डॉक्टर धारा बल्लभ पांडेय 'आलोक' अल्मोड़ा, उत्तराखंड

श्रृंगार रस पर मेरी


कविता- मुरली मनोहर


विधा- दुर्मिल सवैया छंद।


 


सिर मोर किरीट मनोहर सी, छवि साँवरिया अति शोभित है।


घन बीच जु दामिनि दंत छटा, मुख बिंब सुचंद्र ‌ सुशोभित है।


सिर बाल घटा मुख में बिखरे, शुभ कानन कुंडल शोभित है।


अधराधर बाँसुरी धारण ज्यों, मुख पुष्प अली मन मोदित है।।


 


कटिबंध मनोहर पैजनि पाद, निहार रहे पथ श्याम हरी।


छवि श्यामल मोहन मोहक सी, पटपीत धरे गलमाल धरी। 


मधु सी मुसकान मनोहर है, हरि सुंदरता अति प्रेम भरी।


यमुना तट श्याम खड़े दरसे, मुरलीधर राधिक ध्यान धरी।।


 


 डॉक्टर धारा बल्लभ पांडेय 'आलोक'


अल्मोड़ा, उत्तराखंड।


दीपक "कविबाबु" मुज०(बिहार

नमन मंच


दिनांक 30 मई 2020


विषय आंखें


 


तुम्हारे आंखों को इंतजार है किसी का


खबरदार! अगर कोई रोका तो


संकुचित विषम परिस्थिति में भावना को


कोमल कली सी खिलती अंतर्मन


इस जग में मेरा भी कोई अपना होता तो


 


मेरी आंखें कुछ निहार रही है


स्वप्न में तुम्हारी चित्र उतार रही है


रोती_ बिलखती तुम्हें पुकार रही है


खुद को खुद ही यह संवार रही है


 


मेरी आंखों से तुम्हारी आंखों तक


अनबुझी पहेली सी एक बातों तक


राहों में तुम्हारी राह देखकर


अपनी पलकों को भींगा रही है


 


उठता प्रश्न आंखों का कसूर कौन है?


अब इस जहां इन वादियों में


अनजान कातिल वह वेकसूर कौन है?


 


दीपक "कविबाबु"


मुज०(बिहार)


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मालिक तेरे हाथ में है जिंदगी की गाड़ी।


दुःख से रखो या सुख से मैं तो हूँ अनाड़ी।।


 


कामी बन घूम रहा हूं मैं तो जग में स्वामी।


मोह जाल में बंधकर भूला अंतर्यामी।।


 


दुर्गम पथ है जीवन के रहूँ न नाथ पिछाड़ी।


दुःख से रखो या सुख से मैं तो हूं अनाड़ी।।


 


सदा मंजिल की ओर बढूं हिय में तेरा नाम।


हार जीत की परवाह नहीं यदि मिलें सुखधाम।।


 


राधा कृष्ण के स्मरण की मिलती रहे दिहाड़ी।


दुःख से रखो या सुख से मैं तो हूं अनाड़ी।।


 


सत्य जीवन के हिय मर्म तुम्हीं हो नारायण।


हर सांस समर्पित कर मैं करूं नाथ परायण।।


 


मनमोहन की मूरत रहे सदा नयन अगाड़ी।


दुःख से रखो या सुख से मैं तो हूं अनाड़ी।।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः💐💐💐💐💐👏👏👏👏👏


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


माहेश्वरी विष्णु असावा              बिल्सी जिला बदायूँ

आज माहेश्वरी वंशोत्पत्ती दिवस की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं


 


उत्पत्ति का दिवस हमारा प्रभु ने हमें बनाया


हर उत्सव से बढ़कर हमने अपना पर्व मनाया


 


है महेश नवमी की तिथि ये हमें हर्ष है भारी


इसी दिवस से सींची प्रभु ने माहेश्वरी क्यारी


 


हैं सन्तान महेश्वर की महेश्वरी कहलाये


नगर-नगर और देश-देश में विश्व पटल पर छाये


 


इक्यावन सौ त्रेपनवाँ ये बर्ष लगा है आकर


गर्व से फूले नहीं समाते इस समाज को पाकर


 


शिवशंकर हैं जनक हमारे दक्ष सुता महतारी


इनके ही तो आशिष से ये फूल रही फुलवारी


 


बैसे हम भोले भाले सबका आदर करते हैं


आ जाये जब बात मान की नहीं कभी डरते हैं


 


सेवा त्याग अरु सदाचार का रस्ता हम अपनाते


हर बूड़े अरु बड़े वृद्ध को झुककर शीश नवाते


 


उनका जब आशीष मिले हम गद्-गद् हो जाते हैं


प्रेम प्यार के गीत खुशी में मद होकर गाते हैं


 


दीप जलाके लगाके चन्दन हम वन्दन करते हैं


शिवशंकर भगवान तुम्हारा अभिनन्दन करते हैं


 


जय महेश जय महेश्वरी का नारा प्रबल हुआ है


बनी रहे अनुकंपा सब पर प्रभु से यही दुआ है


 


शुभकामनाएं इन शब्दों के साथ-साथ स्वीकारो


सामाजिक बन्धू सब मिलकर अब दीपों को वारो


 


सबसे है अनुराग हमें हर कोई हमको प्यारा


भारत का हर प्राणी अपना भारत देश हमारा


 


🌹🙏🏻🙏🏻🌹🌹🙏🏻🙏🏻🌹🙏🏻🙏🏻🌹


 


           माहेश्वरी विष्णु असावा


             बिल्सी जिला बदायूँ


साहित्य समाचार

 


संस्कार भारती गाजियाबाद द्वारा ऑनलाइन अखिल भारतीय कविसम्मेलन विभाग संयोजक डॉ राजीव पाण्डेय के संयोजन में किया गया जिसकी अध्यक्षता दिल्ली के जाने माने गीतकार श्री ओंकार त्रिपाठी ने की।


श्रीमती कल्पना कौशिक की माँ वाणी वंदना से कवि सम्मेलन का शुभारंभ हुआ। उसके बाद उनकी कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार रहीं


