नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

अनुबन्ध नहीं संबंधो में सम्बन्ध शास्वत अंतर मन कि एकाकी का बंधन ।                              


 


संबंधो के आयाम बहुत नाम बहुत संबंधो में होता नहीं विकार।।


 


 


संबंधो कि अपनी मर्यादा मान


संबंधो कि अपनी संस्कृति संस्कार।                            


 


संबंधो के सतत सिद्धान्त शत्रुता भी संबंधो कि बिशिष्टता का परिणाम ।।                       


 


परस्पर संबंधो में स्वार्थ का नहीं कोई स्थान।


 


निर्धारण संबंधो का जन्म के साथ बिसरते ,बिसराते जाते ।         


 


ऐसे भी सम्बन्ध कुछ जीवन के साथ साथ जीवन के बाद।


 


संबंधो कि पृष्ठ भूमि है त्याग     


बेटी बचपन बाबुल के संबंधो का करती त्याग ।।            


 


अपरिचित से नव संबंधो का करती सत्कार संबंधो का यही रीती रिवाज।


 


अग्नि के समक्ष के फेरे सात कोई अनुबंध नही ।                      


 


ह्रदय भाव के संकल्पों का सम्बन्ध का बंधन मात्र।।


 


 


 संबंधो में सहमति ,प्रेम ,सम्मान आधार ।                            


 


विलय व्यक्तित्वों का एकीकृत हो जाना मित्रता कि परिपक्वता पवित्रता संबंधो आदि मध्य अंत।। 


 


अवसान नहीं संबंधो का नित्य निरंतर के जीवन का। 


 


अविरल, निश्चल ,प्रवाह संबंधो का पूर्ण विराम नहीं।।


 


चाहे अनचाहे बंधन में बांध जाना जीना मरना मिट जाना ।


 


संबंधो में अनुबंध नहीं भावों कि भाव भावना कि अनुभूति जाग्रति का सूत्रधार का तन बाना।।


 


प्रेयसी ,प्रियवर ,प्रियतम माता, पिता ,भाई ,बहन संबंधो केजीवन दर्शन है ।


 


मन के मूल्यों का अनमोल मित्र युग संसार में अभिमान अतिउत्तम सर्वोत्तम संबंधो का मूल्य मूल्यवान।।                     


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


राजेंद्र रायपुरी

*मजदूर*


 


वो मजदूर,


जो प्रगति के रथ का पहिया है,


था कितना मजबूर,


आड़े वक्त में,


देखा है, 


हम सब ने।


 


था कोई नहीं सहारा,


फिरता था मारा-मार,


कभी घर जाने को,


कभी दो दाने को।


 


दावे तो खूब हुए,


दिया हमने सहारा।


पर वो जानता है बेचारा,


जिसे कहते हैं,


हम मजदूर,


था कितना वो,


मजबूर,


अपने ही देश में,


अपनों के बीच।


 


फिरता था वो,


मारा-मारा।


कोई तो बने सहारा।


पर हुआ सब बेकार।


कर प्रयत्न,


गया वो हार,


क्योंकि,


था वो मजदूर।


 


     ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


        *"चाहत"*


"चाहत जागी मन में ऐसी,


मैं भी देखूँ सपने ऐसे।


ख़ुशियों को भर ले आँचल में,


बगिया महके जग में जैसे।।


सपने-सपने न रहे साथी,


उनको भी कर ले सच ऐसे।


बनी रहे तृष्णा जीवन में,


संग-संग प्रभु की भक्ति जैसे।।


छाये न विकार जीवन में फिर,


बना रहे ये तन-मन ऐसे।


जीवन चमके पल-पल ऐसे,


देख रहे हो दर्पण जैसे।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.m


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 05-06-2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*7


