सुषमा दीक्षित शुक्ला

,वीरों, का ले अरि से हिसाब


 


,वीरों ,का ले अरि से हिसाब।


चीनी शोणित से खेल फाग ।


 


ऐ !राष्ट्र शक्ति अब जाग जाग ।


ऐ!शक्ति पुँज अब जाग जाग ।


 


रणचण्डी तेरे खड़ी द्वार ।


दे रक्तपात करती पुकार ।


 


सीने मे उसके लगी आग ।


उठ हो सशक्त भय रहा भाग ।


 


है बैरी का करना मद मर्दन ।


ये सर्प कुचलने लायक फन ।


 


अरि शोणित से कर अभिनन्दन ।


ये मातृ भूमि का है वन्दन ।


 


कर खड्ग ग्रहण तू लगा आग ।


अब बहुत हो गया त्याग त्याग ।


 


वीरों का ले अरि से हिसाब ।


चीनी शोणित से खेल फाग ।


 


ऐ !राष्ट्र शक्ति अब जाग जाग ।


ऐ! शक्ति पुँज अब जाग जाग ।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार अवनीश त्रिवेदी "अभय"

**


(शिक्षक, कवि,लेखक,समीक्षक)


*संस्थापक/अध्यक्ष*- काव्य कला निखार साहित्य मंच


*जिलाउपाध्यक्ष*- अवधी विकास संस्थान- सीतापुर


*राज्य को- ऑर्डिनेटर(उ.प्र.)*- नवीन कदम साहित्य छत्तीसगढ़


 


पिता- श्री अश्वनी कुमार त्रिवेदी


माता- श्रीमती अनीता देवी


जन्मतिथि- 10/10/1992


पता-


ग्राम- मोहरनिया


पोस्ट- जहाँसापुर


जिला- सीतापुर- उत्तर प्रदेश


पिन- 261141


मोबाइल- 7518768506


ईमेल- avneeshtrivedi72@gmail.com


 


मत्तगयंद सवैया


 


साजन है परदेश सखी मन धीर धरौ नहि जात हमारे।


भूख न प्यास लगै हमकों अब पीर कहो यह कौन उबारे।


फ़ागुन बीति गयो नहि आयउ आँसु बहे बिन रूप निहारे।


रैन न बीतति चैन न आवति आनि मिलो अब प्रान पियारे।


 


अवनीश त्रिवेदी 'अभय'


 


 


मत्तगयंद सवैया


 


प्रीति भरे उर भीतर है पर बोलन से अति वो सकुचाती।


बात करे कुछ ना हमसे पर होंठन से मृदु है मुसकाती।


देह कपास लगे अति शोभित नैनन कोटि मनोज लजाती।


घूँघट के पट झाँपि रही मुख चाल चले सबसे बलखाती।


 


अवनीश त्रिवेदी 'अभय'


 


 


छंद


 


धन्यवाद आपका है मन प्राण से हमारा,


साथ मिला आपका जिंदगी सँवर गयी।


सदा ही रहती साथ जाड़ा गर्मी बरसात,


साथ रहते कई मुश्किलें गुज़र गयी।


अस्त व्यस्त रहते थे पहले तो हमेशा ही,


आप मिली मुझे तो आदतें सुधर गयी।


खाली खाली जिंदगी थी अब गुलज़ार हुई,


आप आयी घर तो खुशियां ठहर गयी।


 


हार-जीत, सुख-दुःख, वैर-प्रीत सहे साथ,


जीवन के संकटों को, साथ ही सहते हैं।


प्राणो से भी प्रिय सदा, प्राण प्रिय हो हमारी,


दूर कभी होते नही, मिल के रहते हैं।


हाँ में ही हाँ मिलाता हूँ, आपकी हर बात में,


स्याह सफ़ेद कहो, तो सफ़ेद कहते हैं।


ज़िन्दगी की दरिया में, किनारें हैं नही पर,


आपके के ही साथ, हमेशा बहते हैं।


 


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


 


विश्व की समस्त मातृशक्ति को ह्रदय से कोटि कोटि प्रणाम


 


छंद


 


ममता की मूर्ति आप, जगत की कीर्ति आप,


सरसाती सुधा हमेशा मंगलकारी हो।


अपने पाल्यों पे कभी, कष्ट नही आने देती, 


करती दुआओं से ही, सदा रखवारी हो।


सूखे में सुलाती हमे, गीले में ही सोती सदा,


आँचल की छाँव देती, बड़ी हितकारी हो।


माँ कैसे करे बखान, हम तो बड़े अज्ञान, 


बौने पड़ जाते शब्द, ऐसी वीर नारी हो।


 


अवनीश त्रिवेदी"अभय"


 


 


छंद - घनाक्षरी


 


देखी खूब राह किंतु, कोई न उपाय मिला,


पैदल ही चल दिए, दूर अभी गाँव है।


भूख प्यास सह रहे, कुछ नही कह रहे,


तपती दोपहरी में, मिलती न छाँव है।


किलोमीटर सैकड़ो, दूरी तय कर रहे,


लगातार चलने से, फ़ट रहे पाँव है।


पग लहू रिस रहा, किसी को न दिख रहा,


माननीय कर रहे, राजनीति दाँव है।


 


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


सीतापुर- उत्तर प्रदेश


 


मत्तगयंद सवैया


 


केवट पानि कठोत भरो अरु जोरि खड़ो कर पाँव पखारे।


देखि रहो प्रभु रूप अलौकिक नैनन को एक साथ निहारे।


धोवति हैं प्रभु पाँव मनोहर भाग बड़ो भव लोक सुधारे।


हे! रघुनाथ सुनो विनती अब नाव चढ़ो फिर पार उतारे।


 


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


 


गीत


 


भोर रवि की हो पहली किरण।


अगर मिल जाए तेरी शरण।


शुलभ जीवन पथ की हो राह।


अब तो यही है मेरी चाह।


तुम्हारे नैन तेज तलवार।


सहे जाते नहि मुझसे वार।


रुप की तुम अद्वितीय हो खान।


मुझे लगती हो बड़ी महान।


आँखों मे बसता तेरा चित्र।


तुम्हारा प्रेम नदी सा पवित्र।


वो मुखमण्डल पर अनुपम तेज।


लगे जैसे फूलों की सेज।


वो अधरों पर मीठी मुस्कान।


कराती तृषित को ज्यों रसपान।


ईश का तुम अनुपम वरदान।


तेरे आगे हम हैं नादान।


हृदय में करुणा भरी अपार।


मृदुल मुख के तेरे उदगार।


प्रिये मैं कैसे भूलूँ आज।


कराये हैं तुमने जो काज।


बहुत मुझ पर तेरा अहसान।


मेरी हर साँस तुम पे कुर्बान।


 


