कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड पिनकोड 246171

जीवन ही अब भार मुझे
*******************
मेरा अपना इस जग में ,
आज़ अगर प्रिय होता कोई।


मैंने प्यार किया जीवन में,
जीवन ही अब भार मुझे।
रख दूं पैर कहां अब संगिनी,
मिल जाए आधार मुझे।
दुनिया की इस दुनियादारी,
करती है लाचार मुझे।
भाव भरे उर से चल पड़ता,
मिलता क्या उपहार मुझे।
स्वप्न किसी के आज उजाडूं,
इसका क्या अधिकार मुझे।
मरना -जीना जीवन है,
फिर छलता क्यों संसार मुझे।


विरह विकल जब होता मन,
सेज सजाकर होता कोई।


विकल, बेबसी, लाचारी है,
बाँध रहा दुख भार मुझे।
किस ओर चलूं ले नैया,
अब सारा जग मंजधार मुझे।
अपना कोई आज हितैषी,
देता अब पुचकार मुझे।
सहला देता मस्तक फिर यह,
सजा चिता अंगार मुझे।
सारा जीवन बीत रहा यों,
करते ही मनुहार मुझे।
पागल नहीं अबोध अरे,
फिर सहना क्या दुत्कार मुझे।


व्यथा विकल भर जाता मन,
पास खड़ा तब रोता कोई।


फूलों से नफ़रत सी लगती,
कांटों से है प्यार मुझे।
देख चुका हूं शीतलता को,
प्रिय लगता है अंगार मुझे।
दुख के शैल उमड़ते आयें,
सुख की क्या परवाह मुझे।
भीषण हाहाकार मचे जो,
आ न सकेगी आह मुझे।
नहीं हितैषी कोई जग में,
यही मिली है हार मुझे।
ढूँढ चुका हूँ जी का कोना,
किन्तु मिला क्या प्यार मुझे।


पग के छाले दर्द उभरते,
आँसू से भर धोता कोई।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
पिनकोड 246171


सुनीता असीम

मेरे प्यार का आसरा हो गए।
हरिक मर्ज की वो दवा हो गए।
***
न आया नज़र रास्ता जब मुझे।
मेरी मंजिलों की सदा हो गए।
***
कभी पास आने को मैंने कहा।
अंगूठा दिखा वो दफा हो गए।
***
वो पहले दिखाते थे नाजो अदा।
जो देखी मुहब्बत फिदा हो गए।
***
बिछाते थे पलकें डगर पे मेरी।
मेरी आशिकी पे फना हो गए।
***
सुनीता असीम
16/3/2020


देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

..................... हम दो हमारे दो ....................


हम  दो  हमारे  दो , बस  यही  हमारी   दुनियाँ  हैं ।
यही  दुनियाँ है अच्छी , यही हमारे  दो कलियाँ हैं।।


जुड़े   हैं   हम   आपस   में , प्यार   के   धागों   से ;
किसी भी तरह  कम नहीं , ये स्वर्ग सी  गलियाँ हैं।।


ये नन्हे  बच्चे जब , तोतली  बोली  में ज़िद्द  करते ;
लगता है बस , हमारे मुँह में मिश्री  की डलियाँ हैं।।


आपस में उछलते, लड़ते , खेलते दो बच्चे देखकर;
लगता है जैसे , मुँह में  फूटते  हुए  मूँगफलियाँ हैं।।


पूरे  देश  में  इस  संदेश  को  क़ुबूल  किया   जाए ;
देश ऐसे बढ़ते चले,जैसे तरक्की की तितलियाँ हैं।।


जलो   मत  ,  बात   समझो  और  कोशिश   करो ;
तुम्हारे सामनेभी हाज़िर कामयाबी की थैलियाँ हैं।।


जो   हमारी   खुशियों  को   देखकर   ईर्ष्या   करे ;
समझें,हमारे  सांसारिक"आनंद"के  वे छलियाँ हैं।।


---------------------देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"


निशा"अतुल्य"

