:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*नहिं दुर्गम अति सुगम मनोरम*


 


नहिं दुर्गम अति सुगम पंथ हो।


अतिशय सरल महान तुम, सदा सहज अनुराग।।


 


विद्यालय गुरुद्वारा तुम हो।


ज्ञानवती विद्यावती, अति विनम्र गुरु मंत्र।।


 


महा शान्त विश्राम बनी आ।


अतिशय स्थिर भावमय, अथकित अकथ अपार।।


 


दीनबंधु करुणाश्रय तुम हो।


रचती सुखद समाज माँ, बनकर दीनानाथ।।


 


भक्तजनों के लिये तत्परा।


द्रवीभूत होती सदा, सुनकर हृदय पुकार।।


 


ब्राह्मणी माँ विद्या वर हो।


आदि शक्तिमय नित्य अज, वरद शारदा सत्य।।


 


महा नारि दिव्या अति भव्या।


परम शक्ति सम्पन्न नित, सुमुखी लोकातीत।।


 


सकल जगत की तुम शोभा हो।


अतिशय सुन्दर सोच तुम, अति मनमोहक काम।।


 


बनी हुई माँ प्रेम दीवानी।


सबके प्रति अनुरागमय,प्रेम शक्ति आधार।।


 


नित्य करूँगा तेरा वन्दन।


पूजनीय माँ शारदा ,करें नित्य कल्याण।।


 


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*क्यों विचलित होते हो प्यारे*


 


ईश्वर में करना विश्वास, एक आसरा रखो उन्हीं का.,


ईश्वर संग करो अभ्यास, रहने का आजीवन मित्रों.,


करते-करते नित अभ्यास, मन में दृढ़ता आ जायेगी.,


यही योग का है सिद्धान्त, जिसका चिन्तन उसकी प्रतिमा.,


हो जाती प्रतिमा साकार, साथ उसी का मिल जाता है.,


साथ मिला तो सकल अभाव, मिट जाता है क्षण भंगुर हो.,


मिट जाता जब सकल अभाव, तब फिर क्यों विचलित होना है?


विचलित होते हैं वे लोग, ईश्वर जिनके पास नहीं हैं.,


पड़ जाता माया का फंद, गले में उनके ईश बिना जो.,


ईश्वर माया में है भेद, माया ईश्वर की चेरी है.,


जिस घट में ईश्वर का वास, वहाँ फटकती कभी न माया.,


जिस प्राणी से ईश्वर दूर, माया का दरबार वहाँ है.,


नाच रहा मायावी जीव, माया के चक्कर में पड़कर.,


माया ही नारी का रूप, धारण कर वह खूब लुभाती.,


माया और ईश के मध्य, स्थापित रहता जीव सदा है.,


माया यद्यपि नकली तथ्य, फिर भी लगती महा सत्य वह.,


खींच-खींचकर अपनी ओर, पटका करती सब जीवों को.,


रोता चिल्लाता है जीव, फिर भी वह मनमोहक लगती.,


खता वह माया की लात, हँसता कभी कभी रोता है.,


हुआ जिसे माया का ज्ञान, माया त्याग ईश को भजता.,


ईश्वर भजन-ध्यान की शक्ति, मुक्ति दिलाती है माया से.,


 जिसे मिला ईश्वर का प्रेम, वही सफल है वही मस्त है.,


वही दिव्य सुन्दर धनवान,ज्ञानवंत अति वीर बहादुर.,


समदर्शी योगी विद्वान, सभी गुणों से युक्त मनीषी.,


कभी नहीं विचलन की बात, करता ईश्वर का अनुरागी.,


ईश्वर धुन में रहता मस्त, निन्दा-वन्दन सभी निरर्थक.,


धन आये अथवा खो जाय, जीवन-मृत्यु निरर्थक सारे.,


न्याय मार्ग ही असली ध्येय, सहज बनाता ईश्वरपंथी।


 


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा"अतुल्य"

*मैं धरा*


10.6.2020


 


मैं तप्त देह मौन धरा 


तुम उद्दंड मानव


दोहन तुम्हारा 


अब मुझे खला ।


 


मैं माँ करती पोषण


विपदा में तेरा


तू करता अतिक्रमण


स्व स्वार्थ के लिए मेरा।


 


कितना चाहिए तुझे


स्व निज के लिए


निस्वार्थ हो मानव


बता जरा ।


 


उठ मैं से ऊपर


कर निर्माण वसुदेवकुटुम्भकम का


पर हित तारेगा फिर 


जीवन तेरा।


 


मैं हूँ सशक्त 


मत समझना निर्बल मुझे


जरा सी मेरी करवट से 


मानव तेरा जीवन डरा।


 


ये है धैर्य माँ का


करती पोषण जो बच्चों का


अपनी ही रक्त मज्जा से


स्व को मिटा ।


 


