डॉ0 सुषमा कानपुर पिता कविता

पिता दिवस पर मेरी रचना


 


रहते थे खुशहाल पिता,


खाते रोटी दाल पिता।


नमक अगर ज्यादा हो जाये ,


लेते पानी डाल पिता।


सब को दूध पिलाते थे,


आंगन में बैठार पिता।


बजरंगी के भक्त बड़े,


गाते रघुवर गान पिता।


अम्मा जी तैयारी करती,


करते पूजा पाठ पिता।


भूत प्रेत जिसको भी आते,


देते उनको झार पिता।


बिच्छू जहर जिसे चढ़ जाता,


देते तुरत उतार पिता।


भर भर जेब पेहेटुआ लाते।


लाते कैथा आम पिता।


ढूढ ढूढ करके बनवाते।


बन करइल का साग पिता।


गाय भैस उनको थी प्यारी,


सेवा करते खूब पिता।


बाबा जी की दवा मिठाई,


लाते थे चुपचाप पिता।


ट्रेक्टर में बैठा करके,


ले जाते बाजार पिता।


गंगा जी बाल्हेस्वर बाबा,


ले जाते हर बार पिता।


कई बार विपदाएं आईं,


पर माने ना हार पिता।


हम बच्चों के करते थे,


हर सपना साकार पिता।


हम सबकी खुशहालीको,


किया बड़ा ही त्याग पिता।


अब तो केवल यादें बाकी,


उनसे मिले न पार पिता।


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©®



16-6-19


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार नीलम मुकेश वर्मा

नीलम मुकेश वर्मा


पता:. झुंझुनू राजस्थान।


 


रचना :3


 


है अटल विश्वास हमको,निज कलम की धार पर।


और उससे भी अधिक,माँ शारदे के प्यार पर।।(1)


 


आजकल यूँ तो हमें आदत हुई है जीत की,


शौक से फ़िर भी मनाते,जश्न अपनी हार पर।(2)


 


नाम करने की रही, फ़ितरत सदा इंसान की,


चाहता है वाहवाही,तुच्छ से उपकार पर(3)


 


हसरतों की आड़ में,बदला नज़रिया सोच का,


भूल बैठे फ़र्ज को,नजरें टिकी अधिकार पर(4)


 


ख्वाहिशों को रास कब आता,ख़ज़ालत का क़फ़स,


टूटते अनुबन्ध कितने,बस इसी इक रार पर(5)


 


झाँक कर जो निज गिरेबाँ, में कभी देखें नहीं,


वो लगाते 'नील' पर,इल्ज़ाम किस आधार पर।(6)


 


                     नीलम मुकेश वर्मा


                    झुंझुनूं राजस्थान


 


रचना :/4


 


क्रूर जग की तपन मैं हरू किस लिए।


बन कलश शीत जल का झरूँ किस लिए।।(1)


 


धन पराया समझती है दुनियाँ मुझे,


दम्भ अपनों का फिर मैं भरूँ किस लिए।।(2)


 


जब घरों में सलामत नहीं दामिनी,


फिर क़दम फूँक कर मैं धरूँ किस लिए।(3)


 


दिन-दहाड़े सरेआम आखेट में,


मौत से पूर्व पल- पल मरूँ किस लिए।(4)


 


न्याय के नाम पर गर निराशा मिले,


तेल उम्मीद का फिर भरूँ किस लिए।।(5)


 


सच दफन हो जहाँ, झूठ फूले-फले, 


नाज़ ऐसे वतन पर करूँ किस लिए।(6)


 


स्वान नोचें अगर निर्भया की तरह,


जन्म लेने की जुर्रत करूँ किस लिए।(7)


                      नीलम मुकेश वर्मा


                     झुंझुनू राजस्थान


 


रचना :5


 


दर्प के जब शिखर पर खड़े हो गए।


यूँ लगा ईश से भी......बड़े हो गए।(1)


 


पानी बिजली मिले काम हर हाथ को


वायदे ये पुराने.......सड़े हो गए।(2)


 


बंद सन्दूक में गुप्त धन की कथा,


क़ायदे खोलने के....कड़े हो गए।(3)


 


नीर दुर्लभ हुआ, मय भरी मटकियाँ,


चख, युवा-बाल, सब बेवड़े हो गए।(4)


 


संत बगुला भगत बन करें मौज तब,


धर्म के अनगिनत जब धड़े हो गए।(5)


 


तैश में ताल ठोकी, बजे गाल क्यों,


जब जमाने किसी से लड़े हो गए।(6)


 


ख्याति जिनकी रही सिंध के नाम से,


'नील' घोड़े वो' घटकर घड़े हो गए।(7)


 



 झुंझुनूं राजस्थान


 


 


 


 


श्रीकांत त्रिवेदी

💥💥💥💥💥


योग पर कुछ दोहे


💥💥💥💥💥


 


करे चित्त की वृत्ति का, है निरोध ये योग।


दृष्टा को निज रूप में , स्थित कर दे योग ।।


 


आठ अंग हैं योग के , पातंजलि अनुसार।


सबकी महिमा एक सी, ज्ञानी कहें विचार।।


 


प्रथम पंच 'यम' हैं यहां, सत्य,अहिंसा,संग।


ब्रह्मचर्य , अस्तेय भी , अपरिग्रह के संग ।।


 


'नियम' पांच भी अंग है, शौच और संतोष।


स्वाध्याय कर ,तप करें, ईश शरण मंतोष।।


 


अब तृतीय जो अंग है,उसका"आसन" नाम।


हो जाए जब सिद्घ तो, पूर्ण सभी हों काम ।।


 


चौथा तीन प्रकार के , " प्राणायाम" महान ।


सांस सांस जब सिद्ध हो,योग बने आसान।।


 


पंचम  " प्रत्याहार" है ,  करें विषय सब दूर ।


इन्द्रिय सब निज चित्त वश,अंकुश हो भरपूर


 


षष्ठम अंग है " धारणा" कठिन बहुत ये काम।


मन को स्थिर कीजिए, हर पल आठों याम ।।


 


सप्तम अंग जो "ध्यान" है, चित्त लगे इक तार।


जो योगी का ध्येय हो , उस पर सब निस्सार ।।


 


इन सातों को साधिए, अष्टम मिले "समाधि"।


मोक्ष और कैवल्य दे, हर कर हर भव व्याधि।।


 


परम शक्ति को नमन है,दे हम सब को ज्ञान।


होकर  योग  प्रवीण  हो , आर्यावर्त महान ।।


 


योग दिवस है आज ये,सब के लिए विशेष।


सभी सुखी हों विश्व में , ये कामना अशेष ।।


श्रीकांत त्रिवेदी


💐


इन्दु झुनझुनवाला संपादक काव्य रंगोली

वो पिता कहलाता है ।


 


पर्दे पर नजर नही आता ,


पर उसका सहयोग हरपल ,


हर क्षण जीवन भर पुत्र


परोक्ष पाता है ,


तभी आगे बढने की, 


अपनी ख्वाहिश को


 साकार कर पाता है ।


 


खिलौनो की ,स्वप्न भरी दुनिया से ,


यथार्थ की धरती पर,


महलों के खूबसूरत ख्वाब सजा पाता है ।


 