मैं समय हूँ तुम्हारा संभालो मुझे।


घट रहा हूँ मैं पलपल बचालो मुझे।


कविसम्मेलन के संयोजक डॉ राजीव पाण्डेय ने देश भक्ति से ओतप्रोत मुक्तक पढ़ा


नासूर मिटाया है फिर भी, प्रश्न अधूरा लगता है।


झंडा शासन अपने पर भी, जश्न अधूरा लगता है।


जब से हटी तीन सौ सत्तर,अन्तर्मन है खुश लेकिन,


पाक अधिकृत कश्मीर बिना,स्वप्न अधूरा लगता है।


पिलखुआ से श्री अशोक गोयल ने कोरोना विषय पर पढ़ा


कोरोना घातक है लेकिन घबराना तो ठीक नहीं, 


लापरवाही से यहाँ वहाँ पर आना जाना ठीक नहीं l


कवि सम्मेलन के अध्यक्ष श्री ओंकार त्रिपाठी ने विशुद्ध साहित्यिक गीत पढ़ते हुए कहा


जलधि में डूबने का नाम जीवन है। 


जलधि के ज्वार-भाटे मत गिनाकर तू।


युवा कवयित्री गार्गी कौशिक ने माँ विषय पर गीत में भाव व्यक्त किये


जब से तुझको देखा दिल मे प्यार पले।


तेरे आ जाने से दिल के द्वार खुले।


नोयडा के दीपक श्रीवास्तव की इन पंक्तियों पर काफी प्रशंसा मिली


जाने क्यों ढूंढे अनन्त को,


जब तक है प्राणों का बन्धन।


बड़ौत से सुरेन्द्र शर्मा 'उदय' की इन सारगर्भित पंक्तियों को काफी सराहना मिली


नदियाँ थी मेरी सूखकर तालाब हो गई।


आदमी की सोच ही खराब हो गई।


पिलखुआ से इंद्रपाल सिंह ने कहा


दूर है मंजिल अभी पर हौसला जाने न पाए ।


रात काली है ये माना ग़म कहीं छाने न पाए।


हैदराबाद से मंजू भारद्वाज की श्रृंगार में पढ़ा


प्रेम की हद पर एक लकीर खींच दी हमने,


उस हद से गुजरने की कोशिश न करना।


शामली के कवि पंडित राजीव भावज्ञ का मुक्तक की दो पंक्तियां दृष्टव्य हैं


 वाणी में अभिव्यक्ति का संसार है।


डूबते-मन के लिए पतवार है।।


गाजियाबाद के ग़ज़लकार श्री सुरेन्द्र शर्मा के शेर काफी सराहे गये।


हरिद्वार,मक्का,ननकाना जो जाते हैं जाएं वे


हमको तो बच्चों की आंख में सारे तीर्थ दीखें हैं।


संस्कार भारती मेरठ प्रांत के सह महामंत्री श्री चन्द्रभानु मिश्र, जिला संयोजक डॉ जयप्रकाश मिश्र, महासचिव डॉ अनिल वशिष्ठ, सह सचिव सोनम यादव, ममता राठौर,अतर सिंह प्रेमी, लोनी रीता जयहिंद,रचना वानिया, मेरठ, राजेश मंडार,बागपत,शशि त्यागी अमरोहा आदि कवियों के गीत ग़ज़ल छंदों ने कवि सम्मेलन में चार चाँद लगा दिए।


कवि सम्मेलन का संचालन अनुपमा पाण्डेय भारतीय और नन्द किशोर सिंह 'विद्रोही' ने संयुक्त रूप से किया। कार्यक्रम के संयोजक डॉ राजीव पाण्डेय ने धन्यवाद ज्ञापित किया।


प्रेषक


 डॉ राजीव पाण्डेय


विभाग संयोजक


संस्कार भारती गाजियाबाद


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

बासुरी बेसुरी हो गयी ,पंखुड़ी गुलाब कि कटीली हो गयी ।      


सुर बेसुरा हो गया ,साज सब सजा हो गयी ।।                    


गीत ,ग़ज़ल , संगीत उबाऊ हो गयी । इंसान बेजार ,जिंदगी बंजर हो गयी।।                         


 


जिन्दा है रिश्तों कि बेवफाई हो गयी।


कहर का करिश्मा रिश्ते, नाते जहाँ ,जमाना हो गया बेगाना ।


पास नहीं क़ोई आता जिस्म को हाथ नहीं क़ोई लगाता । 


 


पैदाइश बेकार हो गयी जिंदगी जान कि बेजान हो गयी।।       


 


खौफ है ख़ास का ही खास से मिट जाना। तन्हाई कि परछाई मौत से बड़ी हो गयी । इंसा ,इंसा का कातिल कभी हथियार कि धार से कभी जबान कि तलवार से करता एक दूजे का कत्ल ।                            


इंसा दो धार हो गया जिंदगी जज्बात कि मार हो गयी।।


जिन्दा जिस्म से क़ोई रिश्ता नहीं निभाता।                                  


रिश्तों का मिज़ाज़ बदल गया है रिश्तों का समाज बदल गया है। इंसान खुद का जिन्दा लाश ढो रहा है, जिंदगी बोझ बन गयी है।।


 


कितना बदल गया है इंशा,और क्या बदलना है बाकी ।     


 


इंसान बदलने का रियाज कर् रहा है। दिलों के दरमियां प्यार ,मोहब्बत का एहसास अभी बाक़ी। 


 


मिलने जुलने का रस्म ,रिवाज हुआ ख़ाक । एहसास ही रह गया बाक़ी 


व्यवहार हुआ साफ़। 


इंसा फड़फड़ा रहा निन्दगी जंजाल बन गयी है।।


 


एहसास अजीब जज्बा इंसा हैरान परेशान है । बदल रहे मिज़ाज़अब शक्लों के बदल गए शाक ।     


इंसा ताकत कि साक कि तलाश में भटकता। बैठ रहा शाक कि ख़ाक पर यकीन एतबार लूट रहा है।  


 


इंसान का मौजू बदल गया जिंदगी मायने ढूढ़ती है।।


                            


 


खौफ मंडरा रहा है ,इंसान इधर उधर भाग रहा है।   


 


शहर छोड़ कर गांव में आया ,गावँ छोड़ कर अब जाना किधर है। इंसा मझधार में फंस गया है जिंदगी तूफ़ान में जनजाल बन गयी है।।


 


कायनात भी खामोश गवाही दे रही है जहाँ में इंसा कि तबाही देख रही है ।                      


जन्नत ,दोजख दोनों ही जहाँ में इंसान के करम का करिश्मा कह रही है। चमन में बहार बागों में फलों से लदे डाल । सुबह भौरों का फूलों कलियों कि गली में गुंजन गान ।            


कोयल कि कु कु मुर्गे कि बान कहानी लग रही है। दहसत में है इंसा जिंदगी खुद के जाल में फंस गयी है।   


 


