कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली

. 🌅सुप्रभातम्🙏


दिनांकः ०३.०६.२०२०


दिवसः बुधवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा


शीर्षकः 🌅आये अभिनव भोर🌹


हटे सकल संताप मन, आये अभिनव भोर।


नयी आश नित शक्ति हो, जीवन यापन डोर।। 


है फिसलन इस जिंदगी , तजती झट निज देह।


रत हो जाओ कर्मपथ , पूर्ण करो सत् ध्येय।।


सदाचार नित विनत हो ,लोभ घृणा तज हेय।


करो कार्य नित राष्ट्र हित , परहित सुख हो गेय।।


छोड़ो मत आगत दिवस , शेष रखो मत काम।


पूर्ण करो कर्तव्य को , न जाने कब विश्राम।। 


धन जीवन अनमोल है, कर लो कुछ परमार्थ।


धन जन तन रिश्ते यहाँ , अंत काल सब व्यर्थ।। 


भर दे जग मुस्कान को , सुष्मित करो निकुंज।


खुशियों से भर दे चमन,अमर कीर्ति अलिगूंज।।


अरुणिम बस सेवा वतन, परहित है सत्काम।


मिटे सकल निशि जिंदगी, मिले मुक्ति गोधाम।।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित)


नई दिल्ली


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"कर्म में भल भाव भरो"*


(कुण्डलिया छंद)


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★दमके सु-भाव-दामिनी, मानव-मन-घन बीच।


पावनता ले साथ में, कमल खिले ज्यों कीच।।


कमल खिले ज्यों कीच, कर्म में भल भाव भरो।


करके कुछ कल्याण, यथा संभव ताप हरो।।


कह नायक करजोरि, भाग्य का सूरज चमके।


अनल-दहे जब स्वर्ण, कांति कंचन की दमके।।


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 *"जाना है जग छोड़कर"*


(कुण्डलिया छंद)


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*जाना है जब छोड़कर, जग के सारे भोग।


तो फिर क्यों निज स्वार्थ का, पाल रखा है रोग??


पाल रखा है रोग, धर्म शुभ नित्य निभाना।


करना नहीं अधर्म, पड़े न कभी पछताना।।


कह नायक करजोरि, मनुजता को न भुलाना।


पल-संयोग-कुयोग, लगा है आना-जाना।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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कृष्णा देवी पाण्डे                   नेपाल गंज

कविता- अपना ग़म किसी से मत कहना।


✍️


अपने ग़म को भुलाने के लिए,


कुछ दिन तनहा हो लेना,


कितना भी कोई पुछे ,


किसी से कुछ मत कहना


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कुछ तो दया सहानुभूति देंगे


कुछ तो पीठ पीछे हंसेंगे


कुछ तो मौका का फायदा खोजेंगे,


इससे अधिक साथ कोई नहीं देंगे


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सब कुछ खुद ही करना होता है


खुद ही हंसना और रोना होता है


 अपने आप को पहचानना जरूरी है,


क्योंकि उसी पर हमारा कर्म निर्भर होता है।


*****


जितना महशुस किया है 


उतना ही कृष्णा ने लिखा है।


 


कृष्णा देवी पाण्डे


                  नेपाल गंज,


विनय साग़र जायसवाल  बरेली

कविता ---


 


सुलग रही है मातृभूमि के सीने पर  चिंगारी ।


आज उऋण होने की कर लें हम पूरी तैयारी ।।


 


जगह जगह बारूद बिछी है ,जगह जगह हैं शोले 


ग़द्दारों को थमा दिये हैं,दुश्मन ने हथगोले 


लूटपाट क्या ख़ून खराबा, सब इनसे करवा कर 


भरता है वो अभिलाषा के ,अपनी निशिदिन झोले 


ग़ौरी से जयचन्दों की अब ,पनप न पाये यारी ।।


सुलग रही है------


 


सिंहनाद कर उठें शत्रु को,नाको चने चबा दें


इसकी करनी का फल इसके,माथे पर लटका दें


छोड़ के रण को भाग पड़ेंगे, यह बुज़दिल ग़द्दार


इनके मंसूबों की होली, मिलकर चलो जलादें


क्षमा नहीं अब कर पायेंगे,हम इनकी मक्कारी ।।


सुलग रही है-------


 


वीर शिवा,राणा प्रताप सा, हम पौरुष दिखलाते 


नाम हमारा सुनकर विषधर,बिल में ही घुस जाते 


गर्वित है इतिहास हमारा, हम हैं वो सेनानी 


कभी निहत्थे ,निर्दोषों पर ,उंगली नहीं उठाते 


हमने रण में करी नहीं है, कभी कोई मक्कारी ।।


सुलग रही है----------


 


