मीना विवेक जैन

*लकड़ी का ऋण*


 


जीवन भर जिनके साथ जिये


जीवन में जिनके लिए जिये


वो साथ नहीं जाते कोई


चाहे कितने उपकार किये


लेकिन जिनसे जीवन चले


उपकार उसी का भूल गये


संग शरीर के कोई न जाता


बस सूखी लकडी साथ जले


लकडी के ऋण को भूल न जाना मन मे एक संकल्प बनाना 


अतं समय आने के पहले वृक्षारोपण करके जाना


 


*विश्व पर्यावरण की बहुत सारी शुभकामनाएं*


 


मीना विवेक जैन


सुबोधकुमार शर्मा शेरकोटी 

विश्व पर्यावरण दिवस 


              ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,


 आज समस्या हुई अनेक


 कैसे हो अब निराकरण


 आओ मिल जुलकर करें


 स्वच्छ चहु दिशि पर्यावरण।।


 


 निर्मलता से वृक्षों को काटा


सुख की खाई को है पाटा


 दूभर हो अब जीव भरण


 जब शुष्क हुआ पर्यावरण।।


 


 हरियाली का ह्रास हुआ


 वृक्षों का विनाश हुआ


 शुद्ध वायु के अभाव में


 दूषित सबका श्वास हुआ।।


 


 शैलो पर वृक्षों की पंक्ति


 थी जीवन की अनुपम शक्ति


 शोकाकुल अब शुष्क शैल है


 कहां गई जन-जन की भक्ति।।


 


 देवों का जो वास बने थे


 आज वही वीरान बने


 एक एक वृक्ष है वहां दिखता


 जहां वृक्ष थे घोर घने।।


 


 संतुलित थी जिससे जलधारा


टूट रहा अब धरा किनारा


नित्य प्रति अब बाढ़ आ रही


 अस्त व्यस्त है जीवन सारा।।


 


 अब क्रांति लाओ म न में


मुखरित भाव हो जन-जन में


 सुबोध का यह एक संदेश


हम दो हमारे दो बच्चे दो बृक्ष अनेक।।


 


 सुबोधकुमार} शर्मा शेरकोटी 


गदरपुर उत्तराखंड मो0 न0 


9917535361


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

रश्मि लता मिश्रा


पति-एम एल मिश्रा


जन्म-30,06,1957


शिक्षा-एम ए, हिंदी


प्रोफे-शिक्षिका D A V शाला


में हिंदी शिक्षिका से सेवा निवृत्त


साहित्य-कविता,हाइकू, कहानी, आलेख में रुचि


प्रकाशन दो भजन संग्रह राम रस,नवदुर्गा रस काव्य संकलन


'मेरी अनुभूतियाँ,साझा संकलन


मेरा मत ,बज्म यै हिन्द,साहित्य अंकुर, भावांजलि,अलकनंदा साझा संकलन, वतन के रखवाले,


प्रसारण-आकाश वाणी बिलासपुर से दो कहानियाँ,8 भजनों की सी,डी स्वरांजलि स्टूडियो रायपुर से।


सम्मान बज्म यै हिंदी,


इंटरनेशनल भव्या, युथ अवार्ड ,


उम्मीद रत्न,आगमन तेजस्विनी


कर्मवीर,प्रेम साहित्य अटल 


 प्रेम साहित्य सम्मान भजनसंग्रह


पर,निराला स्मृति सम्मान मेरी 


अनुभूतियां कव्यसंग्रह पर ,उम्मीदरत्न,त्रिलोचनसम्मान


व अन्य ऑनलाइन ।


 


के के समाज मे उपाध्यक्ष


लॉयन्स,लायनेस क्लब 


G D फाउंडेशन में सी जी की प्रदेश अध्यक्ष, आगमन में सी.जी की प्रदेश अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान में भी प्रदेश अध्यक्ष।आन लाइन पटल पर


निर्णायक मंडल में,वतन के रखवाले व चमकते सितारे काव्य संग्रह में सह संपादक की भूमिका


व अन्य पत्रिकाओं में भी।


यथा शक्ति सक्रिय भूमिका


पता A 39 सोन गंगा कॉलोनी,सरकंडा,


बिलासपुर, सी जी


 


कविता-1


ऋण साथ चलेगा


 


जाऊंगी जब जहां से एकऋण तो साथ चलेगा।


माँ!वह तेरा ही ऋण होगा,जिसे


इस जन्म के तो क्या ?


कई जन्मों में भी ना चुका पाऊंगी।


दुनिया के लिए तू कैसी है,


मुझे इससे क्या?


पर अपने बच्चों हेतु मां ईश्वर उपहार है।


उनकी इस सौगात की छत्र छाया तले में पली मेरी खुशियां पाली मेरे सुख-दुख मेरी जरूरतों को सदा तूने सबसे ऊपर रखा।


अपने ढेरों बच्चों के पालन पोषण से


ना तू ऊबी ना तेरा मन ऊबा।


पुनः बच्चों के भी बच्चों को संभालने की तमन्ना पाली।


ममता भी परीक्षा से अछूती ना रहे और,


वह परीक्षा की घड़ी भी


तेरे समक्ष प्रस्तुत हुई,


कहां इंतजार था अपनी बच्ची की


आने वाली खुशियों का,,,,,,,


और कहाँ,,,,


स्वयं की जन्म दात्री काल के गाल में समा गई।


पर धन्य है मां तू धन्य है,,,


मां की ममता कुछ दूरियों की उलझन कहे आने वाले मेहमान का बंधन अंत मे,


ममता की कड़ी ज्यादा मजबूत निकली भले ही उमड़ पड़ी मन की व्यथा,


आंखों से सैलाब बनकर।


आज भी तेरी उस मजबूरी को याद कर सिहर उठता है मन


और कहता है धन्य है ममता का रंग।


यह रंग तब मन से कैसे धुलेगा?