सुबह सूरज कि लाली कि चमक दमक दब रही है।                


 


कागा ,श्वान ही दीखते है आम जहाँ में रौनक कि सुबह शाम।


 


च्मगाधड़ कि मार पड़ रही है। इंसान है घायल जिंदगी कराह रही है।।


                                                                            शेर हुये ढेर अब गीदड़ ही शेर बहुत है शोर।   


 


जिंदगी थम गयी है सांस धड़कन की जिंदगी कट रही है। 


 


फिजाओ कि हवाओ में है जहर जहर ही जान बन गयी है।    


 


इंसान हो गया जहरीला जिंदगी ठहर गयी है ।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


निशा"अतुल्य"

*राधिका*


31.5.2020


 


राधिका तूने सृष्टि रचाई 


सृष्टि रचाई तूने तेरे मन भाई ...2


सृष्टि रचा के तू मेरे मन भाई 


राधिका तूने सृष्टि रचाई 


 


सुन्दर चाँद तारे,धरती निहारें


सूरज की बिंदिया झलकारे


फिर हो सब के आधीन,मेरे मन भाई


राधिका तूने सृष्टि रचाई ....


 


अन्न उपजाती फूलती फलती


धीर गम्भीर तुम हो पृथ्वी सी


पालन किया तूने,मेरे मन भाई 


राधिका तूने सृष्टि रचाई ....


 


निर्मल जल बन बहती रहती 


कभी यमुना सी कभी गंगा सी


प्यास बुझाई तूने मेरे मन भाई


राधिका तूने सृष्टि रचाई ....


 


प्राण वायु सी बन कर बहती 


निर्मल चित तन सुन्दर करती 


जीवन प्राण दिया तूने, मेरे मन भाई


राधिका तूने सृष्टि रचाई ....


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


डॉ हरिनाथ मिश्र

एक प्रयास 


क़ुदरत का है कमाल या इंसान का फ़ितूर।


होता है प्यार कैसा बता दो मेरे हुज़ूर??


          मत तोड़ना कली को चटका के मेरे यार।


          है क़ाबिले दीदार कोमल कली का नूर।।


जीवन का रंग बसंती हो जाए तो बेहतर।


इसकी ही है जरूरत यही मुल्क़-ए-ग़ुरूर।।


         होता नहीं हासिल है कुछ,आँसू बहाने से फ़क़त।


         जंग-ए-आज़ादी का बस है त्याग ही दस्तूर।।


माली बग़ैर गुलशन तो रहता नहीं है खाली.


डूबा हुआ ये सूरज निकलेगा फिर जरूर।।


         कहता है छोटा दीपक सुन लो ऐ आफ़ताब।


         रहता मेरा है क़ायम बदली में भी सुरूर।।


देके ज़रा सा ध्यान अब तो सुन लो नामदार।


चहिए अमन व चैन को बस एकता भरपूर।।


                           ©डॉ. हरि नाथ मिश्र


                              9919446372


संजय जैन (मुम्बई

*रात हो या सवेरा*


विधा: कविता


 


दर्द की रात हो या, 


सुख का सवेरा हो...।


सब गंवारा है मुझे, 


साथ बस तेरा हो...।


प्यार कोई चीज नहीं,


जो खरीदा जा सके।


ये तो दिलो का,


दिलो से मिलन है।।


 


प्यार कोई मुकद्दर नहीं,


जिसे तक़दीर पे छोड़ा जाए।


प्यार यकीन है भरोसा है,


जो हर किसी पर नहीं होता।


मोहब्बत इतनी आसान नहीं,


जो किसी से भी की जाएं।


ये तो वो है जिस पर,


दिल आ जाएं।।


 


चूमने को तेरा हाथ,


जो में तेरी ओर बढ़ा।


दिलमें एक हलचल सी,


मानो मचलने लगी।


क्या पता था आज,


की क्या होने वाला हैं।


ये तो अच्छा हुआ,


कि कोई आ गया।।


 


वरना दो किनारों का,


आज संगम हो जाता।


और मोहब्बत करने का,


अन्जाम सभी को दिखता।


दर्द का इलाज यारो,


दर्द ही होता है।


जो दर्द को सह जाते है,


वो ही मोहब्बत कर पाते है।।


 


पता नहीं लोग मोहब्बत को,


क्या नाम देते हैं…।


हम तो तेरे नाम को ही,


मोहब्बत कहते हैं…।


हर उलझन के अंदर ही,


उलझन का हल मिलता है।


कोशिश करने से ही,


सुंदर कल मिलता है।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


31/05/2020


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

"मन ठहरा मन बहता"


मन की गति न जाने कोई


जो जाने सो योगी होई


मन्थर चले पवन ज्यों बहती


मन भी उड़े संग ज्यों तितली


मन पर चले न कोई शासन


ध्यान, योग लाये अनुशासन


मन बहता सरिता सम पल-पल


ठहरे तो बन जाये जड़ सम


चंचल, चपल है मन अभिमानी


कसै डोर तो बने वो ज्ञानी


इत -उत उडै फिरै भँवरा सा


एक पल ठहर होए पगला सा


बहता मन प्रतिपल सुख बाँटे


ठहरा मन देखे न आगे


बहता मन स्वच्छन्द विचरता


ठहरे मन प्रभु भजन मैं रमता


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--दो काफ़ियों में


 


अगरचे इक घड़ी को मेरी यह तदबीर सो जाती 


किसी की ज़ुल्फ़ ही मेरे लिए ज़ंजीर हो जाती 


 


कहीं भी चैन से रहने नहीं देती है यह ज़ालिम


ये तेरी याद जो हर दिन नई इक पीर बो जाती


 


हमारे प्यार का छप्पर कभी यह गिर नहीं पाता 


निगाह-ए-यार गर  बनकर खड़ी शहतीर हो जाती 


 


ये आहों की नदी बहने न दी आँखों से यूँ हमने 


क़िताब-ए-दिल पे यह लिक्खी हुई तहरीर धो जाती 


 


किसी के हुस्न की रानाइयों में यूँ नहीं डूबे 


यही था डर हमें तेरी कहीं तस्वीर खो जाती


 


हमीं ने तोड़ दी तक़दीर की ज़ंजीर ऐ- *साग़र*


वगरना उम्र भर  इंसान की तदबीर सो जाती 


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल         महराजगंज, उत्तर प्रदेश

शीर्षक - नशा 


 


नशा करे जो आह भरे,


लग जाये जीवन पे विराम


प्रेम पिलाया जो पिये


नशा करे हर सुबहे शाम।


 


