काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

श्रीमती आशा त्रिपाठी


पत्नी-श्री शशिकान्त त्रिपाठी


मूल निवासी-ग्राम अकबरपुर,पो० केराकत जिला जौनपुर उ०प्र०


कार्यरत- जिला कार्यक्रम आधिकारी,सहारनपुर।(वर्तमान)


दूरभाष-9412968923


परिचय-1999 की लोक सेवा आयोग से चयनित क्लास द्वितीय अधिकारी।


शिक्षा-एमए अर्थशास्त्र व अंग्रेजी,


       बी०एड०.


कृत्य-आशा के गीत पुस्तक का प्रकाशन।


रेडियो नजीबाबाद मे बक्तत्य ,


समाचार पत्रों मे नियमित सामाजिक लेखन,पत्र पात्रिकाओं मे कविताओ का प्रकाशन।


1999 से पूर्व कविसम्मेलन में भाग।


गोरखपुर रेडियो में लोकगीत गायन भोजपुरी मे (1995-1998 तक)


प्रशासनिक आयोजनो में मंच संचालन,


*कवितायें*


1-शाश्वत प्रेम रुप छवि निर्मल


 सकल जगत सुखदायक श्याम।।


 *राधा के प्रिय तुम्हे कहूँ या* 


 *मीरा के घनश्याम।।* 


मृदुल बॉसुरी की धुन प्यारी।


राधा भूलें सुध वुद्ध सारी।


बरसाने का कण-कण पुलकित


रास रचैया हे गिरधारी।


भक्ति भाव से मीरा नाची।


त्यागा राज भोग सब काम।


 *राधा के प्रिय तुम्हे कहूँ या* 


 *मीरा के घनश्याम।।* 


कुँज बिहारी ,हे वनवारी


नटवर नागर हे गिरधारी।


माखनचोर,बने रण छोड़,


तुमने प्रभु सब बात विसारी।


तुम्हे ही ध्यायू तुम्हे पुकारूँ।


निशिदिन आठों याम।।


 *राधा के प्रिय तुम्हे कहूँ या* 


 *मीरा के घनश्याम।।* 


नाग नथैया जगत खिवैया,


यशुमति प्रिय बलदाउ भैया।


कंस विदारे द्रोपदी को तारे।


मन मोहन तुम जगत रचैया।।


राधा-श्याम मोहक मनभावन,


युगल छवि नयन सुखधाम।


 *राधा के प्रिय तुम्हे कहूँ या* 


 *मीरा के घनश्याम।*


जन मन रंजन प्रभु भय भंजन,


प्रीत रीति रस मंगलकारी।।


मुरलीधर ,हे नटवर नागर,


गोपियन राधा कृष्ण मुरारी।।


राधा रमणा , मन ब्रजधाम।


 *राधा के प्रिय तुम्हे कहूँ या*


*मीरा के घनश्याम*।।


2- 


*मेरे हमदम साथ निभाना*


मै दीपक तू नेह की बाती,


मै खूशबू तू गेह की थाती।


प्रीत जिया की ना विसराना।


*मेरे हमदम साथ निभाना*।।


 


आलम्ब प्रीत हिय मंजुल दर्पण,


शिखर बंध मन आत्म समर्पण।


मै राधा तू मोहन मेरा


शाश्वत तन-मन लौकिक अर्पण।।


मधुर प्रीत रस गंग बहाना।।


*मेरे हमदम साथ निभाना*


 


मधुरिम भाव सुरभित निज यौवन,


कुसुमित मन उपवन नव जीवन।


नवल रुप श्रीगाँर तुम्ही से।


पुलकित हृदय ,पल्लवित घर आँगन।।


गृह उलझन बहुविधि सुलझान।


*मेरे हमदम साथ निभाना*


 


बंधन पूर्ण ,उर्मिल भव आशा।


 मर्यादा वंदित कुल भाषा।


 निखिल गेह की आभा तुमसे,


  पुण्य प्रेम की तुम परिभाषा।।


  कर्म योगी बनके दिरवलाना।


*मेरे हमदम साथ निभाना*


 


मै छाया तुम दर्पण प्रियतम,


विरत रहे जीवन से दुःख तम।


तुझ संग पार भँवर से जाऊँ।


एक पल तुझको ना विसराऊँ।।


सात जनम तक साथ निभाना।


*मेरे हमदम साथ निभाना*


3- 


*तेरी याद मुझको सताती बहुत है*।


ख्वाबों में मेरे खयालों मे तुम हो,


धड़कते दिलो की पनाहों में तुम हो।


तुम्ही मेरे आँखों के नूर प्रियतम।


छवि तेरी प्रीतम रुलाती बहुत है।।


तेरी याद मुझको सताती बहुत है।


वो कागज कलम नेह की रोज पाती,


वो नीदें चुराना,दिल की अमिय थाती।


पलको की गहरी लरज रोज निरखूँ।


हृदय रुह मिलने को पल पल सताती।


अल्हड़ प्रेम पाती लुभाती बहुत है।


तेरी याद मुझको सताती बहुत है।


वो चोरी से मिलना,वो मिल के सताना,


निगाहों-निगाहों मे सब कुछ सुनाना।


मै हूँ बस तुम्हारी यही राग गाना।


 प्रति पल जिया मे तेरा ही तराना।


तेरी प्रीत आतुरता जगाती बहुत है।


तेरी याद मुझको सताती बहुत है।


तुम्ही प्रीत-संगीत जीवन सुधा हो,


तुम्ही भाव-धड़कन कवित की विधा हो।


तुम्ही मीत मोहन हरित नद्य मन में।


तुम्ही प्राण मेरे तुम सबसे जुदा हो।।


तुम्हारी अदा मुझको भाती बहुत है।


तेरी याद मुझको सताती बहुत है।


ये सावन सुहाना ये मधुरिम फिजांये।


रिमझिम सी बारिश ये शीतल हवाँए।


अमवा की डारी पे बोले कोयलियाँ,


चातक है चपल पपिहा मुस्कुराये।


ये सावन अगन भी लगाती बहुत है।


तेरी याद मुझको सताती बहुत है


 


4- भारत माँ मुसकाई है।


रीत गीत नवगीत की धरती,


राम-कृष्ण मधुप्रीत की धरती।


अखण्ड देश आर्याव्रत की,


  वीरों ने अलख जगाई है।


भारत मॉ मुसकाई है।।


 


सुमधुर-सुरभित कश्मीर की घाटी।


गुलमोहर केशर की माटी।


 संस्कृति सुभग सुगंधित परिपाटी,


  दुर्योधन की कुटिल चाल से,


  स्वर्ग ने मुक्ति पाई है।


भारत माँ मुसकाई है।


 


  आजाद ,भगत सिंह की कुर्बानी,


  विवेकानन्द की अमृत वानी।।


  अमर शहीद झाँसी की रानी।


  अमर वीर गौरव गाथा की।


  मोदी ने शान बढ़ाई है।


भारत माँ मुसकाई है।


 


  भारत भाल मुकुट अभिनन्दन,


  कश्मीर खण्ड वसुधा का चन्दन।


  हृदय कोर से शत शत वन्दन।


  नवल सुधारस से सिंचित हो,


  नवल चेतना आई है।


भारत माँ मुसकाई है।


 


  5 अगस्त की अमर क्रान्ति,


  दो सिंहों ने इतिहास लिखा।


  एकता देश की खण्डित की


  उस धारा का ही नाश लिखा।


  यह धरती आज निहाल हुयी,


   केसर ने ली अँगड़ाई है,


भारत माँ मुसकाई है।


अद्भुत अलौकिक आल्हादित जन,


चहुँ ओर खुशी से पुलकित मन।


उत्साह चरम पर विजय प्रखर।


गौरव गरिमा से गर्वित तन।


डल का उपवन फ़िर महक उठा ।


घाटी फिर से हर्षायी है।


भारत माँ मुसकाई है


5-


भारत का अभिमान है हिन्दी।


 


सरस ,सहज,नवरस अभिलाषा,


जन-मन- गण की सुरभित भाषा।


शुभग कलश पूरित नव आशा।।


ओज परम् शुभ गान है हिन्दी।


सहज कण्ठ मृदु बान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


शुभग ,मुदित,मकरन्द यही है,


भाव,भक्ति,कवि छन्द यही है।


भारत भू की विस्तृत भाषा।


संपूर्ण धरा की गंध यही है।।


संस्कृति देश प्रतिमान है हिन्दी।।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


प्रेमचन्द्र की अद्भुत रचना,


अभिव्यक्ति की सरल संरचना।


गरल काव्य नव छ्न्द विपुल हो,


हिन्द प्राण प्रण शब्द अतुल हो।


प्रेम प्रीति रसगान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


मीरा के भावों की गागर,


महादेवी का अविरल सागर।


रामकथा शोभित तुलसी की।


नानक ,कबीर,रसखान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


हृदय कुंज ,भव पुंज सहजता,


अस्तित्व हिन्द, तम तेज सरसता।।


अमिय प्रीति से पूर्ण विधा यह,


मातृभूमि की प्राण सुधा यह।


आन बान और शान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


हिन्द देश की प्राण प्रिया यह,


वन्दनीय जन-मान जिया यह।।


काव्य ,ग्रन्थ,पुराण आत्म भव,


गीत ,रीत ,संगीत छन्द नव।


शारदा सृत वरदान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


विश्व पद्म पद पावन हिन्दी,


सरस,सहज मनभावन हिन्दी।


शाश्वत मृदुल लुभावन हिन्दी।।


जन मन रंजन गायन हिन्दी।।


"आशा" की पहचान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी


✍आशा त्रिपाठी


.


 


 


राम कुमार झा "निकुंज"

कवि ✍️परिचयः डॉ. राम कुमार झा " निकुंज "


