कालिका प्रसाद सेमवाल

जीवन में दुत्कार बहुत है


*******************


द्वार तुम्हारे आया हूँ प्रिय,


जीवन में दुत्कार बहुत है।


 


जीवन का मधु हर्ष बनो तुम,


जीवन का नव वर्ष बनो तुम,


तुम कलियों सी खिल खिल जाओ,


चंदा किरणों -सी मुसकाओं,


रखना याद मुझे तुम रागिन,


अंतिम यह फरियाद सुहागिन।


 


कैसे अपना दिल बहलाऊँ


इस दिल पर भार बहुत है।


 


देखो यह नटखट पन छोड़ो,


मुझसे प्रेयसी, तुम मुँह मत मोड़ों,


आओ गृह की ओर चलें हम,


जग बन्धन को तोड़ चले हम,


तुमको पाकर धन्य बनूंगा,


प्यार -प्रीति में नित्य सुनूँगा।


 


तेरे हित में मुझको अब मरना है,


जीवन में अंगार बहुत है।


 


संध्या की यह मधुमय बेला,


रह जाता हूँ यहाँ अकेला,


सूरज की किरणों का मेला,


रचता है जीवन से खेला,


अपना तन-मन भार बनाकर,


चल पड़ता गृह, हार मनाकर।


 


कल समझौता होगा प्रिय,


जीवन में मनुहार बहुत है।


 


दुनिया कल यदि बोल सकेगी,


प्यार हमारा तोल सकेगी,


स्वत्व नहीं है उसको इतना,


कर ले बर्बरता हो जितना,


उसको क्या अधिकार यहां है,


कि रच दे विरह कि प्यार जहां है।


 


प्यार नयन की भाषा


यह इजहार बहुत है।


 


नव प्रभात की नूतन लाली,


रंग जाती है धरती थाली,


भौंरों के जब झुण्ड मनोहर,


गुंजित करते कुसुम -सरोवर ,


मथनी उर को मेरी हारें,


हाय, न क्यों तुम मुझे दुलारे।


 


कैसे तुमको राग सुनाऊं,


जीवन-तार बहुत है।


******************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


निशा"अतुल्य"

दोहे पर मेरा प्रयास 


😊🙏🏻


 


दिन मेरा बीते नही, ना ही बीते रात 


धरा ग्रीष्म में तप रही,कब होगी बरसात ।


 


व्याकुल पंछी जीव हैं,ढूंढे वृक्ष की छाँव


बादल घिर जो आ गये,ठौर मिलेगी गाँव।


 


बरखा की बूंदे गिरी, नाचा मन का मोर


पावस ऋतु जो आ गई,बादल हैं घनघोर।


 


नदियां पानी से भरी, भर गए ताल तलाब


टप टप गिरती बूंद भी,गाती रहें मल्हार।


 


ऋतु सावन की है खड़ी,बाट निहारूँ आज 


पिया मिलन की आस है, घिर आया मधुमास ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(16/16राधेश्यामी छंद)


कब से तरस रहीं थीं आँखें,


उड़ न रहीं थीं मन-खग पाँखें।


नव प्रकाश ले अब तो आईं,


कटीं जो रातें तनहाई में।


प्रीतम पावस लेकर आए, बरसे मन की अँगनाई में।।


 


कैसे-कैसे रजनी बीती,


कैसे कह दूँ अपनी बीती?


विरह-अगन की जलन-तपन अति,


रहीं सताती तरुणाई में।


प्रीतम पावस लेकर आए, बरसे मन की अँगनाई में।।


 


साजन-मिलन सुखद-मन-भावन,


जैसे हो मनमोहक सावन।


पाकर सजनी निज साजन को,


सुध-बुध खोए अँगड़ाई में।


प्रीतम पावस लेकर आए,बरसे मन की अँगनाई में।।


 


मन-मयूर भी लगा नाचने,


हो हर्षित सजन के सामने।


भूली सजनी लख प्रियतम को,


कष्ट सहा जो विलगाई में।


प्रीतम पावस लेकर आए, बरसे मन की अँगनाई में।।


 


जो सुख मिला सजन पावस से,


शायद मिले न वह सावन से।


परम दिव्य बस वह प्रभात है,


जो है दिनकर अरुणाई में।


प्रीतम पावस लेकर आए, बरसे मन की अँगनाई में।।


          


विह्वल-मगन-दीवानी सजनी,


की थी अति विशिष्ट वह रजनी।


प्रेम-वार्ता में कब-कैसे,


रजनी बीती पहुनाई में।


प्रीतम पावस बन कर आए, बरसे मन की अँगनाई में।।


                   ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


संजय जैन (मुम्बई

*गुलाब हो या दिल*


विधा : कविता


 


मेरे दिल में अंकुरित हो तुम।


दिलकी डालियों पर खिलते हो।


और गुलाब की पंखड़ियों की तरह खुलते हो तुम।


कोई दूसरा छू न ले तुम्हें


इसलिए कांटो के बीच


रहते हो तुम।


फिरभी प्यार का भंवरा कांटों


के बीच आकर छू जाता है।


जिससे तेरा रूप और भी निखार आता है।।


 


