आज के सम्मानित रचनाकार रमेश चंद्र सेठ  

   (आशिक़ जौनपुरी)


पिता का नाम--स्व0 जय मंगल सेठ


जन्म तिथि--20जनवरी 1949


पता--ग्राम रामददपुर नेवादा


पो0--शीतला चौकिया


जनपद--जौनपुर (उ0प्र0)


पिन,--222001


मो0 नं0 9451717162


शिक्षा--स्नातक(कला)


रचनाएँ--यादें,इन्तिज़ार,एहसास,मैखाना,शबाब,आदि


शौक़,--ग़ज़ल,कविता, दोहे आदि लिखना व पढ़नातथा ग़ज़लें सुनना आदि


 


मिला राम को घर अपना ये खुशी भी कितनी न्यारी है।


सारी सृष्टि में ही अयोध्या हमको सबसे प्यारी है।।


राम टाट से मंदिर में अपने जाएंगे हर्ष हमें।


आज अयोध्या के बागों की खिली हरइक ही क्यारी है।।


जग के पालक जग के स्वामी रहे निराश्रित अवध नगर।


कब बनवास खतम होगा ये हमनें बाट निहारी है।।


बड़ा हर्ष है बड़ी खुशी है राम लला घर पाए हैं।


आज राम का घर बनने की आई देखो बारी है।।


बहुत सहा है कष्ट प्रभू नें अपनी ही नगरी रहकर।


जब कि उनकी ही सदियों से रही अयोध्या सारी है।।


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अगर बेटी नहीं होती तो ये दुनियाँ कहाँ जाती।


बेटी न होती जग में तो फिर माँ कहाँ आती।।


जो सेवा करती बेटी ,बेटे वो कर ही नहीं सकते।


ये जलती घर में जैसे जल रही हो दीप में बाती।।


पिता को सबसे ज्यादा प्यार अपनी बेटी से होता।


पिता को अपनी बेटी की हरइक ही बात है भाती।।


जगत में कर रहीं क्या बेटियाँ ये सबने देखा है।


मगर लड़कों को इसपे आज भी कुछ शर्म ना आती।।


ज़माना लड़कियों से आज भी क्यूँ नफरत क्यूँ करता हसि।


दया क्यूँ लड़कियों पे आज भी सबको नहीं आती।।


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कभीं भीं तुम कोरोना से नहीं डरना मेरे भाई।


बड़ी ही होशियारी से ही कुछ करना मेरे भाई।।


न शीतल जल कभीं पीना गरम जल का करो सेवन।


हमेशा भीड़ से तुम दूर ही रहना मेरे भाई।।


बनाके दूरियाँ मीटर की रहना संक्रमित से तुम।


सदा तुम साँस इनसे दूर रह भरना मेरे भाई।।ज


लगे हैं सब दवाएं ढूढने में इस कोरोना की।


अभिन तो है बड़ा मुश्किल दवा मिलना मेरे भाई।।


हमेशा हाथ साबुन से धुलो बस ये तरीका है।


छुओ कुछ भी तो सेनीटाइजर मलना मेरे भाई।।


सफाई करने से इस रोग से छुटकारा पाओगे।


मिलाने को किसी से हाथ मत बढ़ना मेरे भाई।।


रहो आराम से बस ध्यान थोड़ा सा तो रखना है।


ज़रा "आशिक़" का भी तो मान लो कहना मेरे भाई।।


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आया कोरोना देखिये घबराइए न आप।


कुछ तो ज़ैरा दे दीजिए सरकार का भी साथ।।


विपदा बड़ी है देश में मिलकर भगाइये,


सब साथ मिलके राष्ट्र से इसको हटाइये,


जल्दी ही ये काट जायगी आई जो काली रात,


आया कोरोना देखिये घबराइए न आप।।


दूरी बनाके रहिये एकदूसरे से बस,


दिल में न हो नफ़रत ज़ैरा सा दजिये तो हँस,


हम गर रहे नियम से तो जाएगा ये भी भाग,


आया कोरोना देखिये घबराइए न आप।।


 बस मास्क लगा हाथ अपने धुल लिया करें,


साँसे भी दूर रहके ही बस भर लिया करें,


ये वाइरस है इसको समझिये नहीं ये श्राप,


आया कोरोना देखिये घबराइए न आप।।


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आज सभी के मन में उठता केवल यही विचार है।


कन्याओं के ऊपर क्यूँकर इतना अत्याचार है।। 


फैशन इतना बढ़ा देश में अंकुश इसपर लगा नहीं।


आज के बच्चों में तो लगता बिल्कुल ना संस्कार है।।


आज बच्चियाँ नहीं सुरक्षित नारी ना भयमुक्त है।


लाख बने कानून मगर कुछ कर न सकी सरकार है।।


अत्याचार की बात न पूछो कहाँ तलक बतलाऊँ मैं।


सख़्त बनाया जाता तो क़ानून यहाँ हरबार है।।


आज सभ्यता और संस्कृति का कुछ हाल नहीं पूछो।


जिधर भी देखो उधर ही फैला मिलता ये ब्याभिचार है।।


रुकेगा कोई काम न रिश्वत देने मो तैयार रहो।


रोक नहीं रिश्वत खोरों पर खुला हुआ दरबार है।।


संस्कार जब तक न मिलेंगे कुछ ना सुधरेगा "आशिक़"।


बिना संस्कारों के कुछ भी कर लो सब बेकार है


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डा.नीलम

*अब के तुम ऐसे बरसना*


 


अब के तुम ऐसे बरसना


जैसे बरसे तपती धूप


अन्न धन को पकाकर जो


मिटाती है सबकी भूख


 


अब के तुम ऐसे बरसना जैसे टूटकर बरसे बदली


मुर्झाई बगिया में फिर से


मह मह चले पवन संदली


 


