काव्यरंगोली व्हाट्सएप्प समूह 15 मई 2020 चयनित रचनाये


सुप्रभात:-
जो कर सकता है  समस्याओं  से  सामना।
वो कर सकता है सफलताओं की कामना।


-----------देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी


*गुरु चरणों में प्रेम हो जाये*
********************
जीवन की धारा मुड़े
पाकर  सद् गुरु संग,
कलुषित मन निर्मल बने
पुलकित हो हर अंग।


मन सम कोई मीत नहीं
और न मन सम कोई वैरी,
अगर गुरु की कृपा हो जाए
ये जीवन  हीरा सा हो जाए।


गुरु सेवा सम पुण्य नहीं
पर पीड़ा का बोध कराए,
भले बुरे का बोध कराते
गुरु चरणों में प्रेम हो जाये।


गुरु सत् चित् आनन्द है
नेक राह   बताते  है,
गुरु का आशीष मिला है तो
न हो सकता कोई बाल बांका।।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


😌 हालात तो यही कहते हैं 😌


जीना सीखें हम सभी,
                     'कोरोना' के साथ।
मगर याद ये भी रहे,
                     नहीं मिलाएॅ॑ हाथ।
नहीं मिलाएॅ॑ हाथ,
              दैत्य ये जब तक रहता।
बचने का तो तौर,
              यही  है  हमसे  कहता।
चलो सभी निज़ काम,
                तानकर अपना सीना।
बिना किए कुछ काम,
               नहीं  है  संभव  जीना।


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कविता:-
     *"इम्तिहान बाकी है"*
"गुज़र गया तूफान साथी,
जीवन का अभी-
इम्तिहान बाकी है।
बीत गया मधुमास साथी,
अभी तो उसका-
अहसास मन में बाकी है।
कैसा-भी हो जीवन -पथ साथी,
अपनत्व का अहसास अभी-
इस जीवन में बाकी है।
कौन-अपना-बेगान जग में,
जान न पाया मन-
संग चला जो साथी यही अहसास बाकी है।
भटके जो कदम राह से साथी,
मंज़िल का पता लगाना-
जीवन में अभी बाकी है।
गुज़र गया तूफान साथी,
जीवन का अभी-
इम्तिहान बाकी है।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः         सुनील कुमार गुप्ता
sunilguptaःःःःःःःःःःःःःःःः्           15-05-2020


रक्षक बनकर आओ.......


सारा विश्व बाट जोह रहा
कोई तो ऐसा मिले उपाय
प्राणी मात्र हुआ बंधन में
कोई तो आके करे सहाय


कोई टीका बने जगत में
कोरोना से मिल जाये मुक्ति
पट बंद किये बैठे ईश्वर
घायल हुई आज यहां भक्ति


कामधाम भूल गया मानव
बना रहा सामाजिक दूरी
पास न आय मानव मानव के
देखो कैसी यह मजबूरी


कोई किसी से बात करे न
नहीं कोई दुख सुख की चिंता
आमदनी का गणित बिगड़ गया
जीवन की कैसी अनियमितता


परम ब्रह्म बस आश्रय तेरा
जीवन ज्योति जलाओ निरन्तर
सकल विश्व शरणागत तेरा
रक्षक बनकर आओ गिरिधर।


श्री जगन्नाथाय नमो नमः👏👏👏👏🌹🌹🌹🌹


सत्यप्रकाश पाण्डेय


इंसान अँधा ,बहरा ,गुगा हो गया सच सुनने ,देखने ,बोलने से बचने लगा है।                              


गांधी जी के तीन बन्दर को इंसान तिलांजलि दे गया है ।।         


इंसान आँख खोलता है मतलब मौको पर खुद के लिये ,।    


जबान खोलता हैं नाज़ और गुरुर में ,भूखे भेड़िये बाज़ कि तरह शिकार के लिये।।


कान खोलता है बुराई सुनने के लिये ।।                          


महात्मा कि आत्मा हर शहर ,गली चौराहों पर बूत बनी देखती है।


इंसान के बदलते ईमान का तमाशा।।                         


कोफ़्त से धिक्कारती है खुद को सत्य के आग्रह, सत्य अहिंशा का मार्ग क्यों खुद का सिद्धान्त क्यों बनाया ।                          


जमाने को क्यों सत्य अहिंषा का मार्ग दिखलाया  जीवन मूल्यों में नैतिकता का पाठ क्यों पढ़ाया।।                    


आजका नौजवान जहाँ के भरोसे का भाग्य कुछ ज्यादा ही है अक्लमन्द ,समझदार ,होसियार।


पैदा होते ही देने लगता है  माँ बाप दुनियां को शिक्षा।।                  


राम और कृष्णा उसे आम इंसान लगने लगते खुद में उसको भगवान दिखने लगते ।         


गांधी जी के तीन बन्दर अन्धे बहरे बेजुबान लगने लगते ।।   


गंगा, अँधा, बहरा होते हुये भी जहाँ में खुद को समझदार लगाने लगते ।                        


इंसानियत का इल्म ईमान से वास्ता नहीं ।                         


खुद को ही सत्य का  साक्षात्कार कहने लगते।।                    


हिंसा हद तक करते अहिंशा के अलमदार बनने लगते।     


शहर ,नगर की गलियां नहीं सुरक्षित दुनियां में जमाने के खारख्वाः लगने लगते ।।      


माँ बाप को बताते जनरेसन का के अंतर में संस्कृति संकार बदल जाते ।               


 
धर्म और ज्ञान कि मर्म मर्यादा को बैकवर्ड ऑर्थोडॉक्स बताते।।  


माँ बाप  महात्मा ,ऋषियों, मुनियों कि शिक्षा ,दीक्षा की त्याग त्याग तपस्या का धर्म शास्त्र बताते ।


देश कि माटी के गौरव गाथा के इतिहास का वर्तमान बताते ।।


आज का नौजवान कल देश की भविष्य का अभिमान कल का इंसान का ईमान ।             


बहरा बन जाता जैसे कि उसे देश समाज कि विरासत से नहीं कोई वास्ता।।                          


हसरत पीढ़ियों कि नए जहाँ का नए उत्साह में जोश  का नौजवान सत्य के अर्थ कि दुनियां नई बनाये ।              


आँखों के रहते अँधा हो गया है आज इंसान  नए समाज का नौजवान  ।।                         


देखता नहीं, देखना चाहता ही नहीं ,जिंदगी और जिंदगी के रास्तो में बेगाना सा बन जाता अनजान।                            


जैसे कि उसे कोई लेना देना ही ना हो अन्धे क़ानून का मांगत है न्याय ।।                           


कितने अत्याचार अन्याय हो जुबान खोलता ही नहीं ।      


जुबान खोलता है जब हलक सुख जाती अटक जाती जुबान।।  


गांधी जी के तीन बन्दर बुराइयों को देखते सुनते  नहीं बुरा बोलते नहीं ।


आज के जमाने का नौजवान इंसान सच्चाई देखता नहीं सच्चाई  सुनता नहीं सच बोलने कि हिम्मत रखता नहीं ।।        


आज का इंसान नौजवान बन्दर सा हो गया है अपने स्वार्थ में अँधा बहरा गंगा  हो गया है।          


कभी इधर कूदता ,कभी उधर कूदता ,कभी स्वार्थ के इस डाल पर ,कभी उस दाल पर।।


पर कभी खुद का खून पिता कभी कभी दुनीयाँ समाज का बहसि दरिंदा सा खुद भी परेशान दुनियां को करता परेशान।।                      


महात्मा कि आत्मा होती शर्मशार कहती मैंने तो बंदरों को भी ईमान से जीना सिखसलया उन्हें भगवान राम के दौर का हनुमान बनाया ।


आज तो इंसान बन्दर से भी बदतर हो गया है मान मर्यादा का कर रहा नित्य हैं नित्य हनन निर्लज्ज हो गया है।।


अँधा,गुगा ,बहरा हो गया है अपनी बेमतलब कि जिंदगी को अपने काँधे पर अर्थी कि तरह अर्थ हिन्  बे मतलब ढोरहा है।।            


नन्द लाल मणि त्रिपाठी पितसम्बर


शेर-
मस्ती सी छा रही है फ़िज़ा में शराब की
ख़शबू बिखर गयी है रुख-ऐ-लाजवाब की


🖋विनय साग़र जायसवाल


*"पर्दा"* (वर्गीकृत दोहे)
.............................................
*पर्दा जब रहता घिरा, लगे नहीं अनुमान।
जाने कब किस कर्म को, करता है इंसान।।१।।
(१५गुरु, १८लघुवर्ण, नर दोहा)


*परदे की ही आड़ में, रहकर हैं कुछ लोग।
करते अनुचित कर्म से, जीवन का है भोग।।२।।
(१४गुरु, २०लघुवर्ण, हंस/मराल दोहा)


*बेपर्दा जो जन करे, प्रीत प्रगट पहचान।
पावन पर्दा कामना, सज्जन मान विधान।।३।।
(१५गुरु, १८लघुवर्ण, नर दोहा)


*आडंबर को ओढ़कर, करना नहीं अनर्थ।
पोल खुलेगी जब कभी, मान घटेगा व्यर्थ।।४।।
(१५गुरु, १८लघुवर्ण, नर दोहा)


*पश्चिम की है सभ्यता, बेपर्दा पहचान।
पर्दाहीन कभी न हो, बचा रहे सम्मान।।५।।
(१८गुरु, १२लघुवर्ण, मण्डूक दोहा)


*अनुचित करना तुम नहीं, लेकर पर्दा आड़।
पूरे होते काम को, देना नहीं बिगाड़।।६।।
(१६गुरु, १६लघुवर्ण, करभ दोहा)


*ढँक मत अपने दोष को, उस पर पर्दा डाल।
हटता ही है आवरण, नहीं बचेगी चाल।।७।।
(१४गुरु, २०लघुवर्ण, हंस/मराल दोहा)


*पर्दे में है भूमि के, छिपे बहुत से राज।
मानव-प्रतिभा कर रही, बेपर्दा है आज।।८।।
(१७गुरु, १४लघुवर्ण, मर्कट दोहा)


*जंगल धरती में रहें, ये हैं पर्दा जान।
वृक्षों का तो काटना, खतरे का है भान।।९।।
(१९गुरु, १०लघुवर्ण, श्येन दोहा)


*तन पर पर्दा डालकर, मन बेपर्दा होय।
"नायक" कलुषित कर्म कर, काहे अपयश ढोय??१०??
(१२गुरु, २४लघुवर्ण, पयोधर दोहा)
................................................
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
................................


******
🌞सुबह🙏🏼सबेरे🌞
     ^^^^^^^^^^^^^
          *मँहगाई*
   (मनहरण घनाक्षरी)
            """""'"""''''
मार      रही     मँहगाई,
आती   सबको    रुलाई,
मौज     करे     हरजाई,
           सब घबराये हैं।
0
अन्न   दूध   जल   कहाँ,
सुखदाई     पल    कहाँ,
जाने क्या हो कल कहाँ,
          सिर चकराये हैं।
0
सुनती     न      सरकार,
मुकरी     है    हर   बार,
फिर  भी   है   जयकार,
         नेता मुसकाये हैं।
0
पेट   भी  ये   कैसे  भरे,
सोच    कर   मन    डरे,
दिल   धक - धक   करे,
       कैसे दिन आये हैं।


*कुमार🙏🏼कारनिक*


*न रुकना न टूटना न थमना और*
*न ही बिखरना है।हमें अब*
*आत्म निर्भर बनना है।*


न रुकना न  बिखरना न झुकना
और न ही   थमना है।
बढ़ कर आगे    हमें  स्वदेशी  से
आत्मनिर्भर बनना है।।
कॅरोना के चक्रव्यूह को तोडकर
करनी    है   प्रगति ।
इस महामारी   के   मध्य  प्रगति
के काम में लगना है।।


मेड इन इंडिया   को    विश्व   में
अब ब्रांड  बनाना  है।
भारत की गौरव  गाथा  को  पूरी
दुनिया को सुनाना है।।
लोकल को वोकल   करके   हमें
फिर बनाना है ग्लोबल।
हर भारतीय  को  अब    सामान
स्वदेशी   अपनाना   है।।


अब आश्रित भारत   की  तस्वीर
को     बदलना     है।
हम नहीं कर सकते  इस तकरीर
को     बदलना     है।।
स्वदेशी अभियान को    हमें    है
बनाना इक आंदोलन।
भारतीय कलाकौशल के बल पर
तकदीर को बदलना है।।


*रचयिता।एस के कपूर " श्री हंस"*
*बरेली।*
मो     9897071046
         8218685464


🌅🙏सुप्रभातम् 🙏🌅


दिनांकः १५.०५.२०२०
दिवसः शुक्रवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः नवनीत माला
चले  गेह    नित  मातु  से,  पिता   चले   परिवार।
गुरु    गौरव   समाज   का , चले   देश   सरकार।।१।।


कारण  सब   हैं    नव सृजन , चाहे   देश समाज।
निर्माणक   परिवार का , कुप्त   प्रलय    आगाज।।२।।


प्रतिमानक      संघर्ष   के ,  आवाहक     युगधर्म।
मातु पिता    अरु गुरु भूपति, सम्वाहक   सत्कर्म।।३।।


सदाचार   मानक     सदा ,   मानवीय     संस्कार।
उषा काल    जीवन   प्रभा, आलोकित    संसार ।।४।।


जीवन   हो   साफल्य तब,  तजे  स्वार्थ   परमार्थ।
खुशियाँ मुख मुस्कान बन,समझो सुख जन सार्थ।।५।।


जन सेवा  प्रभु प्रीत   है , राष्ट्र  भक्ति  प्रभु ध्यान।
सत्य सहज पथ मुक्ति का, अमर सुयश  वरदान।।६।।


नित  निकुंज  कवि  काकली,मातु पिता गुरु गान।
राज  काज  रत भोर से ,  राष्ट्र भक्ति  मन   ध्यान।।७।।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक( स्वरचित)
नयी दिल्ली


पीड़ा
15.5.2020


हैरान हूँ जिंदगी
तेरी बेरुखी से
अभी तक खेलती रही
मुस्कुराती रही न जाने कैसे कैसे
लुभाती रही नित नए लुभावन से ।
ऐसा हुआ क्या तुझे अकस्मात
आँख तूने चुराई न जाने किन हालात
बेवफ़ा हो गई तू
क्यों अचानक से ?
मैं पकड़ भी ना पाई तुझे
देखती रही हाथो से फिसलते
फिसलती है रेत जैसे
धीरे धीरे बंद मुठी से ।
मृत्यु शाश्वत होती है
जो सँग चली आती है जन्म के
फिर भी बन अनजान
भागते रहते हम जिंदगी के लिए
और एक दिन बन बेवफ़ा
छोड़ जाती हो तुम
अचानक से यूँ हीं ।
तुझे सजाने में मैंने ख़ुद को गला दिया
बेवफ़ा तूने मुझे क्या सिला दिया
एक अंनत पीड़ा और भावनाओं का सैलाब बस।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


*मूल बात*
विधा : गीत


किसीको क्या दोष दे हम,
जब अपना सिक्का ही खोटा।
दिलासा बहुत देते है,
स्वार्थी इंसान दुनियां के।
समझ पाता नहीं कोई,
उस मूल जड़ को।
जिसके कारण ही दिलोमें,
फैलती है अराजकता।।


समानता का भाव तुम,
जरा रखकर तो देखो।
बदल जायेगी परिस्थितियां,
इस जमाने के लोगों।
बस थोड़ी सी इंसानियत, दिलोमें जिंदा तुम कर लो।
खुशाली छा जाएगी,
हमारे प्यारे भारत में।।


मोहब्बत वतन से करोगे,
तो जन्नत तुम्हें मिलेगी।
अमन शांति का माहौल,
देश के अंदर बनेगा।
और लोगो के दिलो से,
नफरत खुद मिटा जाएगी।
फिर विश्व में भारत का
ही सिक्का सदा चलेगा।।


विश्व परिवार दिवस पर मेरी रचना आप सभी को समर्पित है।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
15/05/2020


दिनांकः १५.०५.२०२०
दिवसः शुक्रवार
छन्दः मात्रिक
विधाःदोहा
शीर्षकः सृष्टि बनी अभिराम


निर्मलता    चहुँमुख  प्रकृति, सृष्टि बनी अभिराम।
स्वच्छ  सरोवर  नदी    जल , नीलांचल  श्री धाम।।१।।


हंसवृन्द    प्रमुदित  हृदय , नीलाम्बर   को   देख।
रैनबसेरा  विमल जल , किया   नमन  विधिलेख।।२।।


दिव्य   मनोरम दृश्य है , विमल   शान्त  परिवेश।
पवन स्वच्छ बहता  मुदित , रोग   मुक्त    संदेश।।३।।


रम्या  वसुधा    निर्मला , बनी  आज    सुखसार।
हंसराज  परिवार   सह , करे   प्रकृति    आभार।।४।।


