डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः...*सत्रहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


तामस-तप मूरख जन करहीं।


बपु-मन-बचन-पीर बहु सहहीं।।


     अस जन हठी-अनभली होंवैं।


      उचित लाभु तप कै ते खोवैं।।


परम पुनीत कर्म जग दाना।


प्रत्युपकारिन्ह देहिं सुजाना।।


     देस-काल अरु पात्रइ जोगा।


      देहिं दान जे सात्विक लोंगा।।


मन दबाइ निज सिद्धिहिं हेतू।


इच्छित फल पावन चित चेतू।।


     मान-प्रतिष्ठा औरु बड़ाई।


     कीन्ह दान जग रजस कहाई।।


बिनु सम्मान-अपात्र-अजोगा।


अधरम हेतुहिं औरु कुभोगा।।


    तामस दान होय सुनु पारथ।


    तामस-दान न हो परमारथ।।


हीन सच्चिदानंदघन नामा।


ऊँम-तत-सत अहँ ब्रह्म सुनामा।।


      ब्राह्मण-वेद औरु यज्ञादी।


      यहि तें बने सृष्टि के आदी।।


इहवइ ऊँ-तत-सत जे नामा।


अह संबोधन बस परमात्मा।।


    जगि-तप-दान औरु सुभकरमा।


    करिअ उचारि नाम सब धरमा।।


दोहा-करउ करम श्रद्धा सहित,सास्त्र-बिधिहि निष्काम।


        नाम सच्चिदानंदघन, भजत जाउ सुर-धाम ।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


                  सत्रहवाँ अध्याय समाप्त।


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*14


आसव राग-रागिनी-निर्झर,


है प्रपात-जल-शुद्धिकरण।


इसे छिड़क कर सज्जन-दुर्जन-


सबने शुचिता पाई है।।


       पीपल-पात सरिस मन डोले,


       जब भी डोले कलुषित मन।


       मधुरालय जा करें सफाई-


       आसव-पान सफाई है।।


हो हिय मुक्त सके वासना से,


पुण्य-प्रताप-कपाट खुले।


करता पावन आसव-निर्झर-


पुनि शुचि पौध सिंचाई है।।


     हिय-मन-वन में हो हरियाली,


     खोट-सोच-तरु स्वस्थ रहे।


     बढ़े निरंतर शुचिता मन में-


      जिसमें रही खटाई है।।


मन-तरुवर की विषमय डाली,


पी पय आसव हरी बने।


बने मिठास खटास तत्त्व भी-


आसव दुग्ध-मलाई है।।


      देव-धेनु के पय समान ही,


      मधुरालय का आसव यह।


      जितना चाहो पी लो जाकर-


      कामधेनु सुखदाई है।।


खग-मृग वन के जीव-जंतु सब,


मुदित मना अति स्वस्थ रहें।


जीवन-मरण-स्वतंत्र सोच ले-


उनकी अरणि-रहाई है।।


       मधुरालय भी मुक्ति-केंद्र इव,


       करे मुदित संताप मिटा।


      दैहिक-दैविक-भौतिक-बाधा-


      इसने सदा भगाई है।।


मधुरालय का दर्शन कहता,


जीओ और जिलाओ सब।


साथ-साथ मिल पीओ-खाओ-


वर्ण-भेद लघुताई है।।


     करो प्रकाशित अँधियारे को,


     जिसका हृदय बसेरा था।


    आ मधुरालय-संस्कृति सीखो-


     जो लाती उजराई है।।


ईश्वर-आभा-मंडित-स्थल,


यह मधुरालय इक आलय।


इसी की शिक्षा-दीक्षा देती-


जीवन में कुशलाई है।।


      अमृत-आसव मधुरालय का,


       सदा दिव्यता-शुचिता दे।


       अंतरचक्षु-कपाट खोल कर-


        उत्तम ज्योति जलाई है।।


मधुरालय का आसव मित्रों,


कभी नहीं मादक मदिरा।


अति पवित्र यह सोच निराली-


शुचि पथ सदा दिखाई है।।


       स्वागत-स्वागत-स्वागत इसका,


       शुभकर सोच सुहानी यह।


       अपनाएँ सब खुलकर इसको-


        इसमें निहित भलाई है।।


                 © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः....*सत्रहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


बासी-अधपक अरु रस रहिता।


जूठा अरु दुर्गंधइ सहिता ।।


     अरु अपवित्र भोजनइ तामस।


     कहे कृष्न भोजन त्रय अह अस।।


बिनु फल नियत सास्त्र अनुकूला।


सात्विक जग्य होय बिनु सूला।।


    राजस जगि नहिं बिनु फल चाहा।


   दंभाचरन हेतु नरनाहा ।।


सास्त्र बिहीन हीन-अन-दाना।


बिनु श्रद्धा अरु मंत्रहि ग्याना।।


    होवइ तामस जगि हे अर्जुन।


    बिना दच्छिना देइ तुमहिं सुन।।


मातु-पिता-द्विज-देवन्ह-ग्यानी।


सरलहि-सुचिहि-अहिंसा ध्यानी।।


    ब्रह्मचर्य धरि जदि जन पूजहिं।


    बपु-तप होवै औरु न दूजहिं।।


अनुद्बिग्न-प्रिय-सच-हितकारी।


बेद-सास्त्र पढ़ि नाम उचारी।।


     प्रभु प्रति होय तपस्या जाई।


     वाणीतप अस तपै कहाई।।


सांत भाव,मन-निग्रह,हर्षित।


प्रभु-चिंतन प्रति होय अकर्षित।।


     हृदय राखि सुचि जे तप-पूजा।


     मन संबंधी होय न दूजा ।।


दोहा-त्री प्रकार अस तप सुनहु,सात्विक होवहिं पार्थ।


        श्रद्धा हिय बिनु इच्छु-फल,तपी करहिं निःस्वार्थ।।


        आन-बान-सम्मान अरु,मन पाखंडइ लाय।


         क्षणिक लाभु तप जे अहहि,राजस जगत कहाय।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372 क्रमशः.......


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार निशा"अतुल्य

निशा अतुल्य 


देहरादून उत्तराखण्ड


 


माँ शारदा को प्रणाम 


 


मैं निशा 


अतुल की अतुल्य निधि 


देवभूमि निवासिनी 


दो पुत्रों को संस्कार से कर पोषित 


समाज का ऋण उतारती ।


पढ़ी थी विज्ञान हमेशा 


पर कलम से अपने मनोभावों 


को दिल के पन्नो पर उतारती ।


एक अद्भुद जीवन जीती हूँ


हो सकता है जो मुझसे 


समाज के लिए निष्ठाऔर 


समर्पण से करती हूँ।


जो लगता ठीक मुझे 


उसे कसौटी पर उतारती 


ऐसे ही जीवन के 


उतार चढ़ाव पार करती 


जीवन सादगी से बिताती हूँ ।


लिखने का है शौक मुझे 


आशु मुक्त लिखती जाती हूँ                    


बस यही परिचय है मेरा 


जो आप के संग बांटती हूँ ।


 


 


निशा"अतुल्य"


देहरादून 


उत्तराखंड


 


 


1*वो क्यों मर गया*


          


सड़क पर चर्चा 


हुई सुना तुमने


वो मर गया 


अच्छा हुआ 


विषमताओ से तर गया


शरीर निश्छल पड़ा है सड़क पर


किसी से पाकर जन्म 


ऐसे क्यो अड़ गया 


कहां गया वो आँचल 


जिसके नीचे पला था


जिन कांधों पर चढ़ कर 


आसमान कभी छुआ था


क्यो हुआ दर बदर ये 


शरीर हुआ बेदम


शायद भूख प्यास 


या कुछ और 


डूबा अंधकार में 


हाँ लोग कर रहे हैं बाते 


नशेड़ी था 


ना खाता था न पीता


बस डूबा रहता 


अपनी ही दुनिया में


भूख ने नही मारा इसको


प्यास के लिए 


नल भी लगे है जहां तहां 


मर गया डूब कर 


नशे के अंधेरों में 


मर गए थे एक दिन 


मात पिता रो रो कर


नही निकला वो उस अंधेरे से 


जिसने निगल लिया था 


उजालों को किसी पुत्र के


नशा क्योंकर रहा बढ़


निगल रहा जवानियों को


कर बूढ़ा समय से पहले 


दे रहा लील जिन्दगानियो को


आज लाल किसी का लावारिस


जल गया 


अच्छा हुआ वो मर गया


सभी विषमताओ से तर गया 


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


 


