आह,
निकली थी एक, जडमति सी हो गई।
पिया, के संग सौतन, मै हार मति ,सी हो गई।
जिंदगी विरहन बेला मे, मै कैसे जी पाऊंगी।
बिना पिया के साथ लिए, अब रह.ना पाऊंगी।
सोच सोच घबराई मै, एक सती सी हो गई।
और जालिम दुनिया के आगे मै, हति सी हो गई।
कैसे समझाउ मनवा, चैन कैसे पाऊ।
इस.विरह अग्नि मे मै जल जल जाऊ।
उठे तो सिसकियो मे दिल, और मचलाए सिसकियो मे।
अब तो साजन मुझसे एक पल रहा ना जाए।
आ जिधर भी बैठा है तू, मत इस तरह से मार।
एक अच्छे उपवन के फूल को इस तरह ना तू बिखार।
जिंदगी तेरी ही अमानत यहां है थी।
मौत भी आयी नही यही.मै, सतासी सी हो गई।
आज बता सारे जग को मै तेरी का लगती हूँ।
जिसने तुझको चाहा इतना, वह चाहत क्या होती हूं।
या दिल तेरा दूजो के संग है। दूजो मै व्यथित सी हो गई हूँ।
साजन तेरे बिना, अब तो मै। हतास सी हो गई हूं।
श्रीमती ममता वैरागी तिरला धार
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
श्रीमती ममता वैरागी तिरला धार
श्रीमती ममता वैरागी तिरला धार
चलो आज पढे जिंदगी।
आज सभी लोग जिंदगी नही जी पा रहे है।
बहुत अच्छा विषय है जिंदगी,
नेक कर्मो की यह है बंदगी।
जो इसे समझ है गया।
.बडा सवाल हल कर गया।
सुंदर ताजी हवा मे सांस लो।
आकर शांति से विश्राम लो।
थोडी देर आंख बंदकरके।
प्रभू.का भी स्मरण कर लो।
उठो नहाओ, फिर है काम लो।
थोडी थोडी देर आराम हो
ग्यारह ,बारह इस तरह बीते।
तिनिक भी नही दिमाग गरम हो।
अब ना बेटा, और ना बेटी,
किसी के बारे मे मत हो चिंतित।
एक लक्ष्य बनाकर चलने दो।
संस्कारो से उन्हे भरने दो।
अब माता पिता संग बैठो।
तनिक बाते भी उनसे कर लो।
सास बहु यदि साथ साथ है।
आपस मे ना उन्हे लडने दो।
भागम भाग की यदि है नौकरी।
दूर रखना कोई है छोकरी।
लव भी ना ज्यादा है.करना।
अपने काम से काम है रखना।
आओ अब यहां धन को ले ले।
इसके लिए नही जान है देना।
जितना मिला है, जैसा मिला है।
संतोष बस इसी.मे.है धरना।
व्यर्थ अंह के आगे देखो।
अपना नुकसान मत कर लेना।
आओ शाम को हंसते हुए तुम।
बीबी ,बच्चो के साथ है रहना।
अब कही तुम घुमकर आओ।
ना जा सको तो गरम खाना हे खाओ।
रात देर तक जगना नही है।
बच्चो के पाठ देख कर सो जाना।
ताकि समय पर जल्दी है उठना।
शांत भाव तुम हरदम रखना।
देखो तुम यहां पाने लगोगे।
स्वास्थ.,धन, परिवार हंसेगा।
सबके सब संगी ,साथी बनेगे।
और जीवन ये सफल होगा।
श्रीमती ममता वैरागी तिरला धार
सीमा शुक्ला अयोध्या
आंखे
गम और खुशी का भेद जानती हैं ये आंखे ।
इस पार से उस पार झांकती हैं ये आंखे ।
जो दृश्य हो नयनाभिराम इस जहान में,
उस दृश्य को अपलक हो ताकती हैं ये आंखे ।
चेहरे पे किसी के कभी रुक जाती हैं आँखे ।
होकर के शर्मसार भी झुक जाती हैं आँखे ।
हर शर्म हया छोड़ के होकर के वेनकाब,
करने को सामना भी तो उठ जाती हैं आँखे ।
दिल की तड़प व दर्द बताती हैं ये आंखे ।
रातों को जागकर के सताती है ये आंखे ।
एक ही नजर में दिल का बुरा हाल बना दें,
सीधे जिगर पे तीर चलाती है ये आंखे ।
ख्वामोशी में भी बात को करती हैं ये आंखे
आँसू से ही वर्षात को करती हैं ये आंखे ।
चुपके से एक नजर में करके तिरछा इशारा,
दिल के सभी जज्बात बंया करती हैं आँखे ।
