एस के कपूर "श्री हंस"* *बरेली।*

*घर पर ही  समय  गुज़ारें*
*कॅरोना भी गुज़र जायेगा।*


घर में रहे  सुरक्षित  रहें
रहें मिल कर   भाव  से।
कभी ज्यादा तो   कभी
रह लें आप  अभाव से।।
मानवता  को    जीवित
रखना है  बहुत जरूरी।
घर में बितायें  कुछ दिन
मिल   कर   सद्भाव  से।।


जहाँ पर    भी  हैं   आप 
जायें   वहीं   पर   ठहर।
यही एक ही    उपाय  है 
रोकने को कॅरोना कहर।।
लड़ाई तो लम्बी  और  ये
दुश्मन  भी  है अनजान।
घर में आप समय गुजारें
दिन के  आठों   ही पहर।।


कभी कम   कभी  ज्यादा
में कर   लो गुज़र    बसर।
मत निकलो   बाहर  करने
को कम बीमारी का असर।।
यही एक अचूक  तरीका है
तोड़ने को  कॅरोना  जंजीर।
तभी नियन्त्रित  होगा   इस
महामारी का  फैलता   डर।।


बाहर   निकलने  के    लिए 
आप रहें सदा    ही   खफा।
जान ली जिये कि इसमें ही
छिपा है हम सब का   नफा।।
विश्वव्यापी महामारी है बस
अनुशासन ही एक महामंत्र।
कॅरोना जहर कम करने की
बस   एक    ही    है   दवा।।


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।*
मो।      9897071046
            8218685464


एस के कपूर श्री हंस।।।।* *बरेली

*पत्थर के मकान।।।।कंक्रीट का जंगल*
*बन गया जहान।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*



आजकल घर नहीं पत्थर के मकान होते हैं।
सवेंदना शून्य  खामोश  वीरान होते हैं।।
घर को रैन बसेरा कहना ही ठीक होगा।
कुत्ते से सावधान दरवाजे की शान होते हैं।।


घर में चहल पहल नहीं सूने ठिकाने हैं।
मकान में कम बोलते मानो कि बेगाने हैं।।
सूर्य चंद्रमा की किरणें नहीं आती यहां।
संस्कारों की बात वाले हो चुके पुराने हैं।।


हर किरदार में अहम का भाव होता है।
स्नेह प्रेम नहीं दीवारों से लगाव होता है।।
समर्पण का समय नहीं  किसी के पास।
आस्था आशीर्वाद का नहीं बहाव होता है।।


आदमी नहीं मशीनों  का वास होता है।
पैसा चमक ही यहाँ पर खास होता है।।
मूर्तियाँ ईश्वर की होती बहुत आलीशान।
पर आचरण कहीं नहीं आसपास होता है।।


जमीन नहीं यहां ऊंचे मचान होते हैं।
मतलब के  ही आते मेहमान होते हैं।।
दौलत से मिलती नकली खुशी है यहाँ।
पैसे पर खड़े ये घर नहीं बड़े मकान होते हैं।।



*रचयिता।।।।।एस के कपूर श्री हंस।।।।*
*बरेली।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*


मोब  9897071046।।।।।।।।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

हे ईश्वर!अब दया करो..


तेरे इश्क़ में हुआ में पागल
ओ जीवन के रखवारे
तेरे सिवाय न कोई हमारा
लो हमें शरण में प्यारे


तुम्हीं हो जीवन मूल हमारे
तुमसा और नहीं कोई
तुम ही आशा विश्वास हमारे
स्वामी चाहो जो होई


विकट जाल में फंसा है मानव
राह नहीं दीखें कोई
यहां बन शत्रु आयों कोरोना
अब देख जिंदगी रोईं


कारागार बना अपना ही घर 
धूप वात को भी तरसे
डर लगता अपनों से मिलने में
दुख के बादल हैं बरसे


विचित्र बनी हुई जीवन शैली
दहशत सी छाई रहती
खिलबाड़ करे मानवमूल्यों से
रब वाणी ऐसा कहती


जब जब प्रकृति प्रतिकूल हुआ नर
खुद ने संतुलन बनाया
दंभ भरे मानव के जीवन को
ईश्वर का ज्ञान कराया


औकात दिखा दी हो मानव को
कर रहा कोई उपहास
कि सर्वशक्तिमान परमब्रह्म है
कुछ भी नहीं तेरे पास


हाहाकार सर्वत्र मचा हुआ
कोई आकर मदद करो
हाथ नहीं है कुछ भी मानव के
हे ईश्वर!अब दया करो


प्रभु है अटूट विश्वास"सत्य"को
तुम सबके कष्ट हरो ना
कौंन काज दुर्लभ तुम्हें भव में
फिर क्या बेचे कोरोना?