परियों के किस्से सुन-सुनकर, 


हसरते मन मे लिए


यौवन की दहली पर 


परी सा साथी ढूँढ़ पाता है । 


 


भले ही निवाले 


हाथों से ना खिलाएं हो  ,


पर हर निवाले मे ,


उसकी मेहनत की 


खुशबू उसमे पाता है ।


 


संकोची स्वभाव, 


सिर पर हाथ ना फिरा पाया हो ,


पर उसके हर बोझ को 


अपने कांधे पर वो उठा पाता है ।


 


ठोकरों से बचाने की खातिर


नसीहते दे देकर ,कठोर ,बेदर्दी,


और ना जाने क्या क्या


 उपनाम वो पाता है ।


 


अपनो के 


प्यार की तलाश मे तरसता,


जीवन भर खुद रूखी सूखी खाकर


 भी सो पाता है ।


 


कठोर से चेहरे के पीछे ,


नाजुक सा दिल लिए,जमाने की मार से


 बचाने की कोशिश मे ,


खुद मात ही पाता है ।


 


फिर भी सारे गमो को सीने मे छुपाए ,


चुपचाप इन्दु 


 गहराती भींगी रातो मे भींग भींग पाता है ।


 


वो पिता कहलाता है ,,,वो पिता कहलाता है।


 



अमित शुक्ला बरेली

******FATHER'S DAY******


किस राह खो गए हो चलना सिखा के हमको।


बिन आपके लगे हैं सौ गम कहां के हमको।


 


सांसें हैं आपकी सब जीवन ही आपका है।


दिखते नहीं क्यों पापा दुनियां दिखा के हमको।


 


होने को हर कोई है पर आप तो नहीं हैं।


इक याद आती जाती हर दिन रुला के हमको।


 


हरगिज न जाने देते या साथ साथ चलते।


जो काश जाते पापा थोड़ा बता के हमको।


 


अनमोल इसलिए हैं क्योंकि हैं आपके हम।


लोग खरीद लेते बरना बोली लगा के हमको।


 


सच हो तो नहीं सकता लेकिन ये सोचते हैं।


कैसे हो अमित पूछो सीने से लगा के हमको।


Miss you papa😔


   @ अमित शुक्ला@


लक्ष्मी करियारे पिता कविता

पितृदिवस की अशेष बधाई एवं शुभकामनाएं


ज़िंदगी की चिलचिलाती धूप में घने बरगद की शीतल छाँव..


आसमां जैसा ये तेरा साया दूर मुझसे सारे आभाव..


* बड़े नसीब तेरी गोद मिली


कभी हुआ न सामना काँटो से 


फूल ही फूल बिछे पाव..


आसमां जैसा ये तेरा साया...


* प्यार तेरा ये गहरा साया


संघर्षों की आँधियों में भी 


हौसलों की चलती नाव..


आसमां जैसा ये ये तेरा साया...


* बोले बिना ही समझे बातें मेरी 


मुझे दिया हर पल सुख का 


लिये मेरे दर्द घाव..


आसमां जैसा ये तेरा साया...


* दूर रहकर भी संग है मेरे 


तुम्ही ज़मीर जागीर पहचान 


मेरे एहसास यादों के गाँव..


आसमां जैसा ये तेरा साया...


जिंदगी की चिलचिलाती धूप में घने बरगद की शीतल छाँव..


आसमां जैसा ये तेरा साया दूर मुझसे सारे आभाव...


       📖🖋लक्ष्मी करियारे


( शिक्षिका लोक गायिका कवयित्री )


आत्मज - स्व श्री पी एल करियारे जी 


छातीसगढ़ जाँजगीर


राम कथा बलराज सिंह यादव धर्म एव अध्यात्म शिक्षक

सदगुन सुरगन अम्ब अदिति सी।


रघुबर भगति प्रेम परमिति सी।।


 ।श्रीरामचरितमानस।


  यह रामकथा सद्गुणरूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है।यह रामकथा प्रभुश्री रामजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है।


।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।


  भावार्थः---


  श्रीमद्भागवत में सद्गुणों का विस्तृत वर्णन है।यथा,,,


सत्यं शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः संतोष आर्जवम्।


शमो दमस्तपः साम्यम् तितिक्षोपरति:श्रुतं।।


ज्ञानम् विरक्ति:ऐश्वर्यम् शौर्यम् तेजो बलम् स्मृति:।


स्वातंत्रयम् कौशलं कान्ति:धैर्यमं आर्दमेव च।


प्रागलभ्यम प्रश्रयः शीलं सह ओजो बलम्भग:।। आदि।


  अदिति दक्षप्रजापति की पुत्री व कश्यप ऋषि की पत्नी तथा सूर्य,इन्द्रादिक देवताओं की माता हैं।जिस प्रकार अदिति से ही देवताओं की उत्पत्ति हुई, उसी प्रकार रामकथा से शुभ गुणों की उत्पत्ति हुई है।जिस प्रकार अदिति के पुत्र देवता दिव्य व अमर हैं उसी प्रकार प्रभुश्री रामजी की कथा से उत्पन्न सद्गुण भी दिव्य और अमर हैं।जिस प्रकार माता अदिति अपने देवपुत्रों के हित में सदैव तत्पर रहती हैं उसी प्रकार यह रामकथारूपी माता भी सद्गुणों को उत्पन्न करके उन्हें अपने भक्तों के हृदय में स्थिर रखकर उनकी कलिमल से रक्षा करती है।सद्गुणों का वास्तविक फल तो भगवान की प्रेमाभक्ति है।इसी कारण गो0जी ने रामकथा को प्रेम और परमार्थ का सारतत्व कहा है।यथा,,,


रामनाम प्रेम परमारथ को सार रे।


रामनाम तुलसी को जीवन आधार रे।।


 श्रीरामचरितमानस प्रभुश्री रामजी की रामकथा का एक श्रेष्ठ ग्रँथ है।इसीलिये इसे प्रेमाभक्ति प्रदान करने वाला अनुपम ग्रँथ कहा जाता है और साथ ही इसे प्रभुश्री रामजी का ग्रन्थावतार भी कहा गया है।संवत1631 में जिस दिन गो0जी ने इस अनुपम ग्रँथ श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की थी,उस दिन योग,लग्न,ग्रह,वार, तिथि आदि सभी परिस्थितियां लगभग वही थीं जो रामजन्म के समय में थीं।इसीलिए श्रीरामचरितमानस को प्रभुश्री रामजी का ग्रन्थावतार कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है।


  भगवान शिव द्वारा रचित इस रामकथा का सभी देव,ऋषि,मुनि आदि प्रेमसहित गान करते हैं।यथा,,,


बार बार नारद मुनि आवहिं।


चरित पुनीत राम के गावहिं।।


नित नव चरित देखि मुनि जाहीं।


ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं।।


सुनि बिरंचि अतिशय सुख मानहिं।


पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं।।


सनकादिक नारदहि सराहहिं।जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।।


जीवन्मुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।


जे हरि कथा न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान।।


।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।


।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


राजेश_कुमार_सिंह "श्रेयस

#कविता_के_फूल 38


#पदचिन्हों_को_पहचानों


 


इन पदचिन्हों को पहचानों,


पहचान बनाते है, पदचिन्ह l


जीवन में कितने विम्बित हो,


ये बतलाते हैं पदचिन्ह ll


 