जग होता अन्धकार जो न होती ये आंखे ।
होता न कुछ दीदार जो न होती ये आंखे ।
कोई न बदलता यहां फिर चेहरे पे चेहरा,
होता ये कैसे प्यार जो न होती ये आंखे ।
सीमा शुक्ला अयोध्या
डाॅ विजय कुमार सिंघल* प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
*प्राकृतिक चिकित्सा-46*
*हृदय रोगों की विभीषिका*
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार संसार में जितनी भी मौतें होती हैं, उनमें सबसे बड़ा कारण हृदय रोग और हृदयाघात हैं। कुल मौतों में इनसे होने वाली मौतों की संख्या लगभग 27 प्रतिशत है। 2016 में कुल मौतों की संख्या 5.69 करोड़ थी, जिनमें से 1.52 करोड़ केवल हृदय सम्बंधी रोगों के कारण अकाल मृत्यु के शिकार हुए। आज भी इस स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं आया है। आजकल भी हृदय रोग बहुत फैल रहे हैं। पहले यह रोग प्रायः बड़ी उम्र वाले पुरुषों को ही हुआ करते थे, परंतु अब तो बच्चे-बूढ़े-जवान स्त्री-पुरुष सभी को हृदय रोग हो जाते हैं।
हृदय रोग अपने आप में कोई स्वतंत्र रोग नहीं है बल्कि अन्य कई रोगों का सम्मिलित परिणाम होता है। कुछ रोग जैसे रक्तचाप, मोटापा, मधुमेह, मूत्र विकार, चिंताग्रस्त रहना आदि मिलकर हृदय पर बहुत बोझ डालते हैं। इससे हृदय धीरे-धीरे दुर्बल हो जाता है। इसलिए हृदय को स्वस्थ रखने के लिए इन सभी रोगों से बचे रहना आवश्यक है। गलत जीवन शैली और भारी प्रदूषण ही इन सभी रोगों का और हृदय रोगों का भी प्रमुख कारण है। जब तक जीवन शैली में उचित परिवर्तन नहीं किया जाएगा, तब तक इन रोगों से छुटकारा पाना लगभग असम्भव है। इसी कारण केवल हृदय बदलने से या बाईपास सर्जरी करने से कुछ समय बाद फिर पहले जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
हृदय रोगों के साथ बुरी बात यह है कि किसी को हृदयाघात होने से पहले इसके कोई लक्षण कहीं नजर नहीं आते। इस कारण लोग इससे बचाव का प्रबंध नहीं कर पाते। फिर भी कुछ उपाय हैं जिनके द्वारा हृदय दुर्बलता और उससे उत्पन्न होने वाले हृदयाघात से बचकर रहा जा सकता है।
कई विद्वानों ने बताया है कि हृदय रोगों के तीन प्रमुख कारण होते हैं- हरी (Hurry), वरी (Worry) और करी (Curry)। यहाँ ‘हरी’ का अर्थ है- हमेशा भागदौड़ और हड़बड़ी में रहना। अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठाने या सरल शब्दों में अधिक पैसा कमाने के लिए आदमी बहुत भागदौड़ करता है और इस बात का ध्यान नहीं रखता कि इससे उससे स्वास्थ्य का कैसा सर्वनाश हो रहा है।
‘वरी’ का अर्थ है- हमेशा चिन्ताग्रस्त रहना। व्यक्ति अनगिनत चिन्ताओं को पाल लेता है, ऐसे लक्ष्य तय कर लेता है जिनको पाना सामान्य तौर पर सरल नहीं है। जब तक वे लक्ष्य प्राप्त नहीं होते तब तक वह बहुत चिन्तित बना रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि लक्ष्य प्राप्त होने तक उसका शरीर अनेक रोगों का घर बन जाता है और स्वास्थ्य में इतनी गिरावट आ जाती है कि उसे पुनः ठीक करना असम्भव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य हो जाता है।