भव संताप तारणहार परमात्मने नमो नमः🌹🌹🌹🌹🌹🙏🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
     *"पूनम का चाँद"*
"पूनम का चाँद निकला,
चाँदनी में नहाया-
सारा जहाँ।
चाँद से भी सुंदर जो,
मन बसी-
उसे ढूँढे़ कहाँ?
चाँद की चाँदनी संग,
बरसता अमृत-
धरती है-जहाँ।
महकती धरती -अंबर,
प्रेम पथिक बन-
भटके कहाँ?
नींद आती नहीं अब,
सपनों में भाती नहीं-
उसको ढूँढू कहाँ?
पूनम का चाँद हो तुम साथी,
अमावश का अंधकार मैं-
जीवन में -
मिलन होगा -कहाँ?
पूनम का चाँद निकला,
चाँदनी में नहाया-
सारा जहाँ।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः          सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः       18-04-2020


सुनीता असीम

बड़ा ही नास्तिक है जो खुदा के दर नहीं जाता।
मिला वरदान हो कितना उसे पाकर नहीं जाता।
***
उसे पैदा किया  जिसने  सवालों  में  उसे    घेरे।
दुखों के वक्त उसके पास वो सुनकर नहीं जाता।
***
किया है सामना जिसने दुखों से सिर्फ  डटकर के।
वो सीमा से सुखों की फिर कभी बाहर नहीं जाता।
***
उन्हें बस पास जाना सिर्फ अब भगवान के कहते।
वो जाने हैं वहां कोई कभी       जीकर नहीं जाता।
***
ये  सुनकर  रास्ते  में  मौत  पहरा  दे  रही   अपने।
समझदारी  दिखा  कोई  बशर   बाहर नहीं जाता।
***
सुनीता असीम
१८/४/२०२०


राजेश कुमार सिंह "राजेश"

*# काव्य कथा वीथिका #*-100
( लघु कथा पर आधारित कविता)
***********************
,जंग ना हम यह हारेगें l
( कथा वीथिका शतक )
************************
 क्रूर *करोना* के संग रण में,
         एकाकी रहना सीख गया l
अपने घर में स्वस्थ रहें सब,
           ऐसा कहना सीख गया ll


घर में रह कर काम सभी,
         निपटाने की आदत आई l
कर्म धर्म का पालन करना,
          अंदर से यह ध्वनि आई ll 


बदल लिया  है,जीवन शैली,
               नही निराशा है मन में l 
कर्म भाव अंतर्मन में है,
        आलस्य नही है इस तन में ll 


 गर्व हमे है  योद्धाओं पर,
                 जो अग्रिम पंक्ति में हैं l
हम भी है नेपथ्य सेनानी,
           जो भी जितनी शक्ति में है ll


विकट काल हम नही कहेगें ,
                यह बस धैर्य परीक्षा है l
जीतेगा भारत इस रण में,
            यह ही ईश्वर की इच्छा है ll


स्वच्छ प्रकृति सहयोगी बन कर,
                    संकट सारे हर लेगी l
भारत श्रेष्ठ  विजेता होगा,
            खुशियाँ आँगन में खेलेगीं ll 


राष्ट्र प्रेम और सयम का,
              अद्भुत परिचय देना होगा l
साफ़ सफाई रखना होगा,
            बिल्कुल घर में रहना होगा ll 


*रक्तबीज* से जंग छिड़ी है,
                    शक्ति बध कर डालेगी l
आत्मबल और दृढ निश्चय से,
                       सारी विपदा हारेगी ll 


राजेश कुमार सिंह "राजेश"
 दिनांक 19-04-2020


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"करुणा"


              (चौपाई)