रोमाञ्चित अभिसार रत,स्वच्छ सलिल अवगाह।
प्रीति मिलन  निच्छल  हृदय,  निर्भय   बेपरवाह।।५।।


आज सरित बन चारुतम , इठलाती  लखि तोय।
पुलकित मन स्वागत खड़ी,हंस चरण रज  धोय।।६।।


बदला जन   आचार  जग , धरा    प्रदूषण   दूर।
निर्मल नभ जल भू अनिल, प्रीति प्रकृति दस्तूर।।७।।


तजो स्वार्थ पथ नित गमन , रक्षण करो निकुंज।
वृक्षारोपण  सब   करो  , खिले प्रकृति रसपुंज।।८।।


रहे वायु जल नभ धरा , स्वच्छ  विमल  संसार।
रोग मुक्त जीवन सुखी , निर्मल मनुज   विचार।।९।।


तरु गिरि नद कर्तन सरित ,बंद करो खल पाप।
जीवन  धारा    श्वाँस  ये ,  बचो    रोग  संताप।।१०।।


रच निकुंज कवि कामिनी,सुन्दर जल नीलाभ।
जल विहार  हंसावली,हो जग सुख अरुणाभ।।११।।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


*प्रेम*
***************
प्रेम की ईक रेशमी डोर
बंधे थे हम तुम जिस रोज
वो लम्हा,वो पल अभी तक
जिंदा है
तेरे मेरे बीच समंदर फिर भी
गहरा है


पर्ण-पात,फूलों से महकते
घने तरावटी साहिल हैं हम
खट्टी-मीठी यादों की चादर में लिपटे अपने प्रेम के किस्से अभी तक जिंदा हैं
तेरे मेरे बीच समंदर फिर भी गहरा है


कितने-कितने बंधन अब
प्यारे रिश्तों के  बन गये
बेटी से बहु,बहु से माँ मैं
बन गई
बेटे से दामाद,दामाद से पिता तुम बन गये
पर एक परिवार के हिस्से हम ना बन सके
प्रेम के इतिहास में मगर नाम हमरा जिंदा है
तेरे मेरे बीच समंदर फिर भी गहरा है।


          डा.नीलम


*_विश्व परिवार दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ।_*🙏🌹🙏


शीर्षक - प्रेम,
विधा - हाइकु


जज्बातों से
   गीत मधुर गायें
        प्रेम फैलायें ।।


पुलकित हो
     जीवन हो सुगंध
           प्रेम फैलायें ।।


ना रखें बैर
     जात-पात मिटायें
             प्रेम फैलायें ।।


सरस मन
   कटुता को भगायें
           प्रेम फैलायें ।।


जग ये देखे
      वसुधैव  जगायें
            प्रेम फैलायें ।।


मीरा दिवानी
     सा अलख लगायें
              प्रेम फैलायें ।।


रचना - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
लक्ष्मीपुर, महराजगंज उत्तर प्रदेश।


तुमसे जबसे ये दोस्ती    कर ली।
गमज़दा अपनी ज़िन्दगी कर ली।
***
डूबते   जा  रहे .....किनारे   पर।
यूँ  लगे  हमने खुदकुशी कर ली।
***
आ रहा अब नहीं नज़र कुछ भी।
अपने हिस्से में    तीरगी कर ली।
***
जगमगाए गगन     सितारों से।
अपने आंगन में चाँदनी कर ली।
***
प्यार बेकार का   फ़साना   है।
हमने बेवज्ह आशिकी कर ली।
***
सुनीता असीम
15/5/2020


दुःख है इतना की
सुख सारे मौन हुए
कल तलक जो अपने थे
आज सभी कौन हुए।
अपने पराए लगने लगे जब,
परायों से अपनापन मिले
दर्द ही दर्द हो चारो ओर
काँटो से जब ये तन मिले
सर का पसीना लुढ़क कर
पैरों तक जब आ जाए
उम्मीद न जगे कहीं पर
जब घोर अंधियारा छा जाए
तब आँख बंद कर अपना तुम
जपो प्रभु का नाम......
मिलेगा तुमको आराम बंदे
मिलेगा बहुत आराम....


सम्राट की कविताएं


चीनी मीटर :


बिजली मीटर,कोरोना मीटर
दोनों चीन से आयातित,
दोनों की गति तेज ??


अतिवीर जैन पराग
मेरठ


*प्रकाश*
*********
प्रकाश चाहते हो तो
दीपक के समीप रहो
दीप के समीप सिर्फ
बिल्कुल समीप तो
एक अंधकार है।


दीपक से दूर रहो
बहुत बहुत दूर नहीं
दीपक से बहुत दूर
घोर अन्धकार है।


घोर अन्धकार है
दीपक  समीप भी
बहुत बहुत दूर भी
और प्रकाश है
दीपक के आस पास।


प्रकाश पाने के लिए
दीप के बिल्कुल नजदीक
और बहुत दूर ना जाओ
आसपास ही प्रकाश है।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


कभी मैं भूल जाऊंगा
*****************
प्रिये!जब याद आती है,
सुनहरी याद आती है,
कि जैसे चांद अम्बर में,
लगाता मैन   फेरी  है,
चली एक बार आओ री,
यहां छाया  अंधेरी  है,
न घूंघट खोलती पीड़ा,
सताती रात दिन मन को,
कहो क्या बात ऐसी है
भुलाती  हो सजनि, जन को,
हृदय में स्नेह घिरता है,
धधकती प्रेम बाती है,


भुलाने हेतु मन पीड़ा,
पगों में चाल देता हूं,
जहां रुकती कहीं मंज़िल,
दिया इक बाल देता हूं,
सुबह फिर कारवां चलता,
बना राही सदा मग में,
शलभ दीपक शिखाओं का,
उमर के स्वप्न पर बनता
विरह बलवान गाती है।


कभी तुम भूल जाओगी,
किसी से प्यार तेरा था,
कभी मैं भूल जाऊंगा,
मधुर अधिकार मेरा था,
प्रिये, तुम दूर छाती हो,
अंधेरा -राज छाया है,
बहुत दिन की उदासी है,
किसी ने दिल दुखाया है,
भले सजती दीवाली हो
बिना संगिन न भाती है।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


या खुदा गर मुझे मौत देना ,


तो जन्नत ही देना ,


कफन हो या न हो तन पर ,


पर जहन्नुम कभी न देना ,


बाद मरने के जन्म लूं फिर ,


तो मुझे वतन मेरा भारत ही देना ,


कैलाश , दुबे ,


विषय :  🌹विश्व परिवार दिवस"🌹
दिनांकः १५.०५.२०२०
दिवसः शुक्रवार
छन्दः मात्रिक
विधा     दोहा
शीर्षकः 🗺️विश्व धरा परिवार🏜️


भारतीय   सिद्धान्त  है , विश्व  धरा    परिवार।
लघुतर है  पर चिन्तना, अपना  पर    आचार।।


हो नीरोग शिक्षित सभी , उन्नत धन    विज्ञान।
सहयोगी  परहित बने ,  दें  सबको    सम्मान।।


अपनापन के भाव हों , खुशियों  का    अंबार।
रोम रोम पुलकित श्रवण,प्रीत मधुर    परिवार।।


हो शीतल   निर्मल हृदय, खिले  मनोहर  बोल।
अर्पण तन धन आपदा ,शुभदायक   अनमोल।।


मददगार सुख   दुःख में,  दृढ़तर हो    विश्वास।
आत्मीय तन मन वचन, खड़े   साथ  आभास।। 


शक्ति।  बड़ी   है  एकता ,  करे  आपदा  मुक्त।
देश,  विश्व , परिवार में , संघ शक्ति  है    सूक्त।। 


हरि अनंत है हरि कथा , जग  अनंत   व्यवहार।
देश   काल   पात्रस्थली , दर्शन   भेद    विचार।।


मति विवेक दिव्यास्त्र से ,प्रीति रीति  चढ़ यान।
दूर  करें   मतभेद  को , सबको    दें   सम्मान।।


सँभल चलें   परिवार  में , है  नाज़ुक   सम्बन्ध।
तुला तौल रख   बोल को , मौन बचे   तटबन्ध।।


सबका सुख मुस्कान मुख,अमन सुखद संचार।
खुशी  प्रेम के  रंग   से ,  रंजित   घर   परिवार।।


शान्ति  प्रेम  मय हो धरा ,नीति  प्रीति    संसार।
मानवता     परिवार  हो , राजधर्म     सुखसार।।


कवि निकुंज शुभकामना, विश्व दिवस परिवार।
तजो  स्वार्थ  मनभेद  को, बनो  एक  गलहार।।


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नई दिल्ली


*वो फिर शरारत कर गए*


वो फिर शरारत कर गए
सड़कों पर भोले-भंडारी
सियासतदां धर्म की अफीम
घोंट,मरने को उन्हें छोड़ गए


आंकड़ों में आंक मजलूम मजदूरों  को
हवाई पटरियां चला रहे
जबान की रेल चला-चला
मीडिया में पीठ अपनी थपथपा रहे


बैठ वातानुकूलित कमरों में
दर्द से लबरेज पाँवों केछालों
पर, सियासत का नमक छिड़क रहे
अपने को गमगुसार कह -कह वो फिर शरारत कर गए।


        डा.नीलम


काव्य रँगोली व्हाट्सएप्प समूह 14 मई 2020

दिनांकः १३.०५.२०२०
दिवसः बुधवार
विधाः मुक्त
विषयः मंजिलें
शीर्षकः मंजिलें
जीवन्त  तक  बढ़ते कदम,
चाहत  स्वयं  की   मंजिलें,
नित    बेलगाम     इच्छाएँ,
निरत कुछ भी कर गुजरने,
ख़ो मति विवेक नित अपने,
राहें     अनिश्चित    अकेले,
मिहनतकश  तन रनिवासर
चिन्तातुर  आकुल  मंजिलें।


आएँगी           कठिनाईयाँ,
कठिन   कँटीली   झाड़ियाँ,
विविध      गह्वर    खाईयाँ ,
नुकीले      पाषाण   टुकड़े ,
बाधित अपनों  से  मंजिलें,
धैर्य    आत्मबल      टूटेंगे ,  
सामने      होगी    साजीशें ,
मन   में    जगेगी   नफ़रतें,
बदले  की   आग  जलेंगी,
थक   बैठकर फिर  चलेंगे,
दूर  चाहत    से    मंजिलें।


आशंकित   अनहोनी    से ,
संघर्षशील          यायावर ,
झोंकते  यतन   सब   पाने,
सच झूठ छल कपट धोखे,
सहारे   सब     पगडंडियाँ,
सब कुछ  पाने  की   चाह,
क्षणिक दुर्लभ  इस जिंदगी,
अविरत    परवान   चढ़ती,
ऊँची       उड़ानें    मंजिलें।


हैं   मंजिलें       बहुरूपिये,
धन सम्पदा   शान  शौकत,
सत्ता   यश   गौरव   वाहनें,
अनवरत    चाह   जीने की,
न जाने क्या क्या पाले मन ,
बेबस  जीवन की   मंजिलें,
बढ़े  आहत  अनाहत   पग,
भू जात से  निर्वाण    तक ,
चढ़े  संकल्पित  ध्येय  रथ,
आश बस  चाहत  मंजिलें। 


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नयी दिल्ली


*गुरु तत्व नित्य है*
*****************
गुरु कोई व्यक्ति नहीं होता,
गुरु कोई शरीर नहीं होता,
गुरु तो व्यक्ति के अन्दर जो गुरुत्वा है,
वहीं गुरु तत्व होता है।


शरीर अनित्य है गुरु नित्य है,
व्यक्ति आज है परंतु कल नहीं है,
गुरु तत्व आज भी है और कल भी
गुरु एक शक्ति है जो नित्य है।


गुरु ईश्वर की कृपा से मिलता है,
गुरु समर्पण से मिलता है,
गुरु भाव से मिलता है,
गुरु प्रभु की अति कृपा से मिलता है।


गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता है,
गुरु ही सद् बुद्धि प्रदान करता है,
गुरु के कारण शिष्य की पहचान है,
गुरु कृपा से भवसागर पार होता है।।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
पिनकोड 246171


*दूर से नमस्कार।।आज सुरक्षित*
*जीवन  का यही   आधार।।।।।।*


थाम लो कदम कि बाहर कॅरोना
इंतज़ार      में    है।
बेपर्दा   बेवजह न   जाओ    कि
वो  बाजार    में  है।।
अभी खौफ में    रहो  कल   की
आज़ादी  के  लिए।
मत जाओ    मिलने   को कि वो
मौत के करार में है।।


कॅरोना योद्धा  बनो और  कॅरोना
के   संवाहक   नहीं।
जीवन अनमोल   बनो    कॅरोना
के     ग्राहक   नहीं।।
मास्क हैंड  वाश  दो  ग़ज़    दूरी
सदा ही बनाये रखना।
जान  बूझ कर   बुलाओ  यूँ   ही
मौत को   नाहक नहीं।।


घर में  व्यस्त     रहो    निबटायो
बचे सभी जरूरी काम।
जरा   सी      असावधानी   फिर
समझो   काम    तमाम।।
बस दूर से नमस्कार  बचाव और
यही     है   दवाई     भी।
सलाम करो उन  कॅरोना वीरों को
लगाते जो बाज़ी पर जान।।


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस* "
*बरेली।*
मो     9897071046
         8218685464


कविता:-
       *"आर्थिक प्रतिबन्ध"*
"आर्थिक मंदी का दौर ,
बढ़ने न पाये,
आर्थिक प्रतिबंधो पर-
करना होगा मिल कर विचार।
विदेशी अर्थ व्यवस्था पर अब,
रहना नहीं निर्भर-
स्वदेशी को ही बनाना होगा आधार।
स्थानीय वस्तुओं का करे प्रयोग,
हर हाथ को मिले रोज़गार-
जीवन सपने हो साकार।
छोड़ने होगे लुभावने सपने,
जो भटकाये कदम-
बनाये तुम्हें बेरोज़गार।
आर्थिक सम्पन्नता का हो विकास,
विदेशी नहीं -
स्वदेशी का हो प्रचार।
स्थानीय वस्तुओं का बढ़े प्रयोग,
आत्मनिर्भरता का -
स्वप्न हो साकार।
आर्थिक प्रतिबंधो पर करना विचार,
स्वदेशी अपना कर -
दें हर हाथ को रोज़गार।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः          सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः          14-05-2020


धनाक्षरी
8+8+8+7


शिवकृपा बरसे तो,तन-मन हर्षित हो,
महादेव भक्ति से,प्रसन्न हो जाईये।


जटाधारी भयहारी,अखिलब्रम्हांडकारी,
ओमकार नादयोग,चिति में जगाईये।


नीलकंठ विषधर,गौरीश नागेश्वर,
सच्चिदानंद स्वरुप, आनंद बढ़ाईये।


सतिप्रियवर शिव,भोले अर्द्ध नारीश्वर,
गंगाधर शंभू शिव,शरण लगाईये।
ममता कानुनगो इंदौर


---- आर्थिक प्रतिबन्ध----
अनायास आई बेकारी
                    टूट पड़ी आपदा बढ़ी लाचारी
नहीं था समाधान बेरोजगारी का अब तक
            पर अब बेरोजगारी बनी खुद बड़ी महामारी
कोरोना वायरस ने विश्व की अर्थव्यवस्था बिगाड़ी
             महाशक्तियों का अहंकार टूट कर बिखर गया
रहता न कुछ भी शाश्वत पंक्ति को सिद्ध कर गया
              अब अर्थव्यवस्था को यदि लाना है पटरी पर
आर्थिक प्रतिबंधों को लागू करना है राष्ट्र पर
             मिलकर हम सभी करें इसकी तैयारी
स्व निर्मित उत्पादों का कर उपयोग बढायें साख हमारी
            आओ विश्व पटल पर अपनी अर्थव्यवस्था को बढायें
स्वावलम्बन का बाना पहन बाहरी तत्वों को भगायें
             आओ लौटें अपनी भरतीय सभ्यता की ओर
कुटीर व लघु उद्योगों का कर शुभारम्भ बनायें नई भोर
            रोजगार मिले सभी को बना रहेगा आत्मसम्मान
आर्थिक प्रतिबन्ध आवश्यक है इसका रखो सम्मान
डॉ निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान


शेर--
यह कह के गये पुरखे नस्लों से विरासत में
लम्हों की हिफ़ाज़त ही सदियों की हिफ़ाज़त है


🖋विनय साग़र जायसवाल


!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
🌞सुबह🙏🏼सबेरे🌞
     =========
          *धरा*
(मनहरण घनाक्षरी)
  ^^^^^^^^^^^^^^^
जल-वायु प्राण  देता,
जीवन  को  संवारता,
पर्वत   नदी    तलैया,
       जननी-वंदन है।
💫🌘
प्रभु   का  उपहार  है,
दे   रहे   उपकार   है,
धरती  माता के  रत्न,
      ये अभिनंदन है।
💫🌔
वन   इसकी  साँस है,
मिट्टी इसका  माँस है,
और   समंदर   बिना,
     ये नही जीवन है।
💫🌎
क्षमा  सबको  करती,
प्रणाम   मात  धरती,
सदैव  ही  मुस्कुराती,
     धरा को वंदन है।


