विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल---


आज़र से अपने रहते हो तुम जो खफ़ा-खफ़ा 
ऐसा न हो तराश ले वो बुत नया-नया 


तूने उसी को तोड़ा ये क्या हो गया तुझे
जिस बतकदे में रहता था तू ही छिपा-छिपा 


मैं जुस्तजू में उनकी जो पहुँचा चमन-चमन
गुंचे बुझे-बुझे से थे हर गुल लुटा-लुटा


सदियों किसी के ग़म में जले इस तरह से हम
जैसे हो इक दरख़्त सुलगता हरा-हरा


दिल में किसी सनम की मुहब्बत लिये हुए
काटी तमाम उम्र ही कहते ख़ुदा-ख़ुदा 


हर शख़्स को है एक ही मंज़िल की जुस्तजू 
वाइज़ बताये रास्ते फिर क्यों जुदा-जुदा


*साग़र* यक़ीं न करते नजूमी की बात पर
तक़दीर का लिखा जो न होता मिटा-मिटा


🖋विनय साग़र जायसवाल


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
       *"अनदेखी"*
"अनदेखी राहो पर चलना साथी,
सहज़ नहीं होता-
साथी इस जीवन में।
चाही-अनचाही व्यथा मन की साथी,
मिटती नहीं कभी-
स्वयं इस जीवन में।
संग चले जो साथी-साथी,
मिलती राहे-
इस जीवन में।
सत्य -पथ चल कर ही साथी,
होता अपनत्व का अहसास-
साथी इस जीवन में।
सद्कर्म की हो पूजा जब जब साथी,
मिलती सफलता-
अनदेखी राहो पर जीवन में।
अनदेखी राहो पर चलना साथी,
सहज नहीं होता-
इस जीवन में।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःःः        सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta     14-04-2020


राजेंद्र रायपुरी।

😌 ज़रूरी है अभी घर में रहना 😌


ज़रूरी  बहुत  है  अभी घर में रहना।
भले   यार  थोड़ा   पड़े  कष्ट  सहना।


गया  है  कहाॅ॑  छोड़  हमको 'कोरोना'।
पड़ेगा  हमें  यार  फिर  कल को रोना।


न कहता हूॅ॑  मैं  ये सभी  का है कहना।
अभी  तुमको  घर  में पड़ेगा ही रहना।


सुनो  मेरे  भाई,  सुनो   मेरी   बहना। 
सहा  कष्ट  इतना तनिक और सहना।


दिया है वचन जो अटल उस पे रहना।
नहीं  तो   पड़ेगा   बहुत  कष्ट  सहना।


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

हर पल मेरे हिय बसो,
नटवर नन्दकिशोर।
बृषभानु सुता के संग,
रहे प्रीति की डोर।।


जगत पालक नारायण,
भूल न जाऊं तोय।
करुणानिधि अपने ह्रदय,
बास दीजिए मोय।।


युगलरूप की चरण रज,
मैं हृदय लूं रमाय।
तन मन सब अर्पित करूं,
जन्म सफल हो जाय।।


मम जीवन आधार तुम,
मात पिता अरु मीत।
माधव  स्नेह  बना  रहे,
चरण कमल में प्रीत।।


"सत्य" शरण प्रभु आपकी,
रखियों सदा दुलार।
बृजरानी को साथ ले,
करियों कृपा करतार।।


कोरोना  के  कहर से,
जन व्यथित नन्दलाल।
महाव्याधि से जग बचे,
मनमोहन गोपाल।।


श्री युगलरूपाय नमो नमः🌹🌺🍁🌸💐🙏🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


कालिका प्रसाद सेमवाल  रूद्रप्रयाग उत्तराखंड

*प्रकृति से शिक्षा सीखें*
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
पेड़ों की डाली से सीखें ,
फल पाकर के झुक जाना।