देख गरीबी की हालत को।
दुःख होने लगता है मन को।।


झुग्गी-झोपड़ में सब रहते।
जाड़ा गर्मी वर्षा सहते।।


भोजन का भी नहीं ठिकाना।
लोग समझते उन्हें बेगाना।।


मैला-फटहा वस्त्र पहनकर।
रह लेते गरीब जीवनभर।।


भोजन की भी नहीं व्यवस्था।
कितनी है दयनीय अवस्था।।


बच्चे रोते सदा विलखते।
सहज कुपोषण दंश झेलते।।


वृद्ध रूप में युवक दीखते।
अपनी दुःखद कहानी लिखते।।


अति मलीन चेहरा ले चलते।
रोज दिहाड़ी हेतु भटकते।।


स्थायी काम नहीं मिलता है।
यह दुर्योग चला करता है।।


जीवन में संकट के बादल।
आँखों में केवल जल ही जल।।


सुख की रेखा मिटी हुई है।
हाय!गरीबी सटी हुई है।।


देख दीनता मन अति विह्वल।
झर झर नीर नयन से निर्मल।।


यह करुणा रस का सागर है।
सर्वश्रेष्ठ रसराज अमर है।।


जहाँ करुण रस तहँ शिवशंकर।
काशी-अवध राम रामेश्वर।।


कर दुःखियों की निश्चित सेवा।
 बन करुणाकर प्रिय महदेवा।।


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी।
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"धर्म और अधर्म"


      (चौपाई)


धर्म नाम अति पुण्य काम है।
कष्ट निवारक सुखद धाम है।।
निर्मल भाव प्रभाव धर्म है।
स्वार्थमुक्त निःस्वार्थ मर्म है।।
परहित दॄष्टि जहाँ रमती है।
धर्म सुसंस्कृति तहँ टिकती है।।
लोक कल्पना हो यदि सुन्दर।
वहीं दीखता धर्म समन्दर।।
सात्विक स्नेह जहाँ बसता है।
वहीं धर्म विचरण करता है।।
जहाँ त्यागमय मनोवृत्ति है।
वहीं धर्म की शिव सत कृति है।।
जो हैं दिल से धर्मपरायण।
उनके अंतस में नारायण।।
पारदर्शिता भाव धर्म है।
पूर्वाग्रह निश्चित अधर्म है।।
जिसके मन में स्वार्थ भरा है।
वही अधर्मी पाप घड़ा है।।
अहितवाद का जो परिचायक।
वही पाप वृत्ति का गायक।।
परद्रोही जो अनायास है।
अति अधर्म नित सहज पास है।।
ईर्ष्या-द्वेष अधर्म कराते।
भव कूपों में सदा गिराते। 
धर्म और सत्कर्म समाना।
रहते वही सन्त भगवाना।।
जहाँ अधर्मी वहीं असुर हैं।
महा भयानक महिषासुर है।।
धर्म पंथ सात्विक सोपाना।
क्रूर अधर्म पंथ वीराना।।
धर्म नगर नित हरा-भरा है।
हरित क्रान्तिमय सकल धरा हैं।।
दूषित वातावरण अधर्मी।
शुचि भावों का सिन्धु सुधर्मी।।
जहाँ कपट तहँ विकट अधर्मा।
पावन भाव विशाल सुधर्मा। 
बाहर भीतर जहाँ राम हैं।
वहीं धर्म का शुभग ग्राम है।।


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"धर्ममय दोहे"


धर्म ध्वजा फहराइये, लहराये आकाश।
असाधारण ध्वज करे, अब पशुता का नाश।।


विषधर मन का फन कुचल, अमृतपन का जाप।
सज्जन संस्कृति से मिटे, मानव का अभिशाप।।


पावन सुन्दर कृत्य ले, अपना शुभ विस्तार।
ज्यामितीय अनुपात की,पकड़े यह रफ्तार।।


एक एक ग्यारह रचे, दे सुन्दर सन्देश।
बढ़े सौ गुनी चाल से,अत्युत्तम परिवेश।।


शुद्धिकरण होता रहे, दानव- मन परित्याग।
मनमोहक अंदाज में,गाओ मधुमय फाग।।


वैश्विक मानववाद का,हो नियमित अनुवाद।
मोहक परिभाषा गढ़े, अति मादक संवाद।।


रोड़े वंधन सब हटें, जागे वसुधा भाव।
जलते जग को चाहिये, निर्मलता की छाँव।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"प्रभु का भजन कर"