अब के तुम ऐसे बरसना जैसे कान्हा का बाँसुरी राग


लोक लाज तज गोपियाँ 


करने लगे वृंदावन में रास


 


अब के तुम ऐसे बरसना जैसे छलके मेह -समीर


मेरे वैरागी मन में भी


बहने लगे नेह का नीर


 


अबके तुम ऐसे बरसना 


जैसे जेठ- आषाढ़ की तपती धरा की तपन मिटाने


आसमान स्वयं धरती पे उतरे।


 


           डा.नीलम


सुनीता असीम

सुब्हा से शाम होती है काम करते करते।  


कुछ लोग थक रहे हैं आराम करते करते।


***


था शानदार मेरा भी नाम इस जहां में।


थकते नहीं इसे तुम बदनाम करते करते।


***


बचते रहे मुसीबत से हम यहां वहां से।


कटता रहा ये जीवन हे राम करते करते।


***


हमने शुरू किया था इक काम ज़िन्दगी में।


दुश्मन थके इसे तो नाकाम करते करते।


***


जज्बा नहीं भुलाया था इश्क का कभी भी।


गुमनाम हो गए इसको आम करते करते।


***


सुनीता असीम


६/६/२०२०


मदन मोहन शर्मा 'सजल'

विधाता छंद


मात्रा भार - 28


समांत - आद


पदांत - करते है


~~~~~~~~~


सुहाने ख्वाब के साए, दिले नौशाद करते हैं,


पुराने प्यार के लम्हे, मुझे आबाद करते हैं, 


 


नहीं कोई शिकायत है, नहीं कोई बगावत भी,


हमारे दिल को' समझाने, स्वयं संवाद करते हैं, 


 


मिले भी तो मुखातिब है, फलक के चांद तारों से,


नजर तीरों से घायल कर, सनम फरियाद करते हैं,


 


सुकूँ महसूस होता है, बनावट के तरीकों से,


परेशान दिल जवां गाफिल, मगर हम याद करते हैं, 


 


*'सजल'* बर्बाद है दुनियाँ, कठिन राहें कठिन मंजिल, 


दिले नादां सिफारिश पर, निरापद नाद करते हैं।


★★★★★★★★★★★★


मदन मोहन शर्मा 'सजल'


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

केरल की घटना जिसमें हथिनी को फल में ही पटाखा खिलाकर हत्या की गयी जिसमें मानवता शर्मसार हो गयी । उस वेदना पर एक कविता प्रस्तुत करने का प्रयास आशा है आप सबका आशिवार्द मिलेगा:-


 


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मानवता को घोर पी गया,


शर्मसार हृदय द्रवित हो गया!


 


इन हत्याओं की कब परिणति होगी


जो खड़ी जून में जीवन की थी


माँ की ममता को घोंट दिया


भूख के बदले उदर में पटाखा फोड़ दिया।


 


क्या अब नरपिचाश ऐसा होगा


जीवों पर कुटिल घात करता होगा


क्यों माँ की ममता को कलंकित करता है


अपने जन्मों पर प्रश्नचिन्ह करना होगा।


 


वह दर्द से आँसुओं को पी गयी 


बहती नदी के नीर में चिरनिद्रा में सो गयी


तड़प कर अपने को विसर्जित कर दिया


आँखों में लिये गर्भस्थ सपने घुट खो गयी।


 


क्षमा करना सभी को हे! प्रकृति,


व्याकुल फफक कर रो पड़ा आँचल तेरा


जन्म से पहले ही अजन्मा सो गया


हत्या की नई परिभाषा गढ़ा पालक तेरा।


 


 


 मौलिक रचना:-


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


महराजगंज, उत्तर प्रदेश ।


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 

एक कविता... 


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विषय:- "असहिष्णुता.. संवेदनहीनता"


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मैं एक


दिये जलाया अनेक 


कुछ श्रद्धा का... कुछ भावना का और फिर.... 


माँग-पत्रों की लम्बी सूची 


स्वास्थ्य का...सम्पत्ति का 


समृद्धि का, यश का, भोग का 


विलास का... वैभव का।


अचानक सोचा 


अरे! ये क्या? 


अभी प्रकाश का.. ज्ञान का 


सत्य और अहिंसा का 


दीप जलाना शेष है। 


फिर... कुछ और जलाया 


और.... पुन: स्मृति में आया 


क्या यार... मैं भी.. 


कुछ और दिये जलाया 


कलबुर्गी के लिए... 


अख़लाक़ के लिए.. टीपू के लिए।


विस्मय से भर उठा 


व्यथित हुआ मन 


सोचते-सोचते थक गया 


मेरे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी... 


परदादा.... की सहज स्मृति।.. 


पत्नी ने जोर से चिल्याया..... 


क्या राष्ट्र के नाम दीप जलाया?...


लक्ष्मीबाई, झलकारी, शिवाजी.. 


महात्मा गांधी का नाम 


याद आया?? 


क्या .. यही है.. असहिष्णुता...


हमारी संवेदनहीनता।..... 


 


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०) मो० नं० 9919886297


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(जब सितारे चले)


रात के जब सितारे चले,


मेरे अरमान सारे चले।


रह गई बज़्म सुनी की सूनी-


मेरे मेहमान सारे चले।।रात के जब........


 


