सुनीता असीम

वो चल दिए यहां सभी रातें गुजार के।


लगता है ले चले हों वो मौसम बहार के।


***


चलते चले गए हो दीं आवाज भी तुम्हें।


अब थक गया गला मेरा तुमको पुकार के।


****


टूटा हुआ बदन मेरा औ इश्क का सितम।


आसार दिख रहे हैं सभी ये बुखार के।


***


आओ चले भी आज मुहब्बत के वास्ते।


कुछ हाल पूछ लो मेरे जैसे बिमार के।


***


छिनने लगा है चैन दिले बेकरार का।


टूटे हैं तार आज कई इस सितार के।


***


सुनीता असीम


४/६/२०२०


रश्मि लता मिश्रा बिलासपुर सी जी

दोहा 


तुकांत बंद छंद कंद


 


बीत गया जो वह भुला, कर लोआज पसंद।


आज समय जो भी मिला, ले उसका आनंद।


जब अंधेरा था घना, सूरज करे प्रकाश।


बाहर आकर देख तो, क्यों है घर में बंद।


बाग में है फूल खिला, कलियां भी खिल रहीं।


महक रहा है बाग भी, फैली है सुगंध।


 


भटक रहा आज वन में, लेकर मन में द्वंद।


बीते दिन भी देख लो, अब तक खाकर कंद।


कविता मेरी प्रेयसी, कैसे हो श्रृंगार।


आत्मा इसके भाव हैं, है शरीर पर छंद।


माता मेरी सरस्वती, मुझको दे दो ज्ञान।


कैसे कर लूँ साधना, देखो मैं मति मंद।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर सी जी


निशा"अतुल्य"

बाल यातना 


4.6.2020


सेदोका


 


 


पंगु कानून


बाल यातना एवं


अवैध तस्करी हो


जिस देश में


दिशा हीन हो खत्म


होती वहाँ संतति ।


 


बंधी है पट्टी 


कानून अंधा सदा 


नही कोई भावना 


बस सबूत


चाहिए सच झूठ


दिखाने के लिए क्यों ?


 


पीड़ित होता


खोता जो बचपन


मन की व्यथा जाने


कौन उसकी


आँसू से सूखी आँखे 


भूखा पेट घूमता ।


 


कठोर दंड


होना चाहिए सदा


नही कोई सबूत


चाहिए जहाँ


देखे चेहरे उनके


सुने मन की बातें ।


 


दंडित हो वो


जो करे घृणित कार्य


ता उम्र रहे जेल 


सश्रम सदा


होगा भय शायद


तभी इस देश में ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


अर्चना द्विवेदी             अयोध्या

निःशब्द हूँ इस मानवी नीचता पर।।


साक्षर होने से पहले मानव बनें🙏


 


जानवर थी,सच है!पर वो रूप थी भगवान का,


पेट भरने को विकल गर्भस्थ शिशु मेहमान का!


क्यूँ किया ये घात उस ममतामयी प्रतिमान पर,


अब नहीं विश्वास है इस दानवी इन्सान का!!😢😢


               अर्चना द्विवेदी


            अयोध्या


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"कविता "*(ताटंक छंद गीत)


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विधान - १६ + १४ = ३० मात्रा प्रतिपद, पदांत SSS, युगल पद तुकांतता।


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●अभिव्यक्ति कोमल भावों की, प्रबोधनी-परिभाषा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


विचार-अनुभूति-कल्पना है, करती शमित पिपाशा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


 


●स्पंदन-अविरल मानव-मन का, मर्यादा है भावों की।


है कविता आलेख दुःख-सुख का, औषधि भी यह घावों की।।


सपनों के सोपान सजाये, आतुर-मन की आशा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


 


●है यह स्वर्णिम-भोर सुहाना, प्रखर-किरण रवि की भी है।


है आभास-रेशमी कविता, शीतलता शशि की भी है।।


आत्मा की आवाज़-सुहानी, कविता नहीं निराशा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


 


●भाव-अमल अभिमान-प्रबल है, कविता रस की धारा है।


इससे जग आलोकित होता, शोषित-लोक-सहारा है।।


प्रक्षालन कर कुरीति कविता, हरे हरेक हताशा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


 


●सच-सच कविता के दर्पण में जग प्रतिबिंबित होता है।


जीवन-चिंतन दिशा-बोध से, मन आलोकित होता है।।


शोषित-जन में शक्ति संचरे, कविता वह प्रत्याशा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


 


●छंदों का संसार-सुहाना, कवि-छवि-झलक दिखाती है।


पावन-विचार-चिंतन-सरिता, जन-जन को सरसाती है।।


अविरल सुरभित यह पुरवाई, कविता प्रेमिल-भाषा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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सत्यप्रकाश पाण्डेय

करिए नाथ उद्धार.......