कश लेने पे लगाओ विराम,


जप रघुपति राघव राजा राम।


 


क्यों करते हो नशा डटकर,


लिये हाथ में लिये साथ।


संकट जब बढ़ जायेगा


कैसे दोगे अपनों का साथ।


 


जीवन से मुक्त हो जाओगे,


साथ नहीं देंगे ऐसे में राम।


 


परिवारों पर दो तुम ध्यान, 


रटते रहो राम का नाम।


लेते रहोगे जब कश पर कश


नहीं मिलेगा कहीं सम्मान।


 


नहीं करोगे ढंग से काम,


बदहाली धायेगी हर सुबहे शाम।


 


जीवन है अनमोल तुम्हारा


बनो किसी का तुम सहारा


छोड़ो अपनी बुरी आदतें


नशा न हो अब तुमको प्यारा।


 


फ्री में हो जाओगे ऐसे बदनाम,


मिलेगा नहीं फिर कभी सम्मान।


 


रचना - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


 


        महराजगंज, उत्तर प्रदेश ।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" नई दिल्ली

दिनांकः ३१.०५.२०२०


दिवसः रविवार


विधाः गज़ल


शीर्षकः कमसीन ख्वाव


तुम मेरी ख्वाईशें अरमान मेरे,


तुम नशा जीवन बनी गुल्फा़म मेरे,


कर मुहब्बत मुझी से इतरा रही हो,


बफाई मझधार में तरसा रही हो।  


 


पड़ी थी दिनरात प्रिय के विरह में,


बन चकोरी सावनी अश्रु भर नयन में,


बिन पानी मीन सम तड़पती रही हो,


प्यार की रुख्सार समझती नहीं हो।


 


 माना तुम कमसीन ख्वाव हो मेरे,


 कुदरती नूर दिली दिलदार हो मेरे,


 पिलाई नशीली जाम जानती हो,


 इश्क के शागिर्द हम तुम मानती हो। 


 


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित)


नई दिल्ली


प्रखर दीक्षित* *फर्रुखाबाद

*मुक्तक*


 


*ये बाट कौन सी*


 


भाव उर में प्रवर प्रेम शब्दों में भर, लेखनी तव गढ़े क्या श्रृंगार ये ।


दृग मदिर अधखुले नेह उर में पले, तिय अधर पिय पढ़े क्या उद्गार ये।।


स्वप्न दिन में दिखें गीत प्रणयन लिखें, अंध पथ पग बढ़े ये बाट कौन सी,


कोई सुने जो कहे प्रीत पिऊ संग बहे, हम विलोमित लड़े क्या प्रतिकार ये।।


 


*प्रखर दीक्षित*


*फर्रुखाबाद*


कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

*नहा रही है चिड़िया*


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बरखा रानी जम कर बरसों


देखो नहा रही है चिड़िया


जोर जोर से चू चू करती


खुशियां मना रही है चिड़िया।


 


इस चिड़िया की यही कहानी


जब भी बरसे जरा सा पानी


उड़ कर जल्दी से छत पर जाती


झट से नहा कर तुरन्त आ जाती।


 


मेघ गरजे मोर भी नाचे


सब खुशियों के गीत भी गाए


चिड़िया भी अपना गान सुनाएं


झट पट -झट पट चिड़िया नहाएं।


 


आज प्यासी धरा भी खुश है


पेड़ पौधे सभी सभी खुश हैं


जब भी सब चिड़िया को देखें


सभी कहे नहा रही है चिड़िया।


 


कितनी सुन्दर लग रही है


यह धरती और अम्बर


काले काले मेघों में भी


देखो नहा रही है चिड़िया।।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


अविनाश सिंह* *लेखक*

🌱🌱 *हाइकु*🌱🌱


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धरती माता


होती अन्न की दाता


क्यों बेच खाता।


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कोरोना युद्ध


परमाणु है फैल


प्रकृति खेल।


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सबने कहा


सब कुछ है पास


शांति विनाश।


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धन की भूख


तन से मिले सुख


रहना दूर।


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मन की शान्ति


खुले आसमान में


न शहर में।


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ट्रैन में मौत


सब ओढ़े चादर


है बेखबर।


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वर्षा का जल


दे मन को शीतल


जग निर्मल।


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दुर्गा पूजते


घर में है पीटते


मर्द बनते ₹।


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बेटी का जन्म


फैल गया सन्नाटा


चिंता सताता।


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दिया है सोना


फिर भी जोड़े हाथ


बेटी का बाप।


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दहेज भय


पिता को है सताये


उम्र घटाए।


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बेटी का दर्द


समझती है अम्मा


वह भी बेटी।


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मन मंदिर


होते है स्वच्छ द्वार


भर दो प्यार।


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*अविनाश सिंह*


*लेखक*


रवि रश्मि 'अनुभूति 'मुंबई

9920796787****रवि रश्मि 'अनुभूति '


 


   🙏🙏


 


  श्रीपद छंद 


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परिचय --- द्वादशाक्षरावृत्ति ( जगती )


गण संयोजन ----


   न त ज य


यति ---- 4 , 8 


विशेष ---- प्रति दो चरण समतुकांत ।


111 2 , 21 121 122


 


जग सखा , आज सुनो विनती भी ।


कर सको , तो कर लो गिनती भी ।।


दर खड़े , लो अब आकर सारे ।


चख सकें , आज सुधा रस धारे ।।


 


सफ़र में , साथ सदा हम पायें ।


मन कहे , गीत सुनो हम गायें ।।


दुख करो , दूर कहें अब सारे ।


मिल सकें , आज सभी सुख न्यारे ।।


 


सुमन - सा , कोमल भाव जगायें ।


जगत में , प्यार सभी हम पायें ।।


सुन सुना , दें हम आज कहानी ।


सुख मिले , देख न दीप निशानी ।।


 


चमकते , देख न दीप हमारे ।


जल रहे , दीप सभी उजियारे ।। 


जगमगा , रात रही मतवाली ।


 चमकती , रात रहे अब काली ।।


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(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


30.5.2020 , 7:49 पीएम पर रचित ।


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

परिचय डॉ अर्चना प्रकाश का जन्म ग्राम परौरी जिला उन्नाव में हुआ।गाँव के ही प्राथमिक विद्यालय से विद्यार्जन शुरू किया तो शिक्छा के उच्चस्तरो को प्राप्त करते हुए एम ए , बी एड , व एम डी एच् होम्यो की उपाधि प्राप्त की । ग्रहणी के दायित्वों के साथ कान्वेंट विद्यालयों में प्रधानाचार्या के पद को सुशोभित किया है । सार्थक लेखन सन 2000 से शुरू हुआ । पहली पुस्तक अर्चन करूँ तुम्हारा 2008 में प्रकाशित हुई ।अब तक आपकी कविता कहानी व भक्ति काव्य की सोलह किताबे प्रकाशित हो चुकी है।विभिन्न संस्थाओं से अब तक लगभग पैंतालीस पुरस्कार प्राप्त हो चुके है ।सन 2020 के चार पुरस्कार लॉक डाउन में रुके हुए है ।  


 


       कविताएँ -


 1- लॉक डाउन -; 


लॉक डाउन सुना रहा , मौन का सम्वाद हमें । सड़को पर बिखरे सन्नाटे , 


बाजार मॉल्स आहट को तरसे ! 


