डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"सबसे बड़ा धर्म सम्मान"


          (वीर छंद)


ईश्वर ने ये दिया है  दान,जग में कर सम्मान सभी का.,
कभी न होगा खाली हाथ, भर-भर मुट्ठी सबको बांटो.,
देने से बढ़ता सम्मान, कभी न कण भर खाली होगा.,
यह ईश्वर का है वरदान, अक्षुण्ण धन यह विपुल संपदा.,
समझो इसको सिन्धु समान, यह अथाह भण्डार हृदय में.,
जितना चाहो उतना बाँट, सदा लबालब भरा रहेगा.,
खुशियाँ मिलतीं अपरंपार, जरा बाँटकर देखो मित्रों.,
नहीं किसी को छोटा जान, एक भाव से सबको देखो.,
बालक हो अथवा हो वृद्ध, चाहे पुरुष या कि नारी हो.,
चाहे जो हो उसकी जाति, चाहे हिन्दू या मुस्लिम हो.,
सिक्ख ईसाई एक समान, सबको सदा बाँटते जाओ.,
हो जायेगा जीवन धन्य, हो जाओगे अमर जगत में.,
कर अपना खुद का कल्याण,  सबको सम्मानित कर जग में.,
ऊँचा कर लो अपना नाम, फहराओ आकाश तिरंगा.,
इससे अच्छा और उपाय, कुछ भी नहीं अमर होने का.,
धर्म बराबर है सम्मान, सीखो बस तुम इस विद्या को.,
बन जाओगे सहज विनीत, बैठायेगी दुनिया सिर पर.,
मिल जायेगी उत्तम ख्याति, सभी मिलेंगे हाथ जोड़ते.,
सुन्दर संस्कृति का निर्माण, करते जाओगे आजीवन.,
होगा सबसे प्रिय संवाद, निर्विवाद आवाद रहोगे.,
देते चल सबको सम्मान, कदम-कदम पर यज्ञ करोगे.,
यह है असली धर्म विमान, घूम-घूम कर देते जाओ.,
करो विश्व का नित सम्मान, यही जगत की असली पूजा।


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" नई दिल्ली

हरो तिमिर माँ सर्वदे
शारद   सरसिज   शारदे , श्वेतकमल   आसीन। 
हरो   तिमिर   माँ  सर्वदे , कोराना      आस्तीन।।१।।
वाग्देवी     वीणाधरा , प्रातः     मम     अनुरोध।
करो त्राण व्यापित विपद,बालक जगत अबोध।।२।।
कल्याणी     वरदायिनी , महिमा      अपरम्पार। 
आदिशक्ति     संताप  हर , करो जगत   उद्धार।।३।।
हंसासन    हे    विधिप्रिये , वेदरूप      अवतार।
शुभदे    विमले    शारदे , हरो   शोक     संसार।।४।।
वरदे    वाणी   भारती , हरो  तिमिर   हर  शोक।
पावन    त्रिभुवन   श्रीप्रदे , करो जगत आलोक।।५।।
उजड़ा  लोक निकुंज   है , रोग शोक अभिशाप।
खिले  कुसम  सुरभित अमन, शुभदे हर संताप।।६।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
नई दिल्ली


श्रीमती ममता वैरागी.तिरला धार

सदिया गुजर ग ई।
खत्म ना हुआ,
नारी का लाकडाउन।
घर के भीतर ,और उसमे भी पर्दा।
रहती आई ,सिसक सिसक।
पर मजाल वह बाहर आती।
या उडने को है.मचलती।
बाबुल के घर भी अंदर रहती।
और ससुराल मे.भी है तडफती।
कभी देखा था ,उसवक्त ये हाल।
चुल्हा जलता था, भीषण गर्मी मार।
पूरे शरीर पर फफोले.से रहते।
फिर मुस्कुराती ,भोजन बनाती।
घर के अंदर और घूंघट मे।
दस दस किलो.मिर्च है कुटती।
और देखो कैसे घट्टी.मे।
ये दोनो हाथो आटा है.पीसती।
लाकडाऊन, शक्त पहरा ससुर का।
ना जरा भी आराम कर.पाती।
कोख मे बच्चा.हो फिर भी।
कैसे ये. पनघट पानी है.भरती।
वाह री.नारी.,तू.  रहे। सलामत।।
कितनी चोट तू सहती.रहती।
पर.फिर भी लब लाल है.रहते।
और सुंदर यह.मुरत लगती।
श्रीमती ममता वैरागी.तिरला धार


