भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"क्यों चले जाते हैं मीत?"*


(कुण्डलिया छंद)


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*सपनों का नित भान कर, भरे नहीं घट-रीत।


क्यों जाते हैं छोड़कर, दूर कहीं मन-मीत??


दूर कहीं मन-मीत, नेह आपस का तोड़े।


जाने किससे कौन, कहाँ कब नाता जोड़े??


कह नायक करजोरि, सुहाना क्षण अपनों का।


करता हृदय विदीर्ण, चक्र चंचल सपनों का।।


 


*होते अपने क्यों विलग? अपनों की तज प्रीति।


मेल कभी कब छूटना, अजब जगत की रीति।।


अजब जगत की रीति, कर्म जो करता जैसा।


जग में मिलन-विछोह, मिले फल उसको वैसा।।


कह नायक करजोरि, कभी हँसते कब रोते।


पल-पल खेल-अनेक, मिलन-बिछुड़न के होते।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

कथा एक सुनाता हूँ महाभारत के महायोद्धा कि बात बताता हूँ।


 


सारे यत्न प्रयत्न व्यर्थ ,युद्ध घोष कि दुन्धभि का बजना निश्चय निश्चित था।                          


 


 रथी ,अर्ध रथी ,महारथी युद्ध में लड़ने वाला हर योद्धा, युद्ध कौशल, शत्र ,ज्ञान का पारंगत था।।


 


अठ्ठारह दिन अवधि निर्धातित थी विजय वरण किसका करेगी छिपा काल के अंतर मन में था।।


 


 पितामह ,अर्जुन ,द्रोण कर्ण ,अगणित योद्धा को विजय विश्वास था ।।                       


 


हर योद्धा काल, विकट ,विकराल।था ।                                  


महाभारत के महायुद्ध का वर्तमान इतिहास था।।


 


वीर एक ऐसा भी धीर, वीर ,गंभीर युग में अज्ञात था।                  


 


चल पड़ा अकेले ही कुरुक्षेत्र कि विजय का पताका लिये हाथ । पल भर में ही युद्ध करने समाप्त करने का सौर्य संकल्प था।।


 


 केशव, मधुसूदन ,बनवारी गिरधारी को हुआ ज्ञात । नियत के निर्धारिण का क्या होगा? कुरुक्षेत्र में गीता के उपदेश निष्काम कर्म युग संदेस कौन सुनेगा?                            


 


 कृष्णा ने मार्ग में ही महायोद्धा से किया प्रश्न ।                        


कौन हो कहाँ जा रहे हो क्या है प्रयोजन।।                       


 


बर्बरीक है नाम हमारा , महाभारत का महा युद्ध लड़ने को मैं जाता हूँ ।                                 


 


पलक झपकते ही युद्ध समाप्त कर मैं विजय पताका मैं लहराता हूँ।                                      


 


सारे योद्धाओं को अभी मै कुरुक्षेत्र में चिर निद्रा का शयन कराता हूँ।।


 


कृष्ण ने नियत काल भाग्य भगवान् प्रारब्ध पराक्रम का दिया उपदेश दिया । हठधर्मी ने बर्बरीक ने एक भी नहीं सूना।                               


 


कृष्णा ने महाबीर बर्बरीक कि साहस, शक्ति ,शत्र ,शाश्त्र कि परीक्षा कि इच्छा का आवाहन ललकारा किया।               


बोले कृष्णा यदि एक बाण से बट बृक्ष के सारे पत्तों का भेदन कर दोंगे।


तेरी युद्ध कौशल वीरता के हम भी कायल हो जाएंगे ।              


 


फिर चुपके से बट बृक्ष का एक पत्ता अपने चरणों के निचे दबा लिया।।


 


बर्बरीक भी भाग्य भगवान कि परीक्षा को स्वीकार किया ।       


ललकार को धनुष वाण संधान किया । ।                    


 दक्षता कि परीक्षा का शंखनाद किया।


 


एक बाण से बट बृक्ष के सारे किसलय कोमल पत्तो का भेदन संघार किया।                     


 


जब लौटा बर्बरीक का बाण कृष्णा ने बट बृक्ष के सारे पत्तो का भेदन देखा।    


 


 वीर बर्बरीक 


अब भी एक पत्ता भेदन से वंचित है कृष्णा ने बोला ।             


 


बर्बरीक हे मधुसूदन देखो अपने चरणों के निचे ।                 


 


समस्त ब्रह्मांड कि परिक्रमा कर मेरा बाण आपके चरणों के निचे छिपे हुये पत्ते का भेदन कर लौटा है ।                                   


 


कृष्णा ने देखा चमत्कार के पराक्रम ,पुरुषार्थ को । बोले कर सकते हो नियत काल को पल भर में सिमित।।


 


दिखलाया आदि अनन्त स्वरूप् अपना बोले वर मांगों।     


 


बर्बरीक तब बोला मेरी मंशा मैं देंखु कुरुक्षेत्र के भीषण युद्ध को।


 


एव मस्तु कह कृष्णा ने चक्र सुदर्शन को आदेश दिया । बर्बरीक का मस्तक धड़ से अलग किया ।।                               


 


कटे हुए मस्तक को लटकाया कुरुक्षेत्र को दिखने वाली ऊंचाई पर ।                                  


 


बोले मधुसूदन इस युद्ध के हो तुम न्यायाधीश । बतलाओगे हार जीत के महारथी और तीर ।।


 


भयंकर युद्ध समाप्त हुआ कुरुक्षेत्र कि धरती वीरों के रक्त अभिषेक से लाल हुई।                   


 


अहंकार के मद में चूर आये विजयी बर्बरीक पास ।   


किया सवाल कौन बाली कौन महा बली?


कौन विजेता कौन पराजित?  


 


बर्बरीक तब बोला मधुसूदन लड़ता, मधुसूदन मरता ,जीता। मधुसूदन ही विजयी और पराजित ।                           


 


तुम सब मात्र निमित्त ,यह तो इस पर ब्रह्म कि लीला थी निर्धारित।


 


अहंकार के विजेता का अभिमान चूर हुआ असत्य पराजित सत्य पथ आलोकित का युग साक्षात्कार हुआ।।                             


 


बर्बरीक फिर बोला मेरे लिये क्या आज्ञा है।                           


 


कृष्णा ने आशिर्बाद दिया तुम कलयुग में मेरे जैसे पूजे जाओगे।


 


कलयुग में मेरे ही स्वरुप तुम खाटू श्याम कहलाओगे।।     


    


पुरुषार्थ ,पराक्रम ,प्रेरणा कि भारत कि गौरव गाथा पीताम्बर गा गया।                            


 


कृष्णा के निष्काम कर्म के युग कि महिमा बतला गया।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

सृजनहार की.............