इसीलिए कहती हूं मां तू ही बता तेरा ऋण कैसे चुकेगा।


जाऊंगी जहां से तो,,,,ये


ऋण साथ चलेगा,ऋण साथ चलेगा।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर, सी,जी


 


कविता-2


 


है कंटक से पूर्ण प्रेम पथ,


जरा सँभल कर पाँव पड़े।


 


 


जाना है प्रियतम गली में,


प्रिय बाँहे पसारखड़े।


है कंटक से पूर्ण प्रेम पथ,


जरा सँभल कर पाँव पड़े।


 


मिलन हृदय का पावन प्यारा,


   जीवन का बने आधार,


छोटी-छोटी बातें लेकर,


बनी हुई न बात बिगड़े।


है कंटक से पूर्ण प्रेम पथ,


जरा सँभल कर पाँव पड़े।


 


प्रेम माता ,पिता के जैसा


प्रेम ईश्वर का प्रसाद।


प्रेम से ये सृष्टि है सारी,


प्रेम से सब सबंध जुड़े।


है कंटक से पूर्ण प्रेम पथ,


जरा सँभल कर पाँव पड़े।


 


प्रेम प्रकृति है प्रेम सुगंध,


कीट, पतंगे प्रेम मयसब।


मीरा , तुलसी रस प्रेम पगे,


भक्ति भाव संग भजन गढ़े।


है कंटक से पूर्ण प्रेम पथ,


जरा सँभल कर पाँव पड़े।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर


 


 


कविता-3


दृढ़ संकल्प ये अंतस मन मे,


प्रयत्न करम हेतु धर लो।


अब संभव है इस जीवन में,


जो चाहो हासिल कर लो।


 


माना बाधाएं हैं अनेक,


इरादे भी न किसी के नेक।


अनदेखा कर दोष पराए,


खुद पकड़ साची डगर लो।


अब संभव है इस जीवन में,


जो चाहो हासिल कर लो।


 


जीवन है संग्राम सरीखा,


समुद्र शांत -अशांत दीखा।


मर्यादित रूपसागर देखो,


भले गुण को मन मे भर लो।


अब संभव है इस जीवन में


जो चाहो हासिल कर लो।


 


है पतझड़ बहार भी आती,


बाग प्रकृति भी सजाती।


खिलाये जाते उजड़े चमन,


प्रतिज्ञा मन में गर कर लो।


अब संभव है इस जीवन में


जो चाहो हासिल कर लो।


 


परोपकार की बातें निराली


देखे सब की हरियाली।


जल बाढ़े ज्यों नाव सरीखे,


धन की झोली हल्की कर लो।


अब संभव है इस जीवन में,


जो चाहो हासिल कर लो।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर सी जी


 


चित्र चिंतन


 


 


कविता-4 नवगीत


शीर्षक औरत के अवतार


 


आया नया युग है पंख पसार,


स्त्री ने हैं लिये नव अवतार।


 


लक्ष्मी, दुर्गा का सा रूप बनाये,


भूमिकाएं अनेको निभाये।


घर, ऑफिस, मोबाइल,कूकर सब


संग जैसे हों बाहें चार।


आया नया युग हैपँख पसार,


स्त्री ने हैं लिए नव अवतार।


 


ऑफिस वाली फाइल रख लें


लैपटॉप थैले में भर लें।


फुरसत ना अब खाने-पीने की भी


बजा फोन देखो कई बार।


आया नया युग है पँख पसार,


स्त्री ने हैं लिए नव अवतार।


 


थामे अपनी अहम जिम्मेवारी,


है ये भारत की ही नारी।


थोड़ा उसको भी समझो गर जो


स्वर्ग बन जाये फिर घर-द्वार।


आया न या युग है पँख पसार,


स्त्री ने हैं लिये नव अवतार।


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर, सी,जी


 


 


कविता-5


 मजदूर नवगीत 


शीर्षक मजदूर हूँ मैं


 


मजदूर हूं मैं न मजबूर हूं मैं,


श्रम का देखो गुरुर हूँ मैं।


 


दो हाथों का है मुझको सहारा,


चलता इन्हीं से है गुजारा।


फिर ना कहना ना मुझको पुकारा


कामों में अपने मशगूल हूं मैं


मजदूर हूं मैं न मजबूर हूं मैं।


 


नींव का पत्थर बनू सदा ही,


ले लूं श्रेय मुझको मनाही


रब चाहेगा देगा दिला ही


परिश्रम से ही तो मशहूर हूँ मैं


मजदूर हूँ मैं न मजबूर हूँ मैं।


 


मेहनत ,पूजा तो मान करो ना


श्रमिकों का अपमान करो ना।


अधिकार मेरा स्वीकार करो ना


हक दो मुझे तो बोल दूँ मैं


मजदूर हूँ मैं,नमज़बूर हूँ मैं


श्रम का देखो गुरुर हूँ मैं।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर सी जी।


आशुकवि नीरज अवस्थी पर्यावरण

विश्व पर्यावरण दिवस


पर स्लोगन मुक्तक 


                      