पर्वत की चोटी से सीखें,
काफी ऊंचे उठ जाना।


फूलों से हम हंसना सीखें,
भौरों से हम  सीखें गाना।


सूरज की किरणों से सीखें,
जगना   और  जगाना  ।


सुई और धागे से सीखें,
बिछुडे़ को गले  लगाना।


पेड़ों के पतझड़ से सीखें,
दुःख में धीर धरना।


भौरों से भी कुछ हम सीखें ,
मीठे  बोल बोलना।


मुर्गे की बोली से सीखें,
प्रात समय पर ही उठ जाना।


जीवन को यदि सफल बनाना है तो
प्रकृति से हम कुछ सीखें।।
************************
 कालिका प्रसाद सेमवाल
  मानस सदन अपर बाजार
   रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


कैलाश , दुबे ,

कोरोना जब से आ गया ,


मुश्किल है निकलना बहार ,


बड़े प्रेम से हैं खा रहे ,


ले ले पड़ोस से उधार ,


बड़े प्रेम से भोग लगाते ,


रोज सबेरे पड़ोस उधार मांगने ही जाते ,


कह पंछी कवि राय कमाने हम क्यों जायें ,


जितना भी हो सके उधार मांग कर ही खायें ,



कैलाश , दुबे ,


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"समर्पण"*(वर्गाकृत दोहे)
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
*सहज समर्पण से मिले, कर्ता को आनंद।
काज सिद्ध करता सदा, काल-कर्म पाबंद।।१।।
(१६गुरु, १६लघु वर्ण, करभ दोहा)


*ईश्वर को अर्पित करो, भाव-सुमन शुचि सार।
जीवन में जो भी मिला, है उसका उपकार।।२।।
(१४गुरु, २०लघु वर्ण, हंस/मराल दोहा)


*पड़कर लालच में कभी, करो न अनुचित कर्म।
अर्पण सुखकर सर्वदा, परमारथ का धर्म।।३।।
(११गुरु, २६लघु वर्ण, बल दोहा)


*लक्ष्य-समर्पित जो रहो, सदा मिलेगी सिद्धि।
शील-सुभग निज कर्म से, होगी सुख की वृद्धि।।४।।
(१५गुरु, १८लघु वर्ण, नर दोहा)


*सच्चा सैनिक कर्म पर, सदा समर्पित होय।
सेवा करते देश की, प्राण भले ही खोय।।५।।
(१६गुरु, १६लघु वर्ण, करभ दोहा)


*अर्पण-अमल मिले नहीं, संबंधों में आज।
शुद्ध नहीं है आचरण, करें घृणित जन काज।।६।।
(१४गुरु, २०लघु वर्ण, हंस/मराल दोहा)


*धर्म सड़क पर बिक रहा, मंदिर बने दुकान।
धर्मी करते मोल हैं, स्वार्थ चढ़ा परवान।।७।।
(१३गुरु, २२लघु वर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)


*कर्म कृषक का है बड़ा, करे स्वेद से स्नान।
उपजाता वह अन्न है, बचती सबकी जान।।८।।
(१५गुरु, १८लघु वर्ण, नर दोहा)


*नारी अपने त्याग से, सुखी रखे परिवार।
मर्म समर्पण का महा, जीवन का आधार।।९।।
(१६गुरु, १६लघु वर्ण, करभ दोहा)


*साथ समर्पण के सदा, करना विमल प्रयास।
चलकर आयेगी स्वयं, पल-पल मंजिल पास।।१०।।
(१२गुरु, २४लघु वर्ण, पयोधर दोहा)
***************************
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
****************************


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"है शरीर यह प्रबल सहायक"


              (वीर छंद)


