यशवंत"यश"सूर्यवंशी

🌷यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷


       भिलाई दुर्ग छग


 


 


कबीर जयंती की हार्दिक बधाई


 


 


मूड़ मुड़ाए हरि मिले,सकल लेय मुड़ाय।


बार-बार के मूड़ते, भेंड़ सरग नहि जाय।।


                     कबीर


 


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🥀विश्व पर्यावरण दिवस🥀


 


 


विधा मनहरण घनाक्षरी छंद


 


 


 


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लोग पेंड़ काट कर,जड़ धड़ बाँटकर।


कानन विरान किये,जंगल हलाल से।।


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सुख गई हरियाली, टूट गई खुशहाली।


अलग-थलग हुए, माता-पिता लाल से।।


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खुद ही तो काट डाले,पैर में लगा के ताले।


शिकारी शिकार बने, अपने ही जाल से।।


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मानता था यमराज, तरु काट बड़ा नाज।


पेड़ यश जान बचा,चंद साँस काल से।।


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🌷यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷


       भिलाई दुर्ग छग


दीपक कुमार "पंकज"

##प्रकृति के #हनन पर मेरे लेखन✍️


द्वारा प्रस्तुतिकरण!!


##HINDI__##POETRY!!!!


 


**आओ वृक्ष को बचा ले**


 


इस जग का कल्याण कर


प्रकृति पर एक एहसान कर


कांपती अब यह भू_,घरा


बचा ले इसकी वजूद को


उठा ले तू कुदाल को


अपने श्रम का दान कर


 


क्यों पेड़ों को तुम काट रहे हो


मौत को क्यूं तुम बांट रहे हो


मानव जाति के सीढ़ी को


आने वाले एक पीढ़ी को


उसपर अपना बस एक उपकार कर


अब मिलकर एक हुंकार भर


 


हर डाल को काटा गया


टुकड़ों में है बांटा गया


कुछ पौधों को रोप लो


मंडराते खतरे को रोक दो 


तुम्हें प्रकृति की हरियाली का वास्ता


चुन लो पौधारोपण का रास्ता


आ मिलकर एक व्यापार कर


अपने श्रम का दान कर


 


पौधारोपण की नारों से


जंगल के उस किनारों से


विश्व के करोड़ों लोगों की जुबान पर


अपनी उस ऊंची मकान पर


कुछ टहनियों को जोड़ दो


पर्यावरण को एक नई मोड़ दो


 


प्राणवायु अब जहर बन गई


तेरी ये कैसी नजर बन गई


तू प्रकृति का जंगल डूबा रहा


धरती को क्यूं श्मशान बना रहा


 आज एक प्रयास कर


अपने श्रम का दान कर


 


क्यूं पर्यावरण को रुला रहे हो?


दर्द उसका बढ़ा रहे हो


अपना एक फर्ज निभाओ ना


पेड़ _पौधे लगाओ ना


आओ अब वृक्ष को बचा लें


चल आज एक काम कर


अपने श्रम का दान कर 


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    ✒️दीपक कुमार "पंकज"


मुजफ्फरपुर (बिहार), हिंदी शिक्षक सह कलमकार✍️!!!!!!


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डॉ0हरि नाथ मिश्र

*प्रकृति-प्रेम*


न फूलों का चमन उजड़े,शज़र उजड़े,न वन उजड़े।


न उजड़े आशियाँ पशु-पंछियों का-


हमें महफ़ूज़ रखना है ,जो बहता जल है नदियों का।।


          रहें महफ़ूज़ खुशबू से महकती वादियाँ अपनी,


          सुखी-समृद्ध खुशियों से चहकतीं घाटियाँ अपनी।


          रहें वो ग्लेशियर भी नित जो है जलस्रोत सदियों का


                                        हमें महफ़ूज़....


