सार छंद पर एक मुक्तक - -
डम-डम बम-बम डमरू बाजे,
बाबा जी के द्वारे।
नाच-कूदकर काॅ॑वरिया सब,
लगा रहे जयकारे।
रिमझिम-रिमझम सावन बरसे,
हवा चले पुरवाई।
फिर भी देखो भीड़ लगी है,
गंगा घाट किनारे।
।। राजेंद्र रायपुरी।।
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
सार छंद पर एक मुक्तक - -
डम-डम बम-बम डमरू बाजे,
बाबा जी के द्वारे।
नाच-कूदकर काॅ॑वरिया सब,
लगा रहे जयकारे।
रिमझिम-रिमझम सावन बरसे,
हवा चले पुरवाई।
फिर भी देखो भीड़ लगी है,
गंगा घाट किनारे।
।। राजेंद्र रायपुरी।।
मेरे माधव मेरे मनमोहन
तेरे दर्शन का अभिलाषी
हर पल तेरी बाट निहारूँ
बिन देखे आँखें है प्यासी
सांवरी सूरत हे मुरलीधर
देखत ही सब अघ कटें
भय के बादल छट जावें
सुख आवें सब दुःख हटें
रखना अनुग्रह मेरे प्रभु
प्राणों में बसना बन प्राण
सत्य जीवन हो परिष्कृत
करना स्वामी कल्याण।
श्रीकृष्णाय नमो नमः👏👏👏👏👏🌹🌹🌹🌹🌹
सत्यप्रकाश पाण्डेय
कविता:-
*"मैं"*
"मिलता पग-पग जो मुझसे,
हँस कर उससे मिलता मैं।
मैं न मेरा मुझमें साथी,
क्या-कहूँ यहाँ तुमसे मैं?
पा लेता मंज़िल जग में,
जहाँ न बसता मुझमें मैं।
स्वार्थहीन होता जीवन,
परिचित न होता मेरा मैं।।
मैं-ही-मै है-संग मेरे,
छोड़ सका न जग में मैं।
मिलकर भी न मिला उनसे,
संग जो रहा मेरे मैं।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 18-07-2020
कलयुग की महिमा
कलयुग की हाट बाजार में
भूख गरीबी और फूट
बिना मोल तीनो बिकै
लूट सके तो लूट
चोरों व घूसखोरों पर
नोट हर रोज बरसते हैं
ईमान के मुसाफिर इस जग में
राशन को तरस रहे हैं
कलयुग की हाट बाजार में
भूख गरीबी और फूट
बिना मोल तीनो बिकै
लूट सके तो लूट
जो कल तक थे हमारी,हितैषी
वो जुल्म ढा रहे हैं,चुप रहिये
फक्र ईमान पर जो करते थे
आज पछता रहे हैं,चुप रहिये
कलयुग की हाट बाजार में
भूख गरीबी और फूट
बिना मोल तीनो बिकै
लूट सके तो लूट
न्याय अन्याय की परवाह
कोई नहीं कर रहे हैं
पंच सरपंच या कानून से
कोई बंदा,नहीं डर रहे हैं
हिंदी के भक्त हैं, हम
जनता को यह जताते हैं
लेकिन अपने सुपुत्र को
कान्वेंट स्कूल में पढ़ा रहे हैं
कलयुग की हाट बाजार में
भूख गरीबी और फूट
बिना मोल तीनो बिकै
लूट सके तो लूट
नूतन लाल साहू
*मधु शुभ प्रभात*
ईश्वर के आशीष का पायें सब वरदान।
सकल संपदा की मिले घर में स्वर्णिम खान।।
शान्ति रहे घर में सदा सुखी रहे परिवार।।
सबमें हो सद्भावना खुशियां मिलें अपार।।
मैत्री भाव बना रहे रहे आपसी मेल।
दिनचर्या ऐसी लगें खेल रहे जिमि खेल।।
भोर किरण लाये सदा जीवन में उजियार।
जीवन बगिया में खिले पुष्प भाव का प्यार।।
मस्तानी हो जिन्दगी आनंदित हों लोग ।
तन से मन से हृदय सेभागें सारे रोग।।
सबके प्रति शुभ कामना का हो सदा प्रचार।
एक दूसरे को सभी बाँटें अपना प्यार।।
झलके सबके हृदय में सबके प्रति अपनत्व।
एक दूसरे को सभी देते रहें महत्व।।
दंभ कपट को त्यागकर रहे मनुज उन्मुक्त।