सदा स्वास्थ्य का रखना ख्याल, बिना स्वास्थ्य सबकुछ सूना है.,
करते रहना नित व्यायाम, हो अति नियमित नित दिनचर्या.,
समय से सोना समय से जाग, समय से सारा काम नित्य का.,
पुरुषार्थों में कर विश्वास, धर्म अर्थ में रहे संतुलन.,
जहाँ संतुलन वही है स्वास्थ्य, जीने की यह सुखद व्यवस्था.,
वर्ण व्यवस्था का सम्मान, होते रहना सदा चाहिये.,
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य अरु शूद्र, सभी इकाई हैं समाज के.,
नहीं किसी से हो परहेज, प्रेम-मित्रता रहे परस्पर.,
किसी को छोटा कभी न जान, सब ईश्वर के सहज रूप हैं.,
सबमें ईश्वर को ही देख,आत्मवाद का मंत्र जगाओ.,
सकल विश्व को समझो राम, सकल जगत तब अवधपुरी है.,
राम नाम का हो नित जाप, हो कर खड़ा अयोध्या देखो.,
तन मन को नित रखना स्वस्थ, यही अस्त्र हैं प्रिय योधा के.,
नहीं रहोगे जबतक स्वस्थ, कर पाओगे काम नहीं कुछ.,
इसीलिए कहता हूँ मित्र, समझ स्वास्थ्य को महा उपकरण.,
देह-स्वास्थ्य पर रखना ध्यान, यदि देही से मिलना हो तो.,
रहो स्वस्थ देही में बैठ, अलख जगाओ राम नाम की.,
धूम मचाओ चारोंओर, गाओ नाचो कूद-फांद कर.,
बना परिन्दा उड़ आकाश, सकल कल्पना लोक घूम प्रिय.,
नहीं राह में है व्यवधान, दृढ़ संकल्प अगर है मन में.,
अभी लगाओ ऊँची कूद, इधर-उधर कुछ भी मत सोचो.,
बहु रूपों में तुम्हीं महान, रूप ग्रहण कर जैसा चाहो.,
सभी रूप रामा के रूप, यही सत्य है यह अमर्त्य है।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"कैसे विरह गीत लिख दूँ"


भाव भरे इस कवि कुटिया मेँ,
      कैसे विरह गीत लिख दूँ?
तार जुड़े हैं प्रितिवाद के,
     कैसे विरह गीत लिख दूँ?
समझ तुझे अपनाया प्रियवर,
     कैसे विरह गीत लिख दूँ?
मन में बैठे एक तुम्हीं हो,
     कैसे विरह गीत लिख दूँ?
दर्द तुम्हारा अपना समझा,
     कैसे विरह गीत लिख दूँ ?
जबसे होश हुआ है मुझको,
     प्रेम परस्पर झूमे हैं.,
गले लगे हैं कल्प लोक में,
     हाथ पकड़ कर घूमे हैं.,
बांह छुड़ा कर भले चला जा,
    उर से जाना कठिन समझ.,
बहुत सबल हो मैँ निर्बल हूँ,
     मन से जाना कठिन समझ.,
भाव भरे हैं कवि कुटिया में,
     कैसे विरह गीत लिख दूँ?
स्वीकारा है प्रेम पत्र लिख,
     कैसे विरह गीत लिख दूँ?
भावों में गंगा निर्मल जल,
     कैसे विरह गीत लिख दूँ?
कहीं रहोगे पास रहोगे,
       इतना तो विश्वास मुझे.,
साथ तुम्हारा सदा मिलेगा,
     यह निश्चित अहसास मुझे.,
भावों में जीता हूँ हरदम,
     विरह गीत कैसे लिख दूँ?
कवि की नगरी है भावों की,
      विरह गीत कैसे लिख दूँ?


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"प्रश्न पूछती है थरा"* (दोहे)
...............................................
*प्रश्न पूछती है धरा, करती है उद्घोष ।
बिगड़ा मेरा रूप जो, इसमें किसका दोष??


*प्रश्न पूछती है धरा, दुखमय क्यों संसार?
करते सुख की कामना, करके मुझ पर वार।।


*प्रश्न पूछती है धरा, पंछी ढूँढ़ें डाल।
कैसे लाऊँ शुद्धता? पेड़ काल के गाल।।


*प्रश्न पूछती है धरा, जंगल आस न पास।
हवा प्रदूषित क्यों हुई? थम जाए कब साँस।।


*प्रश्न पूछती है धरा, जल जीवन-आधार।
जहरीला वातावरण, दूषित है जलधार।।


*प्रश्न पूछती है धरा, मेरा कर संहार।
कैसे होगी सोच लो, जीवन नैया पार??