आओ सब मिल के एक फैसला लिया जाये।


वैश्विक ताप को कैसे भी कम किया जाये।


आज हर प्राणि के जीवन पे है खतरा भारी,


काम ऐसे हो की खतरा ख़तम किया जाये।(1)


जन जीवन बाधा मिटे हरो शोक संताप।


वृक्षा रोपण कर सभी हरो विश्व का ताप।।(2)


 


 


          -कविता-


मुठ्ठी बांध सभी आते है,हाथ पसारे जाओगे।


लेकिन एक पेड़ की लकड़ी साथ साथ ले जाओगे।


निज जीवन में एक वृक्ष के संरक्षण की शपथ गहो,


इतना भी ना कर पाए तो जन्म जन्म पछताओगे।


मुठ्ठी बांध सभी आते है,हाथ पसारे जाओगे।


लेकिन एक पेड़ की लकड़ी साथ साथ ले जाओगे।


ताप विश्व का दिन दिन बढ़ता जल संकट गहराता है।


शुद्ध हवा भी नही मिल रही सकल जीव घबराता है।


सूख रही नदियां झीलें इनको कैसे भर पाओगे।


मुठ्ठी बांध सभी आते है,हाथ पसारे जाओगे।


लेकिन एक पेड़ की लकड़ी साथ साथ ले जाओगे।


धुंआ धूल की बहुतायत है इस पर ध्यान जरुरी है।


ऐसी फ्रिज का कम से कम उपयोग बना मजबूरी है।


अगर प्रकृति ने करवट बदली तब तुम क्या कर पाओगे।


मुठ्ठी बांध सभी आते है,हाथ पसारे जाओगे।


लेकिन एक पेड़ की लकड़ी साथ साथ ले जाओगे।


आशुकवि नीरज अवस्थी मो0-9919256950


डॉ रश्मि शुक्ला प्रयागराज         

🌹🌹 जीवन अनमोल🌹🌹


 


सर्वभवन्तु सुखिन:सर्व सन्तु निरामया:


 


काम काज को अब सुरु करना है ,


हम सबको घर से निकालना है ।


सबको ये वादा निभाना है ,


कोरोना को दूर भागना है ।


ये आपदा को मिलकर हारना है,


पूरे भारत को निरोग रखना है ।


जन जन को रास्ट्रीय धर्म निभाना है,


देश के विकास में आगे आना है ।


घर घर ये अलख जगाना है,


पूरे भारत को विश्व गुरु बनाना है ।


वायरस ये बड़ा दुशमन है हमारा,


गोली बारूद से नही मरने वाला।


समाजिक दुरी से इसको भगाना है ,


संक्रमण की चेन बनने नही देना है ।


अफवाहो को नहीं फेलाना है ,


पूरे भारत को स्वस्थ रखना है ।


जीवन बड़ा अनमोल हमारा है,


जान बूझ कर ना सबको गवाना है ।


अंध विश्वासों से सबको बचना है,


महामारी से देश को उबरना है ।


मास्क पहनकर बाहर निकलना है,


 गाईड लाईन का पालन करना है ।


सबको विजय को प्राप्त करना है,


 मानवता को अब साथ लेना है ।


 


         


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

डॉ रघुनंदन प्रसाद दीक्षित 'प्रखर"


माता= श्रीमती शांति देवी


पिता= श्री दाताराम दीक्षित


जन्म= 05 जून 1962 


 


विधा= कविता,कहानी, लघुकथा, गीत नवगीत तथा समसामायिक आलेख।


 


प्रसारण= आकाशवाणी एवं जैन टीवी चैनल से काव्य पाठ, भेंटवार्ता तथा सामायिकी का प्रसारण।


 


प्रकाशन = स्तरीय राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में सतत प्रकाशन।


 


कृतीत्व= वक्त के कैनवस पर....(क्षणिका),एवं मन के द्वार (नवगीत)


एवं सीमा से आंगन तक(सैन्य गीत),राहें, अंतिम आग (अप्रकाश्य)


 


सम्मान= विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर(विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ भागलपुर (बिहार)सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित।


 


व्यवसाय= 


*(क) 30 वर्षों तक सैन्य सेवा में सूबेदार मेजर पद से सेवानिवृति उपरांत स्वतंत्र साहित्य सृजन।*


*(ख) कारगिल युद्ध विभीषिका के समय उत्तर सीमा पर सक्रिय सैन्य दायित्व को साथ ही पूर्वोत्तर सीमा पर तैनाती में कर्तव्य निर्वाहन।*


 


सम्पर्क= 27, शांतिदाता सदन, नेकपुर चौरासी, फतेहगढ , जनपद- फर्रूखाबाद(उ0प्र0)209601


 


Email : Prakhard68@gmail.com


Mob= 09044393981


 


 


*रचनाऐं*


 


*(१)*


कुंडलिया


 


बीत रहा मधुमास पल कुंद हुई मन प्रीति।


प्रणयन की गहराईयाँ कहाँ निभाती रीति।।


कहाँ निभाती रीति चहूँ दिशि उपवन महके।


हा!देख काम के रंग जवानी पलपल बहके।।


मनभावन शुचि पावन हैं प्रखर प्रेम के गीत।


अस्ताचल की ओर जवानी कोरी जाए बीत।।


 


*(२)*


 


दोहरे चेहरों की दोधारी से बचिए।


मीत अकविता की बेजारी से बचिए।।


 


जुमलों में ग़ज़ल परोसते उस्ताद


उनकी हेकडी औ' मक्कारी से बचिए।।


 


सौदेबाजी में कराहता मंचों पे अदब


ऐसी शातिर दुकानदारी से बचिए।।


 