 


सृजनहार की सृजना,


सृष्टि सुन्दर सौम्य।


शांतिमय संगीतमय,


शीतल और सुरम्य।


स्नेह सलिल से सींच,


सत्य सेे सुशोभित।


संवेदनाओं से संयुत,


सौभाग्य से सुमेलित।


सहजता से सरस,


सरलता से सुसंस्कृत।


सौन्दर्य से संरक्षित,


सुजनता से सुरक्षित।


सर्वज्ञ सर्वमान्य है,


सर्व गति श्रेष्ठ सुजान।


सृजेता की सामर्थ,


सृजकता का सुप्रमान।


सौभाग्य वह स्वामी,


सबका स्वाभिमान है।


सत्य की सम्पदा से ,


सफलता सुअभिमान है।


सच्चिदानंद सर्वेश्वर,


शत शत साष्टांग प्रणाम।


संसार सुभाशीष से,


स्वामी सदा ही निष्काम।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय🙏🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹🌹🌹


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


         *"मन"*


"सोचता रहा मन बावरा,


कैसे-बीते यहाँ जीवन?


आहत मन की भावना फिर,


क्यों- समझे न पागल मन?


भूले बीते पल को यहाँ,


कहाँ-मान सका फिर ये मन?


बढ़ता आक्रोश तन-मन में,


कब-तक सह सके उसको तन?


बने न विकृति मन में यहाँ,


पल-पल चाहता रहा मन।


रह मौन इस जीवन में फिर,


पाये राहत कुछ आहत मन।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


 


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 02-06-2020


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

सीमा शुक्ला


पति _राहुल कुमार शुक्ला


पता- मंझवा गद्दोपुर (रायबरेली रोड)


अयोध्या उत्तर प्रदेश


व्यवसाय- अध्यापन


बेसिक शिक्षा विभाग


शिक्षा- परास्नातक-


    १ समाजशास्त्र


     २ अंग्रेजी साहित्य


BP Ed training


 


9453998863


 


1 कविता शारदे वंदना


मां वन्दना


 


मात सुन लो हृदय से करूं वंदना।


मात जन-जन की सुन लो करुण वेदना।


 


मां मिटा दो सकल आज दुश्वारियां।


प्रेम की खिल उठें कोटि फुलवारियां।


है मुकद्दर बहुत आज बिगड़ा हुआ।


हर तरफ है चमन आज उजड़ा हुआ।


 


मां करो आज सबकी सफल साधना।


मात जन-जन की सुन लो करुण वेदना।


 


मां मिटा दो अंधेरी अमा रात को।


हर तरफ मां करो नेह बर्सात को।


दर्द की धूप से जल रहें हैं वदन,


हर तरफ कंठ में बेबसी का रुदन।


 


मात हर मन मिटा दो कुटिल वंचना।


मात जन-जन की सुन लो करुण वेदना।


 


मां धरा पर न हो फिर हरण चीर का।


बाल सिसके न कोई बिना क्षीर का।


मां न ममता के आंचल में आंसू गिरे


टूटकर मां नयन से न सपनें झरें।


 


मात भक्तों की किंचित सुनो अर्चना।


मात जन-जन की सुन लो करुण वेदना।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


 


 


कविता 2


आओ फिर से तुम नव विहान।


 


कलियों में मृदु मकरंद भरो


फूलों में मधुर सुगंध भरो।


उपवन में नव श्रृंगार भरो


वीणा में मृदु झनकार भरो


पिक कंठ सुरीला राग भरो


कुंठित मन में अनुराग भरो


 


मस्ती में कालिका चूम चूम


अलि गाये फिर से प्रणय गान


आओ फिर से तुम नव विहान।


 


अधरो पर पुलकित हास भरो


अंतस में फिर उल्लास भरो।


निर्जन पथ में कुछ संग भरो


जीवन में स्वप्निल रंग भरो।


कुछ टूटे मन में आस भरो।


मृत मानवता है श्वास भरो।


 


तुम नवल रश्मियों से जन जन


को फिर से दो अमरत्व ज्ञान


आओ फिर से तुम नव विहान।


 


आंचल की सुनी गोद भरो।


दुखियारे मन अमोद भरो।


पाषाण हृदय में भाव भरो।


कुछ असह वेदना घाव भरो।


जगजीवन शुद्ध विचार भरो।


मानव मन नेह अपार भरो।


 


फिर से वसुधा पर मानव में


निज मर्यादा का रहे ध्यान।


आओ फिर से तुम नव विहान।


 


झूठे के मन में सत्य भरो।


अलसाये जीवन कृत्य भरो।


कुछ क्रूर हृदय में दया भरो।


आंखों में थोड़ी हया भरो।


निर्धन के घर भंडार भरो।


सबके जीवन में प्यार भरो।


 


मानवता का फिर करुण रुदन


परवरदिगार सुन ले महान।


आओ फिर से तुम नव विहान।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


 


कविता 3


तुम्हे क्या लिखूं?


 


तुम्हे अधर की प्यास लिखूं,


या जीवन का उल्लास लिखूं।


तुम्हे ख्वाब या तुम्हे हकीकत,


या मधुरिम एहसास लिखूं।


 


भावों में कर तुम्हे समाहित,


प्रेम गीत मैं चंद लिखूं।


मन स्वर्णिम स्मृतियों को


छंदों में कर बंद लिखूं।


 


तुम्हे गीत या ग़ज़ल लिखूं


या तुम्हे पृष्ठ इतिहास लिखूं


तुम्हे ख्वाब या तुम्हे हकीकत,


या मधुरिम एहसास लिखूं।


 


कृष्ण कन्हैया राधा का या,


मीरा का मैं श्याम लिखूं।


या मन की हर श्रद्धा लिख दूं


या सबरी का राम लिखूं।


 


तुम्हें वेदना का पतझर या,


तुम्हे खिला मधुमास लिखूं।


तुम्हे ख्वाब या तुम्हे हकीकत,


या मधुरिम एहसास लिखूं।


 


