डॉ. निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

" धर्म पथ पर रहो अग्रसर "


सदाचार 


के नियम 


का पालन करो 


होकर जीवन में ततपर


जीवन वही सफल जगत में


जो रहता है सदैव


धर्म पथ पर


कर्तव्य निभा


अग्रसर


 


प्राचीन


काल से


निज संस्कृति में


है ये मूल्य पुराने


आगन्तुक को देव मान हर्षावै


जीवन उसका रहे सुखद


कोई कष्ट नहीं


उसे कभी


सतावै


 


धर्म


के पथ


पर चलकर ही तो


मानव माया बन्धनों से छूट


जावै उस परमात्मा की


शरण मिले, मोक्ष 


द्वार खुल


जावै


 


धर्म


मार्ग है


थोड़ा दुष्कर परीक्षा


बहु भाँति की ले जावै


जो रहे अडिग अपने पथ


पर वह जीवन का


अपना लक्ष्य पाकर


सारे दुख


बिसरावै


 


डॉ. निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


प्रिया चारण , उदयपुर ,

प्रिया


में प्रिया बहुत प्रिय हूँ


कभी कृष्ण प्रिया ,कभी हरिप्रिया


हर ह्रदय में बसती हूँ


कभी काली रातो मे सिसकती हूँ


कभी दिन के उजाले में चमकती हुँ


कभी बीती बातो में उलझती हूँ


कभी मिसालों में खुदको परखती हूँ


कभी मिसाल बन मर निखरती हूँ


कभी सबके लिए खुदको खोती हूँ


कभी सबको खो कर खुदको पाती हूँ


कभी कविता बन लोगो के मन मे चल हूँ


कभी पिंजरे में ही सिमटती हूँ


कभी राधा सी प्रिय लगती हूँ


कभी खुदको मीरा सी लाचार लगती हूँ


कभी प्रिया सा प्रेम का गुलाब लगती हूँ


तो कभी क्रोधित काटो सी चुभती हूँ


नन्हा बच्चा दिल मे रखती हूँ, बात बात पर रो देती हूँ


ओरो का पता नही , जो भी हूँ जैसी भी हूँ खुदमे बेमिसाल हूँ


इतनी मुश्किलो के बाद भी आबाद हूँ


शायद में कमाल हूँ


में प्रिय प्रिया हूँ


 


प्रिया चारण ,


उदयपुर ,राजस्थान


भरत नायक "बाबूजी"

*"पाठशाला"* (कुण्डलिया छंद)


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●अपना जगत किताब है, मिलता इससे ज्ञान।


हरपल होता है यहाँ, नित-नव अनुसंधान।।


नित -नव अनुसंधान, पाठशाला है धरती।


सदा करे उपकार, बुद्धि की जड़ता हरती।।


कह नायक करजोरि, पूर्ण करना हर सपना।


कर लेना स्वीकार, हितैषी जो हो अपना।।


 


●धरती-अंबर से मिले, सीख हमें तो नित्य।


पर चमके जिज्ञासु का, परम ज्ञान-आदित्य।।


परम ज्ञान-आदित्य, भाग्य होता है उज्ज्वल।


सँवरे उसका आज, साथ आने वाला कल।।


कह नायक करजोरि, बुद्धि श्रद्धा से भरती।


विद्या हो शुचि ग्राह्य, पाठशाला है धरती।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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संदीप कुमार विश्नोई

जय माँ शारदे


उड़ान सवैया


 


लिखें नित नूतन छंद सदा , जब से गुरुदेव मनोज मिले हमें।


निखार रहे मम लेखन को , इनका शुभ प्रेम सरोज मिले हमें।


लिखें नित छंद नये हम जो , मन को निज साधन खोज मिले हमें। 


रचें नित भाव बना उर से , मन को फिर पावन ओज मिले हमें।


 


