काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार प्रिया चारण

प्रिया चारण


माता- निर्मला चारण


जन्म तिथि- 8 /7/1999


उम्र- 21


जन्म स्थान - नाथद्वारा राजसमंद राजस्थान


पता - कृष्णा कॉलोनी उपली ओडन नाथद्वारा


(राजसमंद) राजस्थान


स्थाई पता - गड़वाड़ा ,भीमल मावली, उदयपुर राजस्थान


छात्र- बी.एस.सी कृषि विज्ञान 


रुचि- नृत्य ,कविता लेखन, सामाजिक कार्य 


NCCकैडेट , STV सेवक


 


कुछ चंद शब्द आपके चरणों मे प्रस्तुत।


 


शीर्षक ~ फिर से सतयुग आएगा


 


फिर से सतयुग आएगा ,


भारत विश्व विजेता कहलाएगा ।।


कोरोना का कहर पडोसी देश बरसाएगा ।


जनता कर्फ्यू वायरस की चैन तोड़ जाएगा। 


 


फिर से सत्ययुग आएगा,भारत...


तीसरा विश्व युद्ध "बायो वॉर" ही जाना जाएगा ।


संसार में हा हा कार मच जाएगा ।


एक वायरस लाशो के ढ़ेर लगाएगा ।


फिर से सतयुग आएगा,


भारत विश्व विजेता कहलाएगा ।।


 


भारत विश्व गुरु का ओहदा पाएगा ।


इटली लाशो से भर जाएगा ।


भारत की संस्कृति हर देश अपनाएगा ।


नमस्ते को अपने आचरण में लाएगा ।


फिर से सतयुग आएगा, 


भारत विश्व विजेता कहलाएगा।


 


हर कोई अपने घरो में छिप जाएगा ,


झरोखे से नजरे फहराएगा ।


हिंदुस्तान फिर से हिन्दू संस्कृति अपनाएगा ।


राम मंदिर का कार्य चला है ,


राम राज्य भी आएगा ।


फिर से सतयुग आएगा ,


भारत विश्व विजेता कहलाएगा ।।


 


प्रिया चारण


 


 


शीर्षक-  समंदर के शहजादे 


 


हम समंदर के ,शहजादे


धरती पर भी फर्ज निभाते है ।


हम अरिहंत चक्र से, समंदर की गहराई नाप आते है।


हम क्षितिज से भी ,बाते साथ ही कर जाते है।


हम विक्रमादित्य सी दुनिया, समंदर के सीने पर बसाते हैं।


हम 1 राज नेवल एन.सी.सी के कैडेट कहालाँते है।


जो हिन्द के कठिन समय में अपनी परवाह किये बिना ,,


कोरोना योद्धाओं के साथ कंधे से कंधा मिलते है।।


 


हम समंदर के शहजादे।


धरती पर भी फर्ज निभाते हैं


 


दुश्मन या कोरोना क्या हमे कफन पहनाएगा-2


हम तो खुद कफन का रंग शोख से चुन आते है।


हम तिरंगे के तीन रंगों से सफेद रंग चुन आते है।


हमे किसी ओर रंग की चाह नही,,


हम तो इसी पर जान लुटाते है


हम शहादत को गले लगाते है।


कफन को भी वर्दी समझ पहन जाते है।


तभी तो हम भारतीय नौसेना कहलाते है।


हम समंदर के शहजादे


धरती पर भी फर्ज निभाते है


"Ncc"के हम नन्हे कैडेट कमजोर न समझना हमे कोरोना


हम भी उसी पेड़ के पत्ते है,,


सोचो हम अगर मिलकर लड़ने आएंगे ,


तो कितना तुज पर कहर बरसाएंगे।


मोदी जी की अपील का अब परिणाम दिखलाएंगे।


हम समंदर के शहजादे


धरती पर फर्ज निभाएंगे।।


वक्त आया है चलो तुम भी आओ, 


कंधो से कंधा मिलाओ ,कदमो से कदम मिलाओ,,,,


चलो पुलिस ,सफाईकर्मी ,बैंकर और 


हर नागरिक के संम्मान में तिरंगा फहराते है।


हम समंदर के शहजादे ,


धरती पर भी फर्ज निभाते है ।।


 


प्रिया चारण


 


 


शीर्षक ~" में लिखने का शोक रखती हूँ "


 


में लिखने का शोख रखती हूँ ,,।


पर क्या? लिखूं , लिखने से डरती हूँ,,।


मैं अपने कुछ जज़्बात अपने अंदर ही रखती हूँ ।


ल मैं लिखने से डरती हूँ , पर अंदर ही अंदर ,


सबसे छिपकर छिपाकर इतिहास रचती हूँ ।


 


मैं लिखने का शोक रखती हूँ ,,।


पर क्या ?लिखूं लिखने से डरती हूँ ।


मैं हर रोज़ उडान तो भरती हूँ, पर ज़माने से डरती हूँ ,,,।


 


क्या कहेंगे लोग, यहाँ सबकी है ,यही सोच


इस सोच से हर शाम बिखरती हूँ ।।


 


में लिखने का शोख रखती हूँ,


पर क्या? लिखूं लिखने से डरती हूँ ,,।।


मैं खुदको हार कर भी, 


दुनिया को जीतने का शोख़ रखती हूँ ।


नन्ही चिड़िया सी हुँ , घोसले को खोने से डरती हूँ ,,,


फिर भी दाना लेने को हर सवेरे उडान भरती हूँ ।।


 


मैं लोखन का शोख़ रखती हूँ 


पर क्या? लिखूं लिखने से डरती हूँ ।।


 


प्रिया चारण


 


शीर्षक ~ देश हित


 


देश हित मे कुछ करे ।।


चलो आओ थाली भी बजाले ,ताली भी बजा ले,


अब चिताए नही, कुछ होसलो के दिये जला ले,


 


चलो थोड़ा मुस्कुराकरा ले,


चलो मजहब को पीछे छोड़ ले ,


चलो एक बार इंसानियत का नाता जोड़ ले,


 


चलो अजान से लेकर मंदिर की घण्टी ,अपने घर मे बजा ले


चलो चर्च की मोमबत्ती से लेकर,


गुरिद्वारे का लंगर ,किसी गरीब के घर मे करादे,,


 


