सुषमा दिक्षित शुक्ला

गुरु ज्ञान का आहार दे


 


 प्रलय भी निर्माण भी,


हैं गोद जिसकी पल रहे ।


 


शिक्षक प्रणेता राष्ट्र का ,


कर्तव्य पर यदि दृढ़ रहे ।


 


यदि विमुख है गुरु धर्म से ,


तो घोर पातक पात्र है ।


 


पर व्यर्थ अपमानित हुआ,


 तो पतन की शुरुआत है ।


 


ज्यौं पिंड मिट्टी का उठा,


 बर्तन बना कुम्हार दे।


 


 त्यौं बीज रूपी शिष्य को,


 गुरु ज्ञान का आहार दे।


 


गोविंद से भी प्रथम क्यों ,


गुरु वन्दना का नियम है ।


 


गुरु दिखाता मार्ग प्रभु का ,


सब दूर करता भरम है ।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ .आशा सिंह सिकरवार अहमदाबाद गुजरात

 


 


डाॅ.आशासिंह सिकरवार 


 


जन्म: 1.5.76


जन्मस्थान : अहमदाबाद (गुजरात)


पति का नाम : विपिन सिंह राजावत 


मूल निवासी: जालौन ,उरई ( उत्तर-प्रदेश )


शिक्षा :एम.ए.एम.फिल. (हिन्दी साहित्य)


:पीएच.डी


(गुजरात यूनिवर्सिटी )


प्रकाशित तीन आलोचनात्मक पुस्तकें :


:1.समकालीन कविता 


के परिप्रेक्ष्य में चंद्रकांत


देवताले की कविताएँ (जवाहर प्रकाशन )


(2017)


2.उदयप्रकाश की


:कविता (2017)(जवाहर प्रकाशन )


:3.बारिश में भीगते 


बच्चे एवं आग कुछ 


नहीं बोलती (2017)(,जवाहर प्रकाशन )


4.उस औरत के बारे में, 2020 जगमग दीप ज्योति पब्लिकेशन राजस्थान 


अन्य लेखन -


कविता, कहानी, लघुकथा 


समीक्षा लेख शोध- पत्र, पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, आकाश वाणी से रचनाएँ प्रसारित ।


 


काव्य संकलन -


झरना निर्झर देवसुधा,गंगोत्री, मन की आवाज, गंगाजल, कवलनयन, कुंदनकलश, अनुसंधान, त्रिवेणी, कौशल्या, शुभप्रभात, कलमधारा, प्रथम कावेरी ,अलकनंदा, साँसों की सरगम ,गुलमोहर ,गंगोत्री इत्यादि काव्य संकलनों में कविताएँ शामिल ।


सम्मान एवं पुरस्कार :


1. भारतीय राष्ट्र रत्न गौरव पुरस्कार -पूणे 


2.किशोरकावरा पुरस्कार -अहमदाबाद 


3 अम्बाशंकर नागर पुरस्कार -अहमदाबाद 


4.महादेवी वर्मा सम्मान -उत्तराखंड


5.देवसुधा रत्न अलंकरण -उत्तराखंड


6 काव्य गौरव सम्मान -पंजाब 


7.अलकनंदा साहित्य सम्मान - लखनऊ 


8.महाकवि रामचरण हयारण ' मित्र 'सम्मान - जालंधर 


9.त्रिवेणी साहित्य सम्मान - दुर्ग ( छतीसगढ)


10.हिन्दी भाषा.काॅम सम्मान -मध्यप्रदेश 


11,नवीन कदम साहित्य प्रथम पुरस्कार छत्तीसगढ़ 


12.साहित्य दर्पण प्रथम पुरस्कार भरतपुर राजस्थान 


13 .राष्ट्रीय साहित्य सागर श्री इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान मध्यप्रदेश और देशभर से अनेकों सम्मान ।


सम्प्रति :स्वतंत्र लेखन 


सम्पर्क 


आदिनाथ नगर, ओढव, अहमदाबाद -382415 (गुजरात ) 


 


"शोकगीत " शीर्षक 


 


जीवन में जितनी ईज़ा है 


उतनी ही कठिन यात्राएं


एक सफेद घोड़ा मेरी तरफ दौड़ा आ रहा है 


 


उसके पदचाप से टूट रही है मेरी नींद 


जबकि सन्नाटे ने भर दिया है जिदंगी को अंधेरे से 


कि चीर रहा है समय रोशनी की फांके 


 


हमारे रोने को लिखा जा रहा है इतिहास में 


जबकि खोजने पर भी नहीं मिलेंगे दुख के अवशेष 


इस वक्त नहीं रखी जा रही है संग्रहालय में 


सहज कर आदमी की भूख 


एक दिन जीवा पर रखा रहेगा स्वाद 


विमूढ़ होकर भूख को कंधे पर लादे 


फिरते रहेंगे देर तलक 


आदमी की हथेली पर दाना रखा रहेगा 


संसार से बाहर होगें पक्षी 


कलरव को तरसती रहेगीं पीढियाँ 


 


नहीं होता दुख का निश्चित कोई काल 


 


हर काल में वह अपनी जगह बनाता है 


जब भी हुईं संक्रमित हवाएं 


बच गया मनुष्य जिंदगी की ओट में छिप कर 


 


फिर बच जाएंगे हम


कितने घटेंगे अपने भीतर 


और कितने बचेंगे हम


कहना बहुत कठिन है 


 


समय ने परिमाण नहीं बांधा


बंध गये हम 


हमारी अपनी कमजोरियों ने 


रख छोड़ा समय की पाटी पर सबक 


अत्याधिक सुख के भीतर जब सांस लेता है दुख 


धरती पर पसर जातीं हैं व्यथा की अतमाई जड़ें 


 


चाहे जितना लीप लो 


कि अंदरूनी तह में बहती है अदृश्य नदी 


समय ने संताप से भर दिया है 


 


अनबुझी प्यास को 


जीवन का रथ चल देगा एक दिन 


पीछे छोड़ते हुए चिह्न 


 


ये शोक गीत छूट जाएंगे 


कालान्तर में 


फिर से डूब जाएंगे हम


प्रार्थनाओं में 


हो जाएंगे समाधिस्थ धरती के प्रेम में 


 


डॉ .आशा सिंह सिकरवार 


अहमदाबाद गुजरात


 


 


कविता


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       " अपराजिता "


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जब महसूस करती हूं


अपनी पराजय


निपट अकेली


एकांती क्षण में


अश्रुधारा बह निकलती


जैसे अभी-अभी फूटी हो


शिखर से भागीरथी ।


 


जो चाहती है


कल - कल बहना धरती पर


नही दिखता कोई


संपूर्ण भूभाग पर


खड़ी निर्झर पेड़ सी ।


 


सूरज ही आता है मुझसे मिलने


तब वही सोखता है


मेरे भीगे दामन को 


जिसे दलित कहकर


धकेल दिया गया बाहर ।


 


तपने लगता है भूखंड


रसातल में चले जाते हैं सारे आंसू


बैठकर घने वृक्ष के नीचे


सोचती हूं


कैसे ज़रा बनकर झुका है


देखती हूं


उसके नि: स्वार्थ भाव को ।


 


वह नही पूछता राहगीर से


क्या है मज़हब ?


कौन जात हो ?


नही उसके चित में


कोई लिंगभेद ।


 


वह सबकी भूख को


देखता है एक नज़र से


सभी के लिए


मीठे फल 


ठंडी छांह ।


 


कि लौट आती हूं अपने में


फिर से दौड़ने लगता है लहू


मेरी रगो में


जीने के जुनून के साथ


अभी और जीना है मुझे ।


 


मैं अपराजिता हूं


न हार सकती


नही रूक सकती 


स्वयं से भी लड़ना है


अनेकों मोर्चों पर


फिर से खुद को तैयार कर रही हूं


आने वाली सैकड़ों लड़ाईयों के लिए ।


 


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डॉ. आशा सिंह सिकरवार


अहमदाबाद / गुजरात


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" यंत्रणा "


 


 


उसका दमन, तिरस्कार 


उसकी यंत्रणा 


उतनी ही प्राचीन है 


जितना कि पारिवारिक जीवन का इतिहास 


असंगत और मन्द प्रक्रिया में 


उसने हिंसा को हिंसा की दृष्टि से 


देखा ही नहीं कभी 


वह स्वयं भी हिंसा से इंकार करती है 


धार्मिक मूल्य और सामाजिक दृष्टि का बोझ 


उसके कंधे पर रख दिया गया 


'आक्रमण ', 'बल' , 'उत्पीड़न 'के 


चक्रव्यूह में फँसती चली गई 


उसने सहे आघात पे आघात 


धकेल दिया गया 


उसकी भावनाओं को भीतर 


ज़बरन उससे छीन ली गई 


उसकी स्वेच्छा 


वह पूछती है कौन हैं वे अपराधी 


अपराधियों को अपराध करने की प्रेरणा 


कहाँ से मिलती है ?


इन्हें रोकने के उपाय किसके वश में हैं ?