न कविता न कविता का हुनर पाया


मीत तौबा इस कलाकारी से बचिए।।


 


ये चारण भक्ति और ये यशगान


प्रखर मंचों की पर्देदारी से बचिए।।


 


*(३)*


 


*भूख*


 


जठराग्नि प्रबल जठ पूर्ति निबल, किम जतन करें जीवन सरसै।


युति युक्ति अबल घनघस छल बल, विपदा की जेठ ज्वाल बरसै।।


जीवन पथ वक्र अगम दुर्गम, सुख स्वाति ऩखत की बूँद सदृश,


किम चलै स्यंदन गृहस्थ प्रभू, मृगतृष्णा जस आशा तरसै।।


 


 


हे नाथ दयानिधि करुणाकर, दो श्वांस उधारी ही तुम्हरी।


जीवन कल सम अनवरत चलै, दिन रात खटूँ इच्छा तुम्हरी।।


ये भूख बनाए परदेशी यह भूख करे उत्थान पतन,


मेहनत की रोटी प्रखर मिले,रहे कृपा प्रभु जी जब तुम्हरी।।


 


##@#


 


जतन= यत्न


कल= यंत्र


स्यंदन=रथ


 


 


*(४)*


 


अजब तासीर


==========


बताऐं क्या तुम्हें प्रियवर, आहों में कसक पीड़ा ।


बड़ी बेदर्द सुकूं लेती, निभाती साथ विरह पीड़ा।।


तुम्हें हालात क्या मालूम, नहीं आराम निंदिया ही,


गिनगिन कर करें रातें, अजब तासीर पिय पीड़ा।।


 


न दिखा पाऐं न बता सकते, दर्द ए दिल को अफसाने।


इन ख्वाबों में तुम्हीं तो हो, शमा में जलते परवाने।।


सुकूं दिन सा रात नींदें, उड़ाती याद पिया रह रह,


तुलसिका गेह मुरझानी , प्रखर मन कैसे समझाने ।।


 


*(५)*


 


 


रस वसंत मूर्ति


==°========


 


मैं सुभग हूँ प्राणबल्लभ , सर्वस्व अर्पित तन मन धन।


कर दो अमोल हस्ताक्षर प्रिय , सम्पूर्ण होगा तब प्रणयन।।


मदिर नयन की पलक मुंदी, संस्पर्शी भाव रुचिर पावन,


मैं जीत गयी न तुम हारे ,हिय कसक रहा प्रियतम खनखन।।


 


अरुणाई तुम्हारी चित्त हरण,पतवार नयन बाकी चितवन।


अलसायी भोर सी स्निग्ध आभ, काकुल गुम्फित ज्यों पावस घन।।


नूपुर झंकृत पैंजनि रुनझुन , कंगन खनकै अधरन स्मित,


अल्हादिनी संगिनि प्रणय छंद, साधिका सृजनिका वातायन ।।


 


 


डॉ प्रखर दीक्षित


फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)


 


 


संदीप कुमार विश्नोई

जय माँ शारदे


मोद सवैया


 


नाथ खड़े अपने रण में सब , बोल रहे गांडीव उठाए। 


अर्जुन को रण में तब माधव , ले कर गीता ज्ञान सुनाए। 


मोह तजो तुम पार्थ उठो अब , जीवन का वो भेद बताए। 


धर्म करो तुम शस्त्र उठाकर , माधव ऐसा पाठ पढ़ाए। 


 


संदीप कुमार विश्नोई। गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर जिला फाजिल्का पंजाब


सुनीता असीम

जीवन में तिश्नगी को जगाए हुए हैं हम।


बस आस एक तुमसे लगाए हुए हैं हम।


***


कोई गुनाह राहे मुहब्बत में हो गया।


तो सामने ये सर भी झुकाए हुए हैं हम।


***


जब जी करे चले आना मेरी गली में तुम।


अब भी शम्मे मुहब्बत जलाए हुए हैं हम।


***


अरमानों को मेरे न हवा इस तरह से दो।


दिल के सभी चराग बुझाए हुए हैं हम।


***


मत तोड़ आइना मेरे दिल का ये साफ सा।


इसमें तो अक्स तेरा। सजाए हुए हैं हम।


***


सुनीता असीम


३/६/२०२०


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक (स्वरचित)  नई दिल्ली

दिनांकः ०३.०६.२०२०


दिवसः बुधवार


विषयः रामावतार


विधाः गीत(कविता)


शीर्षकः गाऊँ राम भजन


 


रामावतार गीत गाऊँ मैं,


जीवन पापों से उद्धार करुँ।


श्रीराम नाम अभिराम मनोहर,


अन्तर्मन निश्छल अनुनाद करूँ।  


 


नित कौशलेय रघुनाथ सुकोमल, 


दशरथ नन्दन सुन्दर मन अभिसार करूँ।


जीवन नित मर्यादा पुरुषोत्तम,


सरसिज राघवमुख अनुराग करूँ। 


 


जय रघुनन्दन जग असुर निकन्दन,


सीता राम लखन गलहार करूँ।


रघुकुल नीति नित वचन सत्पालक,


श्रीराम मन निकुंज विहार करूँ। 


 


महान् भरत सम भाई परंतप,


शत्रुघ्न अनुज हृदय सुखसार करूँ।


प्रीति भक्तिमय नित लखन लाल मन,


जय सियराम गान गुंजार करूँ। 


 