पदचिन्ह नही, ये भाग्य हैं तेरे,


जीवन की दिशा बदलते हैं l


अनुगमन करो अनुश्रवण करो,


जीवन की दशा बदलते है ll


 


ये त्याग की गहरी छापे हैं,


ये कठिन तपस्या के प्रतिफल है l


ये ऊँची छलांग के संबल हैं,


ये अंतर्मन के आत्मिक बल हैं ll


 


इन पदचिन्हो के चांप सुनो,


ये चांप बहुत कुछ कहते हैं l


जीवन की दुर्गम यात्रा में,


ये साया बनकर के रहते हैं ll


 


पदचिन्हों का सम्मान करो,


ये हैं माथे के राजतिलक l


ये भाव पिता के दिल के हैं,


ये हैं सर्वोत्तम,सर्वोच्च फलक ll


 


#राजेश_कुमार_सिंह "श्रेयस"


पितृ दिवस आशुकवि नीरज अवस्थी

आज पितृ दिवस के अवसर पर सभी पिताओ को समर्पित कुछ पंक्तियां--


 


धूप शीत बरसात झेल कर जिसने मुझको बड़ा किया।


मुझको दिया सहारा पाला निज पैरों पर खड़ा किया।


ह्र्दय पटल से पूज्य पिता की चरण वन्दना करता हूँ,


जिसने घोर गरीबी में मुझको ऍम ए तक पढ़ा दिया।


 


खेती और किसानी में जिसने जीवन को गला दिया।


भूखे प्यासे रहकर मुझको भोजन पानी खिला दिया।


अपने जीते जी नीरज को रचना सी पत्नी देकर,


मेरी खुशियों की खातिर जिसने सुख सुविधा भुला दिया।


 


जितना प्यार दिया था तुमने तब जाना जब आप गये।


कमी पिता की क्या होती है,तब जाना जब आप गये।


व्याह योग्य थी छोटी बहना जिम्मेदारी मुझ पर थी,


कैसे व्याह रचाये होंगे तब जाना जब आप गये।।


 


रिश्ते दारी खेती बाड़ी मेहमानों की आव भगत।


खटिया बिस्तर बर्तन कपड़ा कुर्सी मेजे और तखत।


घर के काम बजार व्यवस्था बैना भी व्यवहार किया,


कितना दर्द सहा था तुमने, तब जाना जब आप गये।।


मो.9919256950


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार भुवन बिष्ट

भुवन बिष्ट   


जन्म-1 जुलाई रानीखेत,उत्तराखंड 


पता-रानीखेत उत्तराखंड 


      निरंतर प्रतिष्ठित पत्र /पत्रिकाओं में कविता, लेख कहानी लेखन, हिन्दी एंव आंचलिक भाषा कुमांऊनी में निरंतर लेखन एंव स्वतंत्र पत्रकारिता,लेखन।


    विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा लेखन के लिए सम्मानित 


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                      रचनाऐं 


 


      (रचना 1=वंदना)


 


नित नित मैं तेरा ध्यान करूँ,


हे माँ तेरा गुणगान करूँ। 


    ज्ञानप्रदायनी, वीणावादनी,


     माँ तेरी जयकार करूँ।....


तेरे आंचल में जो आता,


जीवन धन्य धन्य हो जाता।


      ज्ञान प्रफुल्लित चहुँ दिशा में,


      दीपक बनकर सदा फैलाता।


माँ कर दे राह मेरी आलोकित,


नमन मैं बारम्बार करूँ।


        ज्ञानप्रदायनि वीणावादनी,


        माँ तेरी जयकार करूँ।.........


नित नित मैं तेरा ध्यान करूँ,


हे माँ तेरा गुणगान करूँ। 


        हंस सवारी मां कहलाती,


        वाणी में भी है बसती।


सदमार्ग मिले हे मातेश्वरी,


जब जब वीणा है बजती।


        वीणा की झंकार बजा दे,


        ज्ञान का तरकश हे मां भर दे।


रज तेरे चरणों की बनूँ,


विनती मैं बारम्बार करूँ।


        ज्ञानप्रदायनी वीणावादनी,


         माँ तेरी जयकार करूँ।


नित नित मैं तेरा ध्यान करूँ,


हे मां तेरा गुणगान करूँ।...


              ........भुवन बिष्ट 


 


 


        रचना 2= मानवता के दीप


 


हम तो सदा ही मानवता के दीप जलाते हैं,


उदास चेहरों पर सदा मुस्कराहट लाते हैं।


 


हार मानकर  बैठते जो कठिन राहों को देख,


हौंसला बढ़ाकर उनको भी चलना सिखाते हैं।


 


कर देते पग डगमग कभी उलझनें देखकर,


मन में साहस लेकर हम फिर भी मुस्कराते हैं।


 


मिल जाये साथ सभी का बन जायेगा कारंवा,


मिलकर आओ अब एकता की माला बनाते हैं।


 


लक्ष्य को पाने में सदा आती हैं कठिनाईयां,


साहस से जो डटे रहते सदा मंजिल वही पाते हैं।


 


राह रोकने को आती दिवारें सदा बड़ी-बड़ी,


सच्चाई पाने को अब हम दिवारों से टकराते हैं।


 


फैलायें आओ मानवता को मिलकर चारों ओर,


दुनियां को अपनी एकता आओ हम दिखाते हैं।


                  ....भुवन बिष्ट


            रानीखेत (उत्तराखण्ड)


 


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    (रचना 3 =भारत प्यारा )


मिलकर आओ जग में हम सब, 


                    भारत को श्रेष्ठ बनाते हैं।....


माँ भारती के सब भारतवासी ,


                     सदा सदा गुण गाते हैं।।


जब आजादी की अलख जगी,


                   वीरों ने प्राण गवाये थे। 


यह मातृभूमि की रक्षा को,


                  वे बलिदानी कहलाये थे।। 


पावन गणतंत्र यह अपना, 


                 कर्तव्यों को भी निभाते हैं।.......


भारत को श्रेष्ठ बनाते हैं...भारत को श्रेष्ठ बनाते हैं ....


मिलकर आओ जग में हम सब, 


                    भारत को श्रेष्ठ बनाते हैं।...


शीश हिमालय मुकुट बना, 


                सागर भी पाँव पखारे हैं। 


कश्मीर से कन्याकुमारी तक,


               सुशोभित प्रांत ये प्यारे हैं।। 


यह सर्व धर्म का राष्ट्र सदा,


               हम पुष्प सभी एक उपवन में। 


यहाँ एकता का दीप जले, 


              सदा हम सब के ही तन मन में।। 


 हम अपने राष्ट्र की रक्षा को, 


             अब एकता जग को दिखाते हैं।...


भारत को श्रेष्ठ बनाते हैं...भारत को श्रेष्ठ बनाते हैं ....


मिलकर आओ जग में हम सब, 


                    भारत को श्रेष्ठ बनाते हैं।


सजी सुंदर धरा खलिहानों से, 


               पावन सरिता की धारा है। 


परंपराओं का नित नित संगम, 


               सभ्यता को भी सवाँरा है।। 


मातृभूमि की सेवा हम करते, 


               सदा तिरंगे का मान बढ़े। 


रक्षा भारत भूमि की होवे तब, 


             जन जन का सम्मान बढ़े।। 


मातृभूमि की चरण धूलि हम, 


            सदा ही शीश लगाते हैं। 


भारत को श्रेष्ठ बनाते हैं...भारत को श्रेष्ठ बनाते हैं ....