*कुमार🙏🏼कारनिक*


🌅सुप्रभातम्🌅


दिनांकः १४.०५.२०२०
दिवसः गुरुवार
छन्दः मात्रिक
विधाः दोहा
शीर्षकः नीति नवनीत
जहाँ नहीं सम्मान हो ,  सुन्दर  सोच विचार।
बचे आत्म सम्मान निज, मौन बने आधार।।१।।


निर्भय निच्छल विहग सम, उड़ें मंजिलें व्योम।
नयी सोच नव भोर हो , मातु पिता भज ओम।।२।।


अहंकार पद सम्पदा , है नश्वर यह देह।
भज रे मन श्रीराम को , यश परहित नित नेह।।३।।


शत्रु बनाना सरल है , कठिन मीत निर्माण।
कपट विरत निःस्वार्थ मन, भाव मीत कल्याण।।४।।


ज्ञान मात्र आभास मन, हो जीवन  चरितार्थ।
कठिन साधना ज्ञान की , मन वश में कर पार्थ।।५।।


विनय शील सद्भावना , संकल्पित हो ध्येय।
शान्त धीर शुभ चिन्तना, सत्य प्रीत पथ गेय।।6।।


नयी भोर नव सर्जना , मानस हो अभिलास।
मंगलमय होगा दिवस , सदा रखें विश्वास।।७।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
नवदिल्ली


*आचार्यश्री को जाने*
विधा : भजन गीत


गुरु की महिमा
गुरु ही जाने।
भक्त उन्हें तो
भगवान पुकारे।
जो भी श्रध्दा
भाव से पुकारे।
दर्शन वो सब पावे।
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


कितने पावन
चरण है उनके।
जहाँ जहाँ पड़ते
तीर्थ क्षैत्र वो बनते।।
ऐसे ज्ञान के सागर को।
सब श्रध्दा से
वंदन है करते।।
ऐसे आचार्यश्री की
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


जिन वाणी के
प्राण है गुरुवर।
ज्ञान की गंगा
बहती मुख से।
जो भी शरण
इनके है आता।
धर्म मार्ग को
वो समझ जाता।।
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


बुन्देखण्ड की
जान है गुरुवर।
घर घर में
बसते है मुनिवर।
धर्म प्रभावना बहाते
शान बुन्देखण्ड की कहलाते।
मोक्ष मार्ग का
पथ दिखला कर।
आत्म कल्याण के
पथ पर चलाते।।
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


कितने पशुओं की
हत्या रुकवाये।
जीव दया केंद
अनेक खुलवाये।
स्वभिलंबी बनाने को
कितने हस्तकरधा लगवाए।
इंसानों के प्राण बचाने
भाग्यादोय आदि खुलवाये।।
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


शिक्षा दीक्षा के लिए
ब्रह्मचारी आश्रम और 
प्रतिभा स्थली खुलवाये।
ज्ञान ध्यान पाकर के
बने तपस्वी और उच्चाधिकारी।
भ्रष्टाचार को ये
लोग मिटावे।
महावीर राज ये
फिर से बसावे।।
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
14/05/2020


मातृ दिवस पर.......


माँ
*************---
प्रियम धूप छांव सा अम्माँ का आंचल जहाँ चैन शीतल देता सदाऐं।
सर्द गर्मी या पावस गयीं जाने कितनी हारी अम्माँ से आख़िर  फिजाऐं।।
लड़ गयी काल से दु:ख घुटने बल शिकन की लकीरें नदारद मिलीं,
माँ का सानी नहीं माँ अनमोल भी प्रखर महफूज रखतीं माँ की दुआऐं।।


***********************************
डॉ प्रखर
..


2122/2122/2122/212
गीतिका 🖋


मुखडा ☺️
आज हमने दिल को अपने ग़म ज़दा रहने दिया....।
यादों के पन्ने खुले तो फ़लसफ़ा रहने दिया..।।


अंतरा 🎙
वो कभी जब थे हमारे दरमियाँ कुछ बात थीं
🌹थी सुहानी आरजूयें अरु सुहानी रात थीं
वो गये जब दूर हमसे फासला रहने दिया
यादों के पन्ने खुले तो फलसफा रहने........।।


हुश्न वो शब भर रहा और फासले बनते रहे
🌹जिंदगी के कारवाँ के सिलसिले चलते रहे
आरजू को हमने अपनी भी दबा रहने दिया
यादों के पन्ने खुले तो......।।


डायरी में जो रखे थे गुल कभी हमने दबा
🌹छू सकी कब हाथ कोई छू सकी न फिर हवा
याद में उनकी जो खोले फिर छुपा रहने दिया
यादों के पन्ने खुले तो...।।


ज़िंदगी तो ज़िंदगी है बस में सरिता के कहाँ
🌹प्रेम की है वो पुजारिन मन बना है आसमाँ
इक ऩज़र की चाह का बस आसरा रहने दिया
यादों के पन्ने खुले तो फलसफा रहने .........।।


सरिता कोहिनूर 💎
बालाघाट


कोई नादान किसी को भी डुबो सकता है।
अब किसी पे तो भरोसा भी न हो सकता है।
***
सुर्खरू होता गया वो तो मुसीबत में यूं।
दूर कोई भी दुखों से यूँ न हो सकता है।
***
खुदपे विश्वास किसानों को अगर है होता।
फूल बंजर हो धरा उसपे भी बो सकता है।
***
वो बुढ़ापे में नहीं साथ दिया करते पर।
बोझ उनका पिता ताउम्र भी ढो सकता है।
***
दर्द सारे जो अकेले ही पिये जाता हो।
वो दिखावे को नहीं भीड़ में रो सकता है।
***
सुनीता असीम
14/5/2020


दिनांकः १४.०५.२०२०
दिवसः गुरुवार
विधाः  पीयूष वर्ष छंद गीतिका
शीर्षकः  🤔जिंदगी☝️


जीवन जब टूटकर बिखरने लगे।
अरमान सब बेवफा लगने  लगे।।
अपने इतर का सही पहचान हो।
जिंदगी जीना  यहीं अहसास हो।।


आभास बस जिंदगी हम मर मिटें।
दिल्लगी  अनज़ान  से ली करवटें।।
दे तसल्ली बढ़  चलो हम  साथ हैं।
उत्थान पथ निर्माण को  फिर चलें।। 


सभी रिश्ते स्वार्थ  के अपने  नहीं।
जात हैं हम जिस धरा सपने वही।।
माँ भारती सेवार्थ जो कर्तव्य  हो।
आन बान रक्षण करूँ स्व जिंदगी।।


जिंदगी  पा  चेतना   नव   राह   को।
मंजिलें   फिर  से  सजी उत्थान को।।
धीर  नित  गंभीर   बन  रण बाँकुरा।
ध्येय बस  हो  जिंदगी, जय  राष्ट्र हो।।


मान  तुम  साफल्य ख़ुद की जिंदगी।
सारथी सच का बनो   नित  पारखी।।
प्रेम रथ   मुस्कान  साधें   कोप  को।
कीर्ति गाथा लिख वतन बलिदान को।।


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नई दिल्ली


*लाचार बेबस श्रमिक*


मजदूरों की मजबूरी पर
ये कैसा कुटिल प्रहार हुआ।
सड़को पर मजदूर बिलखता,
रोने को लाचार हुआ।।


ऑंख में आँसू तन पर झोला,
भूख- प्यास से बोझिल मन।
पैर मे छाले,अन्न के लाले,
बेबस व्यथित लाचार है तन।।


मजदूरों की व्यथा-कथा को,
आज कोई ना पहचाने।
सत्ताधारी क्रूर बने है,
इनका दर्द नही जाने।।


बेबस सारे श्रमिक चल रहे,
विपत्ति काल से हो लाचार।
भूख-प्यास मन पर छाले है,
किस्मत की कठिन पड़ी है मार।।


दर्द दुःखों की भीषण विपदा,
मजदूरों के जीवन आयी।
बच्चें भी भूरव से बिलख रहे है,
कराह रहा हर एक भाई।।


पैदल ही चल पड़े नियति पर,
मंजिल है बस गाँव की ओर।
थककर सड़कों पर गिर जाते,
दर्द ही दर्द दिखे चहुँ ओर।।


पैरों मे रक्तिम छाले है,
हृदय दर्द से रोता है।
कोई नही विवशता समझे,
श्रमिक बेचारा सब खोता है।


ऐसा कैसा दृश्य भयंकर
भारत माँ की धरती पर।
माँ बच्चें सड़कों पर बिलख रहे है,
मानवता की धरती पर।


ट्रेन की पटरी बनी थी मरहम,
थके श्रमिकों के घावों पर।
क्रूर मृत्यु ने ग्रास बनाया,
पल भर मे उन  छावो पर।।


बड़े-बड़े सपनों को लेकर
श्रमिक शहर मे भटका था।
नव भारत के नये सृजन का
ये कठोरतम झटका था।।


क्या मुफ्त नही कर सकते थे,
गरीब श्रमिक की  राहों को।
झर-झर अश्नु छलक जाते है,
खून भरी उन आँखों को।।


सेवादार बने क्रूर आज,
कुछ भी नजर नही आता।
श्रमिक भटक रहा सड़कों पर,
अब ये सफर नही भाता।।


बवंडर ने उजाड़ दिया
श्रमिको का घरौंदा।
तिनका-तिनका बिखर गया,
भूख ने तनऔर मन रौदा।।


निरीह, बेबस आँखों मे
उमड़ रही अश्क की धार।
मानवता निस्तब्द्ध खड़ी,
नही करता कोई उपकार।।


सूरज ने झुलसाया तन मन,
फिर भी मजदूर चलते रहते।
लूँ की निर्मम लपटों मे भी
मंजिल भूल नही सकते।।


श्रमिक जनो पर रहम करो अब,
राष्ट्र धर्म के शुभ कारो।।
इनकी विपदा अति भयंकर,
इन्हे सड़कों पर यू मत मारो।।
✍आशा त्रिपाठी


इम्तेहान अभी बाकी है
🌻🌻🌻🌻🌻🌻


जीवन के सफर में कुछ
काम अभी बाकी है
अपने इरादों का इम्तेहान
अभी बाकी है
अपने मन के सपनो को
सच कर लूं ऐसे
रोशन होता जग में कोई
सितारा जैसे
उर के भावों का सम्मान
अभी बाकी है
अभी तो नाप पायी हु सिर्फ
मुट्ठी भर जमीन
आगे सारा आसमान अभी
बाकी है
मेरे इरादों का इम्तहान अभी
बाकी है
🌻🌻🌻🌻🌻🌻


स्वरचित ऋचा मिश्रा
      🌹  "  रोली"🌹
  श्रावस्ती बलरामपुर
  उत्तर प्रदेश


*मन*
मन कहीं लगता नहीं
न जाने क्यूं उदास रहता है
मन मेरा होकर भी
न जाने किसके पास रहता है
ऐ मन मेरे बता मुझे
तू दूर मुझसे जाता क्यूं है
छीनकर खुशी मेरी
मुझको यूं सताता क्यूं है
दूर रहकर ही मुझसे
गर तुझको सुकून मिलता है
मुरझाकर मेरे मन को
तेरे मन का फूल खिलता है
तो तू खिले महके मुस्काए
मैं रब से ये दुआ करता हूं
तू खुश है तो मैं खुश हूं
तेरे ग़म से दुखी होता
तेरे हंसने से हंसता हूं
तेरे रोने से मैं रोता
ऐ मन तू मुझसे दूर न जा
समझ तू मेरे जज़्बात
तू कर ले  मुझसे बात
तुझ बिन हूं मैं अधूरा
तुझसे ही रहता मैं भरा पूरा
तू ही मेरा सच्चा साथी है
तुम बिन मेरा जीवन कैसा
मैं दीया तो तू मेरी बाती है।


शशि मित्तल "अमर"


*रुकता नहीं आज मेरा सफ़र*
********************
आज जीवन जलाओ न तुम,
कल्पनाएं अगर डूब जाएं कहीं,
चल रही जिन्दगी जब जाए कहीं,
खोल घूंघट हंसे मौत होकर खड़ी,
पास मंजिल अगर रूठ जाए कहीं,
प्राण देकर चुनौती रुलाओ न तुम।


एक दिन के लिए आज मौका मिला,
क्या प्रणय की तरी हेतु झोंका मिला,
मैं खड़ा इस किनारे तुम्हारे लिए,
प्रीति उर में बसे आज धोखा मिला,
प्राण! सुनकर कहानी भुलाओ न तुम।


प्यार पर जिन्दगी आदमी जी रहा,
प्यार के ही लिए है जहर पी रहा,
प्यार के लिए मन मसोसे  हुए,
आज कौन कफ़न पर कफ़न बुन रहा,
क्या कहूं मैं प्रिये! गीत गाओ न तुम।


बात मन में लगी पीर उर में जगी,
नींद बैरिन हुई, दूर मुझसे बड़ी,
सांझ मन में ललाती उछलती गई,
दीप की लौ जिया को मसलती गई,
स्वप्न मेरे नयन में झलकते रहे,
अश्रु जाने अजाने लुढ़कते रहे।


आज जाने कहां से सपन उड़ रहे,
आज जाने कहां से हृदय जुड़ रहे,
आज जाने कहां की लगन है, प्रिये,
हम अजानी दिशा में अभी मुड़ रहे,
पंथ मेरा सुकोमल नहीं है मगर,
भूलती  है नहीं आज तेरी डगर,
मैं कदम को बढ़ाते हुए चल रहा हूं,
और रूकता नहीं आज़ मेरा सफ़र।।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


बदलते  खून के रिश्ते
कलियुग में आज
ये कैसा दौर आया है
पिता के जनाजे को
कंधा देने से पुत्र ही कतराया है
कोरोना के संकट काल में
खून के रिश्ते भी हुए पराये हैं
परिजन हो या रिश्तेदार
उसे देख सभी घबराए हैं
ये दृश्य कौनसी दुनिया का है
जहाँ अपने हुए पराये हैं
वारिस के होते हुए
आज वो लावारिस सा दुनिया से जाए है
कलियुग की चरम सीमा पर
अब क्या क्या मनुष्य देखता जाए है
आँखों से नीर बहे लेकिन
तन जड़ हो स्थिर रुक जाए है
लाचार हुए बेबस होकर
अपना अंतिम फर्ज न निभा पायें हैं
मानवता की रक्षा करने
तब देवदूत बन वे आये हैं
पुलिस, प्रशासन, डॉक्टर मिल
अंतिम क्रियाकर्म करवाये हैं
बेटे को माँ ही रोक रही
कोरोना से डर सोच रही
अब पति लौटके न आएगा
बेटा गर संक्रमित हो जाएगा
उसके तो प्राण बचालूँ मैं
उसको आँचल में छुपालूं मैं
हृदय पर भारी पत्थर रख
देखती है पति को अंतिम क्षण
छाती से लगा के बच्चों को
उस पीड़ा को सह जाती है
ये कैसे खून के रिश्ते हैं
जहाँ मौत अब हुई पराई है


डॉ निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 15 मई 2020

नीरजा 'नीरू'
स्थान - लखनऊ
रुचि - कविता लेखन 
शैक्षिक योग्यता-  स्नातकोत्तर 
व्यवसाय - अध्यापन ( प्रवक्ता )
साझा संकलन - भाव कलश, दस्तक ,नीलांबरा 
सम्मान - उड़ान साहित्य रत्न सम्मान 
 विभिन्न काव्य मंच पर प्रतिभागिता
काव्य रंगोली सहित बहुत सी पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन


द्वार पर तेरे खड़े हैं 
~~~~~~~~~~


द्वार पर तेरे खड़े हैं ,माँगते वरदान हैं
दो हमें सद्मार्ग भगवन ,हम बड़े नादान हैं


बीच भव में ही फँसी  है ,डगमगाती जिंदगी 
अब उबारे तू हमें जो ,कर रहे हैं बंदगी 
पाप में  डूबे रहे हम ,पुण्य से अंजान हैं
दो हमें सद्मार्ग  भगवन हम बड़े नादान हैं


बैर ईर्ष्या में  रहीं रत, पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ 
प्रेम की  भाषा न जानें ,बंद मन की  खिड़कियाँ 
एक दूजे को मिटातीं  ,क्यूँ बनी हैवान  हैं
दो हमें सद्मार्ग  भगवन ,हम बड़े नादान हैं


द्रव्य के  जालों में  फँस कर ,हम सदा उलझे रहे 
मोह माया में  फँसे फिर ,अदबदा उलझे रहे
ढूँढते हम छद्म सुख को ,बन रहे शैतान हैं
दो हमें सद्मार्ग  भगवन ,हम बड़े नादान हैं


छल कपट के  द्वार को तज ,त्याग को हम जी सकें
धैर्य की  प्रतिमूर्ति बनकर ,क्रोध को हम पी सकें 
प्राण आएं काम जग के  ,बस यही अरमान हैं 
दो हमें सद्मार्ग  भगवन ,हम बड़े नादान हैं


जग में  फैली कालिमा को ,तेज से हम धो सकें
बीज सारे प्रेम के  ही ,हम धरा में बो सकें 
छोड़ सारे अवगुणों को , बन सकें इंसान हैं 
दो हमें सद्मार्ग  भगवन ,हम बड़े नादान हैं 


           _ नीरजा'नीरू'


" सहमे हैं आँखों में आँसू "
~~~~~~~~~~~~~~~