 


2 *बेबस*


 


देखी एक बेबस जिंदगी फुटपाथ पर 


बूढ़ी खोई आंखे झुकी झुकी


निर्विकार सोचती न जाने क्या 


पास रखे कटोरे में डालता जब कोई उम्मीद की किरण 


पेट भरने की उठ जाती उमंग 


सुनो 


सुनो क्या बहुत भूख लगी है 


उसकी सुनी आंखों में चमक आई


बोली कुछ नही बस उम्मीद में सिर हिलाई


आओ आओ मेरे साथ मैं बोली 


उसकी टूटी लाठी उठा 


उसने की उठने की कोशिश


थोड़ा लड़खड़ाई 


हाथ जमीन पर टिकाई 


मैंने पकड़ा उसे सहजता से उठाया और ले आई घर अपने


बैठी वो बागीचे में नीचे ही 


बहुत कहा माइ कुर्सी है 


हाथ से मना किया उसने 


दी खाने की थाली उसे


आखों में भर आंसू देखा उसने


भूखी आत्मा बिखर गई 


खाने पर टूट गई 


मैं निशब्द उसे देखती रही


वो हुई तृप्त 


मैंने पूछा माइ घर कहां है


बड़े भेद से मुस्काई 


बोली तीन बेटे है


जिगर के टुकड़े हैं


पता उनका मेरे पल्लू में बंधा है 


खून अपना पिला कर पाला था जिन्हें 


आज वो ही मेरे बुढापे पे शर्मिंदा हैं


बड़े साहब है ,संतरी खड़ा द्वार है 


नही पहचानते वो मुझे 


संतरी ने बताया 


ये साहब का फरमान है।


मैं भौचक्की खड़ी रह गई


अंतरात्मा टूट के बिखर गई


सुन *फैसला* अपने बेटों का


मैं तो उसी दिन मर गई 


अब तो ये सड़ी लाश है 


उन बेशर्मो की जो फुटपाथों पर जिंदा पड़ी है 


शायद चिरनिंद्रा में लीन होने पर 


कोई तुमसा बिटीया दे सदगति मुझे 


इसी लिए बीच चौराहों पर बुझी हुई लौ पड़ी है ।


दिखाऊँ फैसला बेटों का दुनिया को इसी बात पे जान मेरी अड़ी है 


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


 


3*श्री राम*


 


नीलवर्ण पीताम्बर धारी


सौम्य ओज सी सूरत तिहारी


संग में लक्ष्मण सा भ्राता


वाम अंग सीता है प्यारी 


 


तेज और बल धारी तुम हो


कांधे तुमरे तरकश साजे 


हाथों में है धनुष विराजे


साथ हनुमंत भक्त है प्यारे ।


 


नाम तुम्हारा निशदिन जो ध्याय


भव बंधन सब फिर कट जाए 


भक्ति माँगू तुमसे मैं प्रभुवर


दे दो मुझको भक्ति का वर ।


 


मात पिता की आज्ञा सुनकर


चौदह वर्ष वनवास गुजारे


बड़े भयंकर राक्षक मारे 


अंत काल रावण स्वर्ग सिधारे ।


 


रख चरण पादुका सिंघासन 


भरत भाई जो राज्य सम्भाले


लक्ष्मण साथ रहे वन में भी 


हर संकट में साथ निभाते ।


 


अंत समय भी नाम तुम्हारा


जो जिव्वाह से रहे पुकारे 


तुम उनको बैकुंठ बुलाते 


अब प्रभु आप मुझे भी तारे ।


 


 


 


निशा"अतुल्य


 


 


 


    4 मुस्कान


 


 


आशियाना महक उठा एक भीनी सी खुशबू से 


आँगन मेरा चहक उठा मीठे मीठे बैनो से 


नन्हे नन्हे पाँव धरा पर रख कर डग मग करती है


दिल हुआ प्रफुल्लित मेरा उसके चेहरे की हंसी से ।


 


नन्ही नन्ही आँखिया खोले, बड़े बड़े से सपने हैं


नन्हे नन्हे पाँव है उसके ,बड़ी बड़ी सी मंजिल है 


उत्साह उसका बहुत बड़ा है, गिरती और संभलती है


पहुंचूंगी मंजिल पर अपनी, ऐसी हठी लगती है।


 


महका मेरा तन मन उससे घर मेरा गुलजार हुआ


तितली सी उड़ती उपवन में भवरों का गुंजार हुआ


कोयल जैसी मीठी वाणी सुनकर मन मेरा मल्हार हुआ 


मेरी प्यारी गुड़िया रानी से घर मेरा आफताब हुआ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


 


 


5उन्वान एहसास


 


 


नही हुआ था एहसास 


तेरी मोहब्बत का मुझे


ना काबिल समझ खुद को


इनकार किया था मैंने तुझे ।


अब समझी हूँ 


तेरे प्यार की गहराई को


जब तेजाब में नहला दिया तूने मुझे।


अब इन सुकड़ी हुई आँखों से 


साफ बहुत दिखता है मुझे


आ बैठ मेरे पास ले के 


हाथों में हाथ मेरे।


तेरी चाहत की शिद्दत 


अब महसूस हो रही है मुझे


कर माफ मेरी नादानियों को


जो कि थी मैंने अनजाने में।


आ बैठ मेरे पास 


चूम ले लब तू मेरे


मैं हूँ अब तैयार ताउम्र 


साथ निभाने को तेरे।


जबसे तेरे प्यार का खजाना पाया मैंने


तू मुड़ा ही नही अब तक देखने को मुझे


एहसास बहुत है 


मेरे दिल को मौब्बत का तेरे


आ बक्श दें ये गुनाह तू मेरे 


चल साथ चलूंगी मैं कुफ़र तक तेरे


आ पकड़ हाथ अब तू आके मेरे ।


है एहसास मुझे तेरी मौहब्बत का बहुत 


तू भी कर महसूस अब दिल को मेरे 


बसायेंगे नई दुनिया मिल कर हम तुम


जहां मेरी सूरत देगी गवाही प्रेम का तेरे। 


 


स्वरचित


"


 


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सोनी कुमारी पान्डेय

 सोनी कुमारी पान्डेय 


शिक्षा: एम.ए, बी. एड


शहर :अहमदाबाद


राज्य : गुजरात 


रुचि : लेखन


कविताएं


(1)


विषय : जीवन की पतवार आपके हाथो में 


छंद : सरसी 


*****************


तुम जगत पिता जगदीश्वर हो, 


          हम बालक नादान, 


क्षमा करो अपराध हमारे, 


             रूठो ना भगवान, 


हाथ जोड़ जग करे प्रार्थना, 


         सुन लो करुण पुकार, 


त्राहि त्राहि सब मानव बोले ,


            भय में है संसार। 


 


आस का सूरज नहीं दिखता, 


              कैसे होगी भोर! 


घोर अंधेरा छा रहा है, 


          जाए हम किस ओर? 


जीवन नैया डगमग होती, 


             लहरें करती वार, 


व्यथा किसको सुनायें अपनी,


             जाएं किसके द्वार? 