देवनदी सा पावन मन को,


पग रज को चंदन लिख दूं।


वीणा की झनकार तुम्हारे,


उर का स्पंदन लिख दूं।


 


तुम्हें विरह के आंसू लिख दूं,


या मुख का परिहास लिखूं


तुम्हें ख्वाब या तुम्हे हकीकत,


या मधुरिम एहसास लिखूं।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


 


कविता 4


 


जीवन


 


जीवन है जलधार मुसाफिर


सुख दुख है दो नाव।


सुख में पथ हैं छांव मुसाफिर,


दुख में जलते पांव।


 


कभी जगे उम्मीद हृदय में


पुलकित मन में आशा है।


कभी घोर मायूसी छाए,


चारो ओर निराशा है।


कभी जंग में जीत मुसाफिर,


कभी हारते दांव।


सुख में पथ हैं छांव मुसाफिर,


दुख में जलते पांव।


 


कभी हो रही है दामन में


नित्य खुशी की वर्षा हैं


कोई खुशियों की तलाश में


नित्य नित्य ही तरसा है।


कोई सागर पार मुसाफिर


कहीं डूबती नाव ।


सुख में पथ हैं छांव मुसाफिर


दुख में जलते पांव।


 


कभी पनपता प्रेम नित्य ही,


होती कभी लड़ाई है।


कभी भीड़ है मेले की तो,


कभी अमिट तन्हाई हैं।


कभी गैर दुख हरे मुसाफिर


अपनें देते घाव।


सुख में पथ हैं छांव मुसाफिर


दुख में जलते पांव।


 


कभी नयन का रोना धोना,


कभी बजी सहनाई है।


कभी वेदना है विछोह की,


कभी मिलन ऋतु आयी है।


कहीं धरा वीरान मुसाफिर


कहीं सजा है गांव।


सुख में पथ हैं छांव मुसाफिर


दुख में जलते पांव।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


 


कविता 5


कहां गए तुम ओ वनमाली।


 


वही धरा है वही गगन है


मगर बहुत गमगीन चमन है


बुलबुल राग वियोगी गाए


बिना खिले कलियां मुरझाए।


लिपट लता का जीवन जिससे


टूट गई हैं अब वह डाली


कहां गए तुम ओ वनमाली।


 


तुमसे उपवन का सिंगार था


तुम थे हर मौसम बहार था


फूल खिलें क्या वन महकाएं?


किसके लिए चमन महकाएं?


कोटि यहां ऋतुराज पधारें,


मगर न आयेगी हरियाली


कहां गए तुम ओ वनमाली?


 


छोड़ दिए हैं पंछी डेरा।


छूटा कलरव गीत सवेरा।


उजड़ा उपवन तुम्हें पुकारे।


फिर जीवन उम्मीद निहारें।


तुम आओ तो फिर वसंत में


फूटे नव किसलय की लाली


कहां गए तुम ओ वनमाली।


 


सहमा हुआ चमन है सारा।


अपनी किस्मत से है हारा।


कहा गए तुम ओ रखवाले?


तुम बिन इनको कौन संभाले?


शाखों पर मायूस कोकिला


मधुर गान भूली मतवाली।


कहां गए तुम ओ वनमाली।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


कुंo जीतेश कुमारी "शिवांगी "

आज का विषय *औरत* पर मेरा प्रयास


 


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*औरत* ...........


 


औरत की कहानी किससे बताये ।


सच पूछूँ तो किससे छिपाये ।।


क्या है जो सहती नही औरत ।


वो अलग बात है कि.....


कहती नही औरत ।।


 


*औरत* ....दर्द का वो समन्दर है ।


धधकता हुआ लावा जिसके अन्दर है ।।


दिन भर पिसती है कर कर के काम ।


फिर भी है वो गुमनाम ।।


कुछ करती भी हो?? 


तुमसे तो कुछ नही हो सकता !


तुम बस आराम फर्मा लो ।


महारानी जो हो इस घर की ।


सुनती है सहती है सबके ताने ।।


और फिर भी इज्जत देती है सबको ।।


पर बेहया बेशर्म के नाम से ।


औरत ही है वो जो है बदनाम ।।


 


*औरत*.....


 


वो मुफ्त का सामान है ।


जिसका किसीको लगता ना


कोई भी दाम है ।।


नौकरों से भी गया गुजरा 


होता व्यवहार है ।


फिर भी मेरा परिवार है ।।


कह कर समझ कर करती ।


वो सारे ही काम है काम है ।।


 


*औरत*.......


सच कहूँ तो औरत वो ......


सहन शक्ति का प्रति रूप है ।


जिसकी छाया बिना जीवन चिलचिलाती धूप है ।।


 


*औरत*.....


त्याग की वह मूर्ति है ।


जिसके बिना किसी भी त्याग की


होती ना पूर्ति है ।।


 


*औरत*.......


वह उदाहरण है बलिदान का ।


जो ना हो तो मान ना किसी दान का ।।


 


*औरत*......


प्रेम का धागा है जहाँ में ।


जो ना हो तो रब भी आधा है जहाँ में ।।


 


 


*औरत*...... ममता कि छाया है.....


*औरत*......... दर्द का मरहम है......


*औरत*.......... चहों दिशाऐं है.......


*औरत*....... धरती है पाताल है.....


*औरत*..... प्रकृति है आकार है......


*औरत*.... जड़ है चेतना है.......


*औरत*...... प्रतिकार है चित्तकार है.....


*औरत*........ दुर्गा है काली है.....


*औरत*....... चण्डी है गौरा है.......


*औरत*.... सूर्य है चन्द्रमा है........


*औरत*...... आदि और अन्त है......


*औरत*..... अनन्त है .................


 


स्वरचित.....


शिवांगी मिश्रा


डॉ. राम कुमार झा

दिनांकः ०१.०६.२०२०


दिवसः सोमवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा 


शीर्षकः प्रकृति मुदित माँ भारती 


चमक रही पूरब दिशा , सूर्योदय आलोक।


बदलो जीवन सोच अब , मिटे सभी मन शोक।।१।।


रंग बिंरगी चहुँदिशा , वन सम्पद हिमराज।


कुसमित सुरभित अवनिका,नवजीवन आगाज़।।२।।


खोल पंख चहकें विहग, भरते व्योम उड़ान।


घिरे सकल पशुवृन्द से, हर्षित सिंह महान।।३।।


हरियाली भू विहँसती , लहराते नव पौध। 


पंचम स्वर पिकगान से, प्रिय प्रवास हरिऔध।।४।।


रिमझिम रिमझिम बारिशें, मन्द वात आनंद।


रसिक भँवर मंडरा रहे , खिले पुष्प मकरंद।।५।।


विमल क्षीर शीतल मधुर , गौ दोहन गोपाल।


उषाकाल लखि लालिमा , मृदुल बाल खुशहाल।।६।।


नव आशा ले नव किरण , कामगार रत कर्म।


अरुणोदय नव प्रगति का , सभी निभाए धर्म।।७।।


समता ममता नेह हो , शान्ति सुखद मुस्कान। 


समरसता सद्भाव ही , नव प्रभात दे ज्ञान।।८।।


नवप्रभात दे प्रेरणा , परहित जीवन दान।


रखें स्वच्छ मन प्रकृति को, राष्ट्र भक्ति सम्मान।।९।।


पा निकुंज अरुणिम शिखा, गन्धमाद मन मोह।


मुदित प्रकृति माँ भारती , सुखद कीर्ति आरोह।।१०।।


 


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित) 


नई दिल्ली


सुनीता असीम

कोई भी चलेगा न बहाना मेरे आगे।


तुमको न मिलेगा कोई सीधा मेरे आगे।


***


ऐसे न भड़क जाया करो बात मेरी सुन।


नीचा ही रखो अपना ये लहजा मेरे आगे।


***


औरों की तुम्हें बाहों में देखूं तो जले जाँ।


सीने से किसी को न लगाना मेरे आगे।


***


दुश्मन हो गया प्यार मुहब्बत का जमाना।


चलता न किसीका वैसे सिक्का मेरे आगे।


***


बिछड़ा वो ही मुझसे जो नहीं भाग्य में मेरे।


जीवन का उसीके टूटा धागा मेरे आगे।


***


सुनीता असीम


१/६/२०२०


प्रिया चारण नाथद्वारा राजसमन्द राजस्थान

असीम सौन्दर्य का नवीन प्रमाण है प्रकृति।


पतझड़ से लेकर फूलो की बहार है प्रकृति ।


 


अनीति का विनाश है प्रकृति। 


सूर्य के तेज़ से लेकर रिमझिम बरसात है प्रकृति।


 


पांच तत्वों का विज्ञान है प्रकृति


समय का विस्तार है प्रकृति


धन धान्य की उपज से लेकर सूखा अकाल है प्रकृति


 


वृक्षो सा श्रृंगार है जिसका


झील सी नीली आँखे।


चाँदनी रात सा काजल जिसको साजे


 


ममता सी उपज है जिसकी


वायु की शीतलता मन मोह ले 


अग्नि जिसके क्रोध में है


 


हिमालय सा ताज है


मरुस्थल सा साम्राज्य है


गर्भ जिसका खनिजो से भरा 


पर्वत शिलाएं जिसकी सिमा रेखा 


यही हमारी प्रकृति का विस्तार है 


अनदेखा सा प्यार है


 


प्रिया चारण


नाथद्वारा राजसमन्द राजस्थान


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग

*"मातु-महान"* (दोहे)


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^स्नेह सिक्त पीयूष को, मातु-पिला संतान।


अर्पित कर निज रक्त को, देती जीवन दान।।१।।


 


^पावन पय पीयूष पी, सुख सरसित संतान।


हुलसित माता अंक में, धन्य मातु-अवदान।।२।।


 


^उपजे पीकर क्षीर को, शिशु के मानस-मोद।


माता मन ममता महत, स्वर्गिक सुख माँ-गोद।।३।।


 


^मातु सकल ब्रह्मांड है, सरस-सुधा-संसार।


जीव-जगत जनु जान-जन, ममता-अपरंपार।।४।।


 


^अमिय-कलश है मातु-वपु, मानस ममता-मूल।


पान अमिय माँ का करे, सकल मिटे शिशु-शूल।।५।।


 


^होकर अति कृशगात माँ, श्रम साधित मन-क्लांत।


पान करा फिर भी अमिय, करे क्षुधा-शिशु शांत।।६।।


 


^मातु-सुधा-सद्भाव से, सरसे सुख-संसार।


प्रेम पले पीयूषपन, पातकपन-परिहार।।७।।


 


^स्नेह सजीवन सार शुचि, सरसित सुधा समान।


बोली माँ के नेह की, फूँके जग-जन-जान।।८।।


 


^माँ देती संतान को, ममता की सौगात।


अमिय-सरिस माँ-दूध पी, बढ़ता शिशु-नवजात।।९।।


 


^माता जीवन दायिनी, अमिय कराती पान।


शिशु का संबल है वही, जग में मातु-महान।।१०।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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संजय जैन (मुम्बई)

*अजनबी पर दोस्त*


विधा : कविता


 


ज़रा सी दोस्ती कर ले..,


ज़रा सा साथ निभाये।


थोडा तो साथ दे मेरा ...,


फिर चाहे अजनबी बन जा।


मिलें किसी मोड़ पर यदि,


तो उस वक्त पहचाने हमे लेना।


और दोस्ती को उस वक्त,


तुम दिल से निभा देना।।


 


वो वक़्त वो लम्हे, 


कुछ अजीब होंगे।


दुनिया में हम शायद,


खुश नसीब होंगे।


जो दूर से भी आपको,


दिल से याद करते है।


क्या होता जब आप,


हमारे करीब होते।।


 


कुछ बातें हमसे सुना करो,


कुच बातें हमसे किया करो..।


मुझे दिल की बात बता डालो,


तुम होंठ ना अपने सिया करो।


जो बात लबों तक ना आऐ,


वो आँखों से कह दिया करो।


कुछ बातें कहना मुश्किल हैं,


तो चहरे से पढ़ लिया करो।।


 


जब तनहा तनहा होते हो तुम।


तब मुझे आवाज दे देना।


मैं तेरी तन्हाई दूरकर दूंगा।


बस दिल से याद हमे करना।। 


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


01/06/2020


 


 


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 

विषय:- " आत्म मंथन करता, यात्रा करता मन... "


""""""""""""""""""""""""""""""""""''"""'"'"""


         शीर्षक- " मन... "


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आत्म मंथन करता या 


लम्बी यात्रा करता मन.... 


जीवन के विविध रंगों को 


साथ लेकर चलता है 


कभी हास कभी अश्रु 


एक ही सिक्के के दो पहलू 


धूप-छाँव 


फूल और काँटे 


बाटते बराबर-बराबर। 


कभी रेत की आँधी 


तो कभी झरनों का मधुर ध्वनि 


साक्षात्कार कराते गहरे समुद्र से 


कल-कल बहती नदियों से 


हरियाली से 


पतझड़ से 


बिछुड़न. ...और 


फिर..... आलिंगन से। 


लम्बी यात्रा करता मन....


आँखों में तिरता 


प्रतिपल दिखाता अनोखे सपने 


कभी मंगलगान... 


तो कभी... अन्तहीन करुणा


कराह... चीत्कार 


वेदना... और


कल्पनाओं की ऊँची उड़ान।


आत्म मंथन करता मन.....


हँसता.. मनाता...रूठता 


जीवन के उतार-चढ़ाव 


शीत-गर्म का अनुभव 


अपना-पराया समझता 


छोड़ता अपनाता.. 


सँजोता जोहता 


और फिर... 


सम्बन्धों को परखता।


अन्तर्विभेद करता 


अन्तर्द्वन्द्व करता 


समर्थ और असमर्थ में 


लौकिक और अलौकिक में 


सदय और निर्दय में।


नापता अनन्ताकाश को 


प्रकृति के विराट को


अनुशीलन करता... 


और सोचता.. 


अकेले में 


यही तो है मोनेर दशा 


जे केऊ भापते पाड़े ना..... 


निरन्तर अथक।... ...


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०) मो० नं० 9919886297


रश्मि लता मिश्रा बिलासपुर सी जी

आज गंगा दशहरा के उपलक्ष्य में


गंगा स्तुति


 


माँ गंगे तू पावनी, जग की पालनहार।


शिव ज टा में राजती, महिमा बड़ी अपार।


 


गंगा पर्वत वासिनी ,धरा बीच पर आय।


हरियाली बिखरायके,जग को हरा बनाय।


 


लाये भागीरथ तुम्हे,पितृमोक्ष धरी आस।


सारे जग को तारती बुझा जगत की प्यास।


 


गंगा धारा निर्मल है,लहर-लहर लहराय।


डोले सीने नाव जो,उसको पार लगाय।


 


चरण तेरे विनय करूँ,रखना मेरी लाज।


छोड़ हमे जाना नहीं,सुन लो गंगे आज।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर सी जी


सत्यप्रकाश पाण्डेय

अग्रणी ..............


 


अग्रणी अखण्डनीय


अग्रगण्य आप


अज्ञेय अगोचर अज्ञात


अजन्मा आप


अजर अमर अतुलनीय


अजात अच्युत


अकथनीय अकाट्य


अवर्चनीय अनुभूत


अदर्शनीय अद्वितीय


अधिनायक अजेय


अनुपम अदम्य अथाह


अतींद्रिय अनुपमेय


अनादि अपरिमेय अपूर्व


अनुकरणीय


अदृश्य आजानुबाहु


आशुतोष अनुसरणीय।


 


उपरोक्त सभी गुणों से अलंकृत श्रीकृष्ण आपकी मनोकामना पूर्ण करें🌹🌹🌹🌹🙏🙏🙏🙏


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डाॅ०निधि,*   *अकबरपुर, अम्बेडकरनगर।*

.


*पतित पावनी माँ गंगा* 


 


हे महावेगा, सदा नीरा, 


तुम पतित पावनी माँ गंगा।


तुम शिव केशी धारा गंगा, 


हे सुखदायिनी प्रबल गंगा।। 


 


तुम मंदाकिनी,जाह्नवी हो तुम,


तुम देवनदी, तुम सुरसरिता। 


संताप जगत के हरने वाली, 


तुम ध्रुवनन्दा,तुम विष्णुपगा।। 


 


तुम ब्रह्म कमण्डल से निकली, 


तुम भागीरथ की तपस्या हो। 


दशमी तिथि ज्येष्ठ शुक्ल उतरी, 


तारन हेतु सगर के पुत्रों को।। 


 


तुम हुई अवतरित धरती पर, 


करने को वसुधा का उद्धार। 


पापों से मुक्त जगत को कर, 


स्नेह दिया अपना अपार।।


 


तेरे पावन तट पर माता, 


काशी, हरिद्वार, प्रयाग बसे। 


अन्तिम गति इस मानव तन की, 


होती सद्गति मिलकर तुझसे।। 


 


निज कर्मो से डर कर मानव, 


आकर तेरे घाट पे वास करे। 


तेरे जल से स्नान करे। 


पर मन का मैल नही उतरे।।


 


तेरा जल इतना निर्मल है, 


कोई रंग न इस पर चढ़ता है,


निज पापों को धो कर मानव, 


गंगा को मैली करता है।।


 


सतयुग, द्वापर, त्रुता युग से, 


तुम कलियुग में भी आयी हो।


तीन युगों की भयमोचिनी, 


आ कलियुग में पछतायी हो।। 


 


तुम चन्द्र ज्योति सी उज्ज्वल हो, 


शरणागत , दीन वत्सला हो।


कर कृपा सकल तिहुँ लोकों पर, 


तुम अभयदान नित देती हो।। 


 


तुम भय की काली रात मिटाती ,


यम के त्रास को हरती हो।


तेरी शीतल अविरल जल-धारा ,


युग-युग से सदा सफल बहती।।


 


 *स्वरचित-* 


 *डाॅ०निधि,* 


 *अकबरपुर, अम्बेडकरनगर।*


एस के कपूर " श्री हंस"* *बरेली।*

*जिन्दगी।।।।जीवन।।।।*


*हाइकु।।।।*


 


जीवन पस्त


मन से हार गए


जीवन त्रस्त


 


जिन्दगी प्यार


जन्म ये एक बार


प्रेम गुज़ार


 


मिले ये एक


सदुपयोग कर


कार्य अनेक


 


जीवन खेल


पटरी न उतरे


जीवन रेल


 


दुःख सहोगे


फले तभी जीवन


खुश रहोगे


 


जीवन मन्त्र


रहस्य नहीं कोई


जीवन तन्त्र


 


ईर्ष्या न करो


खुशी के लिए तुम


स्पर्धा ही करो


 


आबाद है ये


जीवन में दिखावा


बर्बाद है ये


 


*रचयिता।एस के कपूर " श्री हंस"*


*बरेली।*


मो 9897071046


             8218685464


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल महराजगंज, उत्तर प्रदेश

गंगा दशहरा के अवसर पर माँ गंगा को समर्पित कविता प्रस्तुत है।


 


यदि पुनीत हो लक्ष्य सभी का 


तो नभ भी झुक जाता है।


माँ गंगा का अवतरण 


धरा पर हो जाता है।


 


पावनी गंगा का धरती पर अवतरण हुआ,


राजा भगीरथ सा परमार्थी नभ को छुआ।


 


अविरल, कोमल, निर्मल गंगा


ब्रम्ह कमंडल से प्रगट भये


रोकेगा उनका वेग कौन


यह सोच सभी जन सहम गये।


 


अश्वमेध से महाविजय को सगर सुत निकले, 


श्रृषि अपमान के तपअग्नि से भस्म हो चले।


 


भगीरथ ने की घोर तपस्या 


शिव जी का आशीष लिया


शिव ने जानी पुनीत मनोरथ 


जटा में गंगा के वेग रोक लिया।


 


कपिल मुनि के शरणागत हो उपचार लिया,


सुतों के उद्धार हेतु श्रृषि से मर्म जान लिया।


 


राजा भगीरथ की तपस्या का


फलीभूत होने का अवसर आया।


माँ गंगा के थमे वेग का,


धरा पे अमृत बहने का अवसर आया।


 


घोर तपस्या ब्रम्हा की सगर परपौत्र ने कर दिखाया,


भगीरथ से प्रसन्न ब्रम्ह ने वरदान दे समुचित पथ दिखाया ।


 


गंगा भी अपने मद में थीं


मद उनका भी चकनाचूर हुआ।


व्याकुल गंगा के अमृत जल से 


सगर सुत का तब उद्धार हुआ।


 


   मौलिक रचना :-


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


रश्मि लता मिश्रा बिलासपुर

किसान कर्म और किस्मत


 


किसान, कर्म और किस्मत तीनों ही 'क'अक्षर से शुरू होते हैं किसान जो फसल बोता है उसे काटने में अन्य की मदद ले सकता है ,किंतु कर्मों द्वारा बोई गई फसल स्वयं ही काटनी पड़ती


है।उसमें किसी अन्य की मदद नही ली


जा सकती और किस्मत आपके कर्म के अनुसार ही निर्धारित होती है।


 


सुप्रभात।


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर


राजेंद्र रायपुरी

एक मुक्तक - - 


 


मन भरा है मैल तेरे, 


                 माॅ॑ज तन को क्यों रहा है।


माॅ॑ज पहले यार मन को,


                  काम उल्टा हो रहा है।


माॅ॑जना तन छोड़ मन को,


                    ठीक बंदे तो नहीं है,


बीज नफ़रत के यही तो, 


                  मन विषैला बो रहा है।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


 


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


    *"दु:ख के साथी बन जाओ"*


"उदासी के पल बीते साथी,


फिर अब तो तुम मुस्कराओं।


छाया मधुमास जग में साथी,


फिर मधुर गीत गुनगुनाओं।।


जागे मन में विश्वास साथी,


फिर ऐसा कर्म कर जाओ।


महके जीवन बगिया साथी,


ऐसा स्नेंह जल बरसाओ।।


छाये न उदासी मन में यहाँ,


साथी ऐसा कुछ कर जाओ।


सुख के साथी हो न हो साथी,


दु:ख के साथी बन जाओ।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta


ःःःःःःःःःःःःःःःः


          01-06-2020


कालिका प्रसाद सेमवाल रूद्रप्रयाग उत्तराखंड

*गंगा दशहरा पर विशेष*


***************


*मां गंगे*


**********


मां गंगा केवल नदी नहीं है


हमारी आस्था है


साक्षात देवी है


राजा भगीरथ के तप 


का प्रमाण है गंगा।


 


परन्तु आज हमारी


आस्था सूख गई है


और गंगा प्रदूषित


हो गई है


और जीवन हो गया ख़तरे में।


 


अमृतमयी जल को


कर दिया है हमने गन्दा


इसलिए बाजारों में अब


पानी बोतल में बिकता है।


 


गीता के संदेश की


पावन धारा सूख रही है


आओ मिलकर करें जागरण


गौ, गंगा व गीता को दे संरक्षण।


 


भगीरथ के तप से


गंगा धरती पर आई है


निर्मल जल की हम


मिलकर रक्षा का संकल्प लेते है।


 


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*4


उच्च शिखर गिरिराज हिमालय,


विंध्य-नीलगिरि गर्वीला।


सब गिरि मिलकर इसे सँवारें-


इसकी धवल उँचाई है।।


           पंछी के कलरव से पाया,


           इसने इक संगीत नया।


           चखते अमृत आसव इसका-


           बजती धुन शहनाई है।।


है ठहराव झील सा इसमें,


जोश सिंधु-उत्तुंग लहर।


सुख-सुक़ून देता आस्वादन-


प्रिय इसकी मधुराई है।।


         हुआ अवतरण देव-लोक का,


         इस पुनीत मधुरालय में।


         सुरा-सुंदरी-मेल अनूठा-


         अति अनुपम पहुनाई है।।


प्यालों की टक्कर लगती है,


वीणा की झंकार सदृश ।


साक़ी के कोमल हाथों की-


अति अनुपम नरमाई है।।


        रस-पराग-मकरंद पुष्प मिल,


         करते मधु-निर्माण प्रचुर।


         ऊपर से भवँरों की गुंजन-


          लगे परम सुखदाई है।।


प्रकृति-गीत-संगीत सुहानी,


परम कर्णप्रिय मन भाये।


रस विहीन अति खिन्न हृदय जन-


को मिलती तरुणाई है।।


              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                9919446372


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

विश्व तम्बाकू निषेध दिवस


गांजा, बीड़ी, मदिरापान 


सामाजिक अवनति का सामान


आदी होता मानव इनका


करै विविध पाने का सन्धान


व्यसन बुरा है इनका जाने


फिर भी बात नहीं वो माने


घर में राशन हुआ है खाली


बीड़ी, जर्दे की तड़प निराली


कोरोना ने बहुत रुलाया


बीड़ी, जर्दे को तरसाया


पाँच की पुड़िया पचास में लाया


छूटे न ये नशे का साया


खाँस -खाँस फेफड़े हैं फूले


शरीर खाता है हिचकोले


कैंसर को दावत देते हैं


नशे के आदी दम भरते हैं


न इनको परिवार की चिंता


दिनभर खड़े हैं जब यह मिलता


लगी है लाइन कड़ी धूप में


तपता सिर जेठ की दुपहर में


आस लगाए आँख गढ़ाये


मन बीड़ी को तरसा जाये


धुँए का उठता है जब छल्ला


स्वस्थ शरीर पर बोले वो हल्ला


करे तम्बाकू सबकी हानि


हालत जान करे नादानी


बन्द करो बीड़ी, जर्दा तुम


जिओ जिंदगी सभी स्वस्थ बन


व्यसन बुरा ये इसको त्यागो


समय विकट है अब तो जागो


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

चाहतों के लौ से शमा जल रही है ख़ास परवाने के इंतज़ार कर रही है।     


 


कशिश , यकीं ,ख्वाबों कि हकीकत के दिये में जल रही।।   


 


                 


 


 फर्क रोशन शमां चिरागों में क्या?


 


चिराग जहाँ का आफताब, महताब। रोशन शमां दिल कि मोहब्बत कि रौशनी जल रही है।।    


 


 


जलता हुआ चिराग हालात हवा तुफानो से लड़ता ।    


 


 


अपनी हद ,हस्ती ,मस्ती फानूस कि हिफाज़त का जहाँ में उजाला।।


 


शमां महफ़िलो कि नाज़ इश्क कि इबादत का नूर नज़र चमक।         


 


चिरागों से कभी खुद के आशियाने के जल जाने का डर। 


 


परवानो का आशिकी के रौशन शमा में जल जाना।।


 


शमा रौशन आग ,आग का दरिया डूबते जाना है । ख़ास ,खाक के काशमश में जल रही है।।


 


जलता चिराग 


जहाँ के अंधियारे का सूरज, चाँद उम्मीदों का उजाला।


 


इश्क कि इबादत में दिल रौशन शमां मोहब्बत का उजाला।


      


                                 आशिकी, हुस्न ,मोहब्बत के जूनून में जल जाना।।


 


रौशन चिराग जहाँ में अंधेरों से जंग के जज्बात ।     


 


खुदाई, इश्क ,इबादत कि शान जहाँ जज्बे के शुरुर में जलने का उजाला।।


 


कशमकश ,काश से बाहर निकल दिल में चिराग रोशन जलाइए।।


 


 चाहे हसरत कि इश्क मोहब्बत के रौशन शमां का परवाना बन जाईये ।


 


जिंदगी के मकसद मंजिल कि दोनों ही इबादत ।               


 


जिंदगी कि हकीकत में क़ोई तो चिराग जलाइए।।


 


 


जहाँ खुद के वजूद कि रौशन रौशनी जलाइए।।             


 


 


 नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

कालिका प्रसाद सेमवाल


 2-पिता का नाम-श्री गिरजा शंकर सेमवाल


3-शिक्षा-एम०ए०-भूगोल,शिक्षा शास्त्र, व्यक्तित्व परिष्कार, आपदा प्रबंधन, 


4-जन्म तिथि-24 जुलाय


5-पता-मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड पिनकोड 246171


6-सम्प्रति -व्याख्याता जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान रतूड़ा रूद्रप्रयाग


7-अब तक प्राप्त सम्मान


****************


(क) रेड एण्ड व्हाईट पुरस्कार -गोडफे फिलिप्स इंडिया लिमिटेड द्वारा 1992


( ख)शाश्वतामृत सम्मान-2008


हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा


(ग) साहित्य मनीषी सम्मान 2010हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा


(घ ) सारस्वत सम्मान 2007


(ड.) साहित्य भूषण सम्मान 2011हिमालय और हिन्दुस्तान द्वारा


(च)विद्यावाचस्पति साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी प्रतापगढ़ उ०प्र०2015


(छ) विद्यासागर विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ गांधी नगर भागलपुर बिहार 2016


(ज) मानस श्री मौन तीर्थ उज्जैन द्वारा2015


(झ) साहित्य महोपाध्याय 2017


( साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश)


(ट) कालीदास सम्मान 2015 कालीदास भू स्मारक समिति रूद्रप्रयाग


(ठ) उत्तराखंड गौरव


बिक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ भागलपुर बिहार


अन्य अनेक संस्थाओं से सम्मानित किया जा चुका है।


8-प्रकाशित पुस्तक-रूद्रप्रयाग दर्शन


9-मोबाईल नम्बर -9410760663


10-ईमेल आईं डी


kalikapsemwal@gmail.com


11-स्थाई पता-


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


 


मुझको मत ठुकराना प्रिये


********************


जीवन की मादक घड़ियों में,


मुझको मत ठुकराना प्रिये,


 


नव ऊषा लेकर आएगी,


जब मधुमय जीवन लाली,


कुहू- कुहू कर बोलेगी,


जब कोयलिया काली -काली।


नव रस से भर जाएगी,


जब बसन्त की डाली -डाली,


लहरेगी किसलय-किसलय,


पावन यौवन की हरियाली,


ऐसी मधुमय घड़ियों में,


तुम विरह गीत न गाना प्रिये।


 


छोटी -छोटी मन -रंजन,


और हरी -हरी द्रुम लतिकाएँ,


प्रातः मोती के चमकीले कण,


सलाज से भर लाएँ,


मादक यौवन में जब भौंरे


उन पर गुन-गुन कर खाएँ।


लहर -छहर कर प्रकृति विचरती,


हो जब कोमल रचनाएं,


तब ऐसी मधुमय में,


पल भर तुम मुस्काना प्रिये,


 


चूम धरा जब हंसती हो,


नटखट बदली सावन वाली।


नाचें मयूरी देख घटाएँ,


अम्बर में घिरती काली,


पी-पी के स्वर में चातक ,


जब दे उंडेल स्वर की प्याली,


ऐसी सुखदायी घड़ियों में पास तनिक तुम आना प्रिये।।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


 


 


कविता कैसे बनाऊं


*****************


मैं अपनी कविता के लिए


तलाश रहा हूं,


शब्दों को बनाने वाले


अक्षर रेखाएं, मात्राएं


ताकि उनमें भर सकूं


जीवंतता, जिजीविषा


मैं अपनी कविता में


किसान की पीड़ा


गरीब मजदूर का दर्द


पहाड़ में खाली होते गांवो


सभी की करुण कथा


शामिल कराना चाहता हूं,


शब्दों को चुन-चुन कर


एक लतिका बनाना चाहता हूं,


आज प्रगति के नाम पर


जीवन कितना ऊबाऊ है


मैं अपनी कविता के माध्यम से


नव चेतना भरना चाहता हूं,


जीवन क्या है


अपनी कविता में शामिल कराना चाहता हूं।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


 


जीवन में दुत्कार बहुत है


*******************


द्वार तुम्हारे आया हूँ प्रिय,


जीवन में दुत्कार बहुत है।


 


जीवन का मधु हर्ष बनो तुम,


जीवन का नव वर्ष बनो तुम,


तुम कलियों सी खिल खिल जाओ,


चंदा किरणों -सी मुसकाओं,


रखना याद मुझे तुम रागिन,


अंतिम यह फरियाद सुहागिन।


 


कैसे अपना दिल बहलाऊँ


इस दिल पर भार बहुत है।


 


देखो यह नटखट पन छोड़ो,


मुझसे प्रेयसी, तुम मुँह मत मोड़ों,


आओ गृह की ओर चलें हम,


जग बन्धन को तोड़ चले हम,


तुमको पाकर धन्य बनूंगा,


प्यार -प्रीति में नित्य सुनूँगा।


 


तेरे हित में मुझको अब मरना है,


जीवन में अंगार बहुत है।


 


संध्या की यह मधुमय बेला,


रह जाता हूँ यहाँ अकेला,


सूरज की किरणों का मेला,


रचता है जीवन से खेला,


अपना तन-मन भार बनाकर,


चल पड़ता गृह, हार मनाकर।


 


कल समझौता होगा प्रिय,


जीवन में मनुहार बहुत है।


 


दुनिया कल यदि बोल सकेगी,


प्यार हमारा तोल सकेगी,


स्वत्व नहीं है उसको इतना,


कर ले बर्बरता हो जितना,


उसको क्या अधिकार यहां है,


कि रच दे विरह कि प्यार जहां है।


 


प्यार नयन की भाषा


यह इजहार बहुत है।


 


नव प्रभात की नूतन लाली,


रंग जाती है धरती थाली,


भौंरों के जब झुण्ड मनोहर,


गुंजित करते कुसुम -सरोवर ,


मथनी उर को मेरी हारें,


हाय, न क्यों तुम मुझे दुलारे।


 


कैसे तुमको राग सुनाऊं,


जीवन-तार बहुत है।


******************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


 


 


🎍🌷शुभ प्रभात🌷🎍


  --------------------


प्यार ही धरोहर है


**************


प्यार अमूल्य धरोहर है


इसकी अनुभूति


किसी योग साधना


से कम नहीं है,


इसके रूप अनेक हैं


लेकिन


नाम एक है।


 


प्यार रिश्तों की धरोहर है


और इस धरोहर


को बनाये रखना


हमारी संस्कृति


एकता और अखंडता है ,


यह अनमोल है।


 


प्यार 


निर्झर झरनों की तरह


हमारे दिलों में


बहता रहे


यही जीवन की


सच्ची धरोहर है। में


 


प्यार


उस परम पिता परमात्मा


से करें


जिसने हमें 


जीवन दिया है,


इस धरा धाम पर


हमें प्रभु ही लाते हैं।


 


प्यार


उन बेसहारा


बच्चों से करें


जो अभाव का जीवन जी रहे हैं


जो कुपोषण के शिकार हैं


और जो अनाथ है


 


आओ


हम सब संकल्प लें


हम सभी के प्रति


प्यार का भाव रखेंगे


किसी के प्रति


गलत नज़रिया


नहीं रखेंगे,


तभी मनुष्य जीवन सफल हो सकता है।


*************************


कालिका प्रसाद सेमवाल


 मानस सदन अपर बाजार


 रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


 


 


*आपक स्नेह पत्र*


*******************


*आपका स्नेह पत्र*


*जब तुम्हारा पढ़ा,*


*हृदय द्रवित हो गया*


*अश्रु धार आ गई।*


 


*बात मन में लगी पीर अर में जगी*


*नींद बैरिन हुई, दूर मुझसे बड़ी,*


*सांझ मन में ललाती उछलती गई*


*दीप की लौ जिया को मसलती गई*


*स्वपन मेरे नयन में झलकते रहे*


*अश्रु जाने अंजाने लुढ़कते रहे।*


 


*चांद नभ में चला, प्यार तन में जला,*


*स्वपन साधे गगन मौन सोने लगा।*


 


*कर्म मैंने यहां एक ऐसा किया*


*हाय , पूछे बिना जो लुटाया जिया,*


*किन्तु मन में सफल एक आशा जगी*


*फूल मैंने चुना, शूल तुम पर लगें,*


*सिन्धु थाहा अमर कूल मेरा रहे।*


 


*साधना के लिए लौ लगाया मगर,*


*कल्पना का सपन आज रोने लगे।*


 


*कठिन भाव जागे गया कल सयन को*


*उमड़ती रही आंसुओ की रवानी*


*दिया दर्द तुमने बुझाते न बुझता*


*कहां कब रूकेगा नयनों में ये धारा,*


*तुम्हारे लिए दीप के हर किरण में*


*जलेगी हमारी शलभ सी जवानी।*


 


*बहुत है उदासी मिलन चाहता हूं,*


*मगर आज तुमको कहां प्राण पाऊं।*


 


*प्रिये ,शाम के दीप को जब जलाना*


*ज़रा याद करना विवश यह कहानी,*


*नहीं जल सकी हैं उमर की शमाएं*


*किरण में लिपटता शलभ कर नादानी,*


*पुनः याद करना मुझे तुम विरागिनी,*


*अभागा पथिक हूं नयन में है पानी।*


 


*नयन सुला दो हृदय को जगा दो,*


*सपन बन तुम्हें ज़रा सा हंसाऊं।।*


~~~~~~`~`~~~~


*कालिका प्रसाद सेमवाल*


*मानस सदन अपर बाजार*


*रूद्रप्रयाग उत्तराखंड*


*पिनकोड 246171*


 


 


 


 


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