सखियाँ
16/ 3/ 2020


एक प्याला चाय
और मुस्कुराहट
दबा देती है उठती
हर पीड़ा।
अच्छा लगता है 
तुम्हारा पूछना
क्या पीओगी
और देख कर सखी का मुख
एक कप चाय
मेरा कहना ।
खो जाना
साँझा करना 
अपने सुख दुःख को
कभी चमकती आंखे
कभी वो ही नमी से गहराई।
हौले से कंधे पर 
हाथ रख कर कहना
चल छोड़ यार
ये घर घर की कहानी है।
उठते है इससे ऊपर 
कुछ सम्वेदनाएँ जगानी है
सभी सखियों के सँग मिल कर
एक अलख जगानी है
अब कोशिश दुसरीं तरह करते हैं
अपनी ही हंसी से
ये दुनिया हरानी है।
शून्य जब तक शून्य है
जब तक कोई संख्या 
सामने न लिखी जानी है ।
अब हम शून्य नही
संख्या बन जाते हैं
शून्य के आगे लग जाते हैं
मान उसका बढा कर
ख़ुद को बड़ा बनाते हैं
अनंत निर्विकार मन
गगन छूने चले जाते है
सूरज को कर बंद मुठी में
कतरा कतरा बहाते हैं।
ये जीवन है तेरा मेरा सखी
अब अपनी ही तरह 
सखियों सँग जी जाते हैं 
चल एक कप चाय
साथ बैठ कर पी जाते हैं ।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


संजय जैन बीना(मुम्बई)

*खुशियां*
विधा: कविता


दिल करता है,
जिंदगी तुझे दे दू।
जिंदगी की सारी 
खुशी तुझे दे दू।
दे दे अगर तू मुझे,
भरोसा अपने साथ का।
तो यकीन कर मेरा,
साँसे दे दूंगा तुझे अपनी।।


अब तक दिया है साथ,
आगे भी उम्मीद रखता हूँ।
तेरे जैसे दोस्त को, 
अपने दिल में रखता हूँ।
तभी तुझ पर यकीन
दिल से करता हूँ।
और तुझे अपना हमसफर
बनाकर जीना चाहता हूं।।


हर किसी के नसीब में,  
कहाँ लिखी होती है चाहतें।  
कुछ तो आते है 
सिर्फ तन्हाइयों के लिए।
जो सब कुछ होते हुए भी,
जीते है दुसरो के लिए।
और खुदकी चाहते छोड़कर,
जीते है दुसरो के लिए।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन बीना(मुम्बई)
16/03/2020


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली

स्वतंत्र रचना सं.२८७
दिनांकः १६.०३.२०२०
वारः सोमवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
विषयः जय
मातु पिता जयगान हो , जय  गुरु    जय   मेहमान। 
भक्ति    प्रेम   जन  गण वतन , ईश्वर  दो    वरदान।।१।।
मानवता       जयनाद   से , हो    गुंजित     संसार।
जय  किसान रक्षक  वतन , विज्ञानी    आविष्कार।।२।।
जय     हिन्द   हिन्दी  जयतु , लोकतंत्र    जयगान।
राम राज्य समरथ अमन , जय विधान   अभिमान।।३।।
संस्कार   वैदिक  जयतु , जय    भारत    पुरुषार्थ।
जय क्षिति पावक गगन जल,वात जयतु  यशगान।।४।।
जयतु विश्व सुष्मित प्रकृति,जयतु सिन्धु रवि इन्दु।
जयतु सरित निर्झर सरसि,जय पयोद जल बिन्दु ।।५।।
सदाचार   निष्ठा   जयतु , जय    भारत   परिधान।
धैर्य शील  भारत  जयतु , जय नार्यशक्ति सम्मान।।६।।
जन्मभूमि  जय  भारती , रीति   प्रीति  जय नीति।
कर्मशील परमार्थ  जय,  नव जीवन  जय   गीति।।७।।
जयतु   चक्र   बदलाव का , जयतु   तिरंगा  शान।
जयतु प्रगति नित न्याय जग,नैतिक बल अहशान।।८।।
जय मानव इन्सानियत , ऋषि मुनि  संत  समाज। 
धीर  वीर  सच  पारखी , जयतु     हिन्द आवाज़।।९।।
जयतु     ज्ञानदा   भारती ,    सर्वधर्म     सद्भाव।
जाति   धर्म  भाषा पृथक् , मिटे   सभी    दुर्भाव।।१०।।
जन गण मन मंगल जयतु, जय  हो  वेद  पुराण।
जय गीता वेदान्त  जय , सकल मनुज कल्याण।।११।।
जय संस्कृत भाषा सतत् , जयतु काव्य  संगीत।
जय दर्शन  शिल्पी वतन ,कवि निकुंज मनमीत।।१२।।