‘करी’ का अर्थ है- स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्तुओं का सेवन करना। यह एक कठोर सत्य है कि बाजारू फास्टफूड और माँसाहारी व्यंजन खाने में भले ही स्वादिष्ट लगते हों, परन्तु अन्ततः ये स्वास्थ्य के लिए घातक ही सिद्ध होते हैं। लेकिन आधुनिक जीवनशैली और बाजार की प्रवृत्तियों के कारण मनुष्य इनके जाल में फँसता है और अपने स्वास्थ्य का सर्वनाश कर लेता है।
इन तीनों में से प्रत्येक कारण अकेला ही मनुष्य के स्वास्थ्य और जीवन के लिए बहुत हानिकारक है और जब ये तीनों एक साथ मिल जाते हैं तो इनकी भयावहता का अनुमान लगाया जा सकता है। इनके कारण ही मनुष्य का शरीर अनेक रोगों का स्थायी निवास बन जाता है और उनके साथ-साथ हृदय भी दुर्बल होता जाता है। अतः हृदय रोगों से मुक्ति पाने का सही उपाय इन तीनों कारणों को दूर करना ही है।
ऊपर बताये गये रोगों के उपचार के बारे में इस लेखमाला में विस्तृत चर्चा की जा चुकी है। यदि किसी को इनमें से कोई रोग है तो उसका उचित प्राकृतिक उपचार करना चाहिए। संक्षेप में इतना ही समझ लीजिए कि यदि आप हृदय रोगों से बचना चाहते हैं तो आपको खूब पानी पीना चाहिए, अधिक से अधिक पैदल चलना चाहिए, पर्याप्त शारीरिक श्रम या व्यायाम करना चाहिए, गहरी सांसें लेनी चाहिए, सात्विक वस्तुएँ उचित मात्रा में खानी चाहिए तथा सबसे बढ़कर हमेशा प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। जीवन शैली में परिवर्तन किये बिना हृदय रोगों से मुक्ति पाना असम्भव है। अगली कड़ी में हम हृदय रोगों से बचने और उनसे मुक्ति पाने के उपायों की विस्तृत चर्चा करेंगे।
*-- डाॅ विजय कुमार सिंघल*
प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य
मो. 9919997596
चैत्र कृ 6, सं 2076 वि (15 मार्च, 2020)
सीमा शुक्ला अयोध्या।
जिन्दगी के सफर मे हमेशा, देखते नित नयी हम कहानी।
है लवो पर कभी कुछ शिकायत,है कभी जिन्दगी ये सुहानी।
****
जो न मिलता है चाहत मे उसकी, जो मिला है न उसकी कदर है,
इस तरह खोने पाने की धुन मे,खो चुके है बहुत ये जवानी
*****
प्रेम सच्चा वही है चिरंतन,साथ दे जो निलय से प्रलय मे,
चार पल की मुलाकात को क्या,हम कहे है मुहब्बत रूहानी।
****
हम गये जो कहीं बीच महफिल,मिल गया साथ अपनो के ये दिल,
चंद पल की मुलाकात मे हम,छोड आते है अपनी निशानी।
****
जन्म इंसान लेता है घर मे,कर्म से नाम होता है जग मे,
सूर तुलसी कबीरा जगत मे,कर्म से बन गये गूढ ज्ञानी।
****
दर्द मे भी सदा हंसते रहना,हर मुसीबत को हिम्मत से सहना,
होके मायूस चुप बैठ 'सीमा',तुम गंवाना न यू जिन्दगानी ।
सीमा शुक्ला अयोध्या।
जयश्रीतिवारी खंडवा
कोरोना
कोरोना ,कोरोना ,कोरोना
तेरे नाम क्या रोना?
कितना भी तू कहर ढाले
लोगों को नहीं सुधार पाएगा
मेरे देश के लोग इतनी आसानी से नहीं सुधर पाएंगे
मृत्यु सामने खड़ी हो तो भी
अपने कर्मों से बाज नहीं आएंगे
इंसान चाहे तो पल में अपने आप को सुधार ले
नहीं तो कितने भी जन्म ले ले
उन्हे सुधार पाना मुश्किल है
क्योंकि, इंसान के अंदर ही सुधरने की प्रवृत्ति होना चाहिए
वरना स्वाइन फ्लू, सुनामी, कोरो ना, कितने भी बड़े-बड़े दिग्गज आ जाएं
मेरे देश के लोगों को सुधार ना पाए