चलो सारि राजनीति से ऊपर उठ कर,


एक बार मोदी जी का साथ निभा ले ,,, 


 


चलो इस बार कागज के टुकड़े छोड़


अपना देश और अपनी जान बचा ले,


 


चलो  जय हिन्द केे नारे लगाते है।


हम भी भारत के चौकीदार बन जाते है ।


चलो देश के प्रति अपनी देश भक्ति दिखाते है।


 


चलो प्रकृति को स्वयं स्वच्छ होना का अवसर दे ,,


लॉकडौन का पालन स्वयं कर अपने परिजनों से करा लें,


चलो देश हित मे कुछ करे।


देश हित मे कुछ करे ।।


प्रिया चारण


 


 


शीर्षक ~ नारी करुणा का ज्ञान


 


नारी करुणा का ज्ञान, प्रेम का रसपान ।


नारी वीरता का जीता जागता प्रमाण ।


नारी विश्व विख्यात ज्ञान ।


नारी सहन शक्ति का परिणाम ।


नारी हर कार्य का विस्तार ।


नारी शक्ति का वर्चस्व है,अपार ।


 


नारी करुणा का ज्ञान, प्रेम का रसपान ।।


नारी दो कुलो को जोड़ती, प्रेम का धागा बन ,


परिवार के हर मोती को पिरोती,


पर आँख में आंसू आए तो ,


किसी कोने में अकेली ही, है रोती ,,,।


 


नारी करुणा का ज्ञान ,प्रेम का रसपान ।।


माँ ,बहन, बहू ,बेटी ,पत्नी सभी रिश्ते एक साथ


अपनी हर खुशी से सींचकर निभाती,, ।


पर न जाने क्यू सम्मान नही है,वो पाती,,,


जगत जाननी माँ अम्बे गौरी क्यू 


सिर्फ नवरात्रि में ही पूजी जाती,,,


क्यों कन्या भ्रूण हत्या के समय


वो तस्वीर किसीको नजर नही आती।।


नारी करुणा का ज्ञान , प्रेम का रसपान ।।


 



 


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली।।

*मत कहो मत करो कि आ "कॅरोना" मुझे मार।।।।।।।।।*


 


बाहर निकलने से पहले सोचो


जरा एक बात जरूरी।


क्या जिंदा रहने से भी ज्यादा


जरूरी है कोई मजबूरी।।


संक्रमण चरम पर और अभी


है बचना आवश्यक।


जाना यदि आवश्यक तो रहे


सदैव दो ग़ज़ की दूरी।।


 


धैर्य रखो कि देखते देखते यह


वक़्त भी निकल जायेगा।


छंट जायेगा अंधेरा और फिर से


वही उजियारा छायेगा।।


हर तरफ खोज जारी है मानवता 


को बचाने के लिए।


हमारे कॅरोना योद्धायों का अथक


परिश्रम रंग लेकर आयेगा।।


 


कोई भी दुःख आता जीवन में कुछ


अलग सिखाने के लिये।


क्या हो रहा था धरती पर गलत ये


सब कुछ बताने के लिये।।


कुछ बदलाव होते बहुत जरूरी हर 


संकट हमें बतलाता है।


बदलें देश समाज को ये बात जरूरी


हमें समझाने के लिये ।।


 


*रचयिता।एस के कपूर"श्री हंस"*


*बरेली।*


*मोब।।* 9897071046


                   8218685464


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को"*


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(लावणी छंद गीत)


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विधान- १६,१४ मात्राओं के साथ ३० मात्रा प्रतिपद। पदांत लघु गुरु का कोई बंधन नहीं। युगल पद तुकबंदी।


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●धरा कहे सरसा दो जल से, वासव! मम उर-अंतर को।


तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।


नीर-दान दे आज सँवारो, मेरे तन-मन जर्जर को।


तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।


 


●मेरा तप कब होगा पूरा? हे घनवाहन! बतलाना।


खंजर-दाघ-निदाघ भोंक अब, छलनी और न करवाना।।


व्याकुल होकर आज धरा है, करे पुकार पुरंदर को।


तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।


 


●कृष्ण-मेघ बरसोगे कब तुम? मुझको कब सरसाओगे?


तृषित चराचर चित चिंतन को, बोलो कब हरसाओगे??


करो वृष्टि अब सृष्टि तृप्त हो, रच भू-गगन स्वयंबर को।


तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।


 


●नित उजाड़ शृंगार धरा का, हरियाली को तरसेंगे।


बची रहेगी अटवी अपनी, बादल भी तब बरसेंगे।।


देखे मन मारे महि-मीरा, अपने अंबर-गिरधर को।


तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।


 


●जीव जंतु नग नदियाँ घाटी, तरस रहे हैं पानी को।


प्रतिबंधित अब करनी होगी, मानव की मनमानी को।।


ताप नित्य बढ़ता है वैश्विक, ज्ञान गहो अब उर्वर को।


तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।


 


●आये दिन यह मानसून भी, अब धोखा दे जाता है।


हाल हुआ है बद से बदतर, फाँसी कृषक लगाता है।।


त्राहिमाम भू कहती "नायक", पुकारती है ईश्वर को।


तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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सुनीता पाठक

मेरे ख्वाबों में अक्सर ही, उसका लगता डेरा है।


मेरा ना होकर जाने क्यों, फिर भी लगता मेरा है।।


छुपा हुआ है दिल में या तो, आसपास ही लगता है,


 नजर नहीं आता है छुप-छुप, वह ठग मुझको ठगता है,


 मैं महसूस उसे करती हूं,हर पल इन्हीं हवाओं में,


मैं जगती हूं उसकी खातिर, शायद वह भी जगता है,


उसकी यादों ने चौतरफा, हर पल मुझको घेरा है।


मेरा ना होकर जाने क्यों, फिर भी लगता मेरा है।।


नैनों के रास्ते से होकर ,मेरे दिल में उतर गया,


खुशबू बनकर आसपास वो,जैसे मेरे बिखर गया


बाहों में भर लेती हूं मैं, हर पल उसे खयालों में,


सोच सोच कर मेरा चेहरा, कुंदन जैसा निखर गया,


 इक पल भी उसको भूलूँ तो, दिन भी लगे अंधेरा है।


मेरा ना होकर जाने क्यों, फिर भी लगता मेरा है।। 


अपनों से भी बढ़कर के वो, लगता है मुझको अपना,


सच से भी ज्यादा मुझको, भाता है यह उसका सपना,


हर दिन हर पल झुलसाती हूँ,मैं अपने इस तन मन को,


उसकी यादों की भट्टी में ,अच्छा लगता है तपना,


अपनी आभा को अपना लो,अब भी बहुत सवेरा है ।


मेरा ना होकर जाने क्यों, फिर भी लगता मेरा है।।


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(पावस)