समझ, कर संरक्षण


पर्यावरण का


होगी शुद्ध वायु,जल


हरी भरी धरा ।


 


फिर न होगा कोई 


भूकम्प,तूफान,जलजला 


मैं सृष्टि माँ, पोषित करती


अपने जीवों को सदा।


 


सुखी मेरी आत्मा


देख घनेरे बादल 


समय पर यहाँ


तृप्त मेरी आत्मा 


रहती फिर सदा।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(विश्वासों की होरी)


नहीं यहाँ कुछ बचा हुआ है,


सब कुछ जैसे जला हुआ है।


आपस में अब मेल न दिखता,


खंडित लगे प्रेम की डोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


अपनी सोच सनातन गहरी,


इसकी नींव सुदृढ़ है ठहरी।


पर सब कुछ अब लगता बदला,


बनी सभ्यता रिश्वतखोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


अपना और पराया चिंतन,


नहीं रहा भारत का दर्शन।


विश्व एक परिवार हमारा,


हुई भाव ऐसे की चोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


विश्व-शांति का लक्ष्य हमारा,


सदा रहा है अतिशय प्यारा।


स्नेह-रिक्त अब हुए हैं लगते,


अपने स्वस्थ किशोर-किशोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


जब संकट के बादल छाते,


उससे मुक्ति सभी जन पाते।


मूल मंत्र बस मात्र एकता,


नहीं खुले अब दान- तिजोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


भारत का परचम लहराता,


सकल विश्व की होश उड़ाता।


पर दुर्भाग्य प्रबल अब घेरी,


मची वित्त की छोरा-छोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


              9919446372


Dr.B.K.Sharma

मदिरा स्वयं का परिवार का समाज का और देश का नाश कर देती है


 इसी संदर्भ में मेरी पुस्तक 


"यह कैसी हाला है "


कि प्रथम 10 कड़ियां समाज और देश को समर्पित है


 


# यह कैसी हाला है #


***************


1-


एक कमिसन साकी बाला ने


ना जाने कितने घर को लूट लिया हाथों से उसके प्याला ले 


जब पीने वालों ने एक घूंट लिया ||


 


2-


कभी ना देखा मदिरालय


 कभी ना देखी थी हाला |


किस और मुझे तू ले आई


 ना था मैं कभी पीने वाला ||


 


3-


स्वरा पान की इच्छा लेकर 


देखो कितने दीवाने आए |


बैठ गए मदिरालय आकर


 लुट जाने परवाने आए ||


 


4-


पहले जो "करने" में जीता था 


अब पी पी कर उर रीता है |


पहले घर में रहने वाला 


अब दुनिया बाहर की जीता है ||


 


5-


राजा थे जो लोग कभी


रंक उन्हें है कर डाला |


मधु विक्रेता को इस हाला ने


तिल से पहाड़ बना डाला ||


 


6-


जिनके स्वर सिंघनाद था


जो बाहुबली बन फिरते थे |


आज हाला का एक प्याला ले 


कभी गिरते कभी उठते थे ||


 


7-


बड़ी विडंबना इस जगती की 


जो मधुबाला के अधीन हुए |


 जो भूल गए वसुदेव कुटुंबकम 


 और जा हाला में लीन हुए ||


8-


मधु विक्रेता के ठाठ निराले आते-जाते पीने वाले |


मधुशाला की शान बढ़ाते 


घर की इज्जत मान घटाते ||


 


9-


 समय एक था जब कंठ से


 हूंकार सिंह की आती थी |ललकार एक ही जो शत्रु का 


सीना चीर सुलाती थी ||


 


10-


जिनके ह्रदय दया भाव था


 जिनके मन में थी करुणा |


आज अकेला चौराहे पर 


देता फिरता वह धरना ||


 


 Dr.B.K.Sharma


Uchchain (Bharatpur) Raj.


9828863402


भरत नायक "बाबूजी"

*"जंगल कटते नित्य ही"*


(कुण्डलिया छंद)


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जंगल कटते नित्य ही, पर्यावरण न हेत।


बढ़ती नित नव आपदा, मानव अब तो चेत।।


मानव अब तो चेत, आग सूरज से बरसे।


नित-नित बढ़ता ताप, नीर को है जग तरसे।।


कह नायक करजोर, कहाँ हो शुभकर मंगल?