संदीप कुमार विश्नोई


गाँव दुतारांवाली तह0 अबोहर जिला फाजिल्का पंजाब


विनय साग़र जायसवाल

गीत---🧚‍♀


🌲


तेरी सुगंध को लालायित,हर सुमन यहाँ अकुलाता है ।


अधरों पर मेरे नाम प्रिये  ,तेरा जब-जब आ जाता है ।।


🌱


जब खिलते हैं सुधि के शतदल, जब उड़ता दृग-वन में आँचल


हर निशा अमावस की लगती, हर दिवस बजी दुख की साँकल 


यह प्रेमनगर का द्वार मुझे,कैसे परिदृश्य दिखाता है ।।


तेरी सुगंध को------


🦚


प्यासे चातक मन-अधरों पर ,पूनम भी किंचित खिली नहीं 


अंतस में ज्वाला भड़का कर ,फिर साँझ दिवस से मिली नहीं


रह-रह कर मेरे अंतर का,हर कमल पुष्प कुम्हलाता है ।।


तेरी सुगंध को------


🦜


आशायें अमरलता बनकर, वट यौवन भी डस जाती हैं


कुछ पता नहीं इच्छाओं का ,


किसको क्या स्वाद चखाती हैं


यह मलय पवन भी अब प्राय: , ज्वाला को और बढ़ाता है ।।


तेरी सुगंध को ----


🦃


घिर आये फिर नभ में बादल, फिर दूर बजी कोई पायल 


फिर कोई मेरे जैसा ही , हो जायेगा दुखिया घायल


यह सोच सोच कर अब मेरा ,पागल मन भी घबराता है ।।


तेरी सुगंध को -------


🐇


यह सावन आग लगाते हैं, व्याकुल मन को तड़पाते हैं


मेरे नव चेतन पर *साग़र*, सुधियों के चित्र बनाते हैं


यह सावन मुझको तड़पा कर,क्या जाने क्या सुख पाता है ।।


🦓


तेरी सुगंध को-------


अधरों पर मेरे--------


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जिंदगी जब तुम्हे आजमाने लगे


ख़ुशी दामन छुड़ाने लगे।।


अश्कों को ना रोक पाओ अगर


आखों के रुलाने लगे।।


चाहत कि जिंदगी खफा होंके


दूर जाने लगे ।।


अंजाम का यकीं सताने लगे 


जुदाई के नगमें गुनगुनाने लगे।।


 


मन के मैल से जुबाँ लड़खड़ाने लगे।।


बैचैनी सताने लगे नीद आँख से 


जाने लगे।।


मोहब्बत जिंदगी कि ख्वाब में 


भी आने लगे।।


सामने पडा पैमाना भी हाथ आने


से कदराने लगे।।


हर हक़ीक़द दुनियां कि फरेब नज़र आने लगे।।


जिंदगी में अरमानो के चिराग


जलते बुझते नज़र आने लगे।।


मायूस जिंदगी में बेवफाई जुदाई


गम के साये डराने लगे।।


कौल का यकीन फ़साना लगे 


एक बार मुड़ कर पीछे देख लेना


दोस्त शायद मेरी वफ़ा ,दोस्ती


जिंदगी का यकीन हो बहाल


जिंदगी कि चाहत पास आने लगे।


तेरी चाहतों पे तेरा नाम लिख


दूंगा दोस्त पत्थर कि लकीर 


कि तरह पत्थर भी तेरी मोहब्बत कि आवाज़ लगाने लगे।।


तेरे अश्को के आँसू दोस्त् काबा


का आबे जमजम पतित पावनि गंगा तुझसे बेवस्फाई के सनम


वफ़ा कि सनद के लिये तेरे आसुओ मे तेरे गम के गुनाह 


धोते नहाने लगे।।


नादाँ कि आजमाइस अंजाम यही


खुद कि नज़रों में गिरे दोस्त तेरी


नज़रों में उठाने लगे।।


तेरे दिल कि उफ़ भी आह बन जायेगी तेरी जागती बैचैन रातें 


खुदा कि ठोकरों से घायल


तेरी मोहब्बतों कि कसम 


खाने लगे।।


मेरी जिंदगी तेरी मंजिल मकसद


चाहतों कि कारवाँ मंजिल तेरी    


चाहत खुशिआँ होली के रंगो की


फुहार दीवाली कि तरह जगमगाने लगे।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