अन्न-फूल-फल बदन सँवारें,


रक्त-तत्त्व संचार करें।


रचे रक्त इस तन की पुस्तिका-


यह अक्षर-रोशनाई है।।


     अक्षर बिना न पुस्तक सार्थक,


      रक्त बिना तन व्यर्थ रहे।


      रक्ताक्षर का मेल निराला-


      पुस्तक-तन को बधाई है।।


यह पुनीत मधुरालय-आसव,


मन स्थिर,तन स्वस्थ रखे।


आसव औषधि है अमोघ इक-


करता रोग छँटाई है।।


        दान अभय का मिला सुरों को,


         पीकर ही अमृत -हाला।


         अमर हो गए सभी देवता-


         माया नहीं फँसाई है।।


हाला कहो,कहो या आसव,


दोनों मधुरालय -वासी।


दोनों की है जाति एकही-


यह सुर-पान कहाई है।।


      कह लो इसको अमृत या फिर,


      कहो सोमरस भी इसको।


      देव-पेय यह देत अमरता-


       लगती नहीं पराई है।।


ताल-मेल सुर-नर में रखती,


अपन-पराया भेद मिटा।


दिया स्वाद जो सुर-देवों को-


नर को स्वाद दिलाई है।।


      जग-कल्याण ध्येय है इसका,


      करे मगन मन जन-जन का।


      तन-मन मात्र निदान यही है-


      रखे नहीं रुसुवाई है।।


कहते तन जब स्वस्थ रहे तो,


मन भी स्वस्थ अवश्य रहे।


तन-मन दोनों स्वस्थ रखे यह-


हाला जगत सुहाई है।।


      जब भी तन को थकन लगे यदि,


      मन भी ढुल-मुल हो जाये।


      पर आसव का सेवन करते-


       मिटती शीघ्र थकाई है।।


लोक साध परलोक साधना,


सेतु यही बस आसव है।


साधन यह है पार देश का-


करता सफल चढ़ाई है।।


       मिटा के दूरी सभी शीघ्र ही,


       मेल कराता अद्भुत यह।


       मिलन आत्मन परमातम सँग-


       कभी न देर लगाई है।।


एक घूँट जब गले से उतरे,


अंतरचक्षु- कपाट खुले।


भोग विरत मन रमे योग में-


भागे भव-चपलाई है।।


       सकल ब्रह्म-ब्रह्मांड दीखता,


        करते आसव-पान तुरत।


       विषय-भोग तज मन है रमता-


       जिससे नेह लगाई है।।


                    ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ0हरि नाथ मिश्र गीता सार

क्रमशः....*चौदहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


जनम-मृत्यु अरु बृद्धावस्था।


परे सदा रह अइस ब्यवस्था।।


     अस जन रहँ भव-सिंधुहिं पारा।


     परमानंदय पाव अपारा।।


सुनि अस बचन कृष्न भगवाना।


पूछे तुरतयि पार्थ सुजाना ।।


     गुणातीत नर जग कस होवै।


     बता नाथ का लच्छन सोवै??


सतगुन- जोती,रजो प्रबृत्ती।


तमो मोह कै जे रह भक्ती।।


    सुनु अर्जुन,अस कह प्रभु कृष्ना।


    प्रबृति-निबृति नहिं अस जन तृष्ना।।


गुण करि सकहिं न बिचलित अस जन।


स्थित एकभाव सच्चिदानंदघन।।


      सुख-दुख,माटी-पाथर-सोना।


      प्रिय-अप्रिय नहिं धीरज खोना।।


निंदा-स्तुति एकी भावा।


रह बस जन समभाव सुभावा।।


     भाव समान मान-अपमाना।।


      कर्तापन-अभिमान न ध्याना।।


मित्र-सत्रु समभाव प्रतीता।


अहहीं अस जन गुनहिं अतीता।।


     करहिं भजन जे मोर निरंतर।


      तजि गुण तीनों सुचि अभ्यंतर।।


एकीभाव ब्रह्म के जोगा।


अहहिं सच्चिदानंदघन भोगा।।


दोहा-अहहुँ हमहिं आश्रय सुनहु, हे अर्जुन धरि ध्यान।


         रसानंद अमृत सुखहिं,ब्रह्म-धरम तुम्ह जान।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


               चौदहवाँ अध्याय समाप्त।


विशेष शर्मा हास्य कवि

सुनो मोर भाई


एक नवीन अवधी कविता


रचना विशेष शर्मा


 


 


भई कस तरक्की सुनो मोर भाई


पावा का खोवा यू कैसे बताई।


भई कस तरक्की*..........


 


सदी बीस मा सच भई है तरक्की


चूल्हा चला गा गई घर से चक्की।


 


घर मा न सिलवट न सिलवट का बट्टा


पछुवा चली तौ चला गा दुपट्टा।


 


लकड़ी की ओखल न मूसल न गाली


काठे कठौता न फूले की थाली।


 


सडकै बनी गांव चहला चला गा


सिलैंडर मिला तौ अकहुला चला गा।


 


दुनियम कहूं आजु लढिया नही है


नहीं दूध साढी दुधढिया नहीं है


दुधढिया की खुरचन न माठा मलाई.....


