डॉक्टर बीके शर्मा

# तुम गिरती हो ओला वन #


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मैं तो हरित फसल हूं प्रिय 


क्यों कहती हो गोला बन 


खुद गलती और मुझे गलाती 


क्यों गिरती हो ओला वन


 


जब मैं पक खलियानों में आता 


खुद जलती और मुझे जलाती 


तुम जाती हो शोला वन 


मैं तो हरित फसल हूं प्रिय 


क्यों गिरती हो आेला वन


 


बड़ी विचित्र हो तुम तो साकी 


ना कुछ कहती ना कहने देती 


चल देता मैं भोला बन


मैं तो हरित फसल हूं प्रिय


 क्यों गिरती हो ओला वन


 


क्यों नट बन मैं तुम्हें नचाऊं


 क्यों मारू बन तुम पांव उठाओ


क्यों गाता फिरू में ढोला वन


मैं तो हरित फसल हूं प्रिय 


क्यों गिरती हो ओला बन 


 


डॉ बीके शर्मा


डॉक्टर बीके शर्मा

कोई तो मदारी है


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उम्र अब प्यार करने लायक सी हो गई 


बात अब इजहार करने लायक सी हो गई 


आप जब से मेरे ह्रदय का हिस्सा बन गए


 हर बात दिल की जज्बात लायक सी हो गई 


बादल बन छा गए तुम दिल पर मेरे 


की आंखें अब बरसा के लायक सी हो गई 


हम मिलते रहे पल दो पल के लिए 


की उम्र और साथ चलने लायक सी हो गई 


एक फैसला जो साथ रहने का हमने किया 


लगा एक पल में सारी जिंदगी को जी लिया 


प्यार का इजहार तुम से कुछ इस तरह किया 


कि खोल जीवन का हर राज मैंने तुमको दिया 


छुपा मेरा जीवन में तुमसे कुछ भी नहीं 


आपके बिना मेरा एक पल कटता नहीं 


अब तो उम्र आ गई है आखिरी पड़ाव पर 


कि साथ तुम चलो सच यह भी तो नहीं


प्यार कुछ और नहीं सिवा विश्वास के 


उड़ नहीं सकता पंछी बिना आकाश के


 मन दूर जाता है पर लौट आता है 


कोई तो मदारी है जो सबको नचाता है 


 


 


डॉक्टर बीके शर्मा


डॉ बीके शर्मा

* हम क्या करें *


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 तुम करीब थे 


 


हम क्या करें


 


जो हो गया उसका 


 


गम क्या करें 


 


रफ्ता रफ्ता है 


 


सफर पर


 


अपनी जिंदगी 


 


इससे भी भला 


 


अब कम क्या करें 


 


 


डॉ बीके शर्मा


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

डॉ प्रताप मोहन "भारतीय" 


जन्म -15 जून1962 को कटनी (म.प्र.) 


पिता का नाम - श्री गोविन्दराम मोहन


माता का नाम - श्रीमती ईश्वरी देवी


शिक्षा - बी. एस. सी., आर. एम. पी.,एन. डी., बी. ई. एम. एस. , एम. ए.,एल. एल. बी.,सी. एच. आर.,सी. ए. एफ. ई.,एम. पी.ए.


सम्प्रति - दवा व्यवसायी


संपर्क - 308,चिनार ए - 2,ओमेक्स पार्क वुड,चक्का रोड , बद्दी - 173205(हि. प्र.)


चलित दूरभाष-9736701313,9318628899 ,


अणू डाक - DRPRATAPMOHAN@GMAIL.COM


लेखन की विधाए - क्षणिका ,व्यंग्य लेख , गजल , साहित्यक गतिविधीयाँ - राष्ट्रीय स्तर के पत्र , पत्रिकाओ में रचनाओ का प्रकाशन


प्रकाशित कृतियां - उजाले की ओर (व्यंग संग्रह)


पुरस्कार एंव सम्मान


(1) साहित्य परिषद् उदयपुर राजस्थान द्वारा "काव्य कलपज्ञ" की उपाधि से सम्मानित


(2) के.बी. हिन्दी साहित्य समिति बदांयू ((उ. प्र.) द्वारा "हिन्दी भूषण श्री" 2019 की उपाधि से सम्मानित


(3) नालागढ़ साहित्य कला मंच हि. प्र. द्वारा "सुमेधा श्री 2019" सम्मान प्राप्त ।


 


कविता 1


** पिता ***


बाहर कठोर


अंदर नरम दिल


होता है


सारा दिन अपनी


संतान को


समर्पित होता है


      ***


त्याग कर सारी


अपनी इच्छाऐ


संतान पर


ध्यान देता है 


सच में पिता


महान होता है


       ***


बच्चो की हर


बात बिना बोले


समझ जाते है


बच्चो की खातिर


अपना हर गम


भूल जाते है


      ***


पिता हर


इच्छा पूरी करने वाला


सांता क्लॉज़ है


हर बच्चो को होता


अपने पिता पर नाज़ है


      ***


जिसके पास है पिता


वो सबसे बड़ा अमीर है


क्योंकि पिता ही


हमारी सबसे बड़ी जागीर है


       ***


जिसने कर दी पूरी 


ज़िन्दगी संतान के नाम


ऐसे पिता का करे


हम हमेशा सम्मान


  लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय        


 


2


*** सुँदरता ***


शरीर सुन्दर होता है


तो सभी होते है आकर्षित


मन की सुंदरता को


कोई देखता नहीं


 तन की सुंदरता है


अस्थायी 


वक़्त के साथ


ढल जायेगी


जबकि मन की सुंदरता


अंत तक साथ निभायेगी 


यह कोई जरुरी नहीं


कि हर सुंदर तन के पीछे


एक सुंदर मन हो


तन के साथ मन भी


हो सुन्दर तभी


सुंदरता का


वास्तविक आनंद आयेगा


इस दुनिया का नियम है


जो दिखता है


वो बिकता है


सुंदरता दिखती है


तो वह बिकती है


मन की सुंदरता


नही दिखती है


तो उसका ग्राहक भी


नहीं मिलता है


  लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय          


 