एस के कपूर "श्री हंस*" *बरेली।*

*मत हारो जिन्दगी से तुम कभी।।।*


 


*(अवसाद/तनाव/चिंता में प्राण*


*स्वयं लेने को रोकती मेरी एक*


*रचना/प्रत्येक युवा को समर्पित)*


 


मत हारो जिन्दगी से कि ये


प्रभु का वरदान होती है।


पूरे करने को कुछ सपने


वह अरमान होती है।।


मत छोड़ना मैदान तुम कभी


बीच मझधार में।


हार गये गर तुम मन से तो


फिर ये गुमनाम होती है।।


 


माना गम बहुत हैं इस जमाने


में पर तुम बिखरो नहीं।


गिरो उठो संभलो चलो और


फिर भी तुम निखरों यहीं।।


पूरे करने को देखो सपने पर


जुड़े भी रहो हकीकत से।


पर भाग कर तुम इस दौड़  


से मत खिसको कहीं।।


 


हर रंजोगम जिन्दगी से कभी


ऊपर नहीं है।


हार जायो तुम तो भी जिन्दगी


जीना दूभर नहीं है।।


मत रुखसत हो दुनिया से कभी


बेनाम निराश होकर।


जान लो संसार में कभी भी 


कोई सुपर नहीं है।।


 


तनाव में भी खुद जान ले लेना


कहलाती बस नादानी है।


सुख दुःख चलते साथ साथ बस


यही जीवन की रवानी है।।


यही जिंदगी की मांगऔर हमारी


है जिम्मेदारी भी।


गर सितारें हों गर्दिश में तो तुम


खुद लिखो नई कहानी है।।


 


चल कर धारा के विपरीत भी


तुम सच में ख्वाब बनो।


जिसकी रौनक खुद छा जाये


तुम वह शबाब बनो।।


असंभव शब्द में खुद ही छिपा है


सम्भव शब्द भी ।


ठान लो बस मन में कि तुम


एक हीरा नायाब बनो ।।


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।*


मोब।। 9897071046


                    8218685464


राजेंद्र रायपुरी

🌴अहा प्रकृति है कितना देती🌴


 


अहा, प्रकृति है कितना देती,


  आओ इसका मान करें हम।


    तरुवर, सरिता और धरा के, 


      हर गुण का गुणगान करें हम।


 


इनसे ही तो जीवन चलता,


  ये ही तो हैं जीवन दाता। 


    संरक्षण है इनका करना,


      कहता हमसे यही विधाता।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

सुरभि धन में प्राण बसे है


गाय मानव की हितकारी


अदभुत उत्पाद पंचगव्य


जीवन कूं कल्याणकारी


 


पालन से गोपाल कहाऊं


अति प्यारों लागे ये नाम


दूध दही और माखन खा


मेरी देह बनी अभिराम


 


धन्य हो नर तेरा जीवन


करले गौ माता से प्यार


गौ ईश्वर का रुप दूसरा


ऐसा कहें स्वयं करतार।


 


गोपालाय नमो नमः🌹🌹🌹🌹🌹👏👏👏👏👏


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमः....*अठारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