हवा जो प्राण रक्षक है,हमारी साँस में घुलती,


इशारे पे ही क़ुदरत के,सदा चारो तरफ बहती।


रखना इसे महफ़ूज़ उससे ,जो है मलबा गलियों का-


                               हमें महफ़ूज़....।।


        नहीं भाती छलावे-छद्म की भाषा इस कुदरत को,


       समझ आती महज़ इक प्यार की भाषा इस कुदरत को।


यही है ज्ञान का मख्तब,कल्पना-लोक कवियों का- 


                      हमें महफ़ूज़....।


नज़ारे सारे कुदरत के यहाँ संजीवनी जग की,


हिफ़ाज़त इनकी करने से हिफ़ाज़त होगी हम सबकी।


सदा कुदरत से होता है सुखी जीवन भी दुखियों का-


                   हमें महफ़ूज़....।।


     सितारे-चाँद-सूरज से रहे रौशन फ़लक प्रतिपल,


    न आये ज़लज़ला कोई,मिटाने ज़िन्दगी के पल।


  महज़ सपना यही रहता है,सूफ़ी-संत-मुनियों का-


                हमें महफ़ूज़....।।


जमीं का पेड़ जीवन है लता या पुष्प-वन-उपवन,


धरोहर हैं धरा की ये ,सभी पर्वत-चमन-गुलशन।


प्रकृति ही देवता समझो,प्रकृति ही देश परियों का-


               हमें महफ़ूज़...।।


   पहन गहना गुलों का ये ज़मीं महके तो बेहतर है,


  समय-सुर-ताल पे बादल यहाँ बरसे तो बेहतर है।


प्रदूषण मुक्त हो दुनिया,बने सुख-धाम छवियों का-


         हमें महफ़ूज़ रखना है....।।


               © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


कृष्णा पाण्डे                 नेपाल गंज, नेपाल

५ जून विश्व पर्यावरण दिवस की आप सभी को शुभकामनाएं।


इसी अवसर पर कुछ पंक्तियां.....


🌳🌳🌳🌳🌳🌳🇳🇵


✍️५ जून है दोस्तों,


 पर्यावरण के नाम,


प्रदूषण से बचाने के लिए,


करते रहे कुछ काम।


######@@


दूषित वातावरण का,


चाहो अगर इलाज


नगरी नगरी किजिए,


वृक्षारोपण आज!


#####


अच्छी नहीं है दोस्तों,


इससे नोच खसोट,


कुडे कचरे गोबर से,


खाद बने कम्पोस्ट।


                   कृष्णा पाण्डे


                नेपाल गंज, नेपाल


सुषमा सिंह कानपुर 

"थोड़ी सी मेहनत"11


आज फिर ससुर जी ने जूट के दो थैलों में सब्जी खरीदी और साइकिल के दोनों हैंडल में टांग कर धीरे-धीरे साइकिल चलाते हुए घर पहुंचे।


थैलों कोटेबल पर रखकर कुर्सी पर बैठते हुए बोले,पानी ले आओ!


सासू जी पानी देने के बाद थैले की सब्जी का मुआयना करने लगी।


"कितनी बार कहा है जी!सब्जियाँ पॉलीथिन मे रखकर तब थैले में डाला करो पर तुम सुनो तब न,अब एक घण्टा सब्जियाँ अलग करने में लग जायेगा।


पर पॉलीथिन से निकालकर डलिया में रखने में भी तो टाइम लगता है!ससुर जी ने समझाते हुए कहा।


क्या टाइम लगता है?पॉलीथिन फाड़ी सब्जी डलिया में पलट कर डस्टबिन में डाल दी हो गया।अब ये एक एक अलग करो बैठकर।


पर् वो पॉलीथिन डस्टबिन के बाद कहाँ जाएगी कभी इस बारे में सोचा है?


कल एक गाय के पेट से 5 किलो पॉलीथिन निकाली गई है, इन सबके ज़िम्मेदार भी तो हम ही हैं ।वैसे भी दूध-ब्रेड,चाय -बिस्किट, तेल -मशाले आदि सब पॉलीथिन में ही तो लाते हैं, वो सब क्या कम है जो सब्जियाँ भी पॉलीथिन में लाई जाएं, जहाँ काम नही चल सकता वहां मज़बूरी है पर जब काम चल सकता है तो ऐसे ही ले आया।


इसी बहाने पर्यावरण संरक्षण में थोड़ा योगदान हो जाएगा।


हमारे साथ"थोड़ी सी मेहनत"कर लोगी तो पर्यावरण संरक्षण में तुम्हारा भी योगदान हो जाएगा।


"माँ जी आप रहने दीजिए मैं सब्जियाँ अलग कर लूंगी ,इसी बहाने पर्यावरण संरक्षण में थोड़ा योगदान हमारा भी हो जाएगा।"बहू ने चाय टेबल पर रखते हुए कहा तो दोनों मुस्करा उठे ।


©®


डॉ सुषमा सिंह


कानपुर 


मौलिक व अप्रकाशित


रश्मि लता मिश्रा बिलासपुर।

घनाक्षरी


विषय पर्यावरण


 


नदिया तालाब सूखे


बारिश सावन रूठे


बेचारा किसान सोचे


करूं क्या मैं आज है।


 


सागर सुनामी आये


जंगल अनल छाये


धरती सिहर रही


किसे दूँ आवाज़ है।


 


दिवस मनाने आये


सबको दिखावा भाये


पादप लगाए नहीं


चित्र का रिवाज है।


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर।


पवन कुमार, सीतापुर

कबीर जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐


 


गीत-आज ज़रूरत है कबीर की


 


  चाटुकारिता जिसे न आये


कविता मे केवल सच गाये।


झूठे आडम्बर को तजकर


ढाई आखर प्रेम सिखाये।।


 


चाहत है उस कलमवीर की।


आज ज़रूरत है कबीर की।।


 