मिलकर आओ जग में हम सब, 


                    भारत को श्रेष्ठ बनाते हैं।... 


                      ....... भुवन बिष्ट 


 


        रचना 4= खुशहाल धरा 


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धरती को अपनी सजायें। 


हम इसको खुशहाल बनायें।। 


प्रदूषण सकंट है भारी । 


इसे हटायें करो तैयारी ।। 


        


नदी वन पर्वत सब समाये। 


मानव धरती से तब पाये।। 


जय छतरी नीलाम्बर धारी। 


बरसे मेघ प्रभु अवतारी।। 


 


धरा की रक्षा सदा करेंगे। 


धरती माँ सब कष्ट हरेंगे।।


धरती से जग में खुशहाली। 


हर आँगन खुशियों की थाली।। 


 


वन से सब जीवन पायेंगें ।


मिलकर हम इसे बचायेंगें ।।


वन उपवन से जग महकेगा। 


जग सारा खुशहाल रहेगा।। 


 


वृक्ष हमें प्राण वायु देते ।


हम से वह कुछ कभी न लेते।। 


सब आओ अब वृक्ष लगायें।


धरा को अपनी हम सजायें।। 


 


वन से भू सुंदरता पायी ।


मन के सब को है यह भायी।। 


पशु पक्षी के ये हैं वासा ।


वन से ही सबको है आशा।। 


 


वृक्ष मित्र सारे कहलायें। 


आओ अब हम पेड़ बचायें।। 


शुद्ध वायु वन से हम पायें ।


सभी वनों के गुण हम गायें ।।


 


वनों से धरा में हरियाली ।


जग में होवे तब खुशहाली।।


वन बचाने का प्रण लेंगे।


वृक्ष कभी काटने न देंगे।। 


 


 


साफ वायु यदि अब है पाना। 


हमें पेड़ों को है बचाना।। 


मन में स्वच्छता अपनाना। 


पहल करो सबको दिखलाना।। 


 


वृक्षारोपण सभी करेंगें। 


धरा प्रदूषण मुक्त करेंगें।। 


शुद्ध वायु सबको है पाना। 


मिलकर सब अब वृक्ष लगाना।। 


                ............भुवन बिष्ट 


                रानीखेत (उत्तराखंड )


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    ( रचना 5 = माँ)


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माँ का आंचल सारे जग में ,


              सदा-सदा ही प्यारा है।


हर विपदा को तुमने सहकर,


            कांटों की राहों पर चलकर।


हर पल जीवन संवारा है,


            माँ का आंचल प्यारा है।।


ममतामयी करूणा की सागर,


              वह ममता की छांव है।


गिरकर उठना और संभलना,


               माँ ने ही सिखलाया है।


दृढ़ निश्चय से मिले सफलता,


               माँ तुमने ही दिखलाया है।


आई विपदाऐं भी अनेकों, 


               किया सामना डटकर तुमने,


हर सुख अपना न्यौछावर कर,


                जीवन यह संवारा माँ।


मानवता के धर्म कर्म को,


                हर पल माँ ने सिखलाया।


सागर की लहरों को उसने,


                किश्ती बनकर पार किया।


हर जन्म तेरा आंचल मैं पाऊं,


                माँ तेरी छांव मैं पलूँ सदा।


ममतामयी करूणा की सागर,


                करूं तेरा गुणगान सदा।


माँ की ममता के आगे तो,


                  कठिन डग यहां हारा है।


माँ का आंचल सारे जग में ,


                 सदा - सदा ही प्यारा है।


             .......


             रानीखेत (उत्तराखण्ड)


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💐💐💐💐💐


 


नीलू सक्सेना देवास

🌹🙏🌹पिता🌹🙏🌹


 


 


पिता अपनी इच्छाओं और 


शौक का दहन है ।


पिता है तो हमारा जीवन है ।


पिता से ही जीवन के हर साजऔर खिलौने हैं


वरना यह सब बौने है ।


 


 


पिता का अहसान हम चुका सकते नहीं ।


क्योंकि पिता सर्वस्व लुटा कर भी कुछ मांगता नहीं ।


जीवन एक यज्ञ है, पिता की इच्छाएं उसमें समिधा हैं।


और बिना समिधा के यज्ञ कहां पूरा होता है ।


 


जिनके सर पर पिता का हाथ है,


मानो उनके सर पर सरताज है


दुनिया में कोई कलम ऐसी नहीं,


जो पिता के गुणों का वर्णन कर सकती नहीं ।


      


 


             🌹🙏नीलू सक्सेना🙏🌹


सुषमा दीक्षित शुक्ला

,


नश्वर है हर वस्तु यहाँ की  


 प्यार अमर है बापू का । 


  


कोई साथ नही देता है , 


 सँग अमर है बापू का ।


 


साथ साथ चलते हैं बापू ,


जायें अगर कही भी हम ।


 


थकने पर हिम्मत बंधवाते ,


टूटें अगर कहीँ भी हम ।


 


सती ,वीरबाला तुम बनना ,


 यही सन्देशा बापू का ।


 


गिरकर उठना ,खोकर पाना ,


 कथन हमेशा बापू का ।


 


नश्वर है हर वस्तु यहाँ की ,


प्यार अमर है बापू का ।


 


जीवन का संघर्ष कठिन हो ,


 अगर ख्याल ना राखें बापू ।


 


किस से मन की व्यथा सुनाऊँ ,


  अगर हाल ना भाँपें बापू ।


 


उनका लहू भरा जो मुझमें ,


क्षमतावान बनाता मुझको ।


 


कष्टों मे भी हंसकर जीना ,


उनका ध्यान दिलाता मुझको ।


 


अपना धरम कभी ना भूली , 


यही असर है बापू का ।


 


नश्वर है हर वस्तु यहाँ की ,


प्यार अमर है बापू का ।


 


 सुषमा दीक्षित शुक्ला


सुषमा दीक्षित शुक्ला

,वीरों, का ले अरि से हिसाब


 


,वीरों ,का ले अरि से हिसाब।


चीनी शोणित से खेल फाग ।


 


ऐ !राष्ट्र शक्ति अब जाग जाग ।


ऐ!शक्ति पुँज अब जाग जाग ।


 


रणचण्डी तेरे खड़ी द्वार ।


दे रक्तपात करती पुकार ।


 


सीने मे उसके लगी आग ।


उठ हो सशक्त भय रहा भाग ।


 


है बैरी का करना मद मर्दन ।


ये सर्प कुचलने लायक फन ।


 


अरि शोणित से कर अभिनन्दन ।


ये मातृ भूमि का है वन्दन ।


 


कर खड्ग ग्रहण तू लगा आग ।


अब बहुत हो गया त्याग त्याग ।


 


वीरों का ले अरि से हिसाब ।


चीनी शोणित से खेल फाग ।


 


ऐ !राष्ट्र शक्ति अब जाग जाग ।


ऐ! शक्ति पुँज अब जाग जाग ।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार अवनीश त्रिवेदी "अभय"