होता बड़ा है दिलकश,बरसात का मौसम,


पायल की छमा-छम,लगे बरसात झमा-झम।।


 


माटी की सोंधी खुशबू, की बात क्या करें,


खुशबू के घर में जैसे,छा जाता है मातम।।


 


प्यासी धरा प्रफुल्लित, मर जातीं गर्मियाँ,


निरख प्रवाह जल का,किसान भूले ग़म।।


 


चारो तरफ़ हरीतिमा,छा जाती खुशनुमा,


धानी चुनर में धरती सज जाती चमाचम।।


 


संगीत-गीत पावस,लेता है दिल चुरा,


लगता है बजने मीठा,ये झींगुंरी सरगम।।


 


झूले से सज हैं जातीं,वृक्षों की टहनियाँ,


सब झूलते हैं झूला,गा कजरी मनोरम।।


 


मोरों के भाव नर्तन,लख मोहिनी अदा,


बादल पिघल के करते,सूखी धरा को नम।।


 


बैठी हुई निज कक्ष में,मायूस नायिका,


प्रियतम को दे संदेश,मेघों से हो विनम्र।।


 


बरसात पे ही होती,आश्रित ये जिंदगी,


पावस ही करती दाना,-पानी का उपक्रम।।


                ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                    9919446372


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

भूख दुनियां के क्या -क्या 


रंग ,रूप,राह दिखती ।


कभी रुलाती कभी हंसाती 


भूख रोटी कि जाने क्या क्या 


दिन दिखती।।


भूख इंसान को जाने कौन से दर भटकाती।


भूख इंसान को ताकत का मशीहा ,कमजोर बनती।


भूख जिंदगी कि मंजिल मकसद बताती।।


भूख शौख भी ,भूख जिंदगी ,


भूख भय ,दहसत ,कहर, कोफ़्त 


बन जाती।


शोहरत कि भूख इंसान को देवता,


शैतान बनती ।।


दौलत कि भूख इंसान को चोर,


बेईमान बनाती।


भूख रोटी कि जिंदगी कि सांसो


धड़कन के लिये जरुरी।


जूनून भी भूख चाहतो कि


मोहब्बत ,दुनियां, संसार हासिल का दीवाना गुरुरि।।


परवानो कि तड़फ इश्क के अश्क रुलाती हंसती।


आरजू कि मंजिल कि भूख 


नज़रों के इंसान को अँधा बनती।।


सरहदों पे दिन रात मरता है 


जवान वतन पे मर मिटने का 


जज्बा भूख जागती।


मर जाता वतन पे ,कफ़न तिरंगे का ओढ़ भूख जवाँ के जज्बे को


अमर शहीद बनती।।


भूख आग है ,जिसकी लपटों में दुनियां जल जाती।


भूख भयंकर क्रांति कि ज्वाला,


भूख शांति का पैगाम सुनाती।।


भूख एक मशाल है दुनियां में 


मिशाल बनती ।


पेट कि आग भूख है


ख्वाहिसों ,चाहतो का हद जुनूं 


भूख है।।


भूख क्रोध, काल जागती 


भूख भ्रम का भयंकर बनाती 


भूख करुणा, दया का पात्र 


बनती।। छुधा से भूख कि शुरुआत


भूख अग्नि है ,भूख चाहत जूनून है।


भूख मकसद कि महिमा का ज्वलित ,प्रज्वलित प्रवाह है ।।


भूख हुस्न ,इश्क कि इबादत ,  


भूख जज्बात ,भूख कर्म है ,भूख धर्म है ,भूख काम ,भूख आम है,


प्राणी प्राण है।।


भूख गम ,ख़ुशी ,आसु ,मुस्कान 


छुधा कि भूख मिटाने में प्राण प्राणी परेशान है।


छुधा कि भूख शांत होते ही 


तमाम भूखो कि आग कि लपटों में झुलसता प्राणी प्राण है।।


भूख कि रोटी या मकसद कि भूख दोनों ही में प्राणी के प्राण है।


रोटी कि भूख जिंदगी ,मकसद कि भूख जूनून ,पागलपन ,दीवानापन जिंदगी की पहचान है।।


दोनों ही जिंदगी के लिये जरुरी


दोनों से ही मिलती प्राणी कि जिंदगी प्राण पहचान ।


दोनों में ही जिंदगी प्राणी प्राण की


आदि ,मध्य ,अनंत यात्रा का महाप्रयाण है।। 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश'  महराजगंज

एक कविता 


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विषय:- 'कलमकार' 


 


 


राष्ट्र धर्म के पथ पर चलता 


कर्तव्यनिष्ठ अडिग मैं रहता 


सजग राष्ट्र का पहरेदार हूँ, 


क्योंकि मैं कलमकार हूँ।.....


 


कलम को हथियार बनाता 


शब्दों में मारक क्षमता लाता 


मैं समाज का जिम्मेदार हूँ,


क्योंकि मैं कलमकार हूँ।........


 


इतिहास हमें है बतलाया 


जब राष्ट्र पर संकट आया 


तब-तब बना स्तम्भकार हूँ, 


क्योंकि मैं कलमकार हूँ।....... 


 


पीड़ित होता शोषित-वंचित 


श्रमिक सर्वहारा अपवंचित 


कलम बनाता हथियार हूँ, 


क्योंकि मैं कलमकार हूँ।...... 