जिसके संघर्षो की गाथा


हर युग को नव पाठ सिखाये।


तन के शुद्धिकरण से ज्यादा


जो निज मन को पाक बनाये।।


 


सच्चाई के शून्य धरातल पर


शब्दों का गढ़ गढ़ता हो।


वेद-शास्त्र के साथ-साथ में


लोगों की पीड़ा पढ़ता हो।।


 


तूफ़ाँ और बवंडर आये


अडिग हिमालय सा बन जाये।


निज प्राणो का मोह त्यागकर


जो सुल्तानों से टकराये।।


 


ऐसे विद्रोही फ़कीर की।


आज ज़रूरत है कबीर की।।


 


पीर सुनाये जो जन -जन की


पोल खोल दे काले धन की।


घटिया सोच सुना दे सबको


नेताओ के अंतर्मन की।।


 


घोर कालिमा में प्रकाश की


किरणों का आभास करा दे।


बंद नयन के खोल किवाड़े


एक पुण्य एहसास करा दे।।


 


दीपक-ज्योति स्वयं बन जाये


अँधियारे से आँख मिलाये।


जब तक स्नेह मिले बाती को 


जलकर वो प्रकाश फैलाये।।


 


सुख-दुख मे सम परमधीर की।


आज ज़रूरत है कबीर की।।


 


पवन कुमार, सीतापुर


विनय साग़र जायसवाल

गीत--प्रदूषण 


 


कोई प्रहरी काश लगा दे ,ऐसा भी प्रतिबंध ।


किसी ओर से बिखर न पाये ,धरती पर दुर्गंध ।।


 


दिया हमीं ने नागफनी या बबूल को अवसर 


क्यों बैठे हम शाँत रहे सोचा कभी न इस पर


कभी तो कारण खोजो आये कैसे यहाँ सुगंध ।।


किसी ओर से------


 


गुलमोहर कचनार पकडिया आम नीम पीपल


आज चलो हम निश्चय कर के बोयें छाँव शीतल


वातावरण न दूषित हो सब खायेंं यह सौगंध ।।


किसी और से -------


 


जीवन में यह मधुर कल्पना होगी तब साकार 


इक दूजे पर दोषारोपड़ छोड़े यह संसार 


जुड़े हुए हैं इक दूजे से सुख दुख के संबंध।।


किसी ओर से------


 


आज हमारे मन में है कितनी घोर निराशा 


तिमिर कुण्ड में डूब गई जीवन की हर आशा 


विश्वासों से टूट गये हैं अपने सब अनुबंध ।।


किसी ओर से--------


 


*साग़र* थे विज्ञान जगत में हम ही सबसे आगे


ज्ञान धरोहर संजो न पाये कितने रहे अभागे 


हमने कभी लिखा तो होता अपना यहाँ निबंध ।।


किसी ओर से -------


कोई प्रहरी----------


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


16/3/2002


निशा"अतुल्य"

विश्व पर्यावरण दिवस


5.6.2020


 


शुद्ध वायु नही आज


जल संकट महान


मुक्ति मिले कैसे बोलो


सोच ये जगाइए


 


दोहन कहीं न हो


प्रकृति विक्षोभ न हो


संरक्षित मिल करें 


प्रयत्न बढ़ाइए ।


 


संकट ये टले तभी 


जब वर्षा होए घनी


हरी भरी धरा रहे


वृक्ष ही लगाइए ।


 


वृक्षारोपण करना


नेह धरा से रखना


पर्यावरण दिवस


सब ही मनाइए ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


शिवानन्द चौबे

पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ सादर समर्पित।।


....................................


ना छेड़ मनुज तु प्रकृति को


अस्तित्व तेरा मिट जाएगा


श्रृंगार धरा के वृक्ष है ये


जीवन संकट बढ़ जाएगा 


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सूनी सूनी बस्ती होगी


सूना सूना ये जग होगा


वीरान गली हर घर होगा


त्राहि त्राहि मच जाएगा 


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धीरे धीरे वन खत्म हूए


सब पेड़ यूं कटते जाते है


विकट परिस्थिति होगी जब


आक्सीजन रह न जाएगा


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हरी भरी धरती होगी जब


हरियाली खुशियाँ होगी


आज सभी संकल्प ले हम


एक एक पौधे को लगायेंगे


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इस पर्यावरण दिवस पे सबसे


शिवम् यही आह्वान रहे


धरती मां के अस्तित्व को हम


फिर से यूँ हरा बनायेंगे !!