ऑफिस चौराहे सुनसान ,


हर तरफ पुलिस परेशान !


गोमती लेती उबासियां ,


नावों पतवारों का इंतजार !


पार्क स्टेडियम भी वीरान,


रेल पटरियां पूछे स्टेशन से ,


कब गूंजे गी रेल सीटियां ?


हो गा कब मुसाफिरों का आगाज ? 


सुनहली सांझ में भी ,


प्रेमियों की जिंदादिली क्यू मौन ।


  ये सब करते मुखर सम्वाद ,


सन्नाटे देते है नई उम्मीदें. 


 ये जगाते है नए विश्वास ,


 दौड़ेगा फिर से ये देश ,  


 विजय की हो गी झंकार !


 देश का हर कोना गुलशन हो गा ,


कोई न कहीं बंदिश हो गी ! 


गाँव शहर फिर दौड़ेगा ,


हर चेहरे पर खुशियां होंगी । 


अर्चना प्रकाश


 


कविता -2 


सैन्य वेदना ; 


तपती रेती सा मन ,


दहके अंगारो सा मन ! 


कब तक सहते रहेंगे , 


जेहादी के थप्पड़ !


सैनिक हम भारत माँ के ,


सत्ता ने दी है लाचारी !


हाथों में शस्त्र लिए , पत्थरबाजों से पिटते ।


दो कौड़ी के आतंकी ,


वर्दी अपमानित करते ।


अजब वेदना सेना की ,


मजबूरी मर मर जीने की ।वीर जवानों की निराशा ,


 फूटेगी बन कर ज्वाला ।


जागेगा जब शूर वीर देश का ,


जेहादी बच न पाएंगे ।


सत्ता के भूखे जेहादी कश्मीर न तुम पाओगे ,


ये सैनिक है भारत माँ के ,


 कश्मीर है इनकी आन!


 कश्मीर है भारत की शान ।


 अर्चना प्रकाश लखनऊ


 


कविता -3


युद्ध के अभियान में ;


 


नारियां अब चल पड़ी हैं यद्ध के अभियान में ।           


हौसलों के तरकश धरे ,         


रूढ़ियों पर सर सन्धान है बन्दिशों की ओढ़नी ले ,       


सुलगते प्रश्न मन मे भरे ।।        


बेड़ियों के जख्म है पाँव में ।


ठोकरों से हो निडर अब ,  


बढ़ रहीं मान के संग्राम में ! 


नारियां अब चल पड़ी है , युद्ध के अभियान में ।।             


अस्मिता के दंश गहरे ,    


दर्द देते कुटिल चेहरे ।             


जीवन के इस हिसाब में ,   


बदले नियम गुणा भाग के,


रुके गा नहीं अब ये समर ,


सपनों की बुलन्द कमान में ।


नारियां अब चल पड़ी है , 


युद्ध के अभियान में ।              


साथ कोई हो न हो ,                   


रिश्तों की सांकल न हो ।  


छल छद्मद्वेष व्यूह तोड़े ,    


राहें कठिन से मुँह न मोड़े,


त्योरियों पर सिंहनी की शान है ,


कोमल उमंगें ढली चट्टान में । 


नारियां अब चल पड़ी है ,


युद्ध के अभियान में !


 


     डॉ. अर्चना प्रकाश


 


कविता - 4, 


अभावों में ;        


अभावों में भाव बहुत हैं , निर्धनता में आस बहुत है । निम्न मलिन बस्तियों में , स्वप्निल पंख उड़ान बहुत है। सोने चांदी के सिक्कों में , अपनेपन का राज़ बहुत है । फ़टे चीथड़ों में पलने वाले , इस युग में गोपाल बहुत है ।जर्जर वृद्ध अस्थियों में , अतीत का अभिमान बहुत है ।पीड़ाओं के सागर में , खुशियों की आस बहुत है । उजड़े वीरान खण्डहरों में , सुन लो तो चीत्कार बहुत है ।बच्चों की अटपट बोली में , सच्चे मन का प्यार बहुत है ।मैली अधनंगी नारी में , सुंदरता का सार बहुत है । अर्चना प्रकाश लखनऊ


 


कविता 5 -


दिल वालों की बस्ती में -; दिल वालो की बस्ती में , 


ऊँचे लोगों का काम नहीँ । सरस् विनोदी बतकही में , कसमें वादों का नाम नहीँ । सीधी सरल जिंदगी में , सोने चांदी का काम नहीँ । प्यार के हर पैमाने पर, ऊँची हस्ती नाकाम रही । 


 टूटे सपनों की बस्ती में , उम्मीद की नन्हीं आस रही । कुछ बातें लोगों से आयीं , इन बातों के सिर पैर नहीँ । मुद्दतों में दिल मिलते है ,   


 ये मंजिल आसान नहीँ । जिस जग में रहते हम , छल प्रपंच बिन शाम नहीँ ।  


अर्चना प्रकाश लखनऊ ,


मो 9450264638 ।


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--


 


अपनों से मेरा अब तो रहा सिलसिला नहीं


मुझको तो एक ख़त भी कोई भेजता नहीं


 


भटका कहाँ कहाँ मुझे ख़ुद पता नहीं


इस ज़ीस्त के नसीब में इक रहनुमा नहीं 


 


पहुँचा हूँ मैं कहाँ कि जहाँ रास्ता नहीं 


मेरा ही मुझसे अब तो कोई वास्ता नहीं


 


अब तो मेरे ख़याल में आजा मेरी ग़ज़ल


कमरे में मैं ही मैं हूँ कोई दूसरा नहीं


 


इतना करम न मुझपे करो मेरे दोस्तो


मैं भी तो आदमी हूँ कोई देवता नहीं


 