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


कैलाश , दुबे ,

मुझे पी लैने दो जी भरकर बो गम आज भी है ,


जितनों ने ढाये हैं मुझपर सितम मेरे साथ आज भी है ,


खुलकर आते नहीं हो सामने तो क्या हुआ ,


बार करने को खंजर उनके पास आज भी है ,



कैलाश , दुबे ,


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

पेश ए ख़िदमत हैं इक नई ग़ज़ल


कल  अलग  थे  मग़र  हमसफ़र  हो  गए।
ज़िन्दगी   के  सफ़र   की  डगर   हो  गए।


रुख़   हमारे   जुदा   हैं   मग़र   गम  नहीं।
देखने   को   जहाँ   इक    नज़र  हो  गए।


मन्ज़िले   रोज़    पाते     गए    हम   नई।
छाँव  ख़ातिर  मग़र  हम  शज़र   हो  गए।


दास्तां   प्यार    की     रोज    सुनते   रहे।
अब   उसी  दास्तां  का   असर   हो  गए।
 
वक़्त  के  साथ   सब   तो   बदलतें  गए।
हम   वहीं  पर  खड़े   थे  भँवर   हो  गए।


खूब     तब्दीलियाँ    रोज     होती   रही।
शाम  थे  जो  क़भी  अब  सहर  हो  गए।


अब 'अभय' ज़िन्दगी फ़क्त मुश्किल नही।
हर  दिवस   खूबसूरत    पहर    हो   गए।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


हलधर

ग़ज़ल ( हिंदी)
------------------


आ गया हूँ मंच पर तो गीत गाकर ही रहूँगा ।
शब्द की कारीगरी को आजमा कर ही रहूँगा ।


मुक्त कविता के समय में गा रहा हूँ छंद लय में,
ज्ञान पिंगल का जमाने को  बताकर ही रहूँगा ।


खेलता कैसे रहूँ मैं खेल ये निशि भर तिमिर का ,
सूर्य की पहली किरण का स्वाद पाकर ही रहूँगा ।


मुक्त होता है कभी क्या सांस का सुर ताल बंधन ,
छंद के सौंदर्य को जग में  सजाकर ही रहूँगा ।


सुप्त सरिता कह रहे हैं रेत में डूबी नदी को ,
उस नदी को नींद से अब तो जगाकर ही रहूँगा।


मुक्त तो ग्रह भी नहीं  है व्योम गंगा के निलय में ,
ज्ञान यह आकाश का सबको बताकर ही रहूँगा ।


भागते दिन भर रहे जो कार में भी साथ मेरे ,
शे'र "हलधर"डायरी के काम लाकर ही रहूँगा ।


            हलधर -9897346173


 ,


आशु कवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल,। ओमनगर, सुलतानपुर यूपी,

सुकर्म और लाज


बस चा र सवैया छंद


लाज जहां तुम्हें आनी रही वहीं बेबस हो इकरार किया।।
ध्यान रहा ना रहा तुमको परमेश्वर भी अरुझाय दिया ।।
निर्भय आऊ निडरता हु पंथ ग ही शर्मशार यूं गांव कुटुम्ब किया ।।


भा ख त चंचल धिक धिक्कार बेशर्मी कै सबक तु कंठ किया ।।1 ।।


सावधान सखे बड भागी वहीं चौरासी मा जो तन मानव पाए ।।
आश्रम वा शिक्षालय ग ये ज ह गुरुजन नीक बेकार ब ताए।।