राष्ट्रवादी कवि डॉ. राम कुमार झा ,पिता- विद्यावारिधि वैयाकरण कवि स्व. पं शिव शंकर झा का साहित्यिक उपनाम ‘निकुंज’ है। १४ जुलाई १९६६ को दरभंगा में जन्मे डॉ. झा का वर्तमान निवास, अंकुर विहार लोनी(एन. सी. आर. दिल्ली),गाजियाबाद, (उ. प्र )में है। हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,मैथिली,बंगला,नेपाली,असमिया,भोजपुरी एवं डोगरी आदि भाषाओं का ज्ञान रखने वाले श्री झा का संबंध शहर लोनी(गाजि़याबाद उत्तर प्रदेश)से है। शिक्षा एम.ए.(हिन्दी, कुरुक्षेत्र वि. वि.), एम. ए. ( संस्कृत,इतिहास,पटना वि. वि.) बी.एड.,एल.एल.बी. (पटना वि. वि.),पीएच-डी. (दि.वि. वि.)और जे.आर.एफ. है। आपका कार्यक्षेत्र -वरिष्ठ अध्यापक ,केन्द्रीय विद्यालय, पुष्पविहार,साकेत, नई दिल्ली (मा.सं.वि.मं.,भारत सरकार) का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आप हिंंदी भाषा के प्रसार-प्रचार में २५० से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़कर माँ भारती सह हिन्दी भाषा साहित्य के महिमामंडन में अपनी चारुतम अनमोल लेखिनी के माध्यम से विगत चालीस वर्षों से सक्रिय हैं। सारस्वत काव्यमय परिवार प्रसूत डॉ. झा की लेखन विधा-मुक्तक,छन्दबद्ध काव्य,कथा,गीत,लेख ,ग़ज़ल और समालोचना है। प्रकाशन में डॉ.झा के खाते में चार काव्य संग्रह,दोहा मुक्तावली, कराहती संवेदनाएँ(शीघ्र ही)प्रस्तावित हैं,तो संस्कृत में "महाभारते अंतर्राष्ट्रीय-सम्बन्धः कूटनीतिश्च" (समालोचनात्मक ग्रन्थ) एवं "सूक्ति-नवनीतम्" "काव्य-मंजरी" और मैथिली भाषा में "आउ बचाउ मिथिला के" भी आने वाली है। वर्तमान अंकूर, काव्यस्पदन, हरियाणा प्रदीप, साझा गीतिका संकलन, ,श्री सुदर्शनिका साहित्यिक मंच, हौंसलों की उड़ान, प्रभा श्री, म ग स म रविवार , साहित्य रचना गुजरात , काव्य कलश, साहित्य किरण मंच, प्रभा श्री मंच, दिल्ली कवि सम्मेलन , काव्यगंगा, साहित्य गंगा , साहित्य सुगम संस्थान, साहित्य सागर, काव्यांचल, भावांजलि ,हिन्दी भाषा.कॉम , निःशब्द, भावांजलि, काव्यांजलि, भावसरिता , बज़्म -ए -हिन्द , हंस, आराध्या, परख, साहित्यांकुर, नवांकुर, दोहा समीक्षा मंच, साहित्योदय, रचनाकार मंच दिल्ली, काव्य रंगोली पचास से अधिक काव्य संकलनों , बिहार नवभारत टाइम्स,अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका सूर्यप्रभा जैसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं और अखबारों में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्यिक संस्था का व्यवस्थापक सदस्य , संरक्षक,मानद कवि साहित्य गौरव, देवल पुरस्कारों से पुरष्कृत और ख्यातिलब्ध संस्था "अन्तर्नाद" का पूर्व महासचिव होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी साहित्य का विशेषकर अहिन्दी भाषा भाषियों में लेखन माध्यम से प्रचार-प्रसार सह सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ है। प्रेरणा पुंज- वैयाकरण सह कवि विद्यावारिधि स्व.पं. शिवशंकर झा और डॉ.भगवतीचरण मिश्र है। आपकी विशेषज्ञता दोहा लेखन,मुक्तक काव्य और समालोचन सह रंगकर्मी की है। आपने पटना, जम्मू , गंगटोक सह कोलकाता आकाशवाणी केन्द्रों में प्रखर वार्ताकार ,कवि सह एकांकीकार के रूप में अपनी सक्रिय भागीदारी सह सम्मानित युवा लेखक, राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी साहित्यकार के रूप में सुकीर्ति अर्जित की है। डॉ. झा ने भंगिमा, अरिपण, साहित्य कला मंच, अंतरंग , विशाल जननाट्य मंच (मैथिली ,हिन्दी,और भोजपुरी भाषा से सम्बद्ध )अनेकों रंगमंच को अपने अभिनय से गौरवान्वित किया है। डॉ. झा एक प्रखर वक्ता, राष्ट्रवादी यथार्थ सह प्रगतिपरक कवि, लेखक कथाकार, एकांकीकार सह समालोचक रहे हैं। हिन्दी, संस्कृत,अंग्रेजी,बंगला, असमिया, नेपाली , मैथिली, भोजपुरी आदि भाषाओं के अबाध वाक्पटुता कवि डॉ.निकुंज के बहु आयामी व्यक्तित्व में चार चाँद लगाता है। मिथिलावासी श्रोत्रिय मैथिल द्विजश्रेष्ठ डॉ. झा पटना हाईकोर्ट के अधिवक्ता भी रह चुके हैं। छात्र जीवन से ही पठन-पाठन-वाचन में परम मेधावी स्वावलंबी संघर्षशील डॉ. झा एन.सी.सी, एन.एस.एस और भारत स्काउट्स एवं गाइड्स एवं अनेक सामाजिक , सांस्कृतिक कार्यों में पूर्ण सक्रिय रहे हैं। डॉ. झा वर्तमान में लीडर ट्रेनर (स्काउट संभाग) भी हैं। जीविका वृत्ति के क्रम में विगत २८ वर्षों से डॉ. झा ने सम्पूर्ण भारत वर्ष में अपने शिक्षण द्वारा राष्ट्र निर्माण में अहं भूमिका का निर्वहण किया है। महाभारत की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और कूटनीति पर संस्कृत भाषा में दिल्ली वि.वि.से पी. एच. डी. करने वाले डॉ. झा इतिहास के प्रखर छात्र रहे हैं। धार्मिक व्यक्तित्व के धनी डॉ. झा भावात्मक संवेदनशील, सरस, सरल, मृदुभाषी, उदारचेता सिद्धान्तवादी स्वाभिमानी गुणों के सम्पूट संगम हैं। दो मेधावी अभियंता पुत्रात्मजा के जनक डॉ. झा की धर्मपत्नी डॉ. निशि कु. झा भी एक मेधावी विज्ञान छात्रा, सुधर्मिणी सह प्राध्यापिका के रूप में दायित्व निर्वहण कर रही हैं। डॉ.झा सदृश बहुगुणोपेत सारस्वत भारती पूत का परिचय देना किसी भी साहित्यकार, पत्रकार या संपादक वा संस्थाओं के लिए गौरव और सम्मान की बात है।


कवि डॉ. निकुंज की साहित्यिक प्रकाशित काव्य संग्रह और 


साझा काव्य संग्रह का विवरण लघु रूप में नीचे दिया जा


 रहा हैः --- 


 


१. युगान्तर- काव्यसंग्रह , काव्या प्रकाशन , इन्दौर 


२. उद्बोधन - काव्यसंग्रह , वर्तमान अंकुर प्रकाशन , नयी दिल्ली


३. शंखनाद- काव्यसंग्रह , नीलिमा प्रकाशन , दरियागंज , नयी दिल्ली 


 ४. नवांकुर - साझा काव्य संग्रह , वर्तमान अंकुर प्रकाशन , नयी दिल्ली


  ५. भाव सरिता , साझा काव्य संग्रह, भोपाल


 ६. भाव से कविता तक - साझा काव्यसंग्रह, पंख प्रकाशन ,मेरठ


 ७. मेरी कलम - सत्यम प्रकाशन , दिल्ली


 ८. नूर ए ग़ज़ल - साझा काव्यसंग्रह ,वर्तमान अंकुर प्रकाशन , नयी दिल्ली


  ९. कारगिल के शहीद - साझा काव्य संग्रह, चित्रगुप्त प्रकाशन,नयी दिल्ली


  १०. मातृ-पितृ विशेष काव्यसंग्रह, चित्रगुप्त प्रकाशन ,नयी दिल्ली


  ११. अश्क प्रीत के - साझा काव्य संग्रह , निखिल प्रकाशन , आगरा


१२. प्रीत मीत से- साझा काव्य संग्रह, निखिल प्रकाशन,आगरा


१३. अश्क मीत से - साझा काव्य संग्रह , निखिल प्रकाशन, आगरा


 


12. सम्मान(यदि हो तो अधिकतम 5)


     १. काव्य गौरव सम्मान , वर्तमान अंकुर ,नोयडा 


     २. साहित्य प्रज्ञ सम्मान , युगधारा प्रकाशन,लखनऊ


     ३. साहित्य देवल सम्मान , वर्तमान अंकुर, नोयडा


     ४. साहित्य काव्य गौरव सम्मान , हरियाणा प्रदीप, गुड़गांव 


     ५. शाश्वत शृङ्गारिक सम्मान - निखिल प्रकाशन ,आगरा 


     6. अनुभव साहित्य सम्मान - अश्क प्रीत से ,मेरठ 


     7. साहित्य गौरव सम्मान - पंख प्रकाशन, मेरठ


     8. काव्य सागर सम्मान,श्री सत्यम प्रकाशन,झुंझूनी     


      (हरियाणा)


प्रकाशनार्थ प्रेसगत ग्रन्थः 


 


१. कराहती सम्वेदनाएँ (काव्य संग्रह)


२. पुकारे माँ भारती (काव्य संग्रह) 


३. गीत प्रीति के मधु मिलन 


 


संस्कृत मेंः 


 


१. महाभारते अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धः कूटनीतिश्च (आलोचनात्मक शोध ग्रन्थ।


 २. सुक्ति नवनीतम्  


 


 राष्ट्र भारत और हिन्दी भाषा प्रेम और भक्ति से ओत प्रोत कवि लेखक साहित्यकार डॉ. का सम्पूर्ण व्यक्तित्व देश और हिन्दी भाषा के प्रति उनके अधोलिखित विचार(दोहा) से प्रकटित हो रहा है --- 


स्वभाषा सम्मान बढ़े,देश-भक्ति अभिमान।


जिसने दी है जिंदगी , बढ़ा शान दूँ जान॥


ऋण चुका मैं धन्य बनूँ ,जो दी भाषा ज्ञान।


हिन्दी मेरी रूह है , जो भारत पहचान॥


राजेश_कुमार_सिंह

#कविता_के_फूल - 15 


#जो_दर्द_जो_सबको_होता_है l


 


कौन कहता है  


कि आमिर के दिल में,


 दर्द नहीं होता है l 


उसका दिल भी अंतर्मन की पीड़ा से


नहीं रोता है ll


 


फर्क इतना है, कि वह कहता नहीं है 


तनाव तो लगभग बराबर ही रहता है l


भौतिक सुख भी,


कोई कम दुःख नहीं देता है ll


 


गरीब का बच्चा ,


भूख के कारण नहीं सोता l


होने के नशे में 


तनाव के कारण नहीं सोता ll


 


मांगता है ,महंगा ,सूट 


और महगी गाडी,


टूट जाती है ,बड़ी पूजी की कमर l


गरीब का बेटा ,बनियाइन क्या मांग बैठा,


मुश्किल कर दी गरीब बाप की डगर ll  


 


गरीबी के कारण ,


भोजन के लाले पड़ जाते है


अमीर अमीरयत की बीमारियो के चक्कर में ,


  निवाले निगल नहीं पाते हैं ll   


 


#राजेश_कुमार_सिंह


अविनाश सिंह

*हाइकु*


*--------------*


 


द्वार माँ के


खुले रहते रोज


लो आशीर्वाद।


 


माँ का उदर


गरीब या अमीर


रहता गर्म।


 


होंगे साकार


वो दिन के सपने


कर्म अपने।


 


माँ की ममता


दिव्य ज्योति के रूप


दे हमें सुख।


 


नव माह में


होता शिशु का जन्म


माँ क्यों दुश्मन?


 


माँ सूरज है


देती धूप समान


न अभिमान।


 


गले लगाती


गोद मे ही सुलाती


माँ कहलाती।


 


कन्या का दान


है सबसे महान


दहेज दान?


 


दुल्हन दुखी


विदाई वाले दिन


हो गमगीन।


 


तेरा मिलना 


दो फूल का खिलना


संग है जीना।


 


प्रेम का वास


चाहते हो घर में


तो रहो पास।


 


माँ बाप हैं


घर-घर के द्वीप


देव समीप।


 


स्वर्ग के द्वार


है माँ बाप के पास


रखों विश्वास।


 


*अविनाश सिंह*


बलराम सिंह यादव धर्म एवं अध्यात्म शिक्षक पूर्व प्रवक्ता बी बी एल सी इंटर कॉलेज खमरिया पंडित लखीमपुर खीरी

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।


भये नाम जपि जीव बिसोका।।


बेद पुरान संत मत एहू।


सकल सुकृत फल राम सनेहू।।


 ।श्रीरामचरितमानस।


  चारों युगों में,तीनों कालों में और तीनों लोकों में रामनाम को जपकर जीव शोकरहित हो गये।वेदों,पुराणों और सन्तों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल प्रभुश्री रामजी के नाम में प्रेम होना है।


।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।


  भावार्थः---


  चारों युगों अर्थात सत्ययुग,त्रेतायुग,द्वापरयुग व कलियुग में, तीनों कालों अर्थात भूतकाल, वर्तमानकाल व भविष्यकाल में तथा तीनों लोकों अर्थात स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक व पाताललोक में प्राणियों का शोकरहित होना केवल रामनाम के जप करने से ही सम्भव हुआ है।वैसे तो तीन लोकों के अतिरिक्त चौदह लोकों का भी उल्लेख मिलता है।इनमें भूलोक,भुवर्लोक,स्वर्लोक,महर्लोक,जनलोक,


तपलोक और सत्यलोक ऊपर के लोक हैं तथा अतल, वितल,सुतल,तलातल,महातल,रसातल और पाताल लोक नीचे के लोक हैं।


 विशोक कहने का भाव यह है कि रामनाम के जप करने से सभी जीव जन्म,जरा,मृत्यु के त्रिताप से मुक्त हो गये।


  वेद,पुराण व सन्त मत कहने का भाव यह है कि ये सभी एक स्वर से इस बात को स्वीकार करते हैं कि सभी पुण्यों का फल रामनाम में प्रेम होना ही है।अर्थात समस्त पुण्यकर्म उसी परमब्रह्म को प्राप्त करने के लिए किये जाते हैं।परमब्रह्म परमात्मा ही सच्चिदानन्द है अर्थात वही सत्य,चेतन और आनन्द स्वरूप है।शाश्वत सुख की प्राप्ति एवं दुःख का विनाश भगवान की भक्ति के बिना सम्भव ही नहीं है।गो0जी ने उत्तरकाण्ड में श्री काकभुशुण्डि जी के मुख से श्रीगरुड़जी को यही उपदेश देने की बात कही है।यथा,,,


सिव अज सुक सनकादिक नारद।


जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद।।


सब कर मत खगनायक एहा।


करिअ रामपद पंकज नेहा।।


श्रुति पुरान सब ग्रँथ कहाहीं।


रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।।


  गुरु व सन्तजनों की सेवा करने से भजन करने की विधि प्राप्त हो जाती है।इससे हृदय में जो प्रकाश हो जाता है उसे ही सभी सुकृत्यों का फल कहा जा सकता है।वास्तव में यही रामस्नेह है।गुरुदेव वशिष्ठजी स्वयं यही बात कहते हैं।यथा,,,


जप तप नियम जोग निज धर्मा।


श्रुति सम्भव नाना सुभ कर्मा।।


ग्यान दया दम तीरथ मज्जन।


जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।।


आगम निगम पुरान अनेका।


पढ़े सुने कर फल प्रभु एका।।


तव पद पंकज प्रीति निरन्तर।


सब साधन कर यह फल सुन्दर।।


********************


सोइ सर्वग्य तग्य सोइ पंडित।


सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित।।


दच्छ सकल लच्छन सुत सोई।


जाकें पद सरोज रति होई।।


।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।


।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


मनोज श्रीवास्तव

***.


आम आदमी


 


आम हो गयाआदमी जहां भी समझो उसे लगाओ


 


कच्चे की बन जाये खटाई या अचार बढ़िया बनवाओ


 


पक जाए तो मीठा इतना अमरस बनता और मिठाई


 


मैंगो शेक त्रप्त कर देता स्वाद न उसका याद दिलाओ


 


!