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


सुषमा दीक्षित शुक्ला

बड़ी शातिर है तनहाई ,


 ये अकेली ही चली आई।


 


 देखो तुम्हारी याद तो लाई


 कहीं तुम को छुपा आई ।


 


 दे रही एक खत इसको ,


लिखा था प्यार से जिसको।


 


इसे तुम ठीक से पढ़ना ,


जिसे पहले न दे पायी ।


 


कलम से दिल के टुकड़ों की,


 अपने अरमा पिरोये हैं ।


 


 ढुलकते अश्क स्याही बन ,


 आज खत को भिगोए हैं ।


 


किए हैं आज वो शिकवे ,


जिन्हें अब तक छुपा लाई।


 


 इसे तुम ठीक से पढ़ना ,


जिसे पहले न दे पायी ।


 


 बह रही ही देख लो रिमझिम,


 मेरे नैनों की बरसातें ।


 


हर घड़ी याद आती हैं ,


तुम्हारे प्यार की बातें ।


 


झरी बरसात अंखियों से,


वही खत को बहा लायी ।


 


 इसे तुम ठीक से पढ़ना ,


 जिसे पहले ना दे पायी ।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार प्रिया सिंह लखनऊ


शिक्षा:- स्नातक 


जन्म तारीख:- 02/06/1996


पता:- श्रीमद दयानंद बाल सदन मोती नगर लखनऊ 226004 उत्तर प्रदेश 


संपर्क सूत्र:-8887064914


email address:- ps3067381@gmail. com


 


कविताये


प्रीत के गीत का.....जपन हो रहा


देखो दो नयनों का ....गमन हो रहा


 


फूल..कलियाँ..नजारे.. हैरान हैं 


राम क्या इस जगह के मेहमान हैं 


बंजर बंजर भी अब तो चमन हो रहा


देखो दो नयनों का... गमन हो रहा


 


सूखे पत्ते पर सजी थी वो स्वाति हंसी


कण कण में राम की ही ख्याति बसी


दो अधरों से उनका आचमन हो रहा


देखो दो नयनों का..... गमन हो रहा


 


रामलीला गजब की है न्यारी बहुत


है मुस्कुराहट सीता की प्यारी बहुत  


प्रेम के जीत का फिर सृजन हो रहा


देखो दो नयनों का....गमन हो रहा


 


आत्म की प्रीत को देख खुश हैं सभी


प्यार की शीत को देख खुश हैं सभी


उस ईश्वर का सत सत नमन हो रहा


देखो दो नयनों का.....गमन हो रहा


 


लेकर राम सीता को.......घर आये हैं 


वरदान अपने संग.......अजर लाये हैं


लेकर सातों वचन.....आगमन हो रहा


देखो दो नयनों का.......गमन हो रहा


 


@Priya_Singh


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ना किरदार की दरकार है


ना ये कहानी मजेदार है 


लय तुकान्त बंधक बन


कलम इनकी संगत बन


जलाता ये झंजार है 


इसका अनूठा श्रंगार है


ना किरदार की दरकार है 


ना ये कहानी मजेदार है 


 


खयालातों का उदगार है


इसमें भावों का संसार है


ठुमकती हुई गंगा की धार है


खूबसूरती इसकी उतरती मन में 


इसका गंध बिखरता जीवन में 


ये काव्य रस का भरा परिवार है 


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


पुरखों का इसमें संस्कार है


शब्दों में गुंथा ये अलंकार है 


प्रस्तावना प्रयोजन प्रकरण 


ना व्याख्या संदर्भ का व्याकरण 


बहर काफिया में बंधा हरिद्वार है


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


इसके दर्द शब्दों में शुमार है 


वीर रस की धधकती ये हुँकार है 


है शब्दों की कारीगरी का कमाल 


कविता तो बेशक ही है मालामाल


गीत गजल तरन्नुम में भी झंकार है


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


ये कविता बहुत ही इज्जतदार है 


शब्द इसके निहायती समझदार है


रूलाता हँसाता गहरी नींद में लाता


इंसानों में भावनाओं को जगाता


सब को जागरूकता का अधिकार है


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


ये सरल पथ का एक ही बस द्वार है 


भजन-कीर्तन संगीत का ये तार है


मीरा की भी भक्तिकाल का परिवेश 


तुलसी का भी साधारण सा हरि वेश


महाभारत और वेद के श्लोक का सार है


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


रामायण,गीता,गंगा सा सरोकार है


ये कवियों की प्रिय सलाहकार है 


छन्द,रस सब में इसका झुकाव होना


अतुकांत में अक्सर कुछ सुझाव होना


प्रेम प्रसंग में भी मजबूत हथियार है 


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


Priya Singh


 


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गुरु वही जो ग्यान दे


जग में वो सम्मान दे


 


पंखों को नई उडान दे


इच्छाओ की पहचान दे


गुरु वही जो ग्यान दे 


 


बढने का अरमान दे


उन्नति का फरमान दे


गुरु वही जो ग्यान दे 


 


अच्छे-बुरो का संज्ञान दे


खुशीयो का वरदान दे


गुरु वही जो ग्यान दे 


 


सच्चाई पर वो जान दे


किताब को वो मान दे


गुरु वही जो ग्यान दे 


 


छोटी बातों पर ध्यान दे


होठों पर वो राष्ट्रगान दे


गुरु वही जो ग्यान दे 


 


सर पर जो आसमान दे


शब्दों को वो नाम दे


गुरु वही जो ग्यान दे


Priya singh


 


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बंद थे किवाड़े खोल दिये गये


जहर हालात में घोल दिये गये


बंद थे किवाड़े खोल दिये गये 


 


हुकमरां की फरमान ऐसी थी


शराब नस नस में घोल दिये गये 


बंद थे किवाड़े खोल दिये गये 


 


मिट रही जान एक एक कर


जान सस्ती थी मोल दिये गये


बंद थे किवाड़े खोल दिये गये 


 


सवालात बहुत उठे बेनज़ीर से


जवाब सिर्फ गोल गोल दिये गये


बंद थे किवाड़े खोल दिये गये 


 