3


*** अहंकार ***


अहंकार आज तक


किसीका टिक नही पाया है


महाबलि रावण भी


ने इससे हार खाया है


        ***


कभी खुद पर


न करें अहंकार


सभी को समझे


एक प्रकार


       ***


जिसने भी अहंकार से


नजदीकी बनायी है


हमेशा ज़िन्दगी में


ठोकर खायी है


       ***


अहंकार का असर


ऐसा है आता


कि अहंकारी सही


और गलत में


अंतर नहीं कर पाता


        ***


ऐसी दौड़ है


अहंकार


जहाँ जीतने वाला


जाता है हार


  लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय          


4


*** प्रकृति और मानव ***


प्रकृति अपनी


चीजो का उपयोग


स्वयं नहीं करती


वह इससे है


मानव का पेट भरती


         ***


मानव है स्वार्थी


करता है प्रकृति से खिलवाड़


तभी तो आते है सूखा और बाढ़


         ***


मानव प्रकृति की


गोंद में फलता फूलता है


इसके बाद भी 


प्रकृति को लूटता है


         ***


प्रकृति और मानव 


का चोली और


दामन का संबंध है


बिना प्रकृति के


मानव का अंत है


        ***


मानव यदि


प्रकृति के नियमो 


का सम्मान करेगा


तभी इस दुनिया में


राज करेगा


    लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय          


5


*** बेटी की विदाई ***


जब बेटी की


विदाई का अवसर


आता है


माँ बाप की आँखों में


आँसू और दिल


भर आता है


       ***


बेटी है


पराया धन


इसे छोड़ना


पड़ता है


घर एक दिन


    ***


बेटी की विदाई


की परंपरा


सदियों से 


चली आयी है


राजा हो या रंक


किसी ने बेटी


अपने घर नहीं बिठायी है


       ***


आज बिदाई में


बेटियां नहीं रोती है


क्योंकि वो


अपने जीवन साथी से


पूर्व परिचित होती है


        ***


कैसा है दुनिया का दस्तूर


कि हम


अपने कलेजे के टुकड़े


को दूसरे को


सौप देते है


अपनी बेटी को


परायो को सौप देते है


       ***


एक घर छोड़कर


दुसरा घर


होता है बसाना


हमेशा से ये परम्परा


निभाता आ रहा है जमाना


    लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय - बद्दी - 173205 (H P)


  9736701313


 


राजन सिंह स्टेट रिहार सीतापुर

देव घनाक्षरी


 


डमरू ड़मड्डमड्ड,


बहे गंग जटामध्य,


कण्ठ सर्प मुंडमाल,


ध्यान-मग्न मस्त-मगन।


 


चन्द्रभाल नेत्र त्रिय,


शांत चित्त भक्त प्रिय,


नीलकण्ठ महाकाल,


वास है कैलाश गगन।


 


महारौद्र रूप धरे,


मौर बाधे बैल चढे,


अंग में भभूत मले,


करें गण नृत्य नगन।


 


दैत्य करे डाह आह,


देव करे वाह वाह,


शम्भु-उमा का विवाह,


चढ़ी है लगन लगन।


 


 *राजन सिंह*


प्रिया चारण उदयपुर राजस्थान

शहादत को सम्मान


 


शहादत को सम्मान मिलना चाहिए।


अमर जवानों की चिताओ को जय जयकार मिलना चाहिए।


शहीदो की पत्नियों को


अमर सिंदूर का सौभाग्य मिलना चाहिए।


शहीदो के परिवार को 


नेताओ जितना अधिकार मिलना चाहिए।


शहीदो के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा का ज्ञान मिलना चाहिए


शहादत को सम्मान मिलना चाहिए।


सुहागन के लाल जोड़े को सफेद करने के हौसले को आत्मनिर्भरता का ईनाम मिलना चाहिए।


माँ की कोख़ सुनी कर भारत माँ की गोद में अमर नींद सो जाने वाले को , अमरता का निशान मिलना चाहिए


शहादत को सम्मान मिलना चाहिए।


शहीद के परिवार को जिंदगी गुजरने का राशन ता उम्र मिलना चाहिए।


शहीद के बच्चो की छोटी सी जरूरतों का भी सरकार को खयाल रखना चाहिए।


शहादत को सम्मान मिलना चाहिए।


शहादत के बाद भी अमर दीप दिलो में जलने चाहिए ।


शहीद के परिवार को भी अपने बलिदान का ईनाम मिलना चाहिए ।


 


प्रिया चारण


उदयपुर राजस्थान


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

"जीवन को जीवंत बनायें"


विरोधाभासों के भँवर में


जब भी झूलती है ज़िन्दगी


तब जीवन के हर क्षण को महत्वपूर्ण बनाएँ


आओ मिलकर सब जीवन को जीवंत बनाएँ


भविष्य की चिंताओं को जाएँ हम भूल


ये चिंताएँ ही तो हैं हमारे दुख का मूल


उन सबको भूल वर्तमान को सुखद बनाएँ


आओ मिलकर सब जीवन को जीवंत बनाएँ


भावनाएँ तो मानव हृदय की जीवन्तता हैं


आँसू बहते हैं तो बहती संग वेदना है


होठों को मुस्कुराहट का सुंदर बाना पहनाएँ 


आओ मिलकर सब जीवन को जीवंत बनाएँ


जीवन के सार को समझ प्रसन्नता फैलाएँ


अब हर क्षण के लिए सजग, सचेत हो जाएँ


अपने जीवन का हर क्षण उपयोगी बनाएँ


आओ मिलकर सब जीवन को जीवंत बनाएँ


जीवन होगा सन्तुलित तो


 कदम मोक्ष की ओर जाएंगे


लेना-देना, साम्य-असाम्य


 बिखराव की स्थिति से स्वतः उबर जाएंगे


उम्मीदों की डोर पकड़ना छोड़ दीजिए


मानसिक अशांति से स्वतः निकल पाएंगे


आओ मिलकर सब जीवन को जीवंत बनाएँ


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


एस के कपूर "श्री हंस* " *बरेली।*

*विषय।।।।।।।शत्रु।।।।।।।।।।।*


*शीर्षक। हम ही अपने मित्र हम*


*ही हैं अपने शत्रु भी।*


*विधा।। मुक्तक माला ।।।।।*


 