भई कस तरक्की सुनो मोर भाई!


====================


 


 


 


कोदो मकाइक कहां भात पइहौ


लहड्डा औ भटवासु देखे न हुइहौ।


 


कहाँ आजु सिरका औ बेझरी के रोटी


बालै नहीं है तो फिर कइस चोटी।


 


बरगद नहीं ना तौ बुढवन का जमघट


कुआं ताल नद्दी न घट है न पनघट।


 


पतलून अचकन न बंडी लंगोटी


बाबा के साथै चली जाई धोती।


 


सेंदुर नही मांग मा बाल काटे


दादिउ का देखा कसी जींस डाटे।


 


नही जानि पइहौ बहन कौन भाई


भई कस तरक्की यू कैसे बताई*.......


====================


 


 


सुखउन गवा तौ चली गै चिरैया


प्रदूषण मा फंसिकै लुटी है गौरैया।


 


लरिकन कै बुदुका औ पाटी न पइहौ


मुडमिसनी खडिया के माटी न पइहौ।


 


कहूं आज पटुआ औ सनई नही है


पहिले सा दमदार मनई नही है।


 


बीते जो है वइ जमाना न पइहौ


केला के पत्ता पे खाना न पइहौ।


 


बरातन की गारी मा मिशरी की बानी


जेउनार मा महकै कुल्हड का पानी


ई मेल से अब है होती सगाई


भई कस तरक्की*.......


====================


 


छिपे आदमिन मा फरिश्ते चले गे


रूपया जो आवा तौ रिश्ते चले गे।


 


फुर्सत नहीं बात एकदम सही है


भोजन बहुत भूख बिल्कुल नहीं है।


 


होली मा आलू के ठप्पा नही है


पिता डेड हुइगे है बप्पा नही है


 


पढा लिखा मनई निकम्मा कहां है


 महतारी ममी आजु अम्मा कहां है।


 


हलो हाय गुडबाय टाटा ही सी यू


नमस्ते प्रणाम जुडे हाथ अब क्यू।


छुई पांव कैसे हुवै जगहसाई


भई कस तरक्की सुनो मोर भाई


पावा का खोवा यू कैसे बताई


=================


विशेष शर्मा


सहायक अध्यापक


PS सिसौरा फूलबेहड खीरी


गंगोत्री नगर लखीमपुर


8887628508


प्रखर दीक्षित

राम कै बाट तकै शबरी नित राह कै धूर औ' कंट्रोल बुहारै।


अईंहै कबै मेरे राम सिया इत कुटिया के झरोखे पंथ निहारै।।


फल फूल रुचिर पकवान नवल,मधुपर्क सो माँ आयु संभारै।


अब आवहु लला अवधेश घरै, उपवास करै अरू राम निहोरै।।


 


सिय राम अबेर करी , अंखियाँ थाकी तन हार गयो।


मतंग मुनी आश्वस्त करी तब तै लौकिक रस भार भयो ।।


मधुरिम नौने वन बेर लला लेहु खाहु जनम सवांर दयो।


सौमित्र ही शंकर ने भाग्य लिखे , पै भगति विमल को हार नयो।।


 


प्रखर दीक्षित


,


प्रिया चारण  उदयपुर राजस्थान

शीर्षक- समय 


 


समय का क्या भागदौड़ का था गुजर गया


सन्नाटे का है गुजर रहा है ।


 


विनाश का क्या ?


कौरवो का आया था वजह खुद ब खुद बन गई


मनुष्य का आया है वजह स्वयं बना रहा है।


 


समय के पलट वार का क्या ?


कल तक मनुष्य जीव को मारता था


आज विषाणु मनुष्य को मार रहा है ।


 


गमंड का क्या ?


कल मनुष्य प्रकृति का नाश कर रहा था


आज प्रकृति करारा जवाब दे रही है ।


 


स्वेच्छा का क्या?


कल मनुष्य अपने लोभ से दुनिया चला रहा था


आज प्रकृति स्वयं स्वच्छता का श्रृंगार कर रही है ।


 


ज़ुबाँ बेजुबाँ का क्या?