ग्यानवान-त्यागी नर सोई।


सुद्ध सात्विकी जग रह जोई।।


     नहिं आसक्त कर्म, हितकारी।


      अस जन सँग न द्वेष,अपकारी।।


होवहि त्याग कर्म-फल त्यागा।


जग नहिं संभव सभ परित्यागा।।


     भला-बुरा वा जे जग मध्यम।


      तीन प्रकार होय फल सिद्धम।।


मिलै अवसि इन्हमहँ कोउ एका।


पुरुष सकामिहिं कर्मइ जेका।।


    त्यागी-कर्म होय निष्कामा।


     मिलै न फल कोऊ बुधि धामा।।


कारन पाँच साँख्य अनुसारा।


करमहिं सिद्धि हेतु सुनु सारा।।


    कर्ता-चेष्टा-करण-अधारा।


    दैव हेतु अहँ पाँच प्रकारा।।


कर्म सास्त्र-गत वा बिपरीता।


होंवहिं कारन पाँच सहीता।।


     जे आत्मा कहँ मानै कर्त्ता।


      ऊ दुरमति-मतिमंद न बुझता।।


मैं नहिं कर्त्ता जासुहिं भावा।


कबहुँ न अस जन पाप बँधावा।।


     ग्याता-ग्यान-ग्येय तिन प्रेरक।


     कर्म-प्रबृत्ति कै तीनिउँ देयक।।


कर्त्ता-करण-क्रिया के जोगा।


बनै कर्म कै पार्थ सुजोगा।।


दोहा-ग्यान-कर्म-कर्त्ता-गुनहिं,अहहिं ये तीन प्रकार।


       कहे कृष्न सुनु पार्थ तुम्ह,साँख्य-सास्त्र अनुसार।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372 क्रमशः......


अविनाश सिंह

🌱 *हाइकु हाइकु*🌱


*---------------------*


 


जनता माँग


सरकारी आवास


बदहवास।


 


मोर के पंख


हर धर्म समान


तभी महान।


 


बढ़े या घटे


नही कोरोना डरे


लोकडॉउन।


 


कोरोना जंग


हारी है सरकार


व्यर्थ प्रयास।


 


शांत प्रकृति


दे रही है संदेश


ध्यान से देख।


 


कोरोना काल


हर लोग बेहाल


प्रकृति मौन।


 


गरीब जन


तलाशे सुखी रोटी


कच्ची न पक्की।


 


योद्धा सम्मान


बिकते सरेआम


खरीदे यार।


 


मास्क पहनो


है कोरोना इलाज 


घर में रहो।


 


ऐसी बीमारी 


बनी है महामारी


करे लाचार।


 


कोरोना नाम


करें चैन हराम


है गुमनाम।


 


चीन से आया


अजूबा वायरस


देश को खाया।


 


पाँव के छाले


नही दिखने वाले


खोजे निवाले।


 


*अविनाश सिंह*


*8010017450*


प्रखर दीक्षित* *फर्रुखाबाद

*जरा सोचिए......*


 


 मुहब्बत में बेचैनी होती है ।


तन्हाई कि स्याह रात होती है


शंका का बाजार गर्म और


यकीन जर्जर होता है


सैकड़ों आंखे निगेहबानी पर


उम्मीदों का खेत बंजर होता है


जिसे चाहा वो मिला नहीं


जो है वो पास नहीं


और जो पास वो अपना नहीं


क्या यही प्यार की तिजारत??


 *जरा सोचिए......* 


 


*प्रखर दीक्षित*


*फर्रुखाबाद*


विनय साग़र जायसवाल

गीतिका (हिन्दी में)


 


तुमने जो निशिदिन आँखों में आकर अनुराग बसाये हैं 


हम रंग बिरंगे फूल सभी उर-उपवन के भर लाये हैं


 


हर एक निशा में भर दूँगा सूरज की अरुणिम लाली को 


बाँहों में आकर तो देखो कितने आलोक समाये हैं


 


प्रिय साथ तुम्हारा मिलने से हर रस्ता ही आसान हुआ


हम विहगों जैसा पंखों में अपने विश्वास जगाये हैं 


 


जब -जब पूनम की रातों में तुझसे मिलने की हूक उठी


तेरे स्वागत में तब हमने अगणित उर-दीप जलाये हैं 


 


दिन रात छलकते हैं दृग में तेरे यौवन के मस्त कलश 


तू प्यास बुझा दे अंतस की जन्मों से आस लगाये हैं 


 


कैसी मधुशाला क्या हाला तेरे मदमाते नयनों से 


हम पी पीकर मदमस्त हुये अग -जग सब कुछ बिसराये हैं 


 


उस पल क्या मन पर बीत गयी मत पूछो *साग़र* तुम हमसे


तुमने जब जब व्याकुल रातों में गीत विरह के गाये हैं 


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 

विषय:- 'कैसे विस्मृति कर दूँ मैं'


विधा- गीत 


 


 


कनक पुष्प सा रूप तुम्हारा 


         कैसे विस्मृति कर दूँ मैं, 


बातों में अमृत की धारा 


          कैसे विस्मृति कर दूँ मैं।...