होगी हाहाकार, नहीं होंगे जब जंगल।।


****************************


*"सूरज उगले आग"*


         ( कुण्डलिया छंद )


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सूखे नद-नाले सभी, सूख रही जलधार।


तापित रवि अब कर रहा, पल-पल प्रबल प्रहार।।


पल-पल प्रबल प्रहार, हरे कानन मुरझाये।


सूरज उगले आग, धूप है बहुत जलाये।।


कह नायक करजोरि, सभी जन-मानस रूखे।


बेकल हैं दिन-रात, छलकते सोते सूखे।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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कुमार🙏🏼कारनिक

सुबह🙏🏼सबेरे


              ^^^^^^^^^^^^^


//१//


 


रामभक्त हनुमान जी,कर हम पर उपकार।


भक्तन के संकट हरो, सबका कर उद्घार।।


 


//२//


 


रक्षक सबके हो तुम्ही, सब जपते हनुमान।


सभी झुकाते शीश को,मिलता है वरदान।।


 


//३//


 


करना यूँ व्यवहार तुम, बन जाए हर काम।


मान मिले संसार में,जप लो हरि का नाम।।


 


         *कुमार🙏🏼कारनिक*


***********


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

----परिवार का समाज राष्ट्र---      


 


मानव का रिश्तों से नाता ,रिश्तों का परिवार से नाता ।  


   


परिवारों का सम्माज से नाता परम्परा रीती रिवाज नाता ।।


 


 


संस्कृति, संस्कार , परिवार ,समाज का पहचान से नाता।     


                                       मानव से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट् का नाता।।                               


 


 


मानव का परिवार ,समाज ,राष्ट्र कि संस्कृति सम्ब्रिधि का राष्ट्र अभिमान से नाता।।                 


 


एक -एक मानव कि ताकत का संगठित ,सक्तिशाली परिवार ।।


  


 


मानव, मानवता के परिवारों का सम्ब्रिध, सबल ,समाज ।  


 


सुदृढ़ समाज से मजबूत, महत्व्पूर्ण ,सक्षम राष्ट्र।।


 


रिश्तों में समरसता ,विश्वास ,प्रेम सौहार्द सामजस्य परिवारों का आधार ।     


 


     


मर्यादा ,मूल्यों के मानव सम्बन्धों का बनता परिवार।।              


 


संबंधो में द्वेष, दम्भ ,घृणा का नहीं स्थान। , द्वेष ,दम्भ ,घृणा परिवारों के विघटन के हथियार।।             


 


छमाँ ,दया ,करुणा ,प्रेम ,सेवा का संचार संबाद सत्कार।    


 


मानव -मानवता के रिश्तों के परिवारों में प्रेम परस्पर सार्थक व्यवहार।                            


 


रिश्तों कि परिभाषा बैभव, विनम्रता का आचरण परस्पर विश्वास का रिश्ता परिवार।।    


 


माता ,पिता ,भाई, बहन चाचा चाची दादा दादी अनंत आदि रिश्तों का संसार परिवार।          


 


एक दूजे का सम्मान ,वेदना, संवेदना का एहसास परिवारो की बुनियाद।।                         


 


आज्ञा कारी सूत श्रवण, लक्षमण भाई बहन सुभद्रा।             


 


कच्चे धागों के रिश्तों का अदभूत का परिवार राष्ट्र अभिमान।।          


 


संतानो से दुखी माँ बाप भाई -भाई का शत्रु । विध्वंस ,विघटन, विवाद विपत्ति का पल ,प्रहर ,दिन ,रात का परिवार।।                         


 


विघटन ,विवाद ,बंटवारा रिश्तों का बिकृत स्वरूप् का साथ। बर्बादी ,टूटता ,बिखरता ,सिमटतासमाज परिवार।।                  


 


बिखरे ,बेबस रिश्तों ,परिवारो का लाचार ,मजबूर ,समाज। लाचार, मजबूर , परिवार समाज का गंगा ,बहरा अक्षम राष्ट्र ।।     


 


मजबूत इरादों का सक्षम राष्ट्र, समरस रिश्तों के परिवार समाज का राष्ट्। रिश्ते में एक दूजे से आस्था का वास्ता का परिवार, समाज,राष्ट्र।।                  


 


अहंकार ,अभिमान, मिथ्या में भागती दुनिया का त्याग।   


 


राष्ट्र धरोहर का धन्य पहचान का


 आत्मसाथ परिवार समाज राष्ट्र।।


 


बुनियादी परम्परा के परिवार समरस, समता मूलक समाज का राष्ट्र ।                              


 


कल्पना का सत्य ,सार्थक परिवार, समाज का राष्ट्र।                        


 


मजबूत इरादों दूर ,दृष्टि,साहस शक्ति का सक्षम परिवार, समाज राष्ट्र ।।                            


 


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


एस के कपूर "श्री हंस*"

*विषय ।।।।।वैभव।।।।।।।*


*।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*


*शीर्षक।।।। दिल की दौलत ही* 


*मनुष्य को वैभव शाली बनाती है।*


 


वैभव यश कीर्ति सम्मान का


आदमी भूखा हो गया है।


पर दिल से वह संवेदना शून्य


और सूखा हो गया है।।


पर असली वैभव तो मिलता


दिलों को जीतने से।


पर मनुष्य तो आज व्यवहार


में ही रूखा हो गया है।।


 