कागज कलम कहाँ से लाएँ
जब रोटी के ही लाले  हैं
सहमे हैं आँखों में आँसू
अब देख पाँव के छाले हैं


मन्दिर मस्जिद सब ही छाना 
पर दिखा नहीं भगवान वहाँ 
गीता और कुरान बाँचता 
पग पग पर ही हैवान  वहाँ
सोने के  हैं ढेर चिढ़ाते 
बढ़ रुपयों के अंबारों  को
दर नौनिहाल भूखे मरते
पर शर्म नहीं दरबारों को


सूखे सूखे खुद ही प्यासे 
दिखते सब ही पौशाले हैं 
सहमे हैं आँखो में आँसू 
अब देख पाँव के  छाले हैं 


रक्षक ही भक्षक बन बैठा
फिर कैसे हो अब न्याय कहीं
न्यायालय के  चक्कर काटे
पीड़ित ही तो हर बार यहीं
शेरों की  खालें  ओढ़ ओढ़
गीदड़ ये शान से घूम रहे
न्याय तंत्र की लचर व्यवस्था 
की शह पाकर ही झूम रहे


विधि की  देवी निकले कैसे 
जब दरवाजे पर ताले है
सहमे हैं आँखों में आँसू
अब देख पाँव के  छाले हैं


प्राणों की  बाजी खेल रहे 
वे प्राण हथेली पर धर कर 
जनता को बैठे चूस रहे 
ईमान जेब में ये भर कर 
वादे ही वादे करते हैं
जब-जब चुनाव  सर पड़ते हैं
बिन वादों के ही खेल जान 
 वो रिपु दर कीलें गड़ते  हैं


सूखी रोटी पर हैं निर्भर 
जो भारत के रखवाले है
सहमे हैं आँखों में आँसू
अब देख पाँव के  छाले हैं


है कचरा किस्मत गर अपनी 
तो किस्मत को ललकारेंगे
हों राहें दुर्गम ही कितनी 
हर बाधा को पुचकारेंगे 
लेकर हम कर्मों का  थैला 
अब राह नदी की  मोड़ेंगे
यूँ किस्मत के हाथों में अब 
और न किस्मत को छोड़ेंगे


गर हैं गरीब तो गम कैसा 
हम  नौनिहाल मतवाले है
सहमे हैं आँखों में आँसू
अब देख पाँव के  छाले हैं


       _नीरजा'नीरू'


विधाता छंद आधारित गीत :
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जगत में  लौट गर आऊँ ...
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जगत में  लौट गर आऊँ ,धरा फिर से यही पाऊँ
सुनहली धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


निलय मेरा ठिकाना है ,सुखद सी छाँव का  हर दम 
घनेरी प्रीत का  सरगम ,गमों  का  है सदा मरहम 
जरा आँचल तले वो ले ,जहाँ के  गम भुला जाऊँ 
सुनहली  धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


नदी की  करवटों में  है ,रवानी  जिंदगानी  की  
गगनचुम्बी नगों  में  है ,कहानी नौजवानी  की 
सदा बसता  तुहिन में  जो ,वही संगीत फिर गाऊँ
सुनहली  धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


सिवइयाँ ईद गर देती ,दिवाली रोशनी बोती 
खुशी के  रंग में  डूबी ,हुई  होली सदा होती
यहाँ अरदास कर पावन ,दुखों का  गढ़ सदा ढाऊँ 
सुनहली  धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


सुबह मंदिर  बजे घंटी  ,उषा सबको जगाती है 
अजानो की धुनों से मिल ,नया सरगम सुनाती है 
जहाँ बुद्धा  दिखाते हैं ,वही फिर राह अपनाऊँ 
सुनहली  धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


यहीं मैं जन्म लूँ  फिर से ,यही माटी बिछौना हो 
असुर को ढेर कर पाए ,वही फिर से खिलौना हो 
तिरंगे का  सदा परचम ,गगन में  दूर लहराऊँ 
सुनहली धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


        
          _नीरजा 'नीरू'


विष्णुपद छंद आधारित ...
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तर्क लगाओ जो ...
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सच का  मुखड़ा  जीते हरदम , देर भले ही हो 
झूठा मुखड़ा  हर पल नत हो ,न्याय कभी भी हो
इसी लोक में  मिलता है फल ,मानव कर्मों का 
दूजा  कोई लोक कहीं है ,भ्रम है धर्मों का  


अन्तर्मन  से सोचें जो हम ,तर्क करें खुद से 
मिल जाएंगे प्रश्नों के  हल ,जो हैं अद्भुत से 
कहाँ छिपा है ईश्वर मानव ,ढूँढ न पाया है 
धर्मो के  आडम्बर ने बढ़ ,जाल बिछाया है 


मारें  काटें  पोथी पढ़ पढ़,नाम उसी का  लें
समझें क्या वो मर्म धर्म का  ,खुद को धोखा दें
ईश्वर क्या बहरा बन बैठा ,क्यूँ आवाजें दो 
ईश्वर क्या अँधा बन बैठा ,खुद ही देख न लो 


पत्थर पे रगड़ोगे माथा ,क्या देगा तुमको 
चिल्लाओगे बार बार भी ,कहाँ सुनेगा  वो 
खोलो  ज्ञान चक्षु तुम अपने ,तर्क लगाओ जो 
पा जाओगे खुद में उसको ,सच अपनाओ तो 


              _नीरजा'नीरू'


चलो इंसान हो जाएँ 
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धरा का  थाम कर आँचल,गगन की शान हो जाएँ 
न हिंदू हों न मुस्लिम हों ,चलो इंसान हो जाएँ


रहे तेरे न मंदिर में ,रहे मेरे न मस्जिद में
खुदा बसता दिलों में है,कभी समझे न हम जिद में 
ज़रा सा झाँक लें भीतर, सही अनुमान हो जाएँ
न हिंदू हों न मुस्लिम हों ,चलो इंसान हो जाएँ


रगों  में  रक्त जो बहता ,दिखे वो एक जैसा है 
कहीं काला न पीला है,लगे वो तप्त रवि सा है
इसे आधार मानें तो ,नई पहचान हो जाएँ
न हिंदू हों न मुस्लिम हों , चलो इंसान हो जाएँ


यहाँ का तू  न मालिक है ,यहाँ का  मैं न मालिक हूँ
बचा क्या शूरमा कोई ,यही सच सार्वकालिक है 
करें हम कर्म सब पावन ,यही अरमान हो जाएँ
न हिंदू हों न मुस्लिम हों ,चलो इंसान हो जाएँ 


सभी अवतार से बढ़कर ,मनुज का  रूप है होता 
इसी में देव है बसता ,यही है दैत्य को ढोता 
बढ़ा कर दैत्य गुण को हम ,नहीं शैतान हो जाएँ 
न हिंदू हों न मुस्लिम हों ,चलो इंसान हो जाएँ 


               _नीरजा'नीरू'


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 14 मई 2020

-अर्चना पाठक 
साहित्यिक उपनाम-निरंतर
जन्म तिथि-10मार्च
शिक्षा- एम.एस.सी. (रसायन शास्त्र )B.Ed, एल.एल.बी. व्यवसाय -व्याख्याता (रसायन शास्त्र )
पता -अंबिकापुर 
जिला -सरगुजा, छत्तीसगढ़ 
पिन कोड-497001
मोबाइल नंबर -9424257421
ईमेल -9424257421archana@gmail.com


1 शीशे का खिलौना 
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शीशे का खिलौना हूँ 
गिर के टूट जाता हूँ। 
दिल पे लगी जो पत्थर 
चूर - चूर होता हूँ।


 देखी बिकी मोहब्बत
 दिल फेंक अदाएँ भी।
 करती रही है दावा  
 कसमें दे वफाएँ भी।  


 फूलों का बिछौना हूँ 
 काँटे भी चुभाता हूँ।
 शीशे का खिलौना हूँ 
 गिर के टूट जाता हूँ।


यादों में उभरती है 
भूली हुई तस्वीरें।
कब से इसे है ढूँढे
खोई हुई तकदीरें।  


गीतों का तराना हूँ
टूूटी तान गाता  हूँ। 
शीशे का खिलौना हूँ 
गिर के टूट जाता हूँ।


 दिल में छुपी है मेरी 
 खामोश सी साँसें भी। 
 कैसे छवि दिखे तेरी।
 दुनियाँ की निगाहें भी। 


सुनके जहां के ताने
चुपके से सिसकता हूँ।  
शीशे का खिलौना हूँ
गिर के टूट जाता हूँ। 


नभ का है रंग नीला
आधा चाँद दिखता है। 
कहने को कहाँ दिन में 
कभी चाँद निकलता है। 


सांझ सुनहरी देख के
प्रेम गीत सुनाता हूँ। 
शीशे का खिलौना हूँ
गिर के टूट जाता हूँ। 



2-प्रकृति और मानव
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रही प्रकृति सँवारती, मानव तन अनमोल।
 पर सोचे नहीं कभी ,सब ले नाप और तौल ।।


 दोहन करता रात दिन, फिर भी रहता लोभ।
 देख कहर बरसा रही, अब मत करना क्षोभ।।


 हमें धूप और छाँव दी, फिर क्यूँ तोड़े बंध।
 नियम धर्म नहीं पालना ,होता है वो अंध।। 


 जान बूझकर पाँव में, मारे वो कुल्हाड़।
अब विपदा में प्राण है, रोये  है चिंघाड़।।


प्रकृति  सदा फल दायिनी,जब तक सींचे नीर ।
जब छेड़े दुख दे रही ,बढ़ता जाये पीर।। 


 खाद्य श्रृंखला ध्वस्त है, लगता है विष तीर। 
 पूरी दुनिया में मचा, गरल बना वो वीर।। 


 सब कुछ मानव हाथ है, करता नव प्रयोग। 
 स्व पाँव है काटता, अजब रहा संयोग ।।


अब भी चाहे सँभाल ले, माने सच्ची बात। 
राग द्वेष सब छोड़ दे, यही बड़ी सौगात।। 


3 विषय-नील गगन
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विधा -गीत


 नील गगन का ओर नहीं 
 दिखता भी कोई अंत नहीं 
 ऊँचे तरू के गालों पर
 नीली सी चादर डाले हुए 
 आगोश में आतुर भरने को
 यूँ औंधे पड़े रहते हैं ।
 जिसे नील गगन हम कहते हैं।


  साँझ ढले यह मस्त गगन
  नित नीला वसन बदलती है
  काली सी चुनर डाले हुए
  रजनी से आकर मिलती है
  निशा की तिमिर भगाने को
  यूँ चाँद सितारे रहते हैं
  जिसे नील गगन हम कहते हैं।
  


 नभ निकुंज में पंछी बन
 उन्मुक्त मन ये गाता है 
 पिंजरे में कैद शरीर किया
  मन क्या कोई बाँध पाता है। 
  पहरों से भी मुक्त ये रहते हैं 
  यूँ थोड़ी ठौर मचलते हैं।
  जिसे नील गगन हम कहते हैं।


4 नवगीत
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स्थाई  पंक्ति 16/15
अंतरा 16/16


झाँक जरा
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चूहा बिल्ली करे तमाशे
धरा धरी करते पुरजोर। 
वैमनस्य का कारण ढूँढो
झाँक जरा भीतर की ओर।


हो रही हलचल रण स्थल में
कब मिल जाये वो कहीं और। 
बरसों बीते बैर पुरानी
अमराई की छईयाँ ठौर। 
छोटी सी इक बात न रूठो
जाने न कभी मन का चोर। 
वैमनस्य का कारण ढूँढो
झाँक जरा भीतर की ओर। 


तृण कालीने पाँव सजाये
हिल हिल रज को दूर भगाये
रवि किरण को चुप है चुराके
निशि रानी है पाँव दबाये। 
स्याह चादर घुप्प अंधेरा
चंद्रकिरण रूठी चहुँ ओर। 
वैमनस्य का कारण ढूढो
झाँक जरा भीतर की ओर। 



5 हास्य गीत
     ------------


मेरे पिया से हो गई जंग
मैं घर से निकल पड़ी।
रास्ते में मिलते गये मलंग
अचानक मैं फिसल पड़ी।


आगे-आगे जाऊँ
मेरे पीछे पीछे भागे।
तब मुड़ के जो देखूँ
आजू-बाजू नीचे ताके।
मैं तो हो गई आड़ी तिरछी 
कनखियों से बड़ी तंग
मैं घर से निकल पड़ी।
मेरे पिया से हो गई जंग।
मैं.... 


भूख लगी पिय जी को
याद मेरी आई कसम से।
पड़ोसन से पूछ कर 
बमुश्किल रोटियाँ सेंकी तब ।
जली रोटी की जली सी गंध
उड़ा रही मुख का रंग ।
मैं घर से निकल पड़ी
मेरे पिया से हो गई जंग। 
मैं... 


देर आधी रात को 
वो निकले खोजने सड़क पे।
बिखरे हैं बाल देख
आधे खिले उजड़े चमन पे। 
इधर -उधर खोजते गाँव गली
बन रहे मजनूँ विहंग
मैं घर से निकल पड़ी। 
मेरी पिया से हो गई जंग। 
मैं..... 


मिली नहीं जब मैं तो
बैठ जाये बड़े अनशन पे। 
हर पल की खबर मिली 
मुझे पड़ोसन के समधन से। 
तिजोरी धीरे कर गई साफ
जाने किसके हो संग 
मैं घर से निकल पड़ी। 
मेरी पिया से हो गई जंग
मैं..... 


अर्चना पाठक 'निरंतर'
अम्बिकापुर ,छत्तीसगढ़


 


अवधी विकास संस्थान सीतापुर ने आयोजित किए अवधी कवि/कवयित्री सम्मेलन

सीतापुर, कोरोना महामारी का सामना सम्पूर्ण विश्व डटकर कर रहा है। इस मुश्किल समय में अवधी विकास संस्थान सीतापुर,नवीन कदम  छत्तीसगढ़ और काव्य कला निखार मंच के संयुक्त तत्वावधान में अवधी कवयित्री,कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया।
  इस आयोजन का प्रारंभ 2 मई सीता जयन्ती के उपलक्ष्य में हुआ था।इसकी दूसरी कड़ी 4 मई एवं तीसरी तथा अंतिम कड़ी मातृदिवस पर 11 मई को आयोजित की गई।
कार्यक्रमों की शुरुआत वरिष्ठ कवयित्री एवम्  अध्यक्षा श्रीमती निरुपमा श्रीवास्तव तथा अन्य कवयित्रियों ने अपनी वाणी वन्दना से की। उन्होंने सुनाया-"दुःख जब ना होये जीवन में, सुख की परिभाषा का होये," ऋचा तिवारी मंजरी ने सुनाया-" पहिलेन जइसे सबके इन्तिजाम रखि हो," डॉ कुसुम चौधरी ने सुनाया-"हमारे अंगना मा आई बहार बबुआ," डॉ गीता त्रिपाठी ने सुनाया-"तोहरे बिना हमरी जिंदगी अधूरी लगल," डॉ ज्ञानवती दीक्षित ने सुनाया-" सारी दुनिया से सुंदर ई हमार गाँव रे," मधु शंखधर स्वतंत्र ने सुनाया-"बहुत नीक लागइ हमका ऊ गउवा," कार्यक्रम का संचालन करते हुए बिंदुप्रभा जी ने सुनाया-"धीरे-धीरे मेघ घनन घन आये।"
इनके अतिरिक्त कार्यक्रम में लक्ष्मी शुक्ला, सोनी मिश्रा, ज्योतिमा शुक्ला, कानपुर की श्रीमती रंजना मिश्रा एवं लखनऊ की स्वाति मिश्रा जी ने काव्य पाठ किया।
कार्यक्रम में वरिष्ठ कवि सौरभ प्रताप गढ़ी, मनीष मगन, लखनऊ, डॉ हरी फैजाबादी, विशेष शर्मा ,
दुष्यंत शुक्ला , डॉ अमित अवस्थी ने काव्य पाठ करके सफल बनाया।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री राजेंद्र राठौर जी(संपादक दैनिक नवीन कदम) एवं विशिष्ट अतिथि श्रीमती मणि अग्रवाल जी(संपादक अविरल प्रवाह)  ,दैनिक हिन्दुस्तान  के  नीरज अवस्थी  एवं श्री जी एल गांधी जी ने अपनी सहभागिता एवं शुभाशीष  से कार्यक्रम की सफलता की नींव रखी। 
  अवधी विकास संस्थान, सीतापुर के जिलाध्यक्ष श्रीकांत त्रिवेदी जी ने हर कार्यक्रम को दिशा दी। एवं सचिव अविनाश मिश्र अंजान ने कार्यक्रम में सक्रिय भागीदारी दी। *श्रीकांत त्रिवेदी* जी ने सीता जी  के महत्व पर प्रतिदिन मानस की चौपाइयों "सिय शोभा नहि जाइ बखानी, जगदम्बिका रूप गुन खानी" आदि से सीता जी का स्तवन किया, तथा सभी से अवधी के विकास हेतु सतत प्रयास करने का आग्रह किया। प्रांत संयोजक तारा चंद ' तन्हा ' जी ने हर कार्यक्रम में सभी का स्वागत किया।
  कार्यक्रम का आयोजन एवं संयोजन अवधी विकास संस्थान सीतापुर के उप जिलाध्यक्ष एवं नवीन कदम के को- कॉर्डिनेटर  अवनीश त्रिवेदी'अभय' ने किया।   
  संस्थान की ओर से अवधी विकास संस्थान के अध्यक्ष श्रीकांत त्रिवेदी जी द्वारा सभी कवि एवं कवयत्रियों एवं अतिथियों को प्रतिदिन *अवधी रत्न सम्मान* से सम्मानित किया गया। कार्यक्रम बहुत सराहा गया।