 


आतंकवाद व नस्लवाद से 


भ्रष्टाचार व जातिवाद से 


करता सबको खबरदार हूँ, 


क्योंकि मैं कलमकार हूँ।...... 


 


मानवता को पोषित करता


सर्वधर्म को पुष्पित करता 


सर्व दृष्टि में असरदार हूँ, 


क्योंकि मैं कलमकार हूँ।..... 


 


मैं समाज का चित्तवृत्ति हूँ


उसका संचित प्रतिबिम्ब हूँ 


शिक्षित हूँ और सदाचार हूँ,


क्योंकि मैं कलमकार हूँ।....


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


महराजगंज, उ० प्र०


मो० नं० 9919886297


सम्राट की कविताएं

ख्वाब,


जो आँखों मे आता है


सोने के बाद,


इसके बहुत सारे प्रकार होते हैं


जैसे मीठे ख्वाब, कडवे ख्वाब, स्वादिष्ट ख्वाब, नमकीन ख्वाब, डरावने ख्वाब, मनभावन ख्वाब, इत्यादि।


पर सभी प्रकार के ख्वाबों में एक चीज समान होती है


और वो ये की इनको सोने के बाद ही देखा जा सकता है।


पर इस ब्रह्मांड में कुछ ऐसे भी विचित्र प्राणी होते हैं


जो बिना सोए ख्वाबों की दुनिया मे चले जाते हैं


ऐसे विचित्र प्राणियों को 


मूल रूप से आशिक कहा जाता है


जिनको इस दुनियां के मोह माया से कोई मतलब नहीं होता।


वैसे इनको मतलब तो और भी किसी चीज से नहीं होता।


ये प्राणी लगभग 15 से 30 साल की उम्र तक ही ज्यादातर पाए जाते हैं।


ये प्राणी धर्म, मजहब, सम्प्रदाय, और जाति का भेद न कर के


सबको एक समान ही देखते हैं।


अगर यू कहा जाए कि ये किसी को नहीं देखते तो भी अनुचित नही माना जाना चाहिए।


इन प्राणियों की खास निसानी ये है कि समाज के लोग इनको नकारा,निक्कमा,बेकार,आवारा,लोफर, समझते हैं।


इनकी एक अलग ही बिरादरी होती है।


जिसमे इनको बहुत सम्मान की नजर से देखा जाता है।


इन प्राणियों के कुछ खास गुण भी होते हैं जो इस प्रकार है।


ये बिना किसी काम के बैठे बैठे किसी की ख्वाबों में खोए आराम से दिन गुजार सकते हैं।


इनका सबसे बड़ा और एकलौता ख्वाब होता है 


अपनी महबूब की आँखों, बाहों, केसों में सदा रहने की।


खैर ऐसे प्राणी भी आज के इस सोसल मीडिया के जमाने मे धीरे धीरे विलुप्त हो रहे हैं।


और उसका कारण है सोशल मीडिया,


क्योंकि हर समय लोगों को लोगों के बारे में जानने की इक्षा रहती है


जिससे लोग झूठ भी बोलने लगे हैं


और लोगों के व्योहार में तो असमान्य बदलाव आया है।


इस बदलाव से ख्वाब पर बहुत बुरा असर हुआ है


और आज कल लोग ख्वाब देखना कम और वीडियो चैट ज्यादा करने लगे हैं।


अब इस दौर में कोई ख्वाब की बात करता है तो मुझे ये याद आता है।


 


मोबाइलों के दौर में ख्वाब की बात करते हो सम्राट,


नशे में हो या यहाँ की आबो हवा से कोसों दूर हो।।


 


©️सम्राट की कविताएं


शिवानंद चौबे जौनपुर

बचपन -


चढ्ढी पे गंजी एक पैर चप्पलें नहीं।


धूप लू बयार हो कुछ भी खलें नहीं।


बालू में जलें पैर तो उपचार था गजब।


दौड़ो, खड़े हो घास पर तो पग जलें नहीं।।


सुनकर कड़क नगाड़े की घर से निकल गए।


नौटंकी देखने को हो के बेअकल गए।


अाया मजा तो रात बैठ देखते रहे।


लौटे तो डर से देह के कलपुर्जे हिल गए।।


सोंचा ये दांँव पेंच गाय खोल चल पड़े।


उसको चराने घात लगा कर निकल पड़े।


गाय पड़ी खेत में हम नींद में गाफिल।


मारे पिताजी लात मेंड से फिसल पड़े।।


गेहूंँ कभी नसीब जाग जाए खाइए।


जौ सात माह डाल पेट में पचाइए।


बाकी तो श्यामरंग की बजड़ी बहार थी।


रोटी से ऊब भात या खिचड़ी बनाइए।।


आए कोई मेहमान तो मिलती थी मिठाई।


वरना तो रोज होती थी गुड़ की ही खवाई।


भेली से बड़ा प्यार था थी जानेमन वही।


मांँगे नहीं मिलती थी तो जाती थी चुराई।।


घर में था अन्धकार छोंड़ि हाथ डाल के।


हम हो गए मगन बड़ी भेेली निकाल के।


मालुम नहीं था झाड़ू वहीं माँ लगा रही।


खांँसी तो भाग हम चले भेली उछाल के।।


स्कूल में पढ़ाई कम थी मार अधिक थी।


सिर पे सरस्वती मेरे सवार अधिक थी।


संस्कृत के शब्दरूप में जरा सी गड़बड़ी।


तो चार छड़ी एक साथ धार अधिक थी।।


चारे को बाल खेत का भी काम किए हैं।


सोकर उठे तो खेत में विश्राम किए हैं।


आए नहाए खाए फिर स्कूल पहुंँचकर।


गुरुवर इनाम छड़ी से तमाम दिए हैं।।


घर आने पर ट्यूशन की क्लास लेते पिता जी।


खुद लेटते पैताने जगह देते पिता जी।


पूछे जो उसमें एक का जवाब न दिया।


तो जोड़ा लात तान हचक देते पिताजी।।


पुरखे मनुज के कीस थे साबित गलत हुआ।


थे डार्विन खबीस तो साबित गलत हुआ।


हमको दुलत्तियों से यही ज्ञान मिला है।


शायद गधे थे कपि थे ये साबित गलत हुआ।


बचपन जो गया बीत अगर लौट आयेगा।


फिर से पढ़ो लिखो यही पैग़ाम लाएगा।


पर जो चलाते थे पिताजी लात औ जूते।


उसको बताओ अा के किसका बाप खाएगा।।


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

" आपसी सहयोग "