कल बेजुबाँ हथिनी को मजाग से मारा 


कल बेजुबाँ टिड्डी फसलो का मजाग बना देगी ।


 


समय का क्या?


कल तेरा था तो कल मेरा होगा 


कल अँधेरा था तो फिर सवेरा होगा


हिसाब तो होना ही है कल मेरा हुआ


तो आज तेरा होगा ।


 


समय की मार बड़ी ज़ोरदार 


संभल जा मनुष्य ,,,,


वरना विनाश होता रहेगा बरकरार ।


 


प्रिया चारण 


उदयपुर राजस्थान


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

चीन की कूटनीति


भारत की सीमा रेखा पर


 रहता है खड़ा जवान निडर


दुश्मन बैठा है घात लगा 


घुसपैठ करने को आतुर बड़ा


जब सामरिक बल से डरा न सका


कूटनीति का जाला शुरू किया


विश्व को कोरोना से ग्रस्त किया


अपनी अर्थव्यवस्था को दुरुस्त किया


संसार में प्रभुता बढ़ाने को


महामारी का शस्त्र प्रयोग किया


कूटनीति की इस दीवार को


भारत ने विवेक से ध्वस्त किया


भारत को विश्व पटल से हटाने को


राजनीति का खेल दिखाने को


सीमा पर बल तैनात किया 


भारत पर वहाँ दवाब बढ़ा


लद्दाख क्षेत्र की सीमा में 


अतिक्रमण का नवीन एक जाल रचा


भारत के साथ टकराव दिखा


वह विश्व पटल पर खास दिखा


है चीन बड़ा ही चतुर पटु


बड़घाती है यह सत्य कटु


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


मधु शंख धर स्वतंत्र प्रयाग राज

दोहे 


*दिनांक... *04.06.2020*


*


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क्यूँ भूला मानव यहाँ, प्रेम रूप रस छंद।


आज समय जो भी मिला, ले उसका आनंद।


 


शोभित होते पुष्प का, भ्रमर साथ ही प्रेम,


प्रेम भूल कर वो उड़े, पा करके मकरंद।।


 


कोयल मधु आवाज में, गाए मधुमय गीत,


प्रकृति मनोहर रूप हो,रहे पवन गति मंद।।


 


भाव समर्पित देखकर, राष्ट्र करे सम्मान।


पृथ्वी राज से छल करे, सदा मूल जयचंद।।


 


स्वच्छ व्यवस्थित देश में, भारत मानक रूप।


तन से मन की शुद्धता,मधु धरा नहीं गंद।।


*मधु शंखधर स्वतंत्र*


*प्रयागराज*


*9305405607*


उत्तम मेहता 'उत्तम'

वज्न-2122. 2122 2122 2122


क़ाफ़िया—आ स्वर


रदीफ़ --- लाज़मी था..


 


धडकने बैचेन दिल की भी सुनाना लाज़मी था।


पास आने के लिए ही दूर जाना लाज़मी था।


 


बेवफ़ाई बेवफ़ा की भूलने के वास्ते ही।


बेबसी में मैकदे के पास जाना लाज़मी था।


 


सामने से दोस्ती का हाथ उसने जब बढ़ाया।


मुस्कुरा कर हाथ उससे तब मिलाना लाज़िमी था।


 


नूर उसका देख कर तारीफ करता हुस्न की जब।


तब झुका पलकें ज़रा उसका लजाना लाज़मी था।


 


कायदे से दोस्ती सबसे निभाई ज़िन्दगी में।


दुश्मनी भी कायदे से ही निभाना लाज़िमी था।


 


इश्क का दस्तूर ही है बेवफ़ाई बेरुख़ी तो। 


कायदा क्या इश्क का तेरा निभाना लाज़मी था।


 


ख़्वाब नाजुक कांच से उत्तम बिखर मेरे गए जब।


जाम पीकर दर्द का यूं मुस्कुराना लाज़मी था।


 


@®उत्तम मेहता 'उत्तम'


श्रीमती रूपा व्यास,

प्रस्तुत है,मेरी स्वरचित कविता,आप सभी के अवलोकनार्थ-


          शीर्षक-'मज़दूर की मजबूरी'


 


अब तो पत्थर पर भी नींद आ जाती है।


जैसे माँ की गोद की आदत छूट जाती है।।


 