काँटों से अपने घर को सजाने की आरज़ू


फूलों की बात क्यों ये बशर सोचता नहीं 


 


ऐसे जले चराग़ कि दुनिया ही जल उठी 


हँसते हुए किसी को कोई देखता नहीं 


 


मेरी हँसी उड़ाओ न ऐसे भी दोस्तो


तुम बादशाहे-वक़्त हो लेकिन ख़ुदा नहीं


 


इतना चला हूँ धूप में चेहरा झुलस गया 


साये का दूर दूर भी कोई पता नहीं


 


मजबूरियों के बोझ से बिकता रहा हूँ मैं 


*साग़र* ज़मीर मेरा बिका है मरा नहीं 


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


 


 


जुलाई 1996


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जाड़े में ठिठुरता, तपिस तपन झुलसन बरसात कि मार ।   


 


आंधी हो या तूफ़ान लोक तंत्र का चौथा स्तम्भ प्राण ।।


                                               जन ,जन तक पहुँचता पल, प्रहर कि सूचना खबर का ब्रह्माण्ड ।                         


 


 जज्बा जवान राष्ट्र के स्वाभिमान कि पहचान ।।                      


 


इरादे बुलंद चाहे देश कि सीमा हो या खतरों का बवाल ,जंजाल ।।   


 


हर जगह प्रथम उपस्थिति ,स्तिति परिस्तिति कि बाज दृष्टि का जाबांज़।                           


 


भाषा कि मर्यादा हिंदी हिंदुस्तान का सत्कार ।।                      


 


चली जाए चाहे जान बिकने नहीं देता ईमान।


                  


खतरों में भी सयंम संकल्प कि परिभाषा सम्मान ।।


 


साहस शौर्य ,हिम्मत कवच दृढता का अडिग चट्टान।             


 


झुकता नहीं ,टूटता नहीं ,नहीं करता विश्राम ।।                   


 


सच का साथी अन्याय,अत्यचार का प्रतिकार ।     


 


 मजबूर ,मज़लूमो ,का दुःख ,दर्द बांटता हिंदी का संस्कृति संस्कार।।      


                       


 ओजस्वी तेजस्वी हिंदुस्तान का पत्रकार।।                           


 


हिंदी पत्रकारिता दिवस पर ढेर सारी बढ़ाई एवम् शुभ कामनाएं


 


           


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


 


 


डॉ. सुषमा कानपुर

*अक्षयपात्र*


घर में बांस की खटिया पर बैठी भाभी के हाथ की कटहल की पकौड़ी खाते हुए याद आया कि बेटे ने कुछ खाया होगा या नही!यही सोचकर फोन मिला दिया।


फोन बेटे की जगह उसके सहपाठी मित्र ने उठाया,"आंटी जी अभी वो पकौड़ी बना रहा है,और हम तीनों खा रहे हैं, आज पकौड़ा पार्टी हो रही है।


हमने फोन काट दिया और शकून से खाने लगी।


थोड़ी देर बाद बेटे का फोन आया।


मम्मी ये बेसन डिब्बे में तो थोड़ा सा दिख रहा था,पानी डालने के बाद बहुत हो गया,चार प्याज डाली तो पता ही नही चला फिर हमने छः प्याज हरी धनिया जीरा और मिर्च और डाल लिया।आधी परात भर गई ।


इतने पकौड़े बनते गए कि जैसे परात न होकर #अक्षयपात्र हो।


इसीलिए तीनों दोस्तो को बुला लिया। पकौड़ी हमने बनाई बर्तन इन लोगों ने धोया और किचन भी साफ कर दिया।


हमको कोई काम नही करना पड़ा।


"बेटा वो एक किलो बेसन था जिसमे से केवल एक दिन कढ़ी बनाई गई थी।"


हँय🤔


@


*अक्षयपात्र*


घर में बांस की खटिया पर बैठी भाभी के हाथ की कटहल की पकौड़ी खाते हुए याद आया कि बेटे ने कुछ खाया होगा या नही!यही सोचकर फोन मिला दिया।


फोन बेटे की जगह उसके सहपाठी मित्र ने उठाया,"आंटी जी अभी वो पकौड़ी बना रहा है,और हम तीनों खा रहे हैं, आज पकौड़ा पार्टी हो रही है।


हमने फोन काट दिया और शकून से खाने लगी।


थोड़ी देर बाद बेटे का फोन आया।


मम्मी ये बेसन डिब्बे में तो थोड़ा सा दिख रहा था,पानी डालने के बाद बहुत हो गया,चार प्याज डाली तो पता ही नही चला फिर हमने छः प्याज हरी धनिया जीरा और मिर्च और डाल लिया।आधी परात भर गई ।


इतने पकौड़े बनते गए कि जैसे परात न होकर #अक्षयपात्र हो।


इसीलिए तीनों दोस्तो को बुला लिया। पकौड़ी हमने बनाई बर्तन इन लोगों ने धोया और किचन भी साफ कर दिया।


हमको कोई काम नही करना पड़ा।


"बेटा वो एक किलो बेसन था जिसमे से केवल एक दिन कढ़ी बनाई गई थी।"


हँय🤔


@


डॉ0 सुषमा


 कानपुर


डॉ. हरि नाथ मिश्र

बाँसुरी-


बाँसुरी बेसुरी हो गयी है।


पंखुरी खुरदुरी हो गयी है।।


         ऐसी घड़ियाँ न थीं कभी पहले,


         ऐसी बातें न थीं कभी पहले।


          बात कैंची-छुरी हो गयी है।।


                           बाँसुरी बेसुरी...


प्रेम के बोल थे तब सुहावन,


नाते-रिश्ते भी थे बहु लुभावन


दोस्ती अब बुरी हो गयी है।।


                बाँसुरी बेसुरी....


आबो-हवा से सँवरती थी सेहत,


करती नफ़रत नहीं थी यह कुदरत।


अब वही आसुरी हो गयी है।।


                  बाँसुरी बेसुरी....


आस्था की शिला की वो मूरत,


जिसकी मजबूत थी हर परत।


रेत सी भुरभुरी हो गयी है।।


                  बाँसुरी बेसुरी....


ठोस थी नीवं इल्मो-हुनर की,


अपनी तहज़ीब की ,हर चलन की।


आज वो बेधुरी हो गई है।।


                  बाँसुरी बेसुरी....


अपनी धरती जो थी स्वर्ग जैसी,


पाप बोझिल जहन्नुम-नरक की-


अब मुक़म्मल पुरी हो गयी है।।


                बाँसुरी बेसुरी....