कोरोना तुम कुछ ऐसा कर जाओ
मेरे देश के लोगों के मन में त्याग ,पीड़ा, ममता ,उदारता भर जाओ
ताकि और कुछ नहीं हम ईश्वर को जाकर जवाब दे सके
हमारे अंदर की विचारों को बदल सकें
और इसी जन्म में ही लोगों के साथ किए गए बुरे बर्ताव का प्रायश्चित कर सकें
जयश्रीतिवारी खंडवा
स्नेहलता'नीर
गीत
*****
मापनी-16/16
रँग गयी श्याम के रंग नीर,
जीवन में जैसे होली है।
भावों में भक्ति भावना की,
मिसरी जी भर कर घोली है।
1
अभिशापित था जीवन कल तक,
आँसू नयनों से झरते थे।
छलनाओं के कारोबारी,
दिन -रात निडर हो छलते थे
घनश्याम कृपा से घर मेरे,
ख़ुशियों की उतरी डोली है।
रँग गयी श्याम के रंग नीर,
जीवन में जैसे होली है।
2
बंसी के स्वर अब मधुर- मधुर,
कानों में मधुरस घोल रहे।
झाँझर के नूपुर हुए मगन,
कंगन भी खन- खन बोल रहे।
केशव की चरण धूलि मेरे,
माथे का चंदन -रोली है।
रँग गयी श्याम के रंग नीर,
जीवन में जैसे होली है।
3
मन के आँगन की फुलवारी,
मुस्काई साँस सुवासित है ।
सानिध्य तुम्हारा पाने को ,
गोपालप्रिया संकल्पित है।
मष्तिष्क पटल पर बनी अमिट,
मनभावन भाव-रँगोली है।
रँग गयी श्याम के रंग नीर,
जीवन में जैसे होली है।
स्नेहलता'नीर'
कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड पिनकोड 246171
जीवन ही अब भार मुझे
*******************
मेरा अपना इस जग में ,
आज़ अगर प्रिय होता कोई।
मैंने प्यार किया जीवन में,
जीवन ही अब भार मुझे।
रख दूं पैर कहां अब संगिनी,
मिल जाए आधार मुझे।
दुनिया की इस दुनियादारी,
करती है लाचार मुझे।
भाव भरे उर से चल पड़ता,
मिलता क्या उपहार मुझे।
स्वप्न किसी के आज उजाडूं,
इसका क्या अधिकार मुझे।
मरना -जीना जीवन है,
फिर छलता क्यों संसार मुझे।
विरह विकल जब होता मन,
सेज सजाकर होता कोई।
विकल, बेबसी, लाचारी है,
बाँध रहा दुख भार मुझे।
किस ओर चलूं ले नैया,
अब सारा जग मंजधार मुझे।
अपना कोई आज हितैषी,
देता अब पुचकार मुझे।
सहला देता मस्तक फिर यह,
सजा चिता अंगार मुझे।
सारा जीवन बीत रहा यों,
करते ही मनुहार मुझे।
पागल नहीं अबोध अरे,
फिर सहना क्या दुत्कार मुझे।
व्यथा विकल भर जाता मन,
पास खड़ा तब रोता कोई।
फूलों से नफ़रत सी लगती,
कांटों से है प्यार मुझे।
देख चुका हूं शीतलता को,
प्रिय लगता है अंगार मुझे।
दुख के शैल उमड़ते आयें,
सुख की क्या परवाह मुझे।
भीषण हाहाकार मचे जो,
आ न सकेगी आह मुझे।
नहीं हितैषी कोई जग में,
यही मिली है हार मुझे।
ढूँढ चुका हूँ जी का कोना,
किन्तु मिला क्या प्यार मुझे।
पग के छाले दर्द उभरते,
आँसू से भर धोता कोई।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
पिनकोड 246171
सुनीता असीम
मेरे प्यार का आसरा हो गए।
हरिक मर्ज की वो दवा हो गए।
***
न आया नज़र रास्ता जब मुझे।
मेरी मंजिलों की सदा हो गए।
***
कभी पास आने को मैंने कहा।
अंगूठा दिखा वो दफा हो गए।
***
वो पहले दिखाते थे नाजो अदा।
जो देखी मुहब्बत फिदा हो गए।
***
बिछाते थे पलकें डगर पे मेरी।
मेरी आशिकी पे फना हो गए।
***
सुनीता असीम
16/3/2020
देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
..................... हम दो हमारे दो ....................