मुख पर दर्द,बेबसी,मायूसी,मजबूरी ओढ़े हुए बस ये चले जा रहे हैं।


कभी दूध मिल जाता है तो कभी भूखे ही चलते जा रहे हैं।।


 


सबकुछ सहन हो जाता है।


लेकिन बच्चों के चेहरे देख रोना आता है।


बच्चों को कभी माँ की गोद का सहारा।


तो कभी पिता की अंगुली और कंधे तो कभी पत्थर भी,फिर भी मज़दूर कभी न हारा।।


 


मज़दूरों की मजबूरी न काम मिल रहा,न घर जा पा रहे।


कई के तो जीवन रेल की पटरियों पर ही खत्म होते जा रहे।


चाहे शहर राजस्थान का हो या झारखंड या बिहार या यू.पी या एम.पी का।


आज यह दर्दनाक दृश्य सभी जगह का।।


 


तस्वीरें ब्लैक एंड व्हाइट से कलरफुल हो गई।


लेकिन 73 वर्ष के बाद पलायन की त्रासदी फिर से वहीं की वहीं हो गई।।


 


सवाल उठता है, मेरे मन में-


इतने ईंतज़ामों के बाद भी ये सड़क पर क्यों है?


क्या इसलिए कि ये मजबूर,'मज़दूर'हैं।।


 


नाम-श्रीमती रूपा व्यास,


पता-व्यास जनरल स्टोर,दुकान न.07,न्यू मार्केट, 'परमाणु नगरी'रावतभाटा, जिला-चित्तौड़गढ़(राजस्थान) पिन कोड-3233007


अणुडाक-


rupa1988rbt@gmail.com


दूरभाष(व्हास्टसप न.)-9461287867,


9829673998


                   -धन्यवाद-


मधु शंखधर स्वतंत्र* *प्रयागराज*

*गीत..* 


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अंधभक्ति में मानव देखो,


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।


 


      भौतिकता आधारित जीवन,


           सबके मन को भाता है।


      मौलिकता को भूल गए सब,


            दम्भ दिखावा आता है।


          भक्त कर रहे कैसी पूजा ,


          जिससे जीवन मरता है।।


 


अंधभक्ति में मानव देखो,


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रूदन शिशु करता है।।


 


     सृष्टि समर्पित भाव लिए जब,


             सबको जीवन देती है।


            दाता है बस देना जाने,


         वापस कुछ क्या लेती है।


  सार समझ लो भाव सृजन का,


         दुख ही सबका हरता है।।


 


अंधभक्ति में मानव देखो।


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।।


 


      दीन- हीन की देख दशा को,


          धनवानों कुछ तो सोचो।


    वाह्य रूप से शोषित जन का,


             अन्तर्मन तो मत नोचो।


           एक धरा के बालक सारे,


        फिर क्यूँ रूह सिहरता है।।


 


अन्धभक्ति में मानव देखो


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रूदन शिशु करता है।।


 


      पाषाणों को पूज रहे हो, 


         जीव धरा तरसाए हो।


      मात दुग्ध से जीवन देती,


         व्यर्थ धार बरसाए हो।


   भोग लगाओ भूखे जन को,


       उससे नेह निखरता है।।


 


अंधभक्ति में मानव देखो।


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।।


 


      देवों का आशीष मिलेगा,


           भूखा गर मुस्काएगा।


        भूखे का जब पेट भरेगा,


         भोग ईश तक जाएगा।


       मत भूलों सभ्यता हमारी,


         वेद- पुराण सँवरता है।


 


अंधभक्ति में मानव देखो,


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े महलों में,


द्वार रूदन शिशु करता है।।


 


     ऐसा भोग लगा दो मिलकर,


           दरश स्वयं ही पा जाए।


        भूखा एक न हो धरती पर,


         क्षुधा सभी की मिट पाए।


        मंदिर अंदर शिशु विहँसता,


           देख नरायण वरता है।।


 


अंधभक्ति में मानव देखो,


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।।


*मधु शंखधर स्वतंत्र*


*प्रयागराज*


*9305405607*


सुनीता असीम

वो चल दिए यहां सभी रातें गुजार के।


लगता है ले चले हों वो मौसम बहार के।


***


चलते चले गए हो दीं आवाज भी तुम्हें।


अब थक गया गला मेरा तुमको पुकार के।


****


टूटा हुआ बदन मेरा औ इश्क का सितम।


आसार दिख रहे हैं सभी ये बुखार के।


***


आओ चले भी आज मुहब्बत के वास्ते।


कुछ हाल पूछ लो मेरे जैसे बिमार के।


***


छिनने लगा है चैन दिले बेकरार का।


टूटे हैं तार आज कई इस सितार के।


***


सुनीता असीम


४/६/२०२०


रश्मि लता मिश्रा बिलासपुर सी जी

दोहा 


तुकांत बंद छंद कंद


 