नीक तौ पंथ कठोर लगी जेहि कारण पंथ कुपंथ हु धाये।।
भा ख त चंचल चूक गा औसर  नाहक अब तो हरे पछताए।।2 ।।


समय विधाता हु देत सब य कोई छाड़त पर कोइ कोइ अपनाई।।
बड भागी रहा जग जीव व ह ई जो नीक हु पंथ जना अपनाए।।


सम्मान सुआदर पाव त ऊ  ब हु ज़ीव हु ते वही आशीष पा ए।।
भा ख त चंचल देखि दशा जो विचारे बिना ही कुपन थ हि  धा ये।।3।।


परिणाम मिले सबका सबका चाहे राह कुनीती सुनीति न जाए।।
बुरा जब हाथ लगा निज काज तो वेग ही ईश्वर दोष गनाए।।
पड़ोसी बदे गड हा जो खने तब सम्भव है खुद ही गिर जाए।।
भा ख त चंचल दोष कहां बर जोरी विधाता जी तूने लगाए।।4।।
आशु कवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल,।
ओमनगर, सुलतानपुर यूपी,
8853521398।।


अभिषेक ठाकुर S/o- श्री शिव सिंह ग्राम - गरगैया पोस्ट-बिलन्दपुर गद्दीपुर तहशील-पुवायां थाना/ब्लॉक-सिंधौली जिला - शाहजहांपुर - 242001

गीत : रह गया हूँ मैं अकेला


क्या करूँ अब रह गया हूँ मैं अकेला!


कौन तुम  पतवार   ले आये बचाने?
कौन तुम प्रियतम मुझे आये बुलाने।
थामकर तुमने मुझे उस पल बचाया,
छुट गया था प्राण का जब दूर मेला।


हो गया निर्जीव तुमने जान डाली।
वेदना की धूलि तुमने छान डाली। 
है नया उपहार सासों का दिया फिर,
भूल सकता क्या भला वो रास बेला!


छोड़ दी चुपचाप है तुमने डगर वो।
और सूना कर  दिया मेरे नगर को।
पर  तुम्हारी राह  आंखें  देखती  हैं,
हो सकेगा क्या हृदय फ़िर से दुकेला?



@ अभिषेक ठाकुर


रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)

कविता
               🌱 रंग 🌱
               ..............
  मनभावन रंगों की इस दुनियां में,
  जो कर्मो के मन से दाने बोता है।
  मेहनत करने से कभी न डरता,
  ईश्वर उसका,रखवाला होता है।।


  रंग रुप से डरना नहीं किसी को,
  हमसब की ये अलग पहचान है।
  जीवन रूपी इस, महाखेल की,
 जाने किसके हाथ में, कमान है।।


 
 रंग का भेद किसी ने नहीं पाया,
 फिर हम क्यो,इस पर बहस करें।
 कोई दुखी नहीं रहे भारत भू पर,
 हम सब मिलकर ऐसा प्रण करें।।


 हर रंग की एक,अलग कहानी है,
 राष्ट्र हित की पहले जिम्मेदारी है।
 सभी धर्मो र्के इस भूमण्डल पर,
आज भी मानवता का रंग भारी है।।
©®
     रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)


बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - (बिन्दु) बाढ़ - पटना

प्रेम ही सत्य है


पता करो तुम कौन हो
अपने  आप   से  पूछो ?
तुमनें यहाँ क्या सीखा
तेरा   वजूद   कहाँ  है ?


क्या लिए और क्या दिए
मूल  तत्व  यहाँ  क्या  है ? 
माया   ममता   लोभ  में
कहीं  खो  तो  नहीं  गये।


संस्कृति क्या कहती है
सभ्यता से  क्या सीखे ?
कर्म, कर्तव्य  या  धर्म
कहाँ तलक सार्थक है ?


