डॉ0हरि नाथ मिश्र

त्याग-माहात्म्य-3


देहिं न साप-असीष सुजाना।


साप-असीष कर्म भगवाना।।


  पूजहिं सुजन सास्त्र अनुकूला।


कबहुँ न जाहिं धरम- प्रतिकूला।।


बिनु फल-इच्छा प्रभुहीं पूजैं।


सुजन-करम पूजन नहिं दूजैं।।


    धर्म-अर्थ बिनु मोछहि इच्छा।


    सेवहिं निर्बल सुजन सदेच्छा।।


देहु नाथ मों अन-भंडारा।


मम गृह करउ रतन-अगारा।।


     आइ बिराजउ मम गृह-द्वारे।


     अइस न त्यागी कबहुँ पुकारे।।


सुजन-प्रार्थना अरु उपवासा।


करै सबहिं जन बिगत निरासा।।


     पूजा सुफल होय निष्कामा।


     हिय महँ राखि नाथ छबि-धामा।।


त्यागी-सुजन-प्रार्थना-पूजा।


परहित मात्र औरु नहिं दूजा।।


    सबजन सुख हमरो सुख होई।


    अस बिचार जिसु,त्यागी सोई।।


गुरु-पितु-मातु सदा ते सेवहिं।


प्रभु-प्रसाद सेवा करि लेवहिं।।


    जग-कल्यानहिं निज कल्याना।


    रहइ भाव अस उरहिं सुजाना।।


त्यागी-सुजन बिरत सुख-भोगा।


ओनकर इच्छा बस सुख लोंगा।।


दोहा-निसि-दिन पूजहिं प्रभुहिं कहँ, त्यागी औरु सुजान।


        निज कल्यान न चाहहीं, चाहैं जग - कल्यान ।।


                  डॉ0हरि नाथ मिश्र


                    9919446372


कमल कालु दहिया

...


    " *भोर* "


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कालिमा का वक्त निगल रहा है,


 भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।


 


 धुमिल होकर डूब रहा


 यह सरोबार सा समंदर,


   आ रहा लालिमा फराते


 सूर्य बनके एक मंजर।


 


 खिलता कमल मुरझाने से झिलमिल रहा है,


भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।


 


    हर शेष तारा खामोश 


शायद इनका यही वक्त था,


   जिसने सबको मोह लिया 


वो चांद किसी और अस्त था।


 


 तपन इतनी पीपल की छांव पिघल रहा है,


 भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।


 


 स्वप्न तनिक विचलित हो


   यह पल किस और गया,


 छूट गई अनकही बातें


    जिंदगी का वो भोर में दोर गया।


 


 पलक से छत पर वह दिनकर खिल रहा है,


  भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।।


 


 


    रचनाकार 


*कमल कालु दहिया*


  जोधपुर, राजस्थान


मदन मोहन शर्मा 'सजल'

*"सपने संजो दिये"*


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संगदिल में बीज प्यार के बो दिये,


प्यासी अँखियों में सपने संजो दिये,


 


रहते थे कभी अपनी गिरेबां में,


इश्क के सफर में मदहोश खो गये,


 


अनजानी लगती थी राहें जिंदगी,


रास्ते मुहब्बत पहचाने हो गये,


 


खड़ी थी शक दीवारें चारों तरफ,


वफ़ा के दरिया बीच सब डुबो दिये,


 


हकीकत से रूबरू होना है मुश्किल,


प्रेम बारिश हुई अरमां भिगो दिये।


मदन मोहन शर्मा 'सजल'


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सिंधु-वंदना*


हे महाशक्ति!हे महाप्राण!मेरा वंदन स्वीकार करो।


कर दो संभव मैं तिलक करूँ,मेरा चंदन स्वीकार करो।।


           हे महाशक्ति,हे महाप्राण!....


युगों-युगों से इच्छा थी,कब तेरा दीदार करूँ?


नहीं पता चाहत थी कब से तेरा ख़िदमतगार बनूँ?


करूँ अर्चना तत्क्षण तेरी,मेरा क्रंदन स्वीकार करो।।


           हे महाशक्ति,हे महाप्राण!....


ललित ललाम निनाद तुम्हारा महाघोष परिचायक है।


जलनिधि का नीलाभ आवरण चित्त-हर्षक-सुखदायकहै।


करो कृपा मैं आसन दे दूँ, मेरा आसन स्वीकार करो।।


            हे महाशक्ति,हे महाप्राण!....


पूनम का वो चाँद सलोना जब अंबर पे होता है,


तू ले अँगड़ाई ऊपर उठ कर बाहों में भर लेता है।


बँधू प्रेम-धागे से तुझ सँग, मेरा बंधन स्वीकार करो।।


           हे महाशक्ति,हे महाप्राण!....