काव्यरंगोली आज के सम्मानित रचनाकार मई 12

नाम- विनोद ओमप्रकाश गोयल
साहित्यिक नाम- अश्क़ बस्तरी
पता-- ग्राम पोस्ट- उरमाल, तहसील-मैनपुर, जिला- गरियाबंद, छत्तीसगढ़, ४९३८९१
सदस्य-रत्नांचल साहित्य परिषद् , अमलीपदर.
लेखन विधा- गीत,ग़ज़ल, गीतिका,छंदमुक्त कविता।
व्यवसाय- कपड़े का
भाषा ज्ञान- हिन्दी, अंग्रेजी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, उड़िया।
(हरयाणवी व पंजाबी सीख रहा हूँ)
सामजिक गतिविधि- जब जहाँ अवसर मिले यथासंभव शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से तत्पर ।
सम्मान- अलग अलग राज्यों व मंचो से शताधिक ।
साझा संकलन- काव्य सागर, कोहिनूर,कैलाशी, कृष्णा आदि।
विशेष- काव्य रंगोली सहित अन्य पत्र पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन।
मोबाइल- 9303673883
व्हाटसप- 9777500184


गीतिका 1


हम तेरी याद में न ....सो पाते,
हम तेरे ख़्वाब में न ..खो पाते।


ख़ूब मुश्किल किया तुने जीना,
हँस पाते कभी न...... रो पाते।


बेहतर थी मेरी जवां ..सी शब,
अब न आग़ोश में भी हो पाते।


क्या बताएं तुझे फ़साना  दिल,
चाशनी में नहीं ......डूबो पाते।


हमसफ़र है नहीं......मेरा कोई,
अब अकेले वज़न न..ढो पाते। 


अश्क़ ठहरे हुए से....आँखों में,
अब ये पलकें नहीं भिगो  पाते।


अश्क़ बस्तरी


गीतिका 2
हम नहीं होते यहाँ तो ये मुक़द्दर किसलिये,
ये दरो दीवार ये चौखट ये पत्थर किसलिये।


किसलिए ये आरज़ू औ दिल ख़रीदी किसलिये,
हम न बिकने आए थे ख़ुद फ़िर भला डर किसलिये।


मारकर तीरे नज़र तुम कब तलक रह पाओगी,
दिल न देना था न दो ये दिल के चक्कर किसलिये।


ज़िंदगी को ज़िंदगी ने ज़िंदगी से ही दिया,
ज़िंदगी को फ़िर भला है मौत से डर किसलिये।


अश्क़ आँखों में लिये फ़िरता रहा कुछ ख़्वाब भी,
मुफ़लिसी में ज़िंदगी भटके है दर दर किसलिये।


अश्क़ बस्तरी


गीतिका 3


तेरी हर याद को दिल से मिटाना....चाहता हूँ मैं,
ख़ुदी ख़ुद से ख़ुदी को भूल जाना...चाहता हूँ मैं,


गुज़र जाए न यूँ ही बेख़याली...... में उमर सारी,
कि अब तेरी वफ़ा को आज़माना...चाहता हूँ मैं।


नहीं हूँ मैं ख़ुदा जो वक़्त को फ़िर से बदल डालूँ,
ख़ुशी रूठी उसे ही फ़िर मनाना.... चाहता हूँ मैं।


कभी ग़र आ गयी बीते दिनों की याद मुझको तो
कसम से तेरे सारे ख़त जलाना......चाहता हूँ मैं।


सुना है तुझ से ज़्यादा ख़ूबसूरत.......शह्र तेरा है,
बुला लेना कभी उस ओर आना......चाहता हूँ मैं।


शज़र के पात पीले हो रहे पतझर ये......आया है,
बहारों को घटाओं से बुलाना..........चाहता हूँ मैं।


लिये फ़िरता हूँ आँखों में समन्दर अश्क़ का मैं भी,
दरो दीवार रोके है गिराना..............चाहता हूँ मैं।


अश्क़ बस्तरी


 


गीतिका 4



हमीं को शराबी कहा जा रहा है,
हमीं को फ़रेबी कहा जा रहा है।


किसी को पड़ी है कहाँ अब किसी की,
हमीं को ग़ुरेज़ी कहा जा रहा है।


गया ही नहीं मैं कभी भी गली से,
कि मुझको सहाबी कहा जा रहा है।


उठा हूँ कई बार मैं यार गिर के,
मुझी को नवाबी कहा जा रहा है।


नहीं है हया भी ज़रा सी नज़र में,
न जाने ग़ुलाबी कहा जा रहा है।


कभी भी मिरे घर न आया सनम वो,
मुझे ही रक़ीबी कहा जा रहा है।


मुझे अश्क़ पीने की आदत बुरी है,
तभी तो शराबी कहा जा रहा है।


अश्क़ बस्तरी


गीतिका 5


सदा  तेरी  गलियों  से  आता  रहा  हूँ,
नज़म भी  वफ़ा  ही  के  गाता  रहा हूँ,
मग़र  तेरी  नज़रों  ने  तब  भी  जाना,
तेरी  आशिक़ी  को  निभाता  रहा  हूँ।


कभी कभी जो याद में तेरी न आई नींद तो,
रातों में तकिये को अश्क़ों से अपने,
मेरी जां मै हरदम भिगाता रहा हूँ।
सदा तेरी गलियों....


सुनो सनम यूँ ख़ाब में आना मेरे तो छोड़ दो,
सपने जो देखे थे संग में तुम्हारे,
तब से में उन्हीं को सजाता रहा हूँ।
सदा तेरी गलियों......


तेरे लिये ये ज़िंदगी तेरे बिना ये ज़िंदगी
तेरे बिना जीना ऐसे कि जैसे,
मैं ख़ुद को ही ख़ुद से जिलाता रहा हूँ।
सदा तेरी गलियों......


अश्क़ बस्तरी


काव्यकुल ऑनलाइन अंतरराष्ट्रीय डिजटल कवि सम्मेलन सम्पन्न

मातृ दिवस के अवसर पर काव्यकुल संस्थान(पंजी.) द्वारा  अंतरराष्ट्रीय डिजिटल काव्य समारोह किया गया जिसमें भारत, नेपाल, जापान के रचनाकार सम्मलित हुए।
काव्यकुल संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ राजीव पाण्डेय ने इस कार्यक्रम का संयोजन  एवं संचालन किया।
मातृ दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित काव्य समारोह की मुख्य अतिथि काठमांडू नेपाल से डॉ श्वेता दीप्ति सम्पादक हिमालिनी पत्रिका ने बेहतरीन कविताओं को सुनाया और अपने उद्बोधन में कहा कि ऐसे कार्यक्रम वैश्विक स्तर पर हिंदी की पहचान बनाने वाले में समर्थ  हो रहें है। काव्यकुल संस्थान  हिन्दी की सेवा के लिये उत्तम कार्य कर रही है। 


कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं वरिष्ठ कवयित्री डॉ रमा सिंह ने कहा-
हम हैं उसके वो है सबकी 
दुनिया उसकी है माया 
सृष्टि के कण -कण ने भी तो
गीत उसी का है गाया 
     आँगन की तुलसी है वो ही 
      है पूजा की देहरी  माँ ।।।


जापान की कोमल भावों की वरिष्ठ कवयित्री डॉ रमा शर्मा ने पढ़ा
बहुत याद आती ही तुम माँ
याद आता है वो तेरा डाँटना,
फिर प्यार से पुचकारना
मेरी जिदों को मानना।
गाजियाबाद से इन्दु शर्मा ने सुमधुर कंठ से पढ़ा
कितनी रातें जागी वो माँ , जो लोरी तुम्हें सुनाती थी।
जब -जब भी दण्ड दिया तुमको , फट जाती उसकी छाती थी।।
वह सच की देवी झूठ बोलकर , निशदिन तुम्हें बचाती थी ।
दूखे न कभी माथा तेरा , इसलिए वो मंदिर जाती थी ।।
कोलकाता से साहित्य त्रिवेणी के सम्पादक वरिष्ठ गीतकार कुंवर वीर सिंह मार्तण्ड के गीत की ये पंक्तियां काफी सराही गयी।
सब देवों ने अपनी शक्ति 
सौंपी जिसके हाथ में ।
विद्या देवी और लक्ष्मी 
हर पल जिसके साथ में ।


कार्तिक जी भी जिसके पीछे 
सैन्य शक्ति ले खड़े हुए ।
बुद्धि विनायक गणपति बप्पा 
वेद शास्त्र सब पढ़े हुए ।


ग़ज़ल के बड़े फनकार दिलदार देहलवी ने जब ये शेर पढ़े तो तालियां अनायास ही बजने लगी।


कभी तो दूर जाए ज़िन्दगी तू
कभी अपना बना ले ज़िन्दगी तू


दिलों में प्यार के पौधे उगेंगे
अगर नफ़रत न बांटे ज़िन्दगी तू


मैनपुरी से बहुभाषी गीतकार कैप्टन ब्रह्मानन्द तिवारी अवधूत की इन पंक्तियों ने मन मोह लिया-
माँकी महिमा जग में अपरम्पार है।
आज तक कोई न पाया पार है।।
वेदों ने माँ को ही देवोभव कहा,
मात्र देवोभव ये शास्त्रों नें कहा,
जलधि जैसा माँ के दिल में प्यार है।
कार्यक्रम के संयोजक एवं संचालक डॉ राजीव पाण्डेय ने एक दोहे के माध्यम से कहा
अपनी सन्तति के लिये,भूली निज पहचान।
आँसू अन्दर पी लिए, चेहरे पर मुस्कान।
इस समारोह में गाजियाबाद से सोनम यादव के गीत को काफी प्रशंसा मिली।
शैलजा सिंह द्वारा  तरुन्नम में माँ पर पढ़ा गया गीत काफी सराहा गया।
कार्यक्रम का शुभारंभ इन्दु शर्मा की वाणी वन्दना से हुआ। कार्यक्रम के संयोजक एवं संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ राजीव पाण्डेय ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित किया।
प्रेषक
डॉ राजीव पाण्डेय
राष्ट्रीय अध्यक्ष
काव्यकुल संस्थान(पंजी.)
गाजियाबाद


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 11 मई

नन्द लाल मणि त्रिपाठी


साहित्यिक उप नाम-पीताम्बर                     जन्म स्थान-----गोरखपुर   


     निवास -C--159 दिव्य नगर कालोनी पोस्ट -खोराबार जनपद-गोरखपुर -273010 उत्तर प्रदेश 


                                        भाषा ज्ञान------हिंदी, संस्कृत  , अंग्रेजी  ,बंग्ला       


                                          ज्ञान शैक्षिक स्तर---स्नातकोत्तर तक सभी बिसयों के अध्यापन क़ि योग्यता        


                                   समाजिक गतिविधि--1-युवा संवर्धन संरक्षण 2-बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ 3-महिला सशक्तिककर्ण 4--विकलांग अक्षम लोंगो के लिये प्रभावी परिणाम परक सहयोग       


                                       लेखन विधा--कविता ,गीत ,ग़ज़ल,उपन्यास ,  कहानी  आदि        


                                 ।  प्रकाशित कृति--एहसास रिश्तों का,शुभा का सच उपन्यास और शौर्य का शंखनाद प्रकाशन स्तर पर।              


                                    अध्ययन एवम् अतिरिक्त ज्ञान--आधुनिक ज्योतिष विज्ञानं                


                                            ,विशेष योग्यता ---वक्ता एवम् प्रेरक                


                                       साझा संकलन---धरोहर ,पिता, गुलमोहर ,अलकनंदा ,एहसास प्यार का, शब्दांजलि ,काव्य सरिता ,सपनो से हकीकत ,जमी आसमान ,काव्य चेतना, शहीद, शांति पथ, काव्य स्पर्श।



प्राप्त  सम्मान--अंतररास्ट्रीय 1-नेपाल भारत वीरांगना फाउंडेशन राजेन्द्र नारायण सम्मान 2--एन आर बी फाउंडेशन भव्या इंटरनेशनल इंडियन वेस्टीज अवार्ड-2019   रास्ट्रीय---1-साहित्य सृजन मंच स्वर्गीय विपिन बिहारी मेहरोत्रा सम्मान 2-काव्य सागर यू ट्यूब कहानी प्रतियोगिता सम्मान 3-साहित्य कलश साहित्य रत्न पुरस्कार 4--कशी काव्य संगम उत्कृष्ट रचना धर्मिता सम्मान 5-बृजलोक साहित्य कला संस्कृत अकादमी श्रेठ साहित्य साधक सम्मान 6--साहित्य दर्पण भरतपुर श्रेठ लेखन सम्मान 7-उत्कृष्ट साहित्य सृजन गुलमोहर सम्मान 8-विश्व शांति मानव सेवा समिति विश्व शांति मानव सेवा रत्न सम्मान 9--काव्य रंगोली साहित्य भूषण सम्मान-2018 10-काव्य रंगोली साहित्य सम्मान 11--काव्य स्पर्श काव्य श्री साहित्य सम्मान 12--रास्ट्रीय कवि चौपाल एवम् ई पत्रिका हिंदी ब्लॉक स्टार हिंदी सम्मान-2019 13-राष्ट्रिय कबि चौपाल रामेश्वर दयाल दुबे सम्मान  14-युवा जाग्रति मंच कमलेश्वर साहित्य सम्मान 15-अखिल भारतीय साहित्य परिषद साहित्य भूषण सम्मान 16--अखिल भारतीय साहित्य परिषद साहित्य सम्राट सम्मान 17--अलकनंदा साहित्य सम्मान 18-के बी हिंदी साहित्य समिति नन्ही देवी हिंदी भूषण सम्मान 19--रॉक पिजन सम्मान 20--काव्य रंगोली महिमा मंडन पुरकार 21-काव्य रंगोली व्हॉट्स एप्प पुरस्कार -2018 22-काव्य कुल संसथान अटल शब्द शिल्पी सामान 23-धरोहर साहित्य अक्षत सम्मान 24-काव्य कलश राजेन्द्र व्यथित सम्मान 24-काव्य चेतना सम्मान आदि।


अन्य--साहित्य एक्सप्रेस ग्वालियर द्वारा नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर विशेषांक मार्च -2019


1-प्यार का नशा 
यार के दीदार का नशा!!
नशा, नशा नहीं
मजा जिंदगी का।।


कही दौलत का है गुरुर नशा 
कही शोहरत का सुरूर नशा!!
हुस्न की हस्ती का नशा 
इश्क की मस्ती का नशा 
नशा, नशा है जिंदगी का, 
प्यार की बन्दगी का!!


किसी को दानिश इल्म का नशा 
किसी को पत्थरों में 
खुदा को खोजने का नशा!!
किसी को ईमान के इम्तेहान का नशा 
किसी को ईमान बेचने का नशा!!
किसी का गैरों के खातिर मिटना  
किसी को किसी लूटने का नशा!!