प्रभु का भजन कर प्रभु का भजन कर।
आये विपत्ती तो प्रभु को नमन कर।।


वही हैं सहायक वही सबके रक्षक।
वही ज्ञानदाता वही सबके शिक्षक।।


सुनते हैं सबकी खबर सबकी लेते।
रक्षा कवच बन सबसे हैं मिलते।।


पार लगाते वही सबकी नैय्या।
लेते किसी से नहीं कुछ खेवइया।।


ऐसे दयालू का पूजन भजन कर।
स्नेह लगाकर चरण को नमन कर।।


ऐसे प्यारे प्रभु  को कभी ना भुलाना।
करते स्मरण रहना हर क्षण बुलाना।।


सुनते वे सबकी उन्हें जो बुलाता।
खाते हैं सबकी उन्हें जो खिलाता।।


भक्तों के भावों में वे ही समाये।
भक्तों के दिल में  हैं धूनी रमाये।


मन से पुकारो तो दौड़े वे आते।
विपदा के वंधन से मुक्ती दिलाते।।


अतिशय सहज और अतिशय सरल हैं।
रक्षार्थ भक्तों के पीते गरल हैं।।


ऐसे कृपालू का नियमित भजन कर।
चरण-सरोज को नियमित नमन कर।।


छोड़ो न संगति चलो उनके पथ पर।
देखो वे कैसे बैठाते पलक पर।।


उन्हीं की है लीला उन्हीं की है माया।
वही भोले बाबा उन्हीं की है दाया।।


ऐसे सहज प्रभु का निश्चित भजन कर।
सबकुछ भुलाकर बस उनको नमन कर।।


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


दीपक शर्मा  जौनपुर उत्तर प्रदेश 

    एक गीत
दहशत में सारा शहर आ गया


देश में ये कैसा कहर आ गया
दहशत में सारा शहर आ गया


किसी के पास कोई जाता नहीं 
लगे आग तो भी बुझाता  नही


हवा में कैसा ये ज़हर आ गया
दहशत में सारा शहर आ गया


छोड़ के काम सब घर आ रहे
भूखे बच्चें हैं ये किधर जा रहें


इक रोग का ऐसा असर आ गया
दहशत में सारा शहर आ गया


सड़कों पे बस सामरन बज रहा
मौत का ख़ौफ़ सबको दिख रहा


लग रहा टूट के बहर आ गया
दहशत में सारा शहर आ गया 


(बहर मतलब बड़ा जलाशय,  समुद्र,  महासागर) 


-दीपक शर्मा 
जौनपुर उत्तर प्रदेश 
मो0- 8931826996


कन्हैया साहू 'अमित'*✍ भाटापारा छत्तीसगढ़

*आल्हा छंदाधारित गीत~ कोरोना विरुद्ध*


तालाबंदी फिर हो जाती, पड़ी महामारी की मार।
लड़नी हमको कठिन लड़ाई, मचा हुआ है हाहाकार।।



वैश्विक है यह अजब समस्या, तीव्र संक्रमण, भीषण जाल।
चीन जनित कोरोना कोविद, बीमारी बन आई काल।।
उलझ गया विज्ञान तंत्र भी, ढ़ूँढ रहा इसका उपचार।
तालाबंदी फिर हो जाती, पड़ी महामारी की मार।।-1



छेड़ा कुदरत को मनमर्जी, उपजा उर में अनुचित लोभ।
व्यर्थ अकारण दोहन करते, उठा नहीं क्यों मन में क्षोभ।
बाहुबली बन फिरता मानव, दिखता आज खड़ा लाचार।
तालाबंदी फिर हो जाती, पड़ी महामारी की मार।।-2



पालन करें लाकडाउन का, लेकर सरकारी संज्ञान।
व्याधि भयावह, नहीं दवाई, अभी कारगर यही निदान।।
घर में रहकर काम करें सब, 'अमित' सुखद होगा निस्तार।
तालाबंदी फिर हो जाती, पड़ी महामारी की मार।।-3



तालाबंदी फिर हो जाती, पड़ी महामारी की मार।
लड़नी है अति कठिन लड़ाई, मचा हुआ है हाहाकार।।


*कन्हैया साहू 'अमित'*✍
भाटापारा छत्तीसगढ़ ©®


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"लाठी लेकर कविता लिखता"
        
         (हास्य रस, वीर छंद) 