मारि दशानन जग पाप विमोचन,


नित हनुमान भक्ति जयकार करूँ। 


हर पाप त्रिविध शरणागत वत्सल,


गाऊँ राम भजन सुखसार करूँ। 


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित) 


नई दिल्ली


डॉ हरि नाथ मिश्र

*गीत*(छप्पन भोग16/14)


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।


किसको फ़िक्र पड़ी है उसकी-


मृतक जगत यह लगता है।।


 


जहाँ देखिए कहर-कहर ही,


नहीं अमन औ'चैन दिखे।


परेशान मजलूम यहाँ पर,


कुत्ता ओदन भले चखे।


मानवता तो दूर बसी जा-


क्रूर भाव मन बसता है।।छप्पन भोग......।।


 


मंदिर-मस्ज़िद-गिरजाघर में,


दान-पुण्य यदि है होता।


इसमें तो आश्चर्य नहीं है,


कर्म-कुकर्म वहाँ होता।


दान-धर्म के नाम ठगी कर-


पापी जीवन पलता है।।छप्पन भोग.......।।


 


चंदन-तिलक लगा माथे पर,


पंडित लगे पुजारी है।


धर्म-कर्म का करते धंधा,


ठगता बारी-बारी है।


बेच-बेच कर मानवता को-


कहता दुख वह हरता है।।छप्पन भोग........।।


 


अजब-गजब की दुनिया मित्रों,


इसकी चमक दिखावा है।


अंदर इसके भरी गंदगी,


सुबरन रूप छलावा है।


स्वर्ण कुंभ में भरा गरल जग-


मरता-जीता रहता है।।छप्पन भोग........।।


             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


सत्यप्रकाश पाण्डेय

जिंदगी में..................


 


किसी की मुहब्बत का ताज पहनकर सिर पर,


हम तो इठलाते फिर रहे थे।


वह तो है आलम्बन हमारी जिंदगी का,


हम सबसे कहते फिर रहे थे।।


 


माना कि उसे भी नाज सा हो गया था कुछ,


फितरत भी बदली बदली लगी।


तन मन वारा जिसे अपना बनाने के लिए,


वही न हो सकी हमारी सगी।। 


 


हर दिन को परीक्षा में गुजारते रहे हम,


सोचा सफल हो ही जायेंगे।


लिखेंगे इबादत अपनी प्रेम कहानी की,


जिंदगी में सकून पायेंगे।।


 


वाह री किश्मत बड़े अजब खेल हैं तेरे,


किसको हसाये किसे रुलाये।


जिसको सत्य समझ रहा दुःख सुख का साथी,


वो हमें पतझड़ बनकर आये।।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


संजय जैन (मुम्बई

*दम न निकल जाये*


विधा : गीत


 


न वो कुछ कह सकते है,


न हम कुछ सुन सकते है।


दिलो की पीड़ा को हम,


व्या कर सकते नही।


लगी है आग सीने में,


बुझाए इसे किस तरह।


न वो कुछ कहते है,


न हम कुछ कहते है।।


 


मिली है जब से आंखे,


वो हंसती और रोती है।


पर दिल के धड़कने,


किसीसे कुछ नही कहती।


पर मानो दिल दोनों के,


धड़क रहे एकदूजे के लिए।


तभी तो दिल की बाते, 


आंखे से दोनों कहती है।।


 


करे क्या अब इस दिलका,


जो अब संभालता ही नही।


दवा कोई सी भी अब,


असर करती ही नही।


करे कब तक हम उनका,


इंतजार यहां पर आने का।


निकल न जाये दम मेरा,


बिना उनसे मिले ही।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


03/06/2020


डा.नीलम कौर

*चित्रकर्म*


हार नहीं मानूंगा


रार नहीं ठानूंगा


कर्म फावड़े से 


लक्ष्य अपना साधूंगा


 


भ्रम में मत रहना कोई के..


हम मजलूम या हैं लाचार


कर्म फावड़ा हाथ ले हम


भी बन जाते हैं पार्थ


 


कर्म की आँख पर रख निगाहें


लक्ष्य हम संधान करें पर..


हमारी कर्मभूमि पर दुर्योधन-से शैतान खड़े


 


हर वार हमारी मेहनत के


श्रम सीकर से संधारित


सिंहासन हैं संवारते पर..


शकुनि से दुष्ट हमें हर बार


निर्वासित करते


 


पर हार नहीं मानूंगा


रार नहीं ठानूंगा


कर्म के फावड़े से


लक्ष्य अपना साधूंगा।


 


       डा.नीलम कौर


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली

. 🌅सुप्रभातम्🙏


दिनांकः ०३.०६.२०२०


दिवसः बुधवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा


शीर्षकः 🌅आये अभिनव भोर🌹


हटे सकल संताप मन, आये अभिनव भोर।


नयी आश नित शक्ति हो, जीवन यापन डोर।। 


है फिसलन इस जिंदगी , तजती झट निज देह।


रत हो जाओ कर्मपथ , पूर्ण करो सत् ध्येय।।


सदाचार नित विनत हो ,लोभ घृणा तज हेय।


करो कार्य नित राष्ट्र हित , परहित सुख हो गेय।।


छोड़ो मत आगत दिवस , शेष रखो मत काम।


पूर्ण करो कर्तव्य को , न जाने कब विश्राम।। 


धन जीवन अनमोल है, कर लो कुछ परमार्थ।


धन जन तन रिश्ते यहाँ , अंत काल सब व्यर्थ।। 


भर दे जग मुस्कान को , सुष्मित करो निकुंज।


खुशियों से भर दे चमन,अमर कीर्ति अलिगूंज।।


अरुणिम बस सेवा वतन, परहित है सत्काम।


मिटे सकल निशि जिंदगी, मिले मुक्ति गोधाम।।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित)