 


वैसा ही है आम आदमी चाहे उसको जहां बुला लो


 


मिल जायेगा आसानी से बस अपने नारे लगवा लो


 


दंगा भी भड़काने वाले मिल जाते हैं आसानी से


 


जगह जगह दारू मिलती है ठेके वाली ही करवा लो


 


!


 


आम आदमी आम पार्टी आम सभा की बात निराली


 


कवि सम्मेलन खत्म हो गये घर पर ही बजवा लो ताली 


!


मनोज श्रीवास्तव


 


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' गोरखपुरी

"एक गीत की तरह"


                   एक कविता 


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एक गीत की तरह 


कोई आवाज़ आती है 


मीठी सी प्यारी सी 


कदाचित् वह कोयल है जो 


गीत गाती है 


हर सुबह हर शाम.........


 


जगाकर मेरे सुप्त हृदय को 


खो जाती है या 


छिप जाती है नीड़ में 


बस देखता रहता हूँ देर...तक 


उस छायादार बृक्ष को 


हर सुबह हर शाम...... ....


 


फिर जाती है नज़र 


सामने की खिड़की पर जो 


खुलती है ....फिर बन्द हो जाती है फिर खुलेगी जब......


मुझे नींद आने को होगी


देखता रहता हूँ उसी को 


हर सुबह हर शाम ...........


 


कितनी निष्ठावान है


वह कोयल वह चेहरा जो 


छिपाये हुए है हृदय में


कसक, वेदना और पीड़ा को 


और मैं.. ....चौंक पड़ता हूँ


ज़रा सी आहट पर 


कदाचित् वो.... आयें 


जोहता हूँ राह 


हर सुबह हर शाम..........


Q


रचना- डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' गोरखपुरी 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०)


कालिका प्रसाद सेमवाल रुद्रप्रयाग

जीवन नन्दन मंजुल मेला


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प्रिय तुम मुझसे दूर न जाओ,


मेरे मन में आज नशा है।


घूंघट खोल रही हैं कलियां,


झूम रही मतवाली अलियां।


नन्दन वन की वायु चली है,


सुरभित दिखी आज गली है।


लगती सुखमय मधुरिम बेला,


जीवन नन्दन मंजुल मेला।


उठती मन में मधुरिम आशा,


मिटती सारी थकित पिपासा।


 


तुम भी हंस दो मेरे, प्रियवर,


आज़ गगन में चांद हंसा है।


 


तुम कुछ लगती इतनी भोली,


जैसे कोयल की मधु बोली,


तुमको पाकर धन्य हुआ मैं,


औरों का तो अन्य हुआ मैं।


तुमसे सारा जीवन हंसता,


तुम पर मेरा मन है रमता।


मेरे मन की तुम्हीं कली हो,


तेरे मन का एक अली हूं।


 


घूम रहा हूं आज चातुर्दिक्


नयनों का यह बाण धंसा है।


 


मेरे मन में आज विवश लाचारी,


तुम पर मैं जाता बलिहारी।


कंचन सी यह तेरी काया,


मेरे मन की सारी माया।


खींच रही है बरबस मन को,


तोड़ रही है सारे प्रन को।


अंचल छोर तुम्हारा उड़ता,


मेरे मन में गान उमड़ता।


 


रिमझिम चलती मधुर बयारें,


मेरे मन में प्यार बसा है।


 


मोड़ चुका जो जीवन मन को,


उसके बिन सम्भव क्या जन को।


लोल लहरियां उर के कोने,


भाव रचाकर जाती सोने।


हंस हंस कर तुम मत मुड़ जाओ।


बिछुड़न की नित रीत निराली,


मिलना संभव दो दिन आली।


 


अंग अंग थिरक रही हैं माया,


वस्त्र सुसज्जित-रूप रूप तुम्हारा।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ हरि नाथ मिश्र

सुंदर सोच-


आँसुओं से भरी जिंदगी,


दर्दे दोज़ख़ से होती है बढ़कर।


बेसमय मौत इसकी दवा है-


करना ऐसा नहीं होता हितकर।।


   लोग कहते हैं फाँसी पे ख़ुद को,


   है चढ़ाना बहुत कायराना।


   ज़िंदगी खूबसूरत सफ़र है,


   ऐसे-तैसे में उसको गवाँना।


गिरना-उठना औ फिर उठ के गिरना, 


बस यही ज़िंदगी का तकाज़ा।


ज़िंदगी के हर इक पल को जीना-


होता सदा जग में सुख कर।।


    आते तूफ़ान जो ज़िंदगी में,


    उनको आना है, आते रहेंगे।


    काम है छोटे दीपक का जलना,


    उसको तूफाँ बुझाते रहेंगे।


ग़म नहीं चाँदनी को भले ढक लिया,


जो छाये रहे नभ में बादल।


देते मौक़ा उसे ही तो बादल-


निकलने का ख़ुद फिर से छट कर।।


   ज़िंदगी के कुरुक्षेत्र में,


   पाण्डु-कौरव सदा ही रहे हैं।


   पांडु साहस औ धीरज से अपने,


  दंड कौरव के सारे सहे हैं।


युद्ध होना था वो तो हुआ ही,


और लड़ना पड़ा अपने लोंगो से।


पर,सफलता मिले बस जरूरी-


सारथी कृष्ण सा होना बेहतर।।


   पतली धारा निकल पर्वतों से,


   करती संघर्ष है जब उतरती।


   धर के आकार विस्त्रित धरा पे,


   वो उमड़ती-घुमड़ती है बहती।


पिलाती जलामृत सभी जंतुओं को,


बहती-जाती अवनि पे निरंतर।


अंत में उसको मिलता मिलन-सुख-


संग सागर जो होता श्रेयस्कर।।


   मुश्किलों में तराशा मुसाफिर,


   अपनी मंज़िल का बनता चहेता।


   बस उसी को नहीं कुछ है मिलता,


   जोखिमों से जो मुँह मोड़ लेता।


लड़ते-लड़ते अखाड़े का अंतिम,


होता योद्धा ही उत्तम विजेता।


घिसते-घिसते शिला पे ही मेंहदी-


सुर्ख़ होती सुनो, मेरे प्रियवर।।


ज़िंदगी के हर इक पल को जीना, होता सदा जग में सुखकर।।


          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


           9919446372


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

हालात है या हालत ,अवसर है या अवसान ।।                    


 


जिंदगी बन गयी पहेली है खो गया इंसान।।                             


 


 जिंदगी के बोझ में दब गया है इंसान।         


 


जिंदगी के इस दौर में थक गया है इंसान ।।                             


 


क्या करे ,क्या ना करे मध्य उलझ गया है इंसान।                             


 


कर्ज से फर्ज का किया निर्बाह् बेटे कि महंगी पढ़ाई से हो गया तबाह।।                          


 


बेटा बना इंजीनियर मिलता नहीं इंजीनियर को काम ।         


 


गर काम मिल गया तो मिलता नहीं है दाम ।                    


 


न्याय के मंदिर के पुजारी अंधे क़ानून का चौकीदार ।।              


 


 काला कोट पहने शुरू कि वकालत बीत गए दो चार साल।।


 


आमदनी नहीं जेब खाली बचाते अपनी लाज।                        


 


 गावँ ,शहर, कस्बों में ऐसे नौजवान गले में टाई खुबसूरत लिबास।।                     


 


पहचान देश में विक्रय का बादशाह । कुछ नहीं बचा है फिर भी नहीं गयी मुस्कान।।      


 


 रसूख उसका अब भी बरकरार


सुरक्षा बेचता जीवन कि खुद हैं असुरसक्षित ।                


 


अभिकर्ता खोज रहा खुद के लिये काम ऊब गया है हो रहा परेशान।।                          


 


 धोबी, नाई ,शहर कस्बे के छोटे कामगार ।                               


 


ना जन धन का खाता ना ही सरकारी कुछ दान ।             


 


मुफ़्त नहीं कुछ भी , मिलाता नहीं कुछ भो बिना कुछ दाम ।।     


 


भीख मांगना ,किसी के सामने हाथ फैलाना है इनका अपमान।     


 


 संघर्ष कर रहे है हालात से लड़ रहे बदलेगा हालात मन में है विश्वाश ।।             


मजदूर नहीं ये इनका अपना स्व रोजगार ।।                            


 


मजदूर से बदतर इनके हालात पंजाब मराठा हो या हो गुजरात।


 


 इनको तो चाहिये सिर्फ बेहतर हालात चैन की दो रोटी सुकून का अपना रोजगार।।


 


 संचार, संबाद ,के सिपाही पत्रकार वक्त के दौर का सबसे बड़ा जाँबाज।                       


 


लड़ रहा है वक्त से बदलने वक्त का मिज़ाज़ ।। खाली पेट है खाली जेब फिर भी जज्बे का जवाँ हिंदुदुस्तान जिंदाबाद ।          


 


 राष्ट्र शान स्वाभिमान के अंदाज़ है आवाज़ ।।                            


 


 राष्ट्र का मध्यम ,निम्न माध्यम वर्ग का यह समाज किसी मुक्त छूट का नहीं हकदार ।      


 


हर कहर, दहसत कि झेलता ये मार । खामोश जुबाँ चेहरे पे मुस्कान। दर्द ,घाव, ढकता अपने इज़्ज़त अभिमान के लिबास।।     


 


  नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"मन वह निर्मल"*


(गगनांगना छंद गीत)


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१६ + ९ = २५ मात्रा प्रतिपद, पदांत SlS, युगल पद तुकांतता।


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★मन वह निर्मल खिल जाता जो, फूल समान है।


जो न खिले तो जानो उसको, शूल समान है।।


 


★खिल जाए तो प्रीत समझ लो, सुख-आभास है।


मिल जाए तो मीत समझ लो, मंजिल पास है।।


जो न मिले तो भूलो उसको, भूल समान है।


जो न खिले तो जानो उसको, शूल समान है।।


 


★उदधि-अतल हो लहर प्रबल हो, पथ अति दूर हो।


राह न सूझे नैया जर्जर, तन थक चूर हो।।


बीच भँवर में थामे कर जो, कूल समान है।


जो न खिले तो जानो उसको, शूल समान है।।


 


★साथ रहे जो संग चले जो, हितकर जान लो।


हरपल गूँजे गीत सरिस जो, धुन-मन मान लो।।


जो सहला दे हिय हर्षा दे, झूल समान है।


जो न खिले तो जानो उसको, शूल समान है।।


 


★चहका दे जो चमन सही वह, सुख आधार है।


महका दे जो सुमन सही वह, मनु मधु सार है।।


महके-चंदन जान नहीं तो, धूल समान है।


जो न खिले तो जानो उसको, शूल समान है।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल महराजगंज, उत्तर प्रदेश

*_सूरज की तपिश_*


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चिलचिलाती गर्मियों के दरमियां


      इक बात कहनी है,


सूरज की तपिश से हैं परेशां


     इक बात कहनी है।।


 


चढ़ रहे पारे सा दिन धूप


नहीं है शीतल छाया कहीं


प्यासे हैं सब पंक्षी पथिक


कट रहे हैं वृक्ष सारे


इक बात कहनी है।


 


ऐ खुदा रहम कर तूँ


थोड़ी राहत अदा कर तूँ


पांव में छाले पड़े हैं


जीवन पथ में कांटे बड़े हैं


इक बात कहनी है।


 


ऐ मेरे मालिक सुन अरदास तूँ


सूर्य क्यों आग का गोला हुआ


जल रही धरा जल सूख रहा


हे! प्राणियों में प्राण देने वाले


रहें खुश सब इक बात कहनी है।


 


कर रहीं हैं नदियां अरदास तेरा


बरस जल जीवन भर जाए मेरा


लू चले या आग ऊगले


हो करम प्यास सबकी बुझती रहे


सूख रहीं नदियां भर जाए जल तेरा


व्याकुल हो यही इक बात कहनी है।


 


 मौलिक रचना:-


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


महराजगंज, उत्तर प्रदेश ।


निशा"अतुल्य"

गीत 


धर्म


28.5.2020


 


मानवता का धर्म निभाओ


 


इंसान अब सच में बन जाओ


मानवता का धर्म निभाओ


जहाँ दिखे कोई भूखा तुमको


उसको तुम भोजन करवाओ।


 


मानवता का धर्म निभाओ


 


गर्मी की जब तपन बढ़े तो


और प्यास से व्याकुल हो मन


ढूंढे जब जल की कोई धारा


ठंडा जल उसको पिलवाओं।


 