डॉ0हरि नाथ मिश्र गेय गीता

*गीता-सार*  -डॉ0हरि नाथ मिश्र
                (पहला अध्याय)
मोहिं बतावउ संजय तुमहीं।
कुरुक्षेत्र मा का भय अबहीं।।
   कीन्हेंयु का सुत सकल हमारे।
   पांडु-सुतन्ह सँग जुद्ध मँझारे।।
अस धृतराष्ट्र प्रस्न जब कीन्हा।
तासु उतर संजय तब दीन्हा।।
   संजय कह सुन हे महराजा।
   पांडव-सैन्य ब्यूह जस साजा।
लखतय जाहि कहेउ दुर्जोधन।
सुनहु द्रोण गुरु मम संबोधन।
   द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न तुम्हारो।
   बृहदइ सैन्य ब्यूह रचि डारो।
पांडव जन कै सेना भारी।
लखहु हे गुरुवर नैन उघारी।।
   सात्यकि अरु बिराट महबीरा।
   अर्जुन-भीम धनुर्धर धीरा।।
धृष्टकेतु-पुरुजित-कसिराजा।
चेकितान-सैब्य जहँ छाजा।।
     परम निपुन जुधि मा उत्तमोजा।
     रन-भुइँ अहहिं कुसल कुंतिभोजा।।
संग सुभद्रा-सुत अभिमन्यू।
पाँचवु पुत्र द्रोपदी धन्यू।।
   ये सब अहहिं परम बलवाना।
   जुधि-बिद्या अरु कला-निधाना।।
निरखहु इनहिं औ निरखहु मोरी।
बरनन जासु करहुँ कर जोरी।।
   दोहा-हे द्विज उत्तम गुरु सुनहु,जे कछु कहहुँ मैं अब।
          मम सेनापति,सेन-गति,जे कछु तिन्ह करतब।।
स्वयं आपु औ भीष्मपितामह।
कृपाचार गुरु बिजयी जुधि रह।।
     कर्ण-बिकर्णय-अस्वत्थामा।
     भूरिश्रवा बीर बलधामा।।
बहु-बहु सूर-बीर बलसाली।
अस्त्र-सस्त्र सजि सेन निराली।।
    अहहि मोर सेना अति कुसला।
    जुद्ध-कला बड़ निपुनइ सकला।।
भीष्मपितामह रच्छित सेना।
भीमसेन जेहि जीत सके ना।।
    अस्तु,सभें जन रहि निज स्थल।
    भीष्मपितामह रच्छहु हर-पल।।
सुनि दुर्जोधन कै अस बचना।
भीष्म कीन्ह निज संख गर्जना।।
     ढोल-मृदंगय-संख-नगारा।
     कीन्ह नृसिंगा जुधि-ललकारा।।
धवल अस्व-रथ चढ़ि ध्वनि कीन्हा
अर्जुन-कृष्न संख कर लीन्हा।।
    पांचजन्य रह संख किसुन कै।
    देवयिदत्त संख अर्जुन कै।।
संख पौंड्र भिमसेन बजायो।
रन-भुइँ संख-नाद गम्भीरायो।।
            डॉ0हरि नाथ मिश्र
             9919446372       क्रमशः.......


अनन्तराम चौबे अनन्त  जबलपुर म प्र

        नई दुल्हन


माता पिता का घर छोड़
बेटी जब ससुराल चली ।
नई दुल्हन के रूप में वह
पति संग ससुराल चली ।


बिलखता अपनी मां को 
दुल्हन बन ससुराल चली ।
विधि का ये कैसा विधान है
खुशियों के नये द्वार चली ।


नई दुल्हन बनकर एक बेटी
नये घर में ससुराल चली ।
पति के माता पिता के घर 
दुल्हन बन ससुराल चली  ।


बाबुल का घर हुआ पराया जहां
बचपन बीता सब सुख पाया ।
पाल पोस कर माता पिता ने
बेटी को जहां इस योग्य बनाया ।


बेटी एक पराया धन होती है
बात ये सबको पता होती है ।
एक दिन बाबुल का घर छोड़ेगी
नई दुल्हन बन ससुराल जायेगी ।


विधि का ये कैसा, विधान है
जो हर नारी के साथ ही होता है ।
पति के बिन नारी ही है अधूरी
नई दुल्हन का घर ससुराल होता है ।
     अनन्तराम चौबे अनन्त
           जबलपुर म प्र
               2432/
          9770499027


डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी

*राम बाण🏹*     *चम्मच कानून*


दद्दा पोता सुन रहे,  चमचों का कानून।
कैसे उनके केस में, होगा नया जुनून।।


तकवारी तारीख  से,  बच जायेंगे खेत।
सुनवाई  में छूट  से, चमचे करें सचेत।।


गवाह अपने हैं सही, अपने  तथ्य  सबूत।
पक्ष विपक्ष न सोचते, चमचे  सेवा  दूत।।


चमचे सच्चे  पारखी,चमचे सच के साथ।
न्याय दिलाने के लिए,बनते सबके नाथ।।


लेट लतीफी से बचें, झगड़ों को सुलझाय।
चमचे जीवन अर्थ को,जान रहा समुदाय।


भेदभाव से भिन्न  हैं, चमचों की ये  जात।
जात असर सब जानते,चमचों के जज्बात।।

चमचे  पानीदार  है,  पानी  रब  का  नूर।
पानी बोतल  बंद  है , पीकर  के मदचूर।।


जलधारा बन सींचता, चम्मच सागर नीर।
अपनो को अपना लिए,बनके पीर फकीर।।


सिंचित जीवित पेड़ है,चमचे है  फलदार। 
 रेन बसेरा  छाँव दे,  नजरों के  किरदार।।


चमचे अपने कोर्ट  में, निर्णय करते आप।
राम अदालत आपकी, सुनते हैं चुपचाप।।


               *डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी*


विष्णु असावा              बिल्सी ( बदायूँ )

गीत


जब से तुम परदेश गये हो आँगन सूना लगता है
प्रियतम मेरे बिना तुम्हारे सावन सूना लगता है
सूनी मन की ये बगिया सूने से स्वप्न झुलाती है
मेरे मन की खुशी तो जैसै अपने गाल फुलाती है


सूना सब संसार हुआ है सूना है मन का दरपन
आओगे जब पिया पास मैं खुद को कर दूंगी अरपन
आजाओ परदेशीबाबू जोगन तुम्हें बुलाती है
मेरे मन की खुशी तो जैसै अपने गाल फुलाती है


जिन गलियों में तेरा आना जाना मुझे सुहाता था
खिड़की में से चुपके से मन देख देख हर्षाता था
अब वो खिड़की और गली हर दम ही मुझे रुलाती है
मेरे मन की खुशी तो जैसै अपने गाल फुलाती है


हर पल राह निहारूँ लगता कागा छत पर बोलेगा
लायेगा वो खबर पिया की सुनकर मनबा डोलेगा
नींद नहीं आँखों में पर बस ये ही बात सुलाती है
मेरे मन की खुशी तो जैसै अपने गाल फुलाती है


               विष्णु असावा
             बिल्सी ( बदायूँ )


शशि कुशवाहा लखनऊ,उत्तर प्रदेश

"तुम बिन "


ए मेरे हमदम ,
ए मेरे हमनवाज ।
तुम बिन अधूरा ,
मेरा हर एहसास।


मेरी कविता है अधूरी,
अधूरी है मेरी कहानी।
मेरा इश्क है अधूरा,
अधूरी मेरी जिंदगानी।


दिन का उजाला हैं अधूरा,
अधूरी है ढलती हुई शाम।
खामोश रात है अधूरी,
अधूरे है मेरे हर ख्वाब।


मेरी पूजा है अधूरी,
अधूरी है हर इबादत।
महकी हुई बात अधूरी,
ठहरे हुए जज्बात अधूरे।


सुनसान रास्ता हैं अधूरा,
अधूरी है राहो की मंजिल।
जिंदगी के हर रंग है अधूरे,
अधूरी है सारी खुशियाँ ।


मेरी आशिकी है अधूरी,
अधूरी है मेरी शायरी।
बेचैन सांसे है अधूरी,
अधूरी है मिलन की प्यास।


तुम बिन हूँ तन्हा,
 बिलकुल अधूरी।
पूरी कर दो अब ,
मेरी जिंदगी अधूरी।


शशि कुशवाहा
लखनऊ,उत्तर प्रदेश


रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)

घर में रहो सुखी रहो,
यही पक्का उपचार।
बात है सो टके सही,
मन से करें  विचार।।


मन से करें  विचार,
जतन है यह पक्का।
लाक डाउन ही बस,
मित्र सबका सच्चा।।


जीवननैया का अब,
करें  मिल  सम्मान।
बार बार धोंये हाथ,
सब रखना ध्यान।।


रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)


आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला बरबीघा वाले

हनुमत लाला


हे  हनुमत लाला वदन विशाला
मेरी सुन तू ओ जग रखवाला
हम तो आए शरण तिहारे
तुम विन है अब कौन हमारे
बीच भंवर में पड़ी है नैया
पतवार नहीं ना कोई खेवैया
बनके मांझी कराहु निहाला
 हे  हनुमत लाला वदन विशाला
मेरी सुन तू ओ जग रखवाला


सीता सुधि तुम ने ही लायो
लक्ष्मण के भी प्राण बचायो
अहिरावण के मार भगायो
सोने की लंका तुमने जरायो
सबके तू कष्ट मिटाने वाला
 हे  हनुमत लाला वदन विशाला
मेरी सुन तू ओ जग रखवाला