रविंदर कुमार शर्मा घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र

"मैं एक पुल"


 


सुनो,मैं हूँ पुल


दरिया, खड्डों,नालों पर पड़ा हूँ


अपना सीना तान कर खड़ा हूँ


आजके इंसान की तरह तोड़ने का नहीं


जोड़ने का काम करता हूँ


सर्दी गर्मी बरसात तूफान में


मैं अडिग रहता हूँ


मेरे ऊपर से हर दिन 


सब तरह के लोग गुजरते हैं


मेरे मन में कोई दुर्भावना नहीं


कोई बंदिश नहीं


बिना किसी भेदभाव के


मैं सभी को पार पहुंचाता हूँ


खुद वहीं खड़ा रह जाता हूँ


क्योंकि मैं एक पुल हूँ


भगवान राम के ज़माने से सेतु के रूप में


कहीं न कहीं काम आ रहा हूँ


सारी सृष्टि को रास्ता दिखा रहा हूँ


जिस किसी को भी पार जाना होता है


मेरे दिल के ऊपर से धड़ाधड़ गुज़र जाता है


मेरी सिसकियों की आवाज कोई नहीं सुनता


दब जाती है गाड़ियों शोर में


क्योंकि मैं एक पुल हूँ


मुझे केवल इस्तेमाल किया जाता है


जब मैं जवान होता हूँ


सब याद करते है मुझे


बूढ़ा होने पर किनारे कर दिया जाता हूँ


मेरा ज़र्ज़र शरीर अब काम का नहीं रहा


कोई नहीं पूछ रहा मुझे


क्योंकि मैं एक पुल हूँ


मैंने जातपात ,धर्म,मज़हब कुछ नही देखा


सबमें एक ही रूप देखा


फिर ए इंसान तू क्यों आपस में लड़ा रहा है


हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई करवा रहा है


मेरी तरह जोड़ना सीख ले


यही काम आएगा


वरना लड़ाते लड़ाते एक दिन इस लड़ाई में


सब खत्म हो जाएगा।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार आभा गुप्ता बिलासपुर छत्तीसगढ़

श्रीमती आभा गुप्ता 


*जन्म* : 25 जून 1964   


*शिक्षा*: बी.एस.सी. , एम.ए. ( हिन्दी साहित्य ) बी.एड. ( हिन्दी साहित्य ) 


*उल्लेखनीय*: 


श्रीमद् भागवत कथा का सरल शब्दों में लेखन एवं प्रवचन । 


*सहभागिता*: राजकीय , राष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता 


*सम्मान*:


1 ) विकास संस्कृति महोत्सव द्वारा आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान 8 नवम्बर 2009  


 2 ) अखिल भारतीय विकलांग चेतना परिषद बिलासपुर की तृतीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी 5 दिसम्बर 2010 में विकलांग विमर्श राष्ट्रीय सम्मान । 


3 ) प्रताप महाविद्यालय अमलनेर ( महाराष्ट्र ) मैं आयोजित त्रिदिवसीय अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में विकलांग विमर्श पर अंतराष्ट्रीय सम्मान 19 जुलाई 2014 


*सम्पर्क*:


एच -2 / 121 नर्मदा नगर , बिलासपुर ( छ.ग. ) 


मो . नं . - 7828070332 , 9131859881


पिन -495001


Email id: abhagupta1964@gmail.com


 


कविता -1


*बेटी (भ्रूण हत्या )*


1 . माॅ की आॅखो की नूर है बेटी ,


    जहाॅ की सबसे खूबसूरत हूर है बेटी,


रिश्तो को निभाने में मशहूर है बेटी,


*फिर क्यों*-माॅ की कोख से दूर है बेटी।


2 *_माता-पिता के लिए संदेश_*


 बनते है हम अति- आधुनिक और महान।


नही कोई फर्क बेटा-बेटी मे यह देते ज्ञान ,


बारी जब अपनी आती है, तो बन जाते अन्जान ।


इस कारण जन्म से पहले, बेटियाॅ पहुंच जाती श्मशान ।


3. *_चिकित्सक के लिए_* 


अजन्में बालिका शिशु के, पाप से आत्मा को न मारो।


नारी कोख ने तुम्हे रचा है, इस बात को विचारो ।


ब॓द करो यह अत्याचार, मानवता को स्वीकारो ।


प्रायश्चित करो और अब, ईश्वर को पुकारो ।


4 *_समाज के लिए -_* 


बेटी अब नही होती है अबला नारी ।


आज नही है वह लाचार और बेचारी ।


कदम से कदम मिला कर पुरुषो के कर रही भागीदारी ।


तभी तो बेटी के कंधो के सहारे हम करते है बुढ़ापे की तैयारी ।


5. *_भाग्य_* --


  धन्य है वह मां-बाप, जिसने बेटी धन है पाया ।


बेटे के गुरूर ने आज, बुढ़ापे मे है ठुकराया ।


चल दिया बहु लेकर नही, कोई अपना पराया ।


मै हुँ, तुम्हारे साथ यह बेटी ने दिलासा दिलाया ।


6. _*संदेश*_ 


जीवन पर्यन्त चलती रहेगी यह कहानी।


कुल तारक आज भी बेटा ही है निशानी।


परवाह नही कल की कट जायें जिंदगानी ।


मरने के बाद तो काया भी हो जाती है बेगानी ।


 


कविता -2


*झूठ*


 


मानव की उदंड अभिलाषा , 


यही है झूठ की परिभाषा । 


झूठ है इक बहता पानी , 


रूकता नहीं पल करता मनमानी। 


असत्य जीवन का है लाइलाज रोग, 


जिसे मनुष्य चुपचाप रहा है भोग। 


यह झूठ है , कहती रह जाती आत्मा, 


झूठी शान कर देता उसका खात्मा। 


अरे ! तू झूठ बोलकर क्या पायेगा, 


अपनी ही नजरों में गिरता जायेगा। 


इंसान किस तरह झूठ बोलता है , 


हर हाल में अपनी ही पोल खोलता है। 


कभी बड़ाई के लिए झूठ


कभी लड़ाई के लिए झूठ। 


कभी बात की सफाई के लिए झूठ 


कभी अधिक कमाई के लिए झूठ।


कभी सम्मान पाने के लिए झूठ


कभी अपमान से बचने के लिए झूठ। 


कभी रोटी के लिए झूठ 


कभी बेटी के लिए झूठ।


गिनती नहीं इनकी दो - चार, 


इनके तो है अनेक प्रकार ।


यह करता है बिन लाठी प्रहार, 


इंसा ,मन से हो जाता जार जार । 


इसका नहीं है कोई अंत ,


चलता रहेगा यह जीवन पर्यन्त । 


अभी भी वक्त है मान जा मेरे भाई , 


झूठ से मत कर जीवन की सफाई । 


सच का प्रकाश जीवन में भरने दो , 


झूठ को आंखो से आंसू बनकर झरने दो । 


होगी जब शुद्ध तेरी आत्मा ,


मिल जायेंगे तुझे भी परमात्मा ।


 


कविता -3


*बेवफा समय*


समय तू कितनी बेवफा है,


स्नेह के रिश्तों में भी बाकी नहीं अब वफा है । 


एक ही कोख से जन्में भाई - बहन ही,


आज सबसे अधिक आपस में खफा है।


समय तू कितनी बेवफा है, स्नेह के रिश्तों में भी बाकी नहीं अब वफा है । निःस्वार्थ प्यार और अपनेपन से घर - आंगन रहता था गुलजार,


अब मैं और मेरी दुनियाँ में ही सिमट कर रह गया है, सारा संसार । 


दर्द मन की गहराइयों में, दब कर हो रहे हैं जार - जार ,


क्योंकि ! सुनने के लिए वक्त नहीं , 


बांटे किससे कोई भी नहीं है सच्चा किरदार ।


समय तू - कितनी बेवफा है ,


स्नेह के रिश्तों में भी बाकी नही अब वफ़ा है। 


बूढ़े माँ - बाप आधुनिक बच्चों की भावनाओं के हो गये है गुलाम,


इस कुर्बानी को भूल पल भर भी कोई नहीं मानता उनका एहसान,


समय के साथ एडजस्ट करना पड़ेगा , तभी तक होगा तुम्हारा मान,


वरना , कर लो अपना इंतजाम और बांध लो अपना सामान । 


समय तू कितनी बेवफा है, स्नेह के रिश्तों में भी बाकी नहीं अब वफा है । गलतफहमी और ईगो ही इंसानियत की है, दुश्मन बड़े घरों में रहने वाले आधुनिक लोगों के छोटे हो गये हैं मन । 


अपनों से ही मिलता है दर्द , गैरों ने तो फिर भी सहलाया है दामन,


कसूर है , वक्त का कि , माँ - बाप से भी हो जाती है ,अनबन ।


समय तू कितनी बेवफा है, स्नेह के रिश्तों में भी बाकी नहीं अब वफा है ।


बिखरते रिश्तों में लग रहे हैं , सिर्फ इल्जाम 


मान ले अपनी गल्ती इतना नहीं है , कोई महान ताली दोनों हाथ से बजती है , मेरे भाई ,


इससे नहीं कोई अन्जान । फिर भी उलझे रिश्ते, मुश्किल से है सुलझते 


सब सिर्फ देते हैं ज्ञान । समय तू कितनी बेवफा है,


 स्नेह के रिश्तों में भी बाकी नहीं अब वफा है । चार दिन की जिंदगी फिर किस बात का इतना है गुरूर,


अकेले आये हैं , अकेले हैं , और अकेले ही जाना है सबसे दूर । 


समस्या इतनी विकराल क्यों हो जाती है ,


कि, हो जाते हैं हम मजबूर ,


मिटा लो सारे गिले - शिकवे ,


कहीं दर्द न बन जायें नासूर । 


समय तू कितनी बेवफा है, स्नेह के रिश्तों में भी बाकी नहीं अब वफा है ।


 


 


कविता -4


*आज की शूर्पणखा*


1.नाक उसकी थी कटी, नकटे हम हो गए ।


लाज उसने थी गिरायी,


निर्लज्ज हम बन गए ।


कटी नाक और फ टी चोली,


आज की शूर्पणखा खेलने चली है होली ।


2 .त्रेतायुग की शुर्पणखा को हम कहते थे बेशर्म,


आज की शूर्पणखाओ को लोग कहते है जानेमन।


कटी नाक और फटी चोली,


आज की शूर्पणखा खेलने


चली है होली।


3. रावण राज के लिए 


वह बन गयी थी अभिशाप,


हमारे समाज के लिए 


आज है वह सबसे बड़ा पाप ।


कटी नाक और फटी चोली,


आज की शूर्पणखा खेलने


चली है होली।


4.पर्दे पर नाचती नंगी महिलाएं,


नारी जाति को कलंकित करती अदाएं ,


नव पीढ़ी के जीवन में भरती वासनाएं,


हर युग मे रहेंगी ये नकटी शूर्पणखाये,


कटी नाक और फटी चोली,


आज की शूर्पणखा खेलने


चली है होली।


5.भारतीयता को भूल संस्कारो को कर सलाम,


पाश्चात्य फेशेंन की बन गयी है गुलाम,


लज्जा से सजी पूजा सी होती थी पवित्र,


आज नंगापन बन गया है उसका चरित्र।


कटी नाक और फटी चोली,


आज की शूर्पणखा खेलने


चली है होली।


6.दुख होता है आज देखकर उनका यह रूप,


समाज को बनाने वाली क्यों हो गयी इतनी कुरूप।


कटी नाक और फटी चोली,


आज की शूर्पणखा खेलने


चली है होली।


 


 


 


कविता -5


_*"CORONA VIRUS का कहर"*_


 


भागती हुई ज़िन्दगी थम गयी;


समय के हाथों बेबस हो गयी;


किसने सोच था,यह दिन भी आएगा;