हम दो हमारे दो , बस यही हमारी दुनियाँ हैं ।
यही दुनियाँ है अच्छी , यही हमारे दो कलियाँ हैं।।
जुड़े हैं हम आपस में , प्यार के धागों से ;
किसी भी तरह कम नहीं , ये स्वर्ग सी गलियाँ हैं।।
ये नन्हे बच्चे जब , तोतली बोली में ज़िद्द करते ;
लगता है बस , हमारे मुँह में मिश्री की डलियाँ हैं।।
आपस में उछलते, लड़ते , खेलते दो बच्चे देखकर;
लगता है जैसे , मुँह में फूटते हुए मूँगफलियाँ हैं।।
पूरे देश में इस संदेश को क़ुबूल किया जाए ;
देश ऐसे बढ़ते चले,जैसे तरक्की की तितलियाँ हैं।।
जलो मत , बात समझो और कोशिश करो ;
तुम्हारे सामनेभी हाज़िर कामयाबी की थैलियाँ हैं।।
जो हमारी खुशियों को देखकर ईर्ष्या करे ;
समझें,हमारे सांसारिक"आनंद"के वे छलियाँ हैं।।
---------------------देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
निशा"अतुल्य"
सखियाँ
16/ 3/ 2020
एक प्याला चाय
और मुस्कुराहट
दबा देती है उठती
हर पीड़ा।
अच्छा लगता है
तुम्हारा पूछना
क्या पीओगी
और देख कर सखी का मुख
एक कप चाय
मेरा कहना ।
खो जाना
साँझा करना
अपने सुख दुःख को
कभी चमकती आंखे
कभी वो ही नमी से गहराई।
हौले से कंधे पर
हाथ रख कर कहना
चल छोड़ यार
ये घर घर की कहानी है।
उठते है इससे ऊपर
कुछ सम्वेदनाएँ जगानी है
सभी सखियों के सँग मिल कर
एक अलख जगानी है
अब कोशिश दुसरीं तरह करते हैं
अपनी ही हंसी से
ये दुनिया हरानी है।
शून्य जब तक शून्य है
जब तक कोई संख्या
सामने न लिखी जानी है ।
अब हम शून्य नही
संख्या बन जाते हैं
शून्य के आगे लग जाते हैं
मान उसका बढा कर
ख़ुद को बड़ा बनाते हैं
अनंत निर्विकार मन
गगन छूने चले जाते है
सूरज को कर बंद मुठी में
कतरा कतरा बहाते हैं।
ये जीवन है तेरा मेरा सखी
अब अपनी ही तरह
सखियों सँग जी जाते हैं
चल एक कप चाय
साथ बैठ कर पी जाते हैं ।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
संजय जैन बीना(मुम्बई)
*खुशियां*
विधा: कविता
दिल करता है,
जिंदगी तुझे दे दू।
जिंदगी की सारी
खुशी तुझे दे दू।
दे दे अगर तू मुझे,
भरोसा अपने साथ का।
तो यकीन कर मेरा,
साँसे दे दूंगा तुझे अपनी।।
अब तक दिया है साथ,
आगे भी उम्मीद रखता हूँ।
तेरे जैसे दोस्त को,
अपने दिल में रखता हूँ।
तभी तुझ पर यकीन
दिल से करता हूँ।
और तुझे अपना हमसफर
बनाकर जीना चाहता हूं।।
हर किसी के नसीब में,
कहाँ लिखी होती है चाहतें।
कुछ तो आते है
सिर्फ तन्हाइयों के लिए।
जो सब कुछ होते हुए भी,
जीते है दुसरो के लिए।
और खुदकी चाहते छोड़कर,
जीते है दुसरो के लिए।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन बीना(मुम्बई)
16/03/2020
कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली
स्वतंत्र रचना सं.२८७
दिनांकः १६.०३.२०२०
वारः सोमवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
विषयः जय
मातु पिता जयगान हो , जय गुरु जय मेहमान।
भक्ति प्रेम जन गण वतन , ईश्वर दो वरदान।।१।।
मानवता जयनाद से , हो गुंजित संसार।
जय किसान रक्षक वतन , विज्ञानी आविष्कार।।२।।
जय हिन्द हिन्दी जयतु , लोकतंत्र जयगान।
राम राज्य समरथ अमन , जय विधान अभिमान।।३।।
संस्कार वैदिक जयतु , जय भारत पुरुषार्थ।
जय क्षिति पावक गगन जल,वात जयतु यशगान।।४।।
जयतु विश्व सुष्मित प्रकृति,जयतु सिन्धु रवि इन्दु।
जयतु सरित निर्झर सरसि,जय पयोद जल बिन्दु ।।५।।
सदाचार निष्ठा जयतु , जय भारत परिधान।
धैर्य शील भारत जयतु , जय नार्यशक्ति सम्मान।।६।।
जन्मभूमि जय भारती , रीति प्रीति जय नीति।
कर्मशील परमार्थ जय, नव जीवन जय गीति।।७।।
जयतु चक्र बदलाव का , जयतु तिरंगा शान।
जयतु प्रगति नित न्याय जग,नैतिक बल अहशान।।८।।
जय मानव इन्सानियत , ऋषि मुनि संत समाज।