दे कर सम्मान व्यक्ति जीवन


में वैभव लाता है।


विनम्रता की सुगंध से जीवन


भी चमचमाता है।।


नकली धन दौलत नहीं नाम


वैभव का दूसरा।


दिल की जिंदादिली से ही


असली वैभव पाता है।।


 


बुद्धि विवेक ही मनुष्य को


गौरवशाली बनाते हैं।


साहसी उत्साही आदमी को ही


शक्तिशाली बुलाते हैं।।


अच्छे कर्म वचन ही तो मंत्र हैं 


हमारे वैभव निर्माण के।


ऐसे ही व्यक्त्वि के धनी मनुष्य


वैभव शाली कहलाते हैं।।


 


*रचयिता । एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।*


मो। 9897071046


                    8218685464


कवि सुनील कुमार गुप्ता

 


        *"तुमने"*


"मन की गहराईयों में साथी,


कुछ पल तो देखा होता-तुमने।


क्या-खोया क्या-पाया साथी,


अपने-बेगानों संग तुमने।।


अपनत्व की ही चाहत में साथी,


क्या-कुछ चाह था-जीवन में तुमने?


भटकता रहा मन हर पल साथी,


कब-जीवन में चैन पाया -तुमने?


मिले अपनत्व की छाया साथी,


पल पल यही तो चाह तुमने।


छोड़ चले जो संग साथ साथी,


क्यों-कहा हर पल साथी तुमने 


        *"तुमने"*


"मन की गहराईयों में साथी,


कुछ पल तो देखा होता-तुमने।


क्या-खोया क्या-पाया साथी,


अपने-बेगानों संग तुमने।।


अपनत्व की ही चाहत में साथी,


क्या-कुछ चाह था-जीवन में तुमने?


भटकता रहा मन हर पल साथी,


कब-जीवन में चैन पाया -तुमने?


मिले अपनत्व की छाया साथी,


पल पल यही तो चाह तुमने।


छोड़ चले जो संग साथ साथी,


क्यों-कहा हर पल साथी तुमने?"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःः 10-06-2020


दुर्गा प्रसाद नाग नकहा- खीरी

आज का ✍️✍️✍️


🥀🥀🥀((गीत))🥀🥀🥀


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दुनिया के रीति रिवाजों से,


एक रोज बगावत कर बैठे।


 


महबूब की गलियों से गुजरे,


तो हम भी मोहब्बत कर बैठे।।


_____________________


 


मन्दिर-मस्जिद से जब गुजरे,


पूजा व इबादत कर बैठे।


 


जब अाई वतन की बारी तो,


उस रोज सहादत कर बैठे।।


_____________________


 


दुनिया दारी के चक्कर में,


जाने की हिम्मत कर बैठे।


 


गैरों के लिए हम भी इक दिन,


अपनों से शिकायत कर बैठे।।


_____________________


 


जो लोग बिछाते थे कांटे,


हम उनसे इनायत कर बैठे।


 


पीछे से वार किये जिसने,


हम उनसे सराफत कर बैठे।।


_____________________


 


हमने अहसानों को माना,


वो लोग अदावत कर बैठे।


 


हर बात सही समझी हमने,


वो लोग शरारत कर बैठे।।


_____________________


 


उनके जीवन की हर उलझन,


हम सही सलामत कर बैठे।


 


पर मेरी हंसती दुनिया में,


कुछ लोग कयामत कर बैठे।।


_____________________


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दुर्गा प्रसाद नाग


नकहा- खीरी


मोo- 9839967711


राजेंद्र रायपुरी

😌 जो आया है उसको जाना 😌


 


अटल सत्य ये, रार करे क्यूं।


  उर्जा निज़ बेकार करे क्यूं।


    जो आया है उसको जाना।


      सत्य यही, इंकार करे क्यूं।


 


रचा चक्र है यही विधाता।


  इक आता है, दूजा जाता।


    माटी का तन माटी मिलना,


      तू इतना तक़रार करे क्यूं।


 


मान कहा तू मेरा भैया।


  मत कर इत-उत ताता-थइया।


    जिस तन को इक दिन जल जाना,


      उससे इतना प्यार करे क्यूं।


 


काम न आएगा ये पैसा। 


  लाख बहा पानी के जैसा।


    जाना ही होगा तुझको भी,


      भले दान सौ बार करे तू।


 


