कवयित्री
पिता का नाम-श्री चन्द्र प्रकाश
माता का नाम-श्रीमती शान्ती देवी
पति का नाम- श्री अनिल लाल
स्थायी पता - 8/3बैंक रोड
विश्व विद्यालय परिसर
इलाहाबाद ,
211002.
जन्म स्थान - फ़ैज़ाबाद , उत्तर प्रदेश
मोबाइल नम्बर- 9451057829
शिक्षा - एम.एससी.(जन्तु विज्ञान) बी.एड
व्यवसाय- पाठन
प्रकाशित रचनायें - २ काव्य संकलन
(१) है कौन चिरंजीवी
मैंने जीवन से पूछा जब
पल बचे शेष कितने मेरे ?
उसने उल्टा यह प्रश्न किया
जो मिले तुम्हें वह कहाँ गये ?
मैं डूबी असमंजस में यह
लेखा जोखा करने बैठी
कुछ समझ नहीं पायी लेकिन
ये पूँजी कहाँ गवाँ बैठी !!
कुछ दे मुस्कान ख़रीदी थी
कुछ देकर आँसू लायी थी
कुछ बिना मोल ही व्यर्थ गये
कुछ गिरवी मैं रख आयी थी !
कैसे हाथों से फिसल सभी
मुझको रीता करते आये
अब लगा शेष वह राशि हुयी
जिसको अथाह कहते आये !
मैंने फिर कहा ,"सुनो !मुझको
कुछ पल तुम और अभी दे दो"
हँस कर बोला जीवन मुझसे
"जो पास तेरे उनको जी लो।"
"कुछ पल देकर मुस्कान एक
रोते अधरों पर फैला दो
कुछ दे कर ,बोझ किसी काँधे
का अपने ऊपर ला देखो !
है कौन यहाँ पर चिरंजीव
सब के पल चुकते जाते हैं
हर पल ख़ुद पर न्योछावर कर
हम जीवन व्यर्थ गँवाते हैं !!
(२) कलम का विद्रोह
आज क़लम विद्रोह कर उठी
बोली तुम झूठा लिखती हो !
किस युग की बातें करती हो
सच पर क्यूँ परदा ढकती हो !
देखो दुनिया बदल रही है
प्रेम - राग सब मिथ्या ही है
भाई चारा कहीं खो गया
नातों की बुनियाद हिली है !
याद नहीं किस युग की गाथा
जब 'रसखान', 'श्याम' रंग रंगे,
'अकबर' के प्रासाद कक्ष में
होते 'कृष्ण जन्म' के जलसे!
नामों से 'पहचान' जान कर
क्यूँ बन जाते हैं अंगारे ?
कब हिन्दू या मुस्लिम बन गये
इक 'आदम' के वंशज सारे !
कैसा यह उन्माद बढ़ रहा
कौन इसे है यूँ भड़काता?
छूने भर से धर्म भ्रष्ट हो
कैसा है कच्चा यह नाता ?
हो क़ुरान , गीता या बाइबिल
नहीं किसी की सीख घृणा है
हर मज़हब का एक सूत्र है
मानवता का धर्म बड़ा है !
बस कर दो !अब बस भी कर दो!
मज़हब को मत शस्त्र बनाओ,
जात- धर्म का तमग़ा फेंको
"होमों सेपियन " ही कहलाओ”!!
(३)गरिमा लौटानी होगी
द्वार बन्द कर , चक्षु मूँद कर,
चिन्तन से क्या होगा!
बाहर आकर तुम्हें बहुत
परिवर्तन करना होगा!!
गति है जिसमें उसको बस
एक राह दिखानी होगी ,
स्थिर है जो उसमें
नयी ऊर्जा लानी होगी!
जिस जीवन की मात्र कल्पना
तुम्हें कँपा जाती है
कितनी कलियाँ नित्य वहीं
बिन विकसे मुरझाती हैं!
रोता और सिसकता बचपन
है कलंक हम सब पर
बढ़कर उन सब अधरों पर
मुस्कान खिलानी होगी!
अरे स्वयम् को रहे संजोते
हैं मनुष्य हम कैसे?
मानवता को एक
नई पहचान दिलानी होगी!
देश ,जाति और रंग भेद से
ऊपर उठ कर देखो
जीवित रहने की गरिमा
जंग में फैलानी होगी!
कुत्सित कर डाला है हमने
भू तल को इस जग को
इसकी खोई सुन्दरता
हमको लौटानी होगी!!
(४) हर रोज़ नयी मंज़िल मिलती
रोज़ - रोज़ की भाग दौड़ में
सदा यही कोशिश रहती है,
किस - किस से आगे हो जाऊँ
तलब यही हर पल उठती है !
थी दृष्टि उन्हीं पर गड़ी रही
जो मुझसे आगे निकल गये
बस कैसे उन्हें पछाड़ सकूँ
दिन इसी जुगत में शेष हुए!
रुक कर इक पल पीछे देखा
थे कितने बन्धन टूट गये
मैं होड़ लगा भागता रहा
और दृश्य मनोरम छूट गये !
फिर सोचा सब का साथ रहे
थी नहीं मेरी क़िस्मत ऐसी
पर " अन्तर्मन " से विलग हुआ
प्रभु ! ये विडम्बना है कैसी ?
कितनी कोमल अभिलाषायें
मेरे अन्तर में सिसक रहीं
हैं कितनी मधुरिम इच्छायें
जो बन्द द्वार में सिमट गयीं!
अब रुको ठहरते हैं कुछ पल
हम किसी घनेरे वृक्ष तले
स्मृतियों के कुछ पृष्ठ पलट
मन को थोड़ा हर्षित कर लें!
कुछ गति भी कम करनी होगी
है कहाँ पहुँचने की जल्दी?
हर इक पल में ही 'जीवन' है
हर मोड़ नयी मंज़िल मिलती !!
(५)जीवन का लेखा चित्र
जीवन का लेखाचित्र खींच
मैं ठिठक गयी यह सोच तनिक
कि बैठ कभी कुछ छाँव देख
खुद से दो बातें थी करनी !
था वक़्त कहाँ तब पास मेरे
जब थम कर यह मन में कहती
कि कुछ पल रुक कर सुस्ता लो
है आगे मुश्किल राह बड़ी !
इस आशा से मन पुलकित था
ठहराव कभी पा जाऊँगी
न सोच सकी, बचपन यौवन की
गलियाँ फिर न पाऊँगी!
एक जाल था वह - रेशम का सा
जो रहा जकड़ता दिन प्रतिदिन
जिसमें जो भी एक बार फँसा
वह चक्रव्यूह में जाता घिर !
वह लोभ मोह माया ममता
कि अगणित गाँठें नित बंधती
था नहीं सहज रहना बच कर
फिर मैं पापी कैसे बचती
मन में मेरे यह भाव उठे
है सदा शीर्ष पर कौन टिका
ऊपर -नीचे जो लहर चले
वह ही लक्षण है जीवन का !
यह काल चक्र चलता रहता
हैं कितने ही आते जाते
चल देंगे हम सब हाथ झाड़
पूरी कर के अपनी साँसें!