तू पयोधि-उदधि-रत्नाकर,जल-थल-नभ-चर पालक है।


प्रकृति-कोष. के निर्माता तू,जीवन-ज्योति-विधायक है।


चरण पखारूँ मैं भी तेरा,मेरा सिंचन स्वीकार करो।।


        हे महाशक्ति,हे महाप्राण!....।।


              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


               9919446372


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*सत्यार्थ समर्पण*


 


 सत्य का ही आग्रही बन कर चलो,


सत्य को स्वीकारना ही धर्म है।


 


सत्य पथ से जो नहीं मुख मोड़ता,


सत्य उसका चरण छूता मर्म है।


 


सत्य का संधान जिसका लक्ष्य है,


सत्य से विचलित कभी होता नहीं।


 


सत्य को जो जानता वह सुकवि है,


सत्य को रचता विधाता है वही।।


 


सत्य में जिसका परम अनुराग है,


सत्य का पाता वही बड़ भाग है।


 


सत्य ब्रह्मा विष्णु का शिव रूप है,


सत्य असली धर्मधारी भूप है।।


 


सत्य के कंधे से जो कंधा मिलाता,


धर्म का वह स्तूप है प्रिय धूप है।


 


सत्य का सम्मान करता है मनुज,


सत्य का अपमान करता है दनुज।


 


सत्य की चाहत परम सौभाग्य है,


सत्य से होना विमुख दुर्भाग्य है।


 


सत्य केवल देखता है सत्य को,


चूमता रहता सदा है सत्य को।


 


झूठ की दुनिया उसे अच्छी नहीं,


रात-दिन वह याद करता सत्य को।


 


जागरण में शयन में वह सत्य को,


बात में भी बोल में भी सत्य को।।


 


सत्य बनकर घूमता वह विश्व में,


सत्य का ही जाप करता विश्व में।


 


सत्य की राहें बनाता रात-दिन,


सत्य ध्वज लेकर मचलता विश्व में।


 


सत्य का लेकर विजयरथ दौड़ता,


पाप की अन्तिम जड़ों को रौंदता।।


 


सत्य का आसन सदा सर्वोच्च है,


सत्य ही पुरुषार्थ सच्चा मोक्ष है।


 


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


भरत नायक "बाबूजी

*"मैं वियोग श्रृंगार"* (सरसी छंद गीत)


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विधान - १६ + ११ = २७ मात्रा प्रति पद, पदांत Sl, चार चरण, युगल चरण तुकांतता।


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¶सावन आया बादल छाया, रिमझिम पड़े फुहार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


चैन न आया जिया जलाया, प्रबल वियोग-प्रहार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶कब आओगे सुध लाओगे? राह तकूँ मैं द्वार।


जब आओगे तब आओगे, जोबन लागे भार।।


बतलाओगे पहनाओगे, बाहों का कब हार?


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶महकाओगे चहकाओगे, बोलो कब गुलजार?


सरसाओगे दहकाओगे, कब मैं पाऊँ प्यार?


तरसाओगे या आओगे? सूना मम संसार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶पिय पर वारी सखियाँ प्यारी, झूलें झूला डार।


मैं दुखियारी किस्मत-कारी, दिल पाये न करार।।


भूले सारी कसम हमारी, साजन कर इकरार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶करवट बदलूँ पलटत दहलूँ, हुई नींद से रार।


इत उत टहलूँ मैं हाथ मलूँ, पुरवा बहे बयार।।


कैसे दम लूँ कैसे बहलूँ? काटे कष्ट-कटार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶बरखा रानी पावस पानी, करे धरा शृंगार।


कब है धानी चुनर सुहानी, लाओगे भरतार??


मैं दीवानी रुत मस्तानी, चढ़ा प्रीति का ज्वार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶मन को पागूँ भ्रम में भागूँ, कर सोलह शृंगार।


विरहा रागूँ दामन दागूँ, हर शृंगार उतार।।


'नायक' जागूँ मूरत लागूँ, 'मैं वियोग शृंगार।'


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह,रायगढ़,(छ.ग.)


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एस के कपूर "श्री हंस*" *बरेली।*

*खबरदार भू माफिया चीन।*


*अपनी सीमा में रहना।।।।।*


 


अब इस चीन का गरूर


चकनाचूर करना है।


बता दें चीन तुझको अब


दुनिया से डरना है।।


फैला कर कॅरोना का


वाइरस दुनिया में।


तुझको अपनी करनी का


फल अब भरना है।।


 


विस्तारवादी भू माफिया


के नाम से बदनाम है।


समझ रहा कि दुनिया तेरे


इरादों से अनजान है।।


अपनी शक्ति में हो गया


है तू अब जैसे अंधा।


पर याद रहे कि हमारा


तैयार तीर कमान है।।


 


तुझको समुद्र जमीं आसमां


हर जगह चाट डालेंगें।


घुसा अगर सीमा के अंदर


तो फिर काट डालेंगें।।


कर रहा कोशिश तू बनने


को आर्थिक बादशाह।


कसम माँ भारती कीअबकी


तुम्हें हम फाड़ डालेंगें।।


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।*


मोब 9897071046


                     8218685464


राजेंद्र रायपुरी।

सार छंद पर एक मुक्तक - -


 


डम-डम बम-बम डमरू बाजे,


                            बाबा जी के द्वारे।


नाच-कूदकर काॅ॑वरिया सब,


                           लगा रहे जयकारे।


रिमझिम-रिमझम सावन बरसे,


                            हवा चले पुरवाई।


फिर भी देखो भीड़ लगी है,


                            गंगा घाट किनारे।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मेरे माधव मेरे मनमोहन