मानवता का धर्म निभाओ ।


 


थका हुआ हो कोई पथिक जब


इधर उधर ढूंढे कोई छाँव


मन में तनिक संकोच करो मत


थोडा अपने पास बैठाओ


 


मानवता का धर्म निभाओ ।


 


मिट गया विश्वास जो जग से


उसको कैसे वापस लाएं


करें मंथन हम मिलकर 


चलो मिलकर कुछ वृक्ष लगाएं।


 


मानवता का धर्म निभाएं


 


ठंडी छाँव सड़क पर हो जब


कोई पथिक न फिर घबराएं 


पाकर जीवन ये बहुमूल्य


अपने हमें कर्तव्य निभाएं।


 


मानवता का धर्म निभाएं ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


डॉ सुषमा कानपुर

*मेरी प्यारी अम्मा जी*


 


*सुबह सबेरे जब चिल्लाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*नीम बबुर की दतुइन तोड़ के सुबह सुबह हम लाते थे।*


*एक बल्टी औ लोटिया लइ के कुआं किनारे जाते थे।*


*दुइ बल्टी पानी भरवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*चूल्हे में जब तवा चढ़ाती हम को पास बुलाती।*


 *आ जाओ सब भोजन करने,जोरों से चिल्लाती*।


*एक एक रोटी गरम खिलाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती ,मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*मोमफली औ शकरकंद को आग में भूंज के रखती थी।*


*माटी की दुधहंडिया में वो दूध मूंद के रखती थी।*


*सबको मीठा दूध पिलाती,मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*छोटी वाली भाभी ने कल वीडियो कॉल मिलाया था।*


*फोन कनेक्शन होते ही अम्मा जी को पकड़ाया था।*


*थोड़ा हो जाती जज़्बाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*बिटिया तोहरी खातिर हमने कल ही शहद लिया है।*


*तुरत पेड़ से तोड़ के छत्ता,उसने हमें दिया है।*


*कब अअबू कह कर मुस्काती,मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*बप्पा को पानी देने को जंगल भर में फिरती थी।कभी किसी भी जीव जंतु से,बिल्कुल भी ना डरती थी।*


*बिचखोपड़ी भी मार गिराती,मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*सत्तर की होने को आई,फिर भी मेहनत करती है।*


*हम सब भाई बहनों में वो भेद भाव न करती है।*


*अब भी कितना प्यार जताती,मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती,मेरी प्यारी अम्मा जी।।*


@


*डॉ सुषमा*


*कानपुर*


10-5-2020


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 28 मई 2020

प्रदीप कुमार पाण्डेय


              (प्रदीप बहराइची)


▪पता - बड़कागाँव, पयागपुर 


 जन- बहराइच (उ. प्र.) 271871


▪शिक्षा- एम.ए., बी. एड्.


▪सम्प्रति- प्रा वि भूपगंज द्वितीय, वि.ख. पयागपुर,जनपद बहराइच में शिक्षक। 


▪लेखन विधा - गीत, कविता,दोहा मुक्तक व ग़ज़ल। 


▪प्रकाशित कृति - 'आ जाओ मधुमास में' (काव्य संग्रह)आकृति प्रकाशन, दिल्ली 


 ▪प्रकाशित साझा काव्य संग्रह- 'मेरी रचना', 'साहित्य संदल', 'नीलांबरा' व 'प्रांजल नवांकुर' प्रकाशित ।


▪रचना का प्रकाशन- 'पाखी', 'ककसाड़', 'कविकुंभ', 'हिचकी', 'स्रवंति', 'सरस्वती सुमन', 'गुफ्तगू', 'बाल प्रहरी', 'रूबरू', 'व्यंजना', 'काव्य रंगोली', 'डिप्रेस्ड एक्सप्रेस', 'हिमालिनी' (नेपाल देश) आदि पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं ।


▪'अमर उजाला' व 'दैनिक राष्ट्र राज्य' (समाचार पत्र) में रचनाएँ प्रकाशित। 


 ▪'आकाशवाणी लखनऊ' व 'रेडियो रूबरू एफ एम' व 'रेडियो वागेश्वरी एफ एम' से रचनाओं का प्रसारण 


▪ दूरदर्शन लखनऊ पर प्रसारित कार्यक्रम 'साहित्य सरिता' व 'वन्स मोर' में काव्य पाठ। 


▪प्राप्त सम्मान---- 


 'सन्त शिरोमणी गोस्वामी तुलसीदास स्मृति सम्मान' अवधी सांस्कृतिक प्रतिष्ठान, नेपाल द्वारा 


'यू पी महोत्सव 2019' के सांस्कृतिक मंच से सम्मानित 


'अवध ज्योति रजत जयंती सम्मान' अवध भारती संस्थान द्वारा 


'साहित्य श्री सम्मान' अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सेवा संस्थान, हजारीबाग झारखण्ड द्वारा 


'गुरु गोविन्द सम्मान 2019' काव्य रंगोली साहित्यिक पत्रिका द्वारा 


'पं रविन्द्र नाथ मिश्र सम्मान' अखिल भारतीय साहित्य उत्थान परिषद द्वारा 


'नीलाम्बरा रचनाकार सम्मान' आगमन साहित्यिक संस्था द्वारा 


'दोहा दिवस सम्मान' गुफ्तगू पत्रिका, प्रयागराज द्वारा। 


'मातृत्व ममता सम्मान 2019' काव्य रंगोली साहित्यिक पत्रिका द्वारा 


'काव्योत्सव २०७६ सम्मान' काव्य रंगोली साहित्यिक पत्रिका द्वारा 


'सृजन श्री सम्मान' साहित्य परिषद रा न इं कालेज, बहराइच द्वारा 


'साहित्य भूषण सम्मान 2018' काव्य रंगोली हिन्दी साहित्यिक पत्रिका द्वारा 


'साहित्य दीप प्रतिभा सम्मान' साहित्य दीप परिवार द्वारा 


'जनचेतना सम्मान' साहित्य संगम संस्थान दिल्ली द्वारा 


सर्वश्रेष्ठ प्रतिक्रिया उपाधि गीतकार साहित्यिक मंच द्वारा 


▪संपर्क सूत्र- 8931015684,9792357494


▪Email- pradeeppandey.payagpur@gmail.com


 


  1- कविता "विवशता"


 


 


उसकी मौत आज भी ज़िंदा है


 


मेरे जेहन में। 


 


 


उखड़ती सांसों के दरम्यान 


 


उसका स्वप्न 


 


उसका लक्ष्य


 


उसका प्यार 


 


उसका परिवार 


 


उसकी जिम्मेदारियां 


 


सब कुछ तार-तार हो रहीं थीं।


 


बेबसी उसके चेहरे पर साफ थी..


 


क्या देख पाऊंगा उस सूरत को 


 


जो पत्नी के गर्भ में है? 


 


और फिर.........उसकी मौत, 


 


आज भी जिंदा है मेरे जेहन में। 


 


 


        2- कविता 'अंतर्द्वंद्व' 


 


सन्नाटे को चीरता रहा


 


अंतर्मन का निःशब्द चीत्कार। 


 


 


बिना किसी आहट के 


 


देती रही दस्तक 


 


मन की विरक्त तरंगें 


 


उस प्रयोजन के लिए 


 


जो मेरे लिए स्वप्न था। 


 


 


बार- बार 


 


मेरे वर्तमान से 


 


टकराने के बाद भी 


 


दब नहीं पा रही थी मुझसे 


 


 अस्तित्व की गठरी। 


 


 


 


     3- 'गीत'


 


सुख सब को नहीं नसीब है। 


यह भूख बहुत अजीब है।।


 


भूख पेट की बढ़ती जाए, 


लोगों से क्या क्या करवाए। 


संबंधों पर दांव लगे हैं,


पल में अपने हुए पराए। 


समझ से बाहर के दृश्य में,


दूर है कौन करीब है। 


यह भूख....................।।


 


भूख बढ़ी है घटी कमाई, 


इससे घर पर विपदा आई। 


दिन ब दिन इस भूख की खातिर,


देह का दुख न दिया दिखाई । 


आखिर में जीवन की घड़ियां, दिखी कि कितनी गरीब हैं ।


यह भूख.......................।।


 


 


 


          4- गीत 


               


 खून धुल गए बारिश में,छींटे अब भी बाकी हैं। 


आग चिता की राख हो गई, चीखें अब भी बाकी हैं।।


 


सपनों का मर जाना तय था, 


अपना हो बेगाना तय था। 


परत जमीं जो उम्मीदों की 


इस तरहा धुल जाना तय था। 


माना कि सब चले गए पर उनका आना बाकी है। 


 


गांवों के सूने हैं रस्ते, 


जीवन देखा इतने सस्ते। 


बच्चों की आंखें अब सूनी 


एक किनारे लग गए बस्ते।


खुशी भरे दिन बीत गये अब दुख के कटने बाकी हैं। 


 


साथ तुम्हारे रंग हुए गुम,


हर पल तन्हा हर पल गुमसुम।


साख़ों के पत्तों सी टूटी, 


हो गई अबला अब तेरे बिन। 


आंखों से है दूर दिख रहा पर धूमिल होना बाकी है। 


 


                 


     5- कविता "धुंधला अतीत"


 


वक्त कितनी जल्दी सफर कर रहा है 


बगैर पंख के ही। 


गुजर गई आधी सदी....


इतनी तेजी से कि 


न तो इसकी भनक ही लगी 


और न ही वक्त ने अपनी कोई निशानी ही छोड़ी। 


 मगर अब तो एक एक पल


सदियों से भी लम्बा लगता है,, 


खुशियों को टटोलना पड़ता है,, 


यादों की हरियाली सूख न जाए


इसलिए सींचना पड़ता है। 


 


एक टूटी- फूटी बैलगाड़ी की तरह 


जीवन की गाड़ी को ढकेल रहा हूं,,,, 


जर्जर हो चुके इसके पुर्जे


आखिर कब तक संभले रहेंगे। 


 


वक्त बहुत ही निकट है.....


जब थम जाएगा मेरा घिसटता कारवां


ढह जाएगी सारी इमारत 


मिट जाएगी सारी इबारत 


न हम रहेंगे न हमारी यादें 


और न ही कोई अमानत.....


फिर कौन जानेगा कि मैं भी था 


इस नश्वर संसार में.....


जो जीवन को क्षणिक जानते हुए भी 


प्यार कर बैठा जिंदगी से


और कायरों की तरह रोता रहा


जब बिदा हो रहा था दुनिया से। 


 


कितना बदनसीब निकला.....


न जिंदगी खुशगवार रही


न मौत ही शानदार रही


फिर भी उम्मीद जिंदा है 


शायद मौत के बाद सुकून मिल ही जाए। 


     


प्रदीप बहराइची 


 ग्रा. बड़कागांव, पयागपुर 


जन. बहराइच, उ. प्र.(271871)


संपर्क 8931015684


कालिका प्रसाद सेमवाल रुद्रप्रयाग

*त्याग और समर्पण करता है पिता*


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पिता परिवार की आस होता है,


पिता परिवार का विश्वास होता है,


पिता ही परिवार को नसीहत देता है,


पिता परिवार की जिम्मेदारी उठाता है।


 


पिता ही पुत्र का जन्म दाता होता है,


पिता ही पुत्र को अंगुली पकड़कर चलना सिखाता है,


पिता से ही हम अपनी मांगें पूरी कराते हैं,


पिता ही परिवार को अनुशासन में रखता है।


 


पिता परिवार के लिए रात दिन मेहनत करता है,


पिता ही बच्चों को नई दिशा देता है


पिता परिवार की हर मांग पूरी करता है।


पिता कभी भी खुलकर प्रेम प्रदर्शित नहीं करता है।


 


 


पिता परिवार का सारथी होता है,


पिता परिवार के लिए मर मिटता है,


पिता ही परिवार के लिए जिम्मेदारियों का बोझ उठाता है,


पिता ही परिवार को अंधेरे से उजाले में लाता है।


 


पिता के नाम से ही परिवार की पहचान बनती है,


पिता ही परिवार का बिछौना होता है


पिता ही बच्चों के लिए खिलौना लाता है


पिता है तो हर सपना अपना है।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ0हरि नाथ मिश्र                          

*गीत*(16/14,लावणी छंद)