हम ही हैं अपने शत्रु और


हम ही मित्र भी।


कभी लिये मधुर वाणी और


अहंकार का चित्र भी।।


हमारे भीतर ही स्तिथ गुण


मानव और दानंव के।


यह मनुष्य प्राणी जीव है


बहुत ही विचित्र भी।।


 


जिस डाल पर बैठता उसी


को काट डालता है।


मधुर सम्बन्धो को भी स्वार्थ


वश बांट डालता है।।


जीवन भर की मित्रता को


पल में करता ध्वस्त ये।


अपनेपन की चाशनी को बन


शत्रु चाट डालता है।।


 


हमारा घृणा भाव ही तो है


परम शत्रु हमारा।


मन को करता कलुषित मोड़


देता ये मितरु धारा।।


क्रोध वह शत्रु है जो करता


हमारा ही सर्वनाश।


कर बुद्धि का नाश हटा देता


अपना ही मित्र सहारा।।


 


बने हमयूँ भूल सेभी हमसे कोई


घायल न होना चाहिये।


हमारी नज़र में कोई छोटा नीचे


पायल न होना चाहिये।।


वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धांत


हो मन मस्तिष्क में।


हमारेआचरण का मित्र नहीं शत्रु


भी कायल होना चाहिये।।


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस* "


*बरेली।*


मोब 9897071046


                  8218685464


कुमार कारनिक

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  *यही महाभारत है*


   विजया घनाक्षरी


 """""""""""""""""""""""""


तीर - गदा - तलवार,


किस पर करूँ वार,


सब मेरे सखा - बंधु,


यही महा-भारत है।


🌼🏹


चारों ओर कोहराम,


कहे सब राम - राम,


साथ में दीन-दयाला,


युद्ध - वीर भारत है।


🌸⚔️


तम की घोर भारी थी,


घोर अन्याय जारी थी,


तभी युग - युद्ध हुआ,


कुरुक्षेत्र भारत है।


🏵🗡️


दुश्मन भी अपना था,


धर्म रक्षा करना था,


देश हेतु मर मिटे,


भाईयों का भारत है।


 


        00000


 


अंग - अंग कटे पड़े,


धड़ - मुण्ड गिरे पड़े,


देखो साँसे टूट रही,


देश हेतु युद्ध किये।


❄⚔️


विधवाएं लाखों हुए,


बेसहारे लाखों हुए,


बिलखते माँ - बेटियाँ,


राष्ट्र -हित युद्ध किये।


🌼🏹


द्रुत - क्रीड़ा नियोजित,


पांचाली अपमानित,


बदले की प्रादुर्भाव,


है वचन - बद्ध हुये।


🌼🗡️


श्री कृष्ण रोक न पाया,


ये सब इनकी माया,


दिये गीता उपदेश,


स्वयं से वे युद्ध किये।


 


 


 


*कुमार🙏🏼कारनिक*


              |||||||||||||||


संजय जैन (मुम्बई) 02/06/2020

*फिर याद आये वो*


विधा : गीत


 


मेरे दिल मे बसे हो तुम,


तो में कैसे तुम्हे भूले।


उदासी के दिनों की तुम,


मेरी हम दर्द थी तुम।


इसलिए तो तुम मुझे,


बहुत याद आते हो।


मगर अब तुम मुझे,


शायद भूल गए थे।।


 


आज फिर से तुम्ही ने,


निभा दी अपनी दोस्ती।


इतने वर्षों के बाद,


किया फिरसे तुम्ही याद।


में शुक्र गुजार हूँ प्रभु का,


जिसने याद दिलादी तुमको।


की तुम्हारा कोई दोस्त,


आज फिर तकलीफ में है।।


 


मैं कैसे भूल जाऊं,


उन दिनों को मैं।


नया नया आया था,


तुम्हारे इस शहर में।


न कोई जान न पहचान,  


 थी तुम्हारे शहर में।


फिर भी तुमने मुझे, 


अपना बना लिया था।।


 


मुझे समझाया था कि,


दोस्ती कैसी होती है।


एक इंसान दूसरे का,


जब थाम लेता है हाथ।


और उसके दुखो को,


निस्वार्थ भावों से।


जो करता है उन्हें दूर, 


वही दोस्त सच्चा होता है।। 


 


इंसानियत आज भी है,


लोगो के दिलो में जिंदा है।


जो इंसान को इंसान से,


जोड़कर दिलसे चलता है।


और धर्म मानवता का, 


निभाता है दिल से।


मुझे फक्र है उस पर,


जो सदा ही साथ है मेरे।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


02/06/2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*लोक-गीत*(कजरा लगाइ के)


कजरा लगाइ के,गजरा सजाइ के,


आइल गुजरिया-


खबरिया हो तनी लेल्या सँवरिया।।


 


रहिया तोहार हम ताकत रहली,


रोज-रोज सेजिया सजावत रहली।


बिंदिया लगाइ के,मेंहदी रचाइ के,


आइल गुजरिया-


खबरिया हो तनी लेल्या सँवरिया।।


 


फगुनी बयार बहि जिया ललचावे,


सगरो सिवनियाँ के बड़ महकावे।


अतरा लगाइ के,तन महकाइ के,


आइल गुजरिया-


खबरिया हो तनी लेल्या सँवरिया।।


 


इ दुनिया बाटे एक पलही क मेला,


उपरा से देखा त बड़-बड़ झमेला।


बचि के,बचाइ के,छुपि के,छुपाइ के,


आइल गुजरिया-


खबरिया हो तनी लेल्या सँवरिया।।


 