 


प्रतिपालक इंसान के, परमब्रह्म भगवान।


सन्तति है सारी प्रजा,रखते है प्रभु ध्यान।।


 


जगतनाथ तुमसे बड़ा,नहीं जगत में कोय।


व्यर्थ प्रपंच में पड़कर,जन भूला क्यों तोय।।


 


शक्ति ज्ञान अजस्र स्रोत, अदभुत तेरे कार्य।


दुख से रखो या सुख से,नाथ सभी स्वीकार्य।।


 


सत्य शरण प्रभु आपकी, रखिए नाथ दुलार।


जीवन अर्पित आपको,करिए नाथ उद्धार।।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः👏👏🌹🌹🌹🌹🌹


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


        *"तूफान"*


"प्रकृति का तूफान तो साथी,


थम ही जायेगा-


कर के कुछ नुकसान।


कारण खोजो फिर न आये,


प्रलय सा तूफान-


सफल हो ये अभियान।


सब कुछ सहज हो जाता साथी,


उठता न जो मन में-


अपनो के अपमान से तूफान।


बड़ा मुश्किल है जीवन में साथी,


थामे उस तूफान को और-


मन आये अभिमान।


अहंकार मे डूबे हुए जग मे,


मिट गये बड़े -बड़े नाम-


रहा न उनका धरती पर नामो निशान।


तूफान तो तूफान है साथी,


प्रकृति का कोप हो-


चाहे मन छाया अभिमान।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


 


ःःःःःःःःःःःःःःःः


           04-06-2020


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल             महराजगंज,

मन 


 


मन ठहरा मन बहता है,


  मन ही मन में कुछ चलता है।


मन के भावों से ही जीवन 


    बन सुन्दर और निखरता है।


 


पल में यहाँ पल में वहाँ 


         मन ही मन में विचरता है।


मन पंछी का उन्मुक्त गगन में,


  चाहों की लम्बी उड़ान भरता है।


 


मन में उठते पीड़ा को 


     मन ही जाने मन समझता है।


हो द्रवित कष्ट हृदय जब 


  आखों से नीर लिये छलकता है।


 


मन चंचल यदि रुक जाये


   तो जीवन संकट बन जाता है।


जीतहार के चक्कर में व्याकुल


      मानव मन ही पीस जाता है।


 


रचना - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


            महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


राजेंद्र रायपुरी।

😌 -- कोरोना और हम -- 😌


 


धीरे- धीरे लौट रही है, 


                   अधरों पर मुस्कान।


यद्यपि अब भी पड़ी हुई है,  


                   आफ़त में ही जान‌।


 


कब तक रहते बंद घरों में,


               बिना किए कुछ काम।


बिना किए कुछ काम मिलेगा, 


                  बोलो कैसे दाम।


 


बिना दाम के जीवन गाड़ी,


                   कौन सका है खींच।


बोलो फिर क्यों घर में बैठें,


                  हम सब आॅ॑खें मींच।


 


चलो काम पर अपने-अपने,  


                  रखना बस ये ध्यान।


सबसे दो गज दूर रहें हम,


                   अगर बचानी जान।


 


छींकें,खाॅ॑सें अगर कभी तो,


                   मुॅ॑ह पर रखें रुमाल।


मास्क बिना बाहर मत निकलें,


                      पहनें ये हर हाल।


 


कोरोना से बचना है तो,


                    यार कहा जो मान।


वरना बचा नहीं पाएगा,


                  तुझको वो भगवान।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

सबले बड़े प्रकृति हे


धन दौलत अबड़ कमायेन


सुवारथ म उमर गंवायेन


पग पग म काल खड़े हे


दुनिया म प्रकृति ही बड़े हे


नांगर बइला घलो नंदागे


दस बनिहार के कामला ट्रैक्टर


पल भर म कर लेथे


नींद परागे, संसो आगे


उठे बइठे ला नी भावय


धन दौलत अबड कमायेन


सुवारथ म उमर गंवायेन


पग पग म काल खड़े हे


दुनिया म प्रकृति ही बड़े हे


मन के कल्पना हा, सबला तड़फावत हे


जीनगी के भीतरी म दुःख हा हमागे


जहर कस लागथे, मनखॆ के बोली


भाई चारा ह नदावत हे


धन दौलत अबड कमायेन


सुवारथ म उमर गंवायेन


पग पग म काल खड़े हे


दुनिया म प्रकृति ही बड़े हे


खेती अपन सेती कहिके


जांगर ला सब चलावन


चुहत पसीना रग रग भीतरी


सत के बचन निभावन


काम बुता म ढेर नी लागे


घाम म पसीना चुचुवावय


मेहनत अउ ईमान के गांधी ल देख


गरमी म गरमी, ढंड म ढंड


अउ प्रकृति ह बरसात म पानी बरसावय


धन दौलत अबड कमायेन


सुवारथ म उमर गंवायेन


पग पग म काल खड़े हे


दुनिया म प्रकृति ही बड़े हे


नूतन लाल साहू


प्रिया चारण  उदयपुर राजस्थान

आत्मनिर्भर भारत


 