 


प्रभु सबका सहारा तुम हो, 


           तुमसे ही है आस, 


जिसकी पतवार पकड़ लो तुम,


                तन पाए वो श्वास, 


दे पतवार आपके हाथो, 


           सौंप दिया सब भार, 


पकड़ लो पतवार जीवन की, 


            कर दो नैया पार।


जय द्वारिकाधीश श्री कृष्ण की 


(2)


विषय : किनारा कीजे


 


मीटर: 21 22 11 22 22


 


नाम हरि हरषि पुकारा कीजे,


भक्ति में जीवन न्यारा कीजे,


 


मंद मुस्कान भरी छवि हिय धरि, 


कृष्ण छवि नित्य निहारा कीजे,


 


रोज दर्शन गिरधर के होवें, 


बस यही खाब सँवारा कीजे,


 


पुण्य के द्वार सभी खुल जाएं, 


पाप से नित्य किनारा कीजे,


 


भाव का भोग लगाती 'सोनी',


ले शरण प्रभु सहारा दीजे।


     जय गिरधर गोपाला 


       (3)


विषय : हे ईश्वर! अब दया करो। 


(मानव छंद) 


 


कमल नयन हे मनमोहन, 


धरा आधार मधुसूदन, 


हाथ जोड़ करते वंदन,


सफल करो अब ये जीवन।


 


आओ अब हे गिरिधारी,


विपदा आन पड़ी भारी,


राह दिखे नहीं मुरारी, 


कष्ट मिटाओ बनवारी।


 


भव बंथन सब नष्ट करो, 


दुष्ट दैत्य का अंत करो, 


मानव की सब व्यथा हरो,


हे ईश्वर! अब दया करो।


 


तीनो लोको के दाता, 


तुम्ही हो भाग्य विधाता,


जब-जब मन है घबराता, 


हे कृष्ण! तुमको बुलाता।


 


जग का अब उद्धार करो, 


चित्त अवगुण अब ना थरो,


पाप दोष सब दूर करो,


शरणागत की रक्षा करो।


 


हे ईश्वर! अब दया करो। 


जय श्री कृष्ण 


(4)


जय सरस्वती माँ 


 


शीर्षक : यादों की बारिश 


 


तेरी यादों की बारिश में, 


       मैं खुद को भिगोने लगी हूँ, 


करके याद तुझे मन ही मन


          मैं तो मुस्कुराने लगी हूँ। 


 


 


जब से पढी़ आँखे तुम्हारी, 


       गीत प्यार के गाने लगी हूँ,


 खोकर आँखों में तुम्हारी,


          सपन नये सजाने लगी हूँ।


 


 


होश में नहीं अब दिल मेरा, 


          नशा तेरा छाने लगा है, 


जैसे चंचल भ्रमर कोई,


       कुमुदिनी भरमाने लगा है। 


 


 


धीरे धीरे मन की बातें ,


       इन लबो पर लाने लगी हूँ, 


आज दिल मे छुपाकर तुम्हें, 


        तुम्ही से मैं शरमाने लगी हूँ। 


            (5)


जय सरस्वती माँ 


 


मीटर : 2122 2122 2122


 


मैने देखा जब दर्पण वो याद आए,


हाल- ए- दिल पूछा फिर वो मुस्कुराए,


 


कश्तियों को कौन तूफां से बचाए, 


खा़ब है तो नींद से कोई जगाए।


 


दीप जलते है दिलो में रोशनी है, 


पास आकर बिजलियाँ अब ना गिराए। 


 


मुस्कुराए कैसे जब गमगीन है फिजा*


फूल से दिल पर वो शमशीरें चलाए।


 


दूर गर खुश है तो कहो खुश ही रहे अब, 


खाब में आकर मिरा दिल ना जलाए । 


 


सोनी कुमारी पान्डेय


 


 


 


मनोज श्रीवास्तव लखनऊ

ना 1सांस है अधिक ना 1सांस कम


*****************************


 


चल रहा है अनवरत ये ज़िन्दगी का क्रम


 


 ना 1सांस है अधिक ना 1सांस कम


 


,*


अनपढ़ और ज्ञानियों के लिए1ही नियम


 


 ना 1सांस है अधिक ना 1सांस कम


 


*


पाले हुए हैं हम सभी ने जिन्दगी के भ्रम


 


 ना 1सांस हैअधिक ना 1सांस कम


 


*


जब भी गरम हो लोहा तभी चोट कीजिए


 


सांसों की लगातार धौकनी से ही गरम


*


 


खुल कर लिखा है सत्य है ना है कोई वहम


 


 ना 1सांस है अधिक ना 1सांस कम


*


 


जब तक जियेगें चलती रहेगी सधी कलम


 


 ना 1सांस है अधिक ना 1सांस कम


*


 


जायेंगे छोड़ जब जहां ना आंख होगी नम


 


 ना 1सांस है अधिक ना 1सांस कम


*


!


मनोज श्रीवास्तव लखनऊ


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार रेनू मिश्रा प्रयागराज

 


रेनू मिश्रा


पिता-श्री श्याम नारायण पाठक


माँ -सरस्वती पाठक


पति -श्री दिनेश मिश्रा


शिक्षिका-खेल गांव पब्लिक स्कूल प्रयागराज उत्तर प्रदेश


जन्म -24-7-1978


शिक्षा-डबल एम ए,बी एड


.लिखने का शौक-199२ से


   नई शब्द सुमन लेखनी ,साहित्यनामा व पेपर आदि मे कविताएँ छपी है।


महिला काव्य मंच ,प्रेरणा मंच,काव्य मंजरी मंच से जुडी हूँ।


लक्ष्मीकान्त वर्मा स्मृति चिह्न , सम्मान पत्रोआदि सेसम्मानित किया गया है।


 


  


 


"कन्हैया कहाँ गये"


 


मुरली के बजइया कहाँ गये


मेरे कृष्ण -कन्हैया कहाँ गये।


कलयुग मे पाप बाढ़ आई


धरा की आँखे भर आई,


व्दापर के कन्हैया कहाँ गये।---


जाति -धर्म की भीड़ लगी,


मै की ध्वजा है लहराई,


गीता के ज्ञानी कहाँ गये।---


पाप घड़ा भरने को है,


अधर्म अपने चरम पर है,


धर्म के वक्ता कहाँ गये।---


नारी पे विपदा भारी पड़ी,


नारी की प्रतिपल बोली लगी,


द्रोपदी के रक्षक कहाँ गये।---


भक्त खड़े गुहार करे,


पाप घटे अन्याय घटे,


अर्जुन के सारथी कहाँ गये।---


देर करो न ओ कान्हा!


मन अधीर हुआ चला जाये,


राधा के कन्हेया कहाँ गये।


मुरली के बजइया कहाँ गये,


मेरे कृष्ण-कन्हैया कहाँ गये।


      रेनू मिश्रा


मौलिक रचना।


प्रयागराज उत्तर प्रदेश।


 


 


 


नारी की कहानी


 


दर्द की कलम से लिखी,


नारी की कहानी है।


आजन्म कोख मे मरी,


नारी की ही लचारी है।


पर्दे के पीछे से रोती,


आज भारत कीनारी है।


अस्मिता बचाने के लिए,


जौहर मे कूदी नारी है।


सतयुग,द्वापर, त्रेता,कलयुग मे,


हर बार रोई नारी है।


दहेज की बलि चढ़ी,


भारत की ही नारी है।


पाप के विरोध पर,


नारी पाती मौत भारी है।


अपमान का घूँट पीती,


जग मे सदा नारी है।


सुरक्षा की बस बाते है,


असुरक्षित आज भी नारी है।


धरा पे पाप भारी है।


धरा भी एक नारी है।


निवेदन मे एक चेतावनी,


कविता मे देती नारी है।


रोक लो कुकर्मों को,


अन्यथा काली बनी नारी है।


सम्मान करो नारी का,


नारी से समृध्दि सारी है।


दर्द की कलम से लिखी,


नारी की कहानी है।


       रेनू मिश्रा


  उपाध्यक्ष,माँ सरस्वती शिक्षा एवं सामाजिक कल्याण संस्थान प्रयागराज उत्तर प्रदेश।


 


 


लचार स्त्री


 


क्षुधातुर हुई मैने देखी


एक वृद्ध स्त्री गंगा पर


प्रमन सी होकर रटती


राम नाम दिन राती


 गई पास मै उसके


पूछा उसके जीवन अंश को


जाने क्या कह गई


वह अपनी ही भाषा मे


जानने को आतुर मै


पूछने लगी संगिनी से


अतुरता देख बया करने लगी


उस निर्जीव सी स्त्री की


दर्दभरी गम्भीर बाते


जान उसकी बातो के अर्थ


अचम्भित एकटक निहारती रही


मन मे उठने लगी


प्रश्नो की अनन्त तरंगे


क्या मानवता समाप्त हो गई?