तेरे दर्शन का अभिलाषी


हर पल तेरी बाट निहारूँ


बिन देखे आँखें है प्यासी


 


सांवरी सूरत हे मुरलीधर


देखत ही सब अघ कटें


भय के बादल छट जावें


सुख आवें सब दुःख हटें


 


रखना अनुग्रह मेरे प्रभु


प्राणों में बसना बन प्राण


सत्य जीवन हो परिष्कृत


करना स्वामी कल्याण।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः👏👏👏👏👏🌹🌹🌹🌹🌹


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


 


       *"मैं"*


"मिलता पग-पग जो मुझसे,


हँस कर उससे मिलता मैं।


मैं न मेरा मुझमें साथी,


क्या-कहूँ यहाँ तुमसे मैं?


पा लेता मंज़िल जग में,


जहाँ न बसता मुझमें मैं।


स्वार्थहीन होता जीवन,


परिचित न होता मेरा मैं।।


मैं-ही-मै है-संग मेरे,


छोड़ सका न जग में मैं।


मिलकर भी न मिला उनसे,


संग जो रहा मेरे मैं।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


 sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 18-07-2020


नूतन लाल साहू

कलयुग की महिमा


कलयुग की हाट बाजार में


भूख गरीबी और फूट


बिना मोल तीनो बिकै


लूट सके तो लूट


चोरों व घूसखोरों पर


नोट हर रोज बरसते हैं


ईमान के मुसाफिर इस जग में


राशन को तरस रहे हैं


कलयुग की हाट बाजार में


भूख गरीबी और फूट


बिना मोल तीनो बिकै


लूट सके तो लूट


जो कल तक थे हमारी,हितैषी


वो जुल्म ढा रहे हैं,चुप रहिये


फक्र ईमान पर जो करते थे


आज पछता रहे हैं,चुप रहिये


कलयुग की हाट बाजार में


भूख गरीबी और फूट


बिना मोल तीनो बिकै


लूट सके तो लूट


न्याय अन्याय की परवाह


कोई नहीं कर रहे हैं


पंच सरपंच या कानून से


कोई बंदा,नहीं डर रहे हैं


हिंदी के भक्त हैं, हम


जनता को यह जताते हैं


लेकिन अपने सुपुत्र को


कान्वेंट स्कूल में पढ़ा रहे हैं


कलयुग की हाट बाजार में


भूख गरीबी और फूट


बिना मोल तीनो बिकै


लूट सके तो लूट


नूतन लाल साहू


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*मधु शुभ प्रभात*


 


ईश्वर के आशीष का पायें सब वरदान।


सकल संपदा की मिले घर में स्वर्णिम खान।।


 


शान्ति रहे घर में सदा सुखी रहे परिवार।।


सबमें हो सद्भावना खुशियां मिलें अपार।।


 


मैत्री भाव बना रहे रहे आपसी मेल।


दिनचर्या ऐसी लगें खेल रहे जिमि खेल।।


 


भोर किरण लाये सदा जीवन में उजियार।


जीवन बगिया में खिले पुष्प भाव का प्यार।।


 


मस्तानी हो जिन्दगी आनंदित हों लोग ।


तन से मन से हृदय सेभागें सारे रोग।।


 


सबके प्रति शुभ कामना का हो सदा प्रचार।


एक दूसरे को सभी बाँटें अपना प्यार।।


 


झलके सबके हृदय में सबके प्रति अपनत्व।


एक दूसरे को सभी देते रहें महत्व।।


 


दंभ कपट को त्यागकर रहे मनुज उन्मुक्त।


जागृत हों ज्ञानेन्द्रियाँ बहुत दिनों से सुप्त।।


 


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः...*पहला चरण*(श्रीरामचरितबखान)-26