आत्मनिर्भर बने ये भारत मेरा 


लक्ष्य इससे ज्यादा भी कुछ नही


गरीबी मिटे ,कोरोना से हम जीते 


चलते रहे ,अब न रुके, तिरंगा हमारा न झुकें


 


हौसलो की उड़ान है , पंखों में अभी नई जान है


बनानी भारत को ,अभी आत्मनिर्भर वाली पहचान है


 


मजदूर न हो कोई मजबूर यहाँ


घर न हो किसका दूर जहाँ


गाँवो में ही अब शहरों की रौनक लानी है


अबकी बार स्वदेशी चीजे ही अपनानी है


 


लक्ष्य मेरा कुछ और नही ,,,,


बस हिंदुस्तान को आत्मनिर्भर बनाना है


इसमे अपनी थोड़ी भागीदारी को निभाना है


हिंदुस्तान की मिट्टी की खुशबू हमने पहचानी है


जहाँ गंगा यमुना की शीतल कहानी है


 


बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ ,


अब उसे आत्मनिर्भर भी बनाओ


 


शहीद न हो कोई फौजी हमारा 


किसान का न ही आत्म हत्या ही आखरी सहारा


सुनने को न मिले निर्भया सा कांड दुबारा


बाल मजदूरी से गिरा न हो भारत का बच्चा प्यारा।


अब सही मायने में बने भारत आत्मनिर्भर हमारा ।


यही लक्ष्य है हमारा ,यही लक्ष्य है हमारा


 


प्रिया चारण 


उदयपुर राजस्थान


बृजेश अग्निहोत्री (पेण्टर)

जब पीड़ा की परिणति शव्दों में होती है तो अनायास सृजन होता है l


   आज के परिप्रेक्ष्य में शव्दों की समिधा रूप एक गीत 


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बटोही लौट चलाचल गाँव l


 


सूख रहे हैं ताल यहाँ सब, 


सिमट रही हैं नदियाँ l


शैवालों में फँसी मछलियाँ, 


बिता रही हैं सदियाँ ll


 


कच्छप, मकर, कर्क मुँह बाँधे 


ढूंढ रहे हैं छाँव l


 


सपने सुलग रहे आँखों में 


मंजिल है बीरान l


सूरज दहक रहा सिर ऊपर 


दिखलाता निज आन ll


 


पेट जल रहा भूख के मारे 


अंगारों पर पाँव l


 


टूटी छानी बाट जोहती 


दरवाज़े पर खटिया l


ढुलक रहीं बूढ़े नयनो से 


याद भरीं वो बतियाँ ll


 


खींच रहे तन-मन मरुथल में 


बोझिल अपनी नाँव l


 


खड़े राह में आलिंगन को 


काँटों भरे बबूल l


चले बवंडर हँसी उड़ाते 


मार-मार कर धूल ll


 


ऊँचे खड़े खजूर बताते 


दूर है कितनी छाँव l


 


जिसके कंधे लदी जिंदगी 


माँग रही है रोटी l


बूँद-बूँद पानी को तरसी 


उसकी किस्मत खोटी ll


 


भरे फफोले तलवे बढ़ते 


भरने दिल के घाव l


 


**********************


बृजेश अग्निहोत्री (पेण्टर)


मीना विवेक जैन

*लकड़ी का ऋण*


 


जीवन भर जिनके साथ जिये


जीवन में जिनके लिए जिये


वो साथ नहीं जाते कोई


चाहे कितने उपकार किये


लेकिन जिनसे जीवन चले


उपकार उसी का भूल गये


संग शरीर के कोई न जाता


बस सूखी लकडी साथ जले


लकडी के ऋण को भूल न जाना मन मे एक संकल्प बनाना 


अतं समय आने के पहले वृक्षारोपण करके जाना


 


*विश्व पर्यावरण की बहुत सारी शुभकामनाएं*


 


मीना विवेक जैन


सुबोधकुमार शर्मा शेरकोटी 

विश्व पर्यावरण दिवस 


              ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,


 आज समस्या हुई अनेक


 कैसे हो अब निराकरण


 आओ मिल जुलकर करें


 स्वच्छ चहु दिशि पर्यावरण।।


 


 निर्मलता से वृक्षों को काटा


सुख की खाई को है पाटा


 दूभर हो अब जीव भरण


 जब शुष्क हुआ पर्यावरण।।


 


 हरियाली का ह्रास हुआ


 वृक्षों का विनाश हुआ


 शुद्ध वायु के अभाव में


 दूषित सबका श्वास हुआ।।


 


 शैलो पर वृक्षों की पंक्ति


 थी जीवन की अनुपम शक्ति


 शोकाकुल अब शुष्क शैल है


 कहां गई जन-जन की भक्ति।।


 


 देवों का जो वास बने थे


 आज वही वीरान बने


 एक एक वृक्ष है वहां दिखता


 जहां वृक्ष थे घोर घने।।


 