बुना उसी ने ताना - बाना। 


  किसको कब कैसे हैं जाना।


    फेर-बदल कुछ हो न सकेगा,


      उछल - कूद बेकार करे तू।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*11


शुद्ध सोच के आसव का यदि,


यह दुनिया नित पान करे।


सकल भेव रँग-रूप-जाति का-


चले नहीं चतुराई है।।


       करती है गुणगान लेखनी,


       आसव की इस महिमा का।


        नहीं लेखनी लिखती कोई-


         आसव ही लिखवाई है।।


प्रबल प्रभावी यह द्रव आसव,


आसव इक द्रव निर्मल है।


हितकर सोच रचे यह मन में-


इसमें गुण अधिकाई है।।


       मंद बुद्धि का है वह मानव,


       जो इसको बस पेय कहे।


       पेय तो है यह लेकिन अमृत-


       की इसमें बहुताई है।।


कहना-सुनना लगा ही रहता,


यही रीति है दुनिया की।


मग़र लेखनी मतिमंदों को-


सच्ची राह दिखाई है।।


        आसव-आसव-आसव ही है,


        प्रीति-पुस्तिका का शिक्षक।


        पा प्रेमी ने शिक्षा जिससे-


        प्रीति की रीति निभाई है।।


आसव की ही करें प्रशंसा,


ऋषि-मुनि-ज्ञानी-ध्यानी सब।


इसका नित-नित पान ही करके-


सरिता-ज्ञान बहाई है।।


        लेकर डुबकी ज्ञान-सरित में,


        सरल प्रकृति-साधारण जन।


        निज तन-मन को शुद्ध हैं करते-


        दुर्गुण-रेख मिटाई है।।


सुरभित आसव मधुरालय का,


वेद-मंत्र सम उत्प्रेरक।


निष्क्रिय तन-मन-वाचा स्थित-


भ्रम से मुक्ति दिलाई है।।


      मधुरबोल जन मधुरालय के,


      मृदुल हृदय तन धारी हैं।


      देव तुल्य यह लगता आलय-


       मुदित मोद-मृदुलाई है।।


अति सुरम्य है आबो-हवा औ',


मलयानिल इव पवन ढुरे।


प्रकृति कामिनी ढल प्याले में-


स्वयं छटा बन छाई है।।


       मनमोहक नित नवल छटा सी,


       छवि मधुरालय की लगती।


       पुष्प-गंध-मकरंद मस्त चख-


       भ्रमर-गीत मधुराई है।।


सुरभित आसव पीकर राही,


का हिय हुलसित हो जाता।


उसको लगता किसी ने जैसे-


लय सप्तम की गाई है।।


                ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः....*सोलहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


अहहिं असुर-सुर दूइ सुभावा।


दानव-देव भूतनहिं पावा ।।


    प्रबृति-निबृति नहिं जानहिं असुरा।


    कथन असत्य,चरित नहिं सुथरा।।


मानहिं जगत आश्रयइ हीना।


बिनु इस्वर जग मिथ्या-छीना।।


     स्त्री-पुरुष-मिलन जन भवहीं।


     काम-भोग-सुख लेवन अवहीं।।


अस जन मंद बुद्धि अपकारी।


जगत-बिनासक भ्रष्टाचारी।।


     दंभ-मान-मद-युक्त,न दाना।


     मिथ्यावादी जन अग्याना।।


यावद मृत्युहिं रत रस-भोगा।


बिषयइ भोग-अनंद-कुभोगा।।


     रहइ लछ्य बस तिन्हकर एका।


     काम-क्रोध-धन-लोभ अनेका।।


धन-संग्रह अरु चेष्टा-आसा।


करहिं इनहिं मा ते बिस्वासा।।


     मानहिं स्वयं सुखी-बलवाना।


      सिद्धि-प्राप्त ईस -भगवाना।।


बैभव-भोगी,रिपु जन-घालक।


बड़ धनवान,सकल कुल-पालक।।


     अपर न कोऊ मोंहि समाना।


     करब जग्य अरु देउब दाना।।


चित-मन-भ्रमित अइस अग्यानी।


असुर-सम्पदा-प्राप्त गुमानी।।


दोहा-मोह रूप के जाल महँ,फँसत जाँय अस लोग।


       सुनहु पार्थ ते जा गिरहिं,नरकइ-कुंड-कुभोग।।


                   डॉ0हरि नाथ मिश्र


                    9919446372 क्रमशः.......


प्रखर दीक्षित फर्रुखाबाद

मयूराक्षी


=======


 


निश्छल नयन चंद ला चितवन


नेह पंथ की दिव्य क्रिया है।


जहाँ पुनीत नेह आमंत्रण


उसके पार्श्व में प्रेम प्रिया है। ।


 


गुम्फित अलकें तिलक भाल पर


लोल कपोल अरुणिमा युत हैं।


राहुल पांखुरि मदिर अधर शुचि


रसभीने पर-- पहुँच से च्युत है।।


 


भृकुटि कमाने लक्ष्य शोधती


ज्यों हरिद्रिका युत वपु आभित।


मोर पंख की ओट वारुणी


पूनौ द्युति नछ अति शेभित।।


 


गंगा जल सम पावन स्निग्धा


आरोह वयस्क काञ्चन बाला ।


नखशिख भरण सुहावना अंग- अंग


मा नौ गमकत मधुशाला।।


 