गया सनेस अजुधिया धामा।


तोरे संकर-धनु श्रीरामा ।।


    सुनि सनेस दसरथ भे बिह्वल


    नैनन नीर बहा बहु छल-छल।।


साथहिं पा सनेस सुभ-मंगल।


राम-बिबाह सीय सँग यहि पल।।


   सजी बरात अवध से जाई।


   बड़ सोभा अब मिथिला पाई।।


जनक-सुता, जग-जननी सीता।


होंइहैं जगत-पिता परिनीता ।।


    अहम रूप जब सिव-धनु टूटा।


    ब्रह्म-सक्ति भे मेल अटूटा ।।


असुर-प्रमाद पलायित होई।


सुर-तप-बल नहिं गरिमा खोई।।


   श्रद्धा-भक्ति जगत अस आवहिं।


   फैलइ दुर्बा जस जल पावहिं।।


जस जल बीच मीन सुख लहहीं।


वैसहिं जगत-संत सुख पवहीं।।


   होय नहीं अब जग्य बिधंसा।


   जग-कल्यान अहहि प्रभु-मनसा।।


दोहा-जग मा अब सरिता बही, लेइ भक्ति-जल-धार।


        जोगी-तपसी-भक्तजन,सबकर बेड़ा पार ।।


चल बरात लइ दसरथ राजा।


मिथिला-नगरी साजि समाजा।।


    हय-दल,गज-दल सँग-सँग चलहीं।


    पैदल चलत नृत्य जनु करहीं ।।


सजे अस्व-रथ पे दसरथहीं।


तरसहिं देखि जिनहिं सुर सबहीं।।


    दूजे रथ पर भरत-सत्रुघन।


    लागहिं चले करनि रिपु-मर्दन।।


बाजा-गाजा,साज-समाजा।


नाचैं-गावैं जस ऋतु राजा।।


    अगनित लढ़यन भरि-भरि मेवा।


    ठहरि-ठहरि सभ करैं कलेवा।।


उछरत-कूदत मग महँ सबहीं।


ढोल-नगाड़ा पीटत चलहीं।।


     इत्र-गुलाल पोति बहुरंगा।


     उड़त चलैं जस उड़े पतंगा।।


होंहिं बराती भूपति नाईं।


चंचल मन-चित जस लरिकाईं।।


     जे केहु मिलै डगर पुरवासी।


     छेड़हिं तिनहिं, न दिए निकासी।।


तिन्ह सँग करहिं बिनोदै नाना।


हरकत करैं जानि मनमाना।।


दोहा-नाचत-गावत जब सभें,पहुँचे मिथिला-देस।


        तम्मू सहित कनात महँ,ठहरे नूतन भेस।।


                   डॉ0हरि नाथ मिश्र


                    9919446372


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार ऋषि कुमार शर्मा बरेली

ऋषि कुमार शर्मा


पुत्र स्वर्गीय कर्नल पतंजलि शर्मा


जन्मतिथि 29 जून 1956


शिक्षा बी ० काम ०


सेवानिवृत्त प्रबंधक रीडर जनपद न्यायालय बरेली


मूलनिवासी ग्राम गुराई बदायूं


स्थाई निवास 3, ऑफिसर्स कॉलोनी, नकटिया, पोस्ट पी० ए ० सी ० बरेली उत्तर प्रदेश


काव्य यात्रा लगभग 26-27 वर्ष


अभी तक 3 साझा काव्य संग्रह प्रकाशित।


अनेक मंचों से काव्य पाठ, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से काव्य पाठ।


 


कविता-1


मेरी दीवानगी यूं बढ़ाने लगे, बातों बातों में मुझसे लजाने लगे।


जो लिखे गीत मैंने उन्हें सोचकर, वह वही गीत छुप छुप के गाने लगे।


प्यार में उनके मैं डूब इतना गया, रात दिन वह खयालों में आने लगे।


हुस्न ने उनके जादू सा ऐसा किया, हर तरफ वो ही वो झिलमिलाने लगे।


इस अदा से मिलाई थी मुझसे नजर, आंख के रस्ते दिल में समाने लगे।


जब भी तारीफ में मैंने कुछ कह दिया, सिर झुका कर के वह मुस्कुराने लगे।


उनके दीदार को दिल मचलता है यूं, जैसे आने में उनको जमाने लगे।


मेरी दीवानगी यूं बढ़ाने लगे, बातों बातों में मुझसे लजाने लगे।


ऋषि कुमार शर्मा कवि बरेली उत्तर प्रदेश।


9837753290.


 


कविता-2


 


वीर सैनिक


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है नमन शत शत नमन, वीरों तुम्हें शत शत नमन।


सींचते अपने लहू से देश का प्यारा चमन।


भाई हो तुम भी किसी की मांग का सिंदूर हो,


बूढ़े मां बापों की आंखों के तुम ही तो नूर हो।


खाई है कसमें तुम्हीं ने देश पर बलिदान की,


इसलिए सीमा पर चौकस तुम घरों से दूर हो।


तेज है नानक का तुझ में और मोहम्मद का है बल,


राम की शक्ति है तुझ में तू है ईसा सा निश्चल।


बर्फ की चोटी हो तपती रेत रेगिस्तान की,


तुम लगा देते हो बाजी बढ़कर अपनी जान की।


जिस्म है फौलाद तेरा, भोली सी मुस्कान है,


हर दिशा में अब तुम्हारी वीरता का गान है।


है कोई गुजरात से बंगाल से बिहार से,


है जुदा सबके बदन पर एक सबकी जान है।


ऋषि कुमार शर्मा कवि बरेली।


 


कविता-3


 


कभी थे जिसके करीब हम भी


वह दूर हमसे यूं जा रहा है,


कभी मिलाई थी हमसे नजरें,


नजर वह हम से चुरा रहा है।


कभी थे जिसके करीब हम भी।


    सदा हमारी मोहब्बतों में,


वफा के उसने थे गीत गाए,


हुआ क्या ऐसा समझ ना पाया,


है बैठा कब से नजर झुकाए।


सदा हमारी मोहब्बतों में।


     ऐ चांद तारों जरा तो जाना,


अरी हवाओं संदेशा लाना,


वह रुठा हुआ सा क्यों है,


उसे मनाना उसे मनाना।


ऐ चांद तारों जरा तो जाना।


      मेरी यह रातें न कट रही है,


निगाहे मेरी भटक रही हैं,


मैं हूं परेशां बिना तुम्हारे,


उसे बताना उसे बताना।


 


ऋषि कुमार शर्मा


कविता-4


 