हो जाती थी नम आँख जो तब,


ग़ैर की हर ख़ुशी-ग़म में वो अब-


किस क़दर कुरकुरी हो गयी है।।


                    बाँसुरी बेसुरी....


                                      ©डॉ. हरि नाथ मिश्र


                                           9919446372


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 

'हिन्दी पत्रकारिता दिवस' 


           30 मई पर एक कविता 


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आज ही का शुभ दिन जब 


पहला हिन्दी अखबार छपा, 


हिन्दी भाषी लोगों में जब 


जुगुल किशोर का प्यार छपा। 


 


हिन्दी पत्रकारिता दिवस की 


हिन्दी जगत् को बहुत बधाई, 


हिन्दी के दुर्दिन काल में तब 


हिन्दी का सूरज दिया दिखायी। 


 


पराधीन उस काल खण्ड में 


जन-जन का उद्गार छपा।....... 


 


तीस मई अट्ठारह सौ छब्बीस 


हिन्दी का परचम लहराया, 


"उद्दन्त मार्तण्ड " नाम पड़ा 


साप्ताहिक अखबार छपवाया। 


 


भ्रष्ट, क्रूर, व्यभिचारी, हिंसक 


अंग्रेजों का अत्याचार छपा।....... 


 


कोटि-कोटि नमन करता हूँ 


लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का, 


उस सत्य के सत्यार्थी का 


प्रहरी, अन्वेषक आलम्ब का।


 


विचार विनिमय सफल हुआ, 


स्वतंत्रता का संचार छपा।.... 


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०) मो० नं० 9919886297


सत्यप्रकाश पांडेय

गोविन्द मेटों शूल.....


 


रास रचैया कृष्ण कन्हैया


माँ यशोदा के लाल


गोप बधुओं की जीवन पूंजी


नन्दनन्दन गोपाल


 


पाकर के तेरा प्रेम आश्रय


छोड़ दई लोक लाज


कृष्ण रंग में रंगी सांवरे


तेरी हो गईं आज


 


डार मोहिनी चित्त हर लीन्हों


मनुवा हुओं बेहाल


बिन देखे जलें विरह अनल में


लता पता लगें काल


 


आलिंगन कर अधरपान करो


माधव बनो अनुकूल


गोप बाला हो गईं बाबरी


गोविन्द मेटों शूल।।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


 


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

बुझे दिए जला दे ,अंधेरों में कर दे उजियारा। दिशा ,दृष्टि,दृष्टिकोण बता दे समझो कवि कि कविता है।।


 


 जीवन कि आपा धापी मृग मरीचिका । जीवन का उद्देश्य बता दे। समझो कवि कि कविता है ।।   


                                          गिरते, उठाते ,उलझे ,सिमटे जीवन कि राहों का । अवरोध हटा दे । समझो कवि कविता है।।                    


 


कायर में पुरुषार्थ जगा दे हतोत्साहित में उत्साह जगा दे।


समझो कवि कि कविता है ।।


 


थके हुये में उमंग का तरंग जगा दे पराजित को पथ विजय बता दे। समझो कवि कि कविता है।।    


 


युवा ओज का तेज बना दे युग को मूल्य मूल्यवान बना दे ।समझों कवि कि कविता है।।


 


 


मरुस्थल में दरिया ,झरना ,झील बहा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


 


खुली आँखों के सोये मन में चेतना कि जागृति ,जागरण जगा दे।


 समझो कवि कि कविता है।।


 


 पत्थर को मोम् बना दे ,लोहे के शस्त्र पिघला दे । समझो कवि कि कविता है ।।   


 


रक्त रंजीत तलवारों फूलों की बारिस करवा दे । फुलों को शूल ,शूल बना दे ,शूलों को फूल बना दे।     


समझो कवि कि कविता है।।


 


नदियां ,झरने, प्रकृति, प्राणी पशु ,पक्षी को श्रृंगार के आभूषण का आवाहन कर दे। समझों कवि कि कविता है।।


 


मजबूर ,मजलूम को अंतर मन कि शक्ति का आभास करा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


भटके को उद्देश्य बता दे मानव को मानवता मूल्य मूल्यवान बना दे।                                  


समझो कवि कि कविता है ।।


 


युग, समाज का संस्कृति ,संस्कार अतीत के दर्पण में वर्तमान कि शक्ल दिखा दे ।                


 


समझो कवि कि कविता है।।


 


 आत्मा का परम् सत्य ,परमात्मा में विलय करा दे । सूर ,तुलसी ,मीरा ,कबीर,रासखान


 कि भक्ति का भाव जगा दे।


 सिद्धार्थ को बुद्ध बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


 साधारण को 


असाधारण वर्तमान कि चुनौती बना दे । इतिहास का निर्माण करा दे पृथ्वी ,बरदायी का राग सुना दे। समझो कवि कि कविता है ।    


 


सूने मन में प्रेम के भाव जगा गोपी,राधा, कान्हा के प्रेम जगत का सार बता दे । समझो कवि कि कविता है ।।


 


कृपण, क्रोध को दांनबीर और सौम्य बना दे । कुटिल ,कठोर में दया , छमाँ का भाव जगा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


जीवन के कुरुक्षेत्र के संग्रामो का विजयी का शत्र शास्त्र बना दे। समझो कवि कि कविता है ।।


 


अज्ञान में ज्ञान का प्रकाश जला दे काली को कालिदास, हुलसी के तुलसी को तुलसी दास बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


मानव मन ,मस्तिष्क, ह्रदय में स्वतंत्रता के अस्ति ,अस्तित्व का भाव जगा दे । समझो कवि कि कविता है ।।  


 


खंड ,खंड को अखंड बना दे चाणक्य का चंद्र गुप्त बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


 परतंत्रता से लड़ते स्वतंत्रता के महारथियों को धरती माँ के स्वाभिमान में । रंग बसंती चोला केशरिया बाना पहना दे । समझो कबि कि कविता है ।।


 


पराक्रम ,त्याग ,तपश्या ,बलिदानों के अतीत का वर्तमान जगा दे। समझो कवि कविता है।।      


 


उदासी ,गम मायूसी में हास्य्, परिहास ,व्यंग ,मुस्कान कि फुहार वर्षा दे ।


समझो कवि कि कविता है।।


 


रस ,छन्द ,अलंकार से गीत, ग़ज़ल संगीत समारोह कि अलख जगा दे ।                           


समझो कवि कि कविता है।।


 