माना कि शुरू में कांटो से


तकलीफ होती है।


जब भी छूने की कौशिश


करो तो तुम चुभ जाते हो।


और थोड़ा दर्द दे जाते हो।


पर साथ ही तुझे पाने की


जिदको बड़ा देते हो।


और अपने पास ले आते हो।।


 


देखकर गुलाब का खिलारूप।


दिलमें बेचैनियां बड़ा देता है।


और पास अपने ले आता है।


रात के सपने से निकालकर।


सुबह होते ही पास बुलाता है।


और हंसता खिलखिलाता अपना चेहरा हमें दिखता है।।


 


मोहब्बत का एहसास गुलाब कराता है।


शान ए महफिलों की बढ़ाता है ।


शुभ अशुभ में भी 


भूमिका निभाता है।


तभी तो फूलदिवस भी मानवता है।


तभी तो गुलाब को हम


दिलों जान से चाहते है।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


22/06/2020


डॉ निर्मला शर्मा

ऑनलाइन क्लास 


 


कोरोना के संक्रमण से


बदल गया संसार 


क्षेत्र न कोई छूट रहा


फैले विविध विकार


विकास की गति धीमी हुई


सिमट गया संसार


संक्रमण के कारण से 


ऑनलाइन हुई है क्लास 


माता-पिता और बच्चों को


 हुआ बड़ा संत्रास 


सारा दिन घर में रहे 


हिले ना एक भी पल


कभी न हमने सोचा था


ऐसा होगा कल


याद आ रहै बच्चों को 


स्कूल के वह पल 


बिना किसी अवरोध के


पढ़ते सारे चंचल


खुली कक्षा में बैठकर 


पढ़ने में आनंद 


ऑनलाइन शिक्षण में कहाँ 


शिक्षा की वैसी तरंग 


ऑनलाइन शिक्षण ने किया


 क्लास रूम पर आघात


 वातावरण को बिगड़ रहा


 आनन्द का हुआ अभाव


भेदभाव भी हो रहा


 बच्चों के क्यों साथ? 


शहरी और ग्रामीण में 


शिक्षा बँटी है आज 


संसाधन पूरे नहीं  


हुआ हाल बेहाल


 स्मार्ट क्लास के लिए नहीं


 इंटरनेट का जाल 


प्रतिस्पर्धा की दौड़ में 


बच्चे हुए बीमार 


मनोरोग से ग्रसित हो 


स्वास्थ्य किया है खराब 


एक जगह पर बैठकर 


हो गए लापरवाह 


उत्साह मन का खो गया


हृदय से उठती आह!


स्वास्थ्य भी उनका बिगड़ गया


 मन भी हुआ लाचार 


बिना गाइडलाइन चल रहा


शिक्षा का यह प्रचार


शिक्षक भी है गुजर रहा


 परेशानियों से आज


 दक्षता उसकी भी नहीं


अनायास ही बढ़ गया


शिक्षण का विस्तृत आकाश


डाले कैसे संस्कार वह 


कैसे समझाएं संस्कृति 


आभासी शिक्षण ने ले ली


गुरु की महान पदवी


 डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


सत्यप्रकाश पाण्डेय

अदभुत चितवन देखके,


भूल गये भव ताप।


मुरलीधर की मोहिनी,


हर लीन्हे संताप।।


 


जगतपिता तेरी कृपा,


सत्य हृदय कूं फूल।


सुरभित हुए तन मन प्रभु, 


जग लागे अनकूल।।


 


मोर मुकुट की सौम्यता,


अधरन की मुस्कान।


हरे बांस की बांसुरी,


करें अलंकृत प्राण।।


 


रूप सौंदर्य के धनी,


मुरलीधर घन श्याम।


ज्योती बन हिय में जलें,


जीवन हो अभिराम।।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः 👏👏👏👏👏🍁🍁🍁🍁🍁


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डा.नीलम

*माटी*


 


माटी माटी करता हो


माटी को न जाने हो


माटी होकर देखो तो


माटी क्या है जानोगे


 


एक बीज रोपके देखो


श्रम बिंदुसे सींच के देखो


माटी के हमदम बन जाओ


भर झोलियां वो देगी देखो


 


माटी माटी करते हो.......


 


माटी से ही तेरा तन बना


माटी से ही तेरा घर बना


ये संपूर्ण जगत जो दृश्या


माटी से ही सबकुछ बना


 


जिस तन पर इतराता है


जिस धन पर इतराता है


बदला वक्त माटी होगा


क्यों मिथ्या इतराता है


 


माटी माटी करता है........


 


ये जो शान ओ' शौकत है


कुछ ही दिन की रौनक है


इक दिन सब लुट जायेगी


जो तन ओ' धन की दौलत है


 


जन्म मिला है माटी से


परण हुआ है माटी से


जब होगी पुकार यम की


मिलन होगा फिर माटी से


 


माटी माटी करता है.........