मेरा दामन तो खुशियों से भर जाएगा


रूह में मेरी तू जो उतर जाएगा


साजे दिल छेड़ दे आज की रात तू


चांद बदली से अपनी निकल आएगा।


अपनी आंखों से मदिरा पिला दे अगर


जैसे जन्नत यहीं पर मैं पा जाऊंगा


हसरतें मेरी सारी निकल जायेंगी


जिंदगी भर को मदहोश हो जाऊंगा।


तेरे दीदार की आस दिल में लिये


तेरी राहों में मैंने जलाए दिये


आ भी जाओ कि बेताब कितना हूं मैं


बांह खोले खड़ा हूं तुम्हारे लिये।


आसमानों से ऊंचा मेरा प्यार है


प्यार से तेरे मेरा ही संसार है


देख कर मुझको सब लोग कहने लगे


तेरे सजदे में तेरा ही दिलदार है।


 


 


कविता-5


 


प्यार में तेरे हद से गुजर जाऊंगा


जिंदगी भर तुझे भूल ना पाऊंगा


मेरे जीवन में आई है तू इस तरह


गीत चाहत के तेरी सदा गाऊंगा।


फूल भंवरे सा तेरा मेरा साथ हो


आंखों आंखों में तेरी मेरी बात हो


अपने सीने से ऐसे लगा ले मुझे


प्यार की उम्र भर यूं ही बरसात हो।


तेरी जुल्फों की बदली में छुप जाऊंगा


प्यार की ऐसी मूरत कहां पाऊंगा


डोर जीवन की मेरी तेरे हाथ है


तू जिधर मोड़ देगी मैं मुड़ जाऊंगा।


रूप ऐसा कहां से यह लाई है तू


चांदनी में नहा कर के आई है तू


आज रब से तुझे मांग ना है मुझे


दिल में ऐसी मेरे यूं समाई है तू।


ऋषि कुमार शर्मा कवि बरेली


9837753290.


 


पुष्कर शुक्ला बिसवां-सीतापुर (उत्तर प्रदेश)

✍🏻


          ""मनमोहक छवि""


          _________________


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तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...


मानो इंद्रधनुष की छायाकृति बनती हो घन में...


 


मानो कोई पुष्प सुशोभित होता हो उपवन में...


मानो वेद-सृजन करते हो ब्रह्मदेव लेखन में...


 


मानो अहि शीतलता के वश लिपटा हो चंदन में...


मानो पारस-मणी जड़ी हो युवती के कंगन में...


 


 


तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...


तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...


 


 


वपुकान्त तुम्हारा देख व्योम-उल्का स्तंभित हो जाता...


घन-शावक भी वर्षा करने को खुद प्रेरित हो जाता...


 


कर्प देव छविधाम देखकर सम्मोहित हो जाते...


मुख-मंडल की लालिमा देख मन-भानु उदित हो जाते...


 


*शमानो खुश्क समंदर में नव-जल संचित हो जाता...


सुंदरता वस ओर तेरे मन खुद प्रेषित हो जाता...


 


 


तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...


तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...


 


 


मुख-मंडल पर घन-केसों का दिखता है ऐसा पहरा...


विधु के ऊपर पूर्णिमा में घन-शावक का पहरा...


 


नयनों का सत्वर इंद्रजाल नयनों में ऐसे दमके...


मानो बरखा के घोर-तिमिर में चपला की रेखा चमके...


 


हल्की सी मुस्कान बिखरती रक्त-वर्ण स:अधर में...


मानो कुंज कली खिलती हो भोर-पहर पुष्कर में...


 


हृदय चित्त में छिपा हुआ वो प्रेम राज खुल जाता...


देख तुम्हें अलसाये मन को नवचेतन मिल जाता...


 


 


तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में..


तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...


 


✍🏻 "पुष्कर शुक्ला"


सुषमा दीक्षित शुक्ला

सावन में छायी हरियाली ,


भादों आया हरित बसन ।


 


 राग रंग कुछ मुझे न भाता ,


जब से मथुरा गया किशन।


 


 सपना सा हो गया सभी कुछ,


 हुई कहानी सी बातें ।


 


रह रह उठती हूक हृदय में ,


 कौन सुने मन की बातें।


 


 सोच रही थी अपने मन में,


किशन कन्हैया मेरा है ।


 


 नहीं जानती थी गोकुल में,


 पंछी रैन बसेरा है ।


 


सोची बात नहीं होती है,


 होनी ही होकर होती।


 


 हंसकर जीना चाह रही थी


 लेकिन है आंखें बहती ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


सुषमा दीक्षित शुक्ला

गोवर्धन धारी हे! कान्हा,बन जाओ रखवारे ।


हे! कृष्णा हे! मोहन मेरे तुम बिन कौन उबारे ।


 


हर कोई है व्यथित यहाँ ,तो कोरोना के मारे ।


थोड़ी सी मुस्कान कन्हैया जग को दे दो प्यारे ।


 


तुम बिन मेरे कान्हा अब ये नइया कौन उबारे ।


तड़प उठी मानवता अब तो केवल तुम्हे पुकारे ।


 


हे!यदुनन्दन दया करो अब बिलख रहे हैं सारे ।


तुमने तो पहले भी कितने अनगिन असुर सँहारे।


 