घूम रही है भेष बदलकर ,ग़द्दारों की टोली


खेल रहे हैं यह धरती पर,नित्य लहू से होली


अब सौगंध उठा इनकी ,औक़ात बता देते हैं


निर्दोषों पर चला रहे जो ,घात लगा कर गोली


इनकी करतूतो से लज्जित है इनकी महतारी ।।


सुलग रही है ---------


 


उठो साथियों आज तनिक भी, देर न होने पाये


अब भारत के किसी क्षेत्र पर,कभी आँच न आये


आने वाली पीढ़ी वरना, कैसे क्षमा करेगी


कहीं किसी बैरी का *साग़र* शीश न बचकर जाये


बहुत खा चुकी अब केसर की, क्यारी को बमबारी ।।


 


सुलग रही है मातृभूमि के ,सीने पर चिंगारी ।


आज उऋण होने की कर लें ,हम पूरी तैयारी 


 


🖋विनय साग़र जायसवाल 


बरेली


22/2/2004


निशा"अतुल्य"

धीरे धीरे 


3.6.2020


 


जब भी कुछ कहती हूँ


लगता है तुम सुनते तो हो


पर शायद समझते नही


या समझना नही चाहते ।


मेरी उलझनों को देखते भी नही


समझने की करूँ क्या उम्मीद


कान धरते भी नही 


पर अकस्मात आता है ख़्याल


जिंदगी की झंझावत को 


बाहर तुम ही तो झेलते हो


ये सोच कर मैं चुप हो जाती हूँ


धीरे धीरे तुम्हे कुछ न कहने का मन बनाती हूँ ।


सच में घर को संभालना,


रिश्तों को सहेजना 


मान मुनव्वल में, 


स्वयं को भूल जाती हूँ ।


फिर तुमसे क्या शिक़ायत


तुम तो बाहर की जद्दोजहद 


झेल कर आते हो ।


धीरे धीरे मैं निस्तेज होती जाती हूँ,


तुम्हारे चेहरे पर खींची रेखाओं को देख समझ जाती हूँ,


चाहती हूं, पौंछ दूँ अपने आँचल से उन्हें,


पौंछ भी देती हूँ उन्हें, जब भी जान पाती हूँ


तुम भी शायद ऐसे ही निःशब्द 


चुपचाप, मेरी उलझनों को निरखते हो


इसी लिए मन की बात 


मन में ही रखते हो।


अचानक से बन निर्मल नदी बह निकलते हो ।


कुछ मन की बातें आँखों से कहते हो 


प्रेम का अनकहा सागर,जो लगता है सूख रहा था


धीरे धीरे परिवार रूपी सागर में ख़ुद को समाते हो 


और ऐसे ही एक दूसरे को समझते नासमझ हम 


धीरे धीरे अपने जीवन के पड़ाव पार करते हम


तन्हा दोनों जीवन में रह जाते हैं


अपना जीवन जहाँ से किया था शुरू, वहीं पहुँच जाते हैं।


धीरे धीरे बने धीर-गम्भीर हम दोनों 


ले हाथों में हाथ सुनहरे सपनो में खो जाते हैं ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


एस के कपूर "श्री हंस"* *बरेली।*

*विषय।।।।।रोटी।।।।।।।।।।।।।*


*शीर्षक।।।घर से बेघर हुआ था*


*मजदूर दो जून की रोटी को।।।।*


 


आज अपने देश में ही हम


पराये प्रवासी हो गये हैं।


समझ नहीं आता अब हम


कहाँ के निवासी हो गये हैं।।


भूख,गरीबी,आज बन गये


हैं अभिशाप जिन्दगी के।


खुद के लिए अब मानो हम


जैसे आभासी हो गये हैं।।


 


अपनी बनाई सड़क पर ही


हम पैदल चल रहे हैं।


पेट में नहीं *रोटी* और पाँव


नंगे भी साथ जल रहे हैं।।


जिन्दगी नरक सी बन गई


अब अपनी ही नज़र में।


रात दिन बच्चों के मन और


शरीर भूख से गल रहे हैं।।


 


भारत के राष्ट्रनिर्माता बन कर


समझते थे कि हम मगरूर हैं।


आज हम को पता चला कि


हम सब कितने मजबूर हैं।।


अब न तो शहर के ही रहे और


गाँव भी तो बहुत दूर है अभी।


असल में जान पाये कि हम


कुछ नहीं बस एक मजदूर हैं।।


 


इस दुर्दशा में आयो हम सब 


मिलकर इनका साथ निभायें।


इनकी दो जून की *रोटी* में 


भी अपना योगदान दिखायें।।


अकेले सरकार पर ही छोड़ना


सबकुछ जिम्मेदारी से भागना।


आईये मिलकर फिर से इनको


पद राष्ट्र निर्माता का दिलवायें।।


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।*


मोब 9897071046


                    8218685464


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

बंदिशे खत्म हो रही है जिंदगी कि रौनक का एहसास हो रहा है।  


 