ढल गया चाँद प्यारा सलोना,


मिट गया आज जीवन-खिलौना।


आस टूटी की टूटी रही-


मेरे गमख़्वार सारे चले।।रात के जब........


 


थम गया सिलसिला हसरतों का,


हो गया ख़ात्मा महफिलों का।


प्यासे अरमान प्यासे रहे-


कहाँ सारे नज़ारे चले।।रात के जब.........


 


ऐ ख़ुदा!क्या तुझे है मिला,


तोड़कर ये मेरा हौसला?


मर गया मैं यहाँ जीते जी-


दिल के गुलज़ार सारे चले।।रात के जब..........


 


कोई दिखता नहीं है सहारा,


कैसे पाएगी क़श्ती किनारा?


हवाओं ने रुख अपना बदला-


लगता सारे सहारे चले।।रात के जब..........         ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


            9919446372


काव्यकुल संस्थान


" *एक शाम गीत गज़लों के नाम"* 


 


काव्यकुल संस्थान (पंजी.) के तत्वावधान में एक ऑनलाइन अंतरराष्ट्रीय काव्य आयोजन 'एक शाम गीत गज़लों के नाम' संस्था के अध्यक्ष डॉ राजीव पाण्डेय के संयोजन में किया गया। जिसमें भारत ऑस्ट्रेलिया अमेरिका के नामचीन कवियों ने अपने गीत गज़लों से कविसम्मेलन को ऊंचाइयों तक पहुंचाया।


कविसम्मेलन की अध्यक्षता क्रांति धरा मेरठ से गीत गज़लों के सुप्रसिद्ध गीतकार,शायर कृष्ण कुमार "बेदिल" ने की। जिन्होंने अपना अध्यक्षीय काव्य पाठ करते हुए उम्दा शेर पढ़े तो वाह अपने आप निकलने लगी-


ज़िन्दगी से भी तू मिला है क्या।


शाइरी का तुझे पता है क्या।


गुनगुनाने से होंठ जल जाएं,


शेर ऐसा कोई कहा है क्या ।


कविसम्मेलन का प्रारम्भ माँ वीणा की आराधना से हुआ । ये पंक्तियां माँ की आराधना में फिरोजाबाद से देश की अग्रिम पंक्ति के नवगीतकार डॉ रामसनेही लाल शर्मा "यायावर" ने पढ़ी-


तार वीणा के जब कसमसाने लगे।


पत्थरों के नगर गुनगुनाने लगे।


श्री यायावर ने अपने काव्यपाठ में कुछ इस प्रकार गुनगुनाया-


निष्क्रियता और विराग गया।


सोया था पौरुष जाग गया।


जिस दिन हमने डरना छोड़ा


डर हमसे डरकर भाग गया।


गीतों की शाम में रसराज श्रृंगार की बात न हो ऐसा हो ही नहीं सकता। दिल्ली से गीतों की गंगा बहायी ओंकार त्रिपाठी ने-


एक फूल ही नहीं दे दिया मधुवन का मधुमास तुम्हें। 


एक चन्द्रमा नहीं दे दिया पूरा ही आकाश तुम्हें।


फिर भी तुमको रही शिकायत,बोलो क्या उपचार करूँ।।


कार्यक्रम की मुख्यअतिथि सिडनी ऑस्ट्रेलिया से डॉ भावना कुँवर ने अपने मुक्तक के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था को रेखांकित करते हुए कहा। 


क्यूँ सड़कों पर ...लगा मेला ...जरा कोई... बता देना


कहाँ ये जा ...रहे राही ...कोई मंज़िल... दिखा देना


बड़े भूखे, बड़े प्यासे सभी बेघर ये दिखते हैं


ना लो तस्वीर ही केवल इन्हें रोटी खिला देना।


सिडनी से ही कवि श्री प्रगीत कुँवर की इन पंक्तियों को काफी सराहना मिली-


कभी बन के घटा आयी कभी बनके धुआँ आयी 


बहुत दिन बाद फिर से दिल में उनकी दास्ताँ आयी ।


अपने गीतों से देश में अलग पहचान बनाने वाले चन्द्रभानु मिश्र ने रिश्तों पर सम्वेदना का गीत पढ़ा-


मेरे बेटे तुम्हें पता क्या कैसे कैसे तुम्हें पढ़ाया।


कहाँ नही मैं मन्नत मांगा किसे नहीं मैं शीश झुकाया।


वासिंगटन अमेरिका से डॉ प्राची चतुर्वेदी ने अपने काव्यपाठ में पढ़ा-


प्रियवर मैंने तुमको अपना सब कुछ माना है।


बसते हो गीतों में मेरे गीतों में नया तराना है।।


सिएटल अमेरिका से वरिष्ठ कवयित्री डॉ मीरा सिंह ने पावस ऋतु वर्णन इस प्रकार किया-


बरसात की बौछार से ,भींगे सभी के पंख हैं।


पंछी शिथिल तरू डाल पर,बैठे हुए आज मौन हैं।


कार्यक्रम के संयोजक एवं संचालक डॉ राजीव पाण्डेय ने वर्तमान में आई रिश्तों की गिरावट पर एक गीत के माध्यम से गुनगुनाया-


अंग्रेजी संस्कृति ने जब से घर में पैर पसारे।


मात्र शब्द दो अंकल आंटी खा गये रिश्ते सारे।


दादी माँ के कहानी किस्से झेल रहे प्रतिबंध।


प्रेम की फैले कैसे गन्ध।


भगवान राम की नगरी अयोध्या से डॉ हरिनाथ मिश्र ने एक ग़ज़ल पढ़कर वाहवाही लूटी।


काव्यकुल संस्थान द्वारा आयोजित डिजिटल काव्य समारोह 'एक शाम गीत गज़लों के नाम' के सफल आयोजन पर संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ राजीव पाण्डेय ने सभी का आभार प्रकट किया।


प्रतिभा स्मृति दादी माँ सम्मान 2020

काव्य रंगोली के अति विशिष्ट सम्मान काव्य रंगोली प्रतिभा स्मृति दादी माँ सम्मान 2020