दुष्ट कंस पूतना वकासुर एक एक कर मारे।


कोरोना का नाम मिटा दो राधा जी के प्यारे ।


 


हर कोई है व्यथित यहाँ तो कोरोना के मारे।


हे! कान्हा हे !मोहन मेरे तुम बिन कौन उबारे ।


         सुषमा दीक्षित शुक्ला


सुनीता सैनी गुड्डी के गीत लोकार्पण

सुनीता सैनी जी की लोकगीत की पुस्तक का लोकार्पण 


काव्य रंगोली पटल पर आगामी रविवार 19 जुलाई 2020 को शाम 6 बजे zoom app के माध्यम से एक साहित्यिक वेबिनार का आयोजन किया जायेगा 


जिसमें आप सभी का स्वागत है ।सुनीता सैनी गुड्डी जी वर्तमान में बेंगलुरु में रहती है उच्च शिक्षित परिवार और पति पत्नी दोनों ही उत्कृष्ठ कलाकार संगीत मय गीत संगीत प्रस्तोता जिनको याआप लांगो ने दूरदर्शन एवम tv चैनलों पर अक्सर देखा होगा ।उनकी पुस्तक का ऑनलाइन लोकार्पण काव्यरंगोली पटल पर बहुत ही गौरव की बात है।बहुत बड़ा परिचय है कहाँ तक लिखा जाए,सुंदरतम तरन्नुम में लिखे गए आकर्षक गीतों का संग्रहनीय संकलन है याआप सभी नीचे लिखी zoom आई डी से रविवार 6 बजे जुड़कर इस कार्यक्रम को सफल बनाये


https://us04web.zoom.us/j/2676971285?pwd=WmRnRWxrTlpQOW4rWU5QNndmWWN0Zz09


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार संतोषी दीछित -कानपुर

संतोषी दीछित -कानपुर


विधा-अवधी लोकगीत,रचनायें ,हिन्दी गज़ल ,गीत ,मुक्त लेखन,


उपलब्धि ,-तुलसी साहित्य सम्मान ,अतुल माहेश्वरी सम्मान अमर उजाला,कई प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मान प्राप्त,प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में प्रकाशित रचनायें,वटीवी चैनल पर प्रसारण,


काब्य यात्रा-2वर्ष


 


 


बहुत नीक कीन्हो,जो ठेका खोलि दीन्हो,


देश अशान्त रहे ,मूलौ घर मा तो रहे शान्ति


पैइसा कमावेक बरे ,घर की शान्ति छीनि लीन्हो,


बहुत नीक-----


 


अरे फिर ते झूमत अइहें ,नाली मा गिरिहें


करिहें गाली गलौज,बर्तन बेचिहें ,अबे तो 


करउनाहे फैइला है,तुम तो नरक मा ढकेल दीन्हो 


बहुत नीक-----


 


ऐइसेह नहिन खायेक नहिन ठेकान,बन्द हैं 


स्कूल औ राशन की दुकान,डाक्टर बैइठ नही 


रहे कहूं,मन्दिर के पट बन्द है,पाषाण होइ गे 


भगवान,लेकिन दारू तो,भइया है जरूरी 


नशेबाजन के है मजबूरी,चाहे देश होइ जावे 


बरबाद,लेकिन कउनो फरक नहिन तुमका तुम 


कहुक न चीन्हो


बहुत नीक-------


 


अबै का है अब जमिके फैइली करउना फिर 


न रोयओ रोउना,


जिनके छूटि गै रहै,वऊ लेक बरे दारू ,दुकानन 


के आगे बिछाये हैं बिछउना 


अब का है अब जमिके ऐश है,चाहे फिर ते बरबाद


होइ जाये देश है,कुछ कऱउना बरबाद कर दिहिस 


कुछ तुम बरबाद कर दीन्हो,


 


बहुत नीक ---


 


 


काविता 2


शीर्षक-हमार अवधी


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हमारि अवधी मा सब कुछ पहियो-2


 