अंजनि सुत हे मारुति नंदन
पवन पुत्र तू है दुख भंजन
संत सहाय असुर निकंदन
आजाद तुम्हारा करता बंदन
 अकेला कलयुग का रखवाला
 हे  हनुमत लाला वदन विशाला
मेरी सुन तू ओ जग रखवाला


जनक नंदिनी के मन को भायो
अष्ट सिद्धि तू नव निधि को पायो
भीड़ पड़ी  जब-जब यहां भारी
तुमने ही तब जग को उबारी
फिर से आकर करहु निहाला
 हे  हनुमत लाला वदन विशाला
मेरी सुन तू ओ जग रखवाला


अपने जन है कष्ट में तेरे
तू कब आओगे घर में मेरे
हम सब हैं शरण में तेरे
तुम बिन कष्ट हारे ना मेरे
अब तो आओ ओ मतवाला
 हे  हनुमत लाला वदन विशाला
मेरी सुन तू ओ जग रखवाला


आचार्य गोपाल जी 
        उर्फ 
आजाद अकेला बरबीघा वाले
 प्लस टू उच्च विद्यालय बरबीघा शेखपुरा बिहार


राजेश कुमार सिंह "राजेश"

*# काव्य कथा वीथिका #*-92
( लघु कथा पर आधारित कविता)
***********************
शब्द हमारे भाव और, 
अन्तर्मन के दर्पण होते। 
************************। 
घर के उस सुन्दर बालक ने, 
    मद्धिम स्वर मेंं ज्योंही बोला । 
कु़छ कहने को आगे आया, 
     हल्का सा ज्योंही मुंह खोला ॥ 


एक तेज झिड़क ने पल भर मेंं, 
      उसकी रंगत को बदल दिया । 
एक निर्दोष जैसे दोष लिए, 
      उल्टे कदमों से पलट लिया ॥ 


ये शब्द हमारे भाव और, 
           अन्तर्मन के दर्पण होते । 
ये शब्द खाड़ से मीठे बन, 
             ईश्वर को अर्पण होते ॥ 


शब्दों के दम पर, जीवन के, 
             सुन्दर सोपान खड़े होते । 
शब्दों के सुघर समर्पण से, 
         सब दीये लिए खड़े होते ॥ 


कथा वीथिका की पंक्ति, 
    शब्दों के कारण जानी जाती। 
साहित्य जगत की हर हस्ती, 
           शब्दों से पहचानी जाती ॥ 


वह सुन्दर बालक नौकर था, 
          उस ऊंची बड़ी हवेली का । 
फासला बीच का इतना था, 
           मर्सडीज और  ठेली का ॥


अब इन हालातों को देखो, 
          ये ऩजर आपकी खोलेगी । 
हर शक्तिमान अब भीगा है, 
      कविता  चिल्ला कर बोलेगी ॥  


राजेश कुमार सिंह "राजेश"
दिनांक 10-04-2020


देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

...............ये प्यार यार...............


बहुत ही  मुश्किल है , ये प्यार  यार।
बस में  नहीं दिल  है , ये प्यार यार।।


खुद तो  मान भी  लूं , किसी  तरह ;
मानता नहीं  दिल है , ये प्यार यार।।


जच भी जाए,इन निगाहों  में कोई ;
समझता नहीं दिल है,ये प्यार यार।।


सांसत में है जान , मेरी इस  कदर ;
मचलता नहीं दिल है,ये प्यार यार।।


कैसे बहलाऊं मैं ,अपने  दिल  को ;
बहलता नहीं दिल है,ये प्यार यार।।


जानभी ले कोई,वक़्त की मज़बूरी;
जानता नहीं दिल है ,ये प्यार यार।।


बर्दाश्त हो जाए ,हर दर्द "आनंद" ;
होता नहीं  दिल है , ये प्यार  यार।।


-- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"


प्रखर दीक्षित फर्रुखाबाद

*नीरवता का गान*


नीरवता ने सुर साधे प्रिय
सांय सांय का कोलाहल था
निपट विपिन सी पंथ उपत्यिका
सघन कालिमा ज्यों परिचित सी
स्वराज कोकिला मौन उदासी
आगत लेख सुनाने लगी है।


जिधर देखिए दृश्य भयावह
मर्त्य अमर्त्य की उपापोह वश
दग्ध ह्रदय में प्रबल ज्वाल घन
दर्द दवा बन मौन थकित सा
निकष त्रास ने लिखी वेदना
टूटा बिखरा हारा जीवन
फिर भी यह जीवटता अपने
पियरे छंद गाने लगी है।।


मानवता विह्वल आशंकित
भग्न स्वप्न हैं सूनी आंखें
ढ़लक गाल पर सूखे आँसूँ
आह इमारत स्वयं लिख गए
वो मदांध क्या जाने पीड़ा
उन्नति अवनति कि जादूगर जो
चीत्कार आरती स्वर गुंजित
कब भव से यह पाप छंटेगा
मीत बलवती आशा पावन
साहस कि परचम कर थामें
नवजीवन स्वयं मनाने लगी है ।।