गरीबी पूछनी है हम से पूछो


रोटी के खातिर झोल दिये गये


बंद थे किवाड़े खोल दिये गये 


 


 


Priya Singh


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औरत नहीं ये कीमती हीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है


इसे छेड़ो मत गलियारों में 


इसकी गिनती है उजियारों में 


ये एक वट की हरियाली शीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है 


 


ये जलती सीता की पीड़ा है


ये बैखौफ सी होती धीरा है


इसे छोड़ों मत अंधियारों में 


इसे जलने दो अगियारों में 


ये सरल स्वभाव गंभीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है 


 


ये समंदर पर बसा जजीरा है


ये बेटी देश की कश्मीरा है


ये आती कहाँ है खाकसारों में 


इसकी गिनती है इज्जतदारों में 


ये वेद की एक इलाजी चीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है 


 


हौसलों की धधकती वीरा है


ये मसाला,मिर्च और जीरा है


कमी नहीं इसके व्यवहारों में 


अद्भुत है नारी संस्कारों में 


रिश्तों में फसी जंजीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है 


 


 


ये बसा खुशहाल मंदीरा है


ये स्वेत प्रेम बानों रघुवीरा है


ये आती है बेशक होशियारों में 


जिल्लत शुमार है अधिकारों में 


ये साफ किरदार शकीरा है


ये चंचल शौख फकीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है 


औरत नहीं ये कीमती हीरा है


 


 


Priya singh


 


 


 


💐💐💐💐💐💐


 


दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल*

*भारत_वीरों_को_अश्रुपूरित_श्रद्धांजलि_समर्पित*


 


सीमाएं जब जल उठती हैं,


तो मानव का ही ह्रास होता है


एक दूसरे देशों के जनमानस में


घोर तनाव बढ़ जाता है।


 


करने दो जो वे करते हैं


अब सम्भव नहीं सुहाता है


आँख दिखाये कोई भी


तो चीर-फाड़ हो जाता है।


 


बीस जवानों के लहू के बदले


कई सौ को मार गिराना होगा


एक इंच भी सीमाएं खिसकाईं हैं


तो किमी में सीमा बढ़ाना होगा।


 


निर्धारित सीमाओं के बदले 


युद्धों में आ जाना ठीक नहीं


देशों का अनाधिकृत चेष्ठा रखना


जन जीवन के लिए ठीक नहीं।


 


जब सबकी सीमाएं निर्दिष्ट हैं


तो रोज बिगुल क्यों बजाते हैं


क्या सीमाएं जीवित मानव हैं


जो प्रतिदिन खीस जाते हैं।


 


ऐसा देशों में क्या होता है


सीमाओं पर जवान मारे जाते हैं


कुटिल देश ही जन को भ्रमित कर


युद्ध का प्रदर्शन कर दिखाते हैं।


 


हम राम-कृष्ण सा जीवन जीने वाले हैं


बढ़े आतंक से लंका जलाये जाते है


यदि फिर भी समझ नहीं पाते हो


तो घुस लंका में रावण भी मारे जाते हैं।


 


मौलिक रचना:-


*दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल*


महराजगंज, उत्तर प्रदेश ।


दुर्गा प्रसाद नाग

आज का ✍️✍️


🔥🔥🔥( गीत) 🔥🔥🔥


 


___________________


जीवन की अंधेरी राहों में,


हम दीप जलाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम भोग भूमि पर रहते हो,


हम कर्म भूमि के वासी हैं।


तुम सरा- सुन्दरी के कीड़े,


हम भारत के सन्यासी हैं।।


 


तुम फूलों पर मंडराते हो,


हम कांटों में गुजारा करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम जख्म पे जख्म देते हो,


हम हंस के उसे सह लेते हैं।


तुम हमे कसाई कहते हो,


हम भाई तुम्हे कह लेते हैं।।


 


तुम कांटे चुभोया करते हो,


हम फूल बिछाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


शैतान तुम्हे यदि कहते हैं,


शैतानी हमें भी आती है।


पर शांति प्रतीक हमारा है,


व शांति ही हमको भाती है।।


 


तुम शूल बिछाया करते हो,


हम डगर बुहारा करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम वार पीठ पर करते हो,


हम सीना फाड़ दिखा देंगे।


यदि भारत में चिंगारी भड़की,


दुनिया को आग लगा देंगे।।


 


तुम अंधेरा फैलाते हो,


हम ज्योति जलाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


कहीं होटल ताज फूंकते हो,


कहीं दंगे भड़काते हो।


जब आती मेरी बारी तो,


झट से बिल में छुप जाते हो।।


 


क्या कर सकते हो तुम चूहों,


यह पता लगाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम छुपकर खेल खेलते हो,


हम खुलकर खेला करते हैं।


तुम मिलकर धोखा करते हो,


हर दुख हम झेला करते हैं।।


 


जिस दिन हत्थे चढ़ गए कहीं,


हम जड़ से सफाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम दहशत यहां फैलाते हो,


हम चैन-ओ-अमन फैलाते हैं।


तुम चोटें देकर जाते हो,


हम भावुक हो सहलाते हैं।।


 


तुम कौमी कोम से जलते हो,


हम नीर बहाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम शांति भंग करते रहते,


हम शांति पाठ सिखलाते हैं।


तुम देख देख जलते रहते,


हम ठाठ बाट बल खाते हैं।।


 


तुम मिर्ची जैसे कड़वे हो,


हम रंग चढ़ाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम आगे पैर बढ़ाओगे,


हम पैर काटकर रख देंगे।


यद्यपि अहिंसावादी हैं,


यह व्रत ताख पर रख देंगे।।


 


जिस दिन हत्थे चढ़ गए कहीं,


हम जड़ से सफाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


 


🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥


दुर्गा प्रसाद नाग


नकहा खीरी


मोo- 9839967711


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज

दिनांकः १७.०६.२०२०


दिवसः बुधवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा


शीर्षकः 🇮🇳तोड़ो चीन गरूर 🇮🇳


 


अमन चैन और मित्रता , है समुचित संदेश।


प्रश्न राष्ट्र सम्मान का , ले बदला हर देश।।१।। 


 


दुश्मन को दुश्मन समझ , करो नहीं विश्वास।


धोखा दे वह कभी भी , हिंसा अरु उपहास।।२।।


 


उठा शस्त्र कर रिपुदमन , हो कब तक बलिदान।


तहस नहस चीनी करो , अमर वीर सम्मान।।३।।


 