 संतुलित थी जिससे जलधारा


टूट रहा अब धरा किनारा


नित्य प्रति अब बाढ़ आ रही


 अस्त व्यस्त है जीवन सारा।।


 


 अब क्रांति लाओ म न में


मुखरित भाव हो जन-जन में


 सुबोध का यह एक संदेश


हम दो हमारे दो बच्चे दो बृक्ष अनेक।।


 


 सुबोधकुमार} शर्मा शेरकोटी 


गदरपुर उत्तराखंड मो0 न0 


9917535361


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

रश्मि लता मिश्रा


पति-एम एल मिश्रा


जन्म-30,06,1957


शिक्षा-एम ए, हिंदी


प्रोफे-शिक्षिका D A V शाला


में हिंदी शिक्षिका से सेवा निवृत्त


साहित्य-कविता,हाइकू, कहानी, आलेख में रुचि


प्रकाशन दो भजन संग्रह राम रस,नवदुर्गा रस काव्य संकलन


'मेरी अनुभूतियाँ,साझा संकलन


मेरा मत ,बज्म यै हिन्द,साहित्य अंकुर, भावांजलि,अलकनंदा साझा संकलन, वतन के रखवाले,


प्रसारण-आकाश वाणी बिलासपुर से दो कहानियाँ,8 भजनों की सी,डी स्वरांजलि स्टूडियो रायपुर से।


सम्मान बज्म यै हिंदी,


इंटरनेशनल भव्या, युथ अवार्ड ,


उम्मीद रत्न,आगमन तेजस्विनी


कर्मवीर,प्रेम साहित्य अटल 


 प्रेम साहित्य सम्मान भजनसंग्रह


पर,निराला स्मृति सम्मान मेरी 


अनुभूतियां कव्यसंग्रह पर ,उम्मीदरत्न,त्रिलोचनसम्मान


व अन्य ऑनलाइन ।


 


के के समाज मे उपाध्यक्ष


लॉयन्स,लायनेस क्लब 


G D फाउंडेशन में सी जी की प्रदेश अध्यक्ष, आगमन में सी.जी की प्रदेश अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान में भी प्रदेश अध्यक्ष।आन लाइन पटल पर


निर्णायक मंडल में,वतन के रखवाले व चमकते सितारे काव्य संग्रह में सह संपादक की भूमिका


व अन्य पत्रिकाओं में भी।


यथा शक्ति सक्रिय भूमिका


पता A 39 सोन गंगा कॉलोनी,सरकंडा,


बिलासपुर, सी जी


 


कविता-1


ऋण साथ चलेगा


 


जाऊंगी जब जहां से एकऋण तो साथ चलेगा।


माँ!वह तेरा ही ऋण होगा,जिसे


इस जन्म के तो क्या ?


कई जन्मों में भी ना चुका पाऊंगी।


दुनिया के लिए तू कैसी है,


मुझे इससे क्या?


पर अपने बच्चों हेतु मां ईश्वर उपहार है।


उनकी इस सौगात की छत्र छाया तले में पली मेरी खुशियां पाली मेरे सुख-दुख मेरी जरूरतों को सदा तूने सबसे ऊपर रखा।


अपने ढेरों बच्चों के पालन पोषण से


ना तू ऊबी ना तेरा मन ऊबा।


पुनः बच्चों के भी बच्चों को संभालने की तमन्ना पाली।


ममता भी परीक्षा से अछूती ना रहे और,


वह परीक्षा की घड़ी भी


तेरे समक्ष प्रस्तुत हुई,


कहां इंतजार था अपनी बच्ची की


आने वाली खुशियों का,,,,,,,


और कहाँ,,,,


स्वयं की जन्म दात्री काल के गाल में समा गई।


पर धन्य है मां तू धन्य है,,,


मां की ममता कुछ दूरियों की उलझन कहे आने वाले मेहमान का बंधन अंत मे,


ममता की कड़ी ज्यादा मजबूत निकली भले ही उमड़ पड़ी मन की व्यथा,


आंखों से सैलाब बनकर।


आज भी तेरी उस मजबूरी को याद कर सिहर उठता है मन


और कहता है धन्य है ममता का रंग।


यह रंग तब मन से कैसे धुलेगा?


इसीलिए कहती हूं मां तू ही बता तेरा ऋण कैसे चुकेगा।


जाऊंगी जहां से तो,,,,ये


ऋण साथ चलेगा,ऋण साथ चलेगा।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर, सी,जी


 


कविता-2


 


है कंटक से पूर्ण प्रेम पथ,


जरा सँभल कर पाँव पड़े।


 


 


जाना है प्रियतम गली में,


प्रिय बाँहे पसारखड़े।


है कंटक से पूर्ण प्रेम पथ,


जरा सँभल कर पाँव पड़े।


 


मिलन हृदय का पावन प्यारा,


   जीवन का बने आधार,


छोटी-छोटी बातें लेकर,


बनी हुई न बात बिगड़े।


है कंटक से पूर्ण प्रेम पथ,


जरा सँभल कर पाँव पड़े।


 