इंसान अकेला रहकर समग्र कार्य नहीं कर सकता


कहावत है न-अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता


जीवन में आपसी सहयोग अत्यंत जरूरी है वैसे ही जैसे


अनेक फूलों को धागे में चुनें तो माला बनती है


परस्पर होता है सहयोग तो मुश्किलें आसान होती हैं


फिर जो चाहे सभी तो मरुधरा में भी नदियाँ बहती हैं


इंसान अगर मिल जाये तो आसमान भी छोटा है


जीवन में आता हर क्षण खुशियों का स्त्रोता है


सहयोग रहे सबका तो हर मुश्किल आसान है


सागर, पर्वत भी फिर उसके लिए लांघना आसान है 


मिले देव-दानव जब तो मिलकर किया सागर मंथन


निकली अमूल्य वस्तुएँ मंथन से संसार के लिए चिरन्तन


एक- एक सैनिक जब मिलता सैन्य टुकड़ी बन जाए


सीमा पर आपस में मिल दुश्मन के छक्के छुड़ाएँ


मिलता जब सहयोग तो एक औऱ एक ग्यारह बन जायें


सब मिल नए समाज की नींव रख रामराज ले आयें


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


अविनाश सिंह

*कृष्ण नगरी मथुरा पर हाइकु*


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*इस हाइकु के माध्यम से आप सम्पूर्ण मथुरा के दर्शन कर लेंगे*


 


कृष्ण की बंसी


गोपियां मंत्रमुग्ध


नाचे ठुमुक।


 


राधे के कृष्ण


बजाते है बाँसुरी


मथुरा खुश।


 


यशोदा लल्ला


करे माखन चोरी


नंद के गाँव।


 


गोकुल धाम


कृष्ण का बाल्यकाल


रमण रेती।


 


गोपियां रूठी


बंसी के तान सुन


करे विलाप।


 


प्रेम का स्थल


वृंदावन नगर


मन विभोर।


 


कृष्ण के मित्र


सुदामा भद्र भोज


रहे अभिन्न।


 


ब्रज की होली


गुलाल और फूल


मन प्रफुल्ल।


 


मिश्री के भोग


बरसाने की राधा


दिल को भाता।


 


गिरिराज जी


करते परिक्रमा


मिले महिमा।


 


नंद के लाल


बसे मथुरा धाम


रास रचाये।


 


स्वर्ग नगरी


मथुरा वृंदावन


करो दर्शन।


 


जो नही देखा


बरसाना की होली


खाली है झोली।


 


असली होली


है लट्ठमार होली


मन को भाये।


 


जो ब्रज आये


खाली हाथ न जाए


प्रेम ले जाए।


 


फूलों की होली


लड्डू गोपाल संग


मन प्रसन्न।


 


*अविनाश सिंह*


*लेखक*


प्रिया चारण उदयपुर राजस्थान

जीवन जीने का सलीका


 


सुबह माँ की मीठी आवाज़ से


सुप्रभात हो सूर्य नमस्कार से


 


फिर एक सुबह का भ्रमण हो


जिसमे चारो दिशाओ का गमन हो


 


मंदिर में प्रातः काल नित् जाऊ


मस्जिद पर भी दुआ माँग आऊ


गुरुद्वारे का लंगर भी चख आऊ


चर्च की मोमबत्ती से जीवन जग मगाऊ


 


अपनी सोच को उच्च कोटि का बतलाऊ


पर आचरण में तनिक भी अभिमान न दिखलाऊ


 


अपनी माँ के चरणों मे जन्नत तलाशता


अपने काम पर हर रोज़ निकल जाऊ


 


बुजुर्गों से आशीर्वाद पाता,


में अपने वतन को न्योछावर हो जाऊ


 


ना कुबेर का खजाना बनाऊ


न नेता का ठिकाना बनाऊ


जितना मिले उसमे खुशी से जीवन बिताऊँ


 


सीधा सरल जीवन जीने का सलीका


में सबको बतलाऊँ


 


प्रिया चारण


उदयपुर राजस्थान


सत्यप्रकाश पाण्डेय

तेरे चरण कमल स्पर्श से


पावन वृज की धूल


कालिंदी जल निर्मल हुओं


मेंटे संतन शूल


 


बृषभानु सुता व बृजठाकुर


मुझको लो अपनाय


दुर्भावनाएं दूर रहें


दो अज्ञान मिटाय


 


धर्म पथ का अनुशरण करूं


जपूं आपका नाम


मेरा बृज हिय पावन करो


राधे सह घन श्याम।


 


युगलरूपाय नमो नमः👏👏👏👏👏🌹🌹🌹🌹🌹


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


<no title>सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


  *"जीवन अपना पहचाने"*


"इतनी ख़ुशी मनाओं साथी,


पल-पल मन महके तन चहके।


इतना संग निभाओ साथी,


यहाँ साथी न फिर से बहके।।


दुर्लभ जीवन जग में साथी,


जन-जन जग में इसको जाने।


तन डूबा स्वार्थ में साथी,


कहाँ-मन यहाँ इसको माने?