काल को मोड़ दे ,राह सारे खोल दे ,विकट ,विकराल को बौना बना दे । बौने को कराल महाकाल बना दे । समझो कवि कि कविता हैं।।


                                    


 कल्पना का सत्यार्थ प्रकाश शब्द शिल्पी के शब्दों का चमत्कार । समझो कवि कि कविता है।। 


 


नीर ,नदी ,का निर्झर ,निर्मल अविरल ,प्रवाह । सागर कि गहराई से उठता ज्वार भाँटा तूफ़ान का समय समाज कवि के धर्म ,कर्म कि बान।                               


 


कर्तव्य दायित्व बोध के कवि का शंखनाद भाषा साहित्य का साहित्य कार।


 


 युग ,समय ,समाज का संचार संबाद । कवि कीमकर्तव्य बिमुड़ हुआ यदि समझो लूट ,मिट गया। 


 


युग, समय समाज वर्तमान इतिहास।।                         


 


 कवि समय युग समय कि आवाज़ त्रेता का वाल्मीकि द्वापर का वेदपव्यास कलयुग का सुर,कबीर ,मीरा,बिहारी,रहीम वरदायी तुलसीदास।।       


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बरबुझे दिए जला दे ,अंधेरों में कर दे उजियारा। दिशा ,दृष्टि,दृष्टिकोण बता दे समझो कवि कि कविता है।।


 


 जीवन कि आपा धापी मृग मरीचिका । जीवन का उद्देश्य बता दे। समझो कवि कि कविता है ।।   


                                          गिरते, उठाते ,उलझे ,सिमटे जीवन कि राहों का । अवरोध हटा दे । समझो कवि कविता है।।                    


 


कायर में पुरुषार्थ जगा दे हतोत्साहित में उत्साह जगा दे।


समझो कवि कि कविता है ।।


 


थके हुये में उमंग का तरंग जगा दे पराजित को पथ विजय बता दे। समझो कवि कि कविता है।।    


 


युवा ओज का तेज बना दे युग को मूल्य मूल्यवान बना दे ।समझों कवि कि कविता है।।


 


 


मरुस्थल में दरिया ,झरना ,झील बहा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


 


खुली आँखों के सोये मन में चेतना कि जागृति ,जागरण जगा दे।


 समझो कवि कि कविता है।।


 


 पत्थर को मोम् बना दे ,लोहे के शस्त्र पिघला दे । समझो कवि कि कविता है ।।   


 


रक्त रंजीत तलवारों फूलों की बारिस करवा दे । फुलों को शूल ,शूल बना दे ,शूलों को फूल बना दे।     


समझो कवि कि कविता है।।


 


नदियां ,झरने, प्रकृति, प्राणी पशु ,पक्षी को श्रृंगार के आभूषण का आवाहन कर दे। समझों कवि कि कविता है।।


 


मजबूर ,मजलूम को अंतर मन कि शक्ति का आभास करा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


भटके को उद्देश्य बता दे मानव को मानवता मूल्य मूल्यवान बना दे।                                  


समझो कवि कि कविता है ।।


 


युग, समाज का संस्कृति ,संस्कार अतीत के दर्पण में वर्तमान कि शक्ल दिखा दे ।                


 


समझो कवि कि कविता है।।


 


 आत्मा का परम् सत्य ,परमात्मा में विलय करा दे । सूर ,तुलसी ,मीरा ,कबीर,रासखान


 कि भक्ति का भाव जगा दे।


 सिद्धार्थ को बुद्ध बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


 साधारण को 


असाधारण वर्तमान कि चुनौती बना दे । इतिहास का निर्माण करा दे पृथ्वी ,बरदायी का राग सुना दे। समझो कवि कि कविता है ।    


 


सूने मन में प्रेम के भाव जगा गोपी,राधा, कान्हा के प्रेम जगत का सार बता दे । समझो कवि कि कविता है ।।


 


कृपण, क्रोध को दांनबीर और सौम्य बना दे । कुटिल ,कठोर में दया , छमाँ का भाव जगा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


जीवन के कुरुक्षेत्र के संग्रामो का विजयी का शत्र शास्त्र बना दे। समझो कवि कि कविता है ।।


 


अज्ञान में ज्ञान का प्रकाश जला दे काली को कालिदास, हुलसी के तुलसी को तुलसी दास बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


मानव मन ,मस्तिष्क, ह्रदय में स्वतंत्रता के अस्ति ,अस्तित्व का भाव जगा दे । समझो कवि कि कविता है ।।  


 


खंड ,खंड को अखंड बना दे चाणक्य का चंद्र गुप्त बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


 परतंत्रता से लड़ते स्वतंत्रता के महारथियों को धरती माँ के स्वाभिमान में । रंग बसंती चोला केशरिया बाना पहना दे । समझो कबि कि कविता है ।।


 


पराक्रम ,त्याग ,तपश्या ,बलिदानों के अतीत का वर्तमान जगा दे। समझो कवि कविता है।।      


 


उदासी ,गम मायूसी में हास्य्, परिहास ,व्यंग ,मुस्कान कि फुहार वर्षा दे ।


समझो कवि कि कविता है।।


 


रस ,छन्द ,अलंकार से गीत, ग़ज़ल संगीत समारोह कि अलख जगा दे ।                           


समझो कवि कि कविता है।।


 


काल को मोड़ दे ,राह सारे खोल दे ,विकट ,विकराल को बौना बना दे । बौने को कराल महाकाल बना दे । समझो कवि कि कविता हैं।।


                                    


 कल्पना का सत्यार्थ प्रकाश शब्द शिल्पी के शब्दों का चमत्कार । समझो कवि कि कविता है।। 


 


नीर ,नदी ,का निर्झर ,निर्मल अविरल ,प्रवाह । सागर कि गहराई से उठता ज्वार भाँटा तूफ़ान का समय समाज कवि के धर्म ,कर्म कि बान।                               


 


कर्तव्य दायित्व बोध के कवि का शंखनाद भाषा साहित्य का साहित्य कार।


 


 युग ,समय ,समाज का संचार संबाद । कवि कीमकर्तव्य बिमुड़ हुआ यदि समझो लूट ,मिट गया। 


 


युग, समय समाज वर्तमान इतिहास।।                         


 


 कवि समय युग समय कि आवाज़ त्रेता का वाल्मीकि द्वापर का वेदपव्यास कलयुग का सुर,कबीर ,मीरा,बिहारी,रहीम वरदायी तुलसीदास।।       


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


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