प्रेम माता ,पिता के जैसा


प्रेम ईश्वर का प्रसाद।


प्रेम से ये सृष्टि है सारी,


प्रेम से सब सबंध जुड़े।


है कंटक से पूर्ण प्रेम पथ,


जरा सँभल कर पाँव पड़े।


 


प्रेम प्रकृति है प्रेम सुगंध,


कीट, पतंगे प्रेम मयसब।


मीरा , तुलसी रस प्रेम पगे,


भक्ति भाव संग भजन गढ़े।


है कंटक से पूर्ण प्रेम पथ,


जरा सँभल कर पाँव पड़े।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर


 


 


कविता-3


दृढ़ संकल्प ये अंतस मन मे,


प्रयत्न करम हेतु धर लो।


अब संभव है इस जीवन में,


जो चाहो हासिल कर लो।


 


माना बाधाएं हैं अनेक,


इरादे भी न किसी के नेक।


अनदेखा कर दोष पराए,


खुद पकड़ साची डगर लो।


अब संभव है इस जीवन में,


जो चाहो हासिल कर लो।


 


जीवन है संग्राम सरीखा,


समुद्र शांत -अशांत दीखा।


मर्यादित रूपसागर देखो,


भले गुण को मन मे भर लो।


अब संभव है इस जीवन में


जो चाहो हासिल कर लो।


 


है पतझड़ बहार भी आती,


बाग प्रकृति भी सजाती।


खिलाये जाते उजड़े चमन,


प्रतिज्ञा मन में गर कर लो।


अब संभव है इस जीवन में


जो चाहो हासिल कर लो।


 


परोपकार की बातें निराली


देखे सब की हरियाली।


जल बाढ़े ज्यों नाव सरीखे,


धन की झोली हल्की कर लो।


अब संभव है इस जीवन में,


जो चाहो हासिल कर लो।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर सी जी


 


चित्र चिंतन


 


 


कविता-4 नवगीत


शीर्षक औरत के अवतार


 


आया नया युग है पंख पसार,


स्त्री ने हैं लिये नव अवतार।


 


लक्ष्मी, दुर्गा का सा रूप बनाये,


भूमिकाएं अनेको निभाये।


घर, ऑफिस, मोबाइल,कूकर सब


संग जैसे हों बाहें चार।


आया नया युग हैपँख पसार,


स्त्री ने हैं लिए नव अवतार।


 


ऑफिस वाली फाइल रख लें


लैपटॉप थैले में भर लें।


फुरसत ना अब खाने-पीने की भी


बजा फोन देखो कई बार।


आया नया युग है पँख पसार,


स्त्री ने हैं लिए नव अवतार।


 


थामे अपनी अहम जिम्मेवारी,


है ये भारत की ही नारी।


थोड़ा उसको भी समझो गर जो


स्वर्ग बन जाये फिर घर-द्वार।


आया न या युग है पँख पसार,


स्त्री ने हैं लिये नव अवतार।


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर, सी,जी


 


 


कविता-5


 मजदूर नवगीत 


शीर्षक मजदूर हूँ मैं


 


मजदूर हूं मैं न मजबूर हूं मैं,


श्रम का देखो गुरुर हूँ मैं।


 


दो हाथों का है मुझको सहारा,


चलता इन्हीं से है गुजारा।


फिर ना कहना ना मुझको पुकारा


कामों में अपने मशगूल हूं मैं


मजदूर हूं मैं न मजबूर हूं मैं।


 


नींव का पत्थर बनू सदा ही,


ले लूं श्रेय मुझको मनाही


रब चाहेगा देगा दिला ही


परिश्रम से ही तो मशहूर हूँ मैं


मजदूर हूँ मैं न मजबूर हूँ मैं।


 


मेहनत ,पूजा तो मान करो ना


श्रमिकों का अपमान करो ना।


अधिकार मेरा स्वीकार करो ना


हक दो मुझे तो बोल दूँ मैं


मजदूर हूँ मैं,नमज़बूर हूँ मैं


श्रम का देखो गुरुर हूँ मैं।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर सी जी।


आशुकवि नीरज अवस्थी पर्यावरण

विश्व पर्यावरण दिवस


पर स्लोगन मुक्तक 


                      


आओ सब मिल के एक फैसला लिया जाये।


वैश्विक ताप को कैसे भी कम किया जाये।


आज हर प्राणि के जीवन पे है खतरा भारी,


काम ऐसे हो की खतरा ख़तम किया जाये।(1)


जन जीवन बाधा मिटे हरो शोक संताप।


वृक्षा रोपण कर सभी हरो विश्व का ताप।।(2)


 


 