माने जो मन इसको साथी,


यहाँ जीवन सफल है-जाने।


भक्ति में लगा तन-मन साथी,


फिर जीवन अपना पहचाने।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta


ःःःःःःःःःःःःःःःः


         14-06-2020


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली।।

*विषय।।।हूंकार।।।।।।।।।।।।।।।।* 


*शीर्षक।।।मैं हिन्द की हूंकार हूँ।।।*


*विधा।।।पद्य।।।।छंदमुक्त(तुकांत)*


 


*मैं हिन्द की हूंकार हूँ।।।।।।*


 


मैं ऋषि मुनियों का ज्ञान हूँ।


मैं पुरातन मूल्यों का गुणगान हूँ।


मैं इस पुण्य माटी की शान हूँ।।


 


मैं संस्कारों की इक शाला हूँ।


मैं गीता की पाठ शाला हूँ।


मैं महाभारत की भी हाला हूँ।।


 


मैं राम कृष्ण की धरा हूँ।


मैं एक शान्ति दूत सा खरा हूँ।


मैं इतिहासों से भी भरा हूँ।।


 


मेरी विश्व में ऊंची शान है।


सहयोग ही मेरा ईमान है।


पर पराक्रम पर अभिमान है।।


 


मैंने दुश्मन को धूल चटाई है।


बस तिरंगे की शान बढ़ाई है।


शत्रु पर भी करी चढ़ाई है।।


 


हर भाषा जाति धर्म और वर्ग है।


जैसे बसता धरती पर कोई स्वर्ग है।


विविधता में एकता बस मेरा तर्क है।।


 


गुलशन हरियाली और बाग बगीचे।


झीलें नदिया पर्वत ऊपर नीचे।


गंगा यमुना इस मिट्टी को सींचें।।


 


मेरे मस्तक पर हिमालय सिरमौर है।


तीन ओर सागर का छोर है।


सबसे बड़ा लोकतंत्र नहीं कोई और है।।


 


मैं तुलसी, गौतम ,गांधी गौरव गान हूँ।


मैं अपना भारत देश महान हूँ।


मैं धरा पर जैसे स्वर्ग समान हूँ।।


 


मैं बन रहा आत्म निर्भर बाजार हूँ।


मैं हर अधर्म के लिये प्रतिकार हूँ।


दुश्मन के लिए काल का वार हूँ।।


*मैं हिन्द की हूंकार हूँ।।।।।।।।।।।*


*मैं हिन्द की हूंकार हूँ।।।।।।।।।।।।*


 


*रचयिता।।।।एस के कपूर श्री हंस*


*बरेली।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*


मोब 9897071046।।।।।।।।।।।


8218685464।।।।।।।।।।।।।।।।


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"जाना होगा छोड़"*


(कुण्डलिया छंद)


°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°


●आया जो संसार में, जाना निश्चित जान।


मेहमान सब हैं यहाँ, चार दिनों का मान।।


चार दिनों का मान, गर्व कर मत इठलाना।


जिसका जैसा कर्म, सभी को है फल पाना।।


कह नायक करजोरि, जोड़ लो जितनी माया।


जाना होगा छोड़, यहाँ जो भी है आया।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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डॉ0हरि नाथ मिश्र

*दोहा गीतिका 


सच्चा प्रेमी तो सदा,करता प्रेम अभीत।


उखड़े-उखड़े आज-कल,क्यों मेरे मनमीत??


 


यह तन तो बिल्कुल नहीं,प्रीति-भाव-आधार।


प्रेमी-छवि हिय में बसे,देह-गेह विपरीत ।।


 


कारण हमें बताइए,हे प्रियवर,हे प्राण।


प्रेम-भाव है देव सम,शुचि हिय,परम पुनीत।।


 


था वियोग कल अब मिलन,यह तो भौतिक बात।


भौतिकता से दूर ही, बजे प्रेम - संगीत ।।


 


प्रभुता-लघुता से रहित,प्रेम-भाव-अनुभूति।


जीत इसी की हार है,हार निहित ही जीत।।


 


रूठे प्रेमी को अभी,कर लें सभी प्रसन्न।


गा कर हर्षित हृदय से,मधुर-सुरीला गीत।।


 


रूठो मत हे मीत तू,समझ प्रीति-संकेत।


अब में तब में ही कहीं,रजनी जाय न बीत।।


                  ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

अविरल धारा


प्रभा प्रवाह है जिंदगी


पल पल सुबह ,शाम है जिंदगी


दिन ,महीने ,साल का समय साथ


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


निर्मल, निर्विकार कि चाल


सत्यार्थ है जिंदगी


निश्चल, निरंतर ,निर्वाह है जिंदगी अविरल धारा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


धरा कि धन्य धरोहर धैर्य है जिंदगी


भाव, भावनाओ का उफान,


उछाल है जिंदगी 


सागर कि गहराई ,पर्वत कि ऊंचाई अडिग चट्टान है जिंदगी


मायने ,मतलब ,अर्थ ,अनर्थ है जिंदगी अविरल धारा प्रभा प्रबाह है जिंदगी।।


दुख ,सुख काल, समय कि अधिपति उपलब्धि है जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


आंसू, मुस्कान ,मर्यादा ,मर्म ,ज्ञान,


आस्था ,विश्वास, विज्ञानं है जिंदगी


चाल ,चुनौती, जीत ,हार है जिंदगी


सपनों कि सच्चाई का युद्ध है जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


अतीत कि पृष्टभूमी काली छाया हो


या चमकदार ,वर्तमान के निर्माण


आधार है जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


प्रेम ,द्वेष ,घृणा ,मित्र ,शत्रु ,रिश्ते


नातों का समाज है जिंदगी


माँ कि कोख से जन्मी माँ ,बाप,


भाई ,बहन के स्नेह सम्बन्ध का


परिवार है जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


स्वार्थ ,विकृति, विकार का अवसाद हैं जिंदगी 


क्रोध ,बैमनस्व ,कि आग है जिंदगी


करुणा ,प्रेम ,क्षमां ,सेवा पुरस्कार है जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