पिया-मिलन को चली बावरी,


कंटक से परिपूर्ण डगर।


पता नहीं है देश पिया का-


चलती जाए इधर-उधर।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


प्रेम दिवाना,पगला-पगला,


लक्ष्य प्रेम का प्रियतम है।


लोक-लाज की भौतिक-बाधा-


करती राहें दुर्गम है।


प्रियतम से मिलने को फिर भी-


जाती पगली नगर-नगर।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


पग में घुँघरू बाँध बवरिया,


अल्हड़ यौवन-बोझ लिए।


अनजाने-पथरीले पथ पर,


मिलन-आस निज हृदय लिए।


बढ़ती जाए बेसुध आँचल-


बिना कहे कुछ अगर-मगर।


          पिया-मिलन को चली बावरी,


           कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


प्रेम-रंग में रँगी रँगीली,


चलती जाए मतवाली।


नहीं भूख रोटी की उसको,


प्यास न निर्झर-जल वाली।


भूख-प्यास तो देह-पिपासा-


उसपर करती नहीं असर।


        पिया-मिलन को चली बावरी,


        कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


स्वाति-बूँद की चाहत में तो,


चातक विकल सदा रहता।


नदी-नीर हो व्यग्र-दिवाना,


जा बह सिंधु-गले मिलता।


मिलन-अमिय-सुख पाकर पगली-


चाहे करना प्रेम अमर।।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


उसे मिलेंगे सजना उसके,


आज नहीं तो निश्चित कल।


इसी लिए तो अस्त-व्यस्त वह,


फिरे खोजती हुए विकल।


जीवन का उद्देश्य यही है-


मिलन सजन सँग अंत पहर।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


                      ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


अविनाश सिंह

🌱🌱 *हाइकु* 🌱🌱


*-----------------*


प्रकृति हवा


मिलती हैं जहाँ


रहना वहाँ।


 


पाखंडी लोग


बदलते है भेष


फैलाते द्वेष।


 


पावन गंगा


धोती सभी के पाप


करे विलाप।


 


मिले जो रोटी


न चावल न बोटी


ग़रीबी होती।


 


तारे हज़ार


गिनूं मैं हर बार


व्यर्थ कार्य।


 


फूल सी कली


जंगल में है मिली


खून से सनी।


 


बेटी की शिक्षा


काम काज की दीक्षा


नकली शिक्षा।


 


गोद में पली


ससुराल में जली


पेड़ पे मिली।


 


रोटी आचार


नही कोई विचार


गरीब लाचार।


 


बून्द-समुद्र


मिट्टी से बने घर


ये याद रख।


 


बेटी पढ़ाओ


झाड़ू पोछा कराओ


आगे बढ़ाओ।


 


कड़ी धूप में


सींच रहा है खेत


खून से रेत।


 


*अविनाश सिंह*


*8010017450*


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 27 मई 2020

दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश


शिक्षा -स्नातक, बीटीसी


व्यवसाय - अध्यापन


===========//=========


 


1- मजदूरों की मजबूरी


 


मजदूरों की मजबूरी का खेल निराला है,


डट जाए कर्तव्य पथ पर सब कर जाता है।


 


प्रतिपल भीग पसीने से


कांटों में राह बनाता है


खेतों से खलिहानों तक


नई इबारत लिखता जाता है।


 


परिवारों के लालन - पालन में


गांवों से शहरों की बाट बनाता है


अपने शिल्पी खून पसीने से 


मंजिल दर मंजिल बनाता है।


 


मजदूरों की मजबूरी का खेल निराला है,


डट जाए कर्तव्य पथ पर सब कर जाता है।


 


हांक हांक कर रिक्शा गाड़ी


पसीने से तर-बतर होता जाता है


पत्थर कोयला तोड़कर लाख बना


भठ्ठों पर पसीने से ईंट पकाता है।


 


कहाँ देखकर जीवन संघर्षों की मेहनत कश


 सूरज अपनी तपिश से ठंडी बयार चलाता है


 


मजदूरों के नितनव शिल्पों के बदले


कौन पुरस्कृत कर उत्साह बढ़ाता है 


पत्थर बनकर दु:ख दर्द झेलता


व्याकुल हो तिरस्कारों में मन बहलाता है।


 


ऊंचे रख सदा इरादे साहस कभी न खोता है


गिरकर उटता उठकर चलता सांसों से प्यास बुझाता है।


 


         दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


      लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश ।


 


2 - तुझको नमन हे ! पृथ्वी माता।।


 


तेरे सुमन से जग विख्याता


तुझको नमन हे ! पृथ्वी माता।।


 


स्वच्छ सांची से तन-मन को,


पुलकित करने वाली है


तेरी ममता की छावों में


हरे भरे वृक्षों कि 


शोभा बड़ी निराली है 


जल जीवन तेरा सबको भाता


तुझको नमन हे ! पृथ्वी माता।।


 


शस्य श्यामला धरा कहीं पर


कहीं पर्वत और पठार है


तेरी गोदी में श्रीराम का तीरथ


तूँ सबसे बड़ी ममता सी कीरत


तेरे दिये समीर से सब जन


जग में जीवन की प्यास बुझाता 


तुझको नमन हे ! पृथ्वी माता।।


 


भले आसमाँ अनेक रंग धरे 


तुझको ही सब सुहाता है


कौन सा जीव किस तरह बने


तूँ जननी बन जन्माती है


"व्याकुल" विनय करता है


करें न हम तुझको खंडित


यह स्वच्छ भाव मन में आता


तुझको नमन हे ! पृथ्वी माता।।


 


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


 


 


3- पुस्तक को भूलना नहीं।।


 


भूलो सभी को मगर


पुस्तक को भूलना नहीं।।


 


भूलो सभी को मगर


पुस्तक को भूलना नहीं।


परोपकार अगणित हैं इसके


इस ज्ञान को भूलना नहीं


अमिय पिलाती है हमें


जग में कालकूट घोलना नहीं


पुस्तक को भूलना नहीं ।।


 


श्री कृष्ण ने गीता दिया


दिगदिगांत के लिए किया नहीं


परिवर्तनों की प्रविधियाँ हो रही


संदेह की गुंजाइश दिया नहीं 


विद्वता की राह को प्रशस्त कर


आत्मज्ञान को भूलना नहीं


पुस्तक को भूलना नहीं ।।


 


पूरे करो अरमान अपने 


क्षितिज सा दान भूलना नहीं


लाखों कमाते हो भले


अभिज्ञान को भूलना नहीं 


ज्ञान बिन सब राख है


इस मद में फूलना नहीं


पुस्तक को भूलना नहीं।।


 


जैसी करनी वैसी भरनी


इसके न्याय को भूलना नहीं


संस्कृति का आध्यात्म है


इसे कभी छोड़ना नहीं


कलम का सिपाही बनाती


इसके मान को भूलना नहीं


पुस्तक को भूलना नहीं।।


 


सरस्वती का चिरकाल तक वास इसमें


"व्याकुल" ज्ञान - वन्दना भूलना नहीं


भूलो सभी को मगर


पुस्तक को भूलना नहीं ।।


 


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश


 


4- मैं स्वयं से संवाद करता हूँ..


 


    मैं,


स्वयं से संवाद करता हूँ 


कभी - कभी किसी 


विशेष मुद्दे पर 


गम्भीर वाद - विवाद करता हूँ 


हो गयी जो गलतियां अतीत में 


उनका पश्चाताप करता हूँ 


         मैं,


स्वयं से संवाद करता हूँ । 


 


मेरा साथी अपना 


     बातें मैं


इससे दिनरात करता हूँ 


अपनी आत्मा का बनूँ दर्पण मैं


पारदर्शी हो मेरा अस्तित्व


ऐसा अडिग प्रयास करता हूँ 


        मैं,


स्वयं से संवाद करता हूँ । 


 


कदाचित विचलित होऊँ 


समय के विलोम प्रभाव से 


इस हेतु बनाने को सम्बल 


अपने पौरूष का 


स्वयं से वादाकार करता हूँ 


        मैं,


स्वयं से संवाद करता हूँ ।


 


 


जीवन, के ख़ौफ़ ने सड़कों को 


     वीरान कर दिया


समय चक्र ने ज़िंदगी को 


     हैरान कर दिया


सामाजिक विसंगतियों के 


आतंक से "व्याकुल"


स्वयं को दो-चार करता हूँ


     मैं,


स्वयं से संवाद करता हूँ।


 


  दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल 


लक्ष्मीपुर - महराजगंज, उत्तर प्रदेश


 


5-एक सच्चा कवि हूँ....


 


एक सच्चा कवि हूँ


खुशबू को छोड़ सभी हूँ


गोबर जैसा पोताड़ा हूँ


जंधिये का नाड़ा हूँ 


कविता का बिगाड़ा हूँ 


रवि की पकड़ से दूर का सभी हूँ


एक सच्चा कवि हूँ।।


 


झूठ बोलता नहीं 


सच्चाई मेरा रास्ता नहीं 


साहित्य से कोई वास्ता नहीं


उट - पटांग कविताओं का जन्मदाता हूँ 


प्रतिभा का समेशन कर बना कवि हूँ 


बाथरूम से निकला अभी हूँ


एक सच्चा कवि हूँ ।।


 


बे पेदीं का लोटा हूँ


टूटे हुए सोल का फटा हुआ जूता हूँ


प्रत्येक कविता का सर्जरी कर 


मार्ग से भटका देता हूँ 


कविता - लिख सुनाने का चेष्टा करता हूँ 


साहित्य का सफोकेटा हूँ - 2 


ये मेरी पुरानी बिमारी है 


मैं डाक्टरों के लिए परेशानी हूँ


इस देश में पागल खाने हैं कम 


पागल हैं ज्यादा 


इसीलिए कविता करने पर हूँ आमादा


काव्य - दंगल का कभी 


न दूर होने वाला डिफेक्ट हूँ 


आधुनिक कवि के 


चरित्र में हमेशा परफेक्ट हूँ


इस कारण 


माइन्ड का दिल से कनेक्श नहीं


प्रेम-पूजा, साहित्य सेवा 


भक्ति - साधना से दूर टेन्शन हूँ 


साहित्यिक समाज को 


चालने वाला दिमक भी हूँ


   एक सच्चा कवि हूँ।।


 


प्रत्येक मजबूत दिवार का कमजोर बेस हूँ


न साहित्य जानता हूँ


न साहित्यितक कवि हूँ 


बचा हुआ शेष हूँ 


और प्राचीन साहित्यिक असभ्य 


कवियों का अवशेष हूँ


देखो अगर ध्यान से 


मैं साहित्यिक सफोकेशन हूँ


कविता का हेजीटेशन हूँ


कवि - मंच पर रहता परमानेन्ट हूँ


श्रोताओं के लिए एक्सीडेन्ट हूँ


बिलीव मी


मैं साहित्यिक डिफाल्टरों के लिए


सफाईस एनारकी हूँ


एक सच्चा कवि हूँ।।


 


मुझसे मिलना है या मेरा पता चाहिए 


तो जिला है पातालपुर


जहर डाकखाना 


डाकखाने से सीधा आगे आइये 


आके खाइये और चाय की तरह पी जाइये


कविता रूपी जहर डाकखाना


सीधा - सीधा कवि हूँ


या भईया हूँ पागल लोक का


कहते हैं मेरा नाम है कवि व्याकुल 


निवासी हूँ कविरूपी यमलोक का।


 


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


दयानन्द त्रिपाठी महराजगंज

सरस्वती वन्दना


 


हे! गणपति गणनायक तुझे कोटि - कोटि प्रणाम।


हे! गौरी सुत सुमरिन कर तेरा शुरू करूँ हर काम।।


 


 


हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी 


हे आशिर्वचनों की वरदायिनी


मेरा मन प्रकाशित कर दे माँ,


तूँ व्याकुल को ऐसा वर दे माँ।


पाकर विद्या ज्योति मैं माँ तेरी,


कुबुद्धि अज्ञानता स्वाब कर मेरी।


मैं अबोध तेरी शरणों में आया,


तेरा पुजारी हूँ माँ बदलो मेरी काया।


काम, क्रोध, मोह, लोभ सब तेरी माया,


अवगुण मिटा, कर दे ज्ञान की छाया।


तूँ स्वर की देवी तुझसे गीत-संगीत माँ,


मेरे हर शब्द को परिपूर्ण कर दे माँ।


नहीं चाहिए धन धान्य यश सम्मान पाऊँ,


पाकर चरण रज माँ मैं तर तर जाऊँ।


बस यही कामना तेराभक्त कहलाऊँ,


करता रहे अभ्यास निरन्तर तेरी सेवा पाऊँ।


हे! माँ शारदे इतनी कृपा कर वर दायिनी ,


विद्या ज्योति जगाकर ज्ञान दे ज्ञान स्वामिनी।


 


रचना दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


 


लक्ष्मीपुर महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


सुनीता असीम

प्यार का अब नहीं असर बाकी। 


 


एक ही रह गया पहर बाकी।


 


***


 


तुम न देखो मेरी तरफ ऐसे।


 


लग रहा है रही। शरर् बाकी।


 


***


 


आज अरमान हो गए पूरे।


 


कुछ नहीं रह गई कसर बाकी।


 


***


 


इस मुहब्बत के आम चर्चे हैं।


 


कुछ नई है नहीं ख़बर बाक़ी।


 


***


 


आग दोनों तरफ लगी ऐसी।


 


कुछ इधर और कुछ उधर बाक़ी।


 


***


 


सुनीता असीम


 


२७/५/२०२०


काव्य रँगोली आज के सम्मानित रचनाकार 17 मई 2020

डॉ सरोज गुप्ता 
अध्यक्ष हिन्दी विभाग,
पं दीनदयाल उपाध्याय,शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय 
सागर म प्र
पिनकोड --  470001


 


कविताये


1--जन्मदात्री मां


डॉ सरोज गुप्ता, सागर म प्र
 
जन्मदात्री माँ !एक विश्वास है श्रद्धा है भक्ति है । 
जन्मदात्री माँ !सारा जहां है एक सम्पूर्ण सृष्टि है।
जन्मदात्री माँ !स्नेहरुपा है, वाग्मी,लक्ष्मी, अन्नपूर्णा है।
जन्मदात्री माँ! त्रिपुरमालिनी है, कल्पवृक्ष, कामधेनु है।
जन्मदात्री मां ! के बिना सारा संसार, आधा है अधूरा है।
जन्मदात्री माँ !के आँचल में बस प्यार ही प्यार समाया है ।
इस प्यार को माँ जब-जब जितना जितना लुटाती है ।
मां का प्यार हजारों-हजार गुना बढता ही जाता है ।
जन्मदात्री माँ ! हर बच्चे की किस्मत है, जिंदगानी है।
जन्मदात्री माँ!से सारा जहाँ जगमग  है, खुशहाली है।
माँ  के रहते घर की सारी अलायें बलायें हट जाती हैं।
जन्मदात्री माँ ! की यादों से पुस्तकें भी कम पड़ जाती।
जन्मदात्री माँ है तो हम हैं, माँ के बिना ये दुनिया कम है ।
जन्मदात्री माँ ! है खुशियों का पिटारा, जीवन में न गम हैं।
दोनों माँएं  (सास माँ-जन्मदात्री माँ)रहें स्वस्थ व प्रसन्न ।
उनकी सेवा करते बीते, जीवन में न हो कभी खिन्न मन।


 



  2--आज हुए असहाय हाय हम!!
  
