ - पटना

नज़राना 


सदाक़त की बातें भी होती रहेंगी
मुहब्बत की बातें करो धीरे - धीरे।


सियासत की बातें, ना करना कभी भी
हिफाज़त   की   बातें, करो  धीरे  धीरे।


हिदायत की बातें, बताना सभी को
सलामत  की बातें, करो धीरे - धीरे।


कयामत की बातें, ना करना कभी भी
इबादत   की  बातें, करो  धीरे  -  धीरे।


शोहरत की बातें, तो होती सदा है
सोहबत की बातें, करो धीरे - धीरे।


शहादत की बातें, स्वाभिमान रखता
महारत  की  बातें,  करो  धीरे - धीरे।


नज़ाकत की बातें, लगे सबको प्यारी
शरारत   की   बातें, करो  धीरे - धीरे।


अमानत की बातें, तो अपनी जगह है
शराफ़त   की  बातें, करो  धीरे - धीरे।


बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - बिन्दु
बाढ़ - पटना
9661065930


सुनीता असीम

चोट दिल पे ज़रा लगी सी है।
दर्द में आज कुछ कमी सी है।
***
याद उनकी चमक चमक उठती।
धूल दरपन पे कुछ ज़मी सी है।
***
ढल गया सूर्य आज जल्दी से।
साँझ भी क्यूँ रुकी रुकी सी है।
***
है हवा में यूँ फैलती सरगम।
ब्रज में बजती बांसुरी सी है।
***
खुद को महसूस कर रही तन्हा।
मुझको उनकी लगी कमी सी है।
***
सिर्फ आँखें ही कर रही बातें।
ये जुबाँ मुँह में बस थमी सी है।
***
मामला प्यार का बढ़ा जबसे।
की हवा ने भी दिल्लगी सी है।
***
सुनीता असीम
14/3/2020


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
      *'"दर्द"*
"दर्द जीवन में सहते रहे,
अपनी अपनी-
कहते रहे।
बेगाने के दिये दर्द का तो,
हिसाब कर देते -
अपनो के दिया दर्द सहते रहे।
भूल जाते अपना -बेगाना,
साथी जो वो संग -
जीवन में चलते रहे।
माने न माने वो तो साथी,
दिल की बात-
सुख जीवन का हरते रहे।
अपने तो अपने है साथी,
कह कर संग -
जीवन में चलते रहे।
बेगानो की हिम्मत नहीं,
साथी अपना बन-
जीवन भर छलते रहे।
भूल जाते दर्द अपना साथी,
अपनो के दर्द में साथी ,
हम भी जीवन भर-
यहाँ रोते रहे।
हँसते रहे अपनो की खातिर,
दिल का छिपा दर्द-
जीवन में सहते रहे।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः           सुनील कुमार गुप्ता

          14-03-2020


कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड

जीवन में दुत्कार बहुत है
*******************
द्वार तुम्हारे आया हूँ प्रिय,
जीवन में दुत्कार बहुत है।


जीवन का मधु हर्ष बनो तुम,
जीवन का नव वर्ष बनो तुम,
तुम कलियों सी खिल खिल जाओ,
चंदा किरणों -सी मुसकाओं,
रखना याद मुझे तुम रागिन,
अंतिम यह फरियाद सुहागिन।


कैसे अपना दिल बहलाऊँ
इस दिल पर भार बहुत है।


देखो यह नटखट पन छोड़ो,
मुझसे प्रेयसी, तुम मुँह मत मोड़ों,
आओ गृह की ओर चलें हम,
जग बन्धन को तोड़ चले हम,
तुमको पाकर धन्य  बनूंगा,
प्यार -प्रीति में  नित्य सुनूँगा।


तेरे हित में मुझको अब मरना है,
जीवन में अंगार  बहुत है।


संध्या की यह मधुमय बेला,
रह जाता हूँ यहाँ  अकेला,
सूरज की किरणों का मेला,
रचता है  जीवन से खेला,
अपना तन-मन भार बनाकर,
चल पड़ता गृह, हार मनाकर।