क्षमा नहीं प्रतीकार अब , बंद चीन व्यापार।


धारा बदलो नीति की , करो शत्रु संहार।।४।।


 


चीन बना दुस्साहसी , शक्ति सम्पदा चूर ।


महाशक्ति अब तुम स्वयं , तोड़ो चीन गरूर।।५।।


 


ड्रैगन की धोखाधड़ी , बनी सदा की नीति।


करो आर अरू पार अब , चीन न समझे प्रीति।।६।।


 


गलवानी चीनी झड़प , बीस जवान शहीद।


तजो अहिंसा राह को , बनो न अमन मुरीद।।७।।


 


सम्प्रभुता माँ भारती , जागो रे सरकार।


रक्षा यश इज्ज़त वतन, लो चीनी प्रतिकार।।८।।


 


बंद करो वार्ता कथा , भारत चीन विवाद।


करो कूच नासूर पर , नाश चीन अवसाद।।९।।


 


जय शंकर फिर काल बन ,तेजस अग्नि त्रिशूल।


पृथिवी का रिपु चीन है , विश्वास करो न भूल।।१०।।


 


कवि निकुंज लहु खौलता , देख देश हालात।


रहो एक इस वक्त में , दमन शत्रु जज़्बात।।११।।


 


लाओ फिर अरुणिम समय , महाशक्ति सम्मान।


पार शतक अपराध अब , करो चीन अवसान।।१२।। 


 


वीर शहीदों ने किया , पलटवार इस चीन ।


हिन्द चीन की बन्धुता , तोड़ो बनो न दीन।।१३।।


 


बहुत हुआ अब दिलकशी , केवल युद्ध इलाज।


दो सेना अधिकार अब , निर्णायक आगाज।।१४।।  


 


एक तरफ़ वार्ता करे , छिपकर सीमा घात।


महाशक्ति कहता स्वयं , लाठी डंडा लात।।१५।। 


 


अधिकारी सेना वतन , ले निर्णय सीमान्त।


निर्णय ली सरकार ने , करो शत्रु का अन्त।।१६।। 


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित)


नई दिल्ली


सुनीता असीम

खूबसूरत से नज़ारे तो हिजाबों में मिले।


इश्क करने की अदा सिर्फ नबावों में मिले।


*†*


काम करने में खुशी उतनी नहीं मिलती है।


वो मजा और खुशी सिर्फ ख़िताबों में मिले।


***


वो परी एक कहानी की हसीना माना।


ऐसी परियाँ तो कथा और किताबों में मिले।


***


मय का प्यासा तो दिवाना सा ठिकाना खोजे।


उसकी मंजिल तो उसे सिर्फ शराबों में मिले।


***


जितनी कविता औ ग़ज़ल हमने लिखीं हैं अब तक।


उनका चिट्ठा तो किताबों के हिसाबों में मिले।


****


सुनीता असीम


१७/६/२०२०


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश

'लद्दाख में वीरगति को प्राप्त वीर सैनिकों को भावपूर्ण और अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि 


""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""


एक भावपूर्ण कविता 


 


 


सीमा पर तेरी शहादत को


       जीवन में भूल नहीं सकते,


तुम गौरव हो भारत माँ के 


       हम तुमको भूल नहीं सकते। 


 


अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित जो 


         प्राणों का मोल नहीं करते,


भारत माँ के अमर सपूत


        जो दुश्मन से नहीं डरते।....


 


हम बीस के बदले सौ मारेंगे


    दुश्मन से मनुहार नहीं करते।.. 


         


राम कृष्ण बुद्धा की धरती 


        हैं कायर यहाँ नहीं बसते,


तेरे जैसे अधम नहीं हम 


     छिपकर प्रहार नहीं करते।.....


 


पोषक नहीं साम्राज्यवाद के 


      हम अनाधिकार नहीं करते।..


 


क्यों माँद में छिपकर बैठे 


       लड़ना है सम्मुख आओ,


सीना तान खड़े सीमा पर 


        छद्मवेश मत दिखालाओ। 


 


वीरों की भाँति जंग करते हैं 


     हम मिथ्या प्रलाप नहीं करते।.


 


बहुत हुआ है आँख मिचोली 


      अब अक्साई चीन हमें दे दो, 


जो जबरन कब्जा कर बैठे हो 


         अब वह ज़मीन हमें दे दो। 


 


हम सिंहों से लड़ने वाले हैं 


      गीदड़ पर वार नहीं करते।.. 


 


अब तुम्हें चुनौती देते हैं हम 


       मैदान-अ-जंग में आ जाओ, 


साहस है तो जंग करो तुम 


       कायरता तो मत दिखलाओ। 


 


भारत माँ के स्वाभिमान को 


       हम तार-तार नहीं करते।....


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उ० प्र०)


मो० नं० 9919886297


वैष्णवी पारसे

मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग


 


सुबह से शाम तक करती हूं मैं काम 


एकपल भी नहीं करती आराम


अपनों का रखती हूं हरदम ख्याल 


भूलकर अपना ही होश और हाल


मजबूत जिसकी डोर ऐसी मैं पतंग 


मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग


 


कितनी ही भूमिकाएँ मैंने अदा की


माँ, पत्नी, बहन, बेटी


पर मेरी जरूरत इतनी ही क्या


बनाऊ मैं बस दो वक्त की रोटी


कब मिलेगी मुझे आजादी मेरे जीने का ढंग 


मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग


 


जीजाबाई का मातृत्व मुझमे लक्ष्मी सी आग


राधा का समर्पण मुझमे सीता सा त्याग


गंगा की पवित्रता मुझमे दुर्गा सा शौर्य 


उर्वशी की चंचलता मुझमे धरती सा धैर्य


समुंदर भी सहम जाए ऐसी मैं तरंग 


मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग


 


स्वरचित 


वैष्णवी पारसे


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*रिम-झिम*(लोक-गीत)


रिम-झिम पड़ेला फुहार सवनवाँ त आय गईलें सखिया, पेड़वा पे झुलेला झलुवा त दिलवा रसाय गईलें सखिया।।


      पुरुवा के झोकवा से आवेले बयरिया,


      पनिया के बूँदवा में टिके ना नजरिया।


      त मनवाँ में उठै ले कसकिया-


      सँवरिया भुलाय गईलें सखिया।।


                                 रिम-झिम....