हूँ सशक्त  अति रचनाकार,लाठी लेकर चिन्तन करता.,
गुर्राता हूँ कलम को देख, कांप रही है मोर लेखनी.,
आने को है नहिं तैयार, मुझे देखकर अश्रु बहाती.,
माफ करो हे माई-बाप,अब मत तंग करो हे कविवर.,
जब मैं हुआ थोड़ सा नम्र, किसी तरह से आई कर में.,
लगा खोजने भाव विचार,सोये हुये सभी अंदर थे.,
किया गर्जना जब घनघोर, सिंहनाद सुन भाव जगा कुछ.,
लगा खोजने जब मैं शव्द, पाया मैंने सभी पलायित.,
थोड़ा-बहुत बचे बेकार, सोचा मैंने काम चलेगा.,
चलने लगी लेखनी तेज, बिना किये परवाह किसी की.,
लगा रही थी दौड़ सपाट, कामा पूर्ण विराम नदारद.,
लिखना ही था केवल लक्ष्य, हो सार्थक या भले निरर्थक.,
देखा नहीं भाव भावार्थ, लिखता गया सिर्फ लिखना था.,
किया लेखनी बहुत कमाल, लिखती जाती बिना थके ही.,
देख लेखनी की वह चाल, फिदा हुआ मैँ उसके ऊपर.,
अगर लेखनी का हो साथ, समझ स्वयं को व्यास वृहस्पति.,
दुनिया को देना ललकार, आत्म प्रशंसा करो स्वयं की.,
चाहे जैसे भी हों शव्द, कभी शव्द पर ध्यान न देना.,
लिखते जाओ करो कमाल, केवल पन्ना ही भरना है.,
हँसी-खुशी से रहना सीख, लिखते जाओ बन सेनानी.,
वाक्यों पर मत देना ध्यान, सभी वाक्य सुन्दर होते हैं.,
करे लेखनी भले अनर्थ, इस पचड़े में कभी न पड़ना.,
माना जायेगा यदि दोष,जाने कलम मुझे क्या कहना?
लिखते जाना है बेजोड़,कलम-सिपाही यदि बनना है.,
लिखने की संस्कृति को फांस, समझ स्वयं को कालिदास ही.,
वाक्यों को पढ़ मत दो बार,शव्दों से भी मत मतलब रख.,
दिखलाओ दुनिया को ग्रन्थ, पढ़ें लोग या नहिं पढ़ पायें.,
अपना लिखना ही है धर्म, धर्म निभाना बड़े काम का.,
रचना को पढ़ता है कौन, बन जाओ बस रचनाधर्मी।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"इक सुन्दर सा गाँव चहिए"


इक सुन्दर सा गाँव चाहिए
प्रिय सन्तों की छाँव चाहिए
सबके मन में हो अपनापन
सुन्दरता का भाव चाहिए।


अत्युत्तम शिव चाव चाहिए
सद्गतिदात्री नाव चाहिए
सबको मिले राम का केवट
यह सुन्दर प्रस्ताव चाहिए।


यात्रा हो बस स्व से पर तक
पहुँचें हम सब मिलकर सब तक
भीतर देखो बाहर झांको
यह देखो क्या देखा अबतक?


बाहर हो जब घोर निराशा
खुद से पूरी कर अभिलाषा
आजीवन करनी है यात्रा
स्वअरु पर की गढ़ परिभाषा।


परजीवी ही नारकीय है
स्व- जीवी ही भारतीय है
बनकर भार कभी मत जीना
आत्म -विभूषण आरतीय है।


काम क्रोध मद लोभ त्यागिए
अपने में ही नित्य जागिए
पर्व मनाएँ सत्कर्मों का
आगे बढ़ते चले जाइए।


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


कुमार🙏🏼कारनिक*  (छाल, रायगढ़, छग)

◆◆◆◆◆
       *आदमी*
 (मनहरण घनाक्षरी)
  """"""""""""""""""""""""
आदमी एक खिलौना,
कि रसोई में  भिगौना,
मति उसका  घूमा  के,
   मजबूर न कीजिये।
💫🌼
आदमी  उस  नाँव  में,
पतवार   के   ठाँव  में,
धार  जो  बह  रही  है,
      हालत समझिये।
💫🌸
हर    बार    टूट - कर,
सब  बात   सह - कर,
तब   बनता   आदमी, 
    साँचे मे न डालिये।
💫🏵
महामारी  से   लड़ता,
बिगड़े  काम   बनाता,
मानवता   के  प्रतीक,
    मौका उसे दीजिये।
💫🌻