एक छोटे से *Virus* से विश्व तबाह हो जाएगा।


 


काल बनकर *Corona* सबको निगल रही;


समृद्ध देशों की शान भी मिट्टी में मिल गयी;


प्रलय के इस मंज़र में दुनिया थम गयी;


दहशत आज दिलो में घर कर गयी।


 


घर के अंदर आज कैद हो कर रह गयी है जिंदगी;


दिल से कर लो अब, तुम भी खुदा की बंदगी;


*Lockdown* के समय में न फैलाओ फ़िज़ूल दरिंदगी;


समय नही है प्यारो अब साफ कर लो दिलो से गंदगी।


 


नमन उनको जो हमे बचाने चल पड़े;


डॉक्टर , पुलिस और सफाई कर्मचारी *COVID-19* से लड़ पड़े;


सलाह मोदी जी की मान कर, हम घर पर ही रहे अड़े;


मुसीबत की इस घड़ी मे हम सब एक साथ रहे खड़े।


 


तुझे भी हरा कर हम हो जाएंगे मस्त ;


बस आप अपने हौसलो को न होने दो पस्त; 


घबराकर सब बिल्कुल भी डरो ना; 


दम नही कि, हमारा बिगाड़े कुछ *Corona*।


 


 *ABHA GUPTA*


कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

आत्महत्याः उलझन या सुलझन 


 


दिनांकः १८.०६.२०१८


दिवसः गुरुवार 


विधाः गद्य 


 


"आत्महत्या उलझन या सुलझन" पटल द्वारा प्रदत्त आज का विषय अत्यन्त ही गंभीर , चिन्तनीय और अफ़सोसजनक है। 


आत्महत्या कायरों ,बुजदिलों, अकर्मण्य पलायनवादी, अधीरता , भयभीत मानसिकता और जीवन के संघर्षपथ से विरमित होने कि एक कायराना हटकण्डा है। संघर्ष,बाधा, कठिनाईयाँ , अवरोध , दुर्दीन व दुर्गम पथ -ये सब यायावर जीवन पथ के विविध सोपान हैं जिससे बुद्धि ,विवेक, सहिष्णुता , सत्य, अहिंसा, धैर्य,साहस और आत्मबल आदि संसाधनों से आरोहित किया जाता है। अगर सफलता इतनी आसानी से मिल जाती , तो फिर असफलता और उपर्युक्त बाधक सोपानों की कल्पना ही नहीं होती। याद रखनी चाहिए कि प्रारम्भ में झूठ, फसाद, छल ,कपट, ईर्ष्या, द्वेष आदि की ही जीत होती है। उनका प्रारम्भिक जीवन काल उन्नतिपरक, आनंददायक, विजयपथ पर अग्रसर, उन्मादक अहंकार से चूर होता है, परन्तु उनकी दुर्नीति, असत्य, प्रपंची क्षणिक सुखद पापों का मायाजाल का अंत अत्यन्त ही समूल विनाशक,महत् आपदा सह अवसादपूर्ण होता है। सत्य,.न्याय, धर्म , सदाचार, नैतिकता, मानवता की विजय संघर्षों के विविध कँटीले उबर खाबर दुर्गम पगदण्डियों के माध्यम से ही होकर होती है। हजारों लाखों वर्षों का इतिहास हमारे सामने प्रमाण रूप में विद्यमान है। कोई भी ऐसा,भूत,वर्तमान में बता दें जिनके जीवन में केवल सुख , सम्पदा ,यश,  


सम्मान ही मिलें हों। उनके जीवन में कभी दुःख ,शोक, पीड़ा, दीनता, अपमान, संघर्ष न मिला हो। उलझनें तो जीवन में सफलता का मार्गदर्शक है। मनुष्य कठिनाईयों,बाधाओं में ही सदैव सीखता है, समझता है, अपने रिश्तों , अनुबन्धों, मित्रों की पहचान करता है। ये आँधी,तूफ़ान, बाढ़- विभीषिका, भूकम्पन, भूस्खलन, ज्वालामुखी, विस्फोट, चक्रवात, भीषण गर्मी ,बरसात, जानलेवा कंपायमान ठंड और कोराना जैसी महामारी आदि प्राकृतिक प्रकोप  


आदि कठिनाईयाँ जीवन संघर्ष ही तो हैं जिसमें मनुष्य अपने आपको धीरज,साहस, बुद्धि बल, आत्मविश्वास और जीने की संकल्पित ध्येय को मन में रखकर मुसीबतों से बाहर निकलता है। जिनमें उपर्युक्त गुण का अभाव होता है ,वे उन्हें उलझन समझ हतोत्साहित हो आत्महत्या कर लेते हैं,या स्वयं ही कालकवलित हो जाते हैं।


मैं अपनी बात करता हूँ। बहुत गरीब पढ़े लिखे घर से आता हूँ। मेरे जीवन का उद्देश्य ही आइ.ए.एस बनना था। विज्ञान का मेधावी पटना साइंस कॉलेज का छात्र था। उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कला संकाय अर्थात् पटना कॉलेज में नामांकन ले इतिहास का छात्र बन गया। दो दो बार संघीय लोक सेवा आयोग की प्रारम्भिक और मेन (मुख्यलिखित) परीक्षा में सफलता प्राप्त की। साक्षात्कार में सफलता नहीं मिली। मैंने सोचा कि मेरी जिंदगी तो बर्बाद हो गई , सब कुछ खत्म हो गया, बड़े यत्न ,अहर्निश परिश्रम संघर्षों को सहते हुए , कभी भोजन किया कभी नहीं किया - ऐसी समस्याओं और उलझनों से लबालब मैंने दिनरात चार बर्षों तक लगा रहा।सोचा ,आत्महत्या कर लूँ। मेरे जीवन का कोई औचित्य नहीं। मैं किसी को मुँह दिखाने का काबिल नहीं। 


उस जमाने में आज की तकनीकी शिक्षा ,सोशल मीडिया, कम्प्यूटर मोबाईल आदि कुछ भी नहीं थे। वार्तालाप का माध्यम स्वतः मिलन या पोस्टकार्ड,अन्तर्देशीय लिफ़ाफ़ा या तार ही होते थे। ये सब अस्सी से नब्बे की दशक की बातें हैं। 


पटना वि.वि.के विभिन्न विभागाध्यक्षों को इस बात की खब़र मिली। उन सबने मुझे बुलाया, डाँटा, समझाया। केवल यू पी एस सी ही जीवन नहीं है। दुनिया में हजारों दरवाज़े हैं सफलता के। तुम मेधावी टॉपर विद्यार्थी हो, जे.एफ.आर. कर चुके हो, पी.एच.डी.करो। पागलपन छोड़ो। महीने भर वे समझाते रहे। अंततोगत्वा मैं पुनः अध्ययन और पी एच. डी हेतु तैयार हुआ। पैसों ,पैरबी घूस चापलूसी ,के मायाजाल में महाविद्यालय या वि।विद्यालय शिक्षक भी न बन सका। जीवन की दर्दनाक थपेड़ों में अपनी सारी अभिलाषा, सुकून, व वज़ूद ही लूट गया।फिर भी आत्महत्या नहींं की ।जो मिला उसी को विधातव्य समझ अपमानित होता हुआ भी जीवन के पथ पर अनवरत बढ़ रहा हूँ। ये अवदशा मेरे जैसे और मुझसे लाखों करोड़ों गुणा अधिक सारस्वत मेधावियों के जीवन में ऐसी घटनाएँ सदा से घटती आ रही हैं। 


आज किसान, वैज्ञानिक, मज़दूर, छात्र छात्राएँ ,माता,पिता,बहन, भाई ,प्राध्यापक,वकील, आइ ए एस ,आइ पी एस ,एलाइड , अभिनेता ,नेता सब थोड़ी सी उलझनों ,असफलता या अपमान को बर्दाश्त नहीं करते और फाँसी लगाकर ,नदी में कूदकर , रेल पटरी पर लेटकर, ज़हर खाकर और न जाने कितने दुस्साहसी तरकीबों से आत्महत्या के जघन्य कृत्य को कर अपने को स्वनामधन्य करने का कुकृत्य करते आ रहे हैं। आपका यह जीवन केवल आपका नहीं है, बल्कि आप पर परिवाल ,समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व मानवता का अधिकार है। आपको अपने साथ दूसरों के लिए ,समाज और देश के लिए जीना है। आपको मानवीय कर्तव्यों के निर्वहणार्थ जीना है। परन्तु दुःख और शर्म की बात है कि ये स्वार्थी लोग केवल अपने हितपूरणार्थ जीवन जीते हैं। इच्छा पूरी नहीं हुई, बाधाएँ ,आयी, कठिनाईयों और झंझावातों से गुज़रना क्या पड़ा, माँ- बाप, गुरु,मित्र,अधिकारी पति,पत्नी ,प्रेमी,प्रेमिका आदि कोई भी अनचाहे कुछ भी कहा, या असफल हुए, या बाधाएँ आयी ,सहनशक्ति, धैर्य, आत्मबल, और साहस के अभाव में भगौड़ा डरपोक बन आत्महत्या जैसी घिनौनी हरकत कर बैठते हैं। 


मैं इस तरह के कुकृत्य को उलझन नहीं मानता और न ही सुलझन मानता हूँ,वरन् एक दुर्बल, कमज़ोर , कायरता, और पलायनवादी मानता हूँ। संघर्ष ही जीवन समझो और वही सफलता की मूल है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभूत विचार है। आपकी सहमति असहमति से मेरी सोच में कोई परिवर्तन नहीं आ सकता। 


 


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" की✍️ कलम से👉


नई दिल्ली


कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

दिनांकः ०१.०७.२०२०


दिवसः बुधवार


विधाः गीत


विषयः स्वदेशी


शीर्षकः स्वदेशी हृदयस्थल भरा हूँ


 


स्वदेशी अन्तस्थली मेरी,


मधुरिम भावना से भरा हूँ।


स्वाभिमान नित धरती मेरी,


नव निर्माण मानस भरा हूँ। 


 


माँ भारती है शान मेरी,


बलिदान निज मन में भरा हूँ।


नित सत्काम पथ दुर्गम पथी,


परहित भाव मानस भरा हूँ। 


 


धीरज साहसी रथ सारथी, 


विश्वास शक्ति से नित भरा हूँ।


नित आत्मबल हो स्वावलम्बी,


अरमान को मन में भरा हूँ।   


 