अपने  पर विश्वास है
तो हौसला बुलंद कर।
एक पहचान बना दो
जिंदगी  इम्तिहान है।


बदन   नश्वर  होता  है
परमेश्वर  अजर अमर।
असंख्य रूपों का घर
जिसमें जान बसते हैं।


जान  ही परमात्मा है
आत्मा  है  तो  हम हैं। 
ये  परम तत्व सत्य है
सत्य  ही  यहाँ प्रेम है।


जिंदगी  संँवार  लो अब
जीवन को तार लो अब।
मेहनत  तो  बहुत किए
राम को पुकार लो अब।


जब काबिलियत साथ हो
हाथों   में   जब  हाथ  हो। 
तो   कौन   रोके   तुझको
जब   इतनी   सौगात  हो।


बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - (बिन्दु)
बाढ़ - पटना
9661065930
bps_bindu @yahoo.com


कवि सिद्धार्थ अर्जुन

,, *सब के सब थे सही एक मेरे सिवा* ,,


मिले ज़िन्दगी तो दो टूक बात करूँ,
एक गुज़रे तो नये दौर की शुरुवात करूँ,
कोई फ़ुर्सत में मिले आके मुझे,
उससे साझा सभी हालात करूँ.......


ख़ता उसकी,भुला दिया मुझको,
ख़ता मेरी कि उसको याद किया,
उससे बेबस भी कोई क्या होगा,
जिसने ख़ुद को ख़ुद ही बर्बाद किया...


ख़ुशी सबकी रही एक मेरे सिवा,
हँसी सबकी रही एक मेरे सिवा,
आज स्वीकार करते हैं इस दौर में,
सब के सब थे सही एक मेरे सिवा....


            कवि सिद्धार्थ अर्जुन


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश'  (सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, महराजगंज

ग़ज़ल 
  ------//-----------


क्या रंग लायेगी तनहाई दिल की   
हर-पल रुलायेगी तनहाई दिल की
 
जो गीत गाये थे मिल के कभी हम
वही गीत गायेगी तनहाई दिल की
क्या रंग..............................  


मौजों से रिश्ता है किस्ती का मेरे
किधर ले जायेगी तनहाई दिल की
क्या रंग...............................


जो अश्क आँखों से पोछे थे तुमने 
फिर से बहायेगी तनहाई दिल की 
क्या रंग...............................


वही शाम-ए-ग़म, उसी रास्ते पर
क्या लौट जायेगी तनहाई दिल की
क्या रंग.................. ..............


रचना- डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 
(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, महराजगंज)


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"मेरा मन-मीत"


अति भावुक मनमीत हमारा,
अति कोमल अति सहज पियारा,
कभी न छेड़ो इसको मित्रों,
मित्रों का है इसे सहारा।


इसको केवल प्यार चाहिये,
प्रिय भावुक संसार चाहिये,
नहीं समझता यह पैसे को,
पावन भाव दुलार चाहिये।


मृदु भावों से सना हुआ है,
मधुर क्रिया से बना हुआ है,
मत दुत्कारो इसको मित्रों,
मादकता में छना हुआ है।


बहुत स्वतंत्र सहज कल्याणी,
अतिशय मोहक मीठी वाणी,
नहीं किसी से याचन करता,
इस धरती का सज्जन प्राणी।


करता नहीं किसी की निन्दा,
हँसमुख मस्ताना है वन्दा,
हाथ जोड़कर मिलता सबसे,
अति मिठास मौन शर्मिन्दा।


नमस्ते हरिहरपुर से---


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"श्री सरस्वती अर्चनामृतम"