रिश्ते बेमायने हो गए


विश्वास कर सका न मन मेरा


रह बार-बार उसे देखा


ज्ञानी थी मगर लचार


प्रताडित की गई थी वो


अपनो के अपनेपन से


लूटा था उसको बेगानो ने


अपनो के संग मिलकर


कथा बस इतनी ही


जान सकी मै उसकी


मैडम ने आवाज लगायी


कैम्प की बस है आयी


आशीष सहित विदा ले


चढ़ी कैम्प के बस मे


जाते-जाते मन ने कहा


देख उसे एक बार जरा


धवल वस्त्र मे लिपटी


लग रही थी वो ऐसे


जैसे सूखी डाली कोई


चाह रही हो खिलना ।


 


       रेनू मिश्रा


 


 


. भारत की नारी


बरसो से रोई


जग मे खोई


कभी दिखती


कभी छिपती


कभी हँसती


कभी रोती


दुख समेटती


खुशियाँ बिखेरती


सिसकियों मे जीती


फिर भी मुस्कुराती


काँटो पर चलती


चुभन सहती


फूल बटोरती


परिवार पर लुटाती


व्यथा न बताती


मन मे छिपाती


अन्त में पड़ती


हरि को जपती


दुआ देती


जग से जाती


ऐसी होती


भारत की नारी।


        रेनू मिश्रा


महिला काव्य मंच प्रयागराज,


     उत्तरप्रदेश


 


हिन्दी भाषा


जो भाषा हृदय को छू जाये


                     वो हिन्दी है।


जो भावों में उत्साह भर दे


            वो भाषा हिन्दी है।


जो गीतो मे प्राण डाल दे


            वो भाषा हिन्दी है।


जो जग को वश में कर ले


           वो भाषा हिन्दी है।


देववाणी संस्कृत जिसकी जननी


           वो भाषा हिन्दी है।


सीधी ,सरल सहज जो भाषा है।


                    वो हिन्दी है।


राजभाषा का गौरव जिसे मिला


            वो भाषा हिन्दी है।


बनी राष्टीय एकता की आधारशिला


            वो भाषा हिन्दी है।


 रस,छन्द,अलंकार से सुसज्जित है


            वो भाषा हिन्दी है।


उपेक्षाओ से जो भयभीत नही हुई


             वो भाषा हिन्दी है।


जो हर भाषा का करती सम्मान


                     वो हिन्दी है।


अनुपम,विरलय साहित्य जिसका है


             वो भाषा हिन्दी है।


जो विदेशो मे अपना परचम लहराई


             वो भाषा हिन्दी है।


जो सम्मानित हैसम्मानित रहेगी


              वो भाषा हिन्दी है।


 


         


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार रेनू द्विवेदी

 


रेनू द्विवेदी 


पति--श्री विनोद कुमार द्विवेदी


जन्मतिथि--01/07/1985


सम्मान-- सृजन युवा सम्मान, नागरिक सम्मान, साहित्य गौरव, साहित्य भूषण, साहित्य रत्न, गीतिका सौरभ, साहित्य साधना ,सारस्वत सम्मान , भारतीय अटल लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड,,कवितालोक आदित्य,साहित्य सुधाकर, आदि!


जन्मस्थान --सोनभद्र


पता---1/410 विशाल खण्ड-1


गोमती नगर लखनऊ


सम्पर्क सूत्र- 9451608364


 


"गीत"


 


धरती को माँ कहते हो तो,


सुन्दर इसे बनाओ!


सृष्टि संतुलित करने खातिर,


पर्यावरण बचाओ!


 


पेड़ -पहाड़ अगर काटोगे,


भू- हो जाएगी बंजर!


आने वाली पीढ़ी को क्या,


दिखलाओगे यह मंजर!


 


हरियाली से जीवन सुंदर,


सबको यह समझाओ!


सृष्टि-------------


 


नदियाँ-झरने वृक्ष -लताएँ,


यह सब भू के आभूषण!


हरी -चुनर वसुधा पहने अब,


खूब करो वृक्षारोपण!


 


रंग -विरंगे फूलों से नित,


धरती को महकाओ!


सृष्टि-----------


 


जड़-चेतन में औषधियों का,


मिलता खूब खजाना है!


जंगल में मंगल रहने दो,


जीवन अगर बचाना है!


 


निश्छल प्रेम करो कुदरत से,


अपना फर्ज निभाओ!


सृष्टि-------------


 


बहुत हो चुका पतन धरा का,


अब तो तुम मानव जागो!


वायु भूमि जल पशु पक्षी को,


अब अपना साथी मानो!


 


कुदरत की सेवा है करना,


यह संकल्प उठाओ!


सृष्टि----------------


     "रेनू द्विवेदी"


 


"गीत"


 


  मै बेटी हूँ पुष्प सरीखी,


जीवन भर बस दर्द मिला!


पीड़ा मेरी सुनकर देखो,


यह विस्तृत ब्रम्हांड हिला!


 


जाने किसने फूँक लगा दी,


टूट पाँखुरी बिखर गयी!


सब ने कुचला पैरों से ही,


उड़कर चाहे जिधर गयी!


 


लुप्त हुआ संवेदन सबका,


किससे-किससे करूँ गिला!


पीड़ा मेरी-–--------


 


कांप- उठा है अंतस मेरा,


जीवन अब तो बोझिल है!


भीतर से बाहर तक टूटी,


अंग-अंग सब चोटिल है!


 


टूट खंडहर सा बिखरा है,


सुन्दर था जो रूप किला!


पीड़ा मेरी-----------


 


कभी निर्भया कभी आशिफा,


बनकर कब तक सहूँ भला!


धारण करके रूप कालिका,


धड़ से दूँ मै काट गला!


 


पापी का कर दंड सुनिश्चित,


कर्मो का दूँ आज सिला!


पीड़ा मेरी------------


 


  "रेनू द्विवेदी"


 


"गीत"


 


आँखों में सागर लहराए


होठों पर मुस्कान खिली है!


आत्म-कक्ष में भंडारे में


दुख की बस सौगात मिली है!


 


मन उपवन में किया निरीक्षण


प्रेम-पुष्प सब निष्कासित हैं!


सांसों से धड़कन तक फैले


कंटक सारे उत्साहित हैं!


 


पीडाओं के कंपन से अब


अंतस की दीवार हिली है!


आत्म-कक्ष के--------


 


उलझ गये रिश्तों के धागे


जगह-जगह पर गाँठ पड़ी है!


द्वार प्रगति के बंद हुए सब


मुश्किल अब हर राह खड़ी है!


 


सत्य-झूठ की दुविधा में ही


विश्वासों की परत छिली है!


आत्म-कक्ष के---------


 


प्रश्न सरीखा जीवन जैसे


निशदिन उत्तर ढूढ़ रही हूँ!


पर्वत नदियाँ झरनों से अब


पता स्वयं का पूँछ रही हूँ!


 


सृष्टि करे संवाद भले पर


सबकी आज जुबान सिली है!


आत्म-कक्ष के-------


 


  "रेनू द्विवेदी"


 


"गीत"


 


हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!💐💐💐💐💐


 


अगर तिरंगा प्यारा है तो ,


हिंदी से भी प्यार करो!


इसके अक्षर-अक्षर में नित,


शस्त्र सरीखी धार करो!


 


युवा वर्ग के कंधे पर अब ,


है यह जिम्मेदारी!


हिंदी की खुशबू से महके,


भारत की फुलवारी!


 


संस्कृति अगर बचानी है तो,


हिंदी को स्वीकार करो!


इसके -------------


 


भारत का गौरव कह लो,


या स्वाभिमान की भाषा!