                        डॉ सरोज गुप्ता सागर म प्र


 आज हुए असहाय हाय हम!!
जबतक मां का हाथ था सिर पर ,तब तक वेपरवाह रहे हम,
अब इस संघर्षी जीवन के ,एक नये अध्याय बने हम, 
   आज हुए असहाय हाय हम!!
कितना प्यार दुलार दिया मां!संस्कारों का संसार दिया मां।
आफत, मुश्किल दूर हटाती,हंसते, जीते मिसाल बने हम।
   आज हुए असहाय हाय हम!!
जन्म दिया मां तूने हमको,पाला-पोसा बढ़ा किया मां।
वात्सल्य उड़ेला,ममत्वसहेजा,एकझलक मोहताज हुए हम।
  आज हुएअसहाय हाय हम!!
 पिताजी सदा व्यस्त रहते थे,सपने कुछ बुनते रहते थे,
 घर में आए कोई मुसीबत, मां के रहते छोटे सदा रहे हम।
  आज हुएअसहाय हाय हम!!
छोटा घर, छोटा-सा आंगन,सारा घर तुलसी का उपवन,
दुनिया का सब पाठ पढ़ाया, श्रेष्ठ काव्य के ग्रंथ बने हम। 
 आज हुए असहाय हाय हम!!
 


  
  3--मां के बिन
  
     डॉ सरोज गुप्ता सागर म प्र


 मां के बिन घर की देहरी छूटी ,बचपन छूटा ,
  छूटा सखियों के साथ के सुनहरा सफर।
  भाई बहिन का झगड़ा छूटा,
  छूटाअतीत की यादों का सफर ।
  
  पूरी दुनिया है साथ ,पर नहीं है मां के आशीष का आंचल।
  
मां के साथ बिताए उन पलों के छूटने की पीड़ा को कैसे करें वयां।
 मां के बिना अधूरी धरती ,अधूराआकाशऔर सारा जहां ।


पूरी दुनिया है साथ ,पर नहीं है मां के आशीष का आंचल।
  
मां के साथ बिताए उन पलों के छूटने की पीड़ा को कैसे करें वयां।
 मां के बिना अधूरी धरती ,अधूराआकाशऔर सारा जहां
           
 



         4---    मां का महाप्रयाण
              
                     डॉ सरोज गुप्ता सागर म प्र
                  
दिव्य ,भव्य शाश्वत आत्मा ने ,स्वर्गलोक महाप्रयाण किया।
अपनों से मिलने वह आयी,सबको स्मृति में झकझोर दिया।


हम जारहे हैं,कहकर,वात्सल्यमयी थपकी दे मोह छोड़ा।
आहट,घबराहट से भरकर,आत्मशक्ति ने सबसे मुंह मोड़ा।


उससमय लगा ये आत्मिकसुख,उसे आज़भी हम हैं संजोए।
क्या था, कैसा था ये, अतृप्त मिलन ,हाय! बाद में पछताये।


घबराहट का कारण, रहस्य, काश! उससमय समझ पाती।
इत्मिनान से बोलती,कुछ कहती ,कुछ सुनकर उन्हें भेजती।



 ब्रम्हवादिनियों की तरह यमराज,गणों के पीछे पीछे जाती।
 जीवन और जगत के बन्धन से मुक्त होने का उपाय पूछती
 
 आत्मशक्ति बलिष्ठ थी,श्रेष्ठशाश्वत,परमशान्ति में मगन थी ।
आत्मशक्ति अनन्त ब्रह्माण्ड में,सुखमय विलीन हो गयी थी।


यम गण सुंदर,सौम्य ,सुसज्जित स्वर्गिक,रथ लिए खड़े थे।
आत्मशक्ति को यमगणों ने वैतरणी के दिव्य दर्शन कराये। 


मलयसमीर हिमगिरि की परिक्रमा करा,भव्यलोक दिखाया। परमेश्वर में आत्मा को विलीन कर, परमानंद प्राप्त कराया।


 जग नश्वरता का रहस्य बताने, बारहवीं तक भव में छोड़ा।
पंचतत्व की नश्वर काया को,अंतिम क्रिया दर्शन करवाया।


ममता का सागर,अमृत की गागर, मां करुणा का अवतार।
मां जीवन है, संजीवन है ,मां की महिमा अपार। 
मां चंदन है,जगवंदन है, मां से ही सारा संसार।
 पुत्र-पौत्र, बन्धु-वान्धवों की ममता मिले अपरम्पार । 


 नदी की धारा मिली सागर में, सतत् प्रवहमान होने।
मिलन के मेघ मंडराये ,स्वयं ही सिन्धु में मिलने।
हृदय की रिक्तता, भव्यता ,उमड़े शतशत  सजल जलधर ।
मन नमन,प्रणम्य प्राण ,नयन भर अम्बर उपलब्ध हुआ। 
वेदना मन की ,व्यथा तन की ,पुण्य प्रबल भाग्य खुला


डॉ सरोज गुप्ता
अध्यक्ष हिन्दी विभाग
पं दीनदयाल उपाध्याय, शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय सागर म प्र
पिनकोड-470001


काव्य रंगोली व्हाट्सएप्प रचनाये 16 मई 2020

हे मां मनीषिणी हमें ज्ञान दे
********************
हे मां मनीषिणी
हमें विचार का अभिदान दो,
मां हम योग्य पुत्र बन सकें
हमें ज्ञान दो मां।


हे मां मनीषिणी
हमें स्वाभिमान का मान दो,
चित्त में शुचिता भरो
मां बुद्धि में विवेक दो।


हे मां मनीषिणी
कर्म में सत्कर्म दो,
हृदय में दया दो मां
वाणी में मिठास दो मां।


हे मां मनीषिणी
देवी तू प्रज्ञामयी है
सभी को सुमति दो मां
मैं बार बार तुम्हें प्रणाम कर रहा हूं।।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


कविता:-
     *"पीड़ा"*
"इस जीवन में साथी फिर,
कुछ तो ऐसा कर जाये।
अपनो की ख़ुशी को यहाँ,
अपनी पीड़ा भुल जाये।।
नित ध्यान लगे प्रभु संग,
सद्कर्म करते ही जाये।
मंज़िल मिले न मिले यहाँ,
कदम ये रूक न जाये।।
एक दीप ऐसा जलाये,
जो मन का तम हर जाये।
मन छाये ऐसे विचार,
अपनत्व बढ़ता ही जाये।।
जितना जीवन धरती पर,
उसको सार्थक कर पाये।
अपनो की ख़ुशी को यहाँ,
अपनी पीड़ा भुल जाये।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः        सुनील कुमार गुप्ता
ःःःःःःःःःःःःःःःःः        16-05-2020


😌😌    दोहे राजेंद्र के    😌😌


याचक बनकर हैं खड़े,
                      दाता के  दरबार।
कोई  लाया है कनक, 
                       कोई  हीरा  हार।


लगा तनिक विचित्र हमें,
                    लोगों का व्यवहार।
जब  ख़ुद  ही  दाता बने,
                      माँगें क्यों दरबार।


मतलब  इसका तो यही,
                     पाने लाख-हजार।
रिश्वत  प्रभु  को  दे  रहे,
                      पैसे  ये  दो  चार।


               (राजेंद्र रायपुरी)


*_सरस्वती वन्दना_*


हे! गणपति गणनायक तुझे कोटि - कोटि प्रणाम।
हे! गौरी सुत सुमरिन कर तेरा शुरू करूँ हर काम।।


हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
हे आशिर्वचनों की वरदायिनी
मेरा मन प्रकाशित कर दे माँ,
तूँ व्याकुल को ऐसा वर दे माँ।
पाकर विद्या ज्योति मैं माँ तेरी,
कुबुद्धि अज्ञानता स्वाब कर मेरी।
मैं अबोध तेरी शरणों में आया,
तेरा पुजारी हूँ माँ बदलो मेरी काया।
काम, क्रोध, मोह, लोभ सब तेरी माया,
अवगुण मिटा, कर दे ज्ञान की छाया।
तूँ स्वर की देवी तुझसे गीत-संगीत माँ,
मेरे हर शब्द को परिपूर्ण कर दे माँ।
नहीं चाहिए धन धान्य यश सम्मान पाऊँ,
पाकर चरण रज माँ मैं तर तर जाऊँ।
बस यही कामना तेराभक्त कहलाऊँ,
करता रहे अभ्यास निरन्तर तेरी सेवा पाऊँ।
हे! माँ शारदे इतनी कृपा कर वर दायिनी ,
विद्या ज्योति जगाकर ज्ञान दे ज्ञान स्वामिनी।


*_रचना दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल_*


लक्ष्मीपुर महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


-
*मां का प्रतिरूप*
चल मां!! आज मैं तू और तू मैं बन जाऊं,
तेरी छबि हूं, तेरे हर गुण को पाऊं,
अपनी गोदी में तेरा सिर रखकर,
तुझे प्यार से सहलाऊं।


बिखरे से बाल तुम्हारे,
अस्त व्यस्त सी दिखती तुम,
घर को संवारती सजाती,
भूली अपना अस्तित्व तुम,


हर पल सबका संवारती हो,
कुछ पल तुम्हारे संवार दूं,
पल फ़ुरसत के देकर तुम्हें,
तुम्हारे सपनों को फिर से संवार दूं।


भविष्य हमारा संवारने में,
खो बैठी सुध बुध तुम अपनी,
चुनौतियों में बनी सहारा,
सुख चैन सब हम पर वारा,


रातों की खोई नींदों को,
फिर अपनी नींद सजा दूं,
मैं दूं थपकी तुझे,
लोरी गाकर सुला दूं।


खुद को बांध बंधनों में,
हमें दिया खुला आसमां,
हमारी चाहतों को पूरा करने,
सौंप दिया जीवन सारा,
चल मां!तेरी बिवाईयों पर मलहम लगा दूं,
तेरे शेष जीवन को प्यार से संवार दूं।
बहुत किया तुने अब तक,अब मैं तुझे आराम की छांह दूं।


मां मैं तेरी ममता बनकर
तेरा हर दुख बिसार दूं।।


ममता कानुनगो इंदौर


कृपा करो चितचोर....