*प्रश्न पूछती है धरा, हवा प्रदूषित जान।
जहर बनाया वायु क्यों? जाएगी ही जान।।


*प्रश्न पूछती है धरा, क्यों बढ़ता है ताप?
अगर जली मैं जो कहीं, सभी जलोगे आप।।


*प्रश्न पूछती है धरा, मेरा सुनो सवाल।
मुझको अभी सँवार लो, होगे सब खुशहाल।।
...............................................
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
..............................................


हलधर

ग़ज़ल ( हिंदी)
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जीवन के सब चरण अटल हैं ,भीड़ पड़ी तो डरना कैसा !
जन्म हुआ तो मरण अटल है ,नाम करे बिन मरना कैसा !


रस हर कण का तू लेता चल कर्जा जन गण का देता चल ,
दुख सुख सिक्के के पहलू हैं ,फिर इसका ग़म करना कैसा !


जीव जंतु की नीति पुरातन , जन्म मृत्यु है सत्य सनातन ,
झर झर पात गिरें पतझड़ में , डर डर आँसू झरना कैसा !


भव सागर की सजी पालकी ,सब पर चलती छड़ी काल की ,
धन बल का अब छोड़ आसरा ,कालिख बीच विचरना कैसा !


ये तन है माटी का टीला , बसता इसमें मन रंगीला ,
पूरा डूब महा सागर में , उससे पार उतरना कैसा !


पैसा तूने खूब कमाया ,सच बतला क्या काम ये आया ,
साथ नहीं दमड़ी जा पाए , फिर इससे घर भरना कैसा ।


जिसके दम पर झूल रहा तू ,उसको ही क्यों भूल रहा तू ,
जिसका अंश उसी में मिलना ,"हलधर" टूट बिखरना कैसा ।


हलधर -9897346173


नूतन लाल साहू

जीवन का सार
जीवन रथ के दो पहिया है
विज्ञान और अध्यात्म
विकास भी कर ले
भव पार भी हो जा
यही है,जीवन का सार
सुर दुर्लभ मानव जीवन तू पाया है
नहीं मिलेगा बारम्बार
सुख दुःख तो जीवन का अभिन्न अंग है
जीवन में मत होना उदास
प्रभु चरण,नौका है भव पार का
सीढ़ी है,माता पिता गुरु का आशीर्वाद
जीवन रथ के दो पहिया है
विज्ञान और अध्यात्म
विकास भी कर ले
भव पार भी हो जा
यही है जीवन का सार
लोभ सरिस,अवगुण नहीं प्यारे
तप नहीं सत्य समान
क्रोध हरे,सुख शांति को
अंतर प्रगटै आग
न धन तेरा,न धन मेरा
चिड़िया करत बसेरा है
सत्य धर्म से करो कमाई
भोगो सुख संसार
जीवन रथ के दो पहिया है
विज्ञान और अध्यात्म
विकास भी कर ले
भव पार भी हो जा
यही है जीवन का सार
तन भी जायेगा,मन भी जायेगा
जायेगा रुपयों का थैला
कौड़ी कौड़ी माया जोड़ी
संग चलेगा न अधेला
सुमिरन कर हरिनाम को प्यारे
मानुष जन्म सुधार लेे
जीवन रथ के दो पहिया है
विज्ञान और अध्यात्म
विकास भी कर ले
भव पार भी हो जा
यही है जीवन का सार
नूतन लाल साहू


सुबोध कुमार

तू लगे  सुंदर पर  इतना  ज्यादा भी ना लगे
खुदा  करे तुझे  किसी की भी नजर ना लगे


नजरंदाजियां  यह  तेरी गैर जिम्मेदारियां है
बातें  चंद सुना दूं अगर तुझे  जहर ना  लगे


छुपा के हर बात मुझसे तू ये क्या सोचता है
तेरे दिल में रहता हूं और मुझे खबर ना लगे


खुदगर्जियां लगती है तेरी अदाएं आजकल
थोड़ा  पास रह दिलके कि मुझे डर ना लगे


मेरे बाद बैठकर सोचना तू गलतियां अपनी
चला जाऊंगा दूर इतना  तुझे खबर ना लगे


         सुबोध कुमार


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता " झज्जर (हरियाणा )

छला हूँ फूलों से... 