धीर वीर सच पारखी , जयतु हिन्द आवाज़।।९।।
जयतु ज्ञानदा भारती , सर्वधर्म सद्भाव।
जाति धर्म भाषा पृथक् , मिटे सभी दुर्भाव।।१०।।
जन गण मन मंगल जयतु, जय हो वेद पुराण।
जय गीता वेदान्त जय , सकल मनुज कल्याण।।११।।
जय संस्कृत भाषा सतत् , जयतु काव्य संगीत।
जय दर्शन शिल्पी वतन ,कवि निकुंज मनमीत।।१२।।
कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली
कैलाश , दुबे ,
मुझे पी लैने दो जी भरकर बो गम आज भी है ,
जितनों ने ढाये हैं मुझपर सितम मेरे साथ आज भी है ,
खुलकर आते नहीं हो सामने तो क्या हुआ ,
बार करने को खंजर उनके पास आज भी है ,
कैलाश , दुबे ,
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
पेश ए ख़िदमत हैं इक नई ग़ज़ल
कल अलग थे मग़र हमसफ़र हो गए।
ज़िन्दगी के सफ़र की डगर हो गए।
रुख़ हमारे जुदा हैं मग़र गम नहीं।
देखने को जहाँ इक नज़र हो गए।
मन्ज़िले रोज़ पाते गए हम नई।
छाँव ख़ातिर मग़र हम शज़र हो गए।
दास्तां प्यार की रोज सुनते रहे।
अब उसी दास्तां का असर हो गए।
वक़्त के साथ सब तो बदलतें गए।
हम वहीं पर खड़े थे भँवर हो गए।
खूब तब्दीलियाँ रोज होती रही।
शाम थे जो क़भी अब सहर हो गए।
अब 'अभय' ज़िन्दगी फ़क्त मुश्किल नही।
हर दिवस खूबसूरत पहर हो गए।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
हलधर
ग़ज़ल ( हिंदी)
------------------
आ गया हूँ मंच पर तो गीत गाकर ही रहूँगा ।
शब्द की कारीगरी को आजमा कर ही रहूँगा ।
मुक्त कविता के समय में गा रहा हूँ छंद लय में,
ज्ञान पिंगल का जमाने को बताकर ही रहूँगा ।
खेलता कैसे रहूँ मैं खेल ये निशि भर तिमिर का ,
सूर्य की पहली किरण का स्वाद पाकर ही रहूँगा ।
मुक्त होता है कभी क्या सांस का सुर ताल बंधन ,
छंद के सौंदर्य को जग में सजाकर ही रहूँगा ।
सुप्त सरिता कह रहे हैं रेत में डूबी नदी को ,
उस नदी को नींद से अब तो जगाकर ही रहूँगा।
मुक्त तो ग्रह भी नहीं है व्योम गंगा के निलय में ,
ज्ञान यह आकाश का सबको बताकर ही रहूँगा ।
भागते दिन भर रहे जो कार में भी साथ मेरे ,
शे'र "हलधर"डायरी के काम लाकर ही रहूँगा ।
हलधर -9897346173
,
आशु कवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल,। ओमनगर, सुलतानपुर यूपी,
सुकर्म और लाज
बस चा र सवैया छंद
लाज जहां तुम्हें आनी रही वहीं बेबस हो इकरार किया।।
ध्यान रहा ना रहा तुमको परमेश्वर भी अरुझाय दिया ।।
निर्भय आऊ निडरता हु पंथ ग ही शर्मशार यूं गांव कुटुम्ब किया ।।
भा ख त चंचल धिक धिक्कार बेशर्मी कै सबक तु कंठ किया ।।1 ।।
सावधान सखे बड भागी वहीं चौरासी मा जो तन मानव पाए ।।
आश्रम वा शिक्षालय ग ये ज ह गुरुजन नीक बेकार ब ताए।।
नीक तौ पंथ कठोर लगी जेहि कारण पंथ कुपंथ हु धाये।।
भा ख त चंचल चूक गा औसर नाहक अब तो हरे पछताए।।2 ।।
समय विधाता हु देत सब य कोई छाड़त पर कोइ कोइ अपनाई।।
बड भागी रहा जग जीव व ह ई जो नीक हु पंथ जना अपनाए।।
सम्मान सुआदर पाव त ऊ ब हु ज़ीव हु ते वही आशीष पा ए।।
भा ख त चंचल देखि दशा जो विचारे बिना ही कुपन थ हि धा ये।।3।।
परिणाम मिले सबका सबका चाहे राह कुनीती सुनीति न जाए।।
बुरा जब हाथ लगा निज काज तो वेग ही ईश्वर दोष गनाए।।
पड़ोसी बदे गड हा जो खने तब सम्भव है खुद ही गिर जाए।।
भा ख त चंचल दोष कहां बर जोरी विधाता जी तूने लगाए।।4।।
आशु कवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल,।
ओमनगर, सुलतानपुर यूपी,
8853521398।।
अभिषेक ठाकुर S/o- श्री शिव सिंह ग्राम - गरगैया पोस्ट-बिलन्दपुर गद्दीपुर तहशील-पुवायां थाना/ब्लॉक-सिंधौली जिला - शाहजहांपुर - 242001
गीत : रह गया हूँ मैं अकेला
क्या करूँ अब रह गया हूँ मैं अकेला!