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शिवानन्द चौबे ( कुमार चौबे )


भदोही उत्तर प्रदेश


एस के कपूर "श्री हंस'"* *बरेली

*विषय।।पर्यावरण सरंक्षण।।।।।*


*शीर्षक।।प्रकृति जीवन दायनी है।*


*दिनाँक।।05।।06।।।2020।।।।*


*रचयिता।।।एस के कपूर श्री हंस।*


 


नदी ताल में कम हो रहा जल


और हम पानी यूँ ही बहा रहे हैं।


ग्लेशियर पिघल रहे और समुन्द्र


तल यूँ ही बढ़ते ही जा रहे हैं।।


काट कर सारे वन कंक्रीट के कई


जंगल बसा दिये विकास ने।


अनायस ही विनाश की ओर कदम


दुनिया के चले ही जा रहे हैं ।।


 


पॉलीथिन के ढेर पर बैठ कर हम


पॉलीथिन हटाओ का नारा दे रहे हैं।


प्रकृति का शोषण कर के सुनामी


भूकंप का अभिशाप ले रहे हैं।।


पर्यवरण प्रदूषित हो रहा है दिन रात


हमारी आधुनिक संस्कृति के कारण।


भूस्खलन,भीषणगर्मी,बाढ़,ओलावृष्टि


की नाव बदले में आज हम खे रहे हैं।।


 


ओज़ोन लेयर में छेद,कार्बन उत्सर्जन


अंधाधुंध दोहन का ही दुष्परिणाम है।


वृक्षों की कटाई बन गया आजकल


विकास प्रगति का दूसरा नाम है।।


हरियाली को समाप्त करने की बहुत


बडी कीमत चुका रही है ये दुनिया।


इसी कारण ऋतुचक्र,वर्षाचक्र का नित


असुंतलन आज हो गया आम है।।


 


सोचें क्या दे कर जायेंगे हम अपनी 


अगली पीढ़ी को विरासत में ।


शुद्ध जल और वायु को ही कैद कर


दिया है जीवन शैली की हिरासत में।।


जानता नहीं आदमी कि कुल्हाड़ी


पेड पर नहीं पाँव पर चल रही है।


प्रकृति नहीं सम्पूर्ण मानवता ही नष्ट


हो जायेगी इस दानवता सी हिफाज़त में।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस'"*


*बरेली।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*


मोब 9897071046।।।।।।।।।।।।।।


8218685464।।।।।।।।।।।।।।।।।।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

रखना मातु दुलारि.......


 


राधा तेरी मोहिनी,मोहे सकल जहान।


किए बस में त्रिलोकपति,जगतनाथ भगवान।।


 


मेरी जीवन नाव भी,माते तेरे हाथ।


दुख से रखो या सुख से,निशदिन चाहूं साथ।।


 


अदभुत शक्ति तुम्हारी, भजते है घन श्याम।


सत्य शरण माँ आपकी, हृदय बसो अविराम।।


 


नमनीय अभिनन्दनीय,हे राधे सुकुमारि।


कृपा दृष्टि रखना सदा,रखना मातु दुलारि।।


 


 


बृषभानु दुलारी की जय🌹🌹🙏🙏


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

अनुबन्ध नहीं संबंधो में सम्बन्ध शास्वत अंतर मन कि एकाकी का बंधन ।                              


 


संबंधो के आयाम बहुत नाम बहुत संबंधो में होता नहीं विकार।।


 


 


संबंधो कि अपनी मर्यादा मान


संबंधो कि अपनी संस्कृति संस्कार।                            


 


संबंधो के सतत सिद्धान्त शत्रुता भी संबंधो कि बिशिष्टता का परिणाम ।।                       


 


परस्पर संबंधो में स्वार्थ का नहीं कोई स्थान।


 


निर्धारण संबंधो का जन्म के साथ बिसरते ,बिसराते जाते ।         


 


ऐसे भी सम्बन्ध कुछ जीवन के साथ साथ जीवन के बाद।


 


संबंधो कि पृष्ठ भूमि है त्याग     


बेटी बचपन बाबुल के संबंधो का करती त्याग ।।            


 


अपरिचित से नव संबंधो का करती सत्कार संबंधो का यही रीती रिवाज।


 


अग्नि के समक्ष के फेरे सात कोई अनुबंध नही ।                      


 


ह्रदय भाव के संकल्पों का सम्बन्ध का बंधन मात्र।।


 


 


 संबंधो में सहमति ,प्रेम ,सम्मान आधार ।                            


 


विलय व्यक्तित्वों का एकीकृत हो जाना मित्रता कि परिपक्वता पवित्रता संबंधो आदि मध्य अंत।। 


 


अवसान नहीं संबंधो का नित्य निरंतर के जीवन का। 


 


अविरल, निश्चल ,प्रवाह संबंधो का पूर्ण विराम नहीं।।


 


चाहे अनचाहे बंधन में बांध जाना जीना मरना मिट जाना ।


 


संबंधो में अनुबंध नहीं भावों कि भाव भावना कि अनुभूति जाग्रति का सूत्रधार का तन बाना।।


 


प्रेयसी ,प्रियवर ,प्रियतम माता, पिता ,भाई ,बहन संबंधो केजीवन दर्शन है ।


 