नशा न मैखाने में, 
नशा न पैमाने में, 
न हुस्न के इश्क के दीवाने में 
न तो परवाने में
नशा तो जज्बा जुनून है
जिंदगी जीत जाने में।।


एल एम त्रिपाठी पीताम्बर


2-जिंदगी के तरानो में तेरा अंदाज है शामिल


जिंदगी के तरानो में तेरा अंदाज है शामिल!!
धड़कतै दिल कि धड़कन में तेरा एहसास है शामिल!
जिंदगी के तरानो तेरा एहसास हैं शमिल!!
जिंदगी के हर लम्हों कि राहों में तेरा इजहार है शामिल!
जिंदगी के तरानो में तेरा एहसान है शामिल!!
सुर्ख सुबह कि लाली चमकती गालों पे बाली
माथे पे चांद सी दमकती विंदिया
नजर के नूर का दीदार है शामिल!
जिंदगी के तरानो में तेरा एहसास हैं शामिल!!
घने जुल्फों के सेहरे में छुपा तेरा ए चेहरा
करम किस्मत कि ख्वाहिसो का इंतजार है शामिल!
जिंदगी के तरानो में तेरा एहसास है शामिल!!
तू मकसद कि मल्लिका अरमानों कि बहों में
इरादों कि इबादत का इम्तिहान है शामिल!
जिंदगी के तरानो में तेरा एहसास हैं शामिल!!          नन्द लाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


3-जग तेरे चरणाें आया मेरी माँ 
जग तेरे शरणाें में आया मेरी माँ!!


तेरे आँखो का दुलार तेरी संतान, 
तेरे आँचल का प्यार तेरी संतान  
जग आया लेकर अपनी मुराद माँ तेरे द्वार!!
जग तेरे चरणाें आया मेरी माँ 
जग तेरे शरणाें में आया मेरी माँ!!


माँ सबकी भर दे झोली, 
कोई खाली ना जाये, 
कोई सवाली ना जाये खाली, 
तू जग जननी, तू जग कल्याणी, 
जग तारणी माँ , नव दुर्गा माता रानी!!
जग तेरे चरणाें आया मेरी माँ,
जग तेरे शरणाें में आया मेरी माँ!!


तू भय भव भंजक निर्भय कारी दुष्ट संघारी 
छमा, दया, करुणा कि सागर जग तेरी करुणा, 
कृपा   तरस कि दरश में आया मेरी माँ!!
जग तेरे चरणाें आया मेरी माँ,
जग तेरे शरणाें में आया मेरी माँ!!


तू भक्ति कि शक्ति, 
तू मंगलकारी, शुभ संचारी, 
अमंगल हारी 
जग तेरे दर पे दर्शन को आया मेरी माँ!!
जग तेरे चरणाें आया मेरी माँ,
जग तेरे शरणाें में आया मेरी माँ!!       


 Nand Lal mani tripathi pitamber


4- यादों के तरानेा में पलके हैं बिछाएँ हमने अरमानों उम्मीदाै के ख्वाब सजाए हमने!!                                               


लाख तूफानों में गिरती संभलती जिंदगी में दुनिया कि खुशियों का चिराग जलाया हमने!!               


यादों के तरानेा में पलके हैं बिछाएँ हमने अरमानों उम्मीदाै के ख्वाब सजाए हमने!!                   


चाहतो कि किश्ती का मांझी दुआआै कि मोहब्बत हद हस्ती का पतवार,।                    


 तकदीर के इम्तिहान तमाम वक्त बेवफाई के हसतै जख्म बेशुमार,।                       


 हसतै जख्मों को जिन्दगी का नूर बनाया हमने!!                      


यादों के तरानेा में पलके हैं बिछाएँ हमने अरमानों उम्मीदाै के ख्वाब सजाए हमने!!                      


हर सुबह का सूरज मेरे बज्म का वजूद हर शाम नया नज़्म गुनगुना‍या हमने!!               


 यादों के तरानेा में पलके हैं बिछाएँ हमने अरमानों उम्मीदाै के ख्वाब सजाए हमने!!             


चाँद कि चांदनी घने अंधेरों में यादों के कारवाँ संग जिंदगी बिताया हमने!!                     


यादों के तरानेा में पलके हैं बिछाएँ हमने अरमानों उम्मीदाै के ख्वाब सजाए हमने!!                  


तूफानों कि तरह जज्बात  मोहब्बत में मोहब्बत का पैगाम सुनाया हमने !!    


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


5--अहंकार एक आग है सब कुछ कर दे ख़ाक।          


पहले मति हारती मतिमंद करती पाप दिखे धर्म जस धर्म दिखे जस पाप।।


सत्य असत्य में फर्क मिटे अहंकार के संग ।                             


ज्ञान अज्ञान का अंतर हो जाता अंत।                                  


सत्य ,निष्ठां ,नेकी ,धोखा और फरेब अहंकार के शास्त्र  शत्र।    


अहंकार एक बिष है अंतर मन में जन्म ।।                          


अहंकार इंसान के गुण ,कर्म ,धर्म ज्ञान, विज्ञान का कर देती सब भष्म।।                             


आँखों सहित आदमी अँधा विवेक का विवेक हीन ।                 


नियत ,निति, को हर कर देती निर्मूल ।।                             


मुर्दा जलता आग में जिन्दा अहंकार कि आग के शोला और शूल।।            


अहंकार कि आग में जल वर्तमान हो जाता स्वाहा ।   


 वर्तमान कि कालिख स्याह   भविष्य के अन्धकार कर काला काल।।                          


अहंकार एक व्याधि है संन्यपात  कहलात ।      


अपने दुःख का दर्द 
नहीं औरन के सुख से घुटत जलत मरी जात।।                             


दुःख का कारण अहंकार ही  बिष  वासुकि मागत त्राहि त्राहि ।         


अहंकार एक विष है निगलत खुद को जात।।


 घृणा ,क्रोध, कि जननी अहंकार द्वेष ,दम्भ दो धार ।                   


 निज को काटत जाय मगर मकच्छ कि खाल सा अहंकार बन जात।।


अहंकार एक शत्रु है खुद को दीमक  अस खाय ।      


वैद्य धन्वन्तरि और सुखेंन को सूझत नही उपाय।।      
 
निर्मम ,निर्दयी  दया भाव भी नाही प्यासे को पानी नहीं मरत जहाँ रेगीस्तान ।।                          


धर्म कहत अग्नि है चार छुधाग्नि ,कामाग्नि ,जठराग्नि , चिताग्नि  पांचवी आग है अहंकार।                               


चारो पर भारी घातक पता नहीं मानव कब कैसे जल जाय।।


अहंकार का नाश ही  शक्ति का सूर्योदय ।                       


विनम्रता सयम धैर्य का धन्य दरोहर ।।                          


मानव मानवता का सत्य यही सत्यार्थ ।                            


दम्भ ,द्वेष ,घृणा का नाश प्रेम, दया ,छमा ,सेवा का युग का होता निर्माण।।                            


साहस,  सौर्य ,त्याग तपश्या  और बलिदान के मूल्य मूल्यों कि मानवता का बनता दृढ़ ,सुदृढ़, राष्ट्र समाज।।         


                                    नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 9 मई 2020

नाम जयश्री श्रीवास्तव
जया मोहन
पूर्व सहायक सचिव
माध्यमिक शिक्षा परिषद
क्षेत्रीय कार्यालय
प्रयागराज
बाल कहानी ,बाल कविता , कहानी संग्रह ,कविता संग्रह ,लघु कथा संग्रह की 26 किताबें प्रकाशित
विभिन संस्थाओं से सम्मानित
गगन स्वर साहित्यक संस्था गाज़ियाबाद द्वारा सरस्वती रत्न सम्मान,महादेवी रत्न सम्मान पद्मश्री गोपालदास नीरज जी द्वारा,मानव भूषण सम्मान माननीय कपिल सिब्बल जी द्वारा,गिरिराज सम्मान, गुगुनराम सामाजिक साहित्यिक संस्था द्वारा बाल गीत झुनझुना के लिए भिवानी हरियाणा में सम्मानित,अभिनव कला परिषद भोपाल द्वारा शब्द शिल्पी ,अग्निशिखा मंच से शब्द साधक,कलमपुत्र संस्था मानद उपाधि आध्यातिमक काव्य श्री ,आध्यात्मिक साहित्य शिरोमणि,अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सेवी संस्थान की मानद उपाधि साहित्य श्री,साहित्य शिरोमणि,उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री द्वारा गंगा रत्न सम्मान आदि विभिन संस्थाओं से सम्माननित।बाल पत्रिका देवपुत्र वा किलकारी में बाल कहानियां प्रकाशित।विभिन्न पत्र पत्रिको में गीत कहानी लघु कथा प्रकाशित।आकाशवाणी प्रयागराज द्वारा कहानी गीत परिचर्चा बाल कहानियों का प्रसारण


1
हसरत
कानो में बज रही ढोलक 
की थाप आ रही थी
शायद किसी घर मे
नवजात शिशु के आने पर 
बधाई गाई जा रही थी
बस मन उड़ चला  विचारो
के पंख लगा कर
कितना सुख होता है
किसी नन्हे के घर आने पर
परिवार के बढ़ जाने पर
बाबा दादी उमंगों के 
झूले पर झूलेंगे
पापा मम्मी अपने नन्हे 
को देख कर फूलेंगे
मन संतोष से भर उठेगा
जीवन मे बस सब कुछ 
पा लिया 
नन्हे के बढ़ने के साथ ही
मुसीबते भी बढ़ती जाएगी
पहले संस्कार फिर फीस की 
मार कमर तोड़ती जाएगी
पढ़ाई के लिए बिक जाएगा घर
पर नन्हा बन जायेगा इंजीनियर
माँ बाप हो जायेगे बूढ़े
इस इंतज़ार में नन्हा कमा कर लाएगा
उन्हें फिर खुशियॉ के संसार मे
महाजन का कर्ज उतर जाएगा
अपना घर वापिस फिर आ 
जाएगा
पर नन्हा तो नॉकरी पा के
चला गया विदेश
बूढ़े माँ बाप को खुशियॉ की जगह दे गया क्लेश
क्या ऐसी दिन के लिए उन्होंने गाई थी बधाई
की बिन मांगे भोग रहे तन्हाई।


जया मोहन
प्रयागराज


2।
विधा
उसने पूछा तुम किस विधा
में लिखती हो
मैंने कहा मैं तो मन के भावों को कलम से उकेरती हूं
न छंद न दोहा न चौपाई
बस लेखनी लिखती है
वही बात जो मेरे दिल मे आयी
कभी मन जो छोटी सी
बात पर खुश होता है
तो गीतों के बोलो को
शहद में डुबोता है
जब किसी को कष्ट में देख कर मन दुखी होता है
तो लिखा गया गीत स्वाद हीन, सारहीन गमो  के रस 
में भीगा हुआ होता है
वर्तमान परिस्थितियों में
मनोभावों को बांधना बेमानी है।
मेरे गीत ग़ज़ल लिखने की
यही विधा पुरानी है।


जया मोहन
प्रयागराज



3
चांदनी
चांदनी ही चांदनी
मधुर मस्त चांदनी
देख साज़ बज गए
तार तार हिल गए
एक ताल एक लय
एक ही सी रागिनी
चांदनी।।।।
अकेली थी जो चकोर
भीगी थी नैनो की कोर
आयी मिलन की रात तो
हुई है बड़भागिनी
चांदनी।।।।
चाहतो का उजला रूप
प्यार की हो निखरी धूप
कुवारी थी जो अब तलक
हुई है सुहागिनी
चांदनी।।।।
प्रिय का पाके साथ आज
छेड़ती है मिलन राग
प्रिय के साथ चल पड़ी
हो के अनुगामिनी 
चांदनी ही चान्दनी


जया मोहन


4
जब जंगल मे
जब जंगल मे टेसू के अंगारे
उठे
बागों में कुहू कुहू कोयल कुहुक उठे
आमो के पेड़ों पर नई बौर छाई
समझ लो मीत मेरे
फागुन ऋतु आयी
होठ गुनगुनाने लगे
आँख अलसाने लगे
मस्ती सी छाने लगे
मीठे मीठे सपनो ने 
ली अंगड़ाई
समझ लो।।।।
शन्नो को बुलाना है
बहू को भिजवाना है
गुझिया का खोवा
कल्लू से मंगवाना है।
सबको समझा रही
घूम घाम ताई
समझ।।।
हाथ पिचकारी ले के
रंग और गुलाल लेके
रंग दे सभी को 
देवर ,ननद,हो चाहे भौजाई
समझ लो मीत मेरे
फागुन ऋतु आयी
जया मोहन


5।
गंगा किनारे
गंगा किनारे बसा है मेरा गांव
घनी घनी अमराई और पीपल की छांव
सूरज के उगते ही
जग जाता गांव
याद आ रहा है मुझे वो अपना गांव
चक्की की धुन के साथ
गीतों की लय थिरकती थी
सिर पर गागर लिए 
गोरी निकलती थी
पानी भरने के साथ
चूड़ियाँ खनकती थी
चलते समय गोरिया की पायल भी बजती थी
बछिया के रंभाने से
मुनियॉ रानी जगती थी
कंधों पर हल लिए
किसानों की टोली निकलती थी
हाथों में खुरपी लिए रन्नो शीला चलती थी
काम के साथ साथ बतकही
होती थी
रात की चौपाल में ढोलक भी बजती थी
फागुन के आते ही
होली के गीतों से कानो में
मिसरी सी घुलती थी।


जया मोहन



काव्य रँगोली व्हाट्सएप्प समूह पर आज की रचनाये 8 मई 2020

*सरस्वती वंदना*
***************
मां सरस्वती
शब्द के कुछ सुमन
समर्पित कर रहा हूं
स्वीकार मेरी वंदना करो,


बस चरण में
अब शरण दीजिए
मां सरस्वती हमें
कण्ठ में तुम्हारा नाम हो,


ध्यान में डूबकर
गीत तेरे मैं गाता रहूं
हंस वाहिनी शुभे
शत् शत् नमन करता रहूं,


मां सरस्वती
सुमति का वरदान दो
मां भजन में
अब लगन  चाहिए।।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


कविता:-


     *"सपनों का घर"*


"जहाँ मिले अपनों में अपनत्व,
हो सब में भाई चारा-
वही होगा सपनों का घर अपना।
घर -घर बने छाये न उसमें,
कभी अंधियारा-
जीवन सपना सच हो अपना।
सपनो ही सपनो में खोजे,
सुख अपना साथी-
सच हो सपनों का घर अपना।
अपने अपनों में छाये न कटुता कभी,
मिलकर संजोए सपने-
सपनो का घर हो अपना।
अपनत्व की धरती पर साथी,
बढ़ता रहे अपनत्व-
सार्थक हो जीवन अपना।
देखे सपने सुनहरे साथी,
पूरे हो सपने अपने-
जिससे महके घर आँगन अपना।
जहाँ मिले अपनों में अपनत्व,
हो सब में भाई चारा-
वही होगा सपनों का घर अपना।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः         सुनील कुमार गुप्ता


 


नमन मंच🙏
विषय-शिव
विधा-सयाली


शिव,
तुम शाश्व,
निराकार, ओंकार, कृपालु,
अनादि, अनंत,
महाकालेश्वर।


महेश्वर,
स्वीकारो नमन,
श्वासो के स्पंदन,
करुं हृदयांगम,
सर्वेश्वर।


गंगाधराय,
  भोले विश्वेश्वराय,
अर्पण निर्मल जल,
अर्पित बिल्बपत्र,
चरणार्पण।


शिवम्,
नादब्रम्ह, अखिलेश्वर,
सत्- चित् -आनन्द,  तुम, ही ,
नागेश्वर, सर्वहितकारी,
अंतर्यामी।
ममता कानुनगो इंदौर


  
😌   ये साल है अच्छा नहीं    😌


मधुमालती छंद पर एक रचना -


आघात  पर आघात ये। 
  अच्छी नहीं  है  बात ये।
    विपदा  नई  ये  आ  गई।
       दस बीस को है खा गई।


ये  गैस  जो  है रिस गई। 
  विपदा  बनी  है  ये  नई।
    हे  राम  ये  क्या हो रहा।
      भारत   हमारा   रो  रहा।


ये साल  भारी  कुछ लगे। 
  मारे   गए   कितने   सगे।
    बीता   नहीं  ये  साल   है।
      पर    आदमी   बेहाल   है।


आगे  न  जाने  क्या  करे।  
  सौ  बीस तो अब तक मरे।
    लाखों  न  मर  जाएॅ॑ कहीं।
      ये   साल  अच्छा   है  नहीं।


भयभीत  इसने  कर  दिया।
  डर  दिल सभी के भर दिया। 
    इस साल  का  अब अंत हो।
      ऐसी    कृपा    भगवंत   हो।


  ।। राजेंद्र रायपुरी।।



मेरे हृदय प्रीति भरो,
राधे और सुजान।
पाप मुक्त जीवन बने,
भरो हृदय में ज्ञान।।


मुझ सा कोई न पापी,
तुमसा कोय न बंधु।
अघ नाशक मेरे बनो,
हे करुणा के सिंधु।।


प्यार प्रीति अनुराग सब,
हरें सभी संताप।
युगल चरण सों प्रीति हो,
मिट जाएं सब पाप।।


ईश नाम आधार एक,
करो उसी का जाप।
मिट जाएं बाधा सभी,
जीवन हो निष्पाप।।


 