प्रखर दीक्षित
फर्रुखाबाद


मंजू किशोर 'रश्मि'

हो रहा है मन परेशां बहुत ।
कहां छिपे हो,हे ! मन भावन ।।


यहाँ चाँदनी सहमी अकेली।
व्याकुलता की बनी पहेली।।


आओ मिलकर प्रेम पखारो ।
चन्द्र बदन तारों में छिपकर।।


चांदनी की ना तुम राह निहारो।
अलौकिक  ये रात न  बुहारो‌।।


ढल ना जाए बिन मिलन के।
मत ना मन को क्लेश पे वारो।।


आओ 'राम' रंग यौवन पर वारो‌।
घड़ी मिलन की बीती जाती।।


नयन भर तन-मन निहारो।
तम पर भारी मधुर मिलन हो।।


चन्द्र-चाँदनी के भाग्य पर ना।
विरह संताप के गीत लिखे हो ।।


              मंजू किशोर 'रश्मि'


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना :-- मौलिक(स्वरचित)  नई दिल्ली

 कविता
🤔है विकल जनचेतना😢
कोराना   का   चाईना  घाव अति  गहरा हुआ,
जन जीवन संसार बिन उपचार के ठहरा हुआ,
मौत की ये  आँधियाँ घनघोर तम  छाया हुआ,
विकसित शक्तिशाली बहु  देश भी उससे डरा।


दर्द  भी  बैचेन हो हो संक्रमित अब ले सिसकियाँ,
धन संपदा अट्टालिका  सत्ता बेकार लगती है धरा,
खून  के  सम्बन्ध बन आशंकरख मन अब दूरियाँ, 
दहशती इस संक्रमण नैन नाक कान मुख ये मिले।
है प्रिय हाथ अब संताप बन मत्युदंड होकर खड़ा।


बार बार नित रात दिन भयभीत है मलता हुआ
साबुनें या लिक्विडें भी है हाथ से थक सा गया,
सैनेटराइज करता निरत  लगा भगाने  को पड़ा,
कमबख़्त कोराना यहाँ महाकाल बन ऐसा पड़ा।
मानो,जान का बन रक्तबीज दैत्य बनकर खड़ा।


ठप सभी शिक्षाजगत्,खत्म सारी नौकरी,
कारखानें   बंद   हैं  बढ़    रही  बेकारियाँ,
ध्वस्त सारे  राजकोष  जिंदगी   बर्बादियाँ,
सिंहिका छाया बना   कोरोना उद्यत खड़ा।
जमात बन आघात करता चहुँ फैला हुआ। 


चरमरा  सारी   व्यवस्था  न्याय  से  ले तंत्र तक ,
कूटनीति से  तकनीक  तक लाचार बन है खड़ा,
सरकार से  मजदूर  तक मज़बूर बनकर  है डरा,
बन त्रासदी संताप जग नित कोराना बढ़ता हुआ।
जन बेबसी अवसीदना रोदन घना  हँसता  हुआ।


है   विकल   जनचेतना  कैसे  बचें  इस  रोग से ,
औषधि  बिना   कैसे  करें कोराना खल  सामना,
उपचार में नित रत चिकित्सक ,नर्सें  परिचारका,
कर्मरत  नित  स्वच्छता  खु़द रुग्ण बनता है पड़ा।
पूरा  देश   कीलाबंद  रक्षण मौत से सहमा हुआ।


सारे सुखद जग शान्ति सब  विच्छिन्न बन के हैं पड़े,
रह सावधान निज स्वच्छ नित गृहवास में हैं सब डरे।
दूर हैं सब साथ रह रक्षक स्वयं हैं परस्पर संशय पड़े,
ऑनलाइन  सौविध्य जन जीवन सारथी बन के खड़े।
परहेज़ कर खरीददार कमतर संक्रमण जन है   डरा।


इस महामारी संक्रमण बचना  अगर  जन  लक्ष्य  हो,
सब साथ   में   बन  राष्ट्र का बँध एकता का  सूत्र हो,
सहयोग कर  सामर्थ्य  भर  सद्मित्र  बन  सहभागियाँ,
सरकार संग  सहकार  बन कर  युद्ध  की   तैयारियाँ ।
जीत होगी सत्य की,देखोगे रणछोड़ कोराना है खड़ा।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना :-- मौलिक(स्वरचित) 
नई दिल्ली


सुबोधकुमार शर्मा  गदरपुर उत्तराखण्ड

गीत।


 क्या अभीष्ट यू ही मिलता है 
,,,,,,,,             ,,,,,            ,,,


मानव तू बाधाये लख कर ,
क्यो गतिशील प्रगति से रुकता?
कंटक पग  मग  निहार कर,
क्यो कंटक के आगे झुकता?