बाबा पहियो अजिया पहियो 


अम्मा पहियो बप्पा पहियो 


पहियो भइया भउजी 


हमार ----


सांझ पहियो विहाने पहियो पहुड़े रहे 


उताने पहियो,पहियो ,पाहुन पनहि 


हमार--


चूल्हा पहियो चउका पहियो,तरकारिन


मा लउका ,पहियो,पहियो,पिसान अउ ताठी 


हमार---


दइउ का तुम गरजत पहियो बिजुरि का 


चमकत पहियो,पहियो रतिया कजरी 


हमार---


लढ़िया पहियो ,बैलवा पहियो,घोड़ा पहियो 


खड़खड़ा पहियों,पहियो भैंइसी,लैरवा 


हमार---


जोन्ढी पहियो ,पनेथी पहियो ,गुल्लू पहियो,


अलउरी पहियो,पहियो जउर केरि जउरी 


हमार---


कन्डा पहियो ,चैइला पहियो ,घूरे क्यार 


मइला पहियो ,पहियो नापदान ,खरही,


हमार--- 


नीमी क्यार नीमाहारा पहियो,भूसे क्यार 


भुसाहरा पहियो ,पहियो छपरा धन्नी 


हमार---


पानी का पनिहारिन पहियो ,चुड़ियन 


का चुड़िहारिन पहियो ,पहियोकामन


का नउनी 


हमार---


पानी भरै का कलसा पहियो,खीचै कुंआ ते 


इंडुरी पहियो,पहियों राब गुड़ पिन्नी 


हमार---


बियाव अउर बुल्लउआ पहियो,साथै 


क्यार सथउऱा,पहियो,पहियो बन्ना ,बन्नी 


हमार--


पहियो बिटेवा अउर लरिकवा ,लड़त 


मेहरिया अउर मंसवा ,पहियो ,गुत्थम 


गुत्थी ,


हमार ---


सूर पहियो,तुलसी पहियो,आल्हा पहियो 


लाला पहियो,पहियो तुम संतोषी ,


हमार----


संतोषी -कानपुर.


 


कविता 3


विनाश


---------


हे प्रभु जी तुमने धरती पर कैसी लीला रचाई है 


चारो तरफ मचा हाहा कारऔर मची तबाही है,


 


कहीं महामारी का है जोर ,कहीं युद्ध जैसे हालात


कहीं भूख ,बेगारी चीत्कार ,कहीं आ रहे चक्रवात,


 


अब तो पल पल हम सबको,मर मर कर जीना है ,


डर से भरा वर्ष ,दिन ,और काल महीना है,


 


जैसा बोया था हम सबने ,वही फसल है काट रहे,


जीवन जीने की ललक में ,अब मौत हैं बांट रहे,


 


कही आग कही पानी ,तो कहीं भूख है झेल रहे 


झूठे आश्वासनों को देकर ,हम सबको है,लूट रहे,


 


प्रकृति से खिलवाड़ करने का ,यही नतीजा है,


आज तक सृष्टि की माया से ,यहां कौन जीता है,


 


अब भी समय है ,समझो और सम्भल जाओ,


दिन विनाश के दूर नही् धरती माता झुंझलायी है,


 


कविता4


बहुत दिनों के बाद मेरा अवधी में श्रंगार गीत पढ़ें


 


तोरी सांवरि सुरतिया ,लुभाय गयी रे 


मोरे जियरा मां ,छुरिया चलाय गयी रे-2


 


नयना तोरे दुयी कजरारे,


चपल अउ चंचल कारे कारे,


तोरि चितवन बिजुरिया गिराय गई रे


तोरी----


 


चाल चले तो ,मधुवन ड्वाले,


कोयलिया सी बोली ब्वाले,


तोरि वानी मधुरता सुनाय गयी रे 


तोरी-----


 


केश राशि घन हवे लहरावे,


बारै मा गजरा हवै बल खावै,


तोको मोरी नजरिया लगाये गयी रे,


 


देखि के तोका नाचै मयूरा,


हरषि उठा झूमै मन मोरा , 


बरखा बूंदन ते प्रीतिया बरसाय गयी रे 


 


तोरी---


संतोषी दीछित-कानपुर


 


कविता 5


विकल मानवता पुकारे


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जिये हम किसके सहारे 


विकल मानवता पुकारे,


 


चहुं ओर तम है,उजियारे 


का भ्रम है,बढ़ता वेग मन में


है उद्धेग मन में,कैसे पाये किनारे 


विकल-----


निज अभिमान कितना,है अपनत्व


सपना,मित्थ्या संबधों में ,तोड़ना 


अनुबन्धों में ,जायें कंहा पे प्यारे,


विकल-----


जंहा देखो तिमिर है,जीवन इक


भंवर है,जो निकला बच गया वो,


सफर में अब समर है,किसे हम 


अब निहारें,


विकल-----


चलना काम अपना,जलना काम


अपना,कभी तो मेघ बरसेंगें ,


पड़ेगी फिर फुहारें ,


विकल-----


.



 


सीमा शुक्ला अयोध्या।

पड़ी जो बूंद सावन में, 


हमें फिर याद तुम आये।


तुम्हारे साथ गुजरे पल, 


घुमड़ नयनों में फिर छाये।


 


उठी फिर चाह जीवन में,


हुई इक आह सी मन में।


खुले फिर पृष्ठ यादों के।


जगी फिर आस सावन में।


 


बही जलधार नैनन में, 


हमें फिर याद तुम आये।


तुम्हारे साथ गुजरे पल,


घुमड़ नयनों में फिर छाये।


 


चमकती चंचला घन में,


खिले हैं फूल उपवन में।


निहारूं जब छटा अद्भुत,


तुम्हे देखूं मैं चितवन में।


 


सजा फिर स्वप्न जीवन में,


हमें फिर याद तुम आये।


तुम्हारे साथ गुजरे पल, 


घुमड़ नयनों में फिर छाये।


 


लता है झूमती मधुवन,


कोकिला कंठ भीगा वन।


बरसती बूंद जब रिमझिम,


कहां हो तुम बुलाए मन।


 


जगी फिर भावना मन में, 


हमें फिर याद तुम आये।


तुम्हारे साथ गुजरे पल,


 घुमड़ नयनों में फिर छाये।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


निशा"अतुल्य"

काव्य रंगोली


निशा"अतुल्य"


सैलाब 


16.7.2020


 


 