जागृत हों ज्ञानेन्द्रियाँ बहुत दिनों से सुप्त।।
रचनाकार:
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
क्रमशः...*पहला चरण*(श्रीरामचरितबखान)-26
गया सनेस अजुधिया धामा।
तोरे संकर-धनु श्रीरामा ।।
सुनि सनेस दसरथ भे बिह्वल
नैनन नीर बहा बहु छल-छल।।
साथहिं पा सनेस सुभ-मंगल।
राम-बिबाह सीय सँग यहि पल।।
सजी बरात अवध से जाई।
बड़ सोभा अब मिथिला पाई।।
जनक-सुता, जग-जननी सीता।
होंइहैं जगत-पिता परिनीता ।।
अहम रूप जब सिव-धनु टूटा।
ब्रह्म-सक्ति भे मेल अटूटा ।।
असुर-प्रमाद पलायित होई।
सुर-तप-बल नहिं गरिमा खोई।।
श्रद्धा-भक्ति जगत अस आवहिं।
फैलइ दुर्बा जस जल पावहिं।।
जस जल बीच मीन सुख लहहीं।
वैसहिं जगत-संत सुख पवहीं।।
होय नहीं अब जग्य बिधंसा।
जग-कल्यान अहहि प्रभु-मनसा।।
दोहा-जग मा अब सरिता बही, लेइ भक्ति-जल-धार।
जोगी-तपसी-भक्तजन,सबकर बेड़ा पार ।।
चल बरात लइ दसरथ राजा।
मिथिला-नगरी साजि समाजा।।
हय-दल,गज-दल सँग-सँग चलहीं।
पैदल चलत नृत्य जनु करहीं ।।
सजे अस्व-रथ पे दसरथहीं।
तरसहिं देखि जिनहिं सुर सबहीं।।
दूजे रथ पर भरत-सत्रुघन।
लागहिं चले करनि रिपु-मर्दन।।
बाजा-गाजा,साज-समाजा।
नाचैं-गावैं जस ऋतु राजा।।
अगनित लढ़यन भरि-भरि मेवा।
ठहरि-ठहरि सभ करैं कलेवा।।
उछरत-कूदत मग महँ सबहीं।
ढोल-नगाड़ा पीटत चलहीं।।
इत्र-गुलाल पोति बहुरंगा।
उड़त चलैं जस उड़े पतंगा।।
होंहिं बराती भूपति नाईं।
चंचल मन-चित जस लरिकाईं।।
जे केहु मिलै डगर पुरवासी।
छेड़हिं तिनहिं, न दिए निकासी।।
तिन्ह सँग करहिं बिनोदै नाना।
हरकत करैं जानि मनमाना।।
दोहा-नाचत-गावत जब सभें,पहुँचे मिथिला-देस।
तम्मू सहित कनात महँ,ठहरे नूतन भेस।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
ऋषि कुमार शर्मा
पुत्र स्वर्गीय कर्नल पतंजलि शर्मा
जन्मतिथि 29 जून 1956
शिक्षा बी ० काम ०
सेवानिवृत्त प्रबंधक रीडर जनपद न्यायालय बरेली
मूलनिवासी ग्राम गुराई बदायूं
स्थाई निवास 3, ऑफिसर्स कॉलोनी, नकटिया, पोस्ट पी० ए ० सी ० बरेली उत्तर प्रदेश
काव्य यात्रा लगभग 26-27 वर्ष
अभी तक 3 साझा काव्य संग्रह प्रकाशित।
अनेक मंचों से काव्य पाठ, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से काव्य पाठ।
कविता-1
मेरी दीवानगी यूं बढ़ाने लगे, बातों बातों में मुझसे लजाने लगे।
जो लिखे गीत मैंने उन्हें सोचकर, वह वही गीत छुप छुप के गाने लगे।
प्यार में उनके मैं डूब इतना गया, रात दिन वह खयालों में आने लगे।
हुस्न ने उनके जादू सा ऐसा किया, हर तरफ वो ही वो झिलमिलाने लगे।
इस अदा से मिलाई थी मुझसे नजर, आंख के रस्ते दिल में समाने लगे।
जब भी तारीफ में मैंने कुछ कह दिया, सिर झुका कर के वह मुस्कुराने लगे।
उनके दीदार को दिल मचलता है यूं, जैसे आने में उनको जमाने लगे।
मेरी दीवानगी यूं बढ़ाने लगे, बातों बातों में मुझसे लजाने लगे।
ऋषि कुमार शर्मा कवि बरेली उत्तर प्रदेश।
9837753290.