कल समझौता  होगा प्रिय,
जीवन में मनुहार बहुत  है।


दुनिया  कल यदि बोल सकेगी,
प्यार हमारा तोल सकेगी,
स्वत्व नहीं है उसको इतना,
कर ले बर्बरता हो जितना,
उसको क्या अधिकार यहां है,
कि रच दे विरह कि प्यार जहां है।


प्यार नयन की भाषा
यह इजहार बहुत है।


नव प्रभात की नूतन लाली,
रंग जाती है धरती थाली,
भौंरों के जब झुण्ड मनोहर,
गुंजित करते कुसुम -सरोवर ,
मथनी उर को मेरी हारें,
हाय, न क्यों तुम मुझे दुलारे।


कैसे  तुमको राग सुनाऊं,
जीवन-तार  बहुत  है।
******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


निशा"अतुल्य"

निशा"अतुल्य"
देहरादून
14.3.2020
*वो बीते पल*


सुनो क्या याद है 
आज भी तुम्हें
वो चाय की दुकान 
जिसके बाहर खड़े 
करते थे तुम इंतजार
और देख मुझे 
हल्के से मुस्कुराते
मेरे पहुंचने से पहले 
दो चाय के गिलास थाम हाथ में
थोड़ा आगे बढ़ आते ।
आज फिर गुजरी उस मुकाम से
वो ही चाय की दुकान
कुछ सूनी सी 
एक छवि लगी 
तभी ख़्याल आया 
तुम्हारा चले जाना 
बिन बताये मुझे ।
दे कर लंबा इंतजार
जो सालता है मुझे
आज उठा कलम 
बैठ गई लिखने एक पाती
कुछ उमड़ते भावों की तुम्हे ।
और डाल दी उसे
बिन लिखे पते पर 
कह डाकघर में 
पहुँचा देना 
अनजान पते पे कहीं।
शायद चेहरा याद हो 
डाक बाबू को तुम्हारा 
अक़्सर देखते थे 
वो ले हाथों में हाथ 
घूमते चाय पीते 
तुम्हे व मुझे ।
बस इसी उम्मीद पर
डाला एक ख़त 
अपने इंतजार का
तुम्हें 
जिसे रख लिया 
डाक बाबू ने 
देख सूने नयन मेरे ।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


प्रिया सिंह

ये बारिश नहीं.....उजाड़ का मेरे इम्तिहान है
इस परिस्थिति में मरता देश का मेरे किसान है


मिट्टी धूल कंकड़ पत्थर सब को हटा दिया
उसकी ये हरी फसल ही तो मेरे अरमान हैं


आंधी,पानी,आग सब डराती है बे-वक्त 
लेकिन ये खेत ही तो उसकी और मेरी जान है


बेटियाँ शादी बराती सब कैसे कर दें बोलो
जब अपना खेत अपना घर मेरे अंजान है


लोन कैसे चुका दे सब हारने के बाद अब
अब धीरे-धीरे बिखरता मेरे स्वाभिमान हैं


इज्ज्त दौलत अब सब मिट्टी में मिल गया
अब एक एक ईटों से बिकते मेरे मकान हैं


मेहनत मशक्कत ये पैरों के दरार भी ना कहेंगे 
बहुत घायल बहुत जख्मी मन का मेरे विमान है


फसल के साथ-साथ हौसला भी हार रहा मैं 
कितने बड़े यहाँ वास्तव में मेरे भगवान हैं


मैं मर ना जाऊँ सरकार तो बोलो क्या करूँ 
रेगिस्तान बन कर रह गये ये मेरे बागवान है


बहुत मौज से हो शहर के खिड़कियों में तुम
अब तुम सब को ये जीवन भी मेरे दान हैं


 


Priya singh


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"श्री प्रीति महिमामृतम"


प्रीति अमृता है जहाँ वहीं स्वर्ग सोपान।
बसा हुआ है प्रीति में सुन्दर सिद्ध सुजान।।