कोई समस्या    नही है ऐसी
जो इस जग में सुलझ न पाये
क्यो मन को उत्पीड़ित करता 
क्यो तव दृग में अश्रु     आये ।।



प्रबल प्रभंजन के झोंके जब ,
नैया  को है  डग  मग करते ।
तव नाविक का धैर्य परीक्षण,
प्रतिकूल होकर ही  करते  ।।


विपदा युग की एक कसौटी,
आपत्ति से क्यो  डरता    ही।
क्यो रुकता है क्यो झुकता है ,
क्या अभीष्ट यू हो मिलता   है।।


सुबोधकुमार शर्मा 
गदरपुर उत्तराखण्ड
9917535361


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 

*गलाना होगा*
मनुष्य जब सुख भोगता है
  ‌‌     तब वह
रात- दिन उछलता है 
     कूदता है 
मिथ्या प्रर्दशन करता है 
  अपना वैभव दिखाता है
अपनी लंबी- लंबी फेंकता है
किसी की नहीं सुनता 
अपना ही गुनता है 
अपनी ही राम- कथा कहता है
 किसी से राम-राम नहीं करता !
लोगों के ‌प्रशंसनीय कार्यों पर भी
 राम राम राम कहता है !
     अहं दिखाता है 
        अपनी 
वाणी से लोगों को
 चोट‌ पहुंचाता है 
  धैर्य और संयम से 
   काम नहीं लेता 
   लोगों के जज़्बातों
    से खेलता है 
   उन्हें रुलाता है 
  एक नया सुख पाता है 
  लेकिन जब वह गिरता है 
     तो खीज़ता है 
        टूटता है 
    चिल्लाता है 
  करुण क्रंदन करता है 
  आसमान सिर पर उठाता है 
   अपनी हार का दोष 
   दूसरों पर मढ़ता है 
  ‌  उस अहमक को 
    कुछ नहीं ‌मालूम
  जिस तन‌ पर ‌इतराता‌ है 
  वह भी उधार का है 
   कब तक रहेगा 
   कुछ नहीं पता 
 फिर भी अपना अभिमान
  निरंतर वह सेंकता है !
अगर वह संयम से काम ले
 अपने स्व से अभिज्ञ हो जाय 
   और पूरी तरह से 
   अपने दर्प को गला दे
  तो हर बिगड़े हुए रिश्ते को 
   भी सुधार सकता है 
  पूरी कायनात को अपना
    बना सकता है 
 सारे रंजोगम भूलकर 
सभी लोग उसे भी 
 गले लगा सकते हैं ।


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी
केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर
इलाहाबाद ( प्रयागराज)
7458994874
email. mishrasampurna906@gmail.com


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 

*परिणाम*
परिणाम के लिए 
बहुत रगड़ना पड़ता है 
कंटकाकीर्ण मार्गों से 
  गुजरना पड़ता है‌
तलवों पर कुछ छाले लेकर 
अपनी पीड़ा पीकर 
आलोचनाओं की सरिता में ‌
‌ डुबकी लगाते हुए 
बच्चों की एक अदद 
फरमाइश लिए हुए 
मन में कुछ बुदबुदाते हुए
 त्योरियां चढ़ाते हुए 
बूढ़े बाप की दवा लिए हुए 
थकित मन से शाम को 
घर आना पड़ता है!
परिणाम के लिए 
बहुत रगड़ना पड़ता है।
एक अच्छी कविता की 
 यात्रा को ही देखो 
अपनी यात्रा के क्रम में
लक्ष्य हेतु वह क्या- क्या
    सहती है !
भावनाओं की आंधी में 
विचारों के बीजों को
   समाहित की हुई
कल्पना के खादों को पीती हुई
अपनी ही रंगत में जीती हुई 
शब्दों के  बीजों को
  गलाती हुई
  ताकि उसमें से 
अर्थ की कोपलें फूट पड़े‌ !
      क्योंकि
  एक सार्थक और
 अच्छी कविता आसानी
   से नहीं मिलती
  इस क्रम में कितनी मार 
     सहती है 
  कितनी गलती है
   मुठभेड़ करती है 
   तरह-तरह के 
   रंग- रूप बदलती है ‌
     इस यात्रा में 
   कंटकाकीर्ण मार्गों से 
      ‌  वह
निरंतर गुजरती है
तलवों पर कुछ छाले लेकर
 तब एक सुखद और सार्थक
कविता बनती है
परिणाम के लिए 
बहुत रगड़ना पड़ता है 
कंटकाकीर्ण मार्गों से
गुजरना पड़ता है।