युगलरूपाय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय



*विषय।।।।।।।शत्रु।।।।।।।।।।।*
*शीर्षक। हम ही अपने मित्र हम*
*ही हैं अपने शत्रु भी।*
*विधा।।     मुक्तक  माला ।।।।।*


हम ही  हैं     अपने   शत्रु   और
हम   ही     मित्र   भी।
कभी लिये   मधुर   वाणी   और
अहंकार का चित्र भी।।
हमारे  भीतर    ही    स्तिथ  गुण
मानव  और  दानंव के।
यह   मनुष्य     प्राणी    जीव  है
बहुत ही   विचित्र   भी।।


जिस डाल    पर    बैठता   उसी
को  काट  डालता   है।
मधुर सम्बन्धो को   भी    स्वार्थ
वश  बांट  डालता  है।।
जीवन भर   की     मित्रता   को
पल में करता ध्वस्त ये।
अपनेपन की  चाशनी  को  बन
शत्रु  चाट   डालता  है।।


हमारा घृणा  भाव    ही   तो  है
परम     शत्रु    हमारा।
मन को करता   कलुषित  मोड़
देता ये   मितरु   धारा।।
क्रोध वह  शत्रु   है   जो  करता
हमारा   ही    सर्वनाश।
कर बुद्धि  का  नाश  हटा   देता
अपना ही मित्र सहारा।।


बने हमयूँ भूल सेभी हमसे कोई
घायल न  होना  चाहिये।
हमारी नज़र में कोई  छोटा नीचे
पायल न होना चाहिये।।
वसुधैव कुटुम्बकम का  सिद्धांत
हो मन   मस्तिष्क    में।
हमारेआचरण का मित्र नहीं शत्रु
भी कायल होना चाहिये।।


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस* "
*बरेली।*
मोब           9897071046
                  8218685464



*********
  *सुबह🙏🏼सबेरे*
    """"""""""""""""""
        *आस*
 (मनहरण घनाक्षरी)
🔅🔅🔅🔅🔅
चला था  मै वहां  पर,
आस लिए  जहां  पर,
नही मिला वह स्थान,
       तुम न घबराओं।
🔅
कर     और   मेहनत,
कुछ तो  हो कयामत,
रहो    तुम   सलामत,
      खुद न सहराओं।
🔅
मन को  कभी न मार,
हिम्मत कभी  न  हार,
दुश्मन  है  जी  हजार,
  हां वीरता दिखाओं।
🔅
रचो    तुम   इतिहास,
नही  होगा   परिहास,
सपने   होंगे   साकार,
 गीत खुशी के गाओं।



*कुमार🙏🏼कारनिक*
©®१८११/१८
               ********


*"आराधना"* (आनुप्रासिक दोहे)
****************************
¶अडिग अनघ *आराधना*, अमि अंतः आधार।
आत्म-अमल-अवधारणा, आतप-अंत-अपार।।1।।


¶दर्प दहो दानव दलन, दुर्दिन-द्वंद्व दुखांत।
दान दया देकर दहो, दुःख-दहक दुर्दांत।।2।।


¶उपजत उन्नत उर्ध्वता, उत्पल उर-उर्वार।
उमगत उच्च उपासना, उत्तमतम उच्चार।।3।।


¶कलुष-कहर को काटकर, करना कृपा कृपाल।
कंटक कारा कष्ट का, काटो काल-कराल।।4।।


¶भरना भावन भावना, भर भल भूयः भान।
भाल-भाल भू भारती, भाग्य-भरे भगवान।।5।।


¶सज्जित सरसित साधना, सरगम साँस सुधार।
सुरभित सुखद समीर से, सुरसरि सुख-सुरधार।।6।।


¶सत्य साधना सार से, स्वप्न सजे साकार।
सप्त स्वरों से सुर सदा, सरस सकल संसार।।7।।


¶प्रीत पले परिकल्पना, पुर-परिजन-परिवार।
परिमल-पावन-प्रार्थना, पुलकित प्रेम-प्रसार।।8।।


¶मन-मंदिर में मांगलिक, महत मनन मति मान।
मानक मज्जन मर्म मन, मानस मान महान।।9।।


¶नित नूतन निज नेह नत, नाद निनादित नाम।
नित्य निहारे नैन नम, "नायक" नर निष्काम।।10।।
****************************
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
*****************



उम्मीद
8.5.2020
धनुष पिरामिड 


ये 
झूठी
उम्मीद
जो जगाती
आशा किरण
उठ जा मानव
ना होना निराश तू
उम्मीद का दीया ही
पार कराएगा
ये व्यवधान
जीवन के
मानव
मान 
ले
है 
थोड़ा
कठिन
ये समय 
पर उम्मीद
रखती जीवित
देती हौंसला सदा
कराती व्यवधान                                     
पार जीवन के
दूर होतें हैं
प्रतिकूल 
प्रभाव 
इसी
से


स्वरचित
निशा"अतुल्य"



कोई आये मेरा वरण करने के लिए
मैं उद्धत हूं हमसफर बनने के लिए


ऐसा निकले चांद चांदनी में नहा जाऊँ
ले आगोश में मुझे बाहों में समा जाऊँ


यौवन सुरभि उसकी महकाये मुझको
मुस्कुराता आनन उसका रिझाये मुझको


अनुप्राणित करे उसके प्रणय की ज्योती
बने आ करके कोई हृदय हार का मोती


सत्य हृदय की उत्कंठा वो पास रहे मेरे
उसी की रश्मियों से हों जीवन के सवेरे।


सत्यप्रकाश पाण्डेय



रिमझिम सी बारिश और कच्चा घर
गांव की वो यादें कभी मिटती नहीं है


वह सौंधी सी महक खुशबू मिट्टी की
पक्के आंगन में  कभी उड़ती नहीं है


कच्चे घरों की ही खुशनसीबी है यह
गर्मी कभी ज्यादा इनमें लगती नहीं है


ये आंगन नहीं रहे अब बड़े शहरों में
इमारतों में तो वो बात दिखती नहीं है


वो आले दीवाले टांड और रोशनदान
फ्लैटों में यह सौगात  मिलती नहीं है
     
        सुबोध कुमार



*कैसे पढ़े मोहब्बत को*
विधा : कविता


आंखे तो प्यार में,
दिलकी जुवा होती है।
सच्ची चाहत भी,
तो बेजुवा होती है।
प्यार में दर्द भी मिले,
तो क्या घबराना।
सुना है दर्द से चाहत,
और जबा होती है।।


प्यार की प्यास को,
दिल वाले जानते है।
जो आंखों से कम,
दिलसे पीना जानते है।
मोहब्बत होती है क्या,
जो हर कोई नही जानते।
इसलिए आंखों के साथ,
दिलको भी पढ़ना होता है।।


मोहब्बत के इतिहास को पढ़ो,
और उसे थोड़ा समझो।
शायद मोहब्बत करने का,
तुम्हारा इरादा बदल जाये।
और छोड़कर इसको तुम,
अपना रास्ता ही बदल दो।
या मोहब्बत के सागर में,
हमेशा के लिए डूब जाओगे।
और अपनी मोहब्बत को,
अमर कर जाओगे।
अमर कर जाओगे।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
08/05/2020


561
कर संघर्ष परिस्थितियों से ,
ढाल अपने अनुसार उन्हें ।


चाहता है विजय जिन पर,
ले कर आ रण संग्राम उन्हें ।


  गढ़ सुगढ़ रक्षा कवच ,
  हर प्रहार से पहले ।


  कर ले सुरक्षित स्वयं को ,
  आते हर रोग से पहले ।


   है संकल्प दृण जीत का ।
 आधार सुरक्षा नींव का ।


 खींच रेखाएं चहुँ और ज्ञान से ।
 दूरकर तिमिर अज्ञान ज्ञान से ।


 रोक ले संकट पहले प्रयास स
 रख सुरक्षित मुश्किल इलाज़ से ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....



ग्रीष्म


ग्रीष्म ऋतु की है बहार
बेमन झुम रहा धरा और आसमान
है सुखा सुखा चारों तरफ
कड़कड़ाती हुई धूप
निरिह सब बने हुए
तपती हुई धरा ,गर्म हवायें 
हम सभी जीव
और पेड़ पौधे


सूरज भी है अपने आप मे
कमी नही कोई उसके प्यार मे
जकड़ लेता है वो हम सभी को
अपने आग़ोश मे
उसकी गरम गरम सांसे
फिरने लगती है बदन पर
इतना प्यार भई किस काम के
थोड़ा कम करो


शाम होते ही जाती हूँ छत पर
सारे पौधे सिकुड़े सिमटे
निरिह से खड़े
देखने लगते है मुझको
इशारा करते मुझको
ठंडे  प्यार से सींचने को
और फिर शुरु हो जाती हूँ मै
ठंढा ठंढा प्यार देने को


माना कि मैंने
प्यार मे होती है गर्माहट
पर इस क़दर 
कि सुख के हो जाऊँ काँटा
तुम देते सबको जीवन
पर इतनी ज़्यादा गर्मी
तापमान क्यूँ चढ़ाये ऊपर 
हो गई है सबको बेचैनी 


और एक वो है मेरा
जो था पहले प्यार का वर्षा ऋतु
करता था प्यार मुझको
भींग भींग कर प्यार मे उसके
हो जाती थी सराबोर
पर वो अब हो गया ग्रीष्म ऋतु
सुखा दिया है मुझको
प्यार मे अपने ।
               नूतन सिन्हा
             08.05.2020



दो पुत्र भये श्री राम के ,


लव कुश नाम अपार ,


थी इनमें भी क्या एकता ,


बाल्मीकि के यहां पर ,


थी खुशियां बहुत अपार ,



आज का विषय पुत्र 


कैलाश , दुबे ,



ये जिन्दगी
***********
क्या बताऊँ  कैसी है ये जिन्दगी
क्या कहूँ कैसी है ये जिन्दगी
कभी तो फूल सी लगती है
ये जिन्दगी।


कभी  तो काँटों में गुलाब सी
मुस्कुराती है ये जिन्दगी
कभी दूर डूबते सूरज सी
लगती है यह जिन्दगी।


कभी सूरज की पहली किरण
सी लगती है यह जिन्दगी
कभी कल्पनाओं के सागर में
गोते लगाती है यह जिन्दगी।


कभी दूसरे का दर्द को देख कर
रो पड़ती है ये जिन्दगी
कभी मौत के भय से
बदहवास सी दौड़ती है ‌ये जिन्दगी।


कभी मंजिल के बहुत करीब
लगती है ये जिन्दगी
कभी एक -एक पर को
पीछे धकेलती है ये जिन्दगी।


क्या कहूँ कैसी है ये जिन्दगी
जैसे भी है
बहुत सुहावनी है ये जिन्दगी
ईश्वर का कृपा प्रसाद है ये जिन्दगी।।
*******************************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड 246171


आत्मज्ञान
जीवन-मरण का चक्र
चलता रहता सर्वत्र
पंचमहाभूतों में
 मिलता तन यत्र
पर आत्मा तो
चली जाती है अन्यत्र
आत्मा में ही
परमात्मा है
जगत है ये मिथ्या
जीवन भ्रम मात्र है
ढूँढे कहाँ प्रभु को मनुज
भ्रमवश फिरे तू चतुर्दिश
हृदय से मिटा
विचार कुत्सित
मंगलकारी हो
कर कार्य वन्दित
मन से कषायों को मिटा
सन्ताप कर्मों से हटा
अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान को
त्यागो वैचारिक कलुषिता
के परिधान को
तू स्वार्थ की गठरी हटा
परमार्थ कार्य में
स्वयं को लगा
धर्म मार्ग पर तू
प्रयाण कर
सत्य की आभा से
संसार का कल्याण कर
जब मानवता पोषित होगी
मोह माया से आत्मा विलग होगी
तब सत्यम, शिवम, सुंदरम
की जग में स्थापना होगी।
डॉ. निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान


*"महत्तम माता-ममता"*
(कुण्डलिया छंद)
****************************
¶ममता-मर्म महान-महि, मातु महत मणि मान।
मुकुलित-मुखरित मातु-मन, महके मनः मकान।।
महके मनः मकान, मोम-मन मानो-माता।
मान मातु-मंतव्य, मोद मानस-मुस्काता।।
मंगल (नायक) मुद मन-मोर, मुदित-मति मान-मचलता।
मोहक-मधु-मकरंद, महत्तम माता-ममता।।
****************************
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
*******************


🙏सरस्वती काव्यकृतां विधीयताम्🙏


दिनांकः ०८.०५.२०२०
दिवसः शुक्रवार
विषयः  चित्राधारित
विधाः स्वच्छन्द
छन्दः मात्रिक (दोहा)
शीर्षकः अनाघ्रात मधु यामिनी


मुस्काती    सुन्दर   अधर, शर्मीली    सी     नैन।
दंत पंक्ति   तारक    समा , मुग्धा    हरती    चैन।।१।।


मादकता  हर    भाव  में , कर्णफूल     अभिराम।
सजी   हाथ    में चूड़ियाँ , खनखाती    अविराम।।२।।


मिलन मनसि ले बालमा,जाती मंडप जाती प्रीत । 
रखी    चूनरी    माथ   पर , मुस्काती      नवनीत।।३।।


तन्वी     श्यामा     चन्द्रिका , करे   वन्दना   ईश। 
कोमल किसलय हाथ में , आभूषण      रजनीश।।४।।


बनी अधीरा    नायिका , गन्धमाद    सम   गात्र। 
लचकाती गजगामिनी , हृदयंगम   प्रिय      पात्र।।५।।


अमर सृष्टि विधिलेख की , सामवेद    मृदु   गान।
अनाघ्रात   मधु    यामिनी , बिम्बाधर    रसखान।।६।।


मन रंजित साजन मिलन , स्वप्नसरित    नीलाभ। 
कर वन्दन   रति  रागिनी , कामदेव     अरुणाभ।।७।। 


बंद   नैन   घंटी   बजी , चाह      मनोरथ    इष्ट। 
चन्द्रमुखी रत प्रार्थना ,  मृगनयनी  अति   श्लिष्ट।।८।। 


मुख सरोज रति   लालिमा, केशबन्ध  अभिराम।
पलकें सम   काली घटा , मीन   नैन    सुखधाम।।९।।


लखि निकुंज कवि कामिनी ,दर्शन मन  आनन्द।  
खिले सुभग रमणी चमन , हृदय पुष्प   मकरन्द।।१०।।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" 
रचना : मौलिक (स्वरचित) 
नवदिल्ली


****************
    *तथागत-बुद्ध*
 (मनहरण घनाक्षरी)
 ^^^^^^^^^^^^^^^
जनम   वैशाख   पून्नि,
कपिलवस्तु   लुम्बिनी,
तथागत    बुद्ध    हुए,
    शांति बुद्ध मार्ग है।
🌼
राजपाठ  छोड़   चले,
ज्ञान खोज में निकले,
गया में  बोधित्व  हुए,
    मिले ज्ञान मार्ग है।
🌼
जग  सारे  में   दुख है,
दुख से ही  तो सुख है,
होता  निवारण   यहाँ,
      दया धर्म मार्ग है।
🌼
तृष्णाओं में फंसे सब,
छूटकारा  मिले   कब,
निजात पाने के लिए,
     ये अष्टांग मार्ग है।


कुमार कारनिक


कुछ कदम उठाए जाएं अब इस औऱ ।
दिखती नही रात की पास कोई भोर ।
है उजाला दूर तिमिर है पसरा हुआ ,
सुरक्षा और संघर्ष की थामना है डोर । 
...."निश्चल"



दिनांकः ०८.०५.२०२०
वारः शुक्रवार
विधाः गज़ल
शीर्षकः  सनम बेवफ़ा
 सनम बेवफ़ा तू  दामन  छोड़ दे ,
 दिए ज़ख़्म गमों  पे मुझे छोड़ दे, 
 ढाए सितम को जरा याद करना,
 रहना खुश सदा तुम मुझे छोड़ दे ।


मैं   थी  कयामत  कुदरती नूर  तेरा ,
बनायी  मैं  आशिक सभी  छोड़ के,
खुद बदली तुमने  फ़ितरत  वफाई,
 दिल दर्दे  सितम  पे  मुझे  छोड़  दे। 


ख्वाईश  बहुत  थीं  सपने  तराने ,
इश्की कशिश नैन भर के  लड़ाने, 
तन मन समर्पित तुझे दिल दे बैठी, 
छलिया  मेरे  हाल  मुझे   छोड़  दे।


सजायी गुलिस्तां दिल के महल में , 
कसमें    खाई     जन्मों    निभाने, 
बने   एक   दूजे  हमदम  सफ़र के, 
दगाबाज़  सनम तू वफा़  तोड़  के। 


भुलाना मुझे तुम अहशान कर दो,
ज़ख़म न कुरेदो अब भी बख़स दो,
उजाड़े चमन को महक फूल प्यारे,
 कोई आरजू अब  सनम  छोड़   दे। 