 


कितना तुमसे अपनापन है


              कैसे तुझे बताऊँ मैं,


जीवन की अभिलाषा हो तुम


               कैसे तुझे सुनाऊँ मैं।


 


मन के तार बजायी हो तुम 


              कैसे विस्मृति कर दूँ मैं। 


 


सूरज चाँद सितारे सारे


         तेरे छवि को निरख रहे हैं,


पुष्प-कली और वन-उपवन 


      लज्जित तुझको परख रहे हैं,


 


मुझको हो तुम जगत् से न्यारा 


              कैसे विस्मृति कर दूँ मैं।


 


तेरे अधरों की स्निग्ध हँसी


            गुप-चुप नयनों की भाषा, 


छिपी हुई तुझमें हे प्रिय!


            मेरे जीवन की परिभाषा।


 


देते थे तुम मुझे सहारा 


              कैसे विस्मृति कर दूँ मैं।


 


इतना ही तुम मुझे बता दो


             तुमसे दूर रहूंगा कैसे, 


जीवन है प्रतिपल दु:खमय 


           उर का घाव भरूंगा कैसे।


 


तुम तो हो उर वासी हे प्रिय 


            कैसे विस्मृति कर दूँ मैं। 


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


मो० नं० 9919886297


सुनीता असीम

दिल ये जलता सा अंगारा था कभी।


 


इक पड़ा जबसे शरारा था कभी।


 


****


 


खेल उल्फत का रहे थे खेलते।


 


बस वफ़ाओं से गुज़ारा था कभी।


 


****


 


खूबसूरत साथ साथी का मिला।


 


प्यार उसका बस हमारा था कभी।


 


****


 


दिल्लगी सी कर रही थी जिन्दगी।


 


सिर्फ यादों का सहारा था कभी।


 


****


 


हस रहे थे तब यहां हमपर सभी।


 


दिल रहा कितना बिचारा था कभी।


 


****


 


सुनीता असीम


 


15/6/2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सरयू-महिमा*(16/15,आल्हा-वीर छंद)


परम पवित्र यह सरिता सरयू,बहे अयोध्या उत्तर दिशि,


निर्मल नीर सदा रह इसका,सब जन करते रोज नहान।


साधु-संत चहुँ दिशि से आकर,करें आचमन,इसका पान,


करते दर्शन रघुवर जी का,प्रमुदित मन देकर सम्मान।


 


 घाट सभी जो सरयू-तट पर,सभी स्वच्छ-निर्मल रहते,


संत- भक्त जन,सब जन जाकर,सरयू-दर्शन लें अभिराम।


करके पूजन-अर्चन सब जन,नगर-भ्रमण का करें प्रयाण,


पुनि सब जाकर मंदिर-मंदिर,करें प्रार्थना प्रभु श्री राम।।


 


परम पवित्र यह अति रमणीया,नगरी नाम अयोध्या धाम,


सरयू-तट पर स्थित यह है,जन्म-भूमि यह रामलला।


चारो भ्राता-क्रीड़ा-नगरी,विमल-सुखद है आबो-हवा-


सरयू-जल की नित-प्रति डुबकी,करे नाश हर दर्द-बला।।


 


औषधि सम है सरयू-नीरा,विष्णु-अश्रु की यह जल-धार,


यह सरिता है पाप-विनाशन,इसका गौरव जगत महान।


आदि-काल से सतत प्रवाही,प्राण-दायिनी जीवन यह-


यह है सरिता रामलला की,करे विश्व का नित कल्याण।।


 


 


राम की पैड़ी सुंदर-अनुपम,सरयू-नीर बहे पुरजोर,


यहाँ सभी हैं रोज नहाते,यहीं पे करते हैं विश्राम।


शाम आरती मिलकर करते,भक्ति-भाव से चित-मन-गात-


पुनि सब जाकर करते पूजन,जन्म-भूमि प्रभु ललित-ललाम।।


                ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

विचलित हो जाती जब 


बहती धारा अर्थ बदल 


जाते दुनियां में बन जाती नयी 


परभाषा कि धारा।।


 