*कुमार🙏🏼कारनिक*
 (छाल, रायगढ़, छग)
              ◆◆◆◆◆


प्रखर दीक्षित फर्रुखाबाद

(लघुकथा)


*बंदी और .....बाज*
      बंदी यानी लाकडाउन का  दौर तारी था। कई दिनों से कस्बे या सांय सांय सुनायी देता या फिर सदर तिराहे के नुक्कड़ पर आवारा कुत्तों रौरव स्वर । हाँ कभी कभार पुलिसिया सायरन  सी आवाज, जो यह समझने से लिए काफी थी कि पुलिस आन एक्शन।
     दिन एक पहर च चुका था।   डॉ खालिद कस्बे को सरकारी में  ड्यूटी तैनात थे। इलाज सी मसरुफियत को बीच फोन की रिंग बजी। फोन सी एम ओ आफिस से था। डॉ खालिद को हाट स्पाट पर अपनी टीम सहित पुलिस के साथ जाना था। आनन फानन में अस्पताल से पूरा अमला जगह पर रवाना हुआ।
  मेन गली की  मस्जिद के गेट और छत पर खडे कुछ उत्पातियों ने पत्थर ईंट बरसाना शुरु कर दिया ।इस हिंसक कार्यवाही में दर्ज को अंजाम देने वाले डॉ खालिद और पुलिस कर्मी को गहन चोंटें आयी। उन्हें तुरन्त सदर जिला अस्पताल पहुँचाया गया।  इस हिंसक वारदात में कुछ विरोधी भी चोटिल हुए थे। होश आने पर डॉ खालिद ने सबसे पहले अपने हम राह पुलिस साथी या हाल पूछा। सब खैरियत जान चैन की  सांस ली । उन्होंने घायल पत्थर बाज कि हाल पूछा। पता चला इलाज जारी है और ठीक है। 
  पास खड़े डॉ माथुर बोले-"वो लोग अच्छे नहीं हैं । धर्म इतना निर्मम, काश....."
  नहीं नहीं डाक्टर माथुर .......उन्माद और जाहिलों का कोई मजहब नहीं होता  । ये इंसानियत के दुश्मन हैं । इंसानियत फिर जीतेगी , भारत जीतेगा ।". कहते कहते आंखें बंद हो गयीं ।।


प्रखर दीक्षित
फर्रुखाबाद


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

ग़ज़ल


आइना   अब   नही   सुहाता   है।
प्यार  फिर  से  कहीं   जताता  है।


हर  कसम  तोड़   दी  मेरी  उसने।
आज   रिश्ता   मग़र   निभाता  है।


ज़िन्दगी   के   हसीं   फ़सानो   में।
वक़्त   के   साथ   डूब   जाता  है।


खो  गया  दिल  मेरा   निगाहों  में।
और कुछ भी  न  ख़्याल आता है।


भूलता  अब  नही   कभी  तुमको।
रोज़    यादें     तमाम    पाता   हैं।


देखता  ये  जहाँ  हसीं   फिर  भी।
आज  भी  रुख़  तेरा  लुभाता  है।


मुफ़लिसी  हैं  तमाम  घर  मे  पर।
प्यार  फिर  भी  मग़र  लुटाता  है।


है  "अभय"  भी  मुरीद  उनके ही।
जो   जखम  भूल   मुस्कुराता  है।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता " झज्जर (हरियाणा

नज़र आ गया... 


मुददतों बाद मेरा दोस्त नज़र आ गया. 
जैसे तपते सहरा में समंदर नज़र आ गया. 


किसी बेचैनी में मायूस हुआ जाता था, 
आज लोट कर नसीब मेरा घर आ गया. 


अबतक की महफ़िल ख़ामोशी में गुजरी है, 
तेरे दम,मुझमें बातें बनाने का हुनर आ गया. 


अब तो तुम भी हर बात पर मुस्कुराते हो, 
लगता है मेरी सोहबती का असर आ गया. 


सारे शहर में ढूँढा, मुझे तू दिखाई ना दिया, 
तुझे खोजते-तलाशते मैं इधर आ गया. 


क्यों तुझे खल रही है ये बुलंदी मेरी, 
जो तू मुझे बदनाम करने पे उतर आ गया. 


महफ़िल चली लम्बी सभी यार-दोस्त बैठे रहे, 
पता ना चला,कब जाम लगाते सहर^ आ गया. (सुबह )
तंग थी गलियां बहुत, ऊँचे-नीचे थे रास्ते, 
पगडंडियों पर चलते,देखो शहर आ गया. 