 


          डा.नीलम


एस के कपूर"श्री हंस" बरेली

*चीन को सबक सिखाना*


*है।।।हाइकू।।।।*


1......है दगाबाज


सिद्ध हो गया आज


चीनी आवाज़


2........कॅरोना दिया


विश्वास हर लिया


यह क्या किया


3.......ये तकरार


करेंगें बहिष्कार


चीनी व्यापार


4......पीठ में छुरा


जवाब दें करारा


बहुत बुरा


5......विश्वास घाती


होगा तू बेनकाब


चीरेंगें छाती


6.......विधि विधान


मानता नहीं चीन


मिटे निशान


7....विस्तार वाद


पुरानी चीनी नीति


होगा बर्बाद


*योग।।।।।।हाइकु*


1......दूर हो रोग


रोज़ सुबह योग


काया नीरोग


2.......योग फायदा


रोज़ ही योग करें


बने कायदा


3,,,,,,विश्व को दिया


विश्व ने अपनाया


ओ लाभ लिया


4,,,,,,रोज़ हो योग


करे ये काया कल्प


बने निरोग


5,,,,बढे क्षमता


योग भगाये रोग


मन रमता


6,,,ये लाभकारी


स्वस्थ बने शरीर


है हितकारी


7,,,,,,योग दिवस


हो ये प्रत्येक दिन


न रोग चिन्ह


 


एस के कपूर"श्री हंस"*बरेली*।


मोब।। 9897071046


                    8218685464


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

धर्म निरपेक्षता ढकोसला


 


 