नई दिल्ली


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"कर्म में भल भाव भरो"*


(कुण्डलिया छंद)


-------------------------------------------


★दमके सु-भाव-दामिनी, मानव-मन-घन बीच।


पावनता ले साथ में, कमल खिले ज्यों कीच।।


कमल खिले ज्यों कीच, कर्म में भल भाव भरो।


करके कुछ कल्याण, यथा संभव ताप हरो।।


कह नायक करजोरि, भाग्य का सूरज चमके।


अनल-दहे जब स्वर्ण, कांति कंचन की दमके।।


------------------------------------------


 *"जाना है जग छोड़कर"*


(कुण्डलिया छंद)


-------------------------------------------


*जाना है जब छोड़कर, जग के सारे भोग।


तो फिर क्यों निज स्वार्थ का, पाल रखा है रोग??


पाल रखा है रोग, धर्म शुभ नित्य निभाना।


करना नहीं अधर्म, पड़े न कभी पछताना।।


कह नायक करजोरि, मनुजता को न भुलाना।


पल-संयोग-कुयोग, लगा है आना-जाना।।


-------------------------------------------


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


-------------------------------------------


कृष्णा देवी पाण्डे                   नेपाल गंज

कविता- अपना ग़म किसी से मत कहना।


✍️


अपने ग़म को भुलाने के लिए,


कुछ दिन तनहा हो लेना,


कितना भी कोई पुछे ,


किसी से कुछ मत कहना


******


कुछ तो दया सहानुभूति देंगे


कुछ तो पीठ पीछे हंसेंगे


कुछ तो मौका का फायदा खोजेंगे,


इससे अधिक साथ कोई नहीं देंगे


######


सब कुछ खुद ही करना होता है


खुद ही हंसना और रोना होता है


 अपने आप को पहचानना जरूरी है,


क्योंकि उसी पर हमारा कर्म निर्भर होता है।


*****


जितना महशुस किया है 


उतना ही कृष्णा ने लिखा है।


 


कृष्णा देवी पाण्डे


                  नेपाल गंज,


विनय साग़र जायसवाल  बरेली

कविता ---


 


सुलग रही है मातृभूमि के सीने पर  चिंगारी ।


आज उऋण होने की कर लें हम पूरी तैयारी ।।


 


जगह जगह बारूद बिछी है ,जगह जगह हैं शोले 


ग़द्दारों को थमा दिये हैं,दुश्मन ने हथगोले 


लूटपाट क्या ख़ून खराबा, सब इनसे करवा कर 


भरता है वो अभिलाषा के ,अपनी निशिदिन झोले 


ग़ौरी से जयचन्दों की अब ,पनप न पाये यारी ।।


सुलग रही है------


 


सिंहनाद कर उठें शत्रु को,नाको चने चबा दें


इसकी करनी का फल इसके,माथे पर लटका दें


छोड़ के रण को भाग पड़ेंगे, यह बुज़दिल ग़द्दार


इनके मंसूबों की होली, मिलकर चलो जलादें


क्षमा नहीं अब कर पायेंगे,हम इनकी मक्कारी ।।


सुलग रही है-------


 


वीर शिवा,राणा प्रताप सा, हम पौरुष दिखलाते 


नाम हमारा सुनकर विषधर,बिल में ही घुस जाते 


गर्वित है इतिहास हमारा, हम हैं वो सेनानी 


कभी निहत्थे ,निर्दोषों पर ,उंगली नहीं उठाते 


हमने रण में करी नहीं है, कभी कोई मक्कारी ।।


सुलग रही है----------


 


घूम रही है भेष बदलकर ,ग़द्दारों की टोली


खेल रहे हैं यह धरती पर,नित्य लहू से होली


अब सौगंध उठा इनकी ,औक़ात बता देते हैं


निर्दोषों पर चला रहे जो ,घात लगा कर गोली


इनकी करतूतो से लज्जित है इनकी महतारी ।।


सुलग रही है ---------


 


उठो साथियों आज तनिक भी, देर न होने पाये


अब भारत के किसी क्षेत्र पर,कभी आँच न आये


आने वाली पीढ़ी वरना, कैसे क्षमा करेगी


कहीं किसी बैरी का *साग़र* शीश न बचकर जाये


बहुत खा चुकी अब केसर की, क्यारी को बमबारी ।।


 


सुलग रही है मातृभूमि के ,सीने पर चिंगारी ।


आज उऋण होने की कर लें ,हम पूरी तैयारी 


 


🖋विनय साग़र जायसवाल 


बरेली


22/2/2004


निशा"अतुल्य"

धीरे धीरे 


3.6.2020


 