सुखद शान्ति जग लिप्सा मेरी,


सद्भाव प्रेम से मन भरा हूँ।


स्व सभ्यता संस्कृति मेरी,


गौरव भावना नित भरा हूँ। 


 


स्वयं शौर्य बल पहचान मेरी,


दुश्मन दमन पौरुष भरा हूँ,


रहा विश्वगुरु विज्ञान शिल्पी,


नित न्याय निर्णय पथ बढ़ा हूँ। 


 


ध्वज तिरंगा सम्मान मेरी,


सीमान्त रक्षक नित बना हूँ।


नित सुष्मित प्रकृति हो मानवी,


जयहिन्द भावों से भरा हूँ। 


 


सद्भावन चारु चित्तचंचरी,


स्व संविधान पथ नित बढ़ा हूँ। 


खुशियाँ वतन मुस्कान मेरी,


स्वदेशी हृदयस्थल भरा हूँ।


 


कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


 रचनाः मौलिक (स्वरचित)


नई दिल्ली


कालिका प्रसाद सेमवाल

*हे मां हंस वाहिनी*


*****************


अज्ञान को तुम दूर कर दो


मां अपनी करुणा से भर दो,


बिन तुम्हारे जड़ है जग सारा


हे मां हंस वाहिनी।


 


हमें शक्ति दे दो मां


हमें भक्ति दे दो मां,


हे दिव्य ज्योति प्रकाशनी


हे मां हंस वाहिनी।


 


भव सागर तारिणी हो मां


मनुज कंठ वाहिनी,


दया की भण्डार हो मां


हे मां हंस वाहिनी।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सुषमा दिक्षित शुक्ला

श्रीमती सुषमा दीक्षित शुक्ला


पिता – स्व० डॉ० देव व्रत दीक्षित ( स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवम राष्ट्रीय कवि )


 


पति– स्व० श्री अनिल शुक्ल ( प्रधान संपादक राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचर पत्र )


 


माता का नाम


श्रीमती प्रभावती दीक्षित


सन्तान कुलदीप शुक्ल ,दुर्गमा शुक्ला


 


भाई बहन ,श्रीमती उषा ,कु आशा ,श्रीमती रश्मि ,श्री मृत्युंजय ,श्री शत्रुंजय 


 


प्रकाशित पुस्तके ,मेरे बापू ,तुम हो गुरूर मेरे ,जीवन धारा


प्रकाशनाधीन कई पुस्तके हैं


शिक्षा _Msc , B ed, LLB, btc


 


साहित्य सृजन


विधा लेख, कविता ,गजल, संस्मर्ण ,कहानी ,गीत क्षणिका रूबाई निबंध बाल कथा बाल कविता लेख आलेख वृतान्त


आदि ।


प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न समाचारपत्रों पत्रिकाओं ,ऐप्स मे पोर्टल मे निरन्तर गति से कहानी ,लेख ,काव्य गद्य ,पद्य का नियमित प्रकाशन हो रहा है।


 


 साहित्य के क्षेत्र मे कई पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।


अटल रत्न सम्मान ,जनचेतना अक्षर सम्मान ,विश्व जन चेतना प्रतिष्ठा सम्मान ,हिन्दी साहित्य संगम सम्मान,आदि


 


पद – शाषकीय शिक्षिका ( बेसिक शिक्षा परिषद )


 


निवास – E 34 23 , राजाजीपुरम, लखनऊ,उ०प्र० – 226017


 


E-mail– shukla1597@gmail.com


 


कविता 1


तुम्हारे न होने के बाद भी,


 तुम्हारे होने का अहसास।


 शायद यही है वह अंतर्चेतना,


 जिसने मेरे भौतिक आकार को,


 अब तक धरती से बांधे रखा है।


 देह का मरना कहाँ मरना ,


भाव का अवसान ही तो मृत्यु है।


 शायद तुमको अब तक याद होगा, 


बहुत सी ख्वाहिशों के साथ,


 जी रही थी मगर अब चल पड़ी।


 जिस राह वह रास्ता अनंत है,


 कभी-कभी अपनी नादानियों पर,


 बहुत हंस लेने को दिल करता है,


 तो कभी सांस लेने को भी नहीं ।


 सच तो यह है कि हर फूल का,


 दिल भी तो छलनी छलनी है ।


अंत मेरे हाथ लगना है बस ,


वो हवा में लिखी अनकही बातें,


वो साथ साथ देखें अधूरे ख्वाब।


 अब कोई आहट कोई आवाज,


 कोई पुकार नहीं तुम्हारी !


अब किसी उम्मीद से नहीं देखती,


  घर के दरवाजे को मगर अब ,


खुद के भीतर ही तुम को पा लेना,


 बस यही जीत है मेरी ,


बस यही जीत है मेरी।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


 


 


कविता-2


सुनु आया मधुमास सखि,


 लगा हृदय बिच बाण ।


देहीं तो सखि है यहाँ ,


 प्रियतम ढिंग है प्राण ।


किहिके हित संवरूं सखी,


 केहि हित करूं सिंगार।


 बाट निहारु रात दिन ,


क्यूँ सुनते नाहि पुकार।


 ऋतु बासन्ती सुरमई ,


पिया मिलन का दौर ।


 पियरी सरसों खेत में ,


बगियन में है बौर ।


वह यह कैसो मधुमास सखि,


जियरा चैन ना पाय ।


नैनन से आंसू झरत ,


उर बहुतहि अकुलाय ।


 पिय कबहूँ तो आयंगे ,


वापस घर की राह ।


बाट निहारूँ दिवस निसि ,


उर धरि उनकी चाह।


 सबके प्रियतम संग हैं ,


बस मोरे हैं परदेस।


 जियरा तड़पत रात दिन ,


याद नहीं कछु शेष ।


मन मेरो पिय सँग है,


 ना भावे कोई और ।


वह दिन सखी कब आयगो ,


 जब पिय सिर साजे मौर ।


 रात दिवस नित रटत हूँ,


 मैं उन्ही को नाम ।


उनके बिन ना चैन उर,


ना मन को आराम ।


डर लागत है सुनु सखी ,


वह भूले तो नाह ।


 हम ही उनकी प्रेयसी ,


हम ही उनकी चाह।


ऋतु बासंती सुनु ठहर ,


जब लौं पिया ना आय ।


तू ही सखि बन जा मेरी,


 प्रियतम दे मिलवाय ।


 


 सुषमा दिक्षित शुक्ला


 


कविता-3


फिर ढलेगी रात काली सुकूँ से होगी गुज़र,,,


 


 


फिर अमन की शाम होगी ,


अमन की होगी सहर ।


 


फिर चमन गुलज़ार होंगे ,


खुशबुओं से तर ब तर ।


 


फिर वतन आबाद होगा,


भाग जायेगा कहर ।


 


अमन होगा चैन होगा ,


वतन में आठों पहर ।


 


गीत गाती हरित फसलें ,


फिर मिलेंगी खेत पर।


 


तितलियाँ फिर नृत्य करती,


गुलसितां पेशे नज़र ।


 


बालकों की टोलियां ,


फिर से मिलेंगी खेल पर।


 


फिर लगेंगे क्लास सारे ,


फिर न होगा जेल घर ।


 


फिर ढलेगी रात काली ,


सुकूँ से होगी गुज़र ।


 


चमन जैसा खिल उठेगा ,


वतन का साजो शज़र । 


 


फिर अमन की शाम होगी ,


अमन की होगी सहर ।


 


फिर चमन गुलजार होंगे ,


खुशबुओं से तर ब तर ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


 


कविता-4


विषय पथ 


विधा छंद मुक्त कविता 


 


मैं श्रमिक हूँ हाँ मैं श्रमिक हूँ ।


समय का वह प्रबल मंजर ,


 


भेद कर लौटा पथिक हूँ ।


मैं श्रमिक हूँ हाँ मैं श्रमिक हूँ।


 


कर्म ही है धर्म मेरा 


कर्म पथ का मैं पथिक हूँ ।


 


अग्नि पथ पर नित्य चलना ,


ही श्रमिक का धर्म है ।


 


कंटको के घाव सहना ,


ही श्रमिक का मर्म है ।


 


वक्त ने करवट बदल दी,


आज अपने दर चला हूँ।


 


भुखमरी के दंश से लड़,


आज वापस घर चला हूँ ।


 


मैं कर्म से डरता नही ,


खोद धरती जल निकालूँ।


 


शहर के तज कारखाने ,


गांव जा फिर हल निकालूँ ।


 


कर्म ही मम धर्म है ,


कर्म पथ का मैं पथिक हूँ।


 


समय का वह प्रबल मंजर,


भेद कर लौटा पथिक हूँ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


 


कविता-5


सेवा इंसान को बनाती महान


 


जग में सेवा करने वाले, 


ही महान बन पाए हैं ।


मानो सेवा की खातिर ही ,


वह धरती पर आये हैं ।


मानव सेवा से बढकर ,


तो कोई कर्म नहीं है ।


मानवता से बढ़कर जग में, 


कोई धर्म नहीं है ।


सेवा का है धर्म निराला ,


करो वतन की तुम सेवा ।


धरती मां की सेवा कर लो ,


करो गगन की तुम सेवा ।


 कितने कंटक राह मिलें पर,


 सेवा से घबराना ना।


 यही कर्म है यही धर्म है ,


पीछे तुम हट जाना ना ।


मात पिता औ गुरु की सेवा,


 सब संताप मिटाती है ।


सेवा बिन सारी पूजा भी ,


निष्फल ही हो जाती है ।


युगों युगों से गौ सेवा का ,


सुंदर नियम विधान रहा।


 देव ,मनुज अरु मुनियों ने भी, 


गौ सेवा को धर्म कहा ।


वृक्षों की सेवा से लेकर ,


 पशुओं तक की सेवा को।


 धर्म समझकर मीत निभाओ,


 पा जाओगे मेवा को ।


सास ससुर और पति की सेवा,


सती सावित्री ने जब की।


काल देव भी कांप उठे तब ,


बदला विधि का नियम तभी ।


लक्ष्मण की सेवा से सीखो ,


सीखो श्रवण कुमार से ।


एकलव्य की सी गुरु सेवा ,


सीखो कुछ संसार से ।


 



 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सीमा गर्ग मंजरी

 सीमा गर्ग मंजरी 


जन्मतिथि ~ 11जुलाई


101राजनकुँज रूडकीरोड मेरठ शहरसुदीपा 250001


मूल निवासी ~ उत्तर प्रदेश 


8058229442


जी मेल ~ Seemagarg1107@gmail.com 


विधा ~ कविता, कहानी, लघुकथा, संस्मरण, आलेख,समीक्षा आदि लिखती हूँ | 


 