अविराम निरंतर बहती 


धारा भटक जाती जब 


मकसद से विचलित 


बैचन बेसहारा आसरा किनारा 


खोजती बिचलित धारा।।


 


कभी कभी विचलित 


धारा भी बन जाती 


आशाओं, विश्वास कि धारा


विचलित धारा।।               


 


अलग, बिलग का अस्तित्व


असमंजस भाग्य ,भगवान सहारा


कर्म कर्तव्य कि चुनौती विचलित


धारा।।


 


नित्य ,निरंतर बहती धारा को


मोड़ता नया काल, समय


पराकम ,पुरुषार्थ                    


नई शुरुआत कि युग धारा 


विचलित धारा।।


 


विचलित धारा विलग अस्तित्व


अस्तमत कि चाहत धारा


कभी कभी नई चेतना अक्सर


काली छाया विचलित धारा।।


 


भय ,भ्रम ,संसय से 


विलग होती विचलित धरा


प्रकृति ,प्रबृति में नकारात्मक


विचलित धारा।।


 


प्रेम प्रसंग के अविरल 


प्रवाह में वियोग दुःख है


विचलित धारा ।।


 


जीवन के मतलब में परम्परा संस्कृति ,संस्कार का विमुख 


नए सिद्धान्त का विज्ञानं विचलित धारा।।


 


यादा कदा विचलित धारा


चैतन्य ,जागृति अवनि आकाश कि अवधारणा विचलित धारा।।


 


अविरल ,निरंतर धारा


दुनियां में ,परम्परा का मान गान


का शौर्य सूर्य, नव सूर्योदय पराक्रम कि कदाचित विचलित धारा।।


 


धाराओ का विचलित होना 


साहस, शक्ति ,सोच ,ज्ञान कि 


ताकत मोल ,मूल्य ,विचलित धारा।।


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


भरत नायक "बाबूजी"

*"रचनाकार"* (दोहे)


****************************


*विधि ने सारी सृष्टि का, सृजन किया साकार।


अनुपम रचनाकार वह, जग रचना उपहार।।१।।


 


*प्रकृति सृजन करती स्वयं, कभी सँहारक खेल।


नग-वन-सरिता-सिंधु का, है अद्भुत यह मेल।।२।।


 


*कुंभकार के चाक पर, मृदा गहे ज्यों रूप।


करता रचनाकार भी, त्यों शुभ सृजन अनूप।।३।।


 


*गढ़ता रचनाकार है, नित-नित नव साहित्य।


सुखद सृजन के व्योम पर, चमके ज्यों आदित्य।।४।।


 


*समझ सृजन को साधना, रचता रचनाकार।


शुचिकर सुंदर सत्य शिव, सृजन सदा सुख सार।।५।।


 


*सृजन धर्म को पूजता, सच्चा रचनाकार।


करता सत्साहित्य से, संप्रेषण-संचार।।६।।


 


*शब्द पिरोकर भाव भर, कृति को दे आकार।


कालजयी कर सर्जना, रहे अमर कृतिकार।।७।।


 


*सृजक सृजन-आकार दे, उमड़-घुमड़ भर भाव।


झरे झरण झंकार से, सुर-लय-ताल बहाव।।८।।


 


*प्रेमिल-पावन भाव भर, कर्म करे कृतिकार।


पुष्प खिले मरुभूमि-भी, आये सुखद बहार।।९।।


 


*'हम' हो रचनाकार जब, 'मैं' से होता दूर। 


सृजन सहज सद्भाव से, रंग भरे भरपूर।।१०।।


****************************


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


****************************


एस के कपूर "श्री हंस* " *बरेली।*

*विषय।।कॅरोना संकट।।मजदूर व्यथा।।*


*शीर्षक।।।।चाहिये कोई उनको मरहम लगाने वाला।।*


 


क्या सोच कर वह हज़ारों मील


नंगे पांव चला होगा।


कितना दर्द उसके सीने के 


भीतर भरा होगा।।


सवेंदना शून्य रास्तों पर कैसे


बच्चों ने होगा कुछ खाया। 


जाने कब तक यह जख्म उसके


सीने में हरा होगा।।


 