जब भी कुछ कहती हूँ


लगता है तुम सुनते तो हो


पर शायद समझते नही


या समझना नही चाहते ।


मेरी उलझनों को देखते भी नही


समझने की करूँ क्या उम्मीद


कान धरते भी नही 


पर अकस्मात आता है ख़्याल


जिंदगी की झंझावत को 


बाहर तुम ही तो झेलते हो


ये सोच कर मैं चुप हो जाती हूँ


धीरे धीरे तुम्हे कुछ न कहने का मन बनाती हूँ ।


सच में घर को संभालना,


रिश्तों को सहेजना 


मान मुनव्वल में, 


स्वयं को भूल जाती हूँ ।


फिर तुमसे क्या शिक़ायत


तुम तो बाहर की जद्दोजहद 


झेल कर आते हो ।


धीरे धीरे मैं निस्तेज होती जाती हूँ,


तुम्हारे चेहरे पर खींची रेखाओं को देख समझ जाती हूँ,


चाहती हूं, पौंछ दूँ अपने आँचल से उन्हें,


पौंछ भी देती हूँ उन्हें, जब भी जान पाती हूँ


तुम भी शायद ऐसे ही निःशब्द 


चुपचाप, मेरी उलझनों को निरखते हो


इसी लिए मन की बात 


मन में ही रखते हो।


अचानक से बन निर्मल नदी बह निकलते हो ।


कुछ मन की बातें आँखों से कहते हो 


प्रेम का अनकहा सागर,जो लगता है सूख रहा था


धीरे धीरे परिवार रूपी सागर में ख़ुद को समाते हो 


और ऐसे ही एक दूसरे को समझते नासमझ हम 


धीरे धीरे अपने जीवन के पड़ाव पार करते हम


तन्हा दोनों जीवन में रह जाते हैं


अपना जीवन जहाँ से किया था शुरू, वहीं पहुँच जाते हैं।


धीरे धीरे बने धीर-गम्भीर हम दोनों 


ले हाथों में हाथ सुनहरे सपनो में खो जाते हैं ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


एस के कपूर "श्री हंस"* *बरेली।*

*विषय।।।।।रोटी।।।।।।।।।।।।।*


*शीर्षक।।।घर से बेघर हुआ था*


*मजदूर दो जून की रोटी को।।।।*


 


आज अपने देश में ही हम


पराये प्रवासी हो गये हैं।


समझ नहीं आता अब हम


कहाँ के निवासी हो गये हैं।।


भूख,गरीबी,आज बन गये


हैं अभिशाप जिन्दगी के।


खुद के लिए अब मानो हम


जैसे आभासी हो गये हैं।।


 


अपनी बनाई सड़क पर ही


हम पैदल चल रहे हैं।


पेट में नहीं *रोटी* और पाँव


नंगे भी साथ जल रहे हैं।।


जिन्दगी नरक सी बन गई


अब अपनी ही नज़र में।


रात दिन बच्चों के मन और


शरीर भूख से गल रहे हैं।।


 


भारत के राष्ट्रनिर्माता बन कर


समझते थे कि हम मगरूर हैं।


आज हम को पता चला कि


हम सब कितने मजबूर हैं।।


अब न तो शहर के ही रहे और


गाँव भी तो बहुत दूर है अभी।


असल में जान पाये कि हम


कुछ नहीं बस एक मजदूर हैं।।


 


इस दुर्दशा में आयो हम सब 


मिलकर इनका साथ निभायें।


इनकी दो जून की *रोटी* में 


भी अपना योगदान दिखायें।।


अकेले सरकार पर ही छोड़ना


सबकुछ जिम्मेदारी से भागना।


आईये मिलकर फिर से इनको


पद राष्ट्र निर्माता का दिलवायें।।


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।*


मोब 9897071046


                    8218685464


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

बंदिशे खत्म हो रही है जिंदगी कि रौनक का एहसास हो रहा है।  


 


तेजी से भागने कि परस्पर प्रतियोगिता में मानव उदंड उछ्रींखल हो रहा है ।।          


 


जीवन का सयंम ,संकल्प छोड़ रहा है ।                               


 


पहले भी एक बार ऐसी ही गलती कि सजा भुगत रहा हैं ।।            


 


छ सौ साल गुलामी के बाद भारत आजाद हुआ ।                   


 


भारत का जन जन गुलामी कि हद हैसियत कि सीमा सिकंचो से बाहर निकला।।                   


 


भूल चुका था मानव मर्यादा राष्ट्र प्रेम और धरती माता का महत्व।


 


 जैसे पिजड़े में बंद पंक्षी भूल जाता है उड़ाना ,अपना आकाश नीला ।।                        


 


 नतीजा आजादी के साथ ही देश बट गया ।                          


 


लाखो लोग जो एक दूसरे के पूरक थे एक दूसरे के हाथों विद्वेष कि भेंट चढ़ गए इंसान जानवर हो चला।


 


धीरे राष्ट्र बीते हादसों को भुलाने कि कोशिश कर रहा था ।        


 


 तमाम बंदिशों कि गुलामी से आजाद हुए मुल्क का आवाम।


 


 मुल्क को बना दिया जंगल और कायम कर दिया जंगल राज।


 


मानव समाज में जानवर के पर्याय बाहुबली ।                           


 


खून इनके लिये पानी से सस्ता इंसान मुर्गे बकरे कि तरह करता हलाल ।।                        


 


 प्रशासन के लिया जंजाल अन्याय अत्याचार भय भ्रष्टाचार के आधार ।                          


 


पहले छुपे रुस्तम थे अब दीखते सरेआम ।                         


 


गुलामी से आजाद हुए ए इंसान देश सम्माज को बना दिया जंगल।।                                      


 


 बना दिया खुद को जंगल का भयानक जानवर आम जनता हो बन्दर ,हिरन ,बकरी ,भैस ,गाय।        


 


यही है भारत के छ सौ साल गुलामी से आज़ाद हुआ समाज।।                                    


 


पहले गैरों कि गुलामी के जूते लात अब अपने ही लोगो कि गुलामी का तिरस्कार भय अपमान।।


 


 


कुछ दिनों के लिये कुछ प्रतिबंधों के बीच रहा राष्ट्र का जन समुदाय।    


 