मयंकमुखी द्युति चंद्रकला सी


अधर प्रकंपित स्मित भावन ।


लहूलुहान काम शर करते,


रुप अनूप मनस सत पावन।।


 


प्रखर दीक्षित


फर्रुखाबाद


डॉ निर्मला शर्मा    राजस्थान

🌝 चाँद 🌙🌙


 


चाँद आसमान मैं ही नहीं


जीवन मैं भी रहता है छाया


जन्म से ही देखती हूँ उसे


आसमान मैं तारों के बीच अलसाया


छोटी थी तो ख्वाहिश थी उसे पाने की


चन्दा मामा बनकर वो जीवन मैं आया


बड़ी होते होते चाँद का अलग ही अर्थ पाया


चाँद से मुखड़े वाली,


ईद का चाँद, चाँद निकलना


चाँद पर थूकना -------


ऐसे कई मुहावरे मुझसे आजीवन जुड़े रहे


खुशी हो या गम


या मन के हो कोई भी उदगार


मैं बाँट ही लेती थी चाँद से हर बार


मेरा दुख सुख का साथी


था वो मेरा बचपन का यार


चाँद वो अपना सा


जिसे सब करते हैं प्यार


✍️✍️डॉ निर्मला शर्मा


   🙏🏻 राजस्थान


सत्यप्रकाश पाण्डेय

चांद..............


 


न जाने छिप गया, कई दिनों से चांद कहाँ मेरा।


नहीं खिल पाया है, सत्य का कमोद रूप चेहरा।।


 


घेर लिया उसको न जाने, किन मेघ मालाओं ने।


या फिर मोह लिया उसे, कहीं सुर बालाओं ने।।


 


बिना आलोक उसके न, मुझे कुछ भी सुहाता है।


हर पल मुझे तो उसका, बस सौंदर्य याद आता है।।


 


लगता हुआ चांद बेबफा, जिसकी प्रीति नहीं मुझसे।


उसे मालूम नहीं शायद, कितनी मुहब्बत है उससे।।


 


बिना उसके छाया रहता, अब दिन भी में अंधेरा।


वही तो है जिंदगी मेरी, वही जीवन का सवेरा।।


 


उस चांद में तो दाग है, पर बेदाग है चांद मेरा।


जब हो जाता दीदार तो, खिलता हृदय सुमन मेरा।।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


प्रखर दीक्षित फर्रूखाबाद

जय कन्हैयालाल की 


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नंदलाल कन्हैया मधुसूदन गोपाल सांवरिया मनमोहन।


रसिया रसराज रसाल सखा यदुनंदन गोपिन जीवनधन।।


गोवर्धनधारी उपकारी , हितकारी प्रभू परात्म अखिल,


प्रभु होहु सहाय अमर्ष घने शरणागत अर्पण तन मन धन।।


 


प्रखर दीक्षित


फर्रूखाबाद


डॉ बीके शर्मा

:: *साथी ना मचल* ::


*****************


 


जिंदगी तो एक खिलौना


साथ ही ना मचल |


मुक्त मन का बोध ले 


साथ मेरे चल ||


 


रोकना कदम तू


आज अग्नीपथ पर |


कदमों में रफ्तार ले


खुद को दे वल ||


 


लक्ष्य तेरी मंजिल है 


तू तो जलजला है |


आंखों में नभ सारा 


पैरों में है थल ||


 


जो तेरे उर में 


ज्वाला सी प्रचंड है |


हौसले बुलंद तेरे


तू पहाड़ों सा आंचल ||


 


झकझोरता तूफान क्यों 


आज यहां तुझको |


मृत्यु ही वीरता है 


कर दे हलचल ||


 


हाथों मे बज्र ले 


आज तू फिर से |


ना सोच ना विचार 


ना हाथ मल ||


 


तू मनचला है 


और दिल जला है |


जिंदगी एक पहेली 


ना कोई हल ||


 


हाथों में पताका तेरे


पीछे एक दल |


जिंदगी तो एक खिलौना


 साथी ना मचल ||


 


 *डॉ बीके शर्मा* 


उच्चैन ( भरतपुर) राजस्थान


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जुबां तोल, मोल , बेमोल,अनमोल, बहारों के फूलों कि बारिश अल्फ़ाज़।    


               


तनहा इंसान का सफसोस हुजूम के कारवां कि जिंदगी का साथ अल्फाज़।।


 


वापस नही आते कभी जुबां से निकले अल्फ़ाज़ दोस्त, दृश्मन कि बुनियाद अल्फ़ाज़।


जंगो का मैदान मोहब्बत पैगाम जमीं आकाश कि गूंज आज,कल अलफ़ाज़।।


 


दिल के जज्बात ,हालत, हालात का मिजाज अल्फ़ाज़।


दिल में उतर जाते खंजर की तरह मासूम दिल कि अश्क, आशिकी ,सुरते हाल अल्फ़ाज़।।


 