एक सूत्र में बाँधे सबको,


स्नेहिल है परिभाषा!


 


है भविष्य हिंदी में उज्ज्वल,


इस पर तुम ऐतबार करो!


इसके---------


 


माँ समान हिंदी हम सब पर,


प्रेम सदा बरसाती!


सहज सरल यह भाषा हमको,


नैतिक मूल्य बताती!


 


बापू ने जो देखा सपना,


उसको तुम साकार करो!


इसके-------------


 


अंग्रेजी की फैल गयी है,


घातक सी बीमारी!


इससे पीड़ित भारत सारा,


कैसी यह लाचारी!


 


हिंदी की रक्षा खातिर इक,


युक्ति नयी तैयार करो!


इसके -----------


 


   "रेनू द्विवेदी"


 


"गीत"


 


गाँवों की गलियों से अब तो,


ख़त्म-हुए उल्लास!


मुत्यु-सेज पर लेटी है ज्यों,


जीवन की हर आस!


 


बूढ़ा बरगद नित रोता है,


किसको दूँ अब छाँव!


चले गए सब शहर कमाने,


छोड़-छोड़ के गाँव!


 


भौतिकता की चकाचौंध से,


सुस्त हुए अहसास!


मृत्यु सेज--------


 


अपनों की कटु वाणी ने ही,


दिया कलेजा चीर!


पीड़ा के बादल से बरसे,


नित आँखों से नीर!


 


व्यंग वाण से अंतस छलनी,


चोटिल सब विश्वास!


मृत्यु सेज----------


 


खारा सागरआँखों में है,


और ह्रदय तूफान!


रिश्ते नाते जोड़ रहे अब,


मतलब से इन्सान!


 


त्योंहारों के लड्डू से भी,


गायब हुई मिठास!


मृत्यु सेज--------------


 


यहाँ भला किसने देखा कल,


यह तो गहरा राज!


कल की चाहत मन में लेकर ,


क्यों खोऊँ मैं आज!


 


यही सोच मन बहलाऊँ जब,


होती कभी उदास,


मृत्यु सेज-----------------


 


   "रेनू द्विवेदी"


 


 


 


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा " निकुुुंज "

दिनांकः ०६.०६.२०२०


वारः शुक्रवार


विधाः दोहा


छन्दः मात्रिक


विषयः🌅 चलो लगाएँ पेड़


शीर्षकः 🌵🌱चलो लगाएँ पेड़ हम🌴🌿


खुद जीवन का रिपु मनुज , खड़े मौत आगाज।


बिन मौसम छायी घटा , वायु प्रदूषित आज।।१।।


 


चकाचौंध औद्योगिकी , नभ में फैला धूम।


जले पराली खेत में , मौत प्रदूषण चूम।।२।।


 


अज़ब प्रदूषण है यहाँ , कामगार बन मीत।


होंगें बच्चे प्रदूषित , कर्मपथी निर्भीत।।३।। 


 


निर्माणक भविष्य का , योगबली नीरोग।


भूकम्पन प्लावन सलिल ,शीतातप दुर्योग।।४।।


 


अन्तर्वेदित लालची , काटे नद नदी वृक्ष ।


जल निकुंज सुषमा विरत , दूषित भू अंतरिक्ष।।५।।


 


प्राण वायु अत्यल्प भुवि , धुआँ जग आकाश।


ग्रसित सूर्य शशि लापता , मृत्यु करे उपहास।।६।।


 


कवि "निकुंज" अन्तर्व्यथित , ज़हरीला ले श्वाँस।


रोग शोक मद नित मना , ज़ख्मी दिल्ली वास।।७।।


 


चेतो, अब भी वक्त है , नेतागिरि तज स्वार्थ।


कर उपाय विध्वंस विष , जीओ जग परमार्थ।।८।।


 


मिटा प्रदूषण साथ में , प्रजा संग सरताज।


शासन सह जनता वतन ,रोपण तरु आगाज।।९।। 


 


स्वयं सजग जन जागरण , कर प्रदोष उपचार।


पुनः सजाएँ हम प्रकृति , जो जीवन आधार।।१०।। 


 


कुदरत का अद्भुत सृजन,भू जलाग्नि नभ वात। 


जाति धर्म भाषा विविध , जीवन नया प्रभात।।११।।


 


चलो लगाएँ पेड़ हम , स्वच्छ वायु निर्माण।


हरित भरित सुरभित धरा, हो जीवन कल्याण।।१२।।  


 


बने स्वच्छ पर्यावरण , निर्मल हो परिवेश। 


हो नीरोग जन देश का , सुखद सरल संदेश।।१३।।


 


बने मीत निज जिंदगी , गढ़ें चारु संसार।


सप्त सरित पावन धरा , प्रगति सिन्धु आचार।।१४।।


 


प्राण वायु पर्यावरण , रखो स्वच्छ अविराम।


पेड़ लगा जीओ मनुज ,करो प्रकृति अभिराम।।१५।।


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा " निकुुुंज "


रचनाः मौलिक 


नव देहली


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" 

🌹विश्व मित्रता दिवस🌹 अवसर पर समस्त हृदयग्राही मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएँ ,बधाईयाँ सह सादर नमन💐🙏💐


 


विषयः दोस्ती एक रिश्ता


दिनांकः ०८.०६.२०२०


दिवसः सोमवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा 


शीर्षकः 🌹पाएँ मधुरिम मीत✍️


 


दोस्त नाम विश्वास का , त्याग समर्पण नेह।


जीवन की दृढ़तर कड़ी , रक्षक विपदा गेह।।१।।


 


झंझावातों से भरा , संजीवन है मित्र। 


दोस्त न केवल है व्यसन ,प्रेरक भाव पवित्र।।२।।


 


तन मन धन अर्पण सदा , नहीं द्यूत संग्राम। 


रिश्ते नाते सब वृथा, पा सुमीत अभिराम।।३।।


 


मीत हृदय जाने सखा,गुप्त सकल मन बात। 


जाति धरम सबसे अलग, दोस्त बने सौगात।।४।।


 


दोस्त सदा पावन कड़ी , रिश्तों में सरताज।


गज़ब समर्पण मीत का,कौन्तेय अंगराज।।५।।


 


श्रेष्ठ जटायु सम सखा , श्रीराम सखा सुग्रीव। 


मीत विभीषण भील सम,पार्थ कृष्ण संजीव।।६।।


 


तजे स्वार्थ परमार्थ में , सुख दुख में दे साथ। 


करे प्रशंसा सभा में , विपद बढ़ाए हाथ।।७।।


 


दोस्त बने सम्बल सदा , बने सारथी धर्म।


माँ ममता दे ढाल बन , प्रेरक नित सत्कर्म।।८।।


 


शीतल मृदु सम्बन्ध यह , अन्तर्मन सद्भाव।


मेरुदण्ड है जिंदगी , औषधि है हर घाव।।९।।


 


दुर्लभ ऐसा दोस्त जग , पावन हृदय उदार।


लोभ कपट बस झूठ अब, मीत रहा संसार।।१०।।


 


सदाचार से विरत जन ,धोखा दे जग मीत।


प्रीति नीति से वंचना , समझे जीवन जीत।।११।।


 


दोस्ती एक रिश्ता यहाँ , जीते मन संसार।


गंगा सम पावन विमल , जीवन सुख जलधार।।१२।। 


 


दोस्त भाई मातु पिता , जीवन का आलोक।


जीवन की वह आईना , अस्मित मुख हर शोक।।१३।।


 


कवि निकुंज जीवन सुलभ,मीत मिले नवनीत।


कृष्ण सुदामा सम सखा , पाएँ मधुरिम प्रीत।।१४।। 


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" 


रचनाः मौलिक (स्वरचित)


नई दिल्ली


:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*उपयोगिता का सिद्धान्त*


 