प्रवासी से आज फिर से वह


स्वदेशी हो गया है।


लौट कर वापिस अपनी मिट्टी


फिर प्रवेशी हो गया है।।


कुछ जड़े कहीं तो कुछ कहीं


अब गई हैं बिखर सी।


अपनो के बीच भी लगता जैसे


परदेसी ही हो गया है।।


 


पाँव चल रहा था और पांव


जल रहा था।


अरमान टूट रहे थे और परिवार


कैसे पल रहा था।।


फूट रहे थे सब सपने और बिखर


रहा था संसार उसका।


मजदूर अपनी आँखों में आज  


खुद ही खल रहा था।।


 


जरूरत है उसको हमारे और 


अपनों के याद की।


फिर से जोड़ने तिनका तिनका


उन सपनों के साथ की।।


सरकार को भी आगे चल कर


उसका हाथ थामना होगा।


लगाने को मरहम उसके रिसते 


जख्मों पर प्यार के हाथ की।।


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस* "


*बरेली।*


मो।। 9897071046


                    8218685464


राजेंद्र रायपुरी

छप्पय छंद पर एक रचना - -


 


हरदम सोचा काम, 


                हुआ है किसका भाई। 


चाहे हो दसशीश, 


                या कि होवें रघुराई।


लाखों करो उपाय, 


               काम है रुक ही जाता।


होता वो ही यार, 


           भाग्य जो लिखा विधाता।


मानो कहना सच यही,


            भाग्य लिखा जो हो वही। 


मैं ही कहता ये नहीं, 


               संतों ने भी है कही।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मन बसिया मन में बसों,राखों मोर दुलार।


ब्रिजठकुरानी तुम बिना, कोई नहीं हमार।।


 


श्याम सलोने मन बसे,सह राधे सरकार।


युगलरूप आशीष ते,निश्चय बेड़ा पार।।


 


दिव्य अलौकिक रूप प्रभु, बंधन काटनहार।


मेरी सुध प्रभु लीजिए, जग जीवन आधार।।


 


युगलरूपाय नमो नमः👏👏👏👏👏


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


  *"भक्ति की देन"*


"रास्ते अलग-अलग देखो,


मगर मंज़िल तो एक है।


आस्थाएं अलग-अलग ये,


लेकिन- शक्ति तो एक है।।


देखे भक्त अलग-अलग वो,


लेकिन-भक्ति तो एक है।


रूप अलग-अलग जग में तो,


लेकिन-ईश्वर तो एक है।।


सोघता रहा मन बावरा,


कैसी-जग को देन है।


भक्त हो कर विभक्त ये जग,


क्या-ये भक्ति की देन है?"


ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


ःःःःःःःःःःःःःःःःः 15-06-2020


अविनाश सिंह

हाइकु:-जीवन


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सफेद झूठ


काले सच का रंग


से रहो दूर।


 


डिप्रेशन हो


सबसे बात करो


यही उपाय।


 


पानी हो शांति 


बैठो परिवार में


करो विचार।


 


खुद में जीना


घुट घुट मरना


बाते करना।


 


समस्या बड़ी


हिम्मत नही हारो


उखाड़ फेंको।


 


खोज लो हल।


समस्या समाधान


दूर व्यधान।


 


व्यर्थ न कर


जिंदगी अनमोल


रास्ते को खोज।


 


जीवन त्याग


नही कोई विकल्प


बनो सबल।


 


हारों या जीतों


नही पड़ता फर्क


आगे को बढ़।


 


है घोर पाप


आत्मदाह करना


कायर होना।


 


करो प्रयास


मिलेगी सफलता


न हो उदास।


 