तेजी से भागने कि परस्पर प्रतियोगिता में मानव उदंड उछ्रींखल हो रहा है ।।          


 


जीवन का सयंम ,संकल्प छोड़ रहा है ।                               


 


पहले भी एक बार ऐसी ही गलती कि सजा भुगत रहा हैं ।।            


 


छ सौ साल गुलामी के बाद भारत आजाद हुआ ।                   


 


भारत का जन जन गुलामी कि हद हैसियत कि सीमा सिकंचो से बाहर निकला।।                   


 


भूल चुका था मानव मर्यादा राष्ट्र प्रेम और धरती माता का महत्व।


 


 जैसे पिजड़े में बंद पंक्षी भूल जाता है उड़ाना ,अपना आकाश नीला ।।                        


 


 नतीजा आजादी के साथ ही देश बट गया ।                          


 


लाखो लोग जो एक दूसरे के पूरक थे एक दूसरे के हाथों विद्वेष कि भेंट चढ़ गए इंसान जानवर हो चला।


 


धीरे राष्ट्र बीते हादसों को भुलाने कि कोशिश कर रहा था ।        


 


 तमाम बंदिशों कि गुलामी से आजाद हुए मुल्क का आवाम।


 


 मुल्क को बना दिया जंगल और कायम कर दिया जंगल राज।


 


मानव समाज में जानवर के पर्याय बाहुबली ।                           


 


खून इनके लिये पानी से सस्ता इंसान मुर्गे बकरे कि तरह करता हलाल ।।                        


 


 प्रशासन के लिया जंजाल अन्याय अत्याचार भय भ्रष्टाचार के आधार ।                          


 


पहले छुपे रुस्तम थे अब दीखते सरेआम ।                         


 


गुलामी से आजाद हुए ए इंसान देश सम्माज को बना दिया जंगल।।                                      


 


 बना दिया खुद को जंगल का भयानक जानवर आम जनता हो बन्दर ,हिरन ,बकरी ,भैस ,गाय।        


 


यही है भारत के छ सौ साल गुलामी से आज़ाद हुआ समाज।।                                    


 


पहले गैरों कि गुलामी के जूते लात अब अपने ही लोगो कि गुलामी का तिरस्कार भय अपमान।।


 


 


कुछ दिनों के लिये कुछ प्रतिबंधों के बीच रहा राष्ट्र का जन समुदाय।    


 


भ्रम हुआ क्या फिर हुए गुलाम।                     


प्रतिबन्ध हट रहे है जन जन के चेहरे पर आजाद जिंदगी का तराना मुस्कान ।।                   


 


अपनी ही जिंदगी को बेफिक्र जी रहा इंसान जानते खतरों से अनजान।    


  


समय से पहले खतरों के हवाले खुद को कर रहा है ।    


 


उसका सयंम संकल्प टूट रहा है।


 


गुलामी अच्छी बात नहीं उछ्रींखलता कि आजादी सदा खतरनाक अभिशाप।


 


अनुशासन गुलामी नहीं, अनुसाहित जन का समाज राष्ट्र कभी गुलाम नहीं।।


 


 


 जीवन में उत्साह ,विकास के लिये सयंम ,नियम ,अनुशासन,संकल्प जरुरी।   


                           जीवन का निश्चय निश्चित आधार अनिवार्य।।                         


 


मुग़ल, ब्रिटिश ,कोरोना का ना गुलाम बने ।      


                      गुलामी में इंशा असय वेदना को सहता धीरे धीरे मरता जाता ।


 


 


अनुशासन, सयंम, संकल्प आजादी के आदि ,मध्य ,अंत अंनंत।।                    


 


  नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


शिवानंद चौबे जौनपुर

बारहिं बार बयारि झकोरत दीपक त्यागत न जलना रे।


सूरज चाँद निरन्तर धावत त्यागत न गति न चलना रे।


शूर की चाह पड़े पग पाछ न कायर चाह रही छलना रे।


अंकुर फोरि पहार कढ़ें अस पूत के पाँव दिखें पलना रे।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

सत्य शरण तुम्हारी.......


 


हे नटवर तेरे गुण गाऊं,


पल भर तुमको भूल न पाऊँ।


नाथ मिले जो कृपा आपकी,


अन्तर्मन से मोद मनाऊं।। 


 


जीवन कृष्ण धरोहर तेरी,


तुम से प्रीति रहे प्रभु मेरी।


मोह व ममता करें न व्याकुल,


निर्मल मति करो तुम मेरी।।


 


राग द्वेष में समय गवायो,


हरि स्मरण मैं कर नहीं पायो।


तुमहि जीवन के आधार हरि,


सत्य शरण तुम्हारी आयो।।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः👏👏👏👏👏🌸🌸🌸🌸🌸


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


       *"अकेला"*


"माना होता जो मन मेरा,


यहाँ देखता जग का मेला।


रहता न यूँही पल-पल मैं,


क्यों-अपनो संग अकेला?