आ माँ लेलो गोद में दो मुझको उपहार।
भूखे इस नवजात को दो पय-ज्ञान-आहार।।


दूर न जाना साथ रहो माँ।इस दुधमुंहे का हाथ गहो माँ।।
मैँ अति भूखा-प्यासा बालक।मुझे समझ लायक-नालायक।।
मैँ अनाथ हूँ बिना तुम्हारे।जीऊं कैसे बिना सहारे।
सिर्फ तुम्हारा सदा सहारा।आकर कर मेरा उद्धारा।।
विद्या देकर रोग भगा माँ।बनी योगिनी योग सीखा माँ।।
क ख ग घ हमें सिखाओ।हाथ पकड़कर राह बताओ।।
मैँ अबोध हूँ तुम सद्ज्ञानी।मैं नवजात तुम प्रौढ़ा प्राणी।।
ज्ञान-रहस्य बता हे माता।माँ सरस्वती ज्ञान-विधाता।।
मत छोड़ो माँ हाथ हमारा।दीनबन्धु हे नाथ अधारा।।
निर्मल मन हो शिवमय स्वर हो।वीणापाणी माँ का वर हो।।
तत्वबोधिनी बनकर आओ।परम तत्व-रहस्य बतलाओ।।
तुम अजेय कर मुझे जितेन्द्रा।महा बलवती भागे तन्द्रा।।
युगों-युगों का भूखा-प्यासा।एक तुम्हीं माँ मेरी आशा।।


बहुत काल से तड़पता-रोता आया आज।
करता क्रन्दन करुण हूँ सुन मेरी आवाज।।


नमस्ते हरिहरपुर से---


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
9838453801


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"  पिता  "* (दोहे)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
*भीतर से मीठे-नरम, ऊपर लगें कठोर।
श्रीफल सम होते पिता, लेते सदा हिलोर।।१।।


*परिजन पालक हैं पिता, खुशियों के आगार।
उद्धारक परिवार के, होते खेवनहार।।२।।


*साथ रहें शासित रखें, पितु होते हैं खास।
आँगन में परिवार के, हरपल करें उजास।।३।।


*जो आश्रय-फल-छाँव दे, अक्षय वट सम जान।
कुल पालक होेते पिता, सबका रखते ध्यान।।४।।


*सहनशीलता के सदा, पितु होते प्रतिमान।
शिशु को जो सन्मार्ग की, करवाते पहिचान।।५।।


*अपनों का हित सोचते, तजकर सारे स्वार्थ।
बगिया के माली-पिता, करते हैं परमार्थ।।६।।


*गूढ़-गहन-गंभीर अति, होता पितु का रूप।
कोर-कपट से दूर वे, होते अतुल-अनूप।।७।।


*संबल होते हैं सदा, पितु आनंद-निधान।
पाते पिता-प्रताप से, परिजन प्रेम-प्रतान।।८।।


*पावन-परिमल-प्रेरणा, अद्भुत अनुकरणीय।
पितु अनुपम आदर्श बन, होते हैं नमनीय।।९।।
      
*जागृत जानो जगत में, पिता परम भगवान।
सागर नेह-दुलार के, रखना उनका मान।।१०।।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
       *"अर्चना"*
"अर्चना-उपासना-अराधना-साधना,
ये सभी है साथी,-
भक्ति के सोपान।
भक्ति पथ पर चल कर ही ,
मिलता है साथी -
जीवन में ज्ञान।
पूजा-पाठ और सत्संग से ही,
मिटता साथी-
जीवन में छाया अज्ञान।
प्रभु भजन से ही जीवन में,
मिटता अंहकार साथी-
होता अपनत्व का संज्ञान।
प्रकृति की करे रक्षा जो,
चले सत्यपथ करें सद्कर्म-
मिले सुख सारे मिटे अज्ञान।
अर्चना-उपासना-अराधना-साधना,
ये सभी हैं साथी-
भक्ति के सोपान।।
ःःःः            सुनील कुमार गुप्ता
      16-03-2020


सत्यप्रकाश पाण्डेय

तुझे छोड़ कर दूजा भाता नहीं
और कोई रूप रंग सुहाता नहीं
निकलता जिव्हा से नाम तेरा
तुझे छोड़ दिल कुछ गाता नहीं


तुझसे स्वार्थ जैसा नाता नहीं
तुम्हें छोड़ मन कहीं जाता नहीं
तेरा सौंदर्य बसा है नयनों में
तुम्हारे शिवाय कोई समाता नहीं