काव्यरंगोली प्रतिभा मेमोरियल ग्रेंड मदर अवार्ड 2020


विश्व स्तर पर सिर्फ 5 ओल्ड एज शिक्षा साहित्य समाज स्वास्थ्य विकलांग कल्याण हेतु कार्य करने वाली महिलाओं को प्रदान किया जा रहा है।


पुरस्कार वितरण 28 जून 2020 को होना है, लाकडाउन के चलते आगे के कार्यक्रम में या डाक द्वारा सम्मान भेज दिया जायेगा


पुरस्कार संयोजक


 


श्री सुरेन्द्रपाल मिश्र जी 


पूर्व निदेशक 


मो0 99586 91078


आशुकवि नीरज अवस्थी


मो0 9919256950


 


1-श्री मती जया मोहन 


निवर्तमान सहायक सचिव माध्यमिक शिक्षा परिषद प्रयागराज उत्तर प्रदेश


 


2-आदरणीया रश्मि अग्रवाल जी नजीबाबाद उ0प्र0 माननीय महामहिम राष्ट्रपति महोदय जी द्वारा अवार्डेड


 


 


3-डॉ श्रीमती कमल वर्मा जी इंचार्ज रिम्स मेडिकल कालेज रायपुर छग 


 


 


4 डॉ अरुणा तिवारी जी माननीय महामहिम राष्ट्रपति महोदय जी द्वारा अवार्डेड खण्डवा म0प्र0


 


5- श्रीमती शोभा त्रिपाठी जी बिलासपुर छग


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मिटने लगें दूरियां,.........


 


कैसे करें हम


दर्दे बयां


जो अपनों से मिला


पलक पांवड़े


बिछाये जिनके लिए


उन्ही ने हमें छला


लगे रहे उन्हें


मनाने हम


ता जिंदगी


वो दूरियां बढाते गये


न दी खुशी


दे रहे बन्दगी


निराली है तेरी बनाई


यह दुनियां


मेरे स्वामी


खेल खिलाते


बनाते किसी को मिटाते


जानी न जानी


बस अब न सह पाऊंगा


निर्ममता


अपनों की


कोई तो बताओ राह


मिटने लगें दूरियां


सपनों की।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

सफर जिंदगी गम ख़ुशी का मेला। लम्हा ,लम्हा रंग बदलती दुनियां में नियत, ईमान का धोखा जिंदगी।।        


 


कभी हालात का मारा हालत का झमेला जिंदगी।                          


 


मौसम का मिज़ाज़ कभी तपती जेठ कि दोपहर कि गर्मी जिंदगी।


 


कभी वरिस में भीगती ,सर्द कि खामोश हवाओ तूफ़ान से जूझती जिंदगी।।


   


                          


कभी मौका कभी मौके पे धोखा जिंदगी सच झूठ के बीच!


 


रिश्तों कि परस्तीस कि तमन्ना जिंदगी।।         


 


मकसद के सफर पर चलती जिंदगी रिश्तों का मिलना बिछड़ना जिंदगी।।                            


 


हर रिश्तों का मकसद कि मंजिल पे अलविदा ।        


 


अपनी चाल चलती जिंदगी।।


 


कभी अनजान तुफानो में उलझ जाती । जिंदगी जंगो का मैदान लड़ती कभी गुरुर के जंग कि जिंदगी।           


 


जूनून के जंगो में पाती खोती सुरूर के जंगो का नशा शराब सबाब जिंदगी ।।                     


 


जिंदगी एक पहेली इंसा कि तमन्नाओ का अपसाना।


 


मझधार कि किश्ती कभी कशमकश का किनारा कभी काश कि चाहत में का गुजरना जिंदगी।।


 


नशेमन का नशा है जिंदगी नशे हद कि गुमां।                      


 


इश्क के इंतज़ार इज़हार का पागल दीवाना जिंदगी।     


         


 


कभी फरेब कि जलती शमां का परवाना।।


 


 मोहब्बत में लूट जाना खाली हाथ आना खली हाथ जाना जिंदगी।।                           


 


तक़दीर तदवीर का नज़राना जिंदगी ।।                      


 


 


इल्तज़ा ,ख्वाब का सफर सुहाना जिंदगी।।


 


अरमानो का अंदाज़ इबादत का ईमान नज़राना जिंदगी।।


 


फ़र्ज़ कि फक्र आरजू ,हुनर ,इल्म इलाही जिंदगी ।                  


जीने का जिंदगी हकीकत बहना।। 


 


 नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


निशा"अतुल्य"

रूप तुम्हारा


6.6.2020


 


नैनो में है रूप तुम्हारा


मुझको कुछ न भाता है 


कान्हा अब तो दर्शन दे दो


मन मेरा अकुलाता है ।


 


मोहनी मूरत सांवली सूरत


पीतांबरी अति प्यारी है 


अधरों पर जो मुरली साजे


छवि लगती अति न्यारी है ।


 


मोर मुकुट सिर सोहे तेरे


गले वैजंती माला है


सँग तेरे जब गैया चलती


दृश्य अज्जब निराला है ।


 


राधा जी सँग रास रचाओ


गोपी सँग सारे ग्वाला है


देख रही हैं तुम को ही वो


हर ग्वाला लगता कान्हा है ।


 


रूप अलौकिक हृदय बसे है


सांवरी सूरत वाला है 


कान्हा मुझको दर्श दिखा दो 


मन तुम को चाहने वाला है ।


 


मुझको अब तुम भव से तारो


जीवन कष्टों वाला है 


एक तेरे ही नाम में सुख है


अब इसको हमने जाना हैं ।


 


रूप तुम्हारा नैन बसे है