कौन तुम पतवार ले आये बचाने?
कौन तुम प्रियतम मुझे आये बुलाने।
थामकर तुमने मुझे उस पल बचाया,
छुट गया था प्राण का जब दूर मेला।
हो गया निर्जीव तुमने जान डाली।
वेदना की धूलि तुमने छान डाली।
है नया उपहार सासों का दिया फिर,
भूल सकता क्या भला वो रास बेला!
छोड़ दी चुपचाप है तुमने डगर वो।
और सूना कर दिया मेरे नगर को।
पर तुम्हारी राह आंखें देखती हैं,
हो सकेगा क्या हृदय फ़िर से दुकेला?
@ अभिषेक ठाकुर
रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)
कविता
🌱 रंग 🌱
..............
मनभावन रंगों की इस दुनियां में,
जो कर्मो के मन से दाने बोता है।
मेहनत करने से कभी न डरता,
ईश्वर उसका,रखवाला होता है।।
रंग रुप से डरना नहीं किसी को,
हमसब की ये अलग पहचान है।
जीवन रूपी इस, महाखेल की,
जाने किसके हाथ में, कमान है।।
रंग का भेद किसी ने नहीं पाया,
फिर हम क्यो,इस पर बहस करें।
कोई दुखी नहीं रहे भारत भू पर,
हम सब मिलकर ऐसा प्रण करें।।
हर रंग की एक,अलग कहानी है,
राष्ट्र हित की पहले जिम्मेदारी है।
सभी धर्मो र्के इस भूमण्डल पर,
आज भी मानवता का रंग भारी है।।
©®
रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)
बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - (बिन्दु) बाढ़ - पटना
प्रेम ही सत्य है
पता करो तुम कौन हो
अपने आप से पूछो ?
तुमनें यहाँ क्या सीखा
तेरा वजूद कहाँ है ?
क्या लिए और क्या दिए
मूल तत्व यहाँ क्या है ?
माया ममता लोभ में
कहीं खो तो नहीं गये।
संस्कृति क्या कहती है
सभ्यता से क्या सीखे ?
कर्म, कर्तव्य या धर्म
कहाँ तलक सार्थक है ?
अपने पर विश्वास है
तो हौसला बुलंद कर।
एक पहचान बना दो
जिंदगी इम्तिहान है।
बदन नश्वर होता है
परमेश्वर अजर अमर।
असंख्य रूपों का घर
जिसमें जान बसते हैं।
जान ही परमात्मा है
आत्मा है तो हम हैं।
ये परम तत्व सत्य है
सत्य ही यहाँ प्रेम है।
जिंदगी संँवार लो अब
जीवन को तार लो अब।
मेहनत तो बहुत किए
राम को पुकार लो अब।
जब काबिलियत साथ हो
हाथों में जब हाथ हो।
तो कौन रोके तुझको
जब इतनी सौगात हो।
बिन्देश्वर प्रसाद शर्मा - (बिन्दु)
बाढ़ - पटना
9661065930
bps_bindu @yahoo.com
कवि सिद्धार्थ अर्जुन
,, *सब के सब थे सही एक मेरे सिवा* ,,
मिले ज़िन्दगी तो दो टूक बात करूँ,
एक गुज़रे तो नये दौर की शुरुवात करूँ,
कोई फ़ुर्सत में मिले आके मुझे,
उससे साझा सभी हालात करूँ.......
ख़ता उसकी,भुला दिया मुझको,
ख़ता मेरी कि उसको याद किया,
उससे बेबस भी कोई क्या होगा,
जिसने ख़ुद को ख़ुद ही बर्बाद किया...
ख़ुशी सबकी रही एक मेरे सिवा,
हँसी सबकी रही एक मेरे सिवा,
आज स्वीकार करते हैं इस दौर में,
सब के सब थे सही एक मेरे सिवा....
कवि सिद्धार्थ अर्जुन
डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' (सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, महराजगंज
ग़ज़ल
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क्या रंग लायेगी तनहाई दिल की
हर-पल रुलायेगी तनहाई दिल की
जो गीत गाये थे मिल के कभी हम
वही गीत गायेगी तनहाई दिल की
क्या रंग..............................
मौजों से रिश्ता है किस्ती का मेरे
किधर ले जायेगी तनहाई दिल की
क्या रंग...............................