 जिंदगी रौशन ,सल्तनत बीरान तारीखों के गवाह अल्फ़ाज़।


बेशकीमती दुआ ,


बद्दुआ, फरियाद, मुस्कान अलफ़ाज़।।


 


अल्फ़ाज़ों में गीता, कुरान इबादत जज्बे का ईमान।


खुदा भगवान के जुबाँ से निकले इंसानियत इंसान के अल्फ़ाज़।।


 


अल्फाज़ो के गुलदशतों से सजती महफ़िलों के सबाब बहार के अल्फ़ाज़।


रौशन समाँ कि रौशन रौशनी कि खुशबु का बेहतरीन अंदाज़ अल्फ़ाज़।।


 


कसीदों कि काश्तकारी


रिश्तों में दस्तकारी अल्फ़ाज़।


दिल में नश्तर कि तरह चुभते कभी, कभी दिल कि खुशियों का वाह वाह अल्फ़ाज़।।


 


नज़रों के इशारों, जुबाँ खामोश का अंदाज़ अल्फाज़।


हद ,हस्ती आबरू, बेआबरू कसूर ,बेकसुरवार गुनाह,बेगुनाह के अल्फ़ाज़।।


 


बदज़ुबां का अल्फ़ाज़ जहाँ परेशान ।


खूबसूरत अल्फाज नेक ,नियत कि जुबां जमाने के अमन कि नाज़ का अल्फ़ाज़।।


 


तारीफ़, गिला ,शिकवा ,


कि बाज़ीगरी का कमाल अल्फ़ाज़।


बेंजा उलझनों को दावत, जायज बदल देते हालात के अल्फ़ाज़।।


 


गीत ग़ज़ल फूलों कि बारिश ,शहद कानों में मिश्री घोलता अल्फ़ाज़।


अल्फाजों से बनता बिगड़ता रिश्ता खामोश जुबाँ ,निगाहों का जज्बे के जज्बात अल्फाज़।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

देना चरणों में स्थान.....


 


प्रेम पियासे नयन हमारे


दर्शन दो भगवान


हर पल तेरी बाट निहारें


दीन बंधु भगवान


 


पाप किये मैंने जीवन में


तुमको नाथ भुलाया


दूर करो पातक प्रभु मेरे


शरण आपकी आया


 


बंशीधर हे राधे रानी


हो भक्तों से अनुराग


मोह ममता त्याग के स्वामी


रसना पर कृष्ण राग


 


जीवन रक्षक श्याम हमारे


राधे प्रेरणा मन की


युगलरूप तुम बनो सहायक


हो आशा जीवन की


 


जो भी कर्म किये प्रभु मैंने


देना न उनपर ध्यान


सत्य नाथ सेवक है तेरा


देना चरणों में स्थान।


 


युगलरूपाय नमो नमः 👏👏👏👏👏🌹🌹🌹🌹🌹


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


एस के कपूर" श्री हंस"।बरेली।

*विषय।।।।चमक।।।।।*


*शीर्षक।।चमक ही चमक नहीं हमें रोशनी चाहिये।।।*


*विधा।।।।।मुक्तक माला।।।।*


 


*न 1 ।।।।।।मुक्तक*


 


वही अपनी संस्कार संस्कृति


यहाँ पुनः बुलाईये।


 


वही स्नेह प्रेम की भावना फिर


यहाँ लेकर आईये।।


 


हो उसी आदर आशीर्वाद का


यहाँ बोल बाला।


 


हमें चमक ही चमक नहीं


यहाँ रोशनी चाहिये।।


 


*न 2 ।मुक्तक।*


 


सच से दूर हर बात में


नई सजावट आ गई है।


 


रिश्तों में नकली चमक सी


अब बनावट आ गई है।।


 


मन भेद मति भेद आज


बस गये हैं भीतर तक।


 


कैसे करें यकीं कि यकीन


में भी मिलावट आ गई है।।   


   


*न 3।मुक्तक।*


 


तुम्हारा चेहरा बनता कभी तेरी


पहचान नहीं है।


 


चमक दमक से मिलता किसी


को सम्मान नहीं है।।


 


लोग याद रखते हैं तुम्हारे दिल


व्यवहार को ही बस।


 


न जाने कितने सिकंदर दफन


कि नामों निशान नहीं है।।    


 


*न 4 । मुक्तक।*


 


जाने हम कहाँ से कहाँ 


अब आ गये हैं।


 


चमकती दौलत को हम


आज पा गये हैं।।


 


सोने के निवालों से अब


अरमान हो गए।


 


आधुनिकता में भावनायों


को ही खा गए हैं।।


 


*रचयिता।एस के कपूर" श्री*


*हंस"।बरेली।*


मो 9897071046


            8218685464


भरत नायक "बाबूजी"

*"जाना होगा छोड़"* (कुण्डलिया छंद)


""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""