मन के मूल्यों का अनमोल मित्र युग संसार में अभिमान अतिउत्तम सर्वोत्तम संबंधो का मूल्य मूल्यवान।।                     


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


राजेंद्र रायपुरी

*मजदूर*


 


वो मजदूर,


जो प्रगति के रथ का पहिया है,


था कितना मजबूर,


आड़े वक्त में,


देखा है, 


हम सब ने।


 


था कोई नहीं सहारा,


फिरता था मारा-मार,


कभी घर जाने को,


कभी दो दाने को।


 


दावे तो खूब हुए,


दिया हमने सहारा।


पर वो जानता है बेचारा,


जिसे कहते हैं,


हम मजदूर,


था कितना वो,


मजबूर,


अपने ही देश में,


अपनों के बीच।


 


फिरता था वो,


मारा-मारा।


कोई तो बने सहारा।


पर हुआ सब बेकार।


कर प्रयत्न,


गया वो हार,


क्योंकि,


था वो मजदूर।


 


     ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


        *"चाहत"*


"चाहत जागी मन में ऐसी,


मैं भी देखूँ सपने ऐसे।


ख़ुशियों को भर ले आँचल में,


बगिया महके जग में जैसे।।


सपने-सपने न रहे साथी,


उनको भी कर ले सच ऐसे।


बनी रहे तृष्णा जीवन में,


संग-संग प्रभु की भक्ति जैसे।।


छाये न विकार जीवन में फिर,


बना रहे ये तन-मन ऐसे।


जीवन चमके पल-पल ऐसे,


देख रहे हो दर्पण जैसे।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.m


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 05-06-2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*7


अन्न-फूल-फल बदन सँवारें,


रक्त-तत्त्व संचार करें।


रचे रक्त इस तन की पुस्तिका-


यह अक्षर-रोशनाई है।।


     अक्षर बिना न पुस्तक सार्थक,


      रक्त बिना तन व्यर्थ रहे।


      रक्ताक्षर का मेल निराला-


      पुस्तक-तन को बधाई है।।


यह पुनीत मधुरालय-आसव,


मन स्थिर,तन स्वस्थ रखे।


आसव औषधि है अमोघ इक-


करता रोग छँटाई है।।


        दान अभय का मिला सुरों को,


         पीकर ही अमृत -हाला।


         अमर हो गए सभी देवता-


         माया नहीं फँसाई है।।


हाला कहो,कहो या आसव,


दोनों मधुरालय -वासी।


दोनों की है जाति एकही-


यह सुर-पान कहाई है।।


      कह लो इसको अमृत या फिर,


      कहो सोमरस भी इसको।


      देव-पेय यह देत अमरता-


       लगती नहीं पराई है।।


ताल-मेल सुर-नर में रखती,


अपन-पराया भेद मिटा।


दिया स्वाद जो सुर-देवों को-


नर को स्वाद दिलाई है।।


      जग-कल्याण ध्येय है इसका,


      करे मगन मन जन-जन का।


      तन-मन मात्र निदान यही है-


      रखे नहीं रुसुवाई है।।


कहते तन जब स्वस्थ रहे तो,


मन भी स्वस्थ अवश्य रहे।


तन-मन दोनों स्वस्थ रखे यह-


हाला जगत सुहाई है।।


      जब भी तन को थकन लगे यदि,


      मन भी ढुल-मुल हो जाये।


      पर आसव का सेवन करते-


       मिटती शीघ्र थकाई है।।


लोक साध परलोक साधना,


सेतु यही बस आसव है।


साधन यह है पार देश का-


करता सफल चढ़ाई है।।


       मिटा के दूरी सभी शीघ्र ही,


       मेल कराता अद्भुत यह।


       मिलन आत्मन परमातम सँग-


       कभी न देर लगाई है।।


एक घूँट जब गले से उतरे,


अंतरचक्षु- कपाट खुले।


भोग विरत मन रमे योग में-


भागे भव-चपलाई है।।


       सकल ब्रह्म-ब्रह्मांड दीखता,


        करते आसव-पान तुरत।


       विषय-भोग तज मन है रमता-


       जिससे नेह लगाई है।।


                    ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ0हरि नाथ मिश्र गीता सार

क्रमशः....*चौदहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


जनम-मृत्यु अरु बृद्धावस्था।


परे सदा रह अइस ब्यवस्था।।


     अस जन रहँ भव-सिंधुहिं पारा।


     परमानंदय पाव अपारा।।


सुनि अस बचन कृष्न भगवाना।


पूछे तुरतयि पार्थ सुजाना ।।


     गुणातीत नर जग कस होवै।


     बता नाथ का लच्छन सोवै??