जिसका जितना है उपयोग, उसका उतना ही महत्व है.,


जो जितना होता बेकार, उतना ही वह रद्दी कागज.,


कोई नहीं डालता घास, कुचला जाता पैर के नीचे.,


होता नहीं कभी सत्कार, रद्द-टोकरी ही उसका घर.,


बन जाता कूड़े का ढेर, जो उपयोगी नहीं जगत में.,


मेहनत से जो करता काम, और कुशलता अर्जित करता.,


उसका जग में है सम्मान,मिलती जगह प्रतिष्ठित उसको.,


गुण ग्राहक सारा संसार, गुण ही पूजा का मंदिर है.,


गुण में रहती शक्ति अपार, चुंबक बनकर खींचत सबको.,


गुण का जीवन में उपयोग, यही बनाता काम सहज सब.,


कठिन क्रिया का यही निदान, कुशल बनो गुणगान कराओ .,


गुण का जितना हो उपयोग,मिलती ख्याति उसे उतनी ही.,


विकसित कर वैयक्तिक सोच, बनो विशेषीकृत शिव मानव.,


औद्योगिक समाज की माँग, इसे विशेषीकरण चाहिये.,


सामूहिक चेतन की बात, यहाँ सुनी जाती कदापि नहिं.,


चेतना व्यक्तिगत की भरमार, औद्योगिक संस्कृति का लक्षण.,


यहाँ समाज दीखता गौड़, आगे-आगे व्यक्ति डोलता.,


यहाँ व्यवस्था है बेजोड़, हर मानव है एक इकाई.,


सब उपयोगी सबके काम, यहाँ विभाजित स्पष्टरूप से.,


अपना-अपना करता काम, रोज एक ही काम सुनिश्चित.,


करते-करते काम विशेष, विशेषज्ञ बन जाता मानव.,


विशेषज्ञता का उपयोग,औद्योगिक समाज में होता.,


व्यक्ति यहाँ है ब्रह्म समान, उपयोगिता सिद्धि के कारण.,


सिद्ध करो उपयोगी मंत्र, शक्ति प्रतिष्ठा सुविधा भोगो.,


यह भौतिक संसारी रीति, उपयोगी बन पाओ सबकुछ।


 


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*अति अनुपम माँ महा शक्ति हैं*


 


अतिशय ज्ञान सिन्धु अति शोभित।


महाकाशमय विज्ञ पुरोहित।।


 


नूतन नव्य भव्य प्रिय सरला।


परम पुरातन नित्या तरला।।


 


परम पावनी गंग सदृश हो।


महा तपस्विनी विद्या यश हो।।


 


मातृ शारदा लोक पालिका।


कला गीत साहित्य साधिका।।


 


सिंहनाद माँ ज्ञान क्षेत्र में।


सदाचारिणी सकल क्षेत्र में।


 


हमें चाहिये प्रीति आप की।


शुभमय मधुमय नीति आप की।


 


रचनाकार:डॉ:रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*नहिं दुर्गम अति सुगम मनोरम*


 


नहिं दुर्गम अति सुगम पंथ हो।


अतिशय सरल महान तुम, सदा सहज अनुराग।।


 


विद्यालय गुरुद्वारा तुम हो।


ज्ञानवती विद्यावती, अति विनम्र गुरु मंत्र।।


 


महा शान्त विश्राम बनी आ।


अतिशय स्थिर भावमय, अथकित अकथ अपार।।


 


दीनबंधु करुणाश्रय तुम हो।


रचती सुखद समाज माँ, बनकर दीनानाथ।।


 


भक्तजनों के लिये तत्परा।


द्रवीभूत होती सदा, सुनकर हृदय पुकार।।


 


ब्राह्मणी माँ विद्या वर हो।


आदि शक्तिमय नित्य अज, वरद शारदा सत्य।।


 


महा नारि दिव्या अति भव्या।


परम शक्ति सम्पन्न नित, सुमुखी लोकातीत।।


 


सकल जगत की तुम शोभा हो।


अतिशय सुन्दर सोच तुम, अति मनमोहक काम।।


 


बनी हुई माँ प्रेम दीवानी।


सबके प्रति अनुरागमय,प्रेम शक्ति आधार।।


 


नित्य करूँगा तेरा वन्दन।


पूजनीय माँ शारदा ,करें नित्य कल्याण।।


 


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*क्यों विचलित होते हो प्यारे*


 


ईश्वर में करना विश्वास, एक आसरा रखो उन्हीं का.,


ईश्वर संग करो अभ्यास, रहने का आजीवन मित्रों.,


करते-करते नित अभ्यास, मन में दृढ़ता आ जायेगी.,


यही योग का है सिद्धान्त, जिसका चिन्तन उसकी प्रतिमा.,


हो जाती प्रतिमा साकार, साथ उसी का मिल जाता है.,


साथ मिला तो सकल अभाव, मिट जाता है क्षण भंगुर हो.,


मिट जाता जब सकल अभाव, तब फिर क्यों विचलित होना है?


विचलित होते हैं वे लोग, ईश्वर जिनके पास नहीं हैं.,


पड़ जाता माया का फंद, गले में उनके ईश बिना जो.,


ईश्वर माया में है भेद, माया ईश्वर की चेरी है.,


जिस घट में ईश्वर का वास, वहाँ फटकती कभी न माया.,


जिस प्राणी से ईश्वर दूर, माया का दरबार वहाँ है.,


नाच रहा मायावी जीव, माया के चक्कर में पड़कर.,


माया ही नारी का रूप, धारण कर वह खूब लुभाती.,


माया और ईश के मध्य, स्थापित रहता जीव सदा है.,


माया यद्यपि नकली तथ्य, फिर भी लगती महा सत्य वह.,


खींच-खींचकर अपनी ओर, पटका करती सब जीवों को.,


रोता चिल्लाता है जीव, फिर भी वह मनमोहक लगती.,


खता वह माया की लात, हँसता कभी कभी रोता है.,


हुआ जिसे माया का ज्ञान, माया त्याग ईश को भजता.,


ईश्वर भजन-ध्यान की शक्ति, मुक्ति दिलाती है माया से.,


 जिसे मिला ईश्वर का प्रेम, वही सफल है वही मस्त है.,


वही दिव्य सुन्दर धनवान,ज्ञानवंत अति वीर बहादुर.,


समदर्शी योगी विद्वान, सभी गुणों से युक्त मनीषी.,


कभी नहीं विचलन की बात, करता ईश्वर का अनुरागी.,


ईश्वर धुन में रहता मस्त, निन्दा-वन्दन सभी निरर्थक.,


धन आये अथवा खो जाय, जीवन-मृत्यु निरर्थक सारे.,


न्याय मार्ग ही असली ध्येय, सहज बनाता ईश्वरपंथी।


 


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा"अतुल्य"

*मैं धरा*


10.6.2020


 


मैं तप्त देह मौन धरा 


तुम उद्दंड मानव


दोहन तुम्हारा 


अब मुझे खला ।


 


मैं माँ करती पोषण


विपदा में तेरा


तू करता अतिक्रमण


स्व स्वार्थ के लिए मेरा।


 


कितना चाहिए तुझे


स्व निज के लिए


निस्वार्थ हो मानव


बता जरा ।


 


उठ मैं से ऊपर


कर निर्माण वसुदेवकुटुम्भकम का


पर हित तारेगा फिर 


जीवन तेरा।


 


मैं हूँ सशक्त 


मत समझना निर्बल मुझे


जरा सी मेरी करवट से 


मानव तेरा जीवन डरा।


 


ये है धैर्य माँ का


करती पोषण जो बच्चों का


अपनी ही रक्त मज्जा से


स्व को मिटा ।


 


समझ, कर संरक्षण


पर्यावरण का


होगी शुद्ध वायु,जल


हरी भरी धरा ।


 


फिर न होगा कोई 


भूकम्प,तूफान,जलजला 


मैं सृष्टि माँ, पोषित करती


अपने जीवों को सदा।


 


सुखी मेरी आत्मा


देख घनेरे बादल 


समय पर यहाँ


तृप्त मेरी आत्मा 


रहती फिर सदा।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(विश्वासों की होरी)