**


(शिक्षक, कवि,लेखक,समीक्षक)


*संस्थापक/अध्यक्ष*- काव्य कला निखार साहित्य मंच


*जिलाउपाध्यक्ष*- अवधी विकास संस्थान- सीतापुर


*राज्य को- ऑर्डिनेटर(उ.प्र.)*- नवीन कदम साहित्य छत्तीसगढ़


 


पिता- श्री अश्वनी कुमार त्रिवेदी


माता- श्रीमती अनीता देवी


जन्मतिथि- 10/10/1992


पता-


ग्राम- मोहरनिया


पोस्ट- जहाँसापुर


जिला- सीतापुर- उत्तर प्रदेश


पिन- 261141


मोबाइल- 7518768506


ईमेल- avneeshtrivedi72@gmail.com


 


मत्तगयंद सवैया


 


साजन है परदेश सखी मन धीर धरौ नहि जात हमारे।


भूख न प्यास लगै हमकों अब पीर कहो यह कौन उबारे।


फ़ागुन बीति गयो नहि आयउ आँसु बहे बिन रूप निहारे।


रैन न बीतति चैन न आवति आनि मिलो अब प्रान पियारे।


 


अवनीश त्रिवेदी 'अभय'


 


 


मत्तगयंद सवैया


 


प्रीति भरे उर भीतर है पर बोलन से अति वो सकुचाती।


बात करे कुछ ना हमसे पर होंठन से मृदु है मुसकाती।


देह कपास लगे अति शोभित नैनन कोटि मनोज लजाती।


घूँघट के पट झाँपि रही मुख चाल चले सबसे बलखाती।


 


अवनीश त्रिवेदी 'अभय'


 


 


छंद


 


धन्यवाद आपका है मन प्राण से हमारा,


साथ मिला आपका जिंदगी सँवर गयी।


सदा ही रहती साथ जाड़ा गर्मी बरसात,


साथ रहते कई मुश्किलें गुज़र गयी।


अस्त व्यस्त रहते थे पहले तो हमेशा ही,


आप मिली मुझे तो आदतें सुधर गयी।


खाली खाली जिंदगी थी अब गुलज़ार हुई,


आप आयी घर तो खुशियां ठहर गयी।


 


हार-जीत, सुख-दुःख, वैर-प्रीत सहे साथ,


जीवन के संकटों को, साथ ही सहते हैं।


प्राणो से भी प्रिय सदा, प्राण प्रिय हो हमारी,


दूर कभी होते नही, मिल के रहते हैं।


हाँ में ही हाँ मिलाता हूँ, आपकी हर बात में,


स्याह सफ़ेद कहो, तो सफ़ेद कहते हैं।


ज़िन्दगी की दरिया में, किनारें हैं नही पर,


आपके के ही साथ, हमेशा बहते हैं।


 


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


 


विश्व की समस्त मातृशक्ति को ह्रदय से कोटि कोटि प्रणाम


 


छंद


 


ममता की मूर्ति आप, जगत की कीर्ति आप,


सरसाती सुधा हमेशा मंगलकारी हो।


अपने पाल्यों पे कभी, कष्ट नही आने देती, 


करती दुआओं से ही, सदा रखवारी हो।


सूखे में सुलाती हमे, गीले में ही सोती सदा,


आँचल की छाँव देती, बड़ी हितकारी हो।


माँ कैसे करे बखान, हम तो बड़े अज्ञान, 


बौने पड़ जाते शब्द, ऐसी वीर नारी हो।


 


अवनीश त्रिवेदी"अभय"


 


 


छंद - घनाक्षरी


 


देखी खूब राह किंतु, कोई न उपाय मिला,


पैदल ही चल दिए, दूर अभी गाँव है।


भूख प्यास सह रहे, कुछ नही कह रहे,


तपती दोपहरी में, मिलती न छाँव है।


किलोमीटर सैकड़ो, दूरी तय कर रहे,


लगातार चलने से, फ़ट रहे पाँव है।


पग लहू रिस रहा, किसी को न दिख रहा,


माननीय कर रहे, राजनीति दाँव है।


 


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


सीतापुर- उत्तर प्रदेश


 


मत्तगयंद सवैया


 


केवट पानि कठोत भरो अरु जोरि खड़ो कर पाँव पखारे।


देखि रहो प्रभु रूप अलौकिक नैनन को एक साथ निहारे।


धोवति हैं प्रभु पाँव मनोहर भाग बड़ो भव लोक सुधारे।


हे! रघुनाथ सुनो विनती अब नाव चढ़ो फिर पार उतारे।


 


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


 


गीत


 


भोर रवि की हो पहली किरण।


अगर मिल जाए तेरी शरण।


शुलभ जीवन पथ की हो राह।


अब तो यही है मेरी चाह।


तुम्हारे नैन तेज तलवार।


सहे जाते नहि मुझसे वार।


रुप की तुम अद्वितीय हो खान।


मुझे लगती हो बड़ी महान।


आँखों मे बसता तेरा चित्र।


तुम्हारा प्रेम नदी सा पवित्र।


वो मुखमण्डल पर अनुपम तेज।


लगे जैसे फूलों की सेज।


वो अधरों पर मीठी मुस्कान।


कराती तृषित को ज्यों रसपान।


ईश का तुम अनुपम वरदान।


तेरे आगे हम हैं नादान।


हृदय में करुणा भरी अपार।


मृदुल मुख के तेरे उदगार।


प्रिये मैं कैसे भूलूँ आज।


कराये हैं तुमने जो काज।


बहुत मुझ पर तेरा अहसान।


मेरी हर साँस तुम पे कुर्बान।


 


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


सुषमा दीक्षित शुक्ला

बड़ी शातिर है तनहाई ,


 ये अकेली ही चली आई।


 


 देखो तुम्हारी याद तो लाई


 कहीं तुम को छुपा आई ।


 


 दे रही एक खत इसको ,


लिखा था प्यार से जिसको।


 


इसे तुम ठीक से पढ़ना ,


जिसे पहले न दे पायी ।


 


कलम से दिल के टुकड़ों की,


 अपने अरमा पिरोये हैं ।


 


 ढुलकते अश्क स्याही बन ,


 आज खत को भिगोए हैं ।


 


किए हैं आज वो शिकवे ,


जिन्हें अब तक छुपा लाई।


 


 इसे तुम ठीक से पढ़ना ,


जिसे पहले न दे पायी ।


 


 बह रही ही देख लो रिमझिम,


 मेरे नैनों की बरसातें ।


 


हर घड़ी याद आती हैं ,


तुम्हारे प्यार की बातें ।


 


झरी बरसात अंखियों से,


वही खत को बहा लायी ।


 


 इसे तुम ठीक से पढ़ना ,


 जिसे पहले ना दे पायी ।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार प्रिया सिंह लखनऊ


शिक्षा:- स्नातक 


जन्म तारीख:- 02/06/1996


पता:- श्रीमद दयानंद बाल सदन मोती नगर लखनऊ 226004 उत्तर प्रदेश 


संपर्क सूत्र:-8887064914


email address:- ps3067381@gmail. com


 


कविताये


प्रीत के गीत का.....जपन हो रहा


देखो दो नयनों का ....गमन हो रहा


 