बुद्धा के अनुभूति कि अवस्थाये


चार है जिंदगी 


वात्सल्य ,बचपन, युवा ,प्रौढ ,बृद्ध


असहाय ,लाचार ,मृत्यु का नित्य


निरंतर अविरल धारा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


त्याग ,तपश्या ,बलिदान, पुण्य दान है जिंदगी 


कर्म ,धर्म ,दायित्व ,कर्तव्य आश्रम


चार है जिंदगी


पल ,पल छिंड़ होती जिंदगी में जन्म दिन कि ख़ुशी खुमार 


है जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है


जिंदगी।।


उद्धेश्यों कि उड़ान ,तूफ़ान ,


चक्रवात ,झंझावात तमाम से


टकराती ,उलझती ,निकलती


घायल ,घमासान है जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है


जिंदगी।।


कली ,फूल ,नादाँ ,कमसिन, नाज़ुक ,अनजान का साथ प्रेयसि, पत्नी का साथ है जिंदगी 


अविरल धारा प्रभा प्रबाह है जिंदगी।।


माँ बाप का लाड़ला दुलारा स्वय माँ बाप संतान है जिंदगी 


अविरल धरा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


 आचरण ,संस्कृति ,संस्कार 


आचार ,व्यवहार है जिंदगी


ठहरती नहीं चलती जाती रफ्तार है जिंदगी मिलते,


बिछड़ते संबंधो का सार है जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


सच झूठ का मेला ,झमेला 


मिश्री ,मिर्ची पराक्रम, पुरुषार्थ है 


जिंदगी


सावन कि फुहार बारिस कि बौछार ,धुप ,छाँव है जिंदगी


मधुबन, मधुमास है जिंदगी 


माटी कि मोल अनमोल बेमोल


नाम बदनाम है जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है 


जिंदगी।।


माँ कि कोख से माँ कि गोद 


माँ कि ममता के आँचल का प्यार


बाप के आशाओ का अवनि आकाश जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है जिंदगी।।


रिश्ते ,नातो ,परिवार के विश्वशो 


का भविष्य वर्तमान है जिंदगी 


जिंदगी कि अविरल धारा को


रोक दे ,मोड़ दे क़ोई ,


कोई प्रमाण नहीं का प्रमाण है


जिंदगी


मिट्टी के तन मन कि जिंदगी मिट्टी में मिट्टी में मिल जाती


पानी के बुलबुले 


जैसी कब्र शमशान में चिर 


निद्रा में सो जाती मिट्टी में 


मिल जाती अपनी अनंत 


यात्रा पर निकल जाती


नई चेतना कि नई अविरल धारा


से मिल जाती आत्मा शारीर के


अविराम यात्रा है जिंदगी


अविरल धारा प्रभा प्रवाह है


जिंदगी।। 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


उत्तम मेहता 'उत्तम

बह्र 2122 2122 212


काफ़िया - ए स्वर


रदीफ़ - के लिए  


 


खुशनुमा हरपल बनाने के लिए।


छोड़ दे जीना ज़माने के लिए।


 


जब कज़ा की राह पर थी ज़िन्दगी।


आए तब अपना बनाने के लिए।


 


चाहिए कुछ बेहया सी ख़्वाहिशें ।


ज़िन्दगी का ग़म भुलाने के लिए।


 


हसरतें भी बेवफा होने लगी।


मनचले दिल को जलाने के लिए।


 


आ गया वो ख़्वाब में फ़िर से मेरे।


रात भर मुझको सताने के लिए।


 


आरजू है तू मेरी तू जुस्तजू।


दिल मचलता तुझ को पाने के लिए।


 


आ गया सब बंदिशों को तोड कर।


साथ अब उत्तम निभाने के लिए।


 


©@उत्तम मेहता 'उत्तम'


        १४/२०


प्रखर दीक्षित फर्रुखाबाद

गीतिका


उर्मिला उर मिला खिलखिलाने लगी।


प्यास चौदह बरस की बुझाने लगी।।


 


उर मिला मन मिला चार आँखें हुई


नव्यता सांझ के गीत गाने लगी।।


 


आस का दीप जलता रहा हर घड़ी


स्वप्न साजन के मन में सजाने लगी।।


 


दग्ध मन में विरह ताप आकुल करे 


पीर विरहा की तिय को सताने लगी।।


 


द्वार आए प्रियम् हिय प्र फुल्लित हुआ


पुष्प श्रृद्धा के प्रिया पग में चढाने लगी।।


 


उमंगित तरंगित युवा चाह मन,


दृष्टि प्रणयी पिया को रिझाने लगी।।


 


सैन्य पत्नी सा जीवन उर्मिल का था


प्रखर पाजेब पिय को रिझाने लगी।।


 


*****************-*******


डॉ प्रखर


निशा"अतुल्य"

मन की प्यास


14.6.2020


हाइकु


5,7,5


 


मन की प्यास


कैसे बुझे सांवरे


राह दिखाओ ।


 


मन बसे हो


कब आओगे देने


दर्शन बोलो ।


 


हर पल हूँ


व्याकुल तुझ बिन


सुनो सांवरे ।


 


राधा पुकारूँ


तुझे रिझाऊं कान्हा


दर्श दिखाओ ।


 


पूजा न जानू


अवगुण हैं सारे 


करो स्वीकार ।


 


व्यथित मन


तुम्हें सदा पुकारें


पार लगाओ ।


 


कष्ट बहुत 


जीवन संकट में


सौंपा है भार ।


 


तुम ही जानो 


तुम तारणहार


मुझे उबारो ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

"रक्तदान महादान"


रक्तदान है महादान 


लोगों की जान बचाये


रक्तदान करता जो जन


 वह महादानी कहलाये


रक्तदान करता अनेक


 बीमारियों से तन की रक्षा


खून का थक्का जमे कभी न


 करे शरीर की सुरक्षा


एक मास में कुछ मात्रा में


 यदि रक्तदान किया जाये


शरीर की बढ़े प्रतिरोधक क्षमता


 आयरन सन्तुलित हो जाये


कैन्सर का खतरा कम होता


हार्ट अटैक टल जाता


रक्तदान करने से व्यक्ति का


वजन भी है घट जाता


रक्तदान करने से किसी को


मिलता जीवन दान है


मानवता का रिश्ता जुड़ता


होता काम महान है


रक्तदान से ह्रास नहीं कोई


नहीं ये छोटा काम है


कुछ ही देर में होगी पूर्ति


बनता शरीर बलवान है


सबको इसका ज्ञान कराएँ


चलो जागृति फैलाएँ


रक्तदान से सम्बंधित


मिथकों को दूर भगाएँ


रक्तदान से जनकल्याण हो


ऐसा सबको समझाएँ


अल्पज्ञान की सीमा तोड़ें


वसुधैव कुटुम्बकम का भाव अपनाएँ


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


प्रखर दीक्षित फर्रुखाबाद

सब कुछ अब भी खत्म नहीं है 


======================


 


लगा रहे तुम दोष वृथा क्यों कालचक्र गतिमान निरंतर 


सोचो ज़रा स्वयं में झांको , सब कुछ अब भी खत्म नहीं है ।।


 


ठहरे मन को कभी झकोरो, कभी नवल परिदृश्य बदलना ।


कभी सहज शब्दों सा वाचन, कभी मौन आंगन में संभलना।।


अंर्तमुखी स्वयं को जानो, जीवन मादस बज्म नहीं है।


सोचो ज़रा स्वयं में झांको , सब कुछ .........