भ्रम हुआ क्या फिर हुए गुलाम।                     


प्रतिबन्ध हट रहे है जन जन के चेहरे पर आजाद जिंदगी का तराना मुस्कान ।।                   


 


अपनी ही जिंदगी को बेफिक्र जी रहा इंसान जानते खतरों से अनजान।    


  


समय से पहले खतरों के हवाले खुद को कर रहा है ।    


 


उसका सयंम संकल्प टूट रहा है।


 


गुलामी अच्छी बात नहीं उछ्रींखलता कि आजादी सदा खतरनाक अभिशाप।


 


अनुशासन गुलामी नहीं, अनुसाहित जन का समाज राष्ट्र कभी गुलाम नहीं।।


 


 


 जीवन में उत्साह ,विकास के लिये सयंम ,नियम ,अनुशासन,संकल्प जरुरी।   


                           जीवन का निश्चय निश्चित आधार अनिवार्य।।                         


 


मुग़ल, ब्रिटिश ,कोरोना का ना गुलाम बने ।      


                      गुलामी में इंशा असय वेदना को सहता धीरे धीरे मरता जाता ।


 


 


अनुशासन, सयंम, संकल्प आजादी के आदि ,मध्य ,अंत अंनंत।।                    


 


  नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


शिवानंद चौबे जौनपुर

बारहिं बार बयारि झकोरत दीपक त्यागत न जलना रे।


सूरज चाँद निरन्तर धावत त्यागत न गति न चलना रे।


शूर की चाह पड़े पग पाछ न कायर चाह रही छलना रे।


अंकुर फोरि पहार कढ़ें अस पूत के पाँव दिखें पलना रे।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

सत्य शरण तुम्हारी.......


 


हे नटवर तेरे गुण गाऊं,


पल भर तुमको भूल न पाऊँ।


नाथ मिले जो कृपा आपकी,


अन्तर्मन से मोद मनाऊं।। 


 


जीवन कृष्ण धरोहर तेरी,


तुम से प्रीति रहे प्रभु मेरी।


मोह व ममता करें न व्याकुल,


निर्मल मति करो तुम मेरी।।


 


राग द्वेष में समय गवायो,


हरि स्मरण मैं कर नहीं पायो।


तुमहि जीवन के आधार हरि,


सत्य शरण तुम्हारी आयो।।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः👏👏👏👏👏🌸🌸🌸🌸🌸


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


       *"अकेला"*


"माना होता जो मन मेरा,


यहाँ देखता जग का मेला।


रहता न यूँही पल-पल मैं,


क्यों-अपनो संग अकेला?


पल-पल सोच रहा मन साथी,


कैसा -ये दुनियाँ का मेला?


अपना-अपना कहता साथी,


फिर भी रहता यहाँ अकेला।।


छाये न नफरत मन में साथी,


इतना तो होता मन उजला।


साध लेता जो मन साथी,


यहाँ रहता न फिर अकेला।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta


ःःःःःःःःःःःःःःःःः 03-06-2020


राजेंद्र रायपुरी

देश के वीरों को समर्पित एक रचना


 


👨🏻‍🏭👨🏻‍🏭👨🏻‍🏭👨🏻‍🏭👨🏻‍🏭👨🏻‍🏭👨🏻‍🏭👨🏻‍🏭


 


सैनिक सरहद पर खड़ा,


                    तभी सुरक्षित देश।


उनकी रक्षा मानिए, 


                     करते देव महेश।


 


भारत माॅ॑ के लाड़ले, 


                   सैनिक वीर जवान।


चलें कफ़न सिर बाॅ॑धकर, 


                  लिए हथेली जान।


 


अपनी चिंता है कहाॅ॑, 


                  उन वीरों को यार।


उनकी चिंता बस यही, 


                 दुश्मन करे न वार।


 


बुरी नज़र जो डालता, 


                   भारत मां की ओर।


नहीं देख पाता कभी, 


                  मानो अगली भोर।


 


आओ कर लें हम नमन, 


                   उन वीरों को आज़।


करती है मां भारती,


                  जिन वीरों पर नाज़।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0हरि नाथ मिश्र

* सुरभित आसव मधुरालय का*5अ


शिव का वाहन नंदी है तो,


सिंह सवारी गिरिजा की।


सिद्धिविनायक का मूषक तो-


कार्तिक-मोर-निभाई है।।


       ये सब दुश्मन हैं आपस में,


       वाहन किंतु कुटुंबी एक।


       नंदी-सिंह का मेल अनूठा-


       उरग-मयूर-मिताई है।।


ऐसा कुल है मधुरालय भी,


आसव जिसका है हृदयी।


इस आसव का सेवन करते-


मिटती भी रिपुताई है।।


       नेत्र खुले चखते ही तिसरा,


       जो है अंतरचक्षु सुनो।


       समता-ममता-नेह-दीप्ति को-


       इसने ही चमकाई है।।


शिव-आसव मधुरालय-आसव,


सकल जगत हितकारी है।


राग-द्वेष-विष कंठ जाय तो-


हृदय अमिय अधिकाई है।।


      शिव-प्रभाव कल्याण-नियंता,


      शिव-प्रभाव सा यह आसव।


      सज्जन-दुर्जन आकर बैठें-


      करता यही मिलाई है।।


हँसी-खुशी सब मिलकर चखते,


आसव-द्रव अति रुचिकर को।


शत्रु-मित्र शिव-कुल के जैसा-


मूषक-मोर-रहाई है।।


         © डॉ0हरि नाथ मिश्र


           9919446372


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...