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र 
7458994874
email, mishrasampurna906@gmail.com


डॉ ० सम्पूर्णानंद मिश्र प्रयागराज

#एक बेटी ऐसी भी# 
‌ जब आंखें 
उसकी खुली‌
कुछ जानने 
समझने 
लायक हुई ‌
मलिन बस्तियां 
स्वागत में 
खड़ी थीं‌ उसके ‌
एक‌ गहन अंधेरा 
अगले दिन ‌का सबेरा‌ 
बाप‌ पर कर्ज  
शरीर ‌में असंख्य मर्ज 
ग़रीबी की चादर में लिपटा
इक्कीसवीं सदी का भारत
पढ़ाने ‌के लिए 
संघर्ष ‌के कागज़
की किताब 
प्रकाश के इस युग में
अब भी ढिबरी 
रोटी की तलाश में
भविष्य ‌के‌ फूलों
का खिलना 
दूर-दूर तक नहीं
फटे हुए कपड़ों 
में छिपा हुआ 
बचपन 
इमदाद के लिए
कोई हाथ नहीं 
सुनहले स्वप्न ‌
को संजोए
आंखों में धुंध 
सर्वत्र झांकती
हुई निराशा
दूर-दूर तक 
व्याप्त थी
एक‌ ऐसी बेटी 
को पिता ने 
जन्म पर उसके 
एक नायाब तोहफ़ा
उसके कोमल हाथों
में उसकी जिद़ के
बिना ही दे दिया
इक्कीसवीं सदी की
वह बेटी उसे
लिए भारत की
तसबीर ‌बदलने 
कुज्झटिकाओं से 
आच्छादित इस
सर्द में फुटपाथ पर
धीरे-धीरे चल पड़ी
एक बेटी ऐसी‌ भी!


डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)


डॉ ० सम्पूर्णानंद मिश्र प्रयागराज

*यह कैसा दौर है*
यह कैसा दौर है कि
लोग अब किसी को 
गले लगाते ही नहीं 
लोगों के गांधी- विचार भी
अब उन्हें  भाते नहीं!
 मन की गांठों
 की दीवारों पर ‌
अंबुजा सीमेंट ‌चढ़ा है 
आदमी आदमी की
नज़र में ही गड़ा है 
भावनाएं अब दफ़न हो गयी हैं
अंत:अजिर में भी 
कई दीवारें खड़ी हो गईं हैं
आज बस एक दूसरे को ताकते हैं
अनवरत उनके निजी जीवन
में झांकते हैं 
आज लोग एक दूसरे के 
व्रणों को हरा कर देना चाहते हैं ‌
उसके हंसमुख चेहरे पर गंदगी
का कोलतार फेंक देना चाहते ‌हैं
यह कैसा दौर है कि 
लोग अब किसी को 
गले लगाते ही नहीं
प्रेम के ढाई अक्षर की 
दो बूंद अब पिलाते‌ नहींं !
आज कोई किसी का 
   यार नहीं 
किसी के ‌जज़्बात को समझने के लिए तैयार नहीं !
यह कैसा दौर है 
आज सब बहम‌ में 
   जी रहे हैं‌ 
अपमान का विष 
निरंतर पी रहे हैं 
प्रेम की किताबों पर 
नफ़रती स्याही पोत दी गई है ‌
सबसे विचित्र बात तो यह है कि 
पढ़कर भी आदमी निपढ़ा है
आज यह जीव अपने
ही कुविचारों के दलदल में
धंसता जा रहा है 
समय असमय अपने को ही
डंसता जा रहा है ।। 


डॉ ० सम्पूर्णानंद मिश्र


नीतेश उपाध्याय

 


समर्पित कर दूँ 


ये धरा ये नभ ये हर एक क्षण जीवन के 
मैं तुम्हारे लिए समर्पित कर दूँ 


जिस स्थान पर तुम न हो 
वो स्थान भी स्थगित कर दूँगा 


सब तुम पर ही अर्पण है 
मेरा तुमसे ही दर्पण है 
जीवन का सब कुछ तुममें समाहित कर दूँ


ह्रदय में तुम विराजमान हो 
तुम ही कौतूहल तुम ही ध्यान हो 
ईश्वर की भक्ति की तरह तुम्हे स्वयं में स्थापित कर दूँ


नीतेश उपाध्याय*
*पता*- *ग्राम केवलारी उपाध्याय पोस्ट हिनौती पुतरीघाट तह-तेंदूखेडा जिला दमोह 470880 मध्यप्रदेश*
*मो*- *7869699659