जो अश्क आँखों से पोछे थे तुमने
फिर से बहायेगी तनहाई दिल की
क्या रंग...............................
वही शाम-ए-ग़म, उसी रास्ते पर
क्या लौट जायेगी तनहाई दिल की
क्या रंग.................. ..............
रचना- डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश'
(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, महराजगंज)
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
"मेरा मन-मीत"
अति भावुक मनमीत हमारा,
अति कोमल अति सहज पियारा,
कभी न छेड़ो इसको मित्रों,
मित्रों का है इसे सहारा।
इसको केवल प्यार चाहिये,
प्रिय भावुक संसार चाहिये,
नहीं समझता यह पैसे को,
पावन भाव दुलार चाहिये।
मृदु भावों से सना हुआ है,
मधुर क्रिया से बना हुआ है,
मत दुत्कारो इसको मित्रों,
मादकता में छना हुआ है।
बहुत स्वतंत्र सहज कल्याणी,
अतिशय मोहक मीठी वाणी,
नहीं किसी से याचन करता,
इस धरती का सज्जन प्राणी।
करता नहीं किसी की निन्दा,
हँसमुख मस्ताना है वन्दा,
हाथ जोड़कर मिलता सबसे,
अति मिठास मौन शर्मिन्दा।
नमस्ते हरिहरपुर से---
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
"श्री सरस्वती अर्चनामृतम"
आ माँ लेलो गोद में दो मुझको उपहार।
भूखे इस नवजात को दो पय-ज्ञान-आहार।।
दूर न जाना साथ रहो माँ।इस दुधमुंहे का हाथ गहो माँ।।
मैँ अति भूखा-प्यासा बालक।मुझे समझ लायक-नालायक।।
मैँ अनाथ हूँ बिना तुम्हारे।जीऊं कैसे बिना सहारे।
सिर्फ तुम्हारा सदा सहारा।आकर कर मेरा उद्धारा।।
विद्या देकर रोग भगा माँ।बनी योगिनी योग सीखा माँ।।
क ख ग घ हमें सिखाओ।हाथ पकड़कर राह बताओ।।
मैँ अबोध हूँ तुम सद्ज्ञानी।मैं नवजात तुम प्रौढ़ा प्राणी।।
ज्ञान-रहस्य बता हे माता।माँ सरस्वती ज्ञान-विधाता।।
मत छोड़ो माँ हाथ हमारा।दीनबन्धु हे नाथ अधारा।।
निर्मल मन हो शिवमय स्वर हो।वीणापाणी माँ का वर हो।।
तत्वबोधिनी बनकर आओ।परम तत्व-रहस्य बतलाओ।।
तुम अजेय कर मुझे जितेन्द्रा।महा बलवती भागे तन्द्रा।।
युगों-युगों का भूखा-प्यासा।एक तुम्हीं माँ मेरी आशा।।
बहुत काल से तड़पता-रोता आया आज।
करता क्रन्दन करुण हूँ सुन मेरी आवाज।।
नमस्ते हरिहरपुर से---
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी ।
9838453801
भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
*" पिता "* (दोहे)
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*भीतर से मीठे-नरम, ऊपर लगें कठोर।
श्रीफल सम होते पिता, लेते सदा हिलोर।।१।।
*परिजन पालक हैं पिता, खुशियों के आगार।
उद्धारक परिवार के, होते खेवनहार।।२।।
*साथ रहें शासित रखें, पितु होते हैं खास।
आँगन में परिवार के, हरपल करें उजास।।३।।
*जो आश्रय-फल-छाँव दे, अक्षय वट सम जान।
कुल पालक होेते पिता, सबका रखते ध्यान।।४।।
*सहनशीलता के सदा, पितु होते प्रतिमान।
शिशु को जो सन्मार्ग की, करवाते पहिचान।।५।।
*अपनों का हित सोचते, तजकर सारे स्वार्थ।
बगिया के माली-पिता, करते हैं परमार्थ।।६।।
*गूढ़-गहन-गंभीर अति, होता पितु का रूप।
कोर-कपट से दूर वे, होते अतुल-अनूप।।७।।
*संबल होते हैं सदा, पितु आनंद-निधान।
पाते पिता-प्रताप से, परिजन प्रेम-प्रतान।।८।।
*पावन-परिमल-प्रेरणा, अद्भुत अनुकरणीय।
पितु अनुपम आदर्श बन, होते हैं नमनीय।।९।।
*जागृत जानो जगत में, पिता परम भगवान।
सागर नेह-दुलार के, रखना उनका मान।।१०।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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