प्रितिमयी दुनिया बन जाये।देव गंग में नित्य नहाये।।
बेहद मानव मन चंगा हो।दिल में बैठी शिव गंगा हों।।
कपट वृत्ति सब जल-गल जायें।साफ-स्वच्छ हर मन हो जाये।।
शंकाओं का भंजन होगा।असुरों का  नित मर्दन होगा।।
सघन वृक्ष की छाया होगी।प्रकृति प्रदत्त शिव काया होगी।।
चढ़ जाये उल्लास हृदय में।वृद्धि सतत उत्साह प्रणय में।।
प्रीति -भाष की संस्कृति होगी।सुन्दरता की आकृति होगी।।
बढ़-चढ़कर प्रिय बातें होंगी।मधुर मधुरिमा रातें होंगी।।
स्वर्ग बनेगा यह जग सारा।सबकुछ उत्तम अति प्रिय न्यारा।।


सभी प्रितिमय नित बनें करें प्रीति रसपान।
सुन्दर मानव सा सजें खिलें भरें मुस्कान।।


नमस्ते हरिहरपुर से---


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
9838453801


संजय जैन बीना (मुम्बई)

*आंसू*
विधा: गीत


मेरे आंसुओ की कीमत,
कोई क्या समझेगा।
लगे है घाव जो दिल पर,
उन्हें कोई क्या समझेगा।
क्या कोई मेरे घावों पर,
मलहम आ कर लगाएगा।
मेरे दुखते हुए दिल को,
कोई तो धैर्य बंधायेगा।।


दिल की धड़कने मेरी,
बहुत तेज चल रही।
क्या उन्हें कोई,
आ कर शांत करेगा।
और मेरे दिल में, 
अपने जगह क्या बनापायेगा।
बिखर चुकी मेरी दुनियाँ,
को क्या कोई फिरसे बसाएगा।
अपने प्यारे शब्दो से,
मेरे दिलको बहलाएगा।।


मेरे आंसू मेरी कहानी,
कह रहे है लोगो।
की कितना कुछ सहा,
मेरे इस दिल ने लोगो।
अब और सहा नहीं जाता,
मेरे इस शरीर से।
अब में कब्र में पाव,
लटका कर बैठ गया हूँ।।


समर्पित कर दिया मैंने,
अपने आप का जीवन।
अब इच्छा है नही मेरे,
और संसार मे जीने की।
क्योंकि बहुत देख लिया मैंने, 
अपनी इस छोटी सी उम्र में।
अब प्रभु सेवा से बढ़कर 
कुछ भी नही मेरे जीवन में।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन बीना (मुम्बई)
15/03/2020


देवानंद साहा"आनंदअमरपुरी"

.............गम के कई रंग.............


गम के  कई रंग होते  हैं  जमाने में।
परेशानी भी संग होते हैं  जमाने में।


जब अपनों की नज़र बिगड़ जाती;
रफ़ाक़त  कम  होते  हैं  जमाने  में।


बारहाँ  ऐसे   इल्ज़ाम  जड़े   जाते;
अदावत  संग  होते   हैं  जमाने  में।


अच्छे कर्मों के  हिसाब नहीं रखते ;
बुरे अंज़ाम संग  होते हैं  जमाने में।


हर तरफ जब एहसानफरामोश हो;
ख़ुदा  ही  संग होते  हैं  जमाने  में ।


बुरी आदत से,बाज़ नही आनेवाले;
खुद से  ही  तंग होते  हैं जमाने  में।


ज़ुस्तज़ु हो जब मन में"आनंद"की ;
हमदर्द ही  संग  होते हैं  जमाने में।


-----देवानंद साहा"आनंदअमरपुरी"


 


अवनीश त्रिवेदी"अभय"

एक मुक्तक


वज़न - 1222      1222       1222      1222


जहाँ से जब कभी जाओ निशानी छोड़कर जाना।
हमेशा  ही  जुबानी  हो  कहानी   छोड़कर  जाना।
जमाने  की  किसी शौहरत  का लालच नही आये।
जमी दरिया दिलों  की हो  रवानी  छोड़कर जाना।