तेरी सी धुन कोई बजाता नहीं
सुन सुन मन फूला समाता नहीं
ओ सत्य के आराध्य मुरलीधर
तेरे शिवाय मैं सिर झुकाता नहीं।


श्री कृष्णाय नमो नमः💐💐💐💐💐🙏🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


राजेंद्र रायपुरी

😊हाय कोरोना,हाय कोरोना😊


हाय कोरोना, हाय कोरोना।
  यारो हर दिन आप करो ना।
   रोक-थाम  की  करो उपाय,
      ताकि  ये   बढ़ने  मत  पाय।


हाथ किसी से नहीं मिलाओ। 
  सारी दुनिया  को समझाओ।
    हाथ  जोड़कर  करो  नमस्ते। 
      तभी    रहोगे    यारो   हॅ॑सते।


भीड़-भाड़  से  दूर  रहो  ना।
  काहे   कहते   हाय   कोरोना।
    सेनीटाइजर   हाथ  मलो  ना।
      करो नहीं  तुम  हाय  कोरोना।


बार-बार तुम  हाथ को धोओ।
  मुॅ॑ह -नाक  को ढाॅ॑क के सोओ।
    नादानी   तुम   यार   करो   ना।
      करो  नहीं  तुम   हाय  कोरोना।


टूर-टार   पर   यार  न   जाओ।
  भोजन    शाकाहारी      खाओ।
    भक्षण   कोई   मांस   करो  ना।
      दूर     रहेगा     यार     कोरोना।


डॉक्टर  को  भगवान  ही जानो। 
   कहना    उनका    यारो    मानो। 
    उनसे  तुम   तक़रार   करो   ना।
      दूर      रहेगा     तभी     करोना।


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कालिका प्रसाद सेमवाल

🌹🙏शुभ प्रभात🙏🌹


प्रभु नाम जपने से सब कष्ट हरते है


🙏🌹🙏🌹🙏
 प्रभु नाम जपने से नवजीवन मिलता है ।
तन मन का मुरझाया , उपवन खिलता है।
अन्तर के कोने में इक दीपक जलता है।
प्रभु नाम जपने से सब कष्टों का हरण होना है।
🌷
संसार समुन्दर गहरा,हां हां गहरा,
 कर्मो का हर ओर लगा है पहरा।
सब छोड़ जगत की माया, हां हां माया,
ले लो तुम प्रभु शरण की  छाया
तन मन का मुरझाया उपवन खिलता है
🌷
प्रभु सुमरन से, संताप सभी टल जाएं।
तूफां में भी ,भव सागर से पार  कर पाते है,
सब बंधन से मुक्त ,हो जाते  है
तन मन  का मुरझाया उपवन खिलता है। 
🌷
जीवन यदि सफल बनाना है तो
प्रभु नाम जपना ही है
इस नाम से  ही सब का बेड़ा पार होना है
प्रभु नाम जपने से ही जीवन सफल होना है।