धर्म ,समाज ,राष्ट्र धरोहर


माँ ,जन्म ,जन्म भूमि की 


पहचान।।


धर्म ,धन्य मानवता का


अभिमान ।


धर्म ,संस्कृति ,संस्कार 


नहीं सिखाता प्राणी


प्राण में भेद भाव।।


हिंसा ,घृणा ,विद्वेष धर्म नहीं


धर्म मार्ग है प्रेम ,शांति का


संदेस।।


धर्म नहीं करता मानव 


मानव में भेद।


अन्याय ,अत्याचार का प्रतिकार


सद कर्मो का सत्य ,सत्यार्थ


धर्म ,करुणा ,छमाँ मानवता


की मर्यादा मूल्य।।


लोकतंत्र मत बहुमत का मेल


लोक तंत्र में जाती धर्म के 


वर्ग बेमेल।।


लोकतंत्र सत्ता ,शासन का


मार्ग कभी तोड़ कर ,कभी


जोड़ कर मत बहुमत नित्य


निरंतर सत्ता शक्ति के संतुलन


अनेक।।


लोक तंत्र जनता का, जनता द्वारा,


जनता के लिये 


अक्सर भोली भाली जनता


अपने सपने को खुद


भवों के प्रवाह में दाँव लगाती


कभी हारती कभी जीतती


कभी हराती कभी खुद


हार जाती ।।


धर्म धुरी है मानवता कि जिसके इर्द गिर्द


मानव घूमता आशाओ के


विश्वाश में ,आस्था के अस्तित्व


में ,विराटता के बैभव में,


विचलित हो जाता ,जब मानव


धर्म मार्ग उसे तब बतलाता।।


लोकतंत्र भी मानवता के मूल्यों


का रखवाला 


मत बहुमत के चक्कर में 


बांटता बटाता और बँट जाता


लोकतंत्र सिद्धांत मत बहुमत


पर आधारित ।।


धर्म ,अक्षुण ,अक्षय युग समाज


का निर्माणी निर्णय कारी।


लोक तंत्र में बहुमत निर्णय


परिवर्तन का पथ प्रवाह


धर्म में कर्म ,ज्ञान के वेद्,


पुराण, कुरान जीवन मूल्य


आधार ।।


धर्म कि परिभाषा कि उलटी


व्याख्या घृणा का क्रूर ,


क्रूरतम, उग्र ,उग्रता ,उग्रवाद


लोक तंत्र में छद्म खद्दर धारी


जनता के प्रतिनिधि महात्मा


कि आत्मा विध्वंसक ,विघटन


कारी मानवता में घृणा के 


संचारी।।


धर्म निरपेक्ष नहीं मानव मन 


मस्तिष्क कि आस्था 


के मूल्यों कि परम शक्ति भगवान,


खुदा ,अल्ला ,बुद्ध ,जीजस , नानक भक्ति की शक्ति।


लोकतंत्र सिद्धान्तों के सापेक्ष मति ,सहमति कि


संयुक्त ताकत राज्य प्रशासन


की निति ,नियति राज्य निति राजनीती 


निरपेक्ष नहीं ,जब भगवान,


खुदा ,जीजस ,अल्ला भक्ति


के सापेक्ष।।


लोकतंत्र निरपेक्ष कैसे


लोक तंत्र बहुमत का प्रति


प्रतिनिधि का सापेक्ष।।


निरपेक्ष नहीं पैदा होता मानव


पैदा होता धर्म ,रिश्तों ,नातो के


समाज सापेक्ष में


कैसे हो सकता निरपेक्ष ।।


धर्मनिपेक्षता का राग ढोंग,


छद्म ,छलावा सबसे ज्यादा


धर्मांध धर्म निरपेक्षता कि


राग अलापता । 


धर्म निरपेक्षता खोखले


मर्यादाओ का अँधेरा अन्धकार


दिखता ।।


जब इंसान कि पहचान माँ ,बाप,


मातृभूमि ,समाज ,धर्म ,राष्ट्र 


जो मानव ,मानवता के रिश्तों


में रचता बसता समरसता


के समता मूलक राष्ट्र कि 


बुनियाद।।


शासन प्रशासन लोक तंत्र हो


राज तंत्र हो जो भी हो कि


सांसे धड़कन प्राण।।


हर राष्ट्र कि मौलिक चाहत


एक सूत्र में बंधा रहे राष्ट्र 


समाज ,धर्म का भी चिंतन


सिद्धान्त।।


दूरदृष्टि ,मजबूत इरादे ,नेक नियति


निष्ठा ,ईमानदारी ,आस्था और


विश्वास, धर्म और लोकतंत्र कि आत्मा आवाज़।।


 


धर्मनिरपेक्षता फरेब ,धोखा ,मौका,


मतलब परस्ती का समाज देश


के बुनियादों का दीमक जाल।।


देश समाज के खस्ता हाल


का जज्बा जज्बात जिमेदार।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


राजेंद्र रायपुरी

😊😊 एक गीतिका 😊😊


 


भले-बुरे की जिनको यारो,


              जग में है पहचान नहीं।


उनको तुम पशुवत ही मानो,


               सच में वे इंसान नहीं।


 


मानवता के दुश्मन हैं वो,


             हर दिन नफ़रत फैलाते।


उनकी बातों पर हम सबको,


            देना बिल्कुल ध्यान नहीं।


 


दूर हमें है उनसे रहना,


              समझ छूत की बीमारी।


उनकी बातों का हम सबको,


                लेना है संज्ञान नहीं।


 


अलग-थलग ही रखना उनको,     


           समझ यार कूड़ा करकट।


भले लगें वे द्विज के जैसे,


                देना उनको मान नहीं।


 


कोरोना के वाहक हैं वो,


              सावधान हमको रहना।


गले लगाकर उनको हमको,


               देनी अपनी जान नहीं।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


 


  *"न मन हारे-न तन हारे"*


 


"सोचे पल-पल मन जग में,


कैसे-बीते ये जीवन?


देखे सपने बचपन में,


आदर्श होगा ये जीवन।।


टूटे सपने मन के सारे,


क्यों-वो अपनो से हारे?


छूटे जब सभी सहारे,


फिर पहुँचे वो प्रभु द्वारे।।


 


दूर हो दु:ख मन के सारे,


जैसे-जैसे प्रभु नाम पुकारें।


प्रभु भक्ति में डूबा जो मन,


न मन हारे-न तन हारे।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःः 22-06-2020


भरत नायक "बाबूजी

चाणक्य नीति -----


(दोहानुवाद)


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■बहूनां चैव सत्तवानां रिपुञ्जयः । वर्षान्धाराधरो मेधस्तृणैरपि निवार्यते॥


भावार्थ :


शत्रु चाहे कितना बलवान हो; यदि अनेक छोटे-छोटे व्यक्ति भी मिलकर उसका सामना करे तो उसे हरा देते हैं । छोटे-छोटे तिनकें से बना हुआ छप्पर मूसलाधार बरसती हुई वर्षा को भी रोक देता है । वास्तव में एकता में बड़ी भारी शक्ति है ।


 


★१- शक्ति संगठन में बड़ी, होती रिपु की हार।


ज्यों तिनका-छत रोक ले, वर्षा-तेज प्रहार।।


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■त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् । कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः॥


भावार्थ :


दुष्टों का साथ छोड़ दो, सज्जनों का साथ करो, रात-दिन अच्छे काम करो तथा सदा ईश्वर को याद करो । यही मानव का धर्म है ।


 


★२- साथ सु-जन रह तज कु-जन, निशिदिन करो सु-कर्म।


करो ईश-आराधना, यही मनुज का धर्म।।


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■जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारे वस्तुशक्तितः॥


भावार्थ :


जल में तेल, दुष्ट से कहि गई बात, योग्य व्यक्ति को दिया गया दान तथा बुद्धिमान को दिया ज्ञान थोड़ा सा होने पर भी अपने- आप विस्तार प्राप्त कर लेते हैं ।


 


★३- तेल-वारि खल को कथन, पात्र ज्ञान उपकार।


रहकर मात्रा अल्प भी, पा जाते विस्तार।।


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■उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी । तादृशी यदि पूर्वा स्यात्कस्य स्यान्न महोदयः ॥


भावार्थ :


गलती करने पर जो पछतावा होता है, यदि ऐसी मति गलती करने से पहले ही आ जाए, तो भला कौन उन्नति नहीं करेगा और किसे पछताना पड़ेगा ?