दूर भागता हूँ अपने ही उसूलों से. 
कितनी बार छला गया फूलों से. 


कोई ख़बर आती नहीं यार की, 
रोज़ाना ही मिलता हूँ रसूलों^ से. ( ईश्वर के दूत )


संकरी राह पर अनवरत चला, 
मुझे बचना ही नहीं आया शूलों से. 


मानकर दोस्त सांप को दूध पिलाया, 
मैं सीख नहीं पाया अपनी भूलों से. 


"उड़ता"दूर रहता हूँ सकूलों^ से,  (एक कुल के )
अब आती नहीं खुश्बू बकूलों^ से. (सुगन्धित फूल के पेड़ )


स्वरचित मौलिक रचना. 


द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता "
झज्जर (हरियाणा )


संपर्क - 9466865227


सुबोध कुमार

करोना बनाम मनुष्य


अब मृत्यु की आहट घेर रही है
पल-पल  इस  अवनी तल को


घनघोर घटा है फैली  भय  की
कैसा शोर डरा रहा है जल को


 ह्रदय कंपकंपा गए अब वीरों के
देख कर आज ऐसे दृश्य भयावह


अंबर भी  भयभीत  है  इस पल
देखकर  मृत्यु के  इस  बल  को


क्यों  चिंतित  सी है चारों  दिशाएं
लपट देती हवाएं आज अनल को


किसने किया  घायल आज लहू से
इन माताओं की ममता के आंचल को


कांपती है धरा  पाप के  बोझ से
सुनते तो आए थे किंबदंतीयों में


आज  धरती भी थकी है शायद
 ढोते  ढोते मानवता के छल को


आश्वस्त था मानव मादकता में
आंक रहा था विराट अपने बल को


प्रकृति ने दूर दंभ किया है उसका
बिन शास्त्रों माप रही है मानव दल को


कितना निर्बल अनुभव कर रहा है
आज मनुष्य ढूंढता है एक संबल को


यम कर रहे हैं अब तो आह्वान
मृत्यु के घनघोर इस तांडव का


भ्रमित  कर रही है अबतो  प्रकृति
मानव  विज्ञान और बुद्धि बल को


आओ  मिलकर संकट की इस बेला में
शीष नवाएं अपने और करे प्रार्थना


महादेव ही पी सकते हैं  अब  यह
प्रकृति मंथन के इस महा गरल को


             सुबोध कुमार


सीमा शुक्ला अयोध्या।

कहां गए तुम ओ वनमाली।


वही धरा है वही गगन है
मगर बहुत गमगीन चमन है
बुलबुल राग वियोगी गाए
बिना खिले कलियां मुरझाए।
लिपट लता का जीवन जिससे
टूट गई हैं अब वह डाली
कहां गए तुम ओ वनमाली।


तुमसे उपवन का सिंगार था
तुम थे हर मौसम बहार था
फूल खिलें क्या वन महकाएं?
किसके लिए चमन महकाएं?
कोटि यहां ऋतुराज पधारें,
मगर न आयेगी हरियाली
कहां गए तुम ओ वनमाली?


छोड़ दिए हैं पंछी डेरा।
छूटा कलरव गीत सवेरा।
उजड़ा उपवन तुम्हें पुकारे।
फिर जीवन उम्मीद निहारें।
तुम आओ तो फिर वसंत में
फूटे नव किसलय की लाली
कहां गए तुम ओ वनमाली।


सहमा हुआ चमन है सारा।
अपनी किस्मत से है हारा।
कहा गए तुम ओ रखवाले?
तुम बिन इनको कौन संभाले?
शाखों पर मायूस कोकिला
मधुर गान भूली मतवाली।
कहां गए तुम ओ वनमाली।