नहीं यहाँ कुछ बचा हुआ है,


सब कुछ जैसे जला हुआ है।


आपस में अब मेल न दिखता,


खंडित लगे प्रेम की डोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


अपनी सोच सनातन गहरी,


इसकी नींव सुदृढ़ है ठहरी।


पर सब कुछ अब लगता बदला,


बनी सभ्यता रिश्वतखोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


अपना और पराया चिंतन,


नहीं रहा भारत का दर्शन।


विश्व एक परिवार हमारा,


हुई भाव ऐसे की चोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


विश्व-शांति का लक्ष्य हमारा,


सदा रहा है अतिशय प्यारा।


स्नेह-रिक्त अब हुए हैं लगते,


अपने स्वस्थ किशोर-किशोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


जब संकट के बादल छाते,


उससे मुक्ति सभी जन पाते।


मूल मंत्र बस मात्र एकता,


नहीं खुले अब दान- तिजोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


 


भारत का परचम लहराता,


सकल विश्व की होश उड़ाता।


पर दुर्भाग्य प्रबल अब घेरी,


मची वित्त की छोरा-छोरी।


बुझी नहीं अब तक दुनिया में-


जलते विश्वासों की होरी।।


           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


              9919446372


Dr.B.K.Sharma

मदिरा स्वयं का परिवार का समाज का और देश का नाश कर देती है


 इसी संदर्भ में मेरी पुस्तक 


"यह कैसी हाला है "


कि प्रथम 10 कड़ियां समाज और देश को समर्पित है


 


# यह कैसी हाला है #


***************


1-


एक कमिसन साकी बाला ने


ना जाने कितने घर को लूट लिया हाथों से उसके प्याला ले 


जब पीने वालों ने एक घूंट लिया ||


 


2-


कभी ना देखा मदिरालय


 कभी ना देखी थी हाला |


किस और मुझे तू ले आई


 ना था मैं कभी पीने वाला ||


 


3-


स्वरा पान की इच्छा लेकर 


देखो कितने दीवाने आए |


बैठ गए मदिरालय आकर


 लुट जाने परवाने आए ||


 


4-


पहले जो "करने" में जीता था 


अब पी पी कर उर रीता है |


पहले घर में रहने वाला 


अब दुनिया बाहर की जीता है ||


 


5-


राजा थे जो लोग कभी


रंक उन्हें है कर डाला |


मधु विक्रेता को इस हाला ने


तिल से पहाड़ बना डाला ||


 


6-


जिनके स्वर सिंघनाद था


जो बाहुबली बन फिरते थे |


आज हाला का एक प्याला ले 


कभी गिरते कभी उठते थे ||


 


7-


बड़ी विडंबना इस जगती की 


जो मधुबाला के अधीन हुए |


 जो भूल गए वसुदेव कुटुंबकम 


 और जा हाला में लीन हुए ||


8-


मधु विक्रेता के ठाठ निराले आते-जाते पीने वाले |


मधुशाला की शान बढ़ाते 


घर की इज्जत मान घटाते ||


 


9-


 समय एक था जब कंठ से


 हूंकार सिंह की आती थी |ललकार एक ही जो शत्रु का 


सीना चीर सुलाती थी ||


 


10-


जिनके ह्रदय दया भाव था


 जिनके मन में थी करुणा |


आज अकेला चौराहे पर 


देता फिरता वह धरना ||


 


 Dr.B.K.Sharma


Uchchain (Bharatpur) Raj.


9828863402


भरत नायक "बाबूजी"

*"जंगल कटते नित्य ही"*


(कुण्डलिया छंद)


*************************


जंगल कटते नित्य ही, पर्यावरण न हेत।


बढ़ती नित नव आपदा, मानव अब तो चेत।।


मानव अब तो चेत, आग सूरज से बरसे।


नित-नित बढ़ता ताप, नीर को है जग तरसे।।


कह नायक करजोर, कहाँ हो शुभकर मंगल?


होगी हाहाकार, नहीं होंगे जब जंगल।।


****************************


*"सूरज उगले आग"*


         ( कुण्डलिया छंद )


----------------------------------------


सूखे नद-नाले सभी, सूख रही जलधार।


तापित रवि अब कर रहा, पल-पल प्रबल प्रहार।।


पल-पल प्रबल प्रहार, हरे कानन मुरझाये।


सूरज उगले आग, धूप है बहुत जलाये।।


कह नायक करजोरि, सभी जन-मानस रूखे।


बेकल हैं दिन-रात, छलकते सोते सूखे।।


-----------------------------------------


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


-----------------------------------------


कुमार🙏🏼कारनिक

सुबह🙏🏼सबेरे


              ^^^^^^^^^^^^^


//१//


 


रामभक्त हनुमान जी,कर हम पर उपकार।


भक्तन के संकट हरो, सबका कर उद्घार।।


 


//२//


 


रक्षक सबके हो तुम्ही, सब जपते हनुमान।


सभी झुकाते शीश को,मिलता है वरदान।।


 


//३//


 


करना यूँ व्यवहार तुम, बन जाए हर काम।


मान मिले संसार में,जप लो हरि का नाम।।


 


         *कुमार🙏🏼कारनिक*


***********


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

----परिवार का समाज राष्ट्र---      


 


मानव का रिश्तों से नाता ,रिश्तों का परिवार से नाता ।  


   


परिवारों का सम्माज से नाता परम्परा रीती रिवाज नाता ।।


 


 


संस्कृति, संस्कार , परिवार ,समाज का पहचान से नाता।     


                                       मानव से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट् का नाता।।                               


 


 


मानव का परिवार ,समाज ,राष्ट्र कि संस्कृति सम्ब्रिधि का राष्ट्र अभिमान से नाता।।                 


 


एक -एक मानव कि ताकत का संगठित ,सक्तिशाली परिवार ।।


  


 


मानव, मानवता के परिवारों का सम्ब्रिध, सबल ,समाज ।  


 


सुदृढ़ समाज से मजबूत, महत्व्पूर्ण ,सक्षम राष्ट्र।।


 


रिश्तों में समरसता ,विश्वास ,प्रेम सौहार्द सामजस्य परिवारों का आधार ।     


 


     


मर्यादा ,मूल्यों के मानव सम्बन्धों का बनता परिवार।।              


 


संबंधो में द्वेष, दम्भ ,घृणा का नहीं स्थान। , द्वेष ,दम्भ ,घृणा परिवारों के विघटन के हथियार।।             


 


छमाँ ,दया ,करुणा ,प्रेम ,सेवा का संचार संबाद सत्कार।    


 


मानव -मानवता के रिश्तों के परिवारों में प्रेम परस्पर सार्थक व्यवहार।                            


 


रिश्तों कि परिभाषा बैभव, विनम्रता का आचरण परस्पर विश्वास का रिश्ता परिवार।।    


 


माता ,पिता ,भाई, बहन चाचा चाची दादा दादी अनंत आदि रिश्तों का संसार परिवार।          


 


एक दूजे का सम्मान ,वेदना, संवेदना का एहसास परिवारो की बुनियाद।।                         


 


आज्ञा कारी सूत श्रवण, लक्षमण भाई बहन सुभद्रा।             


 


कच्चे धागों के रिश्तों का अदभूत का परिवार राष्ट्र अभिमान।।          


 


संतानो से दुखी माँ बाप भाई -भाई का शत्रु । विध्वंस ,विघटन, विवाद विपत्ति का पल ,प्रहर ,दिन ,रात का परिवार।।                         


 


विघटन ,विवाद ,बंटवारा रिश्तों का बिकृत स्वरूप् का साथ। बर्बादी ,टूटता ,बिखरता ,सिमटतासमाज परिवार।।                  


 


बिखरे ,बेबस रिश्तों ,परिवारो का लाचार ,मजबूर ,समाज। लाचार, मजबूर , परिवार समाज का गंगा ,बहरा अक्षम राष्ट्र ।।     


 


मजबूत इरादों का सक्षम राष्ट्र, समरस रिश्तों के परिवार समाज का राष्ट्। रिश्ते में एक दूजे से आस्था का वास्ता का परिवार, समाज,राष्ट्र।।                  


 