पल-पल सोच रहा मन साथी,


कैसा -ये दुनियाँ का मेला?


अपना-अपना कहता साथी,


फिर भी रहता यहाँ अकेला।।


छाये न नफरत मन में साथी,


इतना तो होता मन उजला।


साध लेता जो मन साथी,


यहाँ रहता न फिर अकेला।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta


ःःःःःःःःःःःःःःःःः 03-06-2020


राजेंद्र रायपुरी

देश के वीरों को समर्पित एक रचना


 


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सैनिक सरहद पर खड़ा,


                    तभी सुरक्षित देश।


उनकी रक्षा मानिए, 


                     करते देव महेश।


 


भारत माॅ॑ के लाड़ले, 


                   सैनिक वीर जवान।


चलें कफ़न सिर बाॅ॑धकर, 


                  लिए हथेली जान।


 


अपनी चिंता है कहाॅ॑, 


                  उन वीरों को यार।


उनकी चिंता बस यही, 


                 दुश्मन करे न वार।


 


बुरी नज़र जो डालता, 


                   भारत मां की ओर।


नहीं देख पाता कभी, 


                  मानो अगली भोर।


 


आओ कर लें हम नमन, 


                   उन वीरों को आज़।


करती है मां भारती,


                  जिन वीरों पर नाज़।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0हरि नाथ मिश्र

* सुरभित आसव मधुरालय का*5अ


शिव का वाहन नंदी है तो,


सिंह सवारी गिरिजा की।


सिद्धिविनायक का मूषक तो-


कार्तिक-मोर-निभाई है।।


       ये सब दुश्मन हैं आपस में,


       वाहन किंतु कुटुंबी एक।


       नंदी-सिंह का मेल अनूठा-


       उरग-मयूर-मिताई है।।


ऐसा कुल है मधुरालय भी,


आसव जिसका है हृदयी।


इस आसव का सेवन करते-


मिटती भी रिपुताई है।।


       नेत्र खुले चखते ही तिसरा,


       जो है अंतरचक्षु सुनो।


       समता-ममता-नेह-दीप्ति को-


       इसने ही चमकाई है।।


शिव-आसव मधुरालय-आसव,


सकल जगत हितकारी है।


राग-द्वेष-विष कंठ जाय तो-


हृदय अमिय अधिकाई है।।


      शिव-प्रभाव कल्याण-नियंता,


      शिव-प्रभाव सा यह आसव।


      सज्जन-दुर्जन आकर बैठें-


      करता यही मिलाई है।।


हँसी-खुशी सब मिलकर चखते,


आसव-द्रव अति रुचिकर को।


शत्रु-मित्र शिव-कुल के जैसा-


मूषक-मोर-रहाई है।।


         © डॉ0हरि नाथ मिश्र


           9919446372


डॉक्टर बीके शर्मा

# तुम गिरती हो ओला वन #


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मैं तो हरित फसल हूं प्रिय 


क्यों कहती हो गोला बन 


खुद गलती और मुझे गलाती 


क्यों गिरती हो ओला वन


 


जब मैं पक खलियानों में आता 


खुद जलती और मुझे जलाती 


तुम जाती हो शोला वन 


मैं तो हरित फसल हूं प्रिय 


क्यों गिरती हो आेला वन


 


बड़ी विचित्र हो तुम तो साकी 


ना कुछ कहती ना कहने देती 


चल देता मैं भोला बन


मैं तो हरित फसल हूं प्रिय


 क्यों गिरती हो ओला वन


 


क्यों नट बन मैं तुम्हें नचाऊं


 क्यों मारू बन तुम पांव उठाओ


क्यों गाता फिरू में ढोला वन


मैं तो हरित फसल हूं प्रिय 


क्यों गिरती हो ओला बन 


 


डॉ बीके शर्मा


डॉक्टर बीके शर्मा

कोई तो मदारी है


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उम्र अब प्यार करने लायक सी हो गई 