 


★४- गलती करके बाद में, होता पश्चाताप।


कर्म-पूर्व यह सोच लो, होगी उन्नति आप।।


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■दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये । विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा॥


भावार्थ :


मानव-मात्र में किभी भी अहंकार की भावना नहीं रहनी चाहिए बल्कि मानव को दान, तप, शूरता, विद्वता, शुशीलता और नीतिनिपुर्णता का कभी अहंकार नहीं करना चाहिए । यह अहंकार ही मानव मात्र के दुःख का कारण बनता है और उसे ले डूबता है ।


 


★५- दान-शौर्य-तप-ज्ञान पर, कर न मनुज अभिमान।


कारण बनता दुःख का, अहंकार ही जान।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः....*अठारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


जदि तू भजहु मोंहि चितलाई।


सुनु मम सखा औरु मम भाई।।


     पइबो हमहिं अवसि हे मितऊ।


     सत्य प्रतिग्या इह मम अहऊ।।


     अस्तु,त्यागि सभ करमहिं धरमा।


      आवहु मोरी सरन सुकरमा ।।


करब मुक्त मैं तव सभ पापा।


हरब सकल जे तव भव-तापा।।


     करउ न सोक आउ मम सरना।


     नाथ सच्चिदानंदघन अपुना।।


गीता-बचन-मरम मत कहऊ।


भगति बिहीन-अनिछ जे रहऊ।।


     पर जे करै न निंदा मोरी।


     उनहिं सुनावउ भाव-बिभोरी।।


गीता-सार कहहु निष्कामा।


करि प्रसार पाउ मम धामा।।


     कहहि जे गीता गृह-गृह जाई।


     अहहि उहहि मम अति प्रिय भाई।।


करै पाठ जे गीता-ग्याना।


ग्यान-जग्य-पूजित मो पाना।।


     सुनै जे गीता नित चितलाई।


      सकल पाप मुक्त होइ जाई।।


कह आनंदकंद प्रभु कृष्ना।


किम अर्जुन तुम्ह भे गत-तृष्ना??


     कहे धनंजय हे प्रभु अच्युत।


     भवा मोर मन मोह-भ्रमइ च्युत।।


संसय-बिगत भवा मन मोरा।


करबइ जे कहु नंदकिसोरा।।


     संजय कह तब सुनु हे राजन।


     अर्जुन-कृष्न मध्य सम्बादन।।


सुनि अद्भुत रोमांचक तथ्या।


मिला मोंहि आनंद अकथ्या।।


    बेदइ ब्यास कृपा मैं पाई।


    दिब्य दृष्टि सभ परा लखाई।।


गूढ़ ग्यान जे दीन्ह जोगेस्वर।


कृष्न अर्जुनहिं चुनि-चुनि हिकभर।।


दोहा-हे राजन धृतराष्ट्र मैं, होंहुँ मुदित बहु बार।


        करि स्मरनहिं प्रभु-कथन,जाइ होय उद्धार।।


       जहाँ जोगेस्वर कृष्न रहँ, अरु अर्जुन-धनु-बान।


       अहहि मोर मत राजनइ, होवहि बिजय महान।।


                        डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


               अठारहवाँ अध्याय समाप्त।


               ऊँ भगवते वासुदेवाय नमः!!


कालिका प्रसाद सेमवाल

मां सरस्वती


**********


हे मां सरस्वती,


तू प्रज्ञामयी मां


चित्त में शुचिता भरो,


कर्म में सत्कर्म दो


बुद्धि में विवेक दो


व्यवहार में नम्रता दो।


 


हे मां सरस्वती


हम तिमिर से घिर रहे,


तुम हमें प्रकाश दो


भाव में अभिव्यक्ति दो


मां तुम विकास दो हमें।


 


हे मां सरस्वती


विनम्रता का दान दो


विचार में पवित्रता दो


व्यवहार में माधुर्य दो


मां हमें स्वाभिमान का दान दो।


 


हे मां सरस्वती


लेखनी में धार दो


चित्त में शुचिता भरो,


योग्य पुत्र बन सकें


ऐसा हमको वरदान दो।।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


प्रभुनाथ गुप्त 'विवश

'अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस 2020' पर एक कविता


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'विश्व योग दिवस' पर आओ


       हम सीखें और सिखायें योग,


प्रारम्भिक शिक्षा केन्द्रों में भी 


        हम बच्चों को सिखायें योग।


 


भौतिक वादी युग में मानव


          अवसाद ग्रस्त हो जाता है,


किंचित पता नहीं है उसको 


       वह क्या खोता क्या पाता है। 


 


बहुत हुआ अब आपा-धापी 


      समझें और समझायें योग।.. 