सीमा शुक्ला अयोध्या।


     डा.नीलम

*जब चल पड़े सफर पे तो*


जब चल पड़े सफर पे तो
रास्ते रहबर हो गये
बलखाती लहराती
नागिन सी सड़कें
राह दर राह 
संग-साथ साथ चली
थे दरख़्त सजदे में झुके
पर्वतों ने भी 
दे दिये रास्ते
आसमां छू लूं
जब ठान ही लिया
तो देखकर इरादों
की बुलंदी
आसमां खुद 
कदमों पे आ गया
जब चल पड़े सफर पे तो 


       डा.नीलम


राजेंद्र रायपुरी

😊   कुछ तो भला किया है   😊


कुछ  तो  भला  किया  है इसने,
                        लाखों भले बुराई है।
कालिख नहीं दिखे अब छत पर,  
                     जब से विपदा आई है।


वायु   शुद्ध   है,  घटा   प्रदूषण, 
                   दिखती साफ-सफाई है।
पत्ते   हरे    नज़र   अब   आते,
                      धूल न उनपर छाई है।


नहीं   धूल   के   गुब्बारे   अब, 
                    पड़ते सड़क दिखाई हैं।
ज़हर  उगलते   वाहन  में  भी,
                   कमी बहुत कुछ आई है।


लाख   बुराई   हो   इसमें   पर,
                     इसमें कुछ अच्छाई है।
मौत   नहीं  होती  सड़कों  पर, 
                     जब से विपदा आई है।


हुआ  प्रदूषण  कम  नदियों में, 
                  साफ नज़र अब आई हैं।
ज़हर मुक्त  अब  जल  है सारा,
                   नहीं  कीट  या  काई  है।


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

आ जाओ मेरे कृष्णा आज जरूरत तेरी
घोर कष्ट ने घेरा जग काटो विपद घनेरी


जैविक हथियार कोरोना करे जग व्याकुल
दीखें नहीं कोई उपचार हर मानव आकुल


हती पूतना और अघासुर
अब हतो कोरोना
करो कृष्ण चमत्कार नर में निडरता भरो ना


नाथों नाग कालिया प्रभु की कालिंदी पावन
सत्य करे अरदास दुःख दूर करो मनभावन।


श्रीकृष्णाय नमो नमः🌹🌹🌹🌹🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप' तिनसुकिया, आसाम

'भोर नमन'


अपनी भूलों का करे,जो जन पश्चाताप।
कटते उनके ही सदा,जीवन के संताप।।
जीवन के संताप,डगर में रोड़े होते।
सुख का हम अभिप्राय,भूलवश क्यूँ है खोते?
निंदा की लत छोड़,प्रेम की माला जपनी।
औरों में गुण देख,भूल बस देखो अपनी।।


डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, आसाम


निशा"अतुल्य"

*साथ चलें*
12.4.2020


बन सहारा किसी का 
बुराई से किनारा कीजै
आए काम किसी के 
ये मन विचारा कीजै ।


दुनिया तो आनी जानी है 
कर्म बने पहचान सराहा कीजै।


ईश्वर की करें स्तुति सभी आज
मुसीबत वो ही टाला कीजै ।


बचाये धरती के जीवन प्राण कैसे
रह घर में सब विचारा कीजै।


लौट कर आता नही है वक़्त गया
साथ चल इसको संवारा कीजै।


रहे खड़े सदा अपनो के ख़ातिर
बस मन सबको ये गवारा कीजै ।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल-दो काफ़ियों में---


आजकल इंसान में हैवानियत होने लगी
देखकर यह माजरा इंसानियत रोने लगी 


जिस तरफ़ देखो उधर ही वहशियों की बाढ़ है 
कैसे-कैसे बीज यह शैतानियत बोने लगी


धर्म की चादर लपेटे घूमते हैं सरफिरे 
अब तो अपनी आकबत रूहानियत खोने लगी


प्यार की सौगात भी लेना समझ कर दोस्तो 
पाप की अब गठरियाँ रूमानियत ढोने लगी 


ज़ुल्म पर उंगली उठाता ही नहीं कोई यहाँ 
आबरू अपनी ही ख़ुद वहदानियत खोने लगी 


जो हैं ज़िम्मेदार वो अपनी ख़ुदी में हैं लगे 
रफ़्ता-रफ़्ता हर तरफ़ मूमानियत सोने लगी 