फूल..कलियाँ..नजारे.. हैरान हैं 


राम क्या इस जगह के मेहमान हैं 


बंजर बंजर भी अब तो चमन हो रहा


देखो दो नयनों का... गमन हो रहा


 


सूखे पत्ते पर सजी थी वो स्वाति हंसी


कण कण में राम की ही ख्याति बसी


दो अधरों से उनका आचमन हो रहा


देखो दो नयनों का..... गमन हो रहा


 


रामलीला गजब की है न्यारी बहुत


है मुस्कुराहट सीता की प्यारी बहुत  


प्रेम के जीत का फिर सृजन हो रहा


देखो दो नयनों का....गमन हो रहा


 


आत्म की प्रीत को देख खुश हैं सभी


प्यार की शीत को देख खुश हैं सभी


उस ईश्वर का सत सत नमन हो रहा


देखो दो नयनों का.....गमन हो रहा


 


लेकर राम सीता को.......घर आये हैं 


वरदान अपने संग.......अजर लाये हैं


लेकर सातों वचन.....आगमन हो रहा


देखो दो नयनों का.......गमन हो रहा


 


@Priya_Singh


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ना किरदार की दरकार है


ना ये कहानी मजेदार है 


लय तुकान्त बंधक बन


कलम इनकी संगत बन


जलाता ये झंजार है 


इसका अनूठा श्रंगार है


ना किरदार की दरकार है 


ना ये कहानी मजेदार है 


 


खयालातों का उदगार है


इसमें भावों का संसार है


ठुमकती हुई गंगा की धार है


खूबसूरती इसकी उतरती मन में 


इसका गंध बिखरता जीवन में 


ये काव्य रस का भरा परिवार है 


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


पुरखों का इसमें संस्कार है


शब्दों में गुंथा ये अलंकार है 


प्रस्तावना प्रयोजन प्रकरण 


ना व्याख्या संदर्भ का व्याकरण 


बहर काफिया में बंधा हरिद्वार है


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


इसके दर्द शब्दों में शुमार है 


वीर रस की धधकती ये हुँकार है 


है शब्दों की कारीगरी का कमाल 


कविता तो बेशक ही है मालामाल


गीत गजल तरन्नुम में भी झंकार है


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


ये कविता बहुत ही इज्जतदार है 


शब्द इसके निहायती समझदार है


रूलाता हँसाता गहरी नींद में लाता


इंसानों में भावनाओं को जगाता


सब को जागरूकता का अधिकार है


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


ये सरल पथ का एक ही बस द्वार है 


भजन-कीर्तन संगीत का ये तार है


मीरा की भी भक्तिकाल का परिवेश 


तुलसी का भी साधारण सा हरि वेश


महाभारत और वेद के श्लोक का सार है


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


रामायण,गीता,गंगा सा सरोकार है


ये कवियों की प्रिय सलाहकार है 


छन्द,रस सब में इसका झुकाव होना


अतुकांत में अक्सर कुछ सुझाव होना


प्रेम प्रसंग में भी मजबूत हथियार है 


खयालातों का महज़ उदगार है 


 


Priya Singh


 


_________________


 


गुरु वही जो ग्यान दे


जग में वो सम्मान दे


 


पंखों को नई उडान दे


इच्छाओ की पहचान दे


गुरु वही जो ग्यान दे 


 


बढने का अरमान दे


उन्नति का फरमान दे


गुरु वही जो ग्यान दे 


 


अच्छे-बुरो का संज्ञान दे


खुशीयो का वरदान दे


गुरु वही जो ग्यान दे 


 


सच्चाई पर वो जान दे


किताब को वो मान दे


गुरु वही जो ग्यान दे 


 


छोटी बातों पर ध्यान दे


होठों पर वो राष्ट्रगान दे


गुरु वही जो ग्यान दे 


 


सर पर जो आसमान दे


शब्दों को वो नाम दे


गुरु वही जो ग्यान दे


Priya singh


 


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बंद थे किवाड़े खोल दिये गये


जहर हालात में घोल दिये गये


बंद थे किवाड़े खोल दिये गये 


 


हुकमरां की फरमान ऐसी थी


शराब नस नस में घोल दिये गये 


बंद थे किवाड़े खोल दिये गये 


 


मिट रही जान एक एक कर


जान सस्ती थी मोल दिये गये


बंद थे किवाड़े खोल दिये गये 


 


सवालात बहुत उठे बेनज़ीर से


जवाब सिर्फ गोल गोल दिये गये


बंद थे किवाड़े खोल दिये गये 


 


गरीबी पूछनी है हम से पूछो


रोटी के खातिर झोल दिये गये


बंद थे किवाड़े खोल दिये गये 


 


 


Priya Singh


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औरत नहीं ये कीमती हीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है


इसे छेड़ो मत गलियारों में 


इसकी गिनती है उजियारों में 


ये एक वट की हरियाली शीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है 


 


ये जलती सीता की पीड़ा है


ये बैखौफ सी होती धीरा है


इसे छोड़ों मत अंधियारों में 


इसे जलने दो अगियारों में 


ये सरल स्वभाव गंभीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है 


 


ये समंदर पर बसा जजीरा है


ये बेटी देश की कश्मीरा है


ये आती कहाँ है खाकसारों में 


इसकी गिनती है इज्जतदारों में 


ये वेद की एक इलाजी चीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है 


 


हौसलों की धधकती वीरा है


ये मसाला,मिर्च और जीरा है


कमी नहीं इसके व्यवहारों में 


अद्भुत है नारी संस्कारों में 


रिश्तों में फसी जंजीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है 


 


 


ये बसा खुशहाल मंदीरा है


ये स्वेत प्रेम बानों रघुवीरा है


ये आती है बेशक होशियारों में 


जिल्लत शुमार है अधिकारों में 


ये साफ किरदार शकीरा है


ये चंचल शौख फकीरा है


ये गिरिधर की वैरागी मीरा है 


औरत नहीं ये कीमती हीरा है


 


 


Priya singh


 


 


 


💐💐💐💐💐💐


 


दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल*

*भारत_वीरों_को_अश्रुपूरित_श्रद्धांजलि_समर्पित*


 


सीमाएं जब जल उठती हैं,


तो मानव का ही ह्रास होता है


एक दूसरे देशों के जनमानस में


घोर तनाव बढ़ जाता है।


 


करने दो जो वे करते हैं


अब सम्भव नहीं सुहाता है


आँख दिखाये कोई भी


तो चीर-फाड़ हो जाता है।


 


बीस जवानों के लहू के बदले


कई सौ को मार गिराना होगा


एक इंच भी सीमाएं खिसकाईं हैं


तो किमी में सीमा बढ़ाना होगा।


 


निर्धारित सीमाओं के बदले 


युद्धों में आ जाना ठीक नहीं


देशों का अनाधिकृत चेष्ठा रखना


जन जीवन के लिए ठीक नहीं।


 


जब सबकी सीमाएं निर्दिष्ट हैं


तो रोज बिगुल क्यों बजाते हैं


क्या सीमाएं जीवित मानव हैं


जो प्रतिदिन खीस जाते हैं।


 


ऐसा देशों में क्या होता है


सीमाओं पर जवान मारे जाते हैं


कुटिल देश ही जन को भ्रमित कर


युद्ध का प्रदर्शन कर दिखाते हैं।


 