 


कुछ दृश और अदृश रोगों से


       जीर्ण-शीर्ण तन हो जाता है, 


दूषित जल और खानपान से 


      अस्त-व्यस्त सब हो जाता है।


 


सूर्य, चन्द्रमा और धरा भी 


       दुनिया को समझायें योग।.. 


   


संयुक्त राष्ट्र का है ये कहना 


       'सेहत के लिए, घर में योग', 


प्रतिदिन के जीवन शैली में 


       सम्मिलित कर लें हम योग। 


 


संतों मुनियों की तपोभूमि से,


       दुनिया भर में फैलायें योग।..


 


आज अगर संकल्पित होकर


         जो हम करते रहें नित योग,


सदा रहेगा तन मन स्वस्थ 


        मिथ्या औषधि का उपयोग। 


 


वसुधैव कुटुम्बकम् के मूल में 


      हम घर-घर में पहुँचायें योग।.


 


मौलिक रचना- 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०) मो० नं० 9919886297


प्रिया चारण  उदयपुर राजस्थान

योग


 


कष्टो से वियोग है योग


शान्त मन , स्वस्थ शरीर का प्रयोग है योग


आयुर्वेद का शोध है योग


 


आनन्दित मन 


दयावान आचरण


करुण हृदय, और 


सूर्यनमस्कार का प्रथम चरण है योग


 


वृक्षासन से कही आसन से


दूर करता हर रोग जीवन से 


 


नाड़ी तंत्र योग समझाए


ज्ञानिन्द्रियों को जगाए


जीवन में ऊर्जा लाए


आत्मा को शरीर से मिलाए


 


आदियोगी का आशीर्वाद आए


जो नित योग को अपने आचरण में लाए


 


 


प्रिया चारण 


उदयपुर राजस्थान


नूतन सिन्हा

पिता


न होती लोरियाँ पिता के पास


         वो होते है


मोटे तने और गहरी जड़ो वाला


एक विशाल वृक्ष और मॉ होती है


उस वृक्ष की छाया,जिसके नीचे बच्चे बनाते बिगाड्ते अपने घरौंदे 


 


रहता है पिता के पास


दो ऊँचे और मजबुत कंधे 


जिन पर चढ़ कर बच्चे देखते


सपने आसमान छूने की


 


रहता है पिता के पास


एक चौड़ा और गहरा सीना


रखता जिसमें जज़्बा 


रखता अपने सारे दुख


चेहरे पर जाड़े की धूप की तरह


फैली चिर मुस्कान के साथ


 


उसके दो मजबुत हाथ


छेनी और हथौड़ी की तरह


तराशते रहते है सपने दिन रात


सिर्फ़ और सिर्फ़ बच्चों के लिये


अपनी जरुरतो और अपने सपनों


को कर देता मुल्तवी 


 


पिता भूत,वर्तमान और भविष्य 


जीता है तीनों को साथ लेके


भूत की स्मृतियॉ


वर्तमान का संघर्ष 


और बच्चों में भविष्य 


 


पिता की उँगली पकड़ कर


चलना सिखते बच्चे 


पर भूल जाते एक दिन


इन रिश्तों की संवेदना


और तय किये गये


सड़क,पुल बीहड़ रास्तों का


उँगली पकड़ कर कठिन सफ़र


 


बाँहें डाल कर


जब झूलते बच्चे 


और भरते किलकारियाँ 


पूरी कायनात सिमट आती है 


उसकी बाँहों में


इसी सुख पर वो


कर देता क़ुर्बान अपनी पूरी जिदंगी


 


वो बहाता अपना पसीना


तरह तरह का काम करके


      चाहे हो वह


ढोता बोझा या फिर फ़ैक्टरी 


दफ़्तर में करता वो काम


या हो फिर अफ़सर


बनता है बुनियाद का पत्थर 


जिस पर तामीर होते है


बच्चों के सपने


 


फिर भी पिता के पास


न होती बच्चों को बहलाने और


सुलाने के लिये लोरियाँ 


             नूतन सिन्हा


            21.06.2020


आशा त्रिपाठी

पिता की छत्रछाया में सभी गम भूल जाते है।


पिता के धैर्य की आभा हमेशा याद आते है।


पिता आकाश पूरा है, हृदय आधार है घर का।


पिता के स्नेह मे बच्चें सदा ही मुस्कुराते है।


✍आशा त्रिपाठी


Father's day पर मुक्तक


        डा.नीलम

*पिता हूँ मैं*


 


हाँ पिता हूँ मैं


देता हूँ बीज 


कोख ए जमीन को


सहेजता हूँ 


नेह सिंचन से


पनपता है वंश 


उऋण होता हूँ


पिताऋण से


पुत्र नहीं पुत्री पाकर


वंशबेल सी


बढ़ती जब बिटिया


18 साल            


मन बनिया बन


जून-जून जोड़-


घटा करता हूँ


सच मानो या ना मानो


पल पल युग-सा


जीता हूँ


दिखता हूँ बाहर से


शांत 


भीतर ही भीतर 


रोता हूँ


एक दिन ये


वंशबेल चढ़ जायेगी


ससुराल मुंडेरे


तभी............