माधव तेरे रूप नें,लियों सकल जग मोह।
तेरी छवि नैनन बसी,सह न पाऊं विछोह।।


मुरलीधर तेरी शरण,हरो हमारे त्राण।
सुख से बीते जिंदगी, जग पालक भगवान।।


सदा मेरे हृदय बसों,श्री राधे बृजराज।
जीवन गाड़ी हाथ में,पूर्ण करो प्रभु काज।।


जीवन ज्योति प्रखर रहे, नटवर नन्द किशोर।
किंकर"सत्य"तुम्हारा,कृपा करो चितचोर।।


श्री माधवाय नमो नमः👏👏👏👏👏💐💐💐💐💐


सत्यप्रकाश पाण्डेय


*विषय।प्रेम।।।।।।।।।।।।।।*
*शीर्षक।।।।प्रेम से परिवार*
*बनता स्वर्ग समान है।।।।।*
*दिनाँक ।  15,,05,,2020*
*(विश्व परिवार दिवस।।।।।)*


परिवार छोटी सी   दुनिया
प्यार का  इक  संसार  है।
एक अदृश्य स्नेह प्रेम का
अद्धभुत सा   आधार  है।।
है बसा प्रेम  तो  स्वर्ग  सा
घर   अपना  बन  जाता ।
कभी बन्धन रिश्तों का तो
कभी मीठी  तकरार   है।।


सुख  दुख  आँसू   मुस्कान
बाँटने का परिवार है  नाम।
मात पिता   के   आदर  से
परिवार बने है  चारों  धाम।।
आशीर्वाद,स्नेह,प्रेम ,त्याग
की डोरी से बंधे होते  सब।
प्रेम  गृह की छत  तले  तो
परिवार  है   स्वर्ग   समान।।


तेरा मेरा नहीं हम सब का
होता    है     परिवार    में।
परस्पर सदभावना बसती
है  यहाँ हर    किरदार  में।।
नफरत ईर्ष्या का कोई भी
स्थान नहीं  घर  के भीतर।
प्रभु स्वयं हीआ बसते बन
प्रेम की मूरत घर संसार में।।


*रचयिता।एस के कपूर "श्री*
*हंस",,बरेली।*
मोब            9897071046
                  8218685464


*"मातु-महान"* (दोहे)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
^स्नेह सिक्त पीयूष को, मातु-पिला संतान।
अर्पित कर निज रक्त को, देती जीवन दान।।१।।


^पावन पय पीयूष पी, सुख सरसित संतान।
हुलसित माता अंक में, धन्य मातु-अवदान।।२।।


^उपजे पीकर क्षीर को, शिशु के मानस-मोद।
माता मन ममता महत, स्वर्गिक सुख माँ-गोद।।३।।


^मातु सकल ब्रह्मांड है, सरस-सुधा-संसार।
जीव-जगत जनु जान-जन, ममता-अपरंपार।।४।।


^अमिय-कलश है मातु-वपु, मानस ममता-मूल।
पान अमिय माँ का करे, सकल मिटे शिशु-शूल।।५।।


^होकर अति कृशगात माँ, श्रम साधित मन-क्लांत।
पान करा फिर भी अमिय, करे क्षुधा-शिशु शांत।।६।।


^मातु-सुधा-सद्भाव से, सरसे सुख-संसार।
प्रेम पले पीयूषपन, पातकपन-परिहार।।७।।


^स्नेह सजीवन सार शुचि, सरसित सुधा समान।
बोली माँ के नेह की, फूँके जग-जन-जान।।८।।


^माँ देती संतान को, ममता की सौगात।
अमिय-सरिस माँ-दूध पी, बढ़ता शिशु-नवजात।।९।।


^माता जीवन दायिनी, अमिय कराती पान।
शिशु का संबल है वही, जग में मातु-महान।।१०।।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


"""""""
     👩‍🔧 *बेटी*🚶🏻‍♀
  (मनहरण घनाक्षरी)
            """""""
भारत  की  प्यारी  बेटी,
जैसे    फुलवारी   बेटी,     
सब   कुछ   वारी  बेटी,
        जग में महान है।
👩‍🔧🚶🏻‍♀
नही   कभी   डरती  है,
सब   काम   करती  है,
देश  पे   भी   मरती है,
    तू भी शक्तिमान है।
🚶🏻‍♀👩‍🔧
ममता की छाँव  तू  ही,
खुशियों की ठाँव तू ही,
समता की गाँव  तू  ही,
      घर की तू शान है।
👩‍🔧🚶🏻‍♀
फिर भी तू  चली  गयी,
हर   बार   छली   गयी,
कली भी  मसली  गयी,
       संकट में जान है।


*कुमार🙏🏼कारनिक*
(छाल, रायगढ़, छग)
💐बहन निर्भया को
श्रद्धांजलि💐🙏🏼😢
                 """""""""""


ग़ज़ल


क्या जुस्तजू करें भी यहाँ सुब्हो-शाम की
जब फिर गयीं हों नज़रें हीं माह-ऐ -तमाम की


जो कुछ था वो तो एक लुटेरा ही ले गया
जागीर रह गयी है फ़कत एक नाम की


ख़ुद आके देख ले तू जफ़ाओं का अब सिला
*शोहरत है आज शहर में किसके कलाम की*


खोली जो उस निगाह ने मिलकर किताबे-इश्क़
उभरीं हरेक हरफ़ से मौजें पयाम की


महफ़िल में दो घड़ी हुई क्या उनसे गुफ़्तगू
हैरान दिख रही है नज़र खासोआम की


ज़ुल्फ़ों का अपनी नूर अंधेरों को बख़्श दे
बेनूर लग रही है ये तस्वीर शाम की


*साग़र* फ़ज़ाएं आज हैं क्योंकर धुआँ-धुआँ
शायद लगी है आग कहीं इंतकाम की


🖋विनय साग़र जायसवाल


*अनुशासन*
16.5.2020


मन जरा संभालिए
अनुशासन राखिए
जीवन सरल रहे
मन में विचारिये।


हिलमिल रहें सब
धरा स्वर्ग रहे बन
सभ्यता को सँग रखे
प्रयत्न ये धारिये ।


है संस्कृति ये महान
करना सब सम्मान
विरासत ये अपनी
इसको संभालिये।


देश वीरों का महान
भारतीय पहचान
सिर रखे गर्व तान
स्वाभिमान राखिये ।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


स्वतंत्र रचना क्र. सं. ३१२
दिनांकः १६.०५.२०२०
दिवसः शनिवार
छन्दः मात्रिक
विधाः दोहा
विषयः आत्म निर्भरता
शीर्षकः आत्मनिर्भर हम बने


अपने   को   अपना    कहें , स्वीकारें  भी    अन्य।
अच्छाई   जिसमें     दिखे,  बनाये     उसे  अनन्य।।१।।


आत्म  निर्भर   हम   बने , चलें    देश  के     साथ।
उत्पादक   जो    देश   का , स्वीकारें    बढ़   हाथ।।२।।


कर्मवीर    मजदूर    हम  , आत्म   निर्भर  समाज।
रनिवासर   मिहनतकसी , स्वागत   नव   आगाज।।३।।


स्वाभिमान   रक्षण    स्वयं , बढ़े   सुयश  सम्मान।
हर्षित   मन  जीवन  मनुज , निर्भर   खु़द इन्सान।।४।।


सक्षम    हम    सर्वांग   से , कर   सकते   उद्योग।
रखें  अन्य   से   आश  क्यों , करें स्वयं  सहयोग।।५।।


मिलती ख़ुद मिहनत खुशी,खिलती मुख मुस्कान।
नयी   सोच   नव   जोश  से, पूर्ण   करें  अरमान।।६।।


संसाधन  हैं   जो   सुलभ ,  करो  नया   आगाज।
मिले  राह  नव प्रगति का , नव भविष्य  आवाज।।७।।


दीन हीन  हम  क्यों बने,जब  सक्षम   सब  काम। 
साधें हम  निज लक्ष्य को , जीवन   हो  सुखधाम।।८।।


धीर       वीर   गंभीरता , संकल्पित   अभिलास।
बड़ी शक्ति  है  आत्म बल , रखो  स्वयं  विश्वास।।९।।


सभी  समुन्नत  हो   स्वयं ,  बने    समुन्नत   देश।
बढ़े   मान  यश   सम्पदा ,   स्वावलंब      संदेश।।१०।।


पर  निर्भरता    मरण  है , नित  जीवन अपमान। 
करती   पौरुषता   हनन , हरे    वतन    सम्मान।।११।।


अपनापन  आभास  मन , निर्माणक  खु़द  ध्येय।
है निकुंज  जीवन  कथा ,  स्वावलम्ब   बस  गेय।।१२।। 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


कवि✍️डॉ.निकुंज


मेरी माँ शारदे वरदायिनी स्वेता मुझे वर दो
बहुत ही पापनी हूँ हंश की देवी देवी दया करदो
भटकती हूँ मैं सदियो से तुम्हारा ही सहारा है
करो थोड़ी दयादृष्टि अकिंचन को भी मां स्वर दो
    
     वंदना पाल


🌹परिवार 🌹
जहां सब एक-दूसरे का आदर सत्कार करते हैं ।
बड़ों- छोटों को समान सम्मान देते है ।
उसे परिवार कहते हैं ।
चेहरा देख कर ही समझ जाते हैं
सुख-दुख के भाव पढ लेते हैं
जहां अपनापन होता है
आत्मा से आत्मा का संबंध होता है
उसे परिवार कहते हैं
बिना कहे ही समस्याएं हल हो जाती हैं ।
कितनी ही बलाये टल जाती है
जहां मन में कभी नहीं मिलता राग द्वेष को स्थान ।
उसे परिवार कहते हैं ।
काव्य रंगोलीभी हमारा बहुत बढ़िया परिवार है ।
जहां वसुदेव कुटुंबकम की भावना का विस्तार है ।
इसे पाकर हम धन्य है ।
जहां एक दूसरे की भावनाओं का होता आदर है ।
हमारे अंदर आत्मीयता इतनी प्रबल है ।
हम जिस मंच से जुड़ते हैं उसे अपना परिवार समझते हैं । बड़ी ईमानदारी से निभाते हैं सारे रिश्ते ।
इसीलिए भारतवासी सबसे अच्छे अच्छे कहलाते ।


जय श्री तिवारी खंडवा


9920796787****रवि रश्मि 'अनुभूति '


   🙏🙏


  अमीर छंद
**************
विधान ~
प्रति चरण 11 मात्राएँ , चरणांत जगण  (  121 ) , दो- दो चरण समतुकांत ।


विपदा खूब अपार ।
कर बेड़ा अब पार ।।
      करना है अब योग ।
      रहेंगे हम निरोग ।।
सादा हो अब भोज ।
पास आये न रोग ।।
       मुट्ठी बंद  उजास ।
       हो दीर्घायु आस ।।
आये जीवन रास ।
रहे रोज़ उल्लास ।।
          है जीवन वरदान ।
           बनता आज महान ।।
मैं तो हूँ अब दास ।
रखो ही चरण पास ।।
             प्रभु मेरी रख आन ।
             बढ़े सदा अब शान ।।
%%%%%%%%%%%%%%%%%


(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


दोहा
-------


बच्चे सब हैरान  है, मातु- पिता के संग।
चलते रहते दूर से ,उड़ता मुख का रंग।।


कोरोना से लड़ रहा, विश्व बड़ा ही जंग।
खूनी  इस उत्पात को, देख सभी हैं दंग।।

हम घर में अब बंद हैं ,रहे नियम के संग ।
आशा दीप जला रखें,  जीतेंगे हम जंग।।


कैसी विपदा की घड़ी ,ट्रक में चढ़ते लोग।
जिसको जैसा बन पड़ा, न्योता देते रोग ।।


होड़ लगी पहले चढ़े, छूटे मत मजदूर ।
कोई भी साधन नहीं, जोखिम को मजबूर।।


अर्चना पाठक  निरंतर
अम्बिकापुर


*किसानों के हालात*
विधा: गीत


जो दुनियाँ को खिलता है,
वो खुद भूखा रहता है।
बड़े मंचो से इन की,
मिसाले दुनियां को देते है।
परन्तु इन किसानों की,
कोई भी सूद नही लेते।
तभी तो ऋणमें पैदा होता है,
और ऋणमें ही मर जाता है।।


दुखो में जीने वाले,
गमो में डूबे रहते है।
दुखो को ही अपना,
नसीब वो समझते है।
दुखो के चलते हुए भी
निभाते अपना कर्तव्य वो।
और हर मौसम के त्यौहार,
बड़ी खुशी से मानते है।।


यदि मिल जाये दुखो से,
कभी छुटकारा उसे अगर।
तो भी वो अपने जिंदगी को,
बड़े ही शांत भाव से जीते है।
और खुशी और दुख की लहर,
नही आने देते चेहरे पर।
सदा ही समान भाव से,
वो जीते अपना जीवन।।


हजारों सालों से इनकी,
यही हालत बनी हुई है।
होकर आजाद भी हमने,
नही सुधारे इनकी हालात।
पहले भी शोषण इनका, जमीदार आदि करते थे।
और आज भी शोषण इनका,
देश की सरकारें कर रही है।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
16/05/2020


ये मुहब्बत जो जमाने से छिपा ली मैंने।
तो जिगर और जुबाँ फिर तो संभाली मैंने।
****
जिन्दगी भर के लिए सिर्फ नहीं मरने तक।
ताजगी गुल ए दरीचाँ से .....निकाली मैंने।
****
ये ख़यालों में सदा सोच भरी रहती है।
मुश्किलों में तो नहीं जान फसाली मैंने।
****
रात दिन ख़ाक हुए आज तलक मेरे हैं।
प्यार की एक कली भी तो बचाली मैंने।
****
उम्र भर सिर्फ तेरा ही मैं रहूंगा बनकर।
ये कसम आज दिले जान उठाली मैंने।
****
सुनीता असीम
16/5/2020


"लॉक डाउन"
लॉक में रहते हुए अब हो चुकी उम्मीद डाउन,
कब खुला आकाश देखूँ,हो रही है दीद डाउन ।।