काले-काले बदरन कै छटा हौ निराली,


बिजुरी ज चमके त भागूँ हाली-हाली।


बिरहा के अगिया से जली मोरि-


सरीरिया कुम्हिलाय गईलें सखिया।।


                       रिम-झिम....


      एको पल सोऊँ नाहीं, जागूँ सारी रतिया,


      का करूँ रामा हमरे आवे नाहीं बतिया।


      त हथवा कै गिनीला अँगुरिया-


      रतिया अपार भईलीं सखिया।।


                   रिम-झिम....।।


पिया बिनू तनिको सुहाय ना सवनवाँ,


लागै नाहीं कतहूँ उदास मोर मनवाँ।


अब त लागै जईसे बहुतै फीका-


सोरहो सिंगार भइलें सखिया।


        रिम-झिम पड़ेला...........।।


         ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


       9919446372


भरत नायक "बाबूजी"

*"काहिल-कपटी"*


('क' आवृत्तिक कुण्डलिया छंद)


"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""


*काहिल-कपटी कब कहाँ, करता कुछ कल्याण?


कोई कब कैसे कहे, किस कर कुटिल-कृपाण??


किस कर कुटिल-कृपाण, कहाँ कब किसका क्रंदन?


किसके कर कश्कोल, कोश कब किसके-कंचन??


कह नायक करजोरि, कौन कब किसके काबिल?


कर्कश-कलुषित कर्म, करे किल कपटी-काहिल।।


""""""''''"""""""""""""""'"""""""""""""""""""""


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

पढ़े लिखे आदमी की जिंदगी


टीवी अखबार समाचार    


खबर ही जिंदगी में ख़ास 


जिंदगी खबर समाचार ।।


 


चाय ,पान कि दूकान गुलज़ार 


राजनीती ,खेल ,सिनेमा देश 


की तमाम गतिविधियों का बुनियाद


टीवी अखबार कि खबर बहस


का चलता फिरता बाज़ार।।


 


सुबह भागता आदमी चाय ,पान कि दूकान फट मांगता अखबार जैसद गीता कुरान।


शायद कभी स्कूल में ध्यान नहीं


लगाया । ,  


 


जिंदगी 


खुद में समाचार हो गयी है देश के आम जन कि जिंदगी


आम हो गयी है।।


 


जिनके घर ही अखबार टीवी मोबाइल कि भरमार 


सुबह टीवी से ही करते जिंदगी की


शुरुआत खबरों से होते दो चार


रुख करते पढ़ने अखबार पन्ना 


उलटते पलटते कहते नहीं ख़ास


कोई समाचार ।।


 


रोज रोज ना जाने क्या क्या छापते अखबार विज्ञापन ,प्रचार 


टीवी में भी विज्ञापन कि भरमार।।


बेमतलब कि बहस भार हो गयी है


जिंदगी मोबाइल टीवी अखबार हो


गयी है।।


 


अखबार और टीवी से फुरसत तो


मोबाइल संसार ।


रिश्ते ,नाते ,दोस्ती ,मोहब्बत मोबाइल जान हो गयी है।।


 


गुरुओं कि पावन श्रंखला में मोबाइल गुरु की बात हो रही है।।


 


एक दिन बुधना ने किया सवाल


दादा आज कल हर आदमी के


हाथ में छोटा बक्सा कौन भगवान्


कोउ कोउ से बोलत नाही सबकर ऊ पर ध्यान परान ।।


 


का ऐसे मनाई के दाना ,पानी मिल


जात रोजगार बुधना के भोलेपन


का हमहू दिये जबाब।


सुन बुधन पढ़े लिखे लोगन का


हाथ मोबाइल बगले अखबार


सारी दुनिया के समझो है जानकार बादशाह।।


 


जौन् पूछो तौन बताहिये बस ना


बता पहिये आपन रिश्ता नाता 


संस्कृत संस्कार।


ई त पिछड़ापन ह बुधन चावल, रोटी ,दाल


पिज़्ज़ा ,वर्गर .हॉट डांग ,चाउमिन


मोबाईल अखबार जीवन के साथ


पढ़े लिखे का स्टेट्स सिम्बल । बेटा बेटी और परानी


टीवी ,मोबाइल ,अखबार ,टाटा 


थैंकयू ,बाई बाई में सिमट गया 


समाज।।    


 नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


राजेंद्र रायपुरी

😌😌 दोहे राजेंद्र के 😌😌


 


बहा पसीना पेट ही, 


                    भर सकता इंसान।


काला-पीला जो करे, 


                  वो बनता धनवान।


 


बुरे काम मत कीजिए, 


                  कहा मानिए आप।


वरना दाता आपकी, 


                    गरदन देगा नाप।


 


बुरा जगत में जो किया,


                   भुगता वो परिणाम।


बाली,रावण,कंस क्या,


                 और बहुत हैं नाम।


 


         ।। राजेंद्र रायपुरी।।


विवेक दुबे"निश्चल

20 जवानों के बलिदानो को व्यर्थ नही तुम जाने देना ।


अब भारत के अंदर चीनी समान नही तुम आने देना ।


दे सच्ची श्रद्धांजलि वीर अमर शहीदों को , 


 अब ड्रेगन को कोई मुनाफ़ा हमसे नही पाने देना ।


शपथ करे भारत माता की अपने सम्मानों की खातिर ,


ड्रेगन की कम्पनियों को अब और नही खाने देना ।


न लाएगा न बेचेंगा कुछ भी कोई हम में से ,


अब अपनो को ही हमको आगे आने देना ।


....विवेक दुबे"निश्चल"@...


डाॅ. सीमा श्रीवास्तव

मुक्तक 


 


जब कवि की करुणा से आह निकलता है 


तब लोगों के मुंह से वाह 


निकलती है ।


समस्याएं कितनी ही कठिन क्यों न हो।


मिल बैठ कर सुलझाने से राह 


निकलता है। 


      डाॅ. सीमा श्रीवास्तव


सुनीता असीम

कौन है जो नशे में चूर नहीं।


चढ़ रहा अब किसे सुरूर नहीं।


*****


दिल तेरा धड़क रहा है जो।


इसमें मेरा कहीं कसूर नहीं।


*****


जो करे मां-बाप की सेवा।


पुत्र ऐसा मिले बेशऊर नहीं।


*****


कर लिया जो जतन बड़े मन से।


फिर तो दिल्ली है पास दूर नहीं।


*****


जो चमकती रहीं हरिक मौसम।


उन निगाहों में आज नूर नहीं।


******


सुनीता असीम


१६/६/२०२०


सत्यप्रकाश पाण्डेय

कैसे शब्दों में...........