अवनीश त्रिवेदी"अभय"


रीतु प्रज्ञा             करजापट्टी, दरभंगा, बिहार

कांपे मेरा हिया


मेरे पिया हैं  दूर प्रदेश,
फैला रहा कोरोना वायरस संपूर्ण देश।
थर-थर कांपे मेरा हिया,
लागे न कहीं मेरा जिया।
हो गयी है उनसे मेरी अनबन,
बजा न सकती मोबाइल घंटी टनटन,
जा रे कागा , कहना उनसे मेरी बात
किसी से मत मिलाए हाथ।
साबुन से धो बारम्बार हाथ रखें साफ,
भारतीय परंपरा का सर्वत्र
 करें जाप,
गुनगुने पानी का करें सेवन,
निषेधात्मक उपाय अपना रहे चेतन।
अपने सिर ले न अधिक कार्य भार,
मुझे है उनसे प्यार बेशुमार।
                 रीतु प्रज्ञा
            करजापट्टी, दरभंगा, बिहार


श्याम कुँवर भारती (राजभर ) कवि/लेखक /समाजसेवी  बोकारो झारखंड

हिन्दी गजल- तेरा इंतजार तो है |
तू मुझे चाहे न चाहे दिल तेरा तलबगार तो है |
तूझे तलब मेरी हो न हो मुझे तेरा इंतजार तो है |
जब भी वक्त मिले आवाज दे देना तुम मुझे |
तू साथ चले न चले तेरी याद मेरी पतवार तो है |
लब कुछ कहे न कहे आंखे सच बया करती है |
मै खुश हूँ सच मे तुझे मुझसे बहुत प्यार तो है |
तू रहे जहा भी मेरी यादे चैन से रहने न देंगी |
ठुकराकर मेरी मोहब्बत तू मेरा गुनाहगार तो है |
क्या कहू तुझसे जो तूने वादे किए थे बहुत |
जमाना जाने न जाने तू मेरा राजदार तो है |
अपनी हुश्नों जवानी का गरुर है बहुत तुझको |
बागो भवरा की फूल को कभी दरकार तो है | 
अपने महबूब को मान खुदा सर आंखो भारती | 
कबुल नहीं मेरी मोहब्बत तू मेरा सरकार तो है | 
श्याम कुँवर भारती (राजभर )
कवि/लेखक /समाजसेवी 
बोकारो झारखंड ,मोब 9955509286


राहुल मौर्य 'संगम' गोला लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश

शीर्षक - 'मेरे गीत'
विधा -गीत 


मेरे अधरों  पर  गीतों  का , अब  राग दिखायी देता है।
शब्द  से  भीगी  बारिश  में , संगीत  सुनायी  देता  है ।।


        विरह  वेदना  की  ज्वाला  में,
              अश्रु  से  डूबी  मधुशाला   में,
                     क्यूँ  उनसे मिलने की खातिर,
                            विश्वास   दिखायी   देता   है ।
             
मेरी धड़कन गीत बुन रही , वह  गीत दिखायी देता है।
शब्द  से  भीगी  बारिश  में , संगीत  सुनायी  देता  है ।।


          हाय ! नियति  के  इन पाशों से,
                मत   बाँधो   अपनी  साँसों   से,
                      क्यूँ अंत समय  जीवन  में अब,
                            मधुमास   दिखायी   देता    है । 


गीतों की महफिल के अंदर,हर गीत दिखायी देता है ।
शब्द  से  भीगी  बारिश  में , संगीत  सुनायी  देता  है ।।
 
          लहर  पीर  की  रह - रह उठती,
                कागज कश्ती झिलमिल करती,
                      क्यूँ   पार  उतर   जाने  में  तब,
                            संताप    दिखायी    देता     है ।


मेरे अधरों  पर  गीतों का , अब  राग  दिखायी देता है।
शब्द  से  भीगी  बारिश  में , संगीत  सुनायी  देता  है ।।


स्वरचित /मैलिक
राहुल मौर्य 'संगम'
गोला लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश


सुबोध कुमार

वो मेरे दिल के फूल खिला जाती थी
वो जब भी मेरी गली में आ जाती थी


दिल खुद से ही ग़ज़ल कह जाता था
वह जब मुझे देख कर मुस्कुराती थी



जब भी तन्हा होता जाने क्या सोचता 
उसकी खुशबू  मुझे महका  जाती थी


उसकी झलक पाने छत पर बैठना मेरा
जाने वो कब कहां से वह आ जाती थी


उसको भी पता थी मेरे दिल की तड़प
याद मेरी भी उसको बहुत तड़पाती थी


गली से गुजरती क्या ढूंढती थी ऊपर
मुझे देखकर बाग  बाग हो  जाती थी


एक लड़की नाम मोहब्बत था उसका
वो  मेरी रातों  को दिन  कर जाती थी


क्या ढूंढ रखी थी जगह तन्हा सी उसने
देखो  मेरे दिल में  आराम फरमाती थी


मैं उसकी फिक्र में घुला  सा जाता था
वो मेरी लिए आंखों में रात बिताती थी


वह जन्नत की एक हूर सी थी मेरे लिए
हां वह थी मेरे सपनों  की शहजादी थी


           सुबोध कुमार


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"रिश्ते"* (दोहे) (भाग 1)
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
°रिश्ता रस है प्यार का, एक अमिट अहसास।
हियतर कोमल जान लो, समझौता है खास।।1।।


°रिश्ता तो अनुभूति है, बडा़ लहू से जान।
अपने हैं अनजान भी, अपने भी अनजान।।2।।


°रिश्तों की सीमा नहीं, ये हैं अतुल-अनंत।
निर्मल-सुखद प्रवाह ज्यों,महकत महक-वसंत।।3।।


°परिजन,पालक,पाल्यजन, रिश्ता जो भी होय।
मानवता से है बडा़, और न रिश्ता कोय।।4।।


°रिश्ता भान अमोल है, इससे मुख मत मोड़।
यह शुभ सुख अनुभूति है, इसे धरम से जोड़।।5।।


°रिश्ते बनते भाव से, करो न भाव अभाव।
भाव-भला भरपूर भर, रखना नीक स्वभाव।।6।।


°मन से कर निर्वाह जो, रखता रिश्ता टेक।
सच्चा रिश्तेदार वह, कर्म करे जो नेक।।7।।


°रिश्तों का मत मोल कर, होते ये अनमोल।
काल-कष्ट, सुख-संपदा, रिश्तों से मत तोल।।8।।


°कटुता का विष भूलकर, बैन मधुर है बोल।
रिश्ता सबसे जोड़ना, मन की गाँठें खोल।।9।।


°रिश्ते नेक बने रहें, कृपा करें भगवान।
'नायक' करता प्रार्थना, रिश्तों का हो मान।।10।।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


हलधर

सरस्वती वंदना 
-----------------


हे  मात शारदा तू मुझ पर ,इतनी सी अनुकंपा कर दे ।
वाणी से जग को जीत सकूँ ,मेरे गीतों में लय भर दे ।।


शब्दों छंदों का भिक्षुक हूँ ,मैं मांग रहा कुछ और नहीं ।
जाने कब सांस उखड़ जाय ,जीवन की कोई ठौर नहीं ।
मेरी छोटी सी चाह यही ,धन दौलत की परवाह नहीं ,
इस शब्द सिंधु को पार करूँ ,उन्मुक्त कल्पना को पर दे ।।


कलियों के हार बनाये हैं , तुझको पहनाने को मैया ।
 फूलों से रस खिचवाये हैं ,तुझको नहलाने को मैया ।
खिड़की दरवाजे छंद कहें ,दीवारें गीत ग़ज़ल गायें ,
तुलसी की चौपाई गूँजें ,ऐसा मुझको सुरभित घर दे ।।