साहित्य में उपलब्धियाँ ~


मेरा एक एकल काव्य संग्रह ~


भाव मंजरी प्रकाशित 


बाइस सांझा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं ~


छ काव्य संग्रह प्रकाशाधीन हैं 


मेरा एक लघुकथा एकल संग्रह कथा मंजरी मातृभाषा संस्थान के संस्मय प्रकाशन द्वारा प्रकाशाधीन है |


एक कथादीप सांझा संग्रह है |


एक वर्ल्ड रिकॉर्ड लघुकथा सांझा संग्रह है ।


 अभी बाल काव्य संग्रह के लिए परिश्रमरत हूँ ।


अनेकानेक साहित्यिक मंचों द्वारा सर्वश्रेष्ठ रचना के लिए अनेकानेक बार सम्मानित किया जा चुका है |


विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं में बेव पोर्टल, गूगल, यू टयूब पर अनेकानेक रचनायें निरन्तर प्रकाशित होती रहती हैं |  


करीब दो सौ रचनाओं का शानदार प्रकाशन पत्र पत्रिकाओं में 


करीब दो सौ रचनाओं का बेहतरीन आनलाइन प्रकाशन 


अभी फिलहाल काव्य मंजरी समूह के चतुर्थ स्थापना दिवस पर आयोजित फुलवारी कार्यक्रम में मुझे सर्वश्रेष्ठ रचनाकार सम्मान एवं


साहित्य सेवी सम्मान प्राप्त हुआ है | 


नवकिरण साहित्य साधना मंच द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ रचनाकार का सम्मान प्राप्त हुआ है ।


फिलहाल बदलाव मंच द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में उत्कृष्ट, रचनाकार सम्मान प्राप्त हुआ है ।


आगमन साहित्यक समूह की आजीवन सदस्या हूँ |


 


आदरणीय गुरूदेव श्री श्री रविशंकर जी द्वारा आर्ट आँफ लिंविंग के टी, टी पी कोर्स के द्वारा बच्चों को संस्कार और संस्कृति की शिक्षा देने के लिए प्रयासरत हूँ | 


धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में भी अपने सहयोगी मण्डल के साथ भाग लेती हूँ |


 


निवेदिका ~ सीमा गर्ग मंजरी 


 


कविताये 1


मां शारदे को नमन 


जल ही जीवन है 


 


सृष्टि में जल ही जीवन है,


जल से ही बढता जीवन है ।


कुएं,तडाग,नद,नदियाँ,झरने ,


बरसा जल से लगेंगे भरने।


 


जल की हर एक बूँद बचाओ,


जल संरक्षण से प्रकृति सजाओ।


तृषित मानव जीवन बेकल है ,


जल पीयूष सम सबको समझाओ ।


 


गहरी नदियां जल से लबालब ,


जीव जगत हित बहती अविरल।


सूखे अब सरोवर और नदियाँ ,


जल बिन मरते पंछी पशु गैया ।


 


भूखे पेट कुछ दिन रह सकते,


पर जल बिन मरते कंठ सूखे।


खेती-बाड़ी उपज फसल नहीं ,


 जब तक जल संरक्षण नहीं ।


 


कृषक के श्रम का मोल न कोई,


जल बिन फसल उगे न कोई।


कैसे अन्न धन फल फूल मिलेंगे,


जगत में प्राणी के प्राण बचेंगे ।


 


निर्मल अविरल गंगा की धारा,


कल कल निर्झर अमृत धारा ।


देती सबको भर जल का दान,


हम बूँद बूँद का करें सम्मान ।।


 


✍ सीमा गर्ग मंजरी


 मेरी स्वरचित रचना


 मेरठ


 


कविताये-२


कालचक्र --


 


चतुर्दिक युग में काल का पहरा,


मन्वन्तर में पलटे युग का फेरा !


जीव का जन्म मरण है पराधीन ,


कालचक्र मुख जीवन का पर्यवसान !


सृष्टि का हर प्राणी काल निवाला है ,


वक्त की कदर से जग में नाम उजाला है !


अमृतबेला की दिव्य स्वर्णिम लाली,


नियमित अंबर घट पे इठलाती है !


सूरज, चाँद, सितारे,यामिनी ये ,


कालचक्र के नियम से चलते है !


मनुज वही जो समय से चलते हैं !!


 


मौसम चक्र जलवायु परिवर्तन ,


ग्रीष्म शीत बर्षा ऋतु आगमन!


मास दिवस और बर्ष का मान ,


कालचक्र से है सृष्टि परिवर्तन !


शैशव, बाल, किशोर,जवान,


बुजुर्ग, वृद्धावस्था में सम्मान!


जीवन दर्पण नित रंग बदलते,


कालचक्र का नियम गतिमान !


समय का आओ करें सम्मान ,


आयु प्रतिपल क्षीण हो रही !


काल जिह्वा में भस्म खो रही ,


मनुज है वही जो समय से चलते!


 


टिक टिक घड़ी चले निरन्तर,


पल छिन घटते जाते समान्तर!


उठो चलो आओ आगे बढ़ो,


शुभ संकल्प पुरूषार्थ में ढालो !


काल अनुपान जो मानव करते ,


कर्म को श्रम साध्य वही बनाते!


दृढ़ श्रम कर्म धर्म के बलबूते ,


सौभाग्य की विरल लकीरें गढ़ते !


ब्रह्मदेव के कर्म लेख भी बदलते ,


कालचक्र का जो पालन करते !


सच में मनुज वही हैं कहलाते!!


 


✍ सीमा गर्ग मंजरी


 मेरी स्वरचित रचना


 मेरठ


 


कविताये-3


मूक प्राणी की सुन फरियाद --


 


समय आया बडा दुखदाई ,


दया धर्म नहीं मन में भाई !


तन के उजले मन के काले ,


 भले-बुरे कर्मों के जंजाले !


कोटिअक्षि साक्षी है भगवान,


मानव बना तू क्यूँ शैतान!


 


मदान्ध प्राणी मत करना,


निरीह जीवों पर अत्याचार!


दिया सकल धरा पर प्रभु ने ,


सबको जीने का अधिकार!


चींटी या हाथी,हैं सभी समान,


मानव बना तू क्यूँ शैतान !


 


बोया पेड बबूल का तो,


आम कहां से खायेगा !


जैसी करनी वैसी भरनी,


पर्वत सी पीर पड़ेगी सहनी!


कर्मफल से मत बन,तू अंजान ,


मानव बना तू क्यूँ शैतान !


 


मूक प्राणी की सुन फरियाद,


शुभ कर्म जीवन की बुनियाद !


जुल्मों सितम से वध न करना ,


स्वच्छंद जियें,चाहें आजाद रहना!


धरा के सारे प्राणी ईश्वर की संतान ,


मानव बना तू क्यूँ शैतान!!


 


✍ सीमा गर्ग मंजरी


 मेरी स्वरचित रचना


मेरठ


 


 


 


कविताये-4


 


प्रकृति कामिनी 


 


मैं प्रकृति कामिनी हूँ


मानव हित सृजन धारिणी हूँ 


मेरी रसवन्ती मकरंदी रुपहली सूरत है


सुकोमल सतरंगा निराला रुप अनूप है 


प्रकृति पुरूष ने सहचरी कहकर


मेरा सृजन विस्तार किया था


नूतन तूलिका से मनोरम दिव्य


 श्रंगार किया था 


विलासी मानव ने पीड़ित किया


 मृतप्राय हो गयी थी 


जर्जर देह कर डाली मेरी 


काया क्षीणकाय हो गयी थी 


 मेरे जिस्मों जान को 


नोच कर कुल्हाड़ी चलाई थी 


प्राण पर मेरे भीषण प्रहार किये थे 


सुमन, फल, फूल,मकरंद,रस नित पान किये 


इस स्वार्थी मानव ने मेरे


हरितम आभूषण छीन लिये


मेरे शस्य श्यामला हरित रंग रुप 


को काट महल खडे किये थे 


इन्सां जिस थाली में खाया


 तूने उसी में छेद किया 


मानव तुझ जैसा स्वार्थी कृतघ्न


प्राणी कोई दूजा नहीं 


मंदिर और शिवाले में दिखावे 


की पूजा का काम नहीं 


मेरा मंजुल रुप रंग कुरुप बनाने वाले


मेरी श्रंगारित हरियाली का दोहन करने वाले


ईश्वर ने ऐसा अद्भुत खेल रचाया है 


मेरे संवर्द्धन हेतु जग को नाच नचाया है 


अब मैने अद्भुत नवल कलेवर सजाया है 


प्राणदायिनी वायु की ऊर्जाशक्ति को बढाया है 


अब देखो मेरी हरी चुनरिया लहराई है 


प्रकृति धानी दुल्हिन सा श्रंगार कर मुस्काई है 


जल, जलधर,पवन, गगन, सृष्टि में


सकल संचारी भावना हरषाई है ।।


 


✍ सीमा गर्ग मंजरी


 मेरी स्वरचित रचना


मेरठ


 


कविताये-5


आओ करें हम जल का दान --


 


 


 दान की श्रेष्ठ सनातन संस्कृति


ज्येष्ठ मास की निर्जला एकादशी


घट जल का दान करें उपवासी 


जल का दान सुकृत परम्परा 


जल बिन प्राण रहे ना आधारा


जल बिन जीव अचेत निष्प्राण 


जल को तरसे न व्याकुल प्राण 


पंचतत्व से बना मानव शरीरा


जल बिन प्राण रहे ना आधारा 


जल तर्पण से पूर्वजों की तृप्ति


अंशदान करने से मिलती मुक्ति 


अति पुण्य पावन ये कर्म महान 


आओ करें हम जल का दान


 


अन्न, वायु, वसन,शीतल, मृदुनीर 


दान करें वो हैं महादानी बलवीर 


सरिता की बहें अविरल धारा


कल, कल, निर्झर जल की धारा 


जीव जगत हित रहें सदानीरा


हरे-भरे वृक्ष कभी फल ना खाये 


सृष्टि हित फल फूल अन्न बरसाये 


छम छम बूँदें जब हैं बरसती 


हरी भरी वसुधा प्रकृति हंसती


जलधर बरसाये शीतल जलधार 


हर लेते जन मन की भव पीर


परोपकारी होते हैं ये संत महान 


परपीड़ा हर लेते सुधा समान 


आओ करें हम जल का दान 


 