सथवा हमार राउर जिनगी-जनम से,


कबहूँ न छूटे लिखा बिधिना-कलम से।


असिया लगाइ के,चित में बसाइ के,


आइल गुजरिया-


खबरिया हो तनी लेल्या सँवरिया।।


              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


राजेंद्र रायपुरी।।

😌😌 दो जून की रोटी 😌😌


 


किस्मत वालों को ही मिलती,


                          दो जून की रोटी।


उन्हें नसीब न होती भैया,


                  जिनकी किस्मत खोटी।


 


इसकी ख़ातिर भटके दर-दर,


                          जाएॅ॑ देश-विदेश। 


यही जन्म-भूमि छुड़वाती, 


                            ले जाए परदेश।


 


यही है करती उनके संग,


                          रहने को मजबूर।


जिनसे चाहें हम सब हरदम,


                           रहना कोसों दूर।


 


झूठे को सच्चा कहने को, 


                          यही करे मजबूर।


जो दोषी उसको कहते हम,   


                        इसका नहीं कुसूर।


 


इसकी ख़ातिर जाने क्या-क्या,


                     करना पड़ता है यार।


यही कराती है बहुतों से,


                          कोठे पर व्यापार।


 


दो जून की रोटी का है,


                        दीवाना जग सारा।


इसने ही तो कईयों को है,


                          बे-मौत ही मारा।


 


वहा पसीना खाना भैया,


                          दो जून की रोटी।


चाहे हो वो रूखी- सुखी, 


                           या संग हो बोटी।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कृष्णा देवी पाण्डे        नेपाल गंज, नेपाल

कबिता-- नाराज़ नहीं हु तुमसे।


 


नाराज़ नहीं हु तुमसे,


। क्योंकि प्यार बहुत है तुमसे।


जब तुम अपने हाथ से मेरे उपर सहलाते हो,


तब ऐसा लगता है कि मा कि गोद और पिता साया मिल गया हो।


नाराज़ नहीं हु तुमसे ,


क्योंकि प्यार बहुत है तुमसे।


जब तुम्हारे सिने पर सर रखती हु, 


तभी तो खुद को जानने का अवसर पाती हु।


एक वहीं पल है ,


जिसको मै अपने लिए जीती हु, 


उसी से हिम्मत और शक्ति मिलती है।


तुम सायद इस बात से अनजान हो, 


लेकिन सच कहुं तो


 मैं बस वही पर अपने लिए जितनी हु।


अब तुम ही बताओ ,


नाराज़ कैसे हो सकती तुमसे।


         कृष्णा देवी पाण्डे


       नेपाल गंज, नेपाल


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"क्यों चले जाते हैं मीत?"*


(कुण्डलिया छंद)


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*सपनों का नित भान कर, भरे नहीं घट-रीत।


क्यों जाते हैं छोड़कर, दूर कहीं मन-मीत??


दूर कहीं मन-मीत, नेह आपस का तोड़े।


जाने किससे कौन, कहाँ कब नाता जोड़े??


कह नायक करजोरि, सुहाना क्षण अपनों का।


करता हृदय विदीर्ण, चक्र चंचल सपनों का।।


 


*होते अपने क्यों विलग? अपनों की तज प्रीति।


मेल कभी कब छूटना, अजब जगत की रीति।।


अजब जगत की रीति, कर्म जो करता जैसा।


जग में मिलन-विछोह, मिले फल उसको वैसा।।


कह नायक करजोरि, कभी हँसते कब रोते।


पल-पल खेल-अनेक, मिलन-बिछुड़न के होते।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

कथा एक सुनाता हूँ महाभारत के महायोद्धा कि बात बताता हूँ।


 


सारे यत्न प्रयत्न व्यर्थ ,युद्ध घोष कि दुन्धभि का बजना निश्चय निश्चित था।                          


 


 रथी ,अर्ध रथी ,महारथी युद्ध में लड़ने वाला हर योद्धा, युद्ध कौशल, शत्र ,ज्ञान का पारंगत था।।


 


अठ्ठारह दिन अवधि निर्धातित थी विजय वरण किसका करेगी छिपा काल के अंतर मन में था।।


 


 पितामह ,अर्जुन ,द्रोण कर्ण ,अगणित योद्धा को विजय विश्वास था ।।                       


 


हर योद्धा काल, विकट ,विकराल।था ।                                  


महाभारत के महायुद्ध का वर्तमान इतिहास था।।


 


वीर एक ऐसा भी धीर, वीर ,गंभीर युग में अज्ञात था।                  


 


चल पड़ा अकेले ही कुरुक्षेत्र कि विजय का पताका लिये हाथ । पल भर में ही युद्ध करने समाप्त करने का सौर्य संकल्प था।।


 


 केशव, मधुसूदन ,बनवारी गिरधारी को हुआ ज्ञात । नियत के निर्धारिण का क्या होगा? कुरुक्षेत्र में गीता के उपदेश निष्काम कर्म युग संदेस कौन सुनेगा?                            


 


 कृष्णा ने मार्ग में ही महायोद्धा से किया प्रश्न ।                        


कौन हो कहाँ जा रहे हो क्या है प्रयोजन।।                       


 


बर्बरीक है नाम हमारा , महाभारत का महा युद्ध लड़ने को मैं जाता हूँ ।                                 


 


पलक झपकते ही युद्ध समाप्त कर मैं विजय पताका मैं लहराता हूँ।                                      


 


सारे योद्धाओं को अभी मै कुरुक्षेत्र में चिर निद्रा का शयन कराता हूँ।।


 


कृष्ण ने नियत काल भाग्य भगवान् प्रारब्ध पराक्रम का दिया उपदेश दिया । हठधर्मी ने बर्बरीक ने एक भी नहीं सूना।                               


 


कृष्णा ने महाबीर बर्बरीक कि साहस, शक्ति ,शत्र ,शाश्त्र कि परीक्षा कि इच्छा का आवाहन ललकारा किया।               