कविता-2
वीर सैनिक
************
है नमन शत शत नमन, वीरों तुम्हें शत शत नमन।
सींचते अपने लहू से देश का प्यारा चमन।
भाई हो तुम भी किसी की मांग का सिंदूर हो,
बूढ़े मां बापों की आंखों के तुम ही तो नूर हो।
खाई है कसमें तुम्हीं ने देश पर बलिदान की,
इसलिए सीमा पर चौकस तुम घरों से दूर हो।
तेज है नानक का तुझ में और मोहम्मद का है बल,
राम की शक्ति है तुझ में तू है ईसा सा निश्चल।
बर्फ की चोटी हो तपती रेत रेगिस्तान की,
तुम लगा देते हो बाजी बढ़कर अपनी जान की।
जिस्म है फौलाद तेरा, भोली सी मुस्कान है,
हर दिशा में अब तुम्हारी वीरता का गान है।
है कोई गुजरात से बंगाल से बिहार से,
है जुदा सबके बदन पर एक सबकी जान है।
ऋषि कुमार शर्मा कवि बरेली।
कविता-3
कभी थे जिसके करीब हम भी
वह दूर हमसे यूं जा रहा है,
कभी मिलाई थी हमसे नजरें,
नजर वह हम से चुरा रहा है।
कभी थे जिसके करीब हम भी।
सदा हमारी मोहब्बतों में,
वफा के उसने थे गीत गाए,
हुआ क्या ऐसा समझ ना पाया,
है बैठा कब से नजर झुकाए।
सदा हमारी मोहब्बतों में।
ऐ चांद तारों जरा तो जाना,
अरी हवाओं संदेशा लाना,
वह रुठा हुआ सा क्यों है,
उसे मनाना उसे मनाना।
ऐ चांद तारों जरा तो जाना।
मेरी यह रातें न कट रही है,
निगाहे मेरी भटक रही हैं,
मैं हूं परेशां बिना तुम्हारे,
उसे बताना उसे बताना।
ऋषि कुमार शर्मा
कविता-4
मेरा दामन तो खुशियों से भर जाएगा
रूह में मेरी तू जो उतर जाएगा
साजे दिल छेड़ दे आज की रात तू
चांद बदली से अपनी निकल आएगा।
अपनी आंखों से मदिरा पिला दे अगर
जैसे जन्नत यहीं पर मैं पा जाऊंगा
हसरतें मेरी सारी निकल जायेंगी
जिंदगी भर को मदहोश हो जाऊंगा।
तेरे दीदार की आस दिल में लिये
तेरी राहों में मैंने जलाए दिये
आ भी जाओ कि बेताब कितना हूं मैं
बांह खोले खड़ा हूं तुम्हारे लिये।
आसमानों से ऊंचा मेरा प्यार है
प्यार से तेरे मेरा ही संसार है
देख कर मुझको सब लोग कहने लगे
तेरे सजदे में तेरा ही दिलदार है।
कविता-5
प्यार में तेरे हद से गुजर जाऊंगा
जिंदगी भर तुझे भूल ना पाऊंगा
मेरे जीवन में आई है तू इस तरह
गीत चाहत के तेरी सदा गाऊंगा।
फूल भंवरे सा तेरा मेरा साथ हो
आंखों आंखों में तेरी मेरी बात हो
अपने सीने से ऐसे लगा ले मुझे
प्यार की उम्र भर यूं ही बरसात हो।
तेरी जुल्फों की बदली में छुप जाऊंगा
प्यार की ऐसी मूरत कहां पाऊंगा
डोर जीवन की मेरी तेरे हाथ है
तू जिधर मोड़ देगी मैं मुड़ जाऊंगा।
रूप ऐसा कहां से यह लाई है तू
चांदनी में नहा कर के आई है तू
आज रब से तुझे मांग ना है मुझे
दिल में ऐसी मेरे यूं समाई है तू।
ऋषि कुमार शर्मा कवि बरेली।
9837753290.
✍🏻
""मनमोहक छवि""
_________________
-----------------------------
तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...
मानो इंद्रधनुष की छायाकृति बनती हो घन में...
मानो कोई पुष्प सुशोभित होता हो उपवन में...
मानो वेद-सृजन करते हो ब्रह्मदेव लेखन में...
मानो अहि शीतलता के वश लिपटा हो चंदन में...
मानो पारस-मणी जड़ी हो युवती के कंगन में...
तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...
तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...
वपुकान्त तुम्हारा देख व्योम-उल्का स्तंभित हो जाता...
घन-शावक भी वर्षा करने को खुद प्रेरित हो जाता...
कर्प देव छविधाम देखकर सम्मोहित हो जाते...
मुख-मंडल की लालिमा देख मन-भानु उदित हो जाते...
*शमानो खुश्क समंदर में नव-जल संचित हो जाता...
सुंदरता वस ओर तेरे मन खुद प्रेषित हो जाता...
तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...
तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...
मुख-मंडल पर घन-केसों का दिखता है ऐसा पहरा...
विधु के ऊपर पूर्णिमा में घन-शावक का पहरा...
नयनों का सत्वर इंद्रजाल नयनों में ऐसे दमके...
मानो बरखा के घोर-तिमिर में चपला की रेखा चमके...
हल्की सी मुस्कान बिखरती रक्त-वर्ण स:अधर में...
मानो कुंज कली खिलती हो भोर-पहर पुष्कर में...
हृदय चित्त में छिपा हुआ वो प्रेम राज खुल जाता...
देख तुम्हें अलसाये मन को नवचेतन मिल जाता...
तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में..
तुम्हें देख कुछ भाव अंकुरित होते हैं इस मन में...
✍🏻 "पुष्कर शुक्ला"
सावन में छायी हरियाली ,