बात अब इजहार करने लायक सी हो गई 


आप जब से मेरे ह्रदय का हिस्सा बन गए


 हर बात दिल की जज्बात लायक सी हो गई 


बादल बन छा गए तुम दिल पर मेरे 


की आंखें अब बरसा के लायक सी हो गई 


हम मिलते रहे पल दो पल के लिए 


की उम्र और साथ चलने लायक सी हो गई 


एक फैसला जो साथ रहने का हमने किया 


लगा एक पल में सारी जिंदगी को जी लिया 


प्यार का इजहार तुम से कुछ इस तरह किया 


कि खोल जीवन का हर राज मैंने तुमको दिया 


छुपा मेरा जीवन में तुमसे कुछ भी नहीं 


आपके बिना मेरा एक पल कटता नहीं 


अब तो उम्र आ गई है आखिरी पड़ाव पर 


कि साथ तुम चलो सच यह भी तो नहीं


प्यार कुछ और नहीं सिवा विश्वास के 


उड़ नहीं सकता पंछी बिना आकाश के


 मन दूर जाता है पर लौट आता है 


कोई तो मदारी है जो सबको नचाता है 


 


 


डॉक्टर बीके शर्मा


डॉ बीके शर्मा

* हम क्या करें *


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 तुम करीब थे 


 


हम क्या करें


 


जो हो गया उसका 


 


गम क्या करें 


 


रफ्ता रफ्ता है 


 


सफर पर


 


अपनी जिंदगी 


 


इससे भी भला 


 


अब कम क्या करें 


 


 


डॉ बीके शर्मा


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

डॉ प्रताप मोहन "भारतीय" 


जन्म -15 जून1962 को कटनी (म.प्र.) 


पिता का नाम - श्री गोविन्दराम मोहन


माता का नाम - श्रीमती ईश्वरी देवी


शिक्षा - बी. एस. सी., आर. एम. पी.,एन. डी., बी. ई. एम. एस. , एम. ए.,एल. एल. बी.,सी. एच. आर.,सी. ए. एफ. ई.,एम. पी.ए.


सम्प्रति - दवा व्यवसायी


संपर्क - 308,चिनार ए - 2,ओमेक्स पार्क वुड,चक्का रोड , बद्दी - 173205(हि. प्र.)


चलित दूरभाष-9736701313,9318628899 ,


अणू डाक - DRPRATAPMOHAN@GMAIL.COM


लेखन की विधाए - क्षणिका ,व्यंग्य लेख , गजल , साहित्यक गतिविधीयाँ - राष्ट्रीय स्तर के पत्र , पत्रिकाओ में रचनाओ का प्रकाशन


प्रकाशित कृतियां - उजाले की ओर (व्यंग संग्रह)


पुरस्कार एंव सम्मान


(1) साहित्य परिषद् उदयपुर राजस्थान द्वारा "काव्य कलपज्ञ" की उपाधि से सम्मानित


(2) के.बी. हिन्दी साहित्य समिति बदांयू ((उ. प्र.) द्वारा "हिन्दी भूषण श्री" 2019 की उपाधि से सम्मानित


(3) नालागढ़ साहित्य कला मंच हि. प्र. द्वारा "सुमेधा श्री 2019" सम्मान प्राप्त ।


 


कविता 1


** पिता ***


बाहर कठोर


अंदर नरम दिल


होता है


सारा दिन अपनी


संतान को


समर्पित होता है


      ***


त्याग कर सारी


अपनी इच्छाऐ


संतान पर


ध्यान देता है 


सच में पिता


महान होता है


       ***


बच्चो की हर


बात बिना बोले


समझ जाते है


बच्चो की खातिर


अपना हर गम


भूल जाते है


      ***


पिता हर


इच्छा पूरी करने वाला


सांता क्लॉज़ है


हर बच्चो को होता


अपने पिता पर नाज़ है


      ***


जिसके पास है पिता


वो सबसे बड़ा अमीर है


क्योंकि पिता ही


हमारी सबसे बड़ी जागीर है


       ***


जिसने कर दी पूरी 


ज़िन्दगी संतान के नाम


ऐसे पिता का करे


हम हमेशा सम्मान


  लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय        


 


2


*** सुँदरता ***


शरीर सुन्दर होता है


तो सभी होते है आकर्षित


मन की सुंदरता को


कोई देखता नहीं


 तन की सुंदरता है


अस्थायी 


वक़्त के साथ


ढल जायेगी


जबकि मन की सुंदरता


अंत तक साथ निभायेगी 


यह कोई जरुरी नहीं


कि हर सुंदर तन के पीछे


एक सुंदर मन हो


तन के साथ मन भी


हो सुन्दर तभी


सुंदरता का


वास्तविक आनंद आयेगा


इस दुनिया का नियम है


जो दिखता है


वो बिकता है


सुंदरता दिखती है


तो वह बिकती है


मन की सुंदरता


नही दिखती है


तो उसका ग्राहक भी


नहीं मिलता है


  लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय          


 