सतगुन- जोती,रजो प्रबृत्ती।


तमो मोह कै जे रह भक्ती।।


    सुनु अर्जुन,अस कह प्रभु कृष्ना।


    प्रबृति-निबृति नहिं अस जन तृष्ना।।


गुण करि सकहिं न बिचलित अस जन।


स्थित एकभाव सच्चिदानंदघन।।


      सुख-दुख,माटी-पाथर-सोना।


      प्रिय-अप्रिय नहिं धीरज खोना।।


निंदा-स्तुति एकी भावा।


रह बस जन समभाव सुभावा।।


     भाव समान मान-अपमाना।।


      कर्तापन-अभिमान न ध्याना।।


मित्र-सत्रु समभाव प्रतीता।


अहहीं अस जन गुनहिं अतीता।।


     करहिं भजन जे मोर निरंतर।


      तजि गुण तीनों सुचि अभ्यंतर।।


एकीभाव ब्रह्म के जोगा।


अहहिं सच्चिदानंदघन भोगा।।


दोहा-अहहुँ हमहिं आश्रय सुनहु, हे अर्जुन धरि ध्यान।


         रसानंद अमृत सुखहिं,ब्रह्म-धरम तुम्ह जान।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


               चौदहवाँ अध्याय समाप्त।


विशेष शर्मा हास्य कवि

सुनो मोर भाई


एक नवीन अवधी कविता


रचना विशेष शर्मा


 


 


भई कस तरक्की सुनो मोर भाई


पावा का खोवा यू कैसे बताई।


भई कस तरक्की*..........


 


सदी बीस मा सच भई है तरक्की


चूल्हा चला गा गई घर से चक्की।


 


घर मा न सिलवट न सिलवट का बट्टा


पछुवा चली तौ चला गा दुपट्टा।


 


लकड़ी की ओखल न मूसल न गाली


काठे कठौता न फूले की थाली।


 


सडकै बनी गांव चहला चला गा


सिलैंडर मिला तौ अकहुला चला गा।


 


दुनियम कहूं आजु लढिया नही है


नहीं दूध साढी दुधढिया नहीं है


दुधढिया की खुरचन न माठा मलाई.....


भई कस तरक्की सुनो मोर भाई!


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कोदो मकाइक कहां भात पइहौ


लहड्डा औ भटवासु देखे न हुइहौ।


 


कहाँ आजु सिरका औ बेझरी के रोटी


बालै नहीं है तो फिर कइस चोटी।


 


बरगद नहीं ना तौ बुढवन का जमघट


कुआं ताल नद्दी न घट है न पनघट।


 


पतलून अचकन न बंडी लंगोटी


बाबा के साथै चली जाई धोती।


 


सेंदुर नही मांग मा बाल काटे


दादिउ का देखा कसी जींस डाटे।


 


नही जानि पइहौ बहन कौन भाई


भई कस तरक्की यू कैसे बताई*.......


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सुखउन गवा तौ चली गै चिरैया


प्रदूषण मा फंसिकै लुटी है गौरैया।


 


लरिकन कै बुदुका औ पाटी न पइहौ


मुडमिसनी खडिया के माटी न पइहौ।


 


कहूं आज पटुआ औ सनई नही है


पहिले सा दमदार मनई नही है।


 


बीते जो है वइ जमाना न पइहौ


केला के पत्ता पे खाना न पइहौ।


 


बरातन की गारी मा मिशरी की बानी


जेउनार मा महकै कुल्हड का पानी


ई मेल से अब है होती सगाई


भई कस तरक्की*.......


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छिपे आदमिन मा फरिश्ते चले गे


रूपया जो आवा तौ रिश्ते चले गे।


 


फुर्सत नहीं बात एकदम सही है


भोजन बहुत भूख बिल्कुल नहीं है।


 


होली मा आलू के ठप्पा नही है


पिता डेड हुइगे है बप्पा नही है


 


पढा लिखा मनई निकम्मा कहां है


 महतारी ममी आजु अम्मा कहां है।


 


हलो हाय गुडबाय टाटा ही सी यू


नमस्ते प्रणाम जुडे हाथ अब क्यू।


छुई पांव कैसे हुवै जगहसाई


भई कस तरक्की सुनो मोर भाई


पावा का खोवा यू कैसे बताई


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विशेष शर्मा


सहायक अध्यापक


PS सिसौरा फूलबेहड खीरी


गंगोत्री नगर लखीमपुर


8887628508


प्रखर दीक्षित

राम कै बाट तकै शबरी नित राह कै धूर औ' कंट्रोल बुहारै।


अईंहै कबै मेरे राम सिया इत कुटिया के झरोखे पंथ निहारै।।


फल फूल रुचिर पकवान नवल,मधुपर्क सो माँ आयु संभारै।


अब आवहु लला अवधेश घरै, उपवास करै अरू राम निहोरै।।


 


सिय राम अबेर करी , अंखियाँ थाकी तन हार गयो।


मतंग मुनी आश्वस्त करी तब तै लौकिक रस भार भयो ।।


मधुरिम नौने वन बेर लला लेहु खाहु जनम सवांर दयो।


सौमित्र ही शंकर ने भाग्य लिखे , पै भगति विमल को हार नयो।।


 


प्रखर दीक्षित


,


प्रिया चारण  उदयपुर राजस्थान

शीर्षक- समय 


 


समय का क्या भागदौड़ का था गुजर गया


सन्नाटे का है गुजर रहा है ।


 


विनाश का क्या ?