 


मेरा भी मन कहता है, मैं भी एक ग़ज़ल लिखूं


विरह व्यथित हिय मेरा, आँखें मेरी सजल लिखूं


 


चाहता था मैं भी प्रिय, जीवन तेरे साथ बिताऊँ


हार गया तेरी हठ से, हो गया कैसे निबल लिखूं


 


ख्वाब सजाये थे मैंने, तुम होंगी मेरी बाहों में


ख्वाब मेरे ख्वाब रहे न, हो पाया मैं सफल लिखूं


 


प्यार प्रीति की हो बारिश, भीग जाये तन व मन


प्यासा है अन्तर्मन मेरा, हो गया मैं विफल लिखूं


 


अप्रितम पल जीवन के, सत्य यूं ही तूने गंवा दिये


हो पायेगा दीदार प्रिया, कैसे शब्दों में मिलन लिखूं।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुषमा दीक्षित शुक्ला

*एक खूबसूरत कहानी"


 


जाड़ों की गुनगुनी धूप जैसा ,


इस बेगानी सी दुनियां में ,


तुम्हारा वो अपनापन ।


 


यादों के गलीचे पर खड़े होकर ,


तुम्हारा रूठना मुस्कुराना ।


तुम्हें बस महसूस करना ,


 


सुनो!अब यही सुकून है मेरा ।


हमारे हर तरफ है जो ये ,


तुम्हारे प्यार का अनन्त पहरा ।


 


फिर किसी रोज लिखनी है,


अब एक अपनी कहानी ,


जिसके तुम राजा मैं रानी ।


 


जीवन मरण के फेर से दूर ,


उस कोरे अनन्त क्षितिज पर ,


तुमसे मिलना होगा अब मुझे ,


कभी भी जुदा न होने के लिए ,


 


फिर सदियों तलक 


याद रखी जायेगी,


एक खूबसूरत कहानी ,


जिसके तुम राजा मैं रानी ।


 


   -


- राजाजीपुरम , लखनऊ,


---


सुषमा दीक्षित शुक्ला

तुम्हारे न होने के बाद भी,


 तुम्हारे होने का अहसास।


 शायद यही है वह अंतर्चेतना,


 जिसने मेरे भौतिक आकार को,


 अब तक धरती से बांधे रखा है।


 देह का मरना कहाँ मरना ,


भाव का अवसान ही तो मृत्यु है।


 शायद तुमको अब तक याद होगा, 


बहुत सी ख्वाहिशों के साथ,


 जी रही थी मगर अब चल पड़ी।


 जिस राह वह रास्ता अनंत है,


 कभी-कभी अपनी नादानियों पर,


 बहुत हंस लेने को दिल करता है,


 तो कभी सांस लेने को भी नहीं ।


 सच तो यह है कि हर फूल का,


 दिल भी तो छलनी छलनी है ।


अंत मेरे हाथ लगना है बस ,


वो हवा में लिखी अनकही बातें,


वो साथ साथ देखें अधूरे ख्वाब।


 अब कोई आहट कोई आवाज,


 कोई पुकार नहीं तुम्हारी !


अब किसी उम्मीद से नहीं देखती,


  घर के दरवाजे को मगर अब ,


खुद के भीतर ही तुम को पा लेना,


 बस यही जीत है मेरी ,


बस यही जीत है मेरी।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ. हरि नाथ मिश्र

-डॉ0हरि नाथ मिश्र


पिता का नाम-स्मृति शेष श्री पंडित जगदीश मिश्र।


माता का नाम-स्मृति शेष श्रीमती रेखा मिश्रा।


शिक्षा-एम0 ए0 अँगरेजी, पीएच0 डी0।


पूर्व विभागाध्यक्ष-अँगरेजी, का0 सु0 साकेत सनारकोत्तर महाविद्यालय,अयोध्या,उ0प्र0।


उपलब्धियाँ-सेवा-काल में डॉ0राम मनोहर लोहिया विश्वविद्यालय से अँगरेजी विषय में शोध करने वाले लगभग 25 शोधार्थियों के पर्यवेक्षण का कार्य।अँगरेजी विषय के पाठ्यक्रम सम्बंधी पुस्तकों का।लेखन।


प्रकाशित रचनाएँ-श्रीरामचरितबखान(अवधी में)


श्रीकृष्णचरितबखान(अवधी में)


गीता-सार(अवधी में)


एक झलक ज़िंदगी की(कविता-संग्रह)


धूप और छाँव(कविता-संग्रह)


इसके अतिरिक्त विभिन्न विषयों पर लिखी हुईं सैकड़ों कविताएँ।


वर्तमान पता-7/3/38,उर्मिल-निकेतन,गणेशपुरी, देवकाली रोड, फैज़ाबाद,अयोध्या।उ0प्र0।


संपर्क-9919446372


 


कविताये-1


नवभारत-संकल्प तो केवल इतना है,


सबका झंडा एक तिरंगा अपना है।


हुआ अभिन्न अंग कश्मीर पुनः भारत का-


अगस्त पाँच उन्नीस को,पूर्ण हुआ वो सपना है।।


                                 सबका झंडा एक...........।।


सबका है कश्मीर और कश्मीर के सब हैं,


हिंदू-मुस्लिम-सिक्ख-इसाई, कश्मीरी अब हैं।


कर न सकेगी उन्हें अलग,अब कानूनी धारा-


नव निर्मित इतिहास का बस यह कहना है।।


                           सबका झंडा एक...............।।


पलट गया इतिहास सियासतदानों का,


बिगड़ गया जो खेल था सत्तर सालों का।


मिला पटल आज़ादी का उस माटी को-


स्वर्ग सरीखी अनुपम जिसकी रचना है।।


                       सबका झंडा एक..................।।


हुआ अंत अब हिंसावाद हिमायत का,


अलगाववाद की बेढब नीति रवायत का।


धरे रह गये ताख पे सब मंसूबे उनके-


जिनका लक्ष्य तो केवल ठगना है।।


                    सबका झंडा एक.....................।।


हुईं दुकानें बंद सभी धर्मान्धों की,


कट्टरपंथी ताकत कुत्सित धंधों की।


नयी दिशा अब मिलेगी सब नवयुवकों को-


करेंगे निज उत्थान स्वयं जो करना है।।


                 सबका झंडा एक..................।।


देश सुरक्षित रहेगा,संग कश्मीर भी,


बिगड़ेगी नापाक पाक तक़दीर भी।


होगा शीघ्र विनाश विरोधी ताक़त का-


नहीं बेढंगा दाँव कुटिल अब सहना है।।


                सबका झंडा एक...................।।


होगा पूर्ण विकास स्वर्ग सी घाटी का,


होगा अब आग़ाज़ नयी परिपाटी का।


पुनः खिलेगा पुष्प सुगंधित मानवता का-


भारत का जो रहा सदा से गहना है।।


      सबका झंडा एक तिरंगा अपना है।।


            डॉ. हरि नाथ मिश्र-9919446372


 