देता हूँ संस्कार,


संस्कृति,सुज्ञान 


बनाता हूँ सशक्त,


देह और अर्थ से


के........


जाकर पर देश


ना कहे


काहे को बियाही बिदेस।


 


        डा.नीलम


रूपा व्यास,'परमाणु नगरी',रावतभाटा,

शीर्षक-पिता सुरक्षा कवच(कविता)


 


परिवार का सुरक्षा कवच होता है,पिता।


बच्चों की सारी अभिलाषा पूर्ण करता है,पिता।।


बाज़ार के सब खिलौनेअपने,जब साथ होता है, पिता।


वरना सारी दुनिया व राह सुनी जिनके न हो पिता।।


हर रिश्ते जिससे वो हैं, पिता।


परिवार की हर रस्म जिसके उपस्थित होने से पूरी हैं, वो हैं ,पिता।।


माता का सारा श्रृंगार जिससे वे हैं, पिता।


संतान का मित्र,निस्वार्थ हितैषी है,पिता।।


 


नाम-रूपा व्यास,'परमाणु नगरी',रावतभाटा, जिला-चित्तौड़गढ़(राजस्थान)


यह मेरी मौलिक रचना है।


                 -धन्यवाद-


शिवेन्द्र मिश्र 'शिव

एक सोरठा सादर निवेदित..


 


सोरठा:-


तन-मन देता वार, अपने सुत पर जो पिता।


हो जाता है भार, वृद्धावस्था में वही।।


शिवेन्द्र मिश्र 'शिव'


 


 


 


कड़वा है पर सत्य है..


 


कुंडलिया छंद:-


 


मात-पिता व्याकुल बहुत,और हुए लाचार।


नही आजकल अब कहीं, बेटे श्रवण कुमार।।


बेटे श्रवण कुमार, करें अपनी मनमानी।


मिले न रोटी दाल, और ना सुत से पानी।


कहता 'शिव' दिव्यांग, दुखी हरदम वो रहता।


कभी स्वप्न में कष्ट, पिता-मां को जो देता।।


शिवेन्द्र मिश्र 'शिव'


 


डॉ निर्मला शर्मा  दौसा राजस्थान

"मिटा कर रख देंगे तुझे चीन"


 तेरे नापाक इरादों को 


कर देंगे भू आधीन 


मिटा कर रख देंगे तुझको 


संभल जा ए चीन 


जब भी तूने हिंदुस्तान पर


 अपनी आँख गढ़ाई 


तूफानी भारतीय सेना ने 


तुझसे नाक रगड़वाई 


कूटनीति और धोखेबाजी में


 तू है बड़ा प्रवीण 


नहीं सधेगी मंशा तेरी


 टूटेंगे सपने रंगीन 


मुंह में राम बगल में छुरी 


रख तूने हमें छला है तू


 अपनी अब खैर मना ले


 चले न तेरी अब कला है


 हिंदी- चीनी भाई कहकर


 1962 में विश्वासघात किया


 मुँह की खाई रण में आखिर


 सेना ने संहार किया 


2020 में भी तू 


खेले खेल खिलौना है


 मित्र कहे मुख से पल भर में 


दागे पीछे गोला है 


चीनी बुखार चढ़ा है सबको 


पाक हो या नेपाल 


अपने मकड़जाल में लेकर 


लील जाएगा यह मक्कार


 धूर्त बड़ा तू बड़ा आततायी


 कुटिल , अधम, अन्यायी


 अभिमान तेरा टूटेगा 


संभल जा शामत तेरी आई 


 तेरे नापाक इरादों को


 कर देंगे हम मटियामेट 


मिटा कर रख देंगे तुझको 


संभल जा खेलना हमसे कोई खेल


 


 डॉ निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*योग-दिवस*


दिवस साधना का यही,योग-दिवस सुन भ्रात।


प्रथम कार्य बस योग ही,करना नित्य प्रभात।।


 


स्वस्थ रखे तन को यही,दे मन-शुद्ध विचार।


धन्य पतंजलि ऋषि रहे,किए जो आविष्कार।।


 


प्राणायाम व भष्तिका,सँग अनुलोम-विलोम।


भ्रमर-भ्रामरी साथ में,अतुल शक्ति रवि-सोम।।


 


सफल योग उद्गीत है,रखे कुशल मन-गात।


इसको करने से मिले,तत्क्षण रोग-निजात।।


 


ऋषि-मुनि-ज्ञानी-देव सब,सदा किए हैं योग।


कलि-युग औषधि बस यही,समझें इसे सुभोग।।


 


मूल-मंत्र बस योग है,यही है कष्ट-निदान।


करे योग को रोज जो,उसका हो कल्याण।।


 


आओ मिलकर सब करें,नित्य योग-अभ्यास।


भर देगा यह योग ही,जीवन में उल्लास।।


             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


अतिवीर जैन पराग  मेरठ,

मेरे बाऊजी :- (पितृ दिवस पर )


बाऊजी के चरणों में रोज वंदना करता हूँ,


शीश अपना उनके चरणों में रखता हूँ.