हम राम-कृष्ण सा जीवन जीने वाले हैं


बढ़े आतंक से लंका जलाये जाते है


यदि फिर भी समझ नहीं पाते हो


तो घुस लंका में रावण भी मारे जाते हैं।


 


मौलिक रचना:-


*दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल*


महराजगंज, उत्तर प्रदेश ।


दुर्गा प्रसाद नाग

आज का ✍️✍️


🔥🔥🔥( गीत) 🔥🔥🔥


 


___________________


जीवन की अंधेरी राहों में,


हम दीप जलाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम भोग भूमि पर रहते हो,


हम कर्म भूमि के वासी हैं।


तुम सरा- सुन्दरी के कीड़े,


हम भारत के सन्यासी हैं।।


 


तुम फूलों पर मंडराते हो,


हम कांटों में गुजारा करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम जख्म पे जख्म देते हो,


हम हंस के उसे सह लेते हैं।


तुम हमे कसाई कहते हो,


हम भाई तुम्हे कह लेते हैं।।


 


तुम कांटे चुभोया करते हो,


हम फूल बिछाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


शैतान तुम्हे यदि कहते हैं,


शैतानी हमें भी आती है।


पर शांति प्रतीक हमारा है,


व शांति ही हमको भाती है।।


 


तुम शूल बिछाया करते हो,


हम डगर बुहारा करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम वार पीठ पर करते हो,


हम सीना फाड़ दिखा देंगे।


यदि भारत में चिंगारी भड़की,


दुनिया को आग लगा देंगे।।


 


तुम अंधेरा फैलाते हो,


हम ज्योति जलाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


कहीं होटल ताज फूंकते हो,


कहीं दंगे भड़काते हो।


जब आती मेरी बारी तो,


झट से बिल में छुप जाते हो।।


 


क्या कर सकते हो तुम चूहों,


यह पता लगाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम छुपकर खेल खेलते हो,


हम खुलकर खेला करते हैं।


तुम मिलकर धोखा करते हो,


हर दुख हम झेला करते हैं।।


 


जिस दिन हत्थे चढ़ गए कहीं,


हम जड़ से सफाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम दहशत यहां फैलाते हो,


हम चैन-ओ-अमन फैलाते हैं।


तुम चोटें देकर जाते हो,


हम भावुक हो सहलाते हैं।।


 


तुम कौमी कोम से जलते हो,


हम नीर बहाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम शांति भंग करते रहते,


हम शांति पाठ सिखलाते हैं।


तुम देख देख जलते रहते,


हम ठाठ बाट बल खाते हैं।।


 


तुम मिर्ची जैसे कड़वे हो,


हम रंग चढ़ाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


तुम आगे पैर बढ़ाओगे,


हम पैर काटकर रख देंगे।


यद्यपि अहिंसावादी हैं,


यह व्रत ताख पर रख देंगे।।


 


जिस दिन हत्थे चढ़ गए कहीं,


हम जड़ से सफाया करते हैं।


जब आंच वतन पर आती है,


हम लहू बहाया करते हैं।।


_____________________


 


🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥


दुर्गा प्रसाद नाग


नकहा खीरी


मोo- 9839967711


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज

दिनांकः १७.०६.२०२०


दिवसः बुधवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा


शीर्षकः 🇮🇳तोड़ो चीन गरूर 🇮🇳


 


अमन चैन और मित्रता , है समुचित संदेश।


प्रश्न राष्ट्र सम्मान का , ले बदला हर देश।।१।। 


 


दुश्मन को दुश्मन समझ , करो नहीं विश्वास।


धोखा दे वह कभी भी , हिंसा अरु उपहास।।२।।


 


उठा शस्त्र कर रिपुदमन , हो कब तक बलिदान।


तहस नहस चीनी करो , अमर वीर सम्मान।।३।।


 


क्षमा नहीं प्रतीकार अब , बंद चीन व्यापार।


धारा बदलो नीति की , करो शत्रु संहार।।४।।


 


चीन बना दुस्साहसी , शक्ति सम्पदा चूर ।


महाशक्ति अब तुम स्वयं , तोड़ो चीन गरूर।।५।।


 


ड्रैगन की धोखाधड़ी , बनी सदा की नीति।


करो आर अरू पार अब , चीन न समझे प्रीति।।६।।


 


गलवानी चीनी झड़प , बीस जवान शहीद।


तजो अहिंसा राह को , बनो न अमन मुरीद।।७।।


 


सम्प्रभुता माँ भारती , जागो रे सरकार।


रक्षा यश इज्ज़त वतन, लो चीनी प्रतिकार।।८।।


 


बंद करो वार्ता कथा , भारत चीन विवाद।


करो कूच नासूर पर , नाश चीन अवसाद।।९।।


 


जय शंकर फिर काल बन ,तेजस अग्नि त्रिशूल।


पृथिवी का रिपु चीन है , विश्वास करो न भूल।।१०।।


 


कवि निकुंज लहु खौलता , देख देश हालात।


रहो एक इस वक्त में , दमन शत्रु जज़्बात।।११।।


 


लाओ फिर अरुणिम समय , महाशक्ति सम्मान।


पार शतक अपराध अब , करो चीन अवसान।।१२।। 


 


वीर शहीदों ने किया , पलटवार इस चीन ।


हिन्द चीन की बन्धुता , तोड़ो बनो न दीन।।१३।।


 


बहुत हुआ अब दिलकशी , केवल युद्ध इलाज।


दो सेना अधिकार अब , निर्णायक आगाज।।१४।।  


 


एक तरफ़ वार्ता करे , छिपकर सीमा घात।


महाशक्ति कहता स्वयं , लाठी डंडा लात।।१५।। 


 


अधिकारी सेना वतन , ले निर्णय सीमान्त।


निर्णय ली सरकार ने , करो शत्रु का अन्त।।१६।। 


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित)


नई दिल्ली


सुनीता असीम

खूबसूरत से नज़ारे तो हिजाबों में मिले।


इश्क करने की अदा सिर्फ नबावों में मिले।


*†*


काम करने में खुशी उतनी नहीं मिलती है।


वो मजा और खुशी सिर्फ ख़िताबों में मिले।


***


वो परी एक कहानी की हसीना माना।


ऐसी परियाँ तो कथा और किताबों में मिले।


***


मय का प्यासा तो दिवाना सा ठिकाना खोजे।


उसकी मंजिल तो उसे सिर्फ शराबों में मिले।


***


जितनी कविता औ ग़ज़ल हमने लिखीं हैं अब तक।


उनका चिट्ठा तो किताबों के हिसाबों में मिले।


****


सुनीता असीम


१७/६/२०२०


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश

'लद्दाख में वीरगति को प्राप्त वीर सैनिकों को भावपूर्ण और अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि 


""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""


एक भावपूर्ण कविता 


 


 


सीमा पर तेरी शहादत को


       जीवन में भूल नहीं सकते,


तुम गौरव हो भारत माँ के 


       हम तुमको भूल नहीं सकते। 


 


अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित जो 


         प्राणों का मोल नहीं करते,


भारत माँ के अमर सपूत


        जो दुश्मन से नहीं डरते।....