बीत गया जो वह भुला, कर लोआज पसंद।


आज समय जो भी मिला, ले उसका आनंद।


जब अंधेरा था घना, सूरज करे प्रकाश।


बाहर आकर देख तो, क्यों है घर में बंद।


बाग में है फूल खिला, कलियां भी खिल रहीं।


महक रहा है बाग भी, फैली है सुगंध।


 


भटक रहा आज वन में, लेकर मन में द्वंद।


बीते दिन भी देख लो, अब तक खाकर कंद।


कविता मेरी प्रेयसी, कैसे हो श्रृंगार।


आत्मा इसके भाव हैं, है शरीर पर छंद।


माता मेरी सरस्वती, मुझको दे दो ज्ञान।


कैसे कर लूँ साधना, देखो मैं मति मंद।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर सी जी


निशा"अतुल्य"

बाल यातना 


4.6.2020


सेदोका


 


 


पंगु कानून


बाल यातना एवं


अवैध तस्करी हो


जिस देश में


दिशा हीन हो खत्म


होती वहाँ संतति ।


 


बंधी है पट्टी 


कानून अंधा सदा 


नही कोई भावना 


बस सबूत


चाहिए सच झूठ


दिखाने के लिए क्यों ?


 


पीड़ित होता


खोता जो बचपन


मन की व्यथा जाने


कौन उसकी


आँसू से सूखी आँखे 


भूखा पेट घूमता ।


 


कठोर दंड


होना चाहिए सदा


नही कोई सबूत


चाहिए जहाँ


देखे चेहरे उनके


सुने मन की बातें ।


 


दंडित हो वो


जो करे घृणित कार्य


ता उम्र रहे जेल 


सश्रम सदा


होगा भय शायद


तभी इस देश में ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


अर्चना द्विवेदी             अयोध्या

निःशब्द हूँ इस मानवी नीचता पर।।


साक्षर होने से पहले मानव बनें🙏


 


जानवर थी,सच है!पर वो रूप थी भगवान का,


पेट भरने को विकल गर्भस्थ शिशु मेहमान का!


क्यूँ किया ये घात उस ममतामयी प्रतिमान पर,


अब नहीं विश्वास है इस दानवी इन्सान का!!😢😢


               अर्चना द्विवेदी


            अयोध्या


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"कविता "*(ताटंक छंद गीत)


•••••••••••••••••••••••••••••••••••••


विधान - १६ + १४ = ३० मात्रा प्रतिपद, पदांत SSS, युगल पद तुकांतता।


••••••••••••••••••••••••••••••••••••••


●अभिव्यक्ति कोमल भावों की, प्रबोधनी-परिभाषा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


विचार-अनुभूति-कल्पना है, करती शमित पिपाशा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


 


●स्पंदन-अविरल मानव-मन का, मर्यादा है भावों की।


है कविता आलेख दुःख-सुख का, औषधि भी यह घावों की।।


सपनों के सोपान सजाये, आतुर-मन की आशा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


 


●है यह स्वर्णिम-भोर सुहाना, प्रखर-किरण रवि की भी है।


है आभास-रेशमी कविता, शीतलता शशि की भी है।।


आत्मा की आवाज़-सुहानी, कविता नहीं निराशा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


 


●भाव-अमल अभिमान-प्रबल है, कविता रस की धारा है।


इससे जग आलोकित होता, शोषित-लोक-सहारा है।।


प्रक्षालन कर कुरीति कविता, हरे हरेक हताशा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


 


●सच-सच कविता के दर्पण में जग प्रतिबिंबित होता है।


जीवन-चिंतन दिशा-बोध से, मन आलोकित होता है।।


शोषित-जन में शक्ति संचरे, कविता वह प्रत्याशा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


 


●छंदों का संसार-सुहाना, कवि-छवि-झलक दिखाती है।


पावन-विचार-चिंतन-सरिता, जन-जन को सरसाती है।।


अविरल सुरभित यह पुरवाई, कविता प्रेमिल-भाषा है।


उपकार-त्याग-तप-वंदन है, कविता शुभ अभिलाषा है।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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सत्यप्रकाश पाण्डेय

करिए नाथ उद्धार.......