जगत है दूषित जल शुद्धि करता 


जल बिन जीवन कभी ना चलता


बूँद, बूँद संरक्षण की कलश भरता


जल दोहन रोकें,व्यर्थ जो बहता 


जन के तन,मन,प्राण में फूंके शंख 


आओ, मिल जुल करें जल संरक्षण


जल ही जीवन धन है, करें आओ मनन 


अपने कर्म कौशल को बनाये महान 


कर्म फल नहीं निष्फल,ये गीता का ज्ञान 


अपनी मंजिल की जो लीक बनाते 


निविड़ कंटक में सुगन्धित सुमन खिलाते 


परोपकारी होते हैं यही संत सुजान


आओ करें हम जल का दान ।।


 


✍ सीमा गर्ग मंजरी


 मेरी स्वरचित रचना


 मेरठ


सुषमा दीक्षित शुक्ला

जल के बिना न जीवन है


 


जल ही तो जीवन है यारों ,


सूक्ति सुनी ये होगी ।


जलमय ही शरीर मानव का,


 मुक्ति इसी से होगी ।


 इंद्रदेव अरु वरुण देव भी ,


जलमय रूप दिखाते ।


 नदिया, सागर ,बरखा ,झरने ,


जल के स्रोत कहाते ।


जल के कितने रूप निराले ,


जल के बिना न जीवन है ।


अमृत बनता विष बन जाता ,


बन जाता ये दर्पन है ।


जल में भोजन मत्स्य रूप में ,


और कई फसलें होती ।


जल में खिलता पुष्प पद्म का,


 जल से ही आंखे रोती ।


 बिना नीर के जीवन कैसा 


सत्य बात है मीत यही ।


 धरती से अंबर तक फैला ,


नदिया का संगीत यही ।


विमल सलिल हम सबका जीवन,


 इसको मत बर्बाद करो ।


वृक्ष उगाओ धरा बचाओ,


 जनजीवन आबाद करो ।


 



काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डाॅ०निधि अकबरपुर,अम्बेडकरनगर

नाम-डाॅ०निधि 


पति का नाम-डाॅ०सत्येन्द्र नारायण मिश्र


जन्मतिथि -20 फरवरी


शिक्षा -परास्नातक (अंग्रेज़ी एवं समाजशास्त्र) बी०एड, पीएच ०डी०,


व्यवसाय- अध्यापन


पता -अकबरपुर, अम्बेडकरनगर। 


रचनाएँ-साहित्य रश्मि एवं दर्शन रश्मि में निरन्तर प्रकाशित। 


 


रचनाएँ -


 


1## *दिव्य ज्योति* ##


 


 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके, 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके। 


 


ये चन्द्र सूर्य सब ग्रह नक्षत्र, 


तेरी ज्योति से ही प्रकाशित हैं। 


ये दसों दिशाओं में आठो पहर ,


तेरी ज्योति ही आती जाती है। 


ये जड़ -चेतन, जल -स्थल, 


तेरी ज्योति की माया जागृत है, 


पत्ता पत्ता, कोना कोना, 


तेरी ज्योति से ही सुशोभित है। 


तू मुझमे है मै तुझमें हूँ, 


तेरी ज्योति ही सबमें उजागर है।


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके। 


 


यह ज्योति अलौकिक इक आभा, 


ब्रह्माण्ड को जिसने रचाया है। 


ये सिया -राम, राधा -कृष्णा, 


सबमें तेरी ज्योति निराली है। 


कोटिक अनन्त देव देवी, 


तेरी ज्योति से ही उद्भासित हैं।


जिसने पहिचाना ज्योति तेरी, 


वह सदा ही आनन्दित है। 


रमते रमते तेरी ज्योति में, 


सूर, कबीर ,तुलसी ,रैदास हुए। 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके ।


 


तेरी ज्योति का ना कोई आदि न अन्त, 


तेरी ज्योति सदा ही स्थिर है। 


यह ज्योति नव दुर्गा रूपा, 


सब विद्याओं में भाषित हैं। 


यह ज्योति सत्य शिव सुन्दर, 


परम शान्त शाश्वत है। 


जिसने देखा जिस भाव इसे, 


उस भाव में ही दिख जाती है। 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके ।


 


यह ज्योति सुरों की राग रागिनी, 


संगीत की धुन में बजती है। 


यह ज्योति ओऽम् उच्चारण स्वर, 


जिस धुन पर वसुधा नाचती है ।


ये वेद, पुराण,ग्रन्थ,उपनिषद् ,


सब ज्योति की महिमा गाते हैं। 


ये ज्योति हिमालय का शिव है, 


गंगा का उद्गम स्थल है। 


ज्योति भेद-अभेद बड़ी निर्मल,


मोक्ष मार्ग दिखलाती है। 


यह जीवन-मृत्यु नही कुछ भी, 


सब जीव- ब्रह्म का संगम है। 


इक ज्योति जो बाहर आती है, 


जा दिव्य ज्योति मिल जाती है। 


तुम दिव्य ज्योति बनके, 


उर आँगन में चमके। 


तुम दिव्य ....       


 


2-🌹मेरी अभिलाषा 🌹


 


ये गहन अंधेरा छटने दो, सूरज विहान का उगने दो, 


कल नयी किरण की आभा से, 


संतप्त हृदयों को दमकने दो। 


 


जब नव्य रश्मियाँ बिखरेंगी, 


सब आपस में मिल जायेंगे, 


प्यासी रुहों की खातिर तब, 


अन्तरिक्ष शान्ति बरसायेगा। 


 


ये दिवा तिमिर हर लेगी तब, 


दस दिशा दीप्ति फैलायेगी,


सुरभित सुमनों का खिल जाना, 


विष की स्मृति बिसरायेगी ।


 


जब हरे खेत लहरायेंगे, 


धरती सोना बरसायेगी, 


तब कृषक श्रमिक न हो करके, 


पालक पोषक कहलायेंगे। 


 


जब धरा झूम कर गायेगी, 


तरनी करताल बजायेगी, 


हर आँखों से टपका आँसू, 


मुक्ताहार बन जायेगी। 


 


जब गाँवों की गोरी जैसे, 


शहरी बाला शरमायेगी, 


तब संस्कृति भारतमाता की, 


फिर से जीवित हो जायेगी ।


 


जब भाव भरे भारतवासी, 


करुण दृष्टि अपनायेंगे, 


मोर थिरकेंगे आँगन में, 


गइया पय सरित बहायेगी। 


 


जब ऋषियों मुनियों के अर्चन से,


नव ग्रह सब देव प्रसन्न होंगे, 


तब सकल धर्म के ठेकेदार ,


ठगे धरे रह जायेंगे ।


 


जब पंडित नीति निपुण होगा,


नैतिक धर्म परम होगा, 


तब अष्ट सिद्धि नौ निधियाँ भी, 


घर -घर आवास बनायेंगी। 


 


सब कष्ट शमित हो वसुधा से, 


औषधि की नही जरुरत हो, 


जन मानस की मीठी बोली, 


सुरभित आसव बन जायेगी। 


 


तब सकल विश्व भारत माँ के, 


चरणों में नत मस्तक होगा, 


मेरे भारत का यशोगान, 


सूरज चन्दा भी गायेगा। 


 


3-*##एहसास ##* 


 ****************** 


 *मेरी खातिर तुझमें जिन्दा कोई* *लम्हा होता।* 


 *बेइन्तहाँ टूट के मै न हरगिज* *बिखरा होता ।।* 


 


 *मेरा एहसास तेरे दिल में जो पनपा* *होता।* 


 *साज के साथ मै भी नगमा बन* *गया होता।।* 


 


 *बेसबब आस में मै न तेरी यूँ खोया* *होता।* 


 *कलम के साथ ये कागज भी न* *रोया होता।।* 


 


 *खौफ़ खाती है रूह मेरी, तेरी तंज* *बातों का,* 


 *काश मुझसे भी कभी प्यार से* *बोला होता।।* 


 


 *तेरी आँखों,तेरे लफ़्जों में न मुझे* *ठौर मिला।* 


 *बन के आँसू ही सही पलकों पे* *ठहरा होता।* 


 


 *मेरे तबस्सुम में छिपे दर्द को जो* *देखा होता।* 


 *दर्द दिल का न मेरे हद से यूँ गुजरा* *होता।।* 


 


 **सोच में तेरी ये गुजरे है मेरी शाम* *-ओ-सहर* ।


 *कोई तारा मेरी मन्नत का भी टूटा* *होता।।* 


 


 *हर जगह याद तेरी याद चली आती* *है *।** 


 *मेरी साँसों पे भी तेरा ही तो पहरा* *होता।।* 


 


 *मेरे तरन्नुम में फ़क़त तेरा ही चर्चा* *रहता।* 


 *ग़ज़ल की तरहा तू भी मेरा बन* *गया होता।।* 


 


 *मिटा लो शिकवे गिले पास बैठ* *के दो पल।* 


 *सुना है साँसों का सिमटा सा दायरा* *होता।।* 


 


 4-*#############* 


*##आदमी##*


*############*


 


सौ बार टूट कर जुड़ता है आदमी, 


निज कर्म से महान बनता है आदमी। 


 


है आदमी गुरु भी, ईश्वर भी आदमी, 


गर्दन झुका के देख अंदर का आदमी।


 


भृकुटी में लिए ज्वाला,वक्ष में ये ब्रह्म को, 


क्या-क्या न कर सके ये गुणवान आदमी।


 


नदियों को बाँध दे, हवाओं को मोड़ दे, 


पानी से आग पैदा करता है आदमी। 


 


धरती का सीना चीर के अमृत निकाल दे, 


पर्वतों में राह बनाता है आदमी। 


 


ज़मी क्या ,आसमाँ में उड़ता है आदमी, 


चाँद के दर पे, घर को बनाता है आदमी। 


 


तूफाँ को पार कर जो कश्ती निकाल ले, 


सचमुच में वही तो है फौलाद आदमी। 


 


पापों का प्रलय भी रोक सकता आदमी, 


थोड़ी सी जो मानवता भर ले ये आदमी। 


 


कुछ आदमी यहाँ पर ऐसे भी हैं सुनो, 


जो आदमी के नाम पर कलंक आदमी। 


 


है खून एक सा ही, साँसें भी एक सी, 


मज़हब के नाम पर क्यूँ ,बँट गया है आदमी। 


 


निज कर्म और धर्म से गिरा जो आदमी, 


पशुता को मात देता ऐसा ही आदमी। 


 


है कौन वह दरिन्दा आदमी ज़रा बता? 