काया ये मांटी का पुतला ,मानव औ पशु में अंतर क्या ।
वाणी बिन पता नहीं चलता ,गाली या जंतर मंतर क्या ।
पूरी अब खोज करो मैया ,वाणी में ओज भरो मैया ,
गूजूं मैं दसों दिशाओं में ,मैया मुझको ऐसा वर दे ।।


दिनकर जैसा कुछ लिख पाऊँ ,मुझको वरदान यही देना ।
जन गण के ओज गीत गाऊँ ,मुझको अनुमान सही देना ।
तेरे चरणों में बिछ जाऊँ , धरती से नभ को खिंच जाऊँ ,
दुनियाँ में गीत अमर होवें , "हलधर" को ऐसे अक्षर दे ।।
हे मात शारदा तू मुझ पर ,इतनी सी अनुकंपा कर दे ।।।।


हलधर - 9897346173


प्रिया सिंह

चेहरा उसका फूलों से सजा गुलदस्ता तो नहीं है
ये अहल-ए-नजर का बनता वाबस्ता तो नहीं है


मैं करवट बदल बदल तारे गिनता रहता हूँ छत पर
कहीं मुझको देख ये मगरूर चाँद हँसता तो नहीं है


बस एक दीद के लिये जहद-ए-मुसलसल करते थे
वो मेरा हमनशी मुझे  पागल समझता तो नहीं है 


विसाल-ए-यार का ये मुसाफ़त नया नया सा है
पाक दामन में पलता पाकीज़ा राब्ता तो नहीं है 


ये तमाम सड़क शहर भर की फूलों से सजी होगी
ये चाहत का सुहाना सफर उतना सस्ता तो नहीं है 


उसका बन्द आंखों से चुपचाप इबादत कर दूँ मैं तो
वो शख्स कार-ए-मोहब्बत का फरिश्ता तो नहीं है  


शब-ए-गम जब गुजरे तब गुजरे इश्क में बेशक 
ये कांच जैसा फर्श पर हमेशा बिखरता तो नहीं है 


हार पाकर गर बस जाएँ उनके जहन-ओ-दिल में 
ये तो जीत होगी मेरी यहाँ पर शिकस्ता तो नहीं है 


ये रंग-ए-जुनूँ ये शब-बे-दारी के करार पर गुजरना
वो इस बेक़रारी वाली बातों से दानिस्ता तो नहीं है 



Priya singh


निधि मद्धेशिया कानपुर

*शगुन*


मसोसती मन गरीबी, 
देख अमीरों के खाते।
थे रंगहीन, हुए रंगीन 
मन के अहाते। 
रास आए न फिर भी जग को
हँसी के संग आँसू छलछलाते।
आता है कई बार मन में
लिपट कर वृन्दावन रज से
कान्हा की गोपी कहाते।
गुलाल से तुम्हारे 
स्वयं को भिगाते।
दिया जो दर्द समझ *शगुन* 
लगाए सिर-माथे...💐


7:16
14/3/2020
निधि मद्धेशिया
कानपुर


गोविंद भारद्वाज, जयपुर

जल रही है धरा तप रहा है गगन
छद्ममय इस प्रगति से हुआ लाभ क्या?


पानी उतरा चला आज पाताल को,
दे रहे हम निमंत्रण स्वयं काल को,
नित सजाते रहे झूठ के आँकड़े,
हमको ऐसी कुमति से हुआ लाभ क्या?


काटकर वन उगाते रहे हम भवन,
पी रहे अब गरल करके दूषित पवन,
पेड़-पौधों को मारा, बसाए शहर,
इस हरितिमा की क्षति से, हुआ लाभ क्या?


नित्य नदियों में कचरा बहाते रहे,
हम भगीरथ के वंशज कहाते रहे,
पुण्य पुरखों के हमने सहेजे नहीं,
तप से ऐसी विरति से, हुआ लाभ क्या?


धरती माता है इसकी सुरक्षा करो,
पानी बरसेगा फिर जंगल से भरो,
वेद गाएँगे फिर से ऋचाएँ यहाँ,
थोथे नारों की वृति से हुआ लाभ क्या?


गोविंद भारद्वाज, जयपुर


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