 


प्रतिपालक इंसान के, परमब्रह्म भगवान।


सन्तति है सारी प्रजा,रखते है प्रभु ध्यान।।


 


जगतनाथ तुमसे बड़ा,नहीं जगत में कोय।


व्यर्थ प्रपंच में पड़कर,जन भूला क्यों तोय।।


 


शक्ति ज्ञान अजस्र स्रोत, अदभुत तेरे कार्य।


दुख से रखो या सुख से,नाथ सभी स्वीकार्य।।


 


सत्य शरण प्रभु आपकी, रखिए नाथ दुलार।


जीवन अर्पित आपको,करिए नाथ उद्धार।।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः👏👏🌹🌹🌹🌹🌹


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


        *"तूफान"*


"प्रकृति का तूफान तो साथी,


थम ही जायेगा-


कर के कुछ नुकसान।


कारण खोजो फिर न आये,


प्रलय सा तूफान-


सफल हो ये अभियान।


सब कुछ सहज हो जाता साथी,


उठता न जो मन में-


अपनो के अपमान से तूफान।


बड़ा मुश्किल है जीवन में साथी,


थामे उस तूफान को और-


मन आये अभिमान।


अहंकार मे डूबे हुए जग मे,


मिट गये बड़े -बड़े नाम-


रहा न उनका धरती पर नामो निशान।


तूफान तो तूफान है साथी,


प्रकृति का कोप हो-


चाहे मन छाया अभिमान।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


 


ःःःःःःःःःःःःःःःः


           04-06-2020


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल             महराजगंज,

मन 


 


मन ठहरा मन बहता है,


  मन ही मन में कुछ चलता है।


मन के भावों से ही जीवन 


    बन सुन्दर और निखरता है।


 


पल में यहाँ पल में वहाँ 


         मन ही मन में विचरता है।


मन पंछी का उन्मुक्त गगन में,


  चाहों की लम्बी उड़ान भरता है।


 


मन में उठते पीड़ा को 


     मन ही जाने मन समझता है।


हो द्रवित कष्ट हृदय जब 


  आखों से नीर लिये छलकता है।


 


मन चंचल यदि रुक जाये


   तो जीवन संकट बन जाता है।


जीतहार के चक्कर में व्याकुल


      मानव मन ही पीस जाता है।


 


रचना - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


            महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


राजेंद्र रायपुरी।

😌 -- कोरोना और हम -- 😌


 


धीरे- धीरे लौट रही है, 


                   अधरों पर मुस्कान।


यद्यपि अब भी पड़ी हुई है,  


                   आफ़त में ही जान‌।


 


कब तक रहते बंद घरों में,


               बिना किए कुछ काम।


बिना किए कुछ काम मिलेगा, 


                  बोलो कैसे दाम।


 


बिना दाम के जीवन गाड़ी,


                   कौन सका है खींच।


बोलो फिर क्यों घर में बैठें,


                  हम सब आॅ॑खें मींच।


 


चलो काम पर अपने-अपने,  


                  रखना बस ये ध्यान।


सबसे दो गज दूर रहें हम,


                   अगर बचानी जान।


 


छींकें,खाॅ॑सें अगर कभी तो,


                   मुॅ॑ह पर रखें रुमाल।


मास्क बिना बाहर मत निकलें,


                      पहनें ये हर हाल।


 