कौरवो का आया था वजह खुद ब खुद बन गई


मनुष्य का आया है वजह स्वयं बना रहा है।


 


समय के पलट वार का क्या ?


कल तक मनुष्य जीव को मारता था


आज विषाणु मनुष्य को मार रहा है ।


 


गमंड का क्या ?


कल मनुष्य प्रकृति का नाश कर रहा था


आज प्रकृति करारा जवाब दे रही है ।


 


स्वेच्छा का क्या?


कल मनुष्य अपने लोभ से दुनिया चला रहा था


आज प्रकृति स्वयं स्वच्छता का श्रृंगार कर रही है ।


 


ज़ुबाँ बेजुबाँ का क्या?


कल बेजुबाँ हथिनी को मजाग से मारा 


कल बेजुबाँ टिड्डी फसलो का मजाग बना देगी ।


 


समय का क्या?


कल तेरा था तो कल मेरा होगा 


कल अँधेरा था तो फिर सवेरा होगा


हिसाब तो होना ही है कल मेरा हुआ


तो आज तेरा होगा ।


 


समय की मार बड़ी ज़ोरदार 


संभल जा मनुष्य ,,,,


वरना विनाश होता रहेगा बरकरार ।


 


प्रिया चारण 


उदयपुर राजस्थान


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

चीन की कूटनीति


भारत की सीमा रेखा पर


 रहता है खड़ा जवान निडर


दुश्मन बैठा है घात लगा 


घुसपैठ करने को आतुर बड़ा


जब सामरिक बल से डरा न सका


कूटनीति का जाला शुरू किया


विश्व को कोरोना से ग्रस्त किया


अपनी अर्थव्यवस्था को दुरुस्त किया


संसार में प्रभुता बढ़ाने को


महामारी का शस्त्र प्रयोग किया


कूटनीति की इस दीवार को


भारत ने विवेक से ध्वस्त किया


भारत को विश्व पटल से हटाने को


राजनीति का खेल दिखाने को


सीमा पर बल तैनात किया 


भारत पर वहाँ दवाब बढ़ा


लद्दाख क्षेत्र की सीमा में 


अतिक्रमण का नवीन एक जाल रचा


भारत के साथ टकराव दिखा


वह विश्व पटल पर खास दिखा


है चीन बड़ा ही चतुर पटु


बड़घाती है यह सत्य कटु


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


मधु शंख धर स्वतंत्र प्रयाग राज

दोहे 


*दिनांक... *04.06.2020*


*


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क्यूँ भूला मानव यहाँ, प्रेम रूप रस छंद।


आज समय जो भी मिला, ले उसका आनंद।


 


शोभित होते पुष्प का, भ्रमर साथ ही प्रेम,


प्रेम भूल कर वो उड़े, पा करके मकरंद।।


 


कोयल मधु आवाज में, गाए मधुमय गीत,


प्रकृति मनोहर रूप हो,रहे पवन गति मंद।।


 


भाव समर्पित देखकर, राष्ट्र करे सम्मान।


पृथ्वी राज से छल करे, सदा मूल जयचंद।।


 


स्वच्छ व्यवस्थित देश में, भारत मानक रूप।


तन से मन की शुद्धता,मधु धरा नहीं गंद।।


*मधु शंखधर स्वतंत्र*


*प्रयागराज*


*9305405607*


उत्तम मेहता 'उत्तम'

वज्न-2122. 2122 2122 2122


क़ाफ़िया—आ स्वर


रदीफ़ --- लाज़मी था..


 


धडकने बैचेन दिल की भी सुनाना लाज़मी था।


पास आने के लिए ही दूर जाना लाज़मी था।


 


बेवफ़ाई बेवफ़ा की भूलने के वास्ते ही।


बेबसी में मैकदे के पास जाना लाज़मी था।


 


सामने से दोस्ती का हाथ उसने जब बढ़ाया।


मुस्कुरा कर हाथ उससे तब मिलाना लाज़िमी था।


 


नूर उसका देख कर तारीफ करता हुस्न की जब।


तब झुका पलकें ज़रा उसका लजाना लाज़मी था।


 


कायदे से दोस्ती सबसे निभाई ज़िन्दगी में।


दुश्मनी भी कायदे से ही निभाना लाज़िमी था।


 