डॉ0 दया शंकर पाण्डेय

तुम व्यथा की पीर समझो,


देख कर थकती नहीं,ऑंखें हुईं हैं
अधीर समझो,


तुम व्यथा की पीर समझो।


जो सुघर सी है खड़ी पथ-श्रान्त कविता सी तुम्हीं हो,


अविखण्डित साधना सी ज्ञान  की ज्ञतिका तुम्हीं हो,


जो विजन में कथा जीवन की गढ़ा था,
वेदना में कलुष मन से जो पढ़ा था


उस हृदय के तंत्रिका की प्रीतिका अब क्यों तुम्हीं हो।


जिस निशा में देखता था स्वप्न की स्नेहिल लड़ीं को,


उस सुखद क्षणिका की अब पथहीन रोकूँ क्यों घड़ी को,


मेरे हृद-छंदों की  मधुरिमगीतिका सी क्यों तुम्हीं हो।


व्यथित जीवन पल्लवित होता कहाँ कब ठूँठ से,
पर हृदय था उच्चपुलकित प्रणय के उस झूठ से,


उस अडिग मधुरिम विधा के निर्झरों में,
आज रितिका सी तुम्हीं हो,


मेरे हृद-छंदों की मधुरिम गीतिका सी
क्यों तुम्हीं हो !


*दया शंकर पाण्डेय*


डॉ0 दया शंकर पाण्डेय

स्वप्न की सम्यक ऊँचाई नापता हूँ,
प्रणय में हैं भाव कितने आँकता हूँ,


वह गिरा कितनी मधुर थी प्रेम की,
वह इबारत की तरह क्यों वाचता हूँ।


चंद्रमुख का झटिति अवगुण्ठन तेरा
अनावृत करने की सीमा लाँघता हूँ।


पूर्ण यौवन की व्यथा जो अकथ्य थी
क्यों विजन में आज उसको साधता हूँ


हृदय की जब पीर आँधी हो गयी,
तेरे गेसू के बिखर से बांधता हूँ।
डॉ0 दया शंकर पाण्डेय
9415645195


संजय जैन (मुम्बई)

*बेवफाई*
विधा : गीत


आवाज़ देकर मुझे 
मत बुलाओ।
में किसी और कि 
अब हो चुकी हूँ।
पहले में तुम पर 
बहुत मरती थी।
पर तुम किसी और 
पर तब मरते थे।।


मेरी सांसो में तब 
तुम बसते थे।
पर तुम्हारी सांसो में
तब कोई और बसता था।
पर अब में किसी और 
कि सांसो में बसती हूँ।
तुम्हे मिली है तुम्हरी,
बेफाई की सजा ये।
तभी तो छोड़ दिया है,
तुम्हारी मेहबूबा ने।।
आवाज़ देकर मुझे
मत बुलाओ.....।।


जब में एक जिंदा,
लास बन गई हूँ।
तब तुम भी एक,
लास बनके आये हो।
अब दोनों की जिंदगी,
में मोहब्बत कहाँ है।
हमने ने तो नारी धर्म,
का निर्वाह कर दिया है।
माता पिता की खातिर, 
अपने को अर्पण कर दिया है।
मोहब्बत न मिलने से
ये सब हुआ है।।
आवाज़ देकर मुझे
मत बुलाओ.......।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
09/04/2020


कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

अभी गीत की पंक्तियां शेष हैं
******************
अभी उम्र वाकी बहुत है प्रिये,
तुम न रूठो, अभी ज्योति मेरे नयन में।


इधर कल्पनाओं के सपने  हम सजाते,
उधर भाव तेरे मुझे हैं बुलाते,
यहाँ प्राण , मेरी न नैया रूकेगी,
बहुत बात होंगी न पलकें झुकेंगी,
अभी राह मेरी न रोको सुहानी,
तुम्हीं रूठती हो, नहीं यह जवानी।


अभी गीत की पंक्तियाँ शेष हैं,
रागिनी की मधुर तान मेरे बयन में।


हँसी से न रूठो, हँसी में न जाओ,
विकल आज मानस न हमको रूलाओ,
कहीं तुम न बोलो, क़हीं मैं न बोलूं,
कहीं तुम न जाओ, कहीं मैं न डोलूं,
तुम्हीं रुपसी हो, तुम्हीं उर्वशी हो,
तुम्हीं तारिका हो, तुम्हीं तो शशी हो।


तुम्हें पूजता हूं लगाकर हृदय को,
तुम्हीं रशिम की ज्योति मानस गगन में।


तुम्हें भूलना प्राण सम्भव नहीं है,
तुम्हें पूजना अब असम्भव नहीं है,
प्रिये, तुम नहीं जिन्दगी रूठती है,
कलम रूक रही है, कल्पना टूटती है
न रूठो प्रिय, यह कसम है हमारी,
पुनः है बुलाती नयन की खुमारी।


सजनि, पास आओ हँसो मन मरोड़ो,
सभी साधना-तृप्ति तेरे नमन में।।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
पिनकोड 246171


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