रहते थे गम्भीर कम ही मुस्कराते थे,


आँखो से ही सब कुछ कह जाते थे.


 


सुबह उठ अपना पानदान फेलाते थे,


खाना लेकर ही ऑफीस को जाते थे.


रात को खाना कभी नहीँ खाते थे,


दिन छिपने पर ही घर में आते थे.


 


ऑफीस से आ रोज हमें पढ़ाते थे,


अँग्रेजी गणित अच्छे से समझाते थे.


डाट भी बड़ी जोर की लगाते थे,


सोने से पेहले हम उनके पेर दबाते थे.


 


दिखते थे कठोर पर कोमल ह्रदय थे,


माँगने वाले को खाली नहीँ लौटाते थे.


ना आये उधार वापस तो,कर्जदार 


पिछले जन्म का खुद को बताते थे.


 


समय के पाबंद थे, सुबह ही उठ जाते थे,


साइकल पर ही रोज ऑफीस जाते थे.


घर के सारे काम खुद ही निपटाते थे,महीने 


भर का राशन रविवार को ले आते थे.


 


मुशायरे शेरों शायरी के शौकीन,


कवि सम्मेलन सुनने जाते थे.


अँग्रेजी की ऐतिहासिक किताबें


पढ़ते थे,ज्ञान हमारा बढ़ाते थे.


 


रेडियो में रोज ख़बरे ही लगाते थे,


बिनाका गीत माला जोर से बजाते थे.


पुराने गानो के शौकीन,गीत गुनगुनाते थे, धार्मिक किताबें पढ़ते रोज मंदिर जाते थे.


 


मंदिर में पूजा करते रथ यात्रा में ले जाते थे,


बाजार में ले जा कपड़े खिलौने दिलाते थे. मेहनत,ईमानदारी,संघर्ष के मंत्र सीखा गये,


जिन्दगी भर आगे बढ़ने की राह बता गये.


 


ऐसे थे मेरे बाऊजी ,रोज याद आते हैं, बाऊजी के चरणों में रोज वंदना करता हूँ,


शीश अपना उनके चरणों में रखता हूँ.


 


स्वरचित 


अतिवीर जैन पराग 


मेरठ,


9456966722


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

दिनांकः २१.०५.२०२०


दिवसः गुरुवार


विषयः योग


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा


शीर्षकः योगक्षेमं वहाम्यहम्


आज मनाएँ योग दिवस ,मिलें करें सब योग।


करें व्यायाम साथ में , स्वयं भगाएँ रोग।।१।।


 


योग न केवल साधना , नवसर्जन नव सोच। 


है समत्व की योजना , करें बिना संकोच।।२।। 


 


स्रोत योग ऊर्जस्विता , नव जागृति जयघोष। 


इन्द्रिय जेता नियन्ता , सदा मिटाए रोष।।३।।


 


योगक्षेमं वहाम्यहम् , निर्माणक विश्वास। 


राष्ट्र एकता सूत्र यह , देश भक्ति आभास।।४।। 


 


परहित नित सद्भावना , सत्कर्मी संदेश।


नीति रीति स्नेहिल पथी , योग बने परिवेश।।५।।


 


राष्ट्र धर्म प्रतिमान यह , ख़ुद में दृढ़ संकल्प।


तन मन धन सुख शान्ति का ,केवल योग विकल्प।।६।।


 


करें योग से मित्रता , शत्रुंजय संसार।


बने धीर नित साहसी , आत्मबली आचार।।७।।


 


रोग शोक संताप सब , मोह कपट से दूर। 


स्वाभिमान सम्मान जग, बने नहीं मज़बूर।।८।। 


 


योग नीति सह कर्म का , ध्यान राज सत्काम।


मुक्ति मार्ग संताप त्रय , जीवन धन्य सुनाम।।९।।


 


मानवता रक्षक सदा , साधन नैतिक राह। 


करें नियोजित योग से , भौतिकता हर चाह।।१०।।


 


करें सुखद योगात्म नित , पाएँ निज सौभाग्य।


करें नियंत्रण चपल मन , अभ्यासी वैराग्य।।११।। 


 


योगेश्वर सह पार्थ का , योगसूत्र है शक्ति।


योग राज हैं शिव स्वयं , पातंजलि अभिव्यक्ति।।१२।। 


 


जीतें हम गोलोक को , योगबली पुरुषार्थ।


शील त्याग गुण कर्म से , हरिवंदन परमार्थ।।१३।।


 


कवि निकुंज चंचल मनसि , फँसा मोह जंजाल। 


हेतु पाप मद शोक जग , बचें बनें खुशहाल।।१४।।


 


वर्धापन शुभकामना , विश्व भगाएँ रोग।


स्वागत विश्व योग दिवस , करें मिलें सब योग।।१५।। 


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित)


नई दिल्ली


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