आब-ओ-हवा में जहर घोलता सा आदमी। 


 


है बेच देता देश व अपने ज़मीर को, 


कितना गिर गया है मक्कार आदमी।


 


मंहगी से मंहगी चीज़ खरीदता है आदमी, 


नींद सुख,सूकूँ की साँस को तरसता सा आदमी।


 


खुद को ही खुदा मान अकड़ता था आदमी, 


अब आदमी से डर -डर जीता है आदमी। 


 


5-#कसक#


          ************


समझ नहीं आता, 


खुद को समझाऊँ,


या चुप हो जाऊँ। 


उलझन मन की ,सुलझाऊँ ,


याऔर उलझती ,मै जाऊँ। 


वेदना सह पीड़ा की,परिभाषा बनूँ,


या कोई दवा मै बन जाऊँ। 


द्वन्द चल रहा, 


अन्तस तल पर,लडू़ँ,


या स्वतः पराजित हो जाऊँ 


अधिकार नही मेरा कोई, 


कर्तव्य निर्वाह करती जाऊँ।


समझ नही आता खुद को, 


समझाऊँ या चुप हो जाएं। 


 


जब से जन्मी,


दो सदन सजाऊँ,


पर कहीं भी,


नाम नही पाऊँ,


जिद् आती है ,


एक गेह बनाऊँ, 


निज नाम की, 


पट्टी लगवाऊँ, 


सब रूठे हैं मुझसे, 


मै भी रूठूँ,


या उन्हें मनाऊँ,


जब झूठे हैं बन्धन सारे,फिर


क्यूँ,व्यर्थ परिश्रम करती जाऊँ


समझ नही आता 


खुद को समझाऊँ


या चुप हो जाऊँ ।


 


सबके हृद की, पीड़ा समझूँ,


निज घाव किसे,मै दिखलाऊँ।


पत्थर दिल की, यह नगरी, कब तक आँसू से पिघलाऊँ।


दूषित दृष्टि से रक्षा हेतु, 


कब तक,पलक झुका 


जीती जाऊँ ।


सुनसान अंधेरो के भीतर, 


कब तक सिसकूँ,मै चिल्लाऊँ, 


मुह सी कर जी नही पाऊँगी, 


खुद में घुट कर ना मर जाऊँ। 


समझ नही आता 


खुद को समझाऊँ 


या चुप हो जाऊँ। 


 


यह एक स्त्री की 'कसक"नही, 


हर स्त्री की यही कहानी है,


मेरे पन्नों पर अंकित,


परिचत सी व्यथा पुरानी है।


 


 *स्वरचित* 


 *डाॅ०निधि* *अकबरपुर,अम्बेडकरनगर।*


डॉ. वंदना सिंह लखनऊ

बारिश 


इस बार जब आना 


संग ले आना 


किसी अपने को 


मेरे सपने को


 कहना हवा से 🌪


थोड़ा धीरे चले  


मद्धम मद्धम


 आकर जोर से 


मेरा आंचल ना उड़ाना💃


 बारिश इस बार जब आना . . 


कहना बिजली से ⚡


यूँ कड़क के न चमके✨


 हमें याद आ जाएगा 


डर के उनकी बाहों में 


सिमट जाना☺👀


 बारिश इस बार जब आना . . 


बरसना झूम के कि 


तन मन भीग भीग जाए🌾🌾🌾🌾


 हमें इस बार फिर से है 


कागज की नाव तैराना🚤


 बारिश इस बार जब आना.. 🌧🌧🌈


 बंद कमरों की उबासी को😴


 चेहरे की उदासी को😔


 दिखाकर रूप मस्ताना💋


 हौले से चली जाना 👋


बारिश इस बार जब आना 


बारिश इस बार....


स्वरचित - डॉ वन्दना सिंह लखनऊ


Self written by -


आशा त्रिपाठी

*हर भारतवासी अब चाहे,*


*मान और सामान देश का*।।


 


देश की माटी, देश का पानी


देश की थाती देश का धन हो।


नही रहे निर्भरता कोई ,


श्रमयोगी सा साधक मन हो।


नही चलेगा अब भारत में,


 चीनी चाल के क्रूर वेष का।


*हर भारतवासी अब चाहे*,


*मान और सामान देश का*।।


 


अपनी हो श्रम गति स्वदेशी,


आत्मविश्वास का प्रखरित बल हो।


दृढ संकल्प ले बढ़े सतत हम,


अटल कर्म से सभी सबल हो ।।


परदेशी आयात बन्द हो,


स्वदेशी से सम्मान देश का।।


*हर भारतवासी अब चाहे*,


*मान और सामान देश का*।।


आत्म शक्ति से निखरे भारत,


ग्राम,नगर,घर-घर कौशल हो।


विदेशी निर्भरता को त्यागकर,


जय किसान का अद्भूत बल हो।


अपना खाना,अपना पानी,


अपना हो परिधान देश का।


*हर भारतवासी अब चाहे,*


*मान और सामान देश का*।।


परदेशी वैसाखी लेकर,


 विश्वगुरू ना बन पायेगे,


स्वदेशी मंत्र की प्रतिज्ञा से,


माटी में सोना उपजायेगे।


ग्राम-ग्राम उद्योग लगाकर,


बचायेगे स्वाभिमान देश का।


*हर भारतवासी अब चाहे*,


*मान और सामान देश का*।


घर-घर में खुशहाली होगी,


देश प्रेम का भाव जगेगा।


जन-जन की किस्मत बदलेगी,


हर घर को अब काम मिलेगा।


चरण चूमती मंजिल होगी,


समृद्धि और सोपान देश का।।


*हर भारतवासी अब चाहे*,


*मान और सामान देश का*।।


✍आशा त्रिपाठी


     28-06-2020


एस के कपूर "श्री हंस*" *बरेली*।

*रखें खूब ध्यानअपना कि ये*


*कॅरोना फैल रहा है।।।।।।।*


 


कहाँ जा रहे हैं आप कि ये


कॅरोना बाहर ही खड़ा है।


गया नहीं कॅरोना अभी कि


अपनी जिद पर अड़ा है।।


अनलॉक जरूर हुआ है


पर आर्थिक गति के लिये।


पर आप रहें संभल कर ही


कि ये संकट बहुत बड़ा है।।


 


हाथ धोते रहें बार बार जब


भी कुछ करें नया आप।


पता नहीं कि कहाँ पर है


कॅरोना ने छोड़ी कोई छाप।।


सावधानी हटी दुर्घटना घटी


बिलकुल सिद्ध है आज तो।


कि अनजाने में न ओढ़ कर


बैठ जायें कॅरोना का लिहाफ।।


 


दो ग़ज़ दूरी, नियमित गरारे,


और चेहरे पर लगा रहे मास्क।


सैनिटाइजर पास में और जायें


बाहर जब जरूरी हो टास्क।।


बचाव ही सुरक्षा और देखो


जान जहान दोनों एक साथ।


आज की तारीख घर अपना


"बेस्ट डील दैट रियली रॉक्स"।।


 


न जायें बाहर निकल कि नहीं


कॅरोना से कोई कोना खाली।


मत खेलो जान से तुम कि यह


पड़ेगा खिलौना बहुत भारी।।


यह अदृश्य विषाणु है कुछ 


जरूरत से ज्यादा ही संक्रमित।


बस रहें आप जरा सतर्कता से


क्यों लाये रोना धोना ये बबाली।।


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली*।


मोब।। 9897071046


                     8218685464


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(तुम्हारे बिना)


रौशनी लगती फ़ीकी तुम्हारे बिना,


चाँदनी लगती तीखी तुम्हारे बिना।


चलातीं लगे छूरियाँ दिल पे अब तो-


सभी बातें सीधी तुम्हारे बिना।।


 


नहीं भाए मौसम सुहाना भी अब तो,


पिया-पी पपीहा का गाना मधुर तो।


लगे सूनी-सूनी सुनो हे प्रिये अब-


मेरे मन की वीथी तुम्हारे बिना।।


 


रंग में कोई रंगत नहीं दीखती,


संग के संग संगत नहीं सूझती।


फूल भी चुभ रहे खार की ही तरह-


लगे मधु न मीठी तुम्हारे बिना।।


 


लगे जैसे क़ुदरत गई रूठ अब तो,


लगे प्रेम-सरिता गई सूख अब तो।


वो तेरा रूठना फिर मनाना मेरा-


लगे बात बीती तुम्हारे बिना।।


 


आके फिर से बसा दे ये उजड़ा चमन,


ताकि खुशियाँ मनाएँ ये धरती-गगन।


अमर प्रेम-रस को मेरी रूह यह-


बता कैसे पीती तुम्हारे बिना??


 


मेरी आत्मा, मेरी जाने ज़िगर,


तुम्हीं हो ख़ुदा का ज़मीं पे हुनर।


तुम्हें देख कर ही तो गज़लें बनीं-


शायरी लगती रीती तुम्हारे बिना।।


 


ज़ुबाँ शायरी की तुम्हीं हो प्रिये,


कहकशाँ सब सितारों की तुम ही प्रिये।


वस्त्र कविता का मानस-पटल पे भला-


कल्पना कैसे सीती तुम्हारे बिना??