          -कविता-


मुठ्ठी बांध सभी आते है,हाथ पसारे जाओगे।


लेकिन एक पेड़ की लकड़ी साथ साथ ले जाओगे।


निज जीवन में एक वृक्ष के संरक्षण की शपथ गहो,


इतना भी ना कर पाए तो जन्म जन्म पछताओगे।


मुठ्ठी बांध सभी आते है,हाथ पसारे जाओगे।


लेकिन एक पेड़ की लकड़ी साथ साथ ले जाओगे।


ताप विश्व का दिन दिन बढ़ता जल संकट गहराता है।


शुद्ध हवा भी नही मिल रही सकल जीव घबराता है।


सूख रही नदियां झीलें इनको कैसे भर पाओगे।


मुठ्ठी बांध सभी आते है,हाथ पसारे जाओगे।


लेकिन एक पेड़ की लकड़ी साथ साथ ले जाओगे।


धुंआ धूल की बहुतायत है इस पर ध्यान जरुरी है।


ऐसी फ्रिज का कम से कम उपयोग बना मजबूरी है।


अगर प्रकृति ने करवट बदली तब तुम क्या कर पाओगे।


मुठ्ठी बांध सभी आते है,हाथ पसारे जाओगे।


लेकिन एक पेड़ की लकड़ी साथ साथ ले जाओगे।


आशुकवि नीरज अवस्थी मो0-9919256950


डॉ रश्मि शुक्ला प्रयागराज         

🌹🌹 जीवन अनमोल🌹🌹


 


सर्वभवन्तु सुखिन:सर्व सन्तु निरामया:


 


काम काज को अब सुरु करना है ,


हम सबको घर से निकालना है ।


सबको ये वादा निभाना है ,


कोरोना को दूर भागना है ।


ये आपदा को मिलकर हारना है,


पूरे भारत को निरोग रखना है ।


जन जन को रास्ट्रीय धर्म निभाना है,


देश के विकास में आगे आना है ।


घर घर ये अलख जगाना है,


पूरे भारत को विश्व गुरु बनाना है ।


वायरस ये बड़ा दुशमन है हमारा,


गोली बारूद से नही मरने वाला।


समाजिक दुरी से इसको भगाना है ,


संक्रमण की चेन बनने नही देना है ।


अफवाहो को नहीं फेलाना है ,


पूरे भारत को स्वस्थ रखना है ।


जीवन बड़ा अनमोल हमारा है,


जान बूझ कर ना सबको गवाना है ।


अंध विश्वासों से सबको बचना है,


महामारी से देश को उबरना है ।


मास्क पहनकर बाहर निकलना है,


 गाईड लाईन का पालन करना है ।


सबको विजय को प्राप्त करना है,


 मानवता को अब साथ लेना है ।


 


         


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

डॉ रघुनंदन प्रसाद दीक्षित 'प्रखर"


माता= श्रीमती शांति देवी


पिता= श्री दाताराम दीक्षित


जन्म= 05 जून 1962 


 


विधा= कविता,कहानी, लघुकथा, गीत नवगीत तथा समसामायिक आलेख।


 


प्रसारण= आकाशवाणी एवं जैन टीवी चैनल से काव्य पाठ, भेंटवार्ता तथा सामायिकी का प्रसारण।


 


प्रकाशन = स्तरीय राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में सतत प्रकाशन।


 


कृतीत्व= वक्त के कैनवस पर....(क्षणिका),एवं मन के द्वार (नवगीत)


एवं सीमा से आंगन तक(सैन्य गीत),राहें, अंतिम आग (अप्रकाश्य)


 


सम्मान= विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर(विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ भागलपुर (बिहार)सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित।


 


व्यवसाय= 


*(क) 30 वर्षों तक सैन्य सेवा में सूबेदार मेजर पद से सेवानिवृति उपरांत स्वतंत्र साहित्य सृजन।*


*(ख) कारगिल युद्ध विभीषिका के समय उत्तर सीमा पर सक्रिय सैन्य दायित्व को साथ ही पूर्वोत्तर सीमा पर तैनाती में कर्तव्य निर्वाहन।*


 


सम्पर्क= 27, शांतिदाता सदन, नेकपुर चौरासी, फतेहगढ , जनपद- फर्रूखाबाद(उ0प्र0)209601


 


Email : Prakhard68@gmail.com


Mob= 09044393981


 


 


*रचनाऐं*


 


*(१)*


कुंडलिया


 


बीत रहा मधुमास पल कुंद हुई मन प्रीति।


प्रणयन की गहराईयाँ कहाँ निभाती रीति।।


कहाँ निभाती रीति चहूँ दिशि उपवन महके।


हा!देख काम के रंग जवानी पलपल बहके।।


मनभावन शुचि पावन हैं प्रखर प्रेम के गीत।


अस्ताचल की ओर जवानी कोरी जाए बीत।।


 


*(२)*


 


दोहरे चेहरों की दोधारी से बचिए।


मीत अकविता की बेजारी से बचिए।।


 


जुमलों में ग़ज़ल परोसते उस्ताद


उनकी हेकडी औ' मक्कारी से बचिए।।


 


सौदेबाजी में कराहता मंचों पे अदब


ऐसी शातिर दुकानदारी से बचिए।।


 