अपने अक्स को निहारना क्या समझदारी है, 
इस ठहरे हुए पानी में कैसे भंवर आ गया. 


वो जवाब देने में बहुत वक़्त लेता है अकसर, 
मुश्किल था फैसले पर आना, वो मगर आ गया. 


लगा उसकी रूह मार दूंगा, वो अगर आ गया, 
"उड़ता "क़त्ल करने का, तुझमें जिगर आ गया. 



स्वरचित मौलिक रचना. 


द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता "
झज्जर (हरियाणा )


संपर्क -9466865227


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता " झज्जर (हरियाणा )

मयखाने में दर्ज़... 


और मेरे दर्द का क्या मर्ज है. 
मेरा नाम तेरे मयखाने में दर्ज़ है. 


गुनगुना जो लेता हूँ तन्हाई में, 
ये मेरे छलकते जामों की तर्ज़ है. 


जो मुझे पीने से रोकता है अकसर, 
क्यों ये ज़माना बड़ा खुदगर्ज़ है. 


साक़ी अपना कर्म ठीक ना करे, 
उसे मयकशीं सीखना मेरा फर्ज़ है. 


पीने से उसको नहीं भूलोगे "उड़ता ", 
उसकी सूरत तेरे दिल में बर्ज़^ है. (छिपा हुआ ). 


 


स्वरचित मौलिक रचना. 



द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता "
झज्जर (हरियाणा ). 
संपर्क - 9466865227.


हलधर

कविता - दीप वार्ता 
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दीपक से पूछ लिया मैंने क्यों जलते हो ,
वो बोला जग को मैं उजियारा देता हूँ !


दिखने में छोटा हूँ  करता हूँ काम बड़ा ,
खुद तो जलता पर अँधियारा हर लेता हूँ !


नदियों झरनों से भी तो जाकर के पूछो ,
क्यों अविरल अपनी धार बनाए रखते हैं !


धरती को हरियाली देते चलते फिरते ,
प्रदूषण पी जो स्वयं हलाहल चखते हैं !


क्या कभी हिमालय से जा के पूछा तुमने ,
सदियों से क्यों वो अचल खड़ा है धरती पे ।


कितने आंधी तूफानों से जूझा अब तक ,
 वीरों ने प्राण दिये हैं उसकी छाती पर !


युग युग से मानव पथ को प्रसस्त किया मैन ,
पर उसने मुझको अब तक काफी भटकाया !


फिर भी मानव का दर्द पकड़ में आ न सका ,
मैंने जल जल कर खाक करी अपनी काया  !


घने अँधेरों से लड़ना कोई खेल नहीं ,
मैंने सूरज से लड़ने का गुण पाया है !


जिससे तम भी डर डर के दूर भागता है ,
सच मानी मुझमें उसका अंश समाया  है !


अनजाने में ही सही मुझे तो लड़ना है ,
पर हार नहीं मानूँगा तम की चालों से !


रोशन हर घर को कर दूंगा अपनी लौ से ,
 मैं सतत युद्ध करता तम लिप्त दलालों से !


तुम भी कविता लिखते रहना निर्भय होकर ,
  जन गण को यह कविता पैगाम सुनायेगी  !


जो कहते हैं "हलधर"  पागल है  दीवाना  ,
कविता उनको इक दिन परिणाम दिखायेगी !


(मेरे कविता संग्रह -मेघनाद से )


       हलधर -9897346173


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"दीया बरोबर बर जा"*
      (छतीसगढ़ी गीत)
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¶दीया बरोबर बर जा, दीया बरोबर बर जा।
बनके सुघ्घर फूलझरी, बरत-बरत झर जा झर जा।।


¶भाग जाथे दीया बरे मा, घिटघिट अँधियारी।
दीया बनाले ए तन ला तँय, सुनत हस संगवारी।।
देवारी कस दीया बनके, तिल-तिल तिल-तिल जर जा जर जा।
दीया बरोबर बर जा.....।।


¶करम ला झन दोस दे गा, फूटहा करम कहिके।
नाम ला अमर करले संगी, नीक करम करिके।।
सत-धरम के डोंगा मा ए, भवसागर ले तर जा तर जा।
दीया बरोबर बर जा.....।।