            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                9919446372


भरत नायक "बाबूजी"

*"कलम, स्याही और आत्मा"*


(कुण्डलिया छंद)


""""""'"'''"'"""""""""""""""""""""""""""""""""


★सर्जन कुछ दूषित हुआ, बदली सर्जक सोच।


आग उगलती थी कलम, आयी उसमें लोच।।


आयी उसमें लोच, स्वार्थ ही अब अहम हुआ।


सूखी स्याही धार, लगे अब तो सृजन जुआ।।


कह नायक करजोरि, अहम लगता धन-अर्जन।


आत्मा का व्यवसाय, बना है अब तो सर्जन।।


 


★आत्मा तृष्णा मेंं फँसी, कलम हुई लाचार।


अान कहाँ पर बेचता, सच्चा रचनाकार।।


सच्चा रचनाकार, करे निज शोणित-स्याही।


करता सृजन सुकर्म, लूटता न वाहवाही।।


कह नायक करजोरि, कपट छल का हो खात्मा।


खोये कलम न अर्थ, शुद्ध निज रखना आत्मा।।


 


★कलम करो कर्मण्य की, प्रेम बहे मसि-धार।


आत्मा से सर्जन करो, सुखी सकल संसार।।


सुखी सकल संसार, रचो कल्याणी रचना।


आडंबर को ओढ़, अहंकारी मत बनना।।


कह नायक करजोरि, श्रेष्ठ शुचि भल भाव भरो।


निहित रहे कल्याण, कलम को कृतकृत्य करो।।


"""""""""""""""""""""""""""""'"""""""""""'""


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


""""''"'"'"""""""""'"''""""""""""""""""""""""""


संजय जैन (मुम्बई

*समय निकल जायेगा*


विधा : कविता


 


दिल से दिल मिलाकर देखो।


जिंदगी की हकीकत को पहचानो।


अपना तुपना करना भूल जाओगे।


और आखिर एक ही पेड़ की छाया के नीचे आओगे।


और अपने आप को तुम तब अपने आप को पहचान पाओगे।।


 


क्योकि छोड़कर नसवार शरीर,


एक दिन सब को जान है।


जो भी कमाया धामाया 


सब यही छोड़ जाना है।


फिर भी भागता रहता है


माया के चक्कर मे।।


 


और न खाता है न पीता है,


और न चैन से जीता है।


खुद तो परेशान रहता है


और घर वाले को भी..।


इसलिए संजय कहता है


की कर ले कुछ अच्छे कर्म।


जिन्हें तेरे साथ अंत मे जाना है।।


 


घुटन की जिंदगी जीने से,


तो अच्छा है आदि खा के जीओ।


एक साथ हिल मिलकर


अपने परिवार में रहो।


जो भाग्य में लिखा है


वो तुझे मेहनत से मिल जाएगा।


पर लालच में स्वर्ग वाला,


समय निकल जायेगा।।


 


जय जिनेंद्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


29/06/2020


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

दिलों ओ दिमाग पे छाई है 


तेरी यादों की परछाई 


नादानियां तेरी शरारते


तेरा शर्माना छुप जाना शर्माई।


दिलों दिमाग पे छाई है 


तेरे यादों की परछाई।।


 


दिल में जज्बे का तूफां


दिमाग में जज्बातों के जंग


तुझे खोने फिर संग लाने की जिद आई।


दिलो ओ दिमाग छाई है 


तेरी यादों की परछआई।।


 


बरसात का मौसम बरसात


में भीगना छोकना बरसात का


पानी कागज की कश्ती बचपन


की कस्मे रस्में कमसिन की


कसम भोली सूरत दिलों की दस्तक छाई।


दिलो ओ दिमाग पे छाई है  


तेरी यादों की परछाई ।।


 


जिंदगी के तक़दीर का वो लम्हा


उसके साथ गुजरे तोहफा लम्हा


तुम्हारा साथ जिंदगी का एहसास


तेरी अक्स जिंदगी की साँसे धड़कन सौगात तू आयी।


दिलो ओ दिमाग में छाई है 


तेरे यादों की परछाई।।


 


गली की कली नाज़ुक


वक्त की नाज़ नज़ाकत


तू लाखों अरमानों की चाहत 


नादानों की मोहब्बत की खुशबू


 नज़ाकत अर्ज आरजू।


दिलों ओ दिमाग छाई है 


तेरे यादों की परछाई।।


 


हुस्न की हद हैसियत तेरी


दीवानगी में दिलो का


पागल हो जाना तेरी मासूम


चाहतों में जीने मरने का कस्मे खाना सिर्फ मेरी ही चाहत में तेरी


जिंदगी का तराना आशिकी।


दिलों ओ दिमाग में छाई है


तेरे यादों की परछाई।।


 


माँ बाप हसरतों की जमीं


दोस्तों की आहों का का बहाना


चाहतों की आसमां


जहाँ में तन्हा तू नाज़ुक हुस्न


की चाँद की चॉदनी।


दिलों दिमाग में छाई है तेरे यादों


की परछाई।।


 


दुनियां की भीड़ में आज भी तन्हा


तेरे संग गुजरे लम्हों की दौलत का कारवां तेरे ही इंतज़ार


की जिंदगी तेरे प्यार की हकीकत


इकरार का इज़हार का लम्हा आती जाती।


दिलों ओ दिमाग में छाई है


तेरे यादो की परछाई।।


 


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


निशा"अतुल्य"

स्तुति 


शिवशंकर


29.6.2020


 


हे शिव शंकर हे अभ्यंकर


तुम कैलाश निवासी हो 


अजर अमर हे अविनाशी


नील कंठ तुम धारी हो ।


 


शिव शंकर हे अभ्यंकर 


तुम कैलाश निवासी हो ।।


 


वाम अंग तेरे गौरा विराजे


नंदी की सवारी हो 


सूत पाया तुमने गणेश सा


जिस पर मैया बलहारी हो ।


 


शिव शंकर हे अभ्यंकर 


तुम कैलाश निवासी हो ।।


 


भूत, प्रेत सँग चले प्रभु


तुम रागी वैरागी हो 


माँ सती ले काँधे पर डोले


प्रेम रस अविरागी हो ।


 


शिव शंकर हे अभ्यंकर 


तुम कैलाश निवासी हो ।।


 


धूनी रमाई श्मशान प्रभु ने


नश्वरता बतलाते हो 


पी कर तुमने हाला को


जग के तुम कल्याणी हो ।


 


शिव शंकर हे अभ्यंकर 


तुम कैलाश निवासी हो ।।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


सत्यप्रकाश पाण्डेय

रजा राज बन गई है..


 


हमारी जिंदगी कांटों का ताज बन गई है


आज बेबसी हमारी मुमताज बन गई है 


 


समझते रहे सुहानी राह जिसे जिंदगी भर


वही समझ मुश्किल भरा काज बन गई है


 


दुःखों की धारा में पतवार समझ बैठे जिसे


वह जीवन नौका ही यमराज बन गई है


 


सत्य उलझन और गरज से भरी है धरती


कैसे टटोलें मन को रजा राज बन गई है।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


राजेंद्र रायपुरी

😌😌 आशा- उम्मीद 😌😌


 


आशा उनसे प्यार की, 


                     करनी है बेकार।


जो करना है चाहते, 


                    हरदम ही तक़रार।


 


उन लोगों से प्यार की,


                   क्या करनी उम्मीद।


जिनको भाती है नहीं,


                   कभी दिवाली-ईद।


 


आशा सबके ख़ैर की, 


                     करनी है बेकार।


आपस में ही आज सब, 


                     भाॅ॑ज रहे तलवार।


 


आशा मन में ले यही, 


                    बैठी सजनी द्वार।


आते ही साजन मुझे, 


                      देंगे ढेरों प्यार।


 


आशा या उम्मीद से,


                  बने नहीं कुछ काम।


करें नहीं कुछ काम तो, 


                    कैसे होगा नाम।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

पग रज से पावन धरा


मुरलीधर चितचोर


देवलोक फीकों लगे


बृज मोहे मनमोर


 


श्यामा सलोनी सूरत


सुंदर शील सुशील


श्याम संग श्री सोभित


जलधर सह नभ नील


 


युगलछवि मम हृदय बसे


मिले चक्षु आराम


सत्य होंय सब साधना


जग लागे सुखधाम।


 


युगलरूपाय नमो नमः🙏🙏🙏🙏🙏💐💐💐💐💐


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


       *"कभी तो..."*


"कह देते कुछ तो साथी उनको,


यूँही उदास न होते।


चाहत के रंगो को जग में,


यूँही पल-पल न खोते।।


पा लेते जीवन में उनको,


जहाँ जग में तुम होते।


खो कर गरिमा जीवन की फिर,


क्या-यहाँ पल -पल न रोते?


न पाने का दु:ख जग में फिर,


जीवन जग में सह लेते।


सहेज सपने उनके जग में,


कभी तो अपना कहते।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 29-06-2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः....*प्रथम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-7


रावन-राज बढ़ा अघ भारी।


सुर-नर-मुनि सभ भए दुखारी।।


    मातु-पिता कै बड़ अपमाना।


    साधु-संत-सज्जन नहिं माना।।


पर दारा, पर धन जन लोभी।


कुकरम करहिं न मन रह छोभी।।


    राच्छस असुर-राज रह बाढ़ा।


    अधरम-कुकरम-प्रेम प्रगाढ़ा।।


चहुँ दिसि बिलखहिं जे जन सज्जन।


हरषहिं,बेलसहिं जे रह दुर्जन ।।


     धरम-ह्रास अरु सज्जन-नासा।


      अघ बड़ भारहिं मही उदासा।।


परम बिकल अकुलाइ असोका।


गऊ रूप महि गइ सुर-लोका।।


     नैन अश्रु भरि ब्यथा बतावा।


     पर नहिं कछुक सहयता पावा।।


तब सभ मिलि गे ब्रह्मा पासा।


हिय महँ धरे उछाह-उलासा।।


     ब्रह्मा गए समुझि अभिप्राया।


     पर नहिं सके बताइ उपाया।।


कह बिरंचि नहिं कछु बस मोरे।


कटिहइँ कष्ट सकल प्रभु तोरे।।


दोहा-सुनहु धरनि धीरजु धरउ,धरहु मनहिं महँ आस।


        प्रभु जानहिं बिपदा सकल,कटिहइँ रखु बिस्वास।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372 क्रमशः.....


अनिल प्रजापति जख्मी भांडेर दतिया

शीर्षक- मेरा हिंदुस्तान


 विधा -कविता


 


 


 सदियों से ना पीछे हैं ना कभी रहे मेरा हिंदुस्तान


 वीर अभी भी है यहां पर जाने ना देंगे हम शान


 अब आगे जो कदम बढ़ाया कसम हिंदुस्तान की


 चीन चीन कर मारेंगे खैर नहीं अब तेरे जान की


 


 मेरा हिंदुस्तान महान बच्चे बच्चे बोल रहे


हो हिम्मत आन लड़ो जय भारत माता बोल रहे


 


 घर-घर में झांसी की रानी ना कृपाण पुरानी है


 भारत की वीर गाथा तो माहिर जग में जानी है


 


 भगत सिंह सुखदेव राज गली गली में घूम रहे


 भऱी वीरता कूट-कूट कर मस्ती में यह झूम रहे


 


 


                 स्वरचित


 अनिल प्रजापति जख्मी भांडेर दतिया मध्य प्रदेश


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