कविताये-2


*,बेफ़िक्र हो के ज़िंदगी जीना....*


बेफ़िक्र हो के ज़िंदगी जीना है अति भला,


गर रोड़ें आएँ राह में तो करना नहीं गिला।।


 


आए ग़मों का दौर तो न धैर्य छोड़ना,


खोना नहीं विवेक जंग से मुहँ न मोड़ना।


जीवन का है ये फ़लसफ़ा समझ लो दोस्तों-


जिसने जीया है इस तरह उसी को सब मिला।।


 


पर्वत-शिखर पे झूम के बादल हैं बरसते,


नदियों के जल-प्रवाह तो थामे नहीं थमते।


जिन शोखियों से शाख़ पे निकलतीं हैं कोपलें-


थमने न देना ऐसा कभी शोख़ सिल-सिला।।


 


क़ुदरत का ही कमाल है ये सारी क़ायनात,


होता कहीं पे दिन है तो रहती कहीं पे रात।


ग़ुम होते नहीं तारे चमका करे ये सूरज-


महके है पूरी वादी ये फूल जो खिला ।।


 


जब नाचता मयूर है सावन में झूम के,


कहते हैं होती वर्षा अति झूम-झूम के।


जो श्रम किया है तुमने वो फल अवश्य देगा-


मेहनतकशों के श्रम का मीठा है हर सिला।।


        गर रोड़ें आएँ राह में तो करना नहीं गिला।।


                      ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


 


कविताये-3


*कुछ दोहे*


सुरभित मधुरालय खुले,लंबी लगी कतार।


भूल गए सब मुदित मन,कोरोना का वार।।


 


चावल-आटा-दाल की,चिंता छोड़ जनाब।


जा पहुँचे मधु-द्वार पर,घर की दशा खराब।।


 


डंडा-सोटा-स्वाद ले,डटे रहे पुरजोर ।


बोतल बंद शराब ने,दिया प्रशासन झोर।।


 


बिना चुकाए दाम ही,राशन दे सरकार।


पुनः वसूले मूल्य वह,खोल जेब के द्वार।।


 


दिखीं बहुत सी देवियाँ, मय-मंदिर के द्वार।


वित्त लिए निज पर्स में,नारी-शक्ति अपार।।


 


अपनी भाग्य सराहते,दिखे सभी मधु-केंद्र।


क्या राजा,क्या रंक है,खड़े दिखे धर्मेंद्र।।


 


सीना ताने गर्व से,मुदित सुता अंगूर।


मानो यह कहती फिरे, मानव-मन लंगूर।।


 


पल-भर के सुख के लिए,घोर करे अपराध।


जीवन से खिलवाड़ कर,करे पाप निर्बाध।।


 


माना मानव सभ्य है,यह संस्कृति-आधार।


किंतु कभी विपरीत हो,खोए शुद्ध विचार।।


                ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


 


कविताये-4


*गीत*


काव्य-कुंज में कवि-मन कुहके,


हो सम्मोहित रसपान करे।


भाव-पुष्प जो विविध खिले हैं-


 उनपर नूतन नित गान करे।।


             काव्य-कुंज में..............।।


 


बिना भाव-चिंतन के कविता,


संभव क़लम नहीं करती है।


हृदय-सिंधु में भाव-उर्मि ही,


उठकर नित लेखन करती है।


कवि-मन हो अति हर्षित-प्रमुदित-


सृजन भी अतीव महान करे।।


             काव्य-कुंज में.........।।


 


ध्यानावस्थित होने पर ही,


नेत्र तीसरा भी खुलता है।


भावों का आवेग प्रखर हो,


मन-रस में ही आ घुलता है।


मधुर भाव अति शीघ्र उमड़ कर-


अक्षर-कृति का अवदान करे।।


              काव्य-कुंज में...........।।


भाव-तरंगें अति स्वतंत्र हों,


प्रबल उमड़तीं रहतीं पल-पल।


प्रखर भाव भी तब कवि-मन को,


देता सदा सहारा-संबल।


कवि भी तो तब हो सतर्क मन-


अति सक्षम गीत- विधान करे।।


                 काव्य-कुंज में.............।।


 


कभी मुदित हो,कभी दुखित हो,


कवि-मन का भावालय बनता।


भाव-सिंधु का कर अवगाहन,


पवित्र भाव-देवालय बनता।


चिंतन-मनन-साधना के बल-


कवि मुक्ता-स्वर निर्माण करे।।


               काव्य-कुंज में..............।।


काव्य-कुंज की ले सुगंध वह,


गीतों को भी महकाता है।


पा प्रसाद सुर-देवी से वह,


भाव-सुरभि नित फैलाता है।


सृजन-भाव में डूब-डूब कर-


ज्ञान-सरित में नहान करे।।


             काव्य-कुंज में....…........।।


 


धन्य कलम तेरी भी कविवर,


रवि-सीमा को भी पार करे।


 अप्रत्याशित रेख पार कर,


लेखन-सुकर्म साकार करे।


अद्भुत रचना दे इस जग को-


सुर-देवी का सम्मान करे।।


          काव्य-कुंज में.............।।


               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


               


 