न कविता न कविता का हुनर पाया


मीत तौबा इस कलाकारी से बचिए।।


 


ये चारण भक्ति और ये यशगान


प्रखर मंचों की पर्देदारी से बचिए।।


 


*(३)*


 


*भूख*


 


जठराग्नि प्रबल जठ पूर्ति निबल, किम जतन करें जीवन सरसै।


युति युक्ति अबल घनघस छल बल, विपदा की जेठ ज्वाल बरसै।।


जीवन पथ वक्र अगम दुर्गम, सुख स्वाति ऩखत की बूँद सदृश,


किम चलै स्यंदन गृहस्थ प्रभू, मृगतृष्णा जस आशा तरसै।।


 


 


हे नाथ दयानिधि करुणाकर, दो श्वांस उधारी ही तुम्हरी।


जीवन कल सम अनवरत चलै, दिन रात खटूँ इच्छा तुम्हरी।।


ये भूख बनाए परदेशी यह भूख करे उत्थान पतन,


मेहनत की रोटी प्रखर मिले,रहे कृपा प्रभु जी जब तुम्हरी।।


 


##@#


 


जतन= यत्न


कल= यंत्र


स्यंदन=रथ


 


 


*(४)*


 


अजब तासीर


==========


बताऐं क्या तुम्हें प्रियवर, आहों में कसक पीड़ा ।


बड़ी बेदर्द सुकूं लेती, निभाती साथ विरह पीड़ा।।


तुम्हें हालात क्या मालूम, नहीं आराम निंदिया ही,


गिनगिन कर करें रातें, अजब तासीर पिय पीड़ा।।


 


न दिखा पाऐं न बता सकते, दर्द ए दिल को अफसाने।


इन ख्वाबों में तुम्हीं तो हो, शमा में जलते परवाने।।


सुकूं दिन सा रात नींदें, उड़ाती याद पिया रह रह,


तुलसिका गेह मुरझानी , प्रखर मन कैसे समझाने ।।


 


*(५)*


 


 


रस वसंत मूर्ति


==°========


 


मैं सुभग हूँ प्राणबल्लभ , सर्वस्व अर्पित तन मन धन।


कर दो अमोल हस्ताक्षर प्रिय , सम्पूर्ण होगा तब प्रणयन।।


मदिर नयन की पलक मुंदी, संस्पर्शी भाव रुचिर पावन,


मैं जीत गयी न तुम हारे ,हिय कसक रहा प्रियतम खनखन।।


 


अरुणाई तुम्हारी चित्त हरण,पतवार नयन बाकी चितवन।


अलसायी भोर सी स्निग्ध आभ, काकुल गुम्फित ज्यों पावस घन।।


नूपुर झंकृत पैंजनि रुनझुन , कंगन खनकै अधरन स्मित,


अल्हादिनी संगिनि प्रणय छंद, साधिका सृजनिका वातायन ।।


 


 


डॉ प्रखर दीक्षित


फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)


 


 


संदीप कुमार विश्नोई

जय माँ शारदे


मोद सवैया


 


नाथ खड़े अपने रण में सब , बोल रहे गांडीव उठाए। 


अर्जुन को रण में तब माधव , ले कर गीता ज्ञान सुनाए। 


मोह तजो तुम पार्थ उठो अब , जीवन का वो भेद बताए। 


धर्म करो तुम शस्त्र उठाकर , माधव ऐसा पाठ पढ़ाए। 


 


संदीप कुमार विश्नोई। गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर जिला फाजिल्का पंजाब


सुनीता असीम

जीवन में तिश्नगी को जगाए हुए हैं हम।


बस आस एक तुमसे लगाए हुए हैं हम।


***


कोई गुनाह राहे मुहब्बत में हो गया।


तो सामने ये सर भी झुकाए हुए हैं हम।


***


जब जी करे चले आना मेरी गली में तुम।


अब भी शम्मे मुहब्बत जलाए हुए हैं हम।


***


अरमानों को मेरे न हवा इस तरह से दो।


दिल के सभी चराग बुझाए हुए हैं हम।


***


मत तोड़ आइना मेरे दिल का ये साफ सा।


इसमें तो अक्स तेरा। सजाए हुए हैं हम।


***


सुनीता असीम


३/६/२०२०


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक (स्वरचित)  नई दिल्ली

दिनांकः ०३.०६.२०२०


दिवसः बुधवार


विषयः रामावतार


विधाः गीत(कविता)


शीर्षकः गाऊँ राम भजन


 


रामावतार गीत गाऊँ मैं,


जीवन पापों से उद्धार करुँ।


श्रीराम नाम अभिराम मनोहर,


अन्तर्मन निश्छल अनुनाद करूँ।  


 


नित कौशलेय रघुनाथ सुकोमल, 


दशरथ नन्दन सुन्दर मन अभिसार करूँ।


जीवन नित मर्यादा पुरुषोत्तम,


सरसिज राघवमुख अनुराग करूँ। 


 