इश्क का दस्तूर ही है बेवफ़ाई बेरुख़ी तो। 


कायदा क्या इश्क का तेरा निभाना लाज़मी था।


 


ख़्वाब नाजुक कांच से उत्तम बिखर मेरे गए जब।


जाम पीकर दर्द का यूं मुस्कुराना लाज़मी था।


 


@®उत्तम मेहता 'उत्तम'


श्रीमती रूपा व्यास,

प्रस्तुत है,मेरी स्वरचित कविता,आप सभी के अवलोकनार्थ-


          शीर्षक-'मज़दूर की मजबूरी'


 


अब तो पत्थर पर भी नींद आ जाती है।


जैसे माँ की गोद की आदत छूट जाती है।।


 


मुख पर दर्द,बेबसी,मायूसी,मजबूरी ओढ़े हुए बस ये चले जा रहे हैं।


कभी दूध मिल जाता है तो कभी भूखे ही चलते जा रहे हैं।।


 


सबकुछ सहन हो जाता है।


लेकिन बच्चों के चेहरे देख रोना आता है।


बच्चों को कभी माँ की गोद का सहारा।


तो कभी पिता की अंगुली और कंधे तो कभी पत्थर भी,फिर भी मज़दूर कभी न हारा।।


 


मज़दूरों की मजबूरी न काम मिल रहा,न घर जा पा रहे।


कई के तो जीवन रेल की पटरियों पर ही खत्म होते जा रहे।


चाहे शहर राजस्थान का हो या झारखंड या बिहार या यू.पी या एम.पी का।


आज यह दर्दनाक दृश्य सभी जगह का।।


 


तस्वीरें ब्लैक एंड व्हाइट से कलरफुल हो गई।


लेकिन 73 वर्ष के बाद पलायन की त्रासदी फिर से वहीं की वहीं हो गई।।


 


सवाल उठता है, मेरे मन में-


इतने ईंतज़ामों के बाद भी ये सड़क पर क्यों है?


क्या इसलिए कि ये मजबूर,'मज़दूर'हैं।।


 


नाम-श्रीमती रूपा व्यास,


पता-व्यास जनरल स्टोर,दुकान न.07,न्यू मार्केट, 'परमाणु नगरी'रावतभाटा, जिला-चित्तौड़गढ़(राजस्थान) पिन कोड-3233007


अणुडाक-


rupa1988rbt@gmail.com


दूरभाष(व्हास्टसप न.)-9461287867,


9829673998


                   -धन्यवाद-


मधु शंखधर स्वतंत्र* *प्रयागराज*

*गीत..* 


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अंधभक्ति में मानव देखो,


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।


 


      भौतिकता आधारित जीवन,


           सबके मन को भाता है।


      मौलिकता को भूल गए सब,


            दम्भ दिखावा आता है।


          भक्त कर रहे कैसी पूजा ,


          जिससे जीवन मरता है।।


 


अंधभक्ति में मानव देखो,


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रूदन शिशु करता है।।


 


     सृष्टि समर्पित भाव लिए जब,


             सबको जीवन देती है।


            दाता है बस देना जाने,


         वापस कुछ क्या लेती है।


  सार समझ लो भाव सृजन का,


         दुख ही सबका हरता है।।


 


अंधभक्ति में मानव देखो।


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।।


 


      दीन- हीन की देख दशा को,


          धनवानों कुछ तो सोचो।


    वाह्य रूप से शोषित जन का,


             अन्तर्मन तो मत नोचो।


           एक धरा के बालक सारे,


        फिर क्यूँ रूह सिहरता है।।


 


अन्धभक्ति में मानव देखो


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रूदन शिशु करता है।।


 


      पाषाणों को पूज रहे हो, 


         जीव धरा तरसाए हो।


      मात दुग्ध से जीवन देती,


         व्यर्थ धार बरसाए हो।


   भोग लगाओ भूखे जन को,


       उससे नेह निखरता है।।


 


अंधभक्ति में मानव देखो।


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।।


 


      देवों का आशीष मिलेगा,


           भूखा गर मुस्काएगा।


        भूखे का जब पेट भरेगा,


         भोग ईश तक जाएगा।


       मत भूलों सभ्यता हमारी,


         वेद- पुराण सँवरता है।


 


अंधभक्ति में मानव देखो,


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े महलों में,


द्वार रूदन शिशु करता है।।


 


     ऐसा भोग लगा दो मिलकर,


           दरश स्वयं ही पा जाए।


        भूखा एक न हो धरती पर,


         क्षुधा सभी की मिट पाए।


        मंदिर अंदर शिशु विहँसता,


           देख नरायण वरता है।।


 


अंधभक्ति में मानव देखो,


बुद्धि विसंगति धरता है।


छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,


द्वार रुदन शिशु करता है।।


*मधु शंखधर स्वतंत्र*


*प्रयागराज*


*9305405607*


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