3


*** अहंकार ***


अहंकार आज तक


किसीका टिक नही पाया है


महाबलि रावण भी


ने इससे हार खाया है


        ***


कभी खुद पर


न करें अहंकार


सभी को समझे


एक प्रकार


       ***


जिसने भी अहंकार से


नजदीकी बनायी है


हमेशा ज़िन्दगी में


ठोकर खायी है


       ***


अहंकार का असर


ऐसा है आता


कि अहंकारी सही


और गलत में


अंतर नहीं कर पाता


        ***


ऐसी दौड़ है


अहंकार


जहाँ जीतने वाला


जाता है हार


  लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय          


4


*** प्रकृति और मानव ***


प्रकृति अपनी


चीजो का उपयोग


स्वयं नहीं करती


वह इससे है


मानव का पेट भरती


         ***


मानव है स्वार्थी


करता है प्रकृति से खिलवाड़


तभी तो आते है सूखा और बाढ़


         ***


मानव प्रकृति की


गोंद में फलता फूलता है


इसके बाद भी 


प्रकृति को लूटता है


         ***


प्रकृति और मानव 


का चोली और


दामन का संबंध है


बिना प्रकृति के


मानव का अंत है


        ***


मानव यदि


प्रकृति के नियमो 


का सम्मान करेगा


तभी इस दुनिया में


राज करेगा


    लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय          


5


*** बेटी की विदाई ***


जब बेटी की


विदाई का अवसर


आता है


माँ बाप की आँखों में


आँसू और दिल


भर आता है


       ***


बेटी है


पराया धन


इसे छोड़ना


पड़ता है


घर एक दिन


    ***


बेटी की विदाई


की परंपरा


सदियों से 


चली आयी है


राजा हो या रंक


किसी ने बेटी


अपने घर नहीं बिठायी है


       ***


आज बिदाई में


बेटियां नहीं रोती है


क्योंकि वो


अपने जीवन साथी से


पूर्व परिचित होती है


        ***


कैसा है दुनिया का दस्तूर


कि हम


अपने कलेजे के टुकड़े


को दूसरे को


सौप देते है


अपनी बेटी को


परायो को सौप देते है


       ***


एक घर छोड़कर


दुसरा घर


होता है बसाना


हमेशा से ये परम्परा


निभाता आ रहा है जमाना


    लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय - बद्दी - 173205 (H P)


  9736701313


 


राजन सिंह स्टेट रिहार सीतापुर

देव घनाक्षरी


 


डमरू ड़मड्डमड्ड,


बहे गंग जटामध्य,


कण्ठ सर्प मुंडमाल,


ध्यान-मग्न मस्त-मगन।


 


चन्द्रभाल नेत्र त्रिय,


शांत चित्त भक्त प्रिय,


नीलकण्ठ महाकाल,


वास है कैलाश गगन।


 


महारौद्र रूप धरे,


मौर बाधे बैल चढे,


अंग में भभूत मले,


करें गण नृत्य नगन।


 


दैत्य करे डाह आह,


देव करे वाह वाह,


शम्भु-उमा का विवाह,


चढ़ी है लगन लगन।


 


 *राजन सिंह*


प्रिया चारण उदयपुर राजस्थान

शहादत को सम्मान


 


शहादत को सम्मान मिलना चाहिए।


अमर जवानों की चिताओ को जय जयकार मिलना चाहिए।


शहीदो की पत्नियों को


अमर सिंदूर का सौभाग्य मिलना चाहिए।


शहीदो के परिवार को 


नेताओ जितना अधिकार मिलना चाहिए।


शहीदो के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा का ज्ञान मिलना चाहिए


शहादत को सम्मान मिलना चाहिए।


सुहागन के लाल जोड़े को सफेद करने के हौसले को आत्मनिर्भरता का ईनाम मिलना चाहिए।


माँ की कोख़ सुनी कर भारत माँ की गोद में अमर नींद सो जाने वाले को , अमरता का निशान मिलना चाहिए


शहादत को सम्मान मिलना चाहिए।


शहीद के परिवार को जिंदगी गुजरने का राशन ता उम्र मिलना चाहिए।


शहीद के बच्चो की छोटी सी जरूरतों का भी सरकार को खयाल रखना चाहिए।


शहादत को सम्मान मिलना चाहिए।


शहादत के बाद भी अमर दीप दिलो में जलने चाहिए ।


शहीद के परिवार को भी अपने बलिदान का ईनाम मिलना चाहिए ।


 


प्रिया चारण


उदयपुर राजस्थान


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

"जीवन को जीवंत बनायें"