 


रे मन नीरस जीवन जीकर, मिला तुझे क्या मुझे बता दे।


यूँ तो भव नें ताप घनेरे, रंचमात्र पुरुषार्थ जता दे।।


छोड़ उलाहने बहुत दे लिए, यह कुतर्क तुम्हारे हज्म नहीं हैं।।


सोचो ज़रा स्वयं में झांको , सब कुछ .........


 


स्वयं गढ़े अपनी तारीख़ें, खनो कूप खुद पंथ संवारो।


पृथक पृथक निज सोच सभी की, प्रखर कभी न साहस हारो।।


कलि नें केवल कर्म उच्चतर, इससे उत्तम रत्न नहीं है। ।


सोचो ज़रा स्वयं में झांको , सब कुछ .........


 


प्रखर दीक्षित


फर्रुखाबाद


डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

2122. 2122. 212


*राम बाण🏹*


   अब अलग संवाद होना चाहिए।


   शोषितों की बात होना चाहिए।


ये कलम की लेखनी कहने लगी।


  बिन पढ़े ही ज्ञान होना चाहिये।।


 


    क्यों गधों के सींग होते हैं नहीं।


 क्यों उन्हें सम्मान मिलता है नहीं।


     कष्ट का उपचार होना चाहिये।


    बिन पढ़े ही ज्ञान होना चाहिये।।


 


    ढो रहा है बोझ सदियों से यहाँ।


   मौन रहकर भार सहता है यहाँ।


    हक मिले ये मांग होना चाहिए।


    बिन पढ़े ही ज्ञान होना चाहिये।।


 


      क्यों गधे कहते गधों को गधा।


      ये गले में खूंट जैसों को सधा।


        खूँट से ये मुक्त होना चाहिये।


     बिन पढ़े ही ज्ञान होना चाहिये।।


 


    क्यों कुपोषित ये गधे ही हो रहे।


        चोर चारा खा मजे ही ले रहे।


         जानवर इंसान होना चाहिये।


      बिन पढ़े ही ज्ञान होना चाहिये।।


 


       ताकते बंदर बिना ही बोल के।


     मुफ्त का राशन खरीदें बोल के।


      बँद उछल ये कूद होना चाहिये।


      बिन पढ़े ही ज्ञान होना चाहिये।।


 


       जब सभा में भौंकने कुत्ते लगे।


      दुम दबाये कुछ सगे सच्चे लगे।


       दुम कभी टेढ़ी न होना चाहिये।


       बिन पढ़े ही ज्ञान होना चाहिये।।


 


     राम कवियों की कहानी पढ़ रहे।


     आत्मनिर्भर की जुबानी गढ़ रहे।


      कुछ चुटीले व्यंग्य होना चाहिए।


     बिन पढ़े ही ज्ञान होना चाहिये।।


 


       *डॉ रामकुमार चतुर्वेदी*


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*15


अंड-पिंड-स्वेतज-स्थावर,


व्यापक सबमें आसव है।


जड़-चेतन,चर-अचर-जगत की-


अति दृढ़ धुरी बनाई है।।


      पुरा काल से काल अद्यतन,


      बस आसव ही आसव है।


      यह तो है अनमोल धुरी वह-


      महि जिसपे टिक पाई है।।


सुरगण-मुनिगण-ऋषिगण सबने,


ब्रह्म-महत्ता दी इसको।


जीवन-कोष-केंद्र यह कहता-


क्या अच्छाई-बुराई है??


     जब तक आसव-द्रव है तन में,


     समझो,प्राण-अमिय रहता ।


     प्राण निकलना ध्रुव है तन से-


      अमृत सोच न जाई है।।


आसव-सोच अनित्य-अमिट है,


तन जाए,शुभ सोच रहे।


यदि आसव सी सोच रहे तो-


रहे अमर ये रहाई है।।


    निर्गुण-सगुण का अंतर मिटता,


    जब चाखो सुरभित आसव।


    उभय बीच की खाई की भी-


    इसी ने की पटाई है।।


ब्रह्म एक है,ब्रह्म सकल है,


ब्रह्म बिना ब्रह्मांड नहीं।


आसव-सरिता बहती रहती-


करती जग-कुशलाई है।।


       बिना प्रमाण प्रमाणित आसव,


       की शुचिता सुर-कंठ बहे।


       सुर-आसव की शुचिता ने ही-


       जग में शुचिता लाई है।।


शिव ने विष को कंठ लगाकर,


आसव-अमृत-धार किया।


विष-दुख गले लगा ही जग को-


मिलती शुभ सुखदाई है।।


       आसव शुभकर,आसव हितकर,


        शुभ चिंतन,सुख-साधन यह।


        इसी ने सुरभित स्वाद चखाकर-


        सुख-दुख किया मिलाई है।।


ब्रह्म-स्वरूप पेय इस आसव,


का निवास मधुरालय है।


जाकर जहाँ परम सुख मिलता-


भव-ज्वाला जल जाई है।।


     मधुर मोद, आमोद-मधुरता,


     सुरभित सुरभि-सुगंधित सुर।


    मधुरालय की सबने मिलकर-


    अद्भुत छटा सजाई है।।


निसि-वासर सुर-देव विराजें,


ब्रह्मनाद-उदघोष सतत।


परमानंद सकल सुख देता-


अनुपम प्रभु-प्रभुताई है।।


      अति प्रणम्य-रमणीय-सुरम्या,


      छवि मधुरालय शोभित है।


      छवि से यदि बहु-बहु छवि मिलती-


      तदपि यही छवि भाई है।।


एक घूँट बस दे दे साक़ी,


आसव की सुधि आई है।।


                 ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


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