¶मन-मंदिर मा करे अँजोर, अइसन दीया बार।
चँदा-सुरुज सही तँय, जगत के अँधियारी टार।।
अमर दीया एक ठन, बनके अँजोर कर जा कर जा।
दीया बरोबर बर जा.....।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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शब्दार्थ-  बरोबर= के जैसे,  बर जा= जल जा,  देवारी= दीवाली,  घिटघिट अँधियारी= घना अँधेरा,  तँय= तू (तुम),  सँगवारी= साथी,  डोंगा= नाव,  अँजोर= उजाला,  अइसन= ऐसा।


सुनीता असीम

सभी की छिनी आज आजादियाँ हैं।
शुरू हो रही सिर्फ        बर्बादियाँ है।
***
दवा कर रहे जो बिमारों की    देखो।
उन्हें  मिल रहीं अब फक़त गालियां हैं।
***
नहीं जानते भला क्या  बुरा           क्या।
कि हाथों की किनके वो कठपुतलियां हैं।
***
भरे जा रहे जो अनाजों को घर में।
वो सरकार में ढूंढते खामियां हैं।
***
कि जल्दी ढलेंगी ये काली सी रातें।
यही कह रहीं आज खामोशियां हैं।
***
सुनीता असीम
१६/४/२०२०


कालिका प्रसाद सेमवाल रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

मैं बलिहारी होता हूं
****************
आओ मेरी प्रेयसि!
मैं नित करता वन्दन!
 हंस दो मेरी संगिनी!
विखरे रोली चन्दन!


तुम ललकार भरो अब टूटे जग का बन्धन,
तुम भुज बल्लरियों की शोभा,मानस नन्दन।


गीत नयन की हो तुम मधुरिम प्रीति हृदय की,
वर वंशी वयनी हो,हो वरदान अभय की।
टूटी कड़ियों की झंकार, मधुरिमा लय की,
रागी राग सपन हो, चंचल वायु मलय की।


तेरे भुज वंदन में बंधने को अकुलाता,
देख तुम्हारा रूप मनोहर मन तरसाता।
विह्वल होकर गीतों के जब छंद बनाता,
आकुल उर के गायन से उनको दुहराता।


कैसे मीत हृदय के, जिसको भूल न पाता,
कैसे गीत हृदय के, जिनको नित प्रति गाता।
कैसे हास नयन के, जिसके बिना घबराता,
कौन मधुरिमा मन की
मैं बलिहारी जाता।
*****************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
पिनकोड 246171


निशा"अतुल्य"

निशा"अतुल्य"
देहरादून


भाव विभोर
16.4.2020
काव्य रंगोली


आना तेरा मेरे जीवन में
अनुभूति ख़ुद की ख़ुद से
कठिन समय बीता जैसे
पीड़ा सह गई सारी कैसे ।


आकर बाहों में मेरी प्रियवर
किया मेरे मन को भाव विभोर
तुम जीवन की अनुपम कृति मेरी
सप्तपदी का तुम उपहार ।


नन्ही नन्ही सूरत तेरी
भोली सी मुस्कान खिले
तू मेरा ही प्रति रूप दिखे है
अंग अंग में तू ही सजे।


भाव विभोर हो मैं निस दिन
तेरी क्रीड़ा को देखूँ
मिलता मन को सुख अनोखा
तुझ को जब मैं अंक में भर लूँ।


तू मेरा खिलता उपवन है
तुझसे महके जीवन सारा
रहे सदा उन्नत भाल ये तेरा
विश्व में सदा रहे तेरा नाम ।


आशीष रहे सदा तुम पर
सभी पित्र बड़ों के साथ
प्यार और सम्मान मिले सदा
रहे मित्रों,अपनो का साथ।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
      *"एकता"*
"एकता होती जब जीवन में,
मुश्किल नहीं-
होती कोई मन में।
सार्थक होते प्रयास सारे,
मिलती सफलता-
संदेह नहीं जीवन में।
शरीर के अंगो में जब भी,
होता नहीं समन्वय-
रोगी होता तन-मन जीवन में।
एकता ही तो जीवन की पूँजी,
जिससे मिलती सफलता-
हर पल इस जीवन में।
एकता का विश्वास बढ़ाता
अपनत्व,
पाते विजय -
मिटते विकार जीवन में।
एकता होती जब जीवन में,
मुश्किल नहीं-
होती कोई मन में।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः          सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta
ःःःःःःःःःःःःःःःःः         16-04-2020


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