विरोधाभासों के भँवर में


जब भी झूलती है ज़िन्दगी


तब जीवन के हर क्षण को महत्वपूर्ण बनाएँ


आओ मिलकर सब जीवन को जीवंत बनाएँ


भविष्य की चिंताओं को जाएँ हम भूल


ये चिंताएँ ही तो हैं हमारे दुख का मूल


उन सबको भूल वर्तमान को सुखद बनाएँ


आओ मिलकर सब जीवन को जीवंत बनाएँ


भावनाएँ तो मानव हृदय की जीवन्तता हैं


आँसू बहते हैं तो बहती संग वेदना है


होठों को मुस्कुराहट का सुंदर बाना पहनाएँ 


आओ मिलकर सब जीवन को जीवंत बनाएँ


जीवन के सार को समझ प्रसन्नता फैलाएँ


अब हर क्षण के लिए सजग, सचेत हो जाएँ


अपने जीवन का हर क्षण उपयोगी बनाएँ


आओ मिलकर सब जीवन को जीवंत बनाएँ


जीवन होगा सन्तुलित तो


 कदम मोक्ष की ओर जाएंगे


लेना-देना, साम्य-असाम्य


 बिखराव की स्थिति से स्वतः उबर जाएंगे


उम्मीदों की डोर पकड़ना छोड़ दीजिए


मानसिक अशांति से स्वतः निकल पाएंगे


आओ मिलकर सब जीवन को जीवंत बनाएँ


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


एस के कपूर "श्री हंस* " *बरेली।*

*विषय।।।।।।।शत्रु।।।।।।।।।।।*


*शीर्षक। हम ही अपने मित्र हम*


*ही हैं अपने शत्रु भी।*


*विधा।। मुक्तक माला ।।।।।*


 


हम ही हैं अपने शत्रु और


हम ही मित्र भी।


कभी लिये मधुर वाणी और


अहंकार का चित्र भी।।


हमारे भीतर ही स्तिथ गुण


मानव और दानंव के।


यह मनुष्य प्राणी जीव है


बहुत ही विचित्र भी।।


 


जिस डाल पर बैठता उसी


को काट डालता है।


मधुर सम्बन्धो को भी स्वार्थ


वश बांट डालता है।।


जीवन भर की मित्रता को


पल में करता ध्वस्त ये।


अपनेपन की चाशनी को बन


शत्रु चाट डालता है।।


 


हमारा घृणा भाव ही तो है


परम शत्रु हमारा।


मन को करता कलुषित मोड़


देता ये मितरु धारा।।


क्रोध वह शत्रु है जो करता


हमारा ही सर्वनाश।


कर बुद्धि का नाश हटा देता


अपना ही मित्र सहारा।।


 


बने हमयूँ भूल सेभी हमसे कोई


घायल न होना चाहिये।


हमारी नज़र में कोई छोटा नीचे


पायल न होना चाहिये।।


वसुधैव कुटुम्बकम का सिद्धांत


हो मन मस्तिष्क में।


हमारेआचरण का मित्र नहीं शत्रु


भी कायल होना चाहिये।।


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस* "


*बरेली।*


मोब 9897071046


                  8218685464


कुमार कारनिक

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  *यही महाभारत है*


   विजया घनाक्षरी


 """""""""""""""""""""""""


तीर - गदा - तलवार,


किस पर करूँ वार,


सब मेरे सखा - बंधु,


यही महा-भारत है।


🌼🏹


चारों ओर कोहराम,


कहे सब राम - राम,


साथ में दीन-दयाला,


युद्ध - वीर भारत है।


🌸⚔️


तम की घोर भारी थी,


घोर अन्याय जारी थी,


तभी युग - युद्ध हुआ,


कुरुक्षेत्र भारत है।


🏵🗡️


दुश्मन भी अपना था,


धर्म रक्षा करना था,


देश हेतु मर मिटे,


भाईयों का भारत है।


 


        00000


 


अंग - अंग कटे पड़े,


धड़ - मुण्ड गिरे पड़े,


देखो साँसे टूट रही,


देश हेतु युद्ध किये।


❄⚔️


विधवाएं लाखों हुए,


बेसहारे लाखों हुए,


बिलखते माँ - बेटियाँ,


राष्ट्र -हित युद्ध किये।


🌼🏹


द्रुत - क्रीड़ा नियोजित,


पांचाली अपमानित,


बदले की प्रादुर्भाव,


है वचन - बद्ध हुये।


🌼🗡️


श्री कृष्ण रोक न पाया,


ये सब इनकी माया,


दिये गीता उपदेश,


स्वयं से वे युद्ध किये।


 


 


 


*कुमार🙏🏼कारनिक*


              |||||||||||||||


संजय जैन (मुम्बई) 02/06/2020

*फिर याद आये वो*


विधा : गीत


 


मेरे दिल मे बसे हो तुम,


तो में कैसे तुम्हे भूले।


उदासी के दिनों की तुम,


मेरी हम दर्द थी तुम।


इसलिए तो तुम मुझे,


बहुत याद आते हो।


मगर अब तुम मुझे,


शायद भूल गए थे।।


 