नाम अमृत का प्याला है


पकड़ लिया है नाम तुम्हारा


उस पार मुझको जाना है ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


सत्यप्रकाश पाण्डेय

नाथ तुमही आधार.......


 


तुमसा कोई नहीं जगत में


करूँ मैं जिससे प्यार


तुमसे ही जीवन ये पाया


नाथ तुमही आधार


 


पीकर के मद की हाला


हुआ बावरा स्वामी


आधा जीवन सो के बीता


जानो अंतर्यामी


अन्तर्मन से याद करूँ मैं


राधे कृष्ण सरकार


तुमसे ही ये जीवन पाया


नाथ तुमही आधार


 


झूठे सांचे कर्म किये सब


उर की आग बुझाई


भौतिक सुख तो पाये मैंने


भूल गया यदुराई


संम्बंधों की परवाह नहीं


भूला जगत व्यवहार


तुमसे ही ये जीवन पाया


नाथ तुमही आधार


 


ब्रिजठकुरानी मेरे माधव


दे दो आश्रय मुझको


चरण कमल का भौरा बनके


हृदय बसाऊं तुमको


सत्य किंकर तेरे द्वार का


श्रीयुगलरूप करतार


तुमसे ही ये जीवन पाया


नाथ तुमही आधार।


 


श्री युगल चरनकमलेभ्यो नमो नमः👏👏👏👏👏🌹🌹🌹🌹🌹


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


राजेंद्र रायपुरी

😔 दो गज की दूरी 😔


 


दो गज की दूरी,


है यार मजबूरी,


जाने ये कब जाएगी।


आलिंगनबद्ध हो पाएॅ॑गे,


जीवन के सुख ले पाएॅ॑गे,


जाने वो रात,


कब आएगी।


 


बीत न जाए ये ज़िन्दगी,


यूॅ॑ ही।


डर यही सता रहा है।


"कोरोना" का ख़ौफ़ तो,


दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है।


सच कहूॅ॑ तो,


अब दुनिया में,


वैवाहिक जीवन का भविष्य,


उज्जवल,


नज़र नहीं आ रहा है।


 


आ नहीं पाएॅ॑गे पास-पास।


मिट नहीं पाएगी,


मिलन की प्यास।


हर जोड़े की ज़िंदगी,


रेल की वो पटरी,


बनकर रह जाएगी,


जिस पर प्रेम की गाड़ी,


कभी नहीं चल पाएगी।


 


न आओ पास,


इच्छा होगी न पूरी,


दो गज की दूरी,


है यार मजबूरी।


 


   ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


 *"रक्षा करते उनकी भगवान"*


"पल-पल समझौता जीवन से,


यहाँ जब कर लेता इन्सान।


अच्छा बुरा कुछ नहीं जग में,


सभी कुछ लगता एक समान।।


टूटन-घुटन बढ़ी यहाँ मन में,


हो जाता फिर मन बेचैन।


समरसता की चाहत मन में,


यहाँ हरती पल-पल वो रैन।।


अर्थहीन न वो जग में यहाँ,


जो कर्मशील है-इन्सान।


सद्कर्मो संग जीवन जिनका,


रक्षा करता उनकी भगवान।।


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.


ःःःःःःःःःःःःःःःःः 06-06-2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*8


मधुरालय के आसव जैसा,


जग में कोई पेय नहीं।


लिए मधुरता ,घुलनशील यह-


इंद्र-लोक मधुराई है।।


        मलयानिल सम शीतलता तो,


        है सुगंध चंदन जैसी।


        गंगा सम यह पावन सरिता-


        देता प्रिय तरलाई है।।


बहुत आस-विश्वास साथ ले,


पीता है पीनेवाला।


आँख शीघ्र खुल जाती उसकी-


जो रहती अलसाई है।।


       फिर होकर वह प्रमुदित मनसा,


       झट-पट बोझ उठाता है।


       करता कर्म वही वह निशि-दिन-


       जिसकी क़समें खाई है।।


यह आसव मधुरालय वाला,


परम तृप्ति उसको देता।


तृप्त हृदय-संतुष्ट मना ने-


जीवन-रीति निभाई है।।


        दिव्य चक्षु का खोल द्वार यह,


        अनुपम सत्ता दिखलाता।


         दर्शन पाकर तृप्त हृदय ने-


          प्रिय की अलख जगाई है।।


प्रेम तत्त्व है,प्रेम सार है,


दर्शन जीवन का अपने।


आसव अपना तत्त्व पिलाकर-


नेह की सीख सिखाई है।।


       आसव-हाला, भाई-बहना,


        मधुरालय है माँ इनकी।


        सुंदर तन-मन-देन उभय हैं-


         दुनिया चखे अघाई है।।


चखा नहीं है जिसने हाला,


आसव को भी चखा नहीं।


वह मतिमंद, हृदय का पत्थर-


उसकी डुबी कमाई है।।


       हृदय की ज्वाला शांत करे,


        प्रेम-दीप को जलने दे।


        आसव-तत्त्व वही अलबेला-


         व्यथित हृदय का भाई है।।


जग दुखियारा,रोवनहारा,


तीन-पाँच बस करता है।


पर जब गले उतारे हाला-


जाती जो भरमाई है।।


      खुशी मनाओ दुनियावालों,


      तेरी भाग्य में आसव है।


      आसव-हाला दर्द-निवारक-


       जिसको दुनिया पाई है।।


तू भी तो अति धन्य है मानव,


बड़े चाव से स्वाद लिया।


तूने इसकी महिमा जानी-


इसकी शान बढ़ाई है।।


     मधुरालय को गर्व है तुझपर,


     जो तुम इससे प्रेम किए।


     झूम-झूम मधुरालय कहता-