आँखों के सैलाब को ,


बांध दिया भीगी पलकों नें


कुछ तो तेरा मेरा सा है 


एक दूजे का एक दूजे में ।


 


जीवन के संघर्षों का 


कोई अंत नही होता है, 


एक खत्म होता है जब तक


दूजा स्वयं ही आ जाता है ।


 


रुकना जीवन उद्देश्य नही है,


साँस सदा चलती रहती 


ख़्वाब सुनहरे पलते रहते हैं,


चाहे पलकें भीगी रहती ।


 


नए सवेरे नित आतें हैं 


रात सदा ढ़लती रहती 


भीगी हो पलकें चाहे


आँख सदा हँसती रहती ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ शिवानी मिश्रा (प्रयागराज)

आप और मैं (कविता)


 


 


क्या आप है?


क्या मैं हूँ?


आप में ही ,मैं हूँ,


मैं ,मे ही आप है।


 


फ़लक पर पहुँचे तो आप हैं


ख़ाक पर ही रहा तो मैं ही रहा।


 


कभी आप बड़े रहे,तो कभी मैं बड़ा रहा,


आप से मैं निकला, मैं से आप निकले।


 


मैं रहा तो दुनिया ने न समझा,


आप बना तो दुनिया को ना समझा।


 


जब मैं रहा तो अपने जज्बातों को कुचलता गया,


जब आप बना तो लोगों के जज्बातों को कुचल दिया।


 


फर्क इतना ही रहा,


की मैं, मैं न रहा,


औऱ आप , आप न रहे,


इस आप और मैं के चक्कर में,


हम सिर्फ कठपुतली बन कर रह गये।


 


 


शिवानी मिश्रा


(प्रयागराज)


डॉ शिवानी मिश्रा (प्रयागराज)

स्नेह संचार(कविता)


 


स्नेह सलिल सरिता में


जीवन उपवन का श्रृंगार करो,


बस जाने दो कण कण में


प्रेम रस सरिता को


स्नेह का ऐसा संचार करो।


सम्बन्धों की नेह डोर को


प्रेम मधुरता में बांध सको,


ऐसा तुम कुछ कार्य करो।


अपनत्व के भावों का


ह्रदय से सम्मान करो तुम,


स्नेह नदी के नीर सा


प्रेम- प्रणय व्यवहार करो।


फैला दो हर ह्रदय में प्रेम को


ऐसी स्नेह धारा प्रवाहयमान करो।


स्नेह सलिल सरिता में


जीवन उपवन का श्रृंगार करो।


 


 



विनय साग़र जायसवाल

दोहे- *सावन*


1.


इस सावन के मास में ,फ़रमाना कुछ गौर ।


मेरे उर में आ बसो ,तुम बन के सिरमौर ।।


2.


सावन की बरसात में ,धधक रही है प्यास ।


विरही मन कैसे करे ,अभिनंदन की आस।।


3.


करले मेरी बात पर ,सजनी अब तो गौर ।


इस सावन की आग में ,जला न तन मन और ।।


 


सावन का स्वागत करें ,आओ मिलकर मीत ।


तुम बारिश में नाचना ,मैं गाऊँगा गीत ।।


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


👉एक संशोधन के साथ पुन:


डॉ. निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

विभाजन : एक पीड़ा


       *************†******************


मैं विभाजन की त्रासदी से उपजा नागरिक हूँ


अपने अस्तित्व को ढूँढता हुआ मुसाफिर हूँ


विधना ने कैसा ये क्रूर मज़ाक किया


पौधे को जैसे जड विहीन कर दिया


अपना जो था वो अपना न रहा


बेगानों मै मैं अस्तित्व ढूँढता रहा


इन धर्म-कर्म की बेड़ियों ने


मेरा अपना स्व भी छीन लिया


कभी आबाद था मेरा भी जहाँ


खुशहाल, सबल था परिवार वहाँ


एक आँधी ने सब कुछ नष्ट किया


जीवन को छिन्न- भिन्न कर दिया


सपने जो मेरी आँखों मैं बसे थे


अपने जो साथ हुआ करते थे


विभाजन के हवन मैं चढ़ी उनकी आहूति


सीने मैं सुलगती है वो घटना तभी की


लोगों ने अपने स्वार्थ मैं हमें मिटा डाला


उड़ते हुए परिंदों के परों को कुचल डाला


आज अपना न कोई वजूद है


न कोई दिखता है निशां


मतलबी इंसानों की महत्वाकांक्षा


 का है ये दुष्परिणाम


आज माँगते हैं अधिकार तो हालत ये है


जिंदा हैं सरजमीं पर लेकिन निशां नहीं हैं


हम पेड़ों की वो डालियाँ हैं


जो टूटी एक बार


तो नसीब मैं सिर्फ गलियाँ हैं


थपेड़े हैं वक्त के और जीना क्या है


आँख हो जाती है नम


 सोच ये जीना क्या है


कीजिये कोई जतन कि मैं भी जिंदा हूँ


आकाश मैं उड़ता हुआ


मैं भी स्वच्छंद परिंदा हूँ


 


✍️✍️ डॉ. निर्मला शर्मा


🙏🏻🙏🏻 दौसा राजस्थान


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