बोले कृष्णा यदि एक बाण से बट बृक्ष के सारे पत्तों का भेदन कर दोंगे।


तेरी युद्ध कौशल वीरता के हम भी कायल हो जाएंगे ।              


 


फिर चुपके से बट बृक्ष का एक पत्ता अपने चरणों के निचे दबा लिया।।


 


बर्बरीक भी भाग्य भगवान कि परीक्षा को स्वीकार किया ।       


ललकार को धनुष वाण संधान किया । ।                    


 दक्षता कि परीक्षा का शंखनाद किया।


 


एक बाण से बट बृक्ष के सारे किसलय कोमल पत्तो का भेदन संघार किया।                     


 


जब लौटा बर्बरीक का बाण कृष्णा ने बट बृक्ष के सारे पत्तो का भेदन देखा।    


 


 वीर बर्बरीक 


अब भी एक पत्ता भेदन से वंचित है कृष्णा ने बोला ।             


 


बर्बरीक हे मधुसूदन देखो अपने चरणों के निचे ।                 


 


समस्त ब्रह्मांड कि परिक्रमा कर मेरा बाण आपके चरणों के निचे छिपे हुये पत्ते का भेदन कर लौटा है ।                                   


 


कृष्णा ने देखा चमत्कार के पराक्रम ,पुरुषार्थ को । बोले कर सकते हो नियत काल को पल भर में सिमित।।


 


दिखलाया आदि अनन्त स्वरूप् अपना बोले वर मांगों।     


 


बर्बरीक तब बोला मेरी मंशा मैं देंखु कुरुक्षेत्र के भीषण युद्ध को।


 


एव मस्तु कह कृष्णा ने चक्र सुदर्शन को आदेश दिया । बर्बरीक का मस्तक धड़ से अलग किया ।।                               


 


कटे हुए मस्तक को लटकाया कुरुक्षेत्र को दिखने वाली ऊंचाई पर ।                                  


 


बोले मधुसूदन इस युद्ध के हो तुम न्यायाधीश । बतलाओगे हार जीत के महारथी और तीर ।।


 


भयंकर युद्ध समाप्त हुआ कुरुक्षेत्र कि धरती वीरों के रक्त अभिषेक से लाल हुई।                   


 


अहंकार के मद में चूर आये विजयी बर्बरीक पास ।   


किया सवाल कौन बाली कौन महा बली?


कौन विजेता कौन पराजित?  


 


बर्बरीक तब बोला मधुसूदन लड़ता, मधुसूदन मरता ,जीता। मधुसूदन ही विजयी और पराजित ।                           


 


तुम सब मात्र निमित्त ,यह तो इस पर ब्रह्म कि लीला थी निर्धारित।


 


अहंकार के विजेता का अभिमान चूर हुआ असत्य पराजित सत्य पथ आलोकित का युग साक्षात्कार हुआ।।                             


 


बर्बरीक फिर बोला मेरे लिये क्या आज्ञा है।                           


 


कृष्णा ने आशिर्बाद दिया तुम कलयुग में मेरे जैसे पूजे जाओगे।


 


कलयुग में मेरे ही स्वरुप तुम खाटू श्याम कहलाओगे।।     


    


पुरुषार्थ ,पराक्रम ,प्रेरणा कि भारत कि गौरव गाथा पीताम्बर गा गया।                            


 


कृष्णा के निष्काम कर्म के युग कि महिमा बतला गया।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

सृजनहार की.............


 


सृजनहार की सृजना,


सृष्टि सुन्दर सौम्य।


शांतिमय संगीतमय,


शीतल और सुरम्य।


स्नेह सलिल से सींच,


सत्य सेे सुशोभित।


संवेदनाओं से संयुत,


सौभाग्य से सुमेलित।


सहजता से सरस,


सरलता से सुसंस्कृत।


सौन्दर्य से संरक्षित,


सुजनता से सुरक्षित।


सर्वज्ञ सर्वमान्य है,


सर्व गति श्रेष्ठ सुजान।


सृजेता की सामर्थ,


सृजकता का सुप्रमान।


सौभाग्य वह स्वामी,


सबका स्वाभिमान है।


सत्य की सम्पदा से ,


सफलता सुअभिमान है।


सच्चिदानंद सर्वेश्वर,


शत शत साष्टांग प्रणाम।


संसार सुभाशीष से,


स्वामी सदा ही निष्काम।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय🙏🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹🌹🌹


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


         *"मन"*


"सोचता रहा मन बावरा,


कैसे-बीते यहाँ जीवन?


आहत मन की भावना फिर,


क्यों- समझे न पागल मन?


भूले बीते पल को यहाँ,


कहाँ-मान सका फिर ये मन?


बढ़ता आक्रोश तन-मन में,


कब-तक सह सके उसको तन?


बने न विकृति मन में यहाँ,


पल-पल चाहता रहा मन।


रह मौन इस जीवन में फिर,


पाये राहत कुछ आहत मन।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


 


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 02-06-2020


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

सीमा शुक्ला


पति _राहुल कुमार शुक्ला


पता- मंझवा गद्दोपुर (रायबरेली रोड)


अयोध्या उत्तर प्रदेश


व्यवसाय- अध्यापन


बेसिक शिक्षा विभाग


शिक्षा- परास्नातक-


    १ समाजशास्त्र


     २ अंग्रेजी साहित्य


BP Ed training


 


9453998863


 


1 कविता शारदे वंदना


मां वन्दना


 


मात सुन लो हृदय से करूं वंदना।


मात जन-जन की सुन लो करुण वेदना।


 


मां मिटा दो सकल आज दुश्वारियां।


प्रेम की खिल उठें कोटि फुलवारियां।


है मुकद्दर बहुत आज बिगड़ा हुआ।


हर तरफ है चमन आज उजड़ा हुआ।


 


मां करो आज सबकी सफल साधना।


मात जन-जन की सुन लो करुण वेदना।


 