     मानव जग-गुरुताई है।।


                    © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


डॉ निर्मला शर्मा

सन्त कबीर


 


भक्ति काल के कवि कहो, या कहो कोई उन्हें सन्त


वाणी के धनी बड़े वे निर्गुण धारा के प्रतिनिधि सन्त


उनकी साखी साक्ष्य है मानव जीवन का सार


कहते हैं सन्त कबीर जी सबके मन बसा खुदाय


सबद , रमैनी , साखी में बोली बोले कबीर


ना काहू से दोस्ती मैं हुआ रामनाम में लीन 


पंचमेल की खिचड़ी से भाषा का रूप बनाय


चला कबीरा मार्ग पर धर्म सम्प्रदाय छिटकाय


एक ही ईश्वर जो जपै मिले उसे सुखधाम


जाति का कोई मोल नहीं कर्म ही करते न्याय


माया तो है महाठगिनी मानव का ज्ञान हर लेय


आत्मा परमात्मा की गूढ़ मति पावन मन में होय


पंचतत्व की काया का कहा करै अभिमान


देह छोड़ हंसा उडै पंचतत्व में विलीन हो जाय


ना जाति है साधु की न उसका कोई धर्म


मन्दिर, मस्जिद में न फिरूँ करूँ न कोई अधर्म


मानव मात्र की सेवा ही सबसे बड़ा सत्कर्म


चले जो इसके मार्ग पर बढ़े उसी के सुकर्म


मुख मेरा ले राम नाम हृदय भटकता जाए


माला का औचित्य क्या जब मन ही बस में नाय


सन्त कबीर की वाणी ने ऐसा किया कमाल


कीर्तन की निर्झरणी बही दिए विकार निकाल


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


रत्ना वर्मा 

शुक्रवार


नमन मंच काव्य रंगोली ... अभिनन्दन वंदन प्रणाम संग


  सभी को सुप्रभात ....सम्मानीय मित्रों आज


  विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 


    एवं बधाईयाँ .....आप सभी को ।


 मेरी कलम से .....


 मैं देख रहीं हूँ उन वृक्षों को जो हमारे साथ साथ 


चल रहें हैं। पर कुछ डरे - डरे से और पत्तियाँ  


कुछ सहमी-सहमी- कुंभलाई सी ।


     मैंने पूछा क्या हुआ?


 वे धीरे से बोलें ज़रा और पास आओ ....मैं उनके पास 


गई - उनकी धडकनें बहुत तेज थीं,जो मुझे साफ सुनाई 


पड़ रही थी । मैनें हल्के- फुल्के हाथों से उन्हें सहलाया ।


उनके सब्र के बांध फूट पड़े और वे बिलख - बिलख कर 


कह उठे ......" मेरा दर्द बाँटो , मुझे न काटो" - हे मानव 


मैं ही तो हूं, जो तुम्हें जीवन देता हूँ ।


 मैं देख रही थी - उन वृक्षों को, महसूस कर रही थी 


उनके करूण वेदना को । मुझसे रहा न गया - झट


उनसे लिपट गयी, उनको गले लगाया , उनकी सांसे 


मेरी गर्म सासों से मिलकर मुझे बहुत सुकून दे रहे थे। 


शायद उन्हें भी मेरी हरकतें अच्छी लग रही थी.......


       जय हिंद जय भारत!!


 


रत्ना वर्मा 


 स्वरचित मौलिक रचना


 धनबाद -झारखंड


सीमा शुक्ला अयोध्या।

कमजोर कहां हो तुम नारी?


 


तुम भरती हो नभ में उड़ान,


संचालित करती रेल यान,


घर की थामें हो तुम कमान,


हर गुण है तुममें विद्दमान


जीवित करती हो सत्यवान,


ममता का गुण सबसे महान।


 


तुम नया जन्म ले लेती हो


जब बन जाती हो महतारी


कमजोर कहां हो तुम नारी।


 


मन प्रेम छलकता सागर है,


अंतस करुणा की गागर है।


अमृत रसधार बहे आंचल,


हर पीड़ा सहती हो अविचल।


जीवन में अनुपम धीर भरा।


है नयन नेह का नीर भरा।


 


तुम देहरी का जलता दीपक


घर घर में तुमसे उजियारी।


कमजोर कहां हो तुम नारी?


 


मन में नित भाव समर्पण है।


हर रूप प्रेम का दर्पण है।


प्रियतम की संग सहचरी हो


मां रूप बाल की प्रहरी हो।


मन क्षमा दया उर त्याग लिए,


प्रति पल जीती अनुराग लिए।


 


तुम ईश्वर की सुंदर रचना


यह सृष्टि सृजन तुमसे जारी


कमजोर कहां हो तुम नारी?


 


युग से इतिहास लिखा तुमने


वीरों को नित्य जनां तुमने।


नित नीर बहाना छोड़ो तुम


अन्याय भुलाना छोड़ो तुम


तुम उमा,रमा हो ब्राम्हणी,


तुम झांसी वाली हो रानी।


 


शमशीर उठा संहार करो


डाले कुदृष्टि जो व्यभिचारी


कमजोर कहां हो तुम नारी?


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


सीमा शुक्ला अयोध्या।

है कौन हुआ मानव जग में


जो जन्म लिया पाकर राहे।


 


जीवन में लाखों हो मुश्किल


हो मिलों दूर खड़ी मंजिल,


विचलित क्यों कर हालातों से,


हारों मत निज जज़्बातों से।


तू मानव है मजबूर नहीं


निज हार कभी मंजूर नहीं।


 


तू चलता चल मंजिल तेरी,


आगे फैलाए हैं बाहें।


है कौन हुआ मानव जग में,


जो जन्म लिया पाकर राहें।


 


क्या हुआ स्वप्न जो टूटा तो