अब तो जूगनू पास आने से मेरे डरने लगे हैं,
जल रही आंखे हमारी लग रही है नींद डाउन ।।


छप्पनो पकवान बनते, घर अतिथियों से भरे थे,
आज उस चूल्हे की देखो, हो गयी है आँच डाउन ।।


जो हुलस करके लगाते थे, गले अनजान को भी,
काटकर कन्नी गुज़रते ,हो गए जज़्बात डाउन ।।


मौत बनकरके उड़नछू , जान की प्यासी हुई है,
आहटों से भी लगे डर ,हो रही है सांस डाउन ।।


गीता सिंह "शम्भुसुता"
प्रयागराज


सभी को मेरा सादर नमस्कार एवं सभी को उनकी रचनाओं के लिए हार्दिक बधाई🙏🙏💐💐💐💐


*चिंता*
--------
मन में डेरा डाल कर चिंता ने फिर आ घेरा है
अपने साथ लाई है बेचैनी, दुख, परेशानी
विदा तो मैं उसे कर आई थी
अपने साथ खुशियों को ले आई थी और मुस्काई थी
पर चिंता हठी बालिका की तरह आकर बोली
क्यों खुशी के संग ही खुश रहती हो
खुशी तो पल भर ही रहती है
हरदम तो मैं ही सभी के संग रहती हूँ
हाँ, कुछ दिनों के लिए चली जरूर जाती हूँ
फिर नई सौगातें लेकर चली आती हूँ
मन से दिमाग तक फैला तो मेरा घर है
इस घर से कैसे बेघर हो जाऊँ?
मेरा कहा मानो तो मेरे साथ ही
जीवन जीना सीख लो
चिंता को चिंतन कर दो
चिंतन को अच्छे कर्मों से
जीवन को आनंद से भर दो ।


*आभा दवे*


•खुशियों का समन्दर•
अपने खुशियों का समन्दर तेरे हवाले कर दूँ।
सारे दुखों को आज से मौत के हवाले कर दूँ।
हार-जीत सुख-दुख ज़िन्दगी में आते जाते हैं
पर मैं खुद की ज़िन्दगी को तेरे हवाले कर दूँ।
-कबीर ऋषि "सिद्धार्थी"
सम्पर्क सूत्र-9415911010
KRS


#मुक्तक


बताओ जमाने से क्या पा रहें हैं,
मिलावट मिला आज हम खा रहें है,
जरा फायदे के लिए आदमी भी
मुनाफ़ा बहुत सा लिए जा रहें हैं !!


-


** आलोक मित्तल **




बलराम सिंह यादव धर्म एवम अध्यात्म शिक्षक

भक्तवत्सल भगवान


राम भगत हित नर तनु धारी।
सहि संकट किये साधु सुखारी।।
नामु सप्रेम जपत अनयासा।
भगत होहिं मुद मंगल बासा।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  प्रभुश्री रामचन्द्रजी ने अपने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया,परन्तु भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जप करते हुए सहज ही में आनन्द और कल्याण के घर हो जाते हैं।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
  भगत हित मनुष्य शरीर धारण करने का तात्पर्य यह है कि स्वयं भगवान को भूलोक पर मनुष्य शरीर में अनेक कष्ट उठाने पड़े।इसके पीछे मुख्य उद्देश्य अपने भक्तों को सुखी करना ही था।यथा,,,
सो केवल भगतन हित लागी।
धरेउ सरीर भगत अनुरागी।।
भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किये चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप।।
  माता सतीजी को भगवान शिवजी ने उनके भ्रमित होने पर यही बात समझाने का प्रयास किया था।यथा,,,
सोइ राम ब्यापक ब्रह्म भुवन निकायपति मायाधनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतन्त्र नित रघुकुलमनी।।
  परमपिता परमात्मा का हर शरीर धारण करना कष्टदायक ही है क्योंकि मनुष्य शरीर में उन्हें सांसारिक क्रियाओं यथा जन्म व मृत्यु से भी जूझना पड़ता है।और जन्म और मृत्यु अत्यन्त कष्टदायक कहे जाते हैं।यथा,,
जनमत मरत दुसह दुख होई।
 पुनः
 अजित बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरसा बात।।
 कहने का भाव यह है कि प्रभुश्री रामजी ने नर शरीर में अवतार लेकर वनगमन और दुष्टों का सँहार में अनेक कष्ट झेले और तब अपने भक्तों को सुखी कर पाये।इसके विपरीत रामनाम बिना परिश्रम के केवल सप्रेम नाम उच्चारण करने से ही भक्तों को सभी प्रकार के सुख प्रदान कर देता है और मरणोपरांत भक्तों को परमगति अर्थात मोक्ष भी प्राप्त करा देता है।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 16 मई 2020


डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी 
पत्नी इं0 अमर नाथ त्रिपाठी
जन्मदिन - 11/07/1957
जन्म स्थान,  जिला जौनपुर उ0प्र0
शैक्षणिक योग्यता 
संस्कृत साहित्याचार्य, पीएच ़डी.
 पी.जी. डिप्लोमा पत्रकारिता एवं जनसंचार 
 19/303 इन्दिरा नगर लखनऊ उ0प्र0 226016  
  मोबाइल -   8787009925 , 9415301217
 tripathi.lata@rediffmail.com 
 लेखन विधा – छंदबद्ध काव्य लेखन 
प्रकाशित पुस्तकें – 1 कृति ‘’वर्णिका’’ काव्य संग्रह  2- ‘’मौन मन के द्वार पर (छंदाधारित गीतिका संग्रह)


साहित्यिक उपलब्धियाँ - पुरस्कार एवं सम्मान 
 
 सम्मान - कवितालोक रत्न सम्मान, गीतिका गंगोत्री सम्मान, सारस्वत सम्मान काव्य भारती, ‘”छंद शिल्पी” सम्मान, ”कवितालोक भारती” सम्मान, साहित्य सुधाकर सम्मान (राजस्थान), सारस्वत सम्मान  कवितालोक (1जुलाई 2018), कवितालोक आदित्य -2019 (4 मार्च 2019),  युग्मन गौरव सम्मान, नारी सागर सम्मान द्वारा - विश्व हिंदी रचनाकार मंच दिल्ली  
मुक्तक-लोक लखनऊ उ.प्र. -  गीतिका श्री सम्मान, छंद श्री सम्मान, मुक्तक-लोक  गीत रत्न सम्मान, युगधारा फाउंडेशन द्वारा  साहित्य भूषण सम्मान व समाज भूषण सम्मान 2019
पत्रिका - काव्य रंगोली, (लखीमपुर खीरी) , नारी तू कल्याणी (कानपुर) , शुभ रश्मि (लखनऊ), साया (भोपाल) में  सहभागिता । युगधारा साहित्यिक पत्रिका एवं 'सवेरा' साहित्यिक पत्रिका लखनऊ उ0प्र0 
परिचय --- डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी - पत्नी इं0ए0एन0त्रिपाठी(से0निव0-(उ.प्र.पा.कारपो.लि.)  पिता  स्व0भास्करानंद मिश्र प्रवक्ता( हिंदी )तिलकधारी सिंह कालेज जौनपुर । 
 नाटिका प्रियदर्शिका सम्राट हर्षदेव द्वारा  रचित कृति पर शोध ‘‘प्रियदर्शिका एक समालोचनात्मक अनुशीलन’’ पुर्वांचल विश्वविद्यालय एवं सम्पूर्णानंद विश्वविद्यालय से  संस्कृत साहित्याचार्य की उपाधि प्राप्त किया।


अधोलिखित रचनाएँ ---- 1से 5


          -- 1 --
छंद -मदिरा सवैया (7भगण+2)      
----------------------------
दौलत के मद भूल गये अपनीति बढी़ अब नीति कहाँ ।
भूल गये पद मान गुमान कुरीति बढी़ अथ रीति कहाँ ।
व्याधि कटे भव संकट घातक प्राण दशा दयनीय जहाँ ।
जीवन साध्य अमूल्य सुधारस मानवता महनीय  जहाँ ।
----------------------------
घेर रही  बदरी नभ  प्रीतम ज्यों  अँचरा फहराय चली ।  
मोहति ये कजरी मलयानिल से गजरा महकाय चली ।
श्याम अश्वेत खुले घन केश बयार सखी लहराय रही ।
कूज रहे खग झुंड यथा मन को घन पंख लगाय रही ।
-------------------------
कूज रही वन कुंजन कोकिल शाखन को हुलसाय सखे ।    
  बाग रसालय से  महके  जब   बौरन  से  उमगाय सखे । 
झूम बयार गिरे अमिया बगिया मन को उरझाय  रही ।
नेह भरे सुधि  प्रीतम की पग ते ठुमरी ठुमकाय रही । 
                                         डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
                2
छंद --- लावणी (भजन )
तुम्हें पुकारूँ यशुदा नंदन,दीनों  के हे नाथ सुनो ।
राधा रानी सखी सयानी,आओ लेकर  साथ सुनो ।
यमुना तट हो बंशी बट हो,धेनु सखा के रखवाले, 
भूल गये जो चक्र सुदर्शन,आज उठालो हाथ सुनो ।


विरद बचा लो हे यदुनंदन, त्राहि  मची  उसे  निवारो ।
हे मधुसूदन प्रगट करो निज,शक्ति सकल मान विचारो ।
निस्तेज करो सकल आपदा,वंदन तेरा  करुणामय  ,
युद्धभूमि के योद्धा हम सब, राह  तके सदा तिहारो ।
 तुम्हें पुकारूँ यशुदा नंदन,दीनों  के हे नाथ सुनो । ------                               डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
            -  3 -
आधार छंद विधाता (मापनीयुक्त मात्रिक)
मापनी- 1222,1222,1222,1222
लगागागा, लगागागा, लगागागा,रगागागा।
समांत 'अल' अपदांत
गीतिका -----


दुखी है लेखनी अपनी,कहाँ खोया हमारा कल ।
किया शृंगार कब तुमने,न यादों में उभरता पल ।


मिटा हस्ती रहा अपनी,कि दुर्दिन घातकी बनकर,  
नजर किसकी लगी हमको,न जानें कौन सा ये छल ।


उठाती टीस है जैसे,दरों दीवार ये आँगन,
खिले गुलदान ये हँसते,बढा़ते जो सदा संबल ।


चहकते प्रात किरणों से,झरोखे खोल कर देखो,
मिटेगी वेदना निश्चित,हवायें कह रही चंचल ।


महकते  बौर  घन झूमें, रसालय हो रहा तन्मय,
मुसाफिर क्यों न ठहरेगा,मदिर वाणी सुने कोयल ।


धरा ये  रत्न  गर्भा है, बडी़  मुग्धा  पुनीता है, 
मुकुट मण्डित हिमालय से,जलधि से है तरल आँचल ।


मृदुल मन प्रेम रस घोलो, उठे उद्गार मत रोको,
बहाने ढूँढती खुशियाँ,तनिक तुम खोल दो साँकल ।
               डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
           ---- 4----
छंद-चामर (21,21,21,21,21,21,21,2)
समान्त: अगा<>पदान्त: सखे
गीतिका
                                                     
हार मानना न  मौत  को  गले  लगा सखे  ।
भाग्य वान हो अहो सुभोर को जगा सखे ।


है अतीव वेदना  विराग क्षोभ मानिए ,   
दे रहा अकाल ज्यों कराल ये दगा सखे ।


दौर आ गया समक्ष साहसी बने स्वयं,   
भेद भाव आपसी दुराव को भगा सखे ।   


दूरियाँ भले रहें न बाँटिए समाज को,
एक देश एक राष्ट्र गीत मंत्र गा सखे ।


एकता बनी रहे पुनीत राष्ट्र भावना,
भाव दीप्त यों रहे भले न हो सगा सखे ।


द्वंद्व तो अनेक हैं मिटा सके न नेह को
भूल ये सभी गिले खुशी सभी मँगा सखे ।


प्रेम की प्रगाढ़ता सहे अनंत पीर को,
अर्घ नित्य हो नवीन सूर्य तो उगा सखे ।
                 डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
--------5--------
गीत -----
जागती रातें  कहीं  हमको लुभाती है ।
पीर अंतस की न उनको भूल पाती है ।


शब्द बनकर गीत अधरों पर सदा रहते ।
छंद उनके भाव भंगिम के कहा करते ।
दूर पनघट है गुहारे यों थिरकता मन,
श्याम तेरी बंसरी हर पल बुलाती है ।


धीर मन का खो रहा चंचल हुआ जाता ।
फागुनी चादर उढा़ अंचल हुआ जाता ।
साँवरे के  रंग में सुध-बुध भुलाये जो,
डूब जाने दो मुझे वह प्रीत भाती है   ।


घन सरोवर में खिलेगें वे कमल आनन ।
फाग उड़ते गुनगुनाते जब भ्रमर आँगन ।
युग पुरुष जैसे बना जग का चितेरा तू,
प्रेम वह अनुराग सलिला नित बहाती है।
----------------------डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी


 


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