अहंकार ,अभिमान, मिथ्या में भागती दुनिया का त्याग।   


 


राष्ट्र धरोहर का धन्य पहचान का


 आत्मसाथ परिवार समाज राष्ट्र।।


 


बुनियादी परम्परा के परिवार समरस, समता मूलक समाज का राष्ट्र ।                              


 


कल्पना का सत्य ,सार्थक परिवार, समाज का राष्ट्र।                        


 


मजबूत इरादों दूर ,दृष्टि,साहस शक्ति का सक्षम परिवार, समाज राष्ट्र ।।                            


 


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


एस के कपूर "श्री हंस*"

*विषय ।।।।।वैभव।।।।।।।*


*।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*


*शीर्षक।।।। दिल की दौलत ही* 


*मनुष्य को वैभव शाली बनाती है।*


 


वैभव यश कीर्ति सम्मान का


आदमी भूखा हो गया है।


पर दिल से वह संवेदना शून्य


और सूखा हो गया है।।


पर असली वैभव तो मिलता


दिलों को जीतने से।


पर मनुष्य तो आज व्यवहार


में ही रूखा हो गया है।।


 


दे कर सम्मान व्यक्ति जीवन


में वैभव लाता है।


विनम्रता की सुगंध से जीवन


भी चमचमाता है।।


नकली धन दौलत नहीं नाम


वैभव का दूसरा।


दिल की जिंदादिली से ही


असली वैभव पाता है।।


 


बुद्धि विवेक ही मनुष्य को


गौरवशाली बनाते हैं।


साहसी उत्साही आदमी को ही


शक्तिशाली बुलाते हैं।।


अच्छे कर्म वचन ही तो मंत्र हैं 


हमारे वैभव निर्माण के।


ऐसे ही व्यक्त्वि के धनी मनुष्य


वैभव शाली कहलाते हैं।।


 


*रचयिता । एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।*


मो। 9897071046


                    8218685464


कवि सुनील कुमार गुप्ता

 


        *"तुमने"*


"मन की गहराईयों में साथी,


कुछ पल तो देखा होता-तुमने।


क्या-खोया क्या-पाया साथी,


अपने-बेगानों संग तुमने।।


अपनत्व की ही चाहत में साथी,


क्या-कुछ चाह था-जीवन में तुमने?


भटकता रहा मन हर पल साथी,


कब-जीवन में चैन पाया -तुमने?


मिले अपनत्व की छाया साथी,


पल पल यही तो चाह तुमने।


छोड़ चले जो संग साथ साथी,


क्यों-कहा हर पल साथी तुमने 


        *"तुमने"*


"मन की गहराईयों में साथी,


कुछ पल तो देखा होता-तुमने।


क्या-खोया क्या-पाया साथी,


अपने-बेगानों संग तुमने।।


अपनत्व की ही चाहत में साथी,


क्या-कुछ चाह था-जीवन में तुमने?


भटकता रहा मन हर पल साथी,


कब-जीवन में चैन पाया -तुमने?


मिले अपनत्व की छाया साथी,


पल पल यही तो चाह तुमने।


छोड़ चले जो संग साथ साथी,


क्यों-कहा हर पल साथी तुमने?"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःः 10-06-2020


दुर्गा प्रसाद नाग नकहा- खीरी

आज का ✍️✍️✍️


🥀🥀🥀((गीत))🥀🥀🥀


🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹


_____________________


दुनिया के रीति रिवाजों से,


एक रोज बगावत कर बैठे।


 


महबूब की गलियों से गुजरे,


तो हम भी मोहब्बत कर बैठे।।


_____________________


 


मन्दिर-मस्जिद से जब गुजरे,


पूजा व इबादत कर बैठे।


 


जब अाई वतन की बारी तो,


उस रोज सहादत कर बैठे।।


_____________________


 


दुनिया दारी के चक्कर में,


जाने की हिम्मत कर बैठे।


 


गैरों के लिए हम भी इक दिन,


अपनों से शिकायत कर बैठे।।


_____________________


 


जो लोग बिछाते थे कांटे,


हम उनसे इनायत कर बैठे।


 


पीछे से वार किये जिसने,


हम उनसे सराफत कर बैठे।।


_____________________


 


हमने अहसानों को माना,


वो लोग अदावत कर बैठे।


 


हर बात सही समझी हमने,


वो लोग शरारत कर बैठे।।


_____________________


 


उनके जीवन की हर उलझन,


हम सही सलामत कर बैठे।


 


पर मेरी हंसती दुनिया में,


कुछ लोग कयामत कर बैठे।।


_____________________


🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹


 


दुर्गा प्रसाद नाग


नकहा- खीरी


मोo- 9839967711


राजेंद्र रायपुरी

😌 जो आया है उसको जाना 😌


 


अटल सत्य ये, रार करे क्यूं।


  उर्जा निज़ बेकार करे क्यूं।


    जो आया है उसको जाना।


      सत्य यही, इंकार करे क्यूं।


 


रचा चक्र है यही विधाता।


  इक आता है, दूजा जाता।


    माटी का तन माटी मिलना,


      तू इतना तक़रार करे क्यूं।


 


मान कहा तू मेरा भैया।


  मत कर इत-उत ताता-थइया।


    जिस तन को इक दिन जल जाना,


      उससे इतना प्यार करे क्यूं।


 


काम न आएगा ये पैसा। 


  लाख बहा पानी के जैसा।


    जाना ही होगा तुझको भी,


      भले दान सौ बार करे तू।


 


बुना उसी ने ताना - बाना। 


  किसको कब कैसे हैं जाना।


    फेर-बदल कुछ हो न सकेगा,


      उछल - कूद बेकार करे तू।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*11


शुद्ध सोच के आसव का यदि,


यह दुनिया नित पान करे।


सकल भेव रँग-रूप-जाति का-


चले नहीं चतुराई है।।


       करती है गुणगान लेखनी,


       आसव की इस महिमा का।


        नहीं लेखनी लिखती कोई-


         आसव ही लिखवाई है।।


प्रबल प्रभावी यह द्रव आसव,


आसव इक द्रव निर्मल है।


हितकर सोच रचे यह मन में-


इसमें गुण अधिकाई है।।


       मंद बुद्धि का है वह मानव,


       जो इसको बस पेय कहे।


       पेय तो है यह लेकिन अमृत-


       की इसमें बहुताई है।।


कहना-सुनना लगा ही रहता,


यही रीति है दुनिया की।


मग़र लेखनी मतिमंदों को-


सच्ची राह दिखाई है।।


        आसव-आसव-आसव ही है,


        प्रीति-पुस्तिका का शिक्षक।


        पा प्रेमी ने शिक्षा जिससे-


        प्रीति की रीति निभाई है।।


आसव की ही करें प्रशंसा,


ऋषि-मुनि-ज्ञानी-ध्यानी सब।


इसका नित-नित पान ही करके-


सरिता-ज्ञान बहाई है।।


        लेकर डुबकी ज्ञान-सरित में,


        सरल प्रकृति-साधारण जन।


        निज तन-मन को शुद्ध हैं करते-


        दुर्गुण-रेख मिटाई है।।


सुरभित आसव मधुरालय का,


वेद-मंत्र सम उत्प्रेरक।


निष्क्रिय तन-मन-वाचा स्थित-


भ्रम से मुक्ति दिलाई है।।


      मधुरबोल जन मधुरालय के,


      मृदुल हृदय तन धारी हैं।


      देव तुल्य यह लगता आलय-


       मुदित मोद-मृदुलाई है।।


अति सुरम्य है आबो-हवा औ',


मलयानिल इव पवन ढुरे।


प्रकृति कामिनी ढल प्याले में-


स्वयं छटा बन छाई है।।


       मनमोहक नित नवल छटा सी,


       छवि मधुरालय की लगती।


       पुष्प-गंध-मकरंद मस्त चख-


       भ्रमर-गीत मधुराई है।।


सुरभित आसव पीकर राही,


का हिय हुलसित हो जाता।


उसको लगता किसी ने जैसे-


लय सप्तम की गाई है।।


                ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


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