कोई अपना गर रूठा तो


बहती जीवन की धारा हैं


कुछ मीठा कुछ जल खारा है


सूरज डूबे जब हो रातें,


हम तारों से करते बातें।


 


हैं कौन हुआ ऐसा जग में,


जिसकी पूरी हो हर चाहें।


है कौन हुआ मानव जग में


जो जन्म लिया पाकर राहें।


 


मानव तन जग में तू पाया,


कुछ करने की खातिर आया।


क्योंकर तू कहता व्यथा फिरे,


क्यों जीवन करता वृथा फिरे


गर अंतर्मन विश्वास जगे


पतझड़ में उपवन फूल खिलें।


 


जल धारा बहती जाती है,


खुद ही पा जाती है राहें।


है कौन हुआ मानव जग में,


जो जन्म लिया पाकर राहें।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


आचार्य गोपाल जी

धरती की गुहार


 


सभी से धरती करे गुहार


हृदय के कष्ट मिटाओ यार 


मन में कुछ तो करो विचार  


छोड़ो करना तुम अत्याचार


विपट बिलखते मेरे द्वार 


मत कर तरु पर तू वार


पादप पावन करे संसार


तुम तरु लगाओ घरवार


पर्यावरण से कर तू प्यार 


स्वच्छ बनाओ तुम ये संसार


देख अपनी करनी का भार


रोगों का यहां फैला है अंबार


मेरी व्यथा ना समझे संसार 


करनी फल पाता हर बार


कब बदलेगा तु व्यवहार


संभल जरा अब नर-नार


दिवस मनाने ना हो उद्धार


पेड़ लगाओ हर दिन यार


 


आचार्य गोपाल जी 


          उर्फ 


आजाद अकेला बरबीघा वाले 


प्लस टू उच्च विद्यालय बरबीघा शेखपुरा बिहार


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार रूपा व्यास

श्रीमती रूपा व्यास


जन्म-5 जनवरी


शिक्षा-एम.ए(हिंदी साहित्य),बी.एड


विधा-कविता,गीत,लेख आदि।


प्रकाशन-राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं एवम् संकलनों में सहभागिता


सम्मान-"चंद्रदेव पुरस्कार"राजस्थान साहित्य अकादमी(राजस्थान),राज.स्तर.निबंध प्रतियोगिता में "प्रथम",भू. पू.उप राष्ट्रपति श्री भैरू सिंह शेखावत जी द्वारा,एवम् राज.स्तर. निबंध प्रतियोगिता में 25 प्रथम,15 द्वितीय एवम् 10 बार तृतीय स्थान प्राप्त।


सम्प्रति-शिक्षिका(सेंट पॉल सेकंडरी स्कूल,रावतभाटा)


संपर्क-व्यास जनरल स्टोर, दुकान न.7,न्यू मार्केट,रावतभाटा,जिला-चित्तोड़गढ़,323307(राजस्थान)


Email-rupa1988rbt@gmail.com


मोबाईल-9461287867,9829673998


 


कविता - 1


            - समाज-


व्यक्ति -व्यक्ति से बनता परिवार,


परिवार से बना समाज का व्यवहार।


यहीं से सीखते हैं हम जात-पाँत,


नहीं है और किसी तीसरे का हाथ।


इसी समाज में हैं मंदिर-मज्जिद,


त्योहारों पर समाज होता सुसज्जित।


परिवार,समाज से बनी ये दुनिया,


मन एक-एक,जन का जब है मिला।


स्वस्थ समाज का स्वस्थ है मन,


देश हित समर्पित,तन,मन,धन।


चहूं ओर फैला आज भष्टाचार,


हिंसा ही हिंसा, नहीं ध्यानाचार।


देश का अन्नदाता,गरीबी से ग्रस्त,


दूसरा बस अपने में व्यस्त।


उन्नति को पा रहा तकनीकी ज्ञान,


ज़रूरी है संग-संग ,संस्कृति की शान।।


                 


कविता - 2


समाचार पत्र


देते हैं हर क्षेत्र का ज्ञान


समाचार पत्र करते हैं


अपनी ओर आकृष्ट हमारा ध्यान।


जिससे मिलती है जानकारी हमें देश-विदेश की।


कर जातें हैं कभी हमारे विचार नकारात्मक,


तो पलड़ा भारी है विचारों का सकारात्मक।


मिलती है जिससे नैतिक शिक्षा


कई सीखों से प्राप्त होती है सुरक्षा।


कहीं पढ़ जाते हैं हम प्रेम कहानी, तो का


तो कई बातें हैं बहुत पुरानी।


चमत्कारी स्वरूप प्रगटा है फैशन,


नहीं है हमें किसी विषय की टेंशन।


मिल रहा है नित व्यवहारिक ज्ञान,


इसीलिये नहीं भटक रहा हमारा ध्यान।


इसमें छपती हैं कई प्रतियोगिताएँ,


और हम पा जाते कई योग्यताएँ।


विभिन्न परीक्षाओं के लिये है महत्वपूर्ण,


जानकारी-पुरस्कारों से हैं परिपूर्ण।


इसीलिये है ये ज्ञान वर्धक,हर बुरी बात के हैं


समाचार-पत्र विरोधक।।


 


कविता - 3


              - आँसू-


जब-जब दो प्यार करने वाले छूटे,


तब मेरी आँख से आँसू टप-टप फूटे।


क्यों किसी को किसी से प्यार हो जाता है,


क्या कभी मिलकर बिछड़ जाए


इसीलिए उनका मिलन हो पाता है।


जब अलग होना ही उनका नसीब है,


फिर क्यों पलों के लिये वो करीब हैं।


रिश्ते क्यों मजबूरी बन जाते हैं?


क्यों प्यार करने की कमजोरी होते हैं?


अश्रुओं को दूसरों से छिपाएँ कैसे?


तुम्हारे बिन जीवन बिताएँ कैसे?


हे ईश्वर!तू ऐसा क्यों करता है?