कविताये-5


भारत माता के वीर सपूतों,


अपनी धरती का कर लो नमन।


ऐसी माटी तुम्हें न मिलेगी-


कर लो टीका समझ इसको चंदन।।


                  ऐसी माटी तुम्हें.........।।


इसके उत्तर में गिरिवर हिमालय,


जो प्रहरी है इसका अहर्निश।


चाँदनी की धवलिमा लिए-


दक्षिणोदधि करे पाद-सिंचन।।


               ऐसी माटी तुम्हें............।।


इसकी प्राची दिशा में सुशोभित,


गारो-खासी-मेघालय-अरुणाचल।


इसके पश्चिम निरंतर प्रवाहित-


सिंधु सरिता व धारा अदन।।


              ऐसी माटी तुम्हें..............।।


शीष कश्मीर ऐसे सुशोभित,


स्वर्ग-नगरी हो जैसे अवनि पर।


गंगा-कावेरी-जल-उर्मियों से-


देवता नित करें आचमन।।


              ऐसी माटी तुम्हें.............।


पुष्प अगणित खिलें उपवनों में,


मृग कुलाँचे भरें नित वनों में।


वर्ष-पर्यंत ऋतुरागमन है-


लोरी गाये चतुर्दिक पवन।।


            ऐसी माटी तुम्हें...............।।


अपनी धरती का गौरव रामायण,


सारगर्भित वचन भगवद्गीता।


मार्ग-दर्शन कराएँ अजानें-


वेद-बाइबिल का अद्भुत मिलन।।


          ऐसी माटी तुम्हें.................।।


इसकी गोदी में खेले शिवाजी,


राणा-गाँधी-जवाहर-भगत सिंह।


चंद्रशेखर-अटल की ज़मीं ये-


बाल गंगा तिलक का वतन।।


   ऐसी माटी तुम्हें न मिलेगी,कर लो टीका समझ इसको चंदन.....भारत माता के वीर सपूतों.....।।


           ©


          


 


 


 


सम्राट की कविताएं

पर्वत जैसा काया है


मोम सा हृदय समाया है


इस दुनिया के भाग दौड़ ने


ये हकीकत बताया है


जिसको अपना माना है


वहीं सबसे बेगाना है


जीवन का मकसद है


चलना और चलते जाना है


ढूंढते रब को सब जगह लोग


और कहते सब मे समाया है


पर्वत जैसा काया है


मोम सा हृदय समाया है


दुःख सुख अपने साथी है


दुःख दूल्हा तो सुख बराती हैं


आँखों मे आंसू, होठों पर मुस्कान


कैसे दोहमत में फाँसा इंसान


मोह माया में भटकते लोग


लोभ लालच का बुरा रोग


और क्रोध सबके जेहन में


अंदर तक समाया है


पर्वत जैसा काया है


मोम सा हृदय समाया है।


 


सम्राट की कविताएं


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(पावस-आगमन16/14लावणी छंद)


थलचर-नभचर सब हैं व्याकुल,


कहीं न मिलती छाया है।


अब पुनि सबकी प्यास बुझाने-


रिम-झिम पावस आया है।।


 


खुशियों की सौगात लिए यह,


सबकी झोली भरता है।


करता नहीं निराश किसी को,


मगन-मुदित यह करता है।


जहाँ देखिए उछल-कूद है-


सबने जीवन पाया है।।रिम-झिम पावस....


 


बरखा रानी भरती रहती,


महि-आँचल जल बूँदों से।


पौध अंकुरित होने लगते,


पावस बदन पसीनों से।


हरी-हरी घासों ने देखो-


अब कैसा मुस्काया है।।रिम-झिम पावस......


 


हलधर परम मुदित हो-हो कर,


जाते खेत-सिवानों में।


निज थाती को सौंप अवनि को,


रहें उच्च अरमानों में।


झम-झम पड़तीं जल-बूँदों ने-


चित-मन को हर्षाया है।।रिम-झिम पावस......


 


गोरी पेंग बढ़ाकर झूले,


झूला-कजरी-योग भला।


पावस की मदमस्त फुहारें,


और बढ़ा दें विरह-बला।


निरख बदन निज भींगा-भींगा-


 गोरी-मन शरमाया है।।रिम-झिम पावस........


 


प्रकृति कामिनी महि की शोभा,


प्रेम-भाव-उल्लास भरे।


अति नूतन परिधान पहनकर,


 मन को नहीं निराश करे।


लगे सभी को पावस ने ही-


चादर हरी बिछाया है।।रिम-झिम पावस..........।।


           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


              9919446372


निशा"अतुल्य"

बरखा बहार आई


16.6.2020


मनहरण घनाक्षरी 


 


बरखा बहार आई 


खुशियाँ हजार लाई


सब रंग डूब कर 


बूंदों में नहाइए ।


 


पेड़ झूम झूम रहे


वायु में सुगंध बहे 


तपती धरा की तुम


प्यास तो बुझाइए।


 


अमवा की डार झूमी


कोयल की मीठी बोली


पपीहे ने राग गाया


सबको सुनाइए ।


 


बरखा की नन्ही बूंदे


टिप टिप गीत गाएं


लगती बड़ी ये भली 


मन झूम जाइए ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


अनिल गर्ग  कानपुर

*गधा और हम*


गधा पेड़ से बंधा था।


शैतान आया और उसे खोल गया।


गधा मस्त होकर खेतों की ओर भाग निकला और खड़ी फसल को खराब करने लगा।


किसान की पत्नी ने यह देखा तो गुस्से में गधे को मार डाला। 


गधे की लाश देखकर मालिक को बहुत गुस्सा आया और उसने किसान की पत्नी को गोली मार दी। 


किसान पत्नी की मौत से इतना गुस्से में आ गया कि उसने गधे के मालिक को गोली मार दी।


गधे के मालिक की पत्नी ने जब पति की मौत की खबर सुनी तो गुस्से में बेटों को किसान का घर जलाने का आदेश दिया।


बेटे शाम में गए और मां का आदेश खुशी-खुशी पूरी कर आए। उन्होंने मान लिया कि किसान भी घर के साथ जल गया होगा।


लेकिन ऐसा नहीं हुआ। किसान वापस आया और उसने गधे के मालिक की पत्नी और बेटों, तीनों की हत्या कर दी।


इसके बाद उसे पछतावा हुआ और उसने शैतान से पूछा कि यह सब नहीं होना चाहिए था। ऐसा क्यों हुआ?


शैतान ने कहा, 'मैंने कुछ नहीं किया। मैंने सिर्फ गधा खोला लेकिन तुम सबने रिऐक्ट किया, ओवर रिऐक्ट किया और अपने अंदर के शैतान को बाहर आने दिया। इसलिए अगली बार किसी का जवाब देने, प्रतिक्रिया देने, किसी से बदला लेने से पहले एक लम्हे के लिए रुकना और सोचना जरूर।'


 


ध्यान रखें। कई बार शैतान हमारे बीच सिर्फ गधा छोड़ता है और बाकी काम हम खुद कर देते हैं !


अनिल गर्ग 


कानपुर


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