🌹🌹🌹🌻🌻🌻🌷🌷🌷
     कालिका प्रसाद सेमवाल
🌴🥀🔔🌸🌾🏵🚩🍂


मासूम मोडासवी

बदली हुई निगाह सब अरमां जला रही
सरपे  हमारे  देखीये  कैसी  बला  रही


फुरकत ने जिंदगी को परीशां किया बहोत
मनकी  अधुरी  आज भी अरजे वफा रही


नाजुक  सा  दिल  बेचारा  गमसे दबा रहा
हसरत  विसाले  यार  में  टसवे  बहा रही


जीना  तडप  तडप  के  मुकद्दर बना रहा
ये  दोस्ताना सूरत जो  हस्ती  जला  रही


मंजर  नजर के सामने दिलकश सजे रहे
कल्बो  नजर  लुभाती ये बादे  सबा  रही


कोई  तो  बे  रुखीकी  हद्द  होनी चाहीये
उनसे  लगी  उमिद  की मासूम खता रही


                            मासूम मोडासवी


बलराम सिंह यादव धर्म एवम अध्यात्म शिक्षक व्याख्याता मानस मर्मज्ञ

राम जी के चरणों से सच्चा प्रेम


बन्दउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  गो0जी कहते हैं कि अब मैं अयोध्या के राजा श्री दशरथजी की वन्दना करता हूँ, जिनका प्रभुश्री रामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था,जिन्होंने दीनदयाल प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्रिय शरीर का साधारण तिनके की तरह त्याग कर दिया।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
 श्रीमद्गोस्वामीजी द्वारा सत्य प्रेम कहने का भाव यह है कि जब प्रभुश्री रामजी के वियोग में जीवन पर संकट आ जाय और मरण या मरणासन्न स्थिति हो जाय।दोहावली में सत्य प्रेम की व्याख्या करते हुए गो0जी कहते हैं--
मकर उरग दादुर कमठ जल जीवन जल गेह।
तुलसी एकइ मीन को है साँचिलो सनेह।।
 अर्थात मकर,सर्प,मेढ़क,कछुआ आदि सभी का जल में ही घर है और सभी का जल ही जीवन है परन्तु सच्चा प्रेम तो जल से मछली का ही है जो जल के बिना जीवित ही नहीं रह सकती है।
  रामवनगमन के समय अवधवासी भी अपने प्रेम को धिक्कारते हुये कहते हैं कि हमारा प्रेम तो झूठा है क्योंकि सच्चा प्रेम तो मछली का है जो जल से विलग होने पर अपने प्राण त्याग देती है।यथा,,,
निंदहिं आपु सराहहिं मीना।
धिग जीवन रघुबीर बिहीना।।
जौं पै प्रिय बियोगु बिधि दीन्हा।
तौ कस मरनु न माँगे दीन्हा।।
  महराज दशरथजी व माता कौशल्याजी ने भी अपने पूर्व जन्म में मनु व शतरूपा के रूप में तप करके भगवान से यही वरदान मांगा था कि हमें आप जैसा पुत्र प्राप्त हो और हमारा जीवन आप पर वैसे ही आधारित रहे जैसे मणि के बिना सर्प व जल के बिना मछली का जीवन होता है अर्थात उनका मरण हो जाता है।यथा,,,
दानि सिरोमनि कृपानिधि सत्य कहउँ सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ।।
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले।
एवमस्तु करुणानिधि बोले।।
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई।
नृप तव तनय होब मैं आई।।
जो कछु रुचि तुम्हरे मन मांही।
मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं।।
 तब मनु व शतरूपा ने यह वर भी माँगा---
सुत बिषइक तव पद रति होऊ।
मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ।।
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना।
मम जीवन तिमि तुम्हहिं अधीना।।
अस बरु माँगि चरन गहि रहेऊ।
एवमस्तु करुणानिधि कहेऊ।।
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी।
बसहु जाइ सुरपति रजधानी।।
तँह करि भोग बिसाल तात गये कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत।।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


नूतन लाल साहू

महामारी रोग
कोरोना कोरोना
अब सब को है,रोना
हमने ही बिगाड़ा है,पर्यावरण
मौत तो,आना ही है
खाने के लिए चम्मच
पीने के लिए बार
अब खुशियां,देखते है लोग
घर के बाहर
कोरोना कोरोना
अब सब को है, रोना
हमने ही बिगाड़ा है,पर्यावरण
मौत तो,आना ही है
जगह जगह, बम फूट रहा है
हिंसा घृणा का खेल चल रहा है
आतंकी हथियार बढ़ रहा है
पर्यावरण का विनाश हो रहा है
इसका जिम्मेदार,हम ही तो है
कोरोना कोरोना
अब सब को है,रोना
हमने ही बिगाड़ा है,पर्यावरण
मौत तो,आना ही है
होली खेलने से,डरता है
इसलिए खोली में रहता है
ऐसे ही डरो,पर्यावरण के दुश्मनों
तो क्यों होगा,आगे नुकसान
कोरोना कोरोना
अब सब को है,रोना
हमने ही बिगाड़ा है,पर्यावरण
मौत तो, आना ही है
नूतन लाल साहू


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