 


हम बीस के बदले सौ मारेंगे


    दुश्मन से मनुहार नहीं करते।.. 


         


राम कृष्ण बुद्धा की धरती 


        हैं कायर यहाँ नहीं बसते,


तेरे जैसे अधम नहीं हम 


     छिपकर प्रहार नहीं करते।.....


 


पोषक नहीं साम्राज्यवाद के 


      हम अनाधिकार नहीं करते।..


 


क्यों माँद में छिपकर बैठे 


       लड़ना है सम्मुख आओ,


सीना तान खड़े सीमा पर 


        छद्मवेश मत दिखालाओ। 


 


वीरों की भाँति जंग करते हैं 


     हम मिथ्या प्रलाप नहीं करते।.


 


बहुत हुआ है आँख मिचोली 


      अब अक्साई चीन हमें दे दो, 


जो जबरन कब्जा कर बैठे हो 


         अब वह ज़मीन हमें दे दो। 


 


हम सिंहों से लड़ने वाले हैं 


      गीदड़ पर वार नहीं करते।.. 


 


अब तुम्हें चुनौती देते हैं हम 


       मैदान-अ-जंग में आ जाओ, 


साहस है तो जंग करो तुम 


       कायरता तो मत दिखलाओ। 


 


भारत माँ के स्वाभिमान को 


       हम तार-तार नहीं करते।....


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उ० प्र०)


मो० नं० 9919886297


वैष्णवी पारसे

मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग


 


सुबह से शाम तक करती हूं मैं काम 


एकपल भी नहीं करती आराम


अपनों का रखती हूं हरदम ख्याल 


भूलकर अपना ही होश और हाल


मजबूत जिसकी डोर ऐसी मैं पतंग 


मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग


 


कितनी ही भूमिकाएँ मैंने अदा की


माँ, पत्नी, बहन, बेटी


पर मेरी जरूरत इतनी ही क्या


बनाऊ मैं बस दो वक्त की रोटी


कब मिलेगी मुझे आजादी मेरे जीने का ढंग 


मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग


 


जीजाबाई का मातृत्व मुझमे लक्ष्मी सी आग


राधा का समर्पण मुझमे सीता सा त्याग


गंगा की पवित्रता मुझमे दुर्गा सा शौर्य 


उर्वशी की चंचलता मुझमे धरती सा धैर्य


समुंदर भी सहम जाए ऐसी मैं तरंग 


मेरे कितने ही रुप मेरे कितने ही रंग


 


स्वरचित 


वैष्णवी पारसे


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*रिम-झिम*(लोक-गीत)


रिम-झिम पड़ेला फुहार सवनवाँ त आय गईलें सखिया, पेड़वा पे झुलेला झलुवा त दिलवा रसाय गईलें सखिया।।


      पुरुवा के झोकवा से आवेले बयरिया,


      पनिया के बूँदवा में टिके ना नजरिया।


      त मनवाँ में उठै ले कसकिया-


      सँवरिया भुलाय गईलें सखिया।।


                                 रिम-झिम....


काले-काले बदरन कै छटा हौ निराली,


बिजुरी ज चमके त भागूँ हाली-हाली।


बिरहा के अगिया से जली मोरि-


सरीरिया कुम्हिलाय गईलें सखिया।।


                       रिम-झिम....


      एको पल सोऊँ नाहीं, जागूँ सारी रतिया,


      का करूँ रामा हमरे आवे नाहीं बतिया।


      त हथवा कै गिनीला अँगुरिया-


      रतिया अपार भईलीं सखिया।।


                   रिम-झिम....।।


पिया बिनू तनिको सुहाय ना सवनवाँ,


लागै नाहीं कतहूँ उदास मोर मनवाँ।


अब त लागै जईसे बहुतै फीका-


सोरहो सिंगार भइलें सखिया।


        रिम-झिम पड़ेला...........।।


         ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


       9919446372


भरत नायक "बाबूजी"

*"काहिल-कपटी"*


('क' आवृत्तिक कुण्डलिया छंद)


"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""


*काहिल-कपटी कब कहाँ, करता कुछ कल्याण?


कोई कब कैसे कहे, किस कर कुटिल-कृपाण??


किस कर कुटिल-कृपाण, कहाँ कब किसका क्रंदन?


किसके कर कश्कोल, कोश कब किसके-कंचन??


कह नायक करजोरि, कौन कब किसके काबिल?


कर्कश-कलुषित कर्म, करे किल कपटी-काहिल।।


""""""''''"""""""""""""""'"""""""""""""""""""""


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

पढ़े लिखे आदमी की जिंदगी


टीवी अखबार समाचार    


खबर ही जिंदगी में ख़ास 


जिंदगी खबर समाचार ।।


 


चाय ,पान कि दूकान गुलज़ार 


राजनीती ,खेल ,सिनेमा देश 


की तमाम गतिविधियों का बुनियाद


टीवी अखबार कि खबर बहस


का चलता फिरता बाज़ार।।


 


सुबह भागता आदमी चाय ,पान कि दूकान फट मांगता अखबार जैसद गीता कुरान।


शायद कभी स्कूल में ध्यान नहीं


लगाया । ,  


 


जिंदगी 


खुद में समाचार हो गयी है देश के आम जन कि जिंदगी


आम हो गयी है।।


 


जिनके घर ही अखबार टीवी मोबाइल कि भरमार 


सुबह टीवी से ही करते जिंदगी की


शुरुआत खबरों से होते दो चार


रुख करते पढ़ने अखबार पन्ना 


उलटते पलटते कहते नहीं ख़ास


कोई समाचार ।।


 


रोज रोज ना जाने क्या क्या छापते अखबार विज्ञापन ,प्रचार 


टीवी में भी विज्ञापन कि भरमार।।


बेमतलब कि बहस भार हो गयी है


जिंदगी मोबाइल टीवी अखबार हो


गयी है।।


 


अखबार और टीवी से फुरसत तो


मोबाइल संसार ।


रिश्ते ,नाते ,दोस्ती ,मोहब्बत मोबाइल जान हो गयी है।।


 


गुरुओं कि पावन श्रंखला में मोबाइल गुरु की बात हो रही है।।


 


एक दिन बुधना ने किया सवाल


दादा आज कल हर आदमी के


हाथ में छोटा बक्सा कौन भगवान्


कोउ कोउ से बोलत नाही सबकर ऊ पर ध्यान परान ।।


 


का ऐसे मनाई के दाना ,पानी मिल


जात रोजगार बुधना के भोलेपन


का हमहू दिये जबाब।


सुन बुधन पढ़े लिखे लोगन का


हाथ मोबाइल बगले अखबार


सारी दुनिया के समझो है जानकार बादशाह।।


 


जौन् पूछो तौन बताहिये बस ना


बता पहिये आपन रिश्ता नाता 


संस्कृत संस्कार।


ई त पिछड़ापन ह बुधन चावल, रोटी ,दाल


पिज़्ज़ा ,वर्गर .हॉट डांग ,चाउमिन


मोबाईल अखबार जीवन के साथ


पढ़े लिखे का स्टेट्स सिम्बल । बेटा बेटी और परानी


टीवी ,मोबाइल ,अखबार ,टाटा 


थैंकयू ,बाई बाई में सिमट गया 


समाज।।    


 नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


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