★आया जो संसार में, जाना निश्चित जान।


मेहमान सब हैं यहाँ, चार दिनों का मान।।


चार दिनों का मान, गर्व कर मत इठलाना।


जिसका जैसा कर्म, सभी को है फल पाना।।


कह नायक करजोरि, जोड़ लो जितनी माया।


जाना होगा छोड़, यहाँ जो भी है आया।।


""""""""""'"'""""""""''""""""""""""""""''''''''''''"


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


"""""""""'""'''''"""""""""""''''''''''"""""""'""'''""''''


अविनाश सिंह

*कुछ तो परिवर्तन होना चाहिए*


*------------------------------------------*


यूँही कुछ मन में आज ये ख्याल आया


देख संग्रहालय को एक सवाल आया


क्यों न इसका रूप ही बदल दिया जाए


इसमें रखें चीजों में ये जोड़ दिया जाए


 


क्या है संग्रहालय यह जानना जरूरी है


इसके मकसद को पहचानना जरूरी है


रखें जाते इसमें इतिहास के प्रमुख अंश


जो दिखाते है हमें अतीत के हमारे कर्म


 


कही राजा के तोप देखने को हैं मिलते


तो कही उनके पहनावें के वस्त्र मिलते


देख इनसब को मन में ये विचार आया


क्यों न किसी ने इसमें परिवर्तन लाया 


 


क्यों नही इसमें रेप के कपड़े रखे जाए


जो समाज को ये असली चेहरा दिखाए


क्यों नही इसमें वे पत्थर रख दिये जाए


जो हत्या के उद्देश्य से प्रयोग किये जाते


 


आखिर यह भी तो हमारा इतिहास ही हैं


जो इस समाज के लिए एक मिशाल हैं


लोगों को यह बात तो पता होना चाहिए


कितने कुकर्मी है लोग ये दिखना चाहिए


 


क्यों न खून से सने कपड़े रखे दिए जाते


आखिर यह भी लोगों के कर्म का फल है


क्यों न उसके अस्थियों को संजोया जाए


उसपे जो बीती है वो कहानी लिखी जाए


 


देख बंदूक हम अक्सर यह सोचने लगते


आखिर कैसे लड़ते होंगे यह पूछने लगते


फिर जब ये मासूम के कपड़े लोग देखेंगे


तो उसकी उम्रका सवाल तो जरूर पूछेंगे


 


असली मकसद संग्रहालय का पूरा होगा


इस पीड़ा को देख मन आग बबूला होगा


फिर कल किसी बेटी बहु का न रेप होगा


यही इस कविता का असली संदेश होगा


 


*अविनाश सिंह*


*8010017450*


*लेखक*


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*10


छंद-ताल-सुर-लय को साधे,


भाव भरे स्पंदन से।


वाणी का यह प्रबल प्रणेता-


सच्ची यह कविताई है।।


      लेखक-साधक-चिंतक जिसने,


      दिया स्नेह भरपूर इसे।


      उसके गले उतर देवामृत-


      ने भी किया सगाई है।।


आसव-शक्ति-प्रदत्त लेखनी,


जब काग़ज़ पर चलती है।


चित्र-रेख अक्षुण्ण खींचती-


रहती जो अमिटाई है।।


      आसव है ये अमल-अनोखा,


       मन भावुक बहु करता है।


       मानव-मन को दे कवित्व यह-


       करता जन कुशलाई है।।


योग-क्षेम की धारा बहती,


यदि प्रभुत्व इसका होता।


धन्य लेखनी,कविता धन्या,


जो रस-धार बहाई है।।


     मधुरालय के आसव जैसा,


     नहीं पेय जग तीनों में।


     मधुर स्वाद,विश्वास है इसका-


     जो इसकी प्रभुताई है।।


जब-जब अक्षर की देवी पर,


हुआ कुठाराघात प्रबल।


आसव रूपी प्रखर कलम ने-


माता-लाज बचाई है।।


     अमिय पेय,यह आसव नेही,


     ओज-तेज-बल-बर्धक है।


      साहस और विवेक जगाता-


      होती नहीं हँसाई है।।


रचना धर्मी कलम साधते,


सैनिक अस्त्र-शस्त्र लेकर।


दाँव-पेंच-मर्मज्ञ सियासी-


विजय सभी ने पाई है।।


     शिथिल तरंगों ने गति पाई,


     भरी उमंगें चाहत में।


     बन प्रहरी की इसने रक्षा-


     जब दुनिया अलसाई है।।


मन-मंदिर का यही पुजारी,


रखे स्वच्छ नित मंदिर को।


कलुषित सोच न पलने देता-


सेव्य-भाव बहुताई है।।


      आसव नहीं है मदिरा कोई,


       आसव सोच अनूठी है।


       सोच ही रक्षक,सोच विनाशक-


       सोच बिगाड़-बनाई है।।


                  ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


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