मां मिटा दो अंधेरी अमा रात को।


हर तरफ मां करो नेह बर्सात को।


दर्द की धूप से जल रहें हैं वदन,


हर तरफ कंठ में बेबसी का रुदन।


 


मात हर मन मिटा दो कुटिल वंचना।


मात जन-जन की सुन लो करुण वेदना।


 


मां धरा पर न हो फिर हरण चीर का।


बाल सिसके न कोई बिना क्षीर का।


मां न ममता के आंचल में आंसू गिरे


टूटकर मां नयन से न सपनें झरें।


 


मात भक्तों की किंचित सुनो अर्चना।


मात जन-जन की सुन लो करुण वेदना।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


 


 


कविता 2


आओ फिर से तुम नव विहान।


 


कलियों में मृदु मकरंद भरो


फूलों में मधुर सुगंध भरो।


उपवन में नव श्रृंगार भरो


वीणा में मृदु झनकार भरो


पिक कंठ सुरीला राग भरो


कुंठित मन में अनुराग भरो


 


मस्ती में कालिका चूम चूम


अलि गाये फिर से प्रणय गान


आओ फिर से तुम नव विहान।


 


अधरो पर पुलकित हास भरो


अंतस में फिर उल्लास भरो।


निर्जन पथ में कुछ संग भरो


जीवन में स्वप्निल रंग भरो।


कुछ टूटे मन में आस भरो।


मृत मानवता है श्वास भरो।


 


तुम नवल रश्मियों से जन जन


को फिर से दो अमरत्व ज्ञान


आओ फिर से तुम नव विहान।


 


आंचल की सुनी गोद भरो।


दुखियारे मन अमोद भरो।


पाषाण हृदय में भाव भरो।


कुछ असह वेदना घाव भरो।


जगजीवन शुद्ध विचार भरो।


मानव मन नेह अपार भरो।


 


फिर से वसुधा पर मानव में


निज मर्यादा का रहे ध्यान।


आओ फिर से तुम नव विहान।


 


झूठे के मन में सत्य भरो।


अलसाये जीवन कृत्य भरो।


कुछ क्रूर हृदय में दया भरो।


आंखों में थोड़ी हया भरो।


निर्धन के घर भंडार भरो।


सबके जीवन में प्यार भरो।


 


मानवता का फिर करुण रुदन


परवरदिगार सुन ले महान।


आओ फिर से तुम नव विहान।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


 


कविता 3


तुम्हे क्या लिखूं?


 


तुम्हे अधर की प्यास लिखूं,


या जीवन का उल्लास लिखूं।


तुम्हे ख्वाब या तुम्हे हकीकत,


या मधुरिम एहसास लिखूं।


 


भावों में कर तुम्हे समाहित,


प्रेम गीत मैं चंद लिखूं।


मन स्वर्णिम स्मृतियों को


छंदों में कर बंद लिखूं।


 


तुम्हे गीत या ग़ज़ल लिखूं


या तुम्हे पृष्ठ इतिहास लिखूं


तुम्हे ख्वाब या तुम्हे हकीकत,


या मधुरिम एहसास लिखूं।


 


कृष्ण कन्हैया राधा का या,


मीरा का मैं श्याम लिखूं।


या मन की हर श्रद्धा लिख दूं


या सबरी का राम लिखूं।


 


तुम्हें वेदना का पतझर या,


तुम्हे खिला मधुमास लिखूं।


तुम्हे ख्वाब या तुम्हे हकीकत,


या मधुरिम एहसास लिखूं।


 


देवनदी सा पावन मन को,


पग रज को चंदन लिख दूं।


वीणा की झनकार तुम्हारे,


उर का स्पंदन लिख दूं।


 


तुम्हें विरह के आंसू लिख दूं,


या मुख का परिहास लिखूं


तुम्हें ख्वाब या तुम्हे हकीकत,


या मधुरिम एहसास लिखूं।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


 


कविता 4


 


जीवन


 


जीवन है जलधार मुसाफिर


सुख दुख है दो नाव।


सुख में पथ हैं छांव मुसाफिर,


दुख में जलते पांव।


 


कभी जगे उम्मीद हृदय में


पुलकित मन में आशा है।


कभी घोर मायूसी छाए,


चारो ओर निराशा है।


कभी जंग में जीत मुसाफिर,


कभी हारते दांव।


सुख में पथ हैं छांव मुसाफिर,


दुख में जलते पांव।


 


कभी हो रही है दामन में


नित्य खुशी की वर्षा हैं


कोई खुशियों की तलाश में


नित्य नित्य ही तरसा है।


कोई सागर पार मुसाफिर


कहीं डूबती नाव ।


सुख में पथ हैं छांव मुसाफिर


दुख में जलते पांव।


 


कभी पनपता प्रेम नित्य ही,


होती कभी लड़ाई है।


कभी भीड़ है मेले की तो,


कभी अमिट तन्हाई हैं।


कभी गैर दुख हरे मुसाफिर


अपनें देते घाव।


सुख में पथ हैं छांव मुसाफिर


दुख में जलते पांव।


 


कभी नयन का रोना धोना,


कभी बजी सहनाई है।


कभी वेदना है विछोह की,


कभी मिलन ऋतु आयी है।


कहीं धरा वीरान मुसाफिर


कहीं सजा है गांव।


सुख में पथ हैं छांव मुसाफिर


दुख में जलते पांव।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


 


कविता 5


कहां गए तुम ओ वनमाली।


 


वही धरा है वही गगन है


मगर बहुत गमगीन चमन है


बुलबुल राग वियोगी गाए


बिना खिले कलियां मुरझाए।


लिपट लता का जीवन जिससे


टूट गई हैं अब वह डाली


कहां गए तुम ओ वनमाली।


 


तुमसे उपवन का सिंगार था


तुम थे हर मौसम बहार था


फूल खिलें क्या वन महकाएं?


किसके लिए चमन महकाएं?