आज फिर से तुम्ही ने,


निभा दी अपनी दोस्ती।


इतने वर्षों के बाद,


किया फिरसे तुम्ही याद।


में शुक्र गुजार हूँ प्रभु का,


जिसने याद दिलादी तुमको।


की तुम्हारा कोई दोस्त,


आज फिर तकलीफ में है।।


 


मैं कैसे भूल जाऊं,


उन दिनों को मैं।


नया नया आया था,


तुम्हारे इस शहर में।


न कोई जान न पहचान,  


 थी तुम्हारे शहर में।


फिर भी तुमने मुझे, 


अपना बना लिया था।।


 


मुझे समझाया था कि,


दोस्ती कैसी होती है।


एक इंसान दूसरे का,


जब थाम लेता है हाथ।


और उसके दुखो को,


निस्वार्थ भावों से।


जो करता है उन्हें दूर, 


वही दोस्त सच्चा होता है।। 


 


इंसानियत आज भी है,


लोगो के दिलो में जिंदा है।


जो इंसान को इंसान से,


जोड़कर दिलसे चलता है।


और धर्म मानवता का, 


निभाता है दिल से।


मुझे फक्र है उस पर,


जो सदा ही साथ है मेरे।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


02/06/2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*लोक-गीत*(कजरा लगाइ के)


कजरा लगाइ के,गजरा सजाइ के,


आइल गुजरिया-


खबरिया हो तनी लेल्या सँवरिया।।


 


रहिया तोहार हम ताकत रहली,


रोज-रोज सेजिया सजावत रहली।


बिंदिया लगाइ के,मेंहदी रचाइ के,


आइल गुजरिया-


खबरिया हो तनी लेल्या सँवरिया।।


 


फगुनी बयार बहि जिया ललचावे,


सगरो सिवनियाँ के बड़ महकावे।


अतरा लगाइ के,तन महकाइ के,


आइल गुजरिया-


खबरिया हो तनी लेल्या सँवरिया।।


 


इ दुनिया बाटे एक पलही क मेला,


उपरा से देखा त बड़-बड़ झमेला।


बचि के,बचाइ के,छुपि के,छुपाइ के,


आइल गुजरिया-


खबरिया हो तनी लेल्या सँवरिया।।


 


सथवा हमार राउर जिनगी-जनम से,


कबहूँ न छूटे लिखा बिधिना-कलम से।


असिया लगाइ के,चित में बसाइ के,


आइल गुजरिया-


खबरिया हो तनी लेल्या सँवरिया।।


              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


राजेंद्र रायपुरी।।

😌😌 दो जून की रोटी 😌😌


 


किस्मत वालों को ही मिलती,


                          दो जून की रोटी।


उन्हें नसीब न होती भैया,


                  जिनकी किस्मत खोटी।


 


इसकी ख़ातिर भटके दर-दर,


                          जाएॅ॑ देश-विदेश। 


यही जन्म-भूमि छुड़वाती, 


                            ले जाए परदेश।


 


यही है करती उनके संग,


                          रहने को मजबूर।


जिनसे चाहें हम सब हरदम,


                           रहना कोसों दूर।


 


झूठे को सच्चा कहने को, 


                          यही करे मजबूर।


जो दोषी उसको कहते हम,   


                        इसका नहीं कुसूर।


 


इसकी ख़ातिर जाने क्या-क्या,


                     करना पड़ता है यार।


यही कराती है बहुतों से,


                          कोठे पर व्यापार।


 


दो जून की रोटी का है,


                        दीवाना जग सारा।


इसने ही तो कईयों को है,


                          बे-मौत ही मारा।


 


वहा पसीना खाना भैया,


                          दो जून की रोटी।


चाहे हो वो रूखी- सुखी, 


                           या संग हो बोटी।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कृष्णा देवी पाण्डे        नेपाल गंज, नेपाल

कबिता-- नाराज़ नहीं हु तुमसे।


 


नाराज़ नहीं हु तुमसे,


। क्योंकि प्यार बहुत है तुमसे।


जब तुम अपने हाथ से मेरे उपर सहलाते हो,


तब ऐसा लगता है कि मा कि गोद और पिता साया मिल गया हो।


नाराज़ नहीं हु तुमसे ,


क्योंकि प्यार बहुत है तुमसे।


जब तुम्हारे सिने पर सर रखती हु, 


तभी तो खुद को जानने का अवसर पाती हु।


एक वहीं पल है ,


जिसको मै अपने लिए जीती हु, 


उसी से हिम्मत और शक्ति मिलती है।


तुम सायद इस बात से अनजान हो, 


लेकिन सच कहुं तो


 मैं बस वही पर अपने लिए जितनी हु।


अब तुम ही बताओ ,


नाराज़ कैसे हो सकती तुमसे।


         कृष्णा देवी पाण्डे


       नेपाल गंज, नेपाल


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