कोरोना से बचना है तो,


                    यार कहा जो मान।


वरना बचा नहीं पाएगा,


                  तुझको वो भगवान।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

सबले बड़े प्रकृति हे


धन दौलत अबड़ कमायेन


सुवारथ म उमर गंवायेन


पग पग म काल खड़े हे


दुनिया म प्रकृति ही बड़े हे


नांगर बइला घलो नंदागे


दस बनिहार के कामला ट्रैक्टर


पल भर म कर लेथे


नींद परागे, संसो आगे


उठे बइठे ला नी भावय


धन दौलत अबड कमायेन


सुवारथ म उमर गंवायेन


पग पग म काल खड़े हे


दुनिया म प्रकृति ही बड़े हे


मन के कल्पना हा, सबला तड़फावत हे


जीनगी के भीतरी म दुःख हा हमागे


जहर कस लागथे, मनखॆ के बोली


भाई चारा ह नदावत हे


धन दौलत अबड कमायेन


सुवारथ म उमर गंवायेन


पग पग म काल खड़े हे


दुनिया म प्रकृति ही बड़े हे


खेती अपन सेती कहिके


जांगर ला सब चलावन


चुहत पसीना रग रग भीतरी


सत के बचन निभावन


काम बुता म ढेर नी लागे


घाम म पसीना चुचुवावय


मेहनत अउ ईमान के गांधी ल देख


गरमी म गरमी, ढंड म ढंड


अउ प्रकृति ह बरसात म पानी बरसावय


धन दौलत अबड कमायेन


सुवारथ म उमर गंवायेन


पग पग म काल खड़े हे


दुनिया म प्रकृति ही बड़े हे


नूतन लाल साहू


प्रिया चारण  उदयपुर राजस्थान

आत्मनिर्भर भारत


 


आत्मनिर्भर बने ये भारत मेरा 


लक्ष्य इससे ज्यादा भी कुछ नही


गरीबी मिटे ,कोरोना से हम जीते 


चलते रहे ,अब न रुके, तिरंगा हमारा न झुकें


 


हौसलो की उड़ान है , पंखों में अभी नई जान है


बनानी भारत को ,अभी आत्मनिर्भर वाली पहचान है


 


मजदूर न हो कोई मजबूर यहाँ


घर न हो किसका दूर जहाँ


गाँवो में ही अब शहरों की रौनक लानी है


अबकी बार स्वदेशी चीजे ही अपनानी है


 


लक्ष्य मेरा कुछ और नही ,,,,


बस हिंदुस्तान को आत्मनिर्भर बनाना है


इसमे अपनी थोड़ी भागीदारी को निभाना है


हिंदुस्तान की मिट्टी की खुशबू हमने पहचानी है


जहाँ गंगा यमुना की शीतल कहानी है


 


बेटी बचाओ ,बेटी पढ़ाओ ,


अब उसे आत्मनिर्भर भी बनाओ


 


शहीद न हो कोई फौजी हमारा 


किसान का न ही आत्म हत्या ही आखरी सहारा


सुनने को न मिले निर्भया सा कांड दुबारा


बाल मजदूरी से गिरा न हो भारत का बच्चा प्यारा।


अब सही मायने में बने भारत आत्मनिर्भर हमारा ।


यही लक्ष्य है हमारा ,यही लक्ष्य है हमारा


 


प्रिया चारण 


उदयपुर राजस्थान


बृजेश अग्निहोत्री (पेण्टर)

जब पीड़ा की परिणति शव्दों में होती है तो अनायास सृजन होता है l


   आज के परिप्रेक्ष्य में शव्दों की समिधा रूप एक गीत 


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बटोही लौट चलाचल गाँव l


 


सूख रहे हैं ताल यहाँ सब, 


सिमट रही हैं नदियाँ l


शैवालों में फँसी मछलियाँ, 


बिता रही हैं सदियाँ ll


 


कच्छप, मकर, कर्क मुँह बाँधे 


ढूंढ रहे हैं छाँव l


 


सपने सुलग रहे आँखों में 


मंजिल है बीरान l


सूरज दहक रहा सिर ऊपर 


दिखलाता निज आन ll


 


पेट जल रहा भूख के मारे 


अंगारों पर पाँव l


 


टूटी छानी बाट जोहती 


दरवाज़े पर खटिया l


ढुलक रहीं बूढ़े नयनो से 


याद भरीं वो बतियाँ ll


 


खींच रहे तन-मन मरुथल में 


बोझिल अपनी नाँव l


 


खड़े राह में आलिंगन को 


काँटों भरे बबूल l


चले बवंडर हँसी उड़ाते 


मार-मार कर धूल ll


 


ऊँचे खड़े खजूर बताते 


दूर है कितनी छाँव l


 


जिसके कंधे लदी जिंदगी 


माँग रही है रोटी l


बूँद-बूँद पानी को तरसी 


उसकी किस्मत खोटी ll


 


भरे फफोले तलवे बढ़ते 


भरने दिल के घाव l


 


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बृजेश अग्निहोत्री (पेण्टर)


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