कोटि यहां ऋतुराज पधारें,


मगर न आयेगी हरियाली


कहां गए तुम ओ वनमाली?


 


छोड़ दिए हैं पंछी डेरा।


छूटा कलरव गीत सवेरा।


उजड़ा उपवन तुम्हें पुकारे।


फिर जीवन उम्मीद निहारें।


तुम आओ तो फिर वसंत में


फूटे नव किसलय की लाली


कहां गए तुम ओ वनमाली।


 


सहमा हुआ चमन है सारा।


अपनी किस्मत से है हारा।


कहा गए तुम ओ रखवाले?


तुम बिन इनको कौन संभाले?


शाखों पर मायूस कोकिला


मधुर गान भूली मतवाली।


कहां गए तुम ओ वनमाली।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


कुंo जीतेश कुमारी "शिवांगी "

आज का विषय *औरत* पर मेरा प्रयास


 


*********************************


 


*औरत* ...........


 


औरत की कहानी किससे बताये ।


सच पूछूँ तो किससे छिपाये ।।


क्या है जो सहती नही औरत ।


वो अलग बात है कि.....


कहती नही औरत ।।


 


*औरत* ....दर्द का वो समन्दर है ।


धधकता हुआ लावा जिसके अन्दर है ।।


दिन भर पिसती है कर कर के काम ।


फिर भी है वो गुमनाम ।।


कुछ करती भी हो?? 


तुमसे तो कुछ नही हो सकता !


तुम बस आराम फर्मा लो ।


महारानी जो हो इस घर की ।


सुनती है सहती है सबके ताने ।।


और फिर भी इज्जत देती है सबको ।।


पर बेहया बेशर्म के नाम से ।


औरत ही है वो जो है बदनाम ।।


 


*औरत*.....


 


वो मुफ्त का सामान है ।


जिसका किसीको लगता ना


कोई भी दाम है ।।


नौकरों से भी गया गुजरा 


होता व्यवहार है ।


फिर भी मेरा परिवार है ।।


कह कर समझ कर करती ।


वो सारे ही काम है काम है ।।


 


*औरत*.......


सच कहूँ तो औरत वो ......


सहन शक्ति का प्रति रूप है ।


जिसकी छाया बिना जीवन चिलचिलाती धूप है ।।


 


*औरत*.....


त्याग की वह मूर्ति है ।


जिसके बिना किसी भी त्याग की


होती ना पूर्ति है ।।


 


*औरत*.......


वह उदाहरण है बलिदान का ।


जो ना हो तो मान ना किसी दान का ।।


 


*औरत*......


प्रेम का धागा है जहाँ में ।


जो ना हो तो रब भी आधा है जहाँ में ।।


 


 


*औरत*...... ममता कि छाया है.....


*औरत*......... दर्द का मरहम है......


*औरत*.......... चहों दिशाऐं है.......


*औरत*....... धरती है पाताल है.....


*औरत*..... प्रकृति है आकार है......


*औरत*.... जड़ है चेतना है.......


*औरत*...... प्रतिकार है चित्तकार है.....


*औरत*........ दुर्गा है काली है.....


*औरत*....... चण्डी है गौरा है.......


*औरत*.... सूर्य है चन्द्रमा है........


*औरत*...... आदि और अन्त है......


*औरत*..... अनन्त है .................


 


स्वरचित.....


शिवांगी मिश्रा


डॉ. राम कुमार झा

दिनांकः ०१.०६.२०२०


दिवसः सोमवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा 


शीर्षकः प्रकृति मुदित माँ भारती 


चमक रही पूरब दिशा , सूर्योदय आलोक।


बदलो जीवन सोच अब , मिटे सभी मन शोक।।१।।


रंग बिंरगी चहुँदिशा , वन सम्पद हिमराज।


कुसमित सुरभित अवनिका,नवजीवन आगाज़।।२।।


खोल पंख चहकें विहग, भरते व्योम उड़ान।


घिरे सकल पशुवृन्द से, हर्षित सिंह महान।।३।।


हरियाली भू विहँसती , लहराते नव पौध। 


पंचम स्वर पिकगान से, प्रिय प्रवास हरिऔध।।४।।


रिमझिम रिमझिम बारिशें, मन्द वात आनंद।


रसिक भँवर मंडरा रहे , खिले पुष्प मकरंद।।५।।


विमल क्षीर शीतल मधुर , गौ दोहन गोपाल।


उषाकाल लखि लालिमा , मृदुल बाल खुशहाल।।६।।


नव आशा ले नव किरण , कामगार रत कर्म।


अरुणोदय नव प्रगति का , सभी निभाए धर्म।।७।।


समता ममता नेह हो , शान्ति सुखद मुस्कान। 


समरसता सद्भाव ही , नव प्रभात दे ज्ञान।।८।।


नवप्रभात दे प्रेरणा , परहित जीवन दान।


रखें स्वच्छ मन प्रकृति को, राष्ट्र भक्ति सम्मान।।९।।


पा निकुंज अरुणिम शिखा, गन्धमाद मन मोह।


मुदित प्रकृति माँ भारती , सुखद कीर्ति आरोह।।१०।।


 


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित) 


नई दिल्ली


सुनीता असीम

कोई भी चलेगा न बहाना मेरे आगे।


तुमको न मिलेगा कोई सीधा मेरे आगे।


***


ऐसे न भड़क जाया करो बात मेरी सुन।


नीचा ही रखो अपना ये लहजा मेरे आगे।


***


औरों की तुम्हें बाहों में देखूं तो जले जाँ।


सीने से किसी को न लगाना मेरे आगे।


***


दुश्मन हो गया प्यार मुहब्बत का जमाना।


चलता न किसीका वैसे सिक्का मेरे आगे।


***


बिछड़ा वो ही मुझसे जो नहीं भाग्य में मेरे।


जीवन का उसीके टूटा धागा मेरे आगे।


***


सुनीता असीम


१/६/२०२०


प्रिया चारण नाथद्वारा राजसमन्द राजस्थान

असीम सौन्दर्य का नवीन प्रमाण है प्रकृति।


पतझड़ से लेकर फूलो की बहार है प्रकृति ।


 