*अविनाश सिंह*


*8010017450*


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*16


सब देवालय,सब ग्रंथालय,


जितने शिक्षा-सदन यहाँ।


सबके संचित ज्ञान-कोष की-


होती यहीं लिखाई है।।


      ज्ञान संग विज्ञान की शिक्षा,


      वैदिक शास्त्र,पुराणों की।


      मानव-मूल्यों की भी शिक्षा-


      इससे जग ने पाई है।।


औषधीय पद्धतियों का भी,


प्रतिपादक मधुरालय है।


रखे स्वस्थ यह जन-जन मन को-


नहीं वर्ण-टकराई है।।


     समतामूलक संस्कृति की यह,


     सदा सूचना देता है।


     यह मधुरालय इक प्रहरी इव-


     करता रात-जगाई है।।


विविध रूप-रँग-कला-केंद्र यह,


रखे बाँध इक धागे में।


शत्रु-भाव को कर अमान्य यह-


उपदेशक-समताई है।।


      अति विशिष्ट मधुरालय-आसव,


       विश्व-पटल का बन आसव।


       सातो सिंधु पार जा करता-


       अपनी पैठ-बिठाई है।।


भारतीय आदर्शों-मूल्यों,


की विदेश में शान बढ़ी।


श्वेत-श्याम की घृणित धारणा-


की जग करे खिंचाई है।।


      आसव है इक निर्मल-पावन,


      सोच-समझ मानव-मन की।


      मधुर सोच,रसभरी समझ ही-


      मन-रसाल-अमराई है।।


पावन आसव-सोच-पवित्रता,


मुदित मना करती नर्तन।


नृत्य-कला की बिबिध भंगिमा-


देख धरा लहराई है।।


आसव-असर-प्रभाव-पवित्रता,


पा पवित्र यह धरती हो।


मनसा-वाचा और कर्मणा-


जन-जन शुचिता छाई है।।


     पूरब-पश्चिम,उत्तर-दक्षिण,


      मधुरालय की चर्चा है।


     गौरव-गरिमा मातृ-भूमि यह-


     जग-बगिया महकाई है।।


स्नेह-भाव,सम्मान-सुहृद गृह,


मधुरालय रुचिरालय है।


गरल कंठ जा अमृत होती-


शिवशंकर-चतुराई है।।


      सदा रहा मन कंपित अपना,


      कैसा आसव-स्वाद रहे?


      पर आसव ने हरी व्यग्रता-


      नीति अमल अपनाई है।।


नव प्रभात ले,नई चेतना,


सँग नव ज्योति सदा फैले।


प्रगतिशील नित नूतन चिंतन-


की आसव विमलाई है।।


      सदा भारती ज्ञान की देवी,


      से आसव की शान बढ़े।


      मधुरालय की दिव्य छटा लखि-


      माँ वाणी मुस्काई है।।


एक घूँट बस दे दे साक़ी-


आसव की सुधि आई है।।


                  © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                    9919446372


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*अठारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


बासुदेव, हे अंतरजामी।


हे हृषिकेश जगत के स्वामी।।


      मोंहि बतावउ अंतर आई।


      बिच संन्यास-त्याग बिलगाई।।


काम्यइ कर्म-त्याग संन्यासा।


कछु बिदुजनहिं क अस बिस्वासा।।


      सकल कर्म-फल-त्यागइ त्यागा।


      अस मत कछु विद्वान सुभागा।।


सकलइ कर्म-दोष परिपुरना।


कछु विद्वान कहहिं अस बचना।।


      होंहिं करम अस त्यागन जोगा।


      जगि-तप-दानइ होंय सुजोगा।।


त्याग होय सुनु कुंति-कुमारा।


सत-रज-तम जग तीन प्रकारा।।


     जग्य-दान-तप त्याग न जोगू।


     करहिं सुद्ध बुधि जनहिं सुजोगू।।


चहिअ अस्तु,करन तप-दाना।


जग्य व कर्म श्रेष्ठ जे जाना।।


    बिनु आसक्ति औरु निष्कामा।


    अस मम उत्तम मत बलधामा।।


नियत कर्म कै त्याग न उत्तम।


त्याग मोह बस तामस मत मम।।


     सकल कर्म बस दुख कै कारन।


     त्यागहिं भय बस कर्म सधारन।।


राजस- त्याग होय अस त्यागा।


ब्यर्थ-निरर्थक औरु अभागा।।


दोहा-त्यागइ सात्विक पार्थ सुनु,अनासक्त-निष्काम।


        नियत कर्म करि सास्त्र बिधि,पाउ परम सुख-धाम।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372 क्रमशः.......


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