जय रघुनन्दन जग असुर निकन्दन,


सीता राम लखन गलहार करूँ।


रघुकुल नीति नित वचन सत्पालक,


श्रीराम मन निकुंज विहार करूँ। 


 


महान् भरत सम भाई परंतप,


शत्रुघ्न अनुज हृदय सुखसार करूँ।


प्रीति भक्तिमय नित लखन लाल मन,


जय सियराम गान गुंजार करूँ। 


 


मारि दशानन जग पाप विमोचन,


नित हनुमान भक्ति जयकार करूँ। 


हर पाप त्रिविध शरणागत वत्सल,


गाऊँ राम भजन सुखसार करूँ। 


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित) 


नई दिल्ली


डॉ हरि नाथ मिश्र

*गीत*(छप्पन भोग16/14)


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।


किसको फ़िक्र पड़ी है उसकी-


मृतक जगत यह लगता है।।


 


जहाँ देखिए कहर-कहर ही,


नहीं अमन औ'चैन दिखे।


परेशान मजलूम यहाँ पर,


कुत्ता ओदन भले चखे।


मानवता तो दूर बसी जा-


क्रूर भाव मन बसता है।।छप्पन भोग......।।


 


मंदिर-मस्ज़िद-गिरजाघर में,


दान-पुण्य यदि है होता।


इसमें तो आश्चर्य नहीं है,


कर्म-कुकर्म वहाँ होता।


दान-धर्म के नाम ठगी कर-


पापी जीवन पलता है।।छप्पन भोग.......।।


 


चंदन-तिलक लगा माथे पर,


पंडित लगे पुजारी है।


धर्म-कर्म का करते धंधा,


ठगता बारी-बारी है।


बेच-बेच कर मानवता को-


कहता दुख वह हरता है।।छप्पन भोग........।।


 


अजब-गजब की दुनिया मित्रों,


इसकी चमक दिखावा है।


अंदर इसके भरी गंदगी,


सुबरन रूप छलावा है।


स्वर्ण कुंभ में भरा गरल जग-


मरता-जीता रहता है।।छप्पन भोग........।।


             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


सत्यप्रकाश पाण्डेय

जिंदगी में..................


 


किसी की मुहब्बत का ताज पहनकर सिर पर,


हम तो इठलाते फिर रहे थे।


वह तो है आलम्बन हमारी जिंदगी का,


हम सबसे कहते फिर रहे थे।।


 


माना कि उसे भी नाज सा हो गया था कुछ,


फितरत भी बदली बदली लगी।


तन मन वारा जिसे अपना बनाने के लिए,


वही न हो सकी हमारी सगी।। 


 


हर दिन को परीक्षा में गुजारते रहे हम,


सोचा सफल हो ही जायेंगे।


लिखेंगे इबादत अपनी प्रेम कहानी की,


जिंदगी में सकून पायेंगे।।


 


वाह री किश्मत बड़े अजब खेल हैं तेरे,


किसको हसाये किसे रुलाये।


जिसको सत्य समझ रहा दुःख सुख का साथी,


वो हमें पतझड़ बनकर आये।।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


संजय जैन (मुम्बई

*दम न निकल जाये*


विधा : गीत


 


न वो कुछ कह सकते है,


न हम कुछ सुन सकते है।


दिलो की पीड़ा को हम,


व्या कर सकते नही।


लगी है आग सीने में,


बुझाए इसे किस तरह।


न वो कुछ कहते है,


न हम कुछ कहते है।।


 


मिली है जब से आंखे,


वो हंसती और रोती है।


पर दिल के धड़कने,


किसीसे कुछ नही कहती।


पर मानो दिल दोनों के,


धड़क रहे एकदूजे के लिए।


तभी तो दिल की बाते, 


आंखे से दोनों कहती है।।


 


करे क्या अब इस दिलका,


जो अब संभालता ही नही।


दवा कोई सी भी अब,


असर करती ही नही।


करे कब तक हम उनका,


इंतजार यहां पर आने का।


निकल न जाये दम मेरा,


बिना उनसे मिले ही।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


03/06/2020


डा.नीलम कौर

*चित्रकर्म*


हार नहीं मानूंगा


रार नहीं ठानूंगा


कर्म फावड़े से 


लक्ष्य अपना साधूंगा


 


भ्रम में मत रहना कोई के..


हम मजलूम या हैं लाचार


कर्म फावड़ा हाथ ले हम


भी बन जाते हैं पार्थ


 


कर्म की आँख पर रख निगाहें


लक्ष्य हम संधान करें पर..


हमारी कर्मभूमि पर दुर्योधन-से शैतान खड़े


 


हर वार हमारी मेहनत के


श्रम सीकर से संधारित


सिंहासन हैं संवारते पर..


शकुनि से दुष्ट हमें हर बार


निर्वासित करते


 


पर हार नहीं मानूंगा


रार नहीं ठानूंगा


कर्म के फावड़े से


लक्ष्य अपना साधूंगा।


 


       डा.नीलम कौर


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