इस कदर बदली हुई है मौसम-ए-नौ की फ़िज़ा
उम्रे-नौ की परवरिश मासूमियत खोने लगी 


तेरी ग़ज़लें पढ़ के *साग़र* बंद आँखें खुल गईं
अपने सर का मैल अब इंसानियत धोने लगी


🖋विनय साग़र जायसवाल
वहदानियत--एकतत्व ,अद्वैतवाद 
आकबत--मृत्यु पश्चात प्राप्त होने वाला लोक ,मृत्युलोक 
12/10/2005


राजेंद्र रायपुरी

😊😊     "घरौंदा"      😊😊



भले घरौंदा फूस का, 
                 रिखियो उसे सजाय।
मन प्रसन्न निज़ का करें, 
                    औरों को भी भाय।


घर, घरौंदा, घोंसला, 
                   मिले सकल संसार।
थलचर-नभचर जीव के,
                     ये जीवन आधार।


बने घरौंदा घर कहाॅ॑, 
                   बिन गुणवंती नारि।
घरनी से ही घर कहें, 
                    जो दे कुटी सवाॅ॑रि।


नहीं घरौंदा उस जगह, 
                     कभी बनाना यार।
जहाॅ॑ नहीं बहती कभी, 
                     प्रेमिल मंद बयार।


एक घरौंदा रेत का, 
                   हमने लिया बनाय।
बना लिया हो महल ज्यों, 
                    मन   ऐसे   हर्षाय।


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


<no title>

अद्भुत छवि तेरी मनमोहन,
मोह लिया है जग सारा।
तन मन धन तुमसे मिला है,
सबकुछ तुम्ही पर वारा।।


हानि लाभ जीवन मरण सब,
नाथ तेरा ही अधिकार।
यश मिले या अपयश स्वामी,
सबमें बसे तेरा प्यार।।


ममता समता प्रेम अनुग्रह,
अनुभव मीठा या खारा।
है भगवत लीला के अंश,
प्रभु हमें लगे यह प्यारा।।


दुख से रखो या सुख से प्रभु,
नाथ पड़ा बीच मझधार।
डुबा दो या उबारो प्रभुवर,
"सत्य"आया तेरे द्वार।।


श्री माधवाय नमो नमः🌹💐🌸🍁🌺🙏🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


एस के कपूर "श्री हंस"* *बरेली।*

*प्रकर्ति से नाता जोड़िये ।*
*वायरस का मुख मोड़िये।।*



प्रकर्ति से    नाता  जोड़िए
उसका  दोहन   करो  ना।
प्रगति के लिए  प्रकृति से
अपना खजाना  भरो  ना।।
प्रकर्ति की   ओर   उन्मुख
होइये यही   बचायेगी हमें।
अन्यथा संसार    को   खा
जायेंगी बीमारी ये कॅरोना।।


हमारे जीवनयापन खानपान
में हो   प्राकृतिक   योगदान।
प्रकर्ति से   खिलवाड़    कर
हम   अब   ना  बने   नादान।।
हमें प्रकर्ति  की  शक्ति    का
आभास   कर लेना   चाहिए।
कयोंकि प्रकर्ति   ही    प्रदान
करती  स्वास्थ्य  अभय  दान।।


प्रकर्ति का  संतुलन   मानवता
का बनता   जीवन     दान  है।
इससे   होता मानव  आंतरिक
शक्ति का असली  उत्थान   है।।
प्रकर्ति अपना रौद्ररूप दिखाती
तो आती है बस विनाश  लीला।
इसका उत्तर प्रकर्ति का तो बस
निरंतर नियमित पुनर्निर्माण  है।।


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।*
मो।    9897071046
         8218685464


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