पहले मिलाऐ फिर दूर रहने को भी कहता है।


आज जाना प्यार क्या होता है?


जब अन्य को बिछड़ते हुये देख


मेरा दिल रोता है।।


 


     कविता - 4          


     - भष्टाचार-


आज हर क्षेत्र-स्थिति, परिस्थिति में भष्टाचार हो रहा है।


चलते-फिरते, उठते-बैठते,सोते-जागते,खाते-पीते,


बैठे ठाले अर्थात हर कोंण,आयाम-स्तिथि में भष्टाचार गाजर-घास की तरह फैल रहा है।


पल्लवित, पुष्पित भष्टाचार पर 'भष्टाचार पुराण' लिखा जा सकता है।


भष्टाचार का अर्थ आचरण से गिरा हुआ बताया जा सकता है।।


वहीं किसी अनुचित लाभ के लिए नियम विरुद्ध कार्य करना या कराना भी 'भष्टाचार' कहलाता है।


भष्टाचार से लोगों की सीरत हो जाती हो जाती कुरूप।


भष्टाचार का सामना करने के लिए पहले समाज के नियमों का पालन करने के लिए परिवार-विद्यालय में संस्कार दिये जाने चाहिए।


प्रशासन को स्वयं शुद्ध रहकर नियमों का कठोरता से पालन करना चाहिए।।


           


कविता - 5


 - मज़दूरों का सम्मान - 


एक मई अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस आता।


इस दिन को लेबर डे,मई दिवस,


श्रमिक व मज़दूर दिवस भी कहा जाता।


यह दिन श्रमिकों को समर्पित,


सभी को रूपा का श्रद्धा सुमन अर्पित।


मज़दूरों की उपलब्धियों को सलाम,


हम सब का स्वीकारें शुक्रिया कलाम।


मज़दूरों के सम्मान ,उनकी एकता और उनके हक के समर्थन में ,


आज का दिन व हर दिन उनके कर्तव्य पालन में।


इस दिन दुनिया में छुट्टी होती,


तथा रैली-सभाओं का आयोजन मज़दूर संघ करती।।


   


 


 


 


डॉ निर्मला शर्मा

पर्यावरण दिवस 


 


पर्यावरण के साये में रहने वाले मनुष्य ने 


पर्यावरण का ही विनाश कर डाला 


हरितिमा से अच्छादिन वन सम्पदा को 


स्वंय के लालच की भट्टी में झौंक डाला 


वनौषधियों का भंडार थी हमारी पर्वतमालाएँ


मानव ने खनन कर अवैध उन्हें बिल्कुल उजाड़ डाला 


कभी बहती थी कल - कल नदियाँ उन वनों में


बजरी खनन की अवैध बानगी ने 


उन्हें बियावान जंगल में बदल डाला 


पहाडों में कभी बहते थे झर - झर झरने


मानव के दिए अब जख्म रह गए वो कभी न भरने


वन्य जीव कर रहे शहरों की ओर पलायन


मानव के अतिक्रमण ने लूट लिया उनका आँगन


सिसकती है धरती उजड़ते है जब वन 


कहाँ है वो संस्कृति कहाँ है वो उपवन 


विचरते थे वन में सभी वन्य जीव पावन 


पर्यावरण को सदैव हमने शिरोधार्य माना


सभी जीवों का जीवन है आवश्यक ये जाना


तो अब क्यूँ ये मानव बना आततायी?


सुविधाओं की चाह में पर्यावरण को आग लगाई


काटता है पेड़, मारता है पशु-पक्षी निर्दयता से


तब भी रहता है असन्तुष्ट रहता नहीं सदाशयता से


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


विष्णु असावा                    बिल्सी ( बदायूँ

221 2122 221 2122


 


मैं मुस्कुरा रहा हूँ दिल मेरा रो रहा है


पूछो न साथ मेरे क्या क्या ये हो रहा है


 


किस मोड़ पर खड़ी है तकदीर तू बता दे 


जो भी था पास धीरे धीरे से खो रहा है


 


बरसात भी न होगी सावन में अब तो ऐसे


ज्यों आँसू आज मेरा मुखड़ा भिगो रहा है


 


पहले बिछा के रखता था फूल रास्तों में


कोई तो बात है अब काँटे वो बो रहा है


 


वो बेवफा नहीं है मैं जानता हूँ उसको


मेरा गुमान मेरी कश्ती डुबो रहा है


 


मिलना कभी बिछड़ना है प्यार का चलन ये


मत रोको विष्णु इसको जो भी ये हो रहा है


 


                     विष्णु असावा


                   बिल्सी ( बदायूँ )


अंकिता जैन अवनी

"परवाह कौन करता है"


छोटी-छोटी बच्चीयाॅ,


घरों में बर्तन मांजती है।


छोटे-छोटे बच्चे,


दुकानों पर काम करते हैं,


हर रोज एक नन्हा फरिश्ता,


सड़क पर कचरा बीनता है,


पर अफसोस इनकी परवाह कौन करता है।


देश का भविष्य,


नित्य बोझा ढ़ोता है,


जुआरी, सटोरियों की संगत में,


एक मासूम बिगड़ता है।


गंदे माहौल में रहने से,


इन बच्चों का स्वास्थ्य निरंतर गिरता है,


पर अफसोस इनकी परवाह कौन करता है।


फूल जैसे बच्चे खाना कम,


गालियॉ ज्यादा खाते हैं,


कुछ ऐसे लोग भी हैं,


जो इनका फायदा भी उठाते हैं,


रोज इनका शोषण होता है,


हर रोज एक नया दर्द इन्हें मिलता है,


पर अफसोस इनकी परवाह कौन करता है।


 


अंकिता जैन अवनी


लेखिका/कवयित्री


अशोकनगर मप्र


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