किया माफ़  तुझको  सारे   गुनाहें , 
रमो  महफ़िलें  फिर  जीवन तराने, 
मुहब्बत दिली न जताना किसी को,
चली ख़ुद की राहें  सजन छोड़  दे।। 
कविः डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नयी दिल्ली


हायकू


शीर्षक:-माँ


रक्षा मूरत
 वसुंधरा पर तो
माँ की मूरत 


सदैव साथ
बनी रहती छाया
दे शीश हाथ



रहती नम
फैलाकर आँचल
छाँटती गम


    बहार है माँ
खुशबू अनमोल
    बयार है माँ


कृति अनूप
जन्मदात्री हमारी
कार्य अद्भुत
           
            रीतु प्रज्ञा
       दरभंगा , बिहार


जयश्री श्रीवास्तव जया मोहन  प्रयागराज

मुट्ठी भर खुशी 
भोर की किरण फूट रही थी ।रघु चादर ताने सो रहा था।बुधिया ने गुहारा दिन चढ़ गाओ काम पे नई जाने का।ऊँ ऊँ ऊँ कर करवट बदल रघु सोता रहा ।उठो घाम होरहो है। अरी ते जाने आज से काम पे नई जाने काहे की सरकार ने पूरो शहर बन्द करा दाओ।काहे का  कहूँ दंगा हो गाओ।
नही एक कीड़ो बीमारी फैला रहो है कॅरोना जैऐसे लोक डाउन हो गाओ।कोनहुँ घर से बाहर जा पाहे।ओ मोरी भूमानी माई। जे तो आफत आ गई।जब काम न हूहे तो हम मजूर खाहे का। 
रघु दातुन कर आया बुधिया ने काली चाय बना दी बासी रोटी संग चाय पी रघु बोला सब बन्द हो गाओ।काहे के दिनन के लाने मैं का जानो।दो दिन कटे राशन खत्म ।सुना  बाहर गरीबो को राशन मिल रहा है जा बुढ़िया ले आए।अब रोज़ कोई न कोई संस्था भोजन राशन देती ।खाने का जुगाड़ हो जाता।रघु इन दिनों शराब नही पी रहा था।घर पर बुधिया से बतलाता इससे पहले ध्यान न देता रोज़ पैसे को लेकर शराब लिए मारपीट होती।बुधिया खुश थी जिस बेटे को कभी रघु ने नही खिलाया उसे प्यार करता। अरे बुधिया तै कैसी हो गई एकदम हाडिली अब आ मोखो देखबे की खबर आई। रघु रोज़ सपने बुनता अब मैं कबहु नशा न करिहो।दुइ पैसा बचाहो अपने मुन्ना के लाने।आँचल पसार बुधिया कहती भगवान भौत दिनन में जा खुशी दई।अब न छिनहो।जब से ब्याह कर आई रघु की नशे की लत के कारण सुख न पाई ।सास ससुर ने अलग कर दिया जो चांदी के गहने गुरिया थे बिक गए ।रघु अच्छा मिस्त्री था पर जो कमाता नशे में उड़ाता।
पैसे की कमी है पर प्यार से रह रहे है।
बुधिया बाहर निकली कूड़ा फेकने तो सुनी आज से सरकार ने शराब की दुकान खोल दी। हे प्रभु जो का करदो। रघु आया बर्तन उठा कर झोले में भरने लगा जे का कर रहे हो।बेचन जा रहा हूं ।काहे मोय नशा फाटो है
नही दोउ चार तो बासन है मैं न ले जान देहो।हट जा मोरे सामने से। झोला छीनने पर रघु ने धक्का दे दिया दीवार से बुधिया का सिर टकराया खून बह निकला रघु चला गया।खूब पीकर लडखडाते हुए आया।दूसरे दिन चावल बेच आया अब कुछ भी नही था खाने को मुन्ना रो रहा था।बुधिया ने सोचा क्या करूँ क्या नशे की दुकानें हमेशा को बंद नही हो सकती।
बच्चे का रोना सुन पड़ोस की बूढ़ी माई आई का बुधिया काय रो रहो मौडा।भूखों है।मैं सूखी रोटी व नमक ले आई। पानी मे भिगो कर मुन्ना को खिलाया।तै खाले नही माई भूख नही। माई चली गई।बुधिया ने एक कठोर निर्णय ले लिया भूख गरीबी से बचने के लिए
द्वार बंद कर बच्चे को पेट से बांध कर  आग लगा ली।पर  माई ने देखा गुहार लगाई सबने आग बुझाई।तुरत अस्प्ताल ले गए।एक लड़का भाग कर ठेके पर गया।रघु जल्दी चलो तोरी लुगाई ने मुन्ना संग आग लगा लई।का कहत हो रघु बदहवास भागा देखा पुलिस बुधिया से पूछताछ कर रही है क्यों लगाई आग पति के कारण ।कमज़ोर आवाज में बोली नही अपने आप लग गई ।कैसे चूल्हे से पर वो तो बुझा था।हाँ साहब पड़ोस से आग लाई हती जराबे के लाने ऊसे। 
पास पहुँच कर बुधिया का हाथ पकड़ रोने लगा मोरे कारण भयो सब।कसम खात हो कबहु न नशा करिहो बस तै अच्छी हो जा।रामधई सच्ची कह रहे। हौ हौ।
बुधिया तो बच गयी पर मुन्ना नही । रघु से लिपट कर वो रो रही थी ।देखो जो नशा कितनो बुरो है हमार गोद सुनी कर दई।
माई ने समझाया का करिहो अब धीरज धरो । बुधिया बोली प्रभु अब न छीनना दी हुई खुशी बेटे को खोकर मिली है
आज रघु के घर बेटी आयी है।रघु अब नशे से मुक्ति पा चुका है।सच ही किसी ने कहा है होश में आता है इंसा ठोकरे खाने के बाद।


स्वरचित
जयश्री श्रीवास्तव
जया मोहन 
प्रयागराज
08 ।05,2020


काव्य रँगोली आज के सम्मानित रचनाकार

 मधु शंखधर 'स्वतंत्र'
पति- व्रजेश कुमार शंखधर
जन्म - १५ अगस्त 
स्थान - प्रयागराज
शिक्षा-स्नात्कोत्तर ( हिन्दी, इतिहास )
विधा - गद्य, पद्य लेखन
कथा,कविता,नवगीत,सामयिक लेख,निबंध, यात्रा वृतांत,इत्यादि।
प्रकाशन - विभिन्न राष्ट्रीय स्तरीय पत्र- पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन ( प्रणाम पर्यटन, साहित्य समीर,सरिता संवाद,मेरी संगिनी, कर्मनिष्ठा,शब्दलोक इत्यादि पूर्वांचल प्रहरी समाचार पत्र )
सम्मान - मेघालय राज्यपाल द्वारा गोयनका स्मृति सम्मान प्रपत्र,व महाराज कृष्ण जैन सम्मान प्रपत्र।
के.बी. हिंदी साहित्य समिति द्वारा शांति देवी अग्रवाल स्मृति सम्मान प्रपत्र,जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी द्वारा गोस्वामी तुलसीदास सम्मान इत्यादि।
व्यवसाय - अध्यापन
पता -  ७०/५३/एस - २०४ सूर्या विहार अपार्टमेंट,बलरामपुर हाउस, ममफोडगंज इलाहाबाद( उत्तर प्रदेश)
थाना- कर्नलगंज
प्रयागराज
मो0 9305405607
ईमेल madhudhar76@gmail.com
(मधु शंखधर 'स्वतंत्र' )


             भजन


मोहन मधुर बजाए बंशी, प्रेम मगन हो इतराऊँ।


वृन्दावन में रास रचाने, कर श्रृंगार सुखद जाऊँ।।


मन मयूर हो नृत्य करे जब, पंख मगन हो  बिखराऊँ।
तेरी बाहों में मैं झूलूँ ,नील गगन को छू जाऊँ।
तेरी उलझी लट जो देखूँ, उँगली से मैं सुलझाऊँ।
मोहन मधुर बजाए बंशी.............।।


श्याम अधर जब धरे बाँसुरी,मीठी तान बजा जाए।
अन्तर्मन के सहज भाव ले, मेरे दिल तक आ जाए।
सुगम सुरीली तान सुनूँ जब,पूर्ण रूप मैं बलखाऊँ।।
मोहन मधुर बजाए बंशी...............।।


वृंदावन में सभी गोपियाँ, राधा रानी कहती हैं।
नटवर नागर मेरे प्रियतम,सुर सरिता में बहती हैं।
सात सुरों के सरगम में मैं,राधा ही बस सुन पाऊँ।
मोहन मधुर बजाए बंशी.............।।


प्यार हमारा गोपाला तुम, गीत सुनाते तुम ऐसे।
मेरे दिल में तुम बसते हो, लगते हो धड़कन जैसे।
रासबिहारी तुमको देखूँ, सुध- बुध अपनी बिसराऊँ।। 
मोहन मधुर बजाए बंशी।।


मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज


*9305405607*


चलो गाँव की ओर
विह्वल मन आकुल ह्रदय, कैसे टूटी डोर।
मन आनंदित हो जहाँ, चलो गाँव की ओर।


हरियाली बाकी नहीं, बनी इमारत खास।
न द्वारे तरूवर दिखे, टूट रहा विश्वास।
जहाँ वृक्ष में देव हों, खेतों में धन धान्य।
ऐसे सुंदर गाँव की , छवि मेरी चितचोर।
मन आनंदित हो ................।।


माटी के घर याद में, फ्लैट बसाएँ रोज।
पानी में भी कर रहे, मिनरल की ही खोज।
ताल, तलैया ,बाग से, सजता है जो गाँव।
पक्षी नित कलरव जहाँ, नाचे सुंदर मोर।।
मन आनंदित हो..................।।



साधारण जीवन बसे, सीधे सादे लोग।
अपनेपन का भाव बस,पौष्टिक होता भोग।
बंधन की महिमा सजग, सुदृढ़ बसे समाज।
अतिथि पूजे देव सम, मधुमय होती भोर।
मन आनंदित हो...................।।



न लज्जा न संस्कृति, ऐसा बना समाज।
स्वार्थ लिप्त मनु हो यहाँ,करता है सब काज।
सभ्य समाज संग एकता, बसता अपने गाँव
गाँव जहाँ संस्कृति बसे,प्रेम भाव पर जोर।
मन आनंदित  हो जहाँ,चलो गाँव की ओर ।।


जहाँ बसे संयुक्त घर,द्वारे पर हो नीम।
संग बैठे बातें करें, पंडित और हकीम।
खलिहानों में गाय हो, मुर्गा, बकरी साथ,
सदा एकता की बंधे ,मधु जीवन की डोर।।
मन आनंदित हो.......................।।


भारत ही वह देश है, बसते सुंदर गाँव।
गाँवों में संस्कृति बसी, सदा एक ही ठाँव।
गाँवों से बसते नगर, नगर बसाए देश,
मूल कभी मत भूलिए,मधु कहती यह बोल।
गाँव सदा ही श्रेष्ठ है, चलो गाँव की ओर।।
मन आनंदित हो ।।


मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज



*लमाँ शारदा का वंदन
----------------------------
प्रिय ऋतु बसंत पावन,धरती का रूप चंदन
जो हिय में ज्ञान भरती, माँ शारदा का वंदन।


माँ धवल वस्त्र धारी, है हंस पर सवारी।
है कर में बजती वीणा, पुस्तक व पुष्प धारी।
आराधना करे जो , बन जाये माँ का नंदन,
जो हिय में ज्ञान भरती, माँ शारदा का वंदन।


धरती *पे* बाल कितने, अज्ञान रूप फिरते।
छल दम्भ शीश धरते, अज्ञानता से घिरते।
माँ की शरण में आकर, करते हैं फिर वो क्रंदन
जो हिय में ज्ञान भरती, माँ शारदा का वंदन।


माँ को बसंत भाए, धरती भी मुस्कुराए।
मन भाव आयें पावन, उर में प्रकाश छाए।
माँ मधु को वर ये दे दो, क्षमता में हो न मंदन
जो हिय में ज्ञान भरती, माँ शारदा का वंदन।


--मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज



*गीत*
यह गीत मांडवी का भरत से  वियोग होने पर उनकी मनोदशा को व्यक्त करते हुए है....
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
बँध संबंधों के बंधन से,
आओ कुछ पल संवाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं को,
कुछ भूल चलें, कुछ याद करें।


जब राज्य मिला वह त्याग दिया,
मुझको पर क्यूँ त्यागा तुमने।
परिणय बंधन में बाँध मुझे,
सीमा को क्यों लाँघा तुमने?
जब तुमने ही त्यागा मुझको,
तो हम किससे फरियाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं.......।।


माँ कैकेयी के लाल तुम्हीं,
मेरे जीवन संसार बने।
हिय में प्रिय रूप बसा है यूँ,
बस तुम ही तो आधार बने।
जब तुमने प्रेम भुला डाला,
तब हम क्या इसके बाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं.........।।


क्यूँ स्वप्न दिखाए थे हमको,
जब रघुकुल रीत निभानी थी।
क्यूँ ब्याहा? लाए थे हमको,
जब भाई प्रीत सुहानी थी।
तुम धरे खड़ाऊँ माथे पर,
फिर हम कैसे आह्लाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं.......।।


कैकेयी नंदन दशरथ सुत ,
मेरा अपराध बताओ तो।
कैसे जीवन का दंश सहूँ,
हमको यह राज सिखाओ तो।
हम भी तो चंचल नदिया थे,
पर कैसे अब उन्माद करें।
जीवन की अमिट कथाओं......।।


माँ की करनी का फल दे कर,
मुझको ही त्याग दिया तुमने।
श्री राम गए थे वन लेकिन,
खुद ही वनवास लिया तुमने।
इस राजमहल में खुश क्या हों,
किस किस से हम प्रतिवाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं.......।।


हे भरत! अयोध्या है सूनी,
मांडवी अभी भी रोती है।
जब भाग्य सोचती है अपना,
अपने आँसू मन धोती है।
ऐसा अनुपम जीवन साथी,
फिर क्यूँकर हम अपवाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं......।।


यह त्याग सहज करके तुमने,
रघुकुल का मान बढ़ाया है।
क्या होगा त्यागी फिर तुमसा?
यह प्रश्न हृदय में आया है।
हे प्राणाधार भरत मेरे,
तुम संँग ही जग मधु नाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं......।।


बँध संबंधों के बंधन से,
आओ कुछ पल संवाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं को,
कुछ भूल चलें, कुछ याद करें।।
मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज


 


कुंती का ही दोष नहीं था
------------------------------ 


कुंती का ही दोष नहीं था, फिर भी वह दुख पाती है।
द्वापर युग की नारी में वो, क्यूँ निकृष्ट कहाती है।


कोमल मन था भाव सरल थे, सबको ह्रदय बसाए थी।
अतिथि आए द्वार पे जब भी, सेवा भाव सजाए थी।
धरा सदा ही भाव भी निश्छल, सर्वोच्च सदा आदर जाना।
सप्त ऋषि आए दुर्वासा, सेवा को ही व्रत माना।
हुए प्रसन्न ऋषि दुर्वासा,कुंती को आशीष दिया।
ऐसा था आशीष ये अद्भभुत, मन से वो भरमाती है।
द्वापर युग की नारी....................।।


सच है या मिथ्या न जाने,मिला उसे ऐसा वरदान।
किया प्रयोग तभी कुंती ने, जाने क्या है इसका मान।
प्रथम उपासना करी रवि की, हुए प्रसन्न तभी भगवान।
गोद भरी तब आकर उसकी, दिया पुत्र अनुपम बलवान।
एक कुंवारी कन्या का यह, कैसे बन जाता अभिमान।
इसी मान का दंश तो कुंती, पल पल सहती जाती है।
द्वापर युग की नारी....................।।


सप्त ऋषि ज्ञानी दुर्वासा, कैसे दे दिए ये वरदान।
सूर्य देव का मान करें क्या, बिन सोचे कैसा यह मान?
दिया अबोध कुंती को वर ये, कैसे करती वह भक्ति।
देख समाज की अटल स्थिति,कैसे बनती वह शक्ति।
विचलित होकर उसने हिय से, ऐसा तब व्यवहार किया।
त्याग दिया था पुत्र प्रेम को, हिय भार वहन कर पाती है।
द्वापर युग की नारी ....................।।


कैसे दोष दिया कुंती को, वो तो थी बस इक अनजान।
दोष यहाँ किसका है सोचो, दोषी की क्या है पहचान?
कुंती के अनुकूल नहीं था, समय स्थिति अरु वो काल।
इक अनजान अबोध सुता , समझ सकी न कोई चाल।
इसी बोध से सुत को अपने धारा नदी बहा कर वो,
करती रही वही कृत वह तो
, नियति जो करवाती है।
द्वापर युग की नारी ...................।।
मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज


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