अनीति का विनाश है प्रकृति। 


सूर्य के तेज़ से लेकर रिमझिम बरसात है प्रकृति।


 


पांच तत्वों का विज्ञान है प्रकृति


समय का विस्तार है प्रकृति


धन धान्य की उपज से लेकर सूखा अकाल है प्रकृति


 


वृक्षो सा श्रृंगार है जिसका


झील सी नीली आँखे।


चाँदनी रात सा काजल जिसको साजे


 


ममता सी उपज है जिसकी


वायु की शीतलता मन मोह ले 


अग्नि जिसके क्रोध में है


 


हिमालय सा ताज है


मरुस्थल सा साम्राज्य है


गर्भ जिसका खनिजो से भरा 


पर्वत शिलाएं जिसकी सिमा रेखा 


यही हमारी प्रकृति का विस्तार है 


अनदेखा सा प्यार है


 


प्रिया चारण


नाथद्वारा राजसमन्द राजस्थान


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग

*"मातु-महान"* (दोहे)


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


^स्नेह सिक्त पीयूष को, मातु-पिला संतान।


अर्पित कर निज रक्त को, देती जीवन दान।।१।।


 


^पावन पय पीयूष पी, सुख सरसित संतान।


हुलसित माता अंक में, धन्य मातु-अवदान।।२।।


 


^उपजे पीकर क्षीर को, शिशु के मानस-मोद।


माता मन ममता महत, स्वर्गिक सुख माँ-गोद।।३।।


 


^मातु सकल ब्रह्मांड है, सरस-सुधा-संसार।


जीव-जगत जनु जान-जन, ममता-अपरंपार।।४।।


 


^अमिय-कलश है मातु-वपु, मानस ममता-मूल।


पान अमिय माँ का करे, सकल मिटे शिशु-शूल।।५।।


 


^होकर अति कृशगात माँ, श्रम साधित मन-क्लांत।


पान करा फिर भी अमिय, करे क्षुधा-शिशु शांत।।६।।


 


^मातु-सुधा-सद्भाव से, सरसे सुख-संसार।


प्रेम पले पीयूषपन, पातकपन-परिहार।।७।।


 


^स्नेह सजीवन सार शुचि, सरसित सुधा समान।


बोली माँ के नेह की, फूँके जग-जन-जान।।८।।


 


^माँ देती संतान को, ममता की सौगात।


अमिय-सरिस माँ-दूध पी, बढ़ता शिशु-नवजात।।९।।


 


^माता जीवन दायिनी, अमिय कराती पान।


शिशु का संबल है वही, जग में मातु-महान।।१०।।


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


संजय जैन (मुम्बई)

*अजनबी पर दोस्त*


विधा : कविता


 


ज़रा सी दोस्ती कर ले..,


ज़रा सा साथ निभाये।


थोडा तो साथ दे मेरा ...,


फिर चाहे अजनबी बन जा।


मिलें किसी मोड़ पर यदि,


तो उस वक्त पहचाने हमे लेना।


और दोस्ती को उस वक्त,


तुम दिल से निभा देना।।


 


वो वक़्त वो लम्हे, 


कुछ अजीब होंगे।


दुनिया में हम शायद,


खुश नसीब होंगे।


जो दूर से भी आपको,


दिल से याद करते है।


क्या होता जब आप,


हमारे करीब होते।।


 


कुछ बातें हमसे सुना करो,


कुच बातें हमसे किया करो..।


मुझे दिल की बात बता डालो,


तुम होंठ ना अपने सिया करो।


जो बात लबों तक ना आऐ,


वो आँखों से कह दिया करो।


कुछ बातें कहना मुश्किल हैं,


तो चहरे से पढ़ लिया करो।।


 


जब तनहा तनहा होते हो तुम।


तब मुझे आवाज दे देना।


मैं तेरी तन्हाई दूरकर दूंगा।


बस दिल से याद हमे करना।। 


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


01/06/2020


 


 


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 

विषय:- " आत्म मंथन करता, यात्रा करता मन... "


""""""""""""""""""""""""""""""""""''"""'"'"""


         शीर्षक- " मन... "


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आत्म मंथन करता या 


लम्बी यात्रा करता मन.... 


जीवन के विविध रंगों को 


साथ लेकर चलता है 


कभी हास कभी अश्रु 


एक ही सिक्के के दो पहलू 


धूप-छाँव 


फूल और काँटे 


बाटते बराबर-बराबर। 


कभी रेत की आँधी 


तो कभी झरनों का मधुर ध्वनि 


साक्षात्कार कराते गहरे समुद्र से 


कल-कल बहती नदियों से 


हरियाली से 


पतझड़ से 


बिछुड़न. ...और 


फिर..... आलिंगन से। 


लम्बी यात्रा करता मन....


आँखों में तिरता 


प्रतिपल दिखाता अनोखे सपने 


कभी मंगलगान... 


तो कभी... अन्तहीन करुणा


कराह... चीत्कार 


वेदना... और


कल्पनाओं की ऊँची उड़ान।


आत्म मंथन करता मन.....


हँसता.. मनाता...रूठता 


जीवन के उतार-चढ़ाव 


शीत-गर्म का अनुभव 


अपना-पराया समझता 


छोड़ता अपनाता.. 


सँजोता जोहता 


और फिर... 


सम्बन्धों को परखता।


अन्तर्विभेद करता 


अन्तर्द्वन्द्व करता 


समर्थ और असमर्थ में 


लौकिक और अलौकिक में 


सदय और निर्दय में।


नापता अनन्ताकाश को 


प्रकृति के विराट को


अनुशीलन करता... 


और सोचता.. 


अकेले में 


यही तो है मोनेर दशा 


जे केऊ भापते पाड़े ना..... 


निरन्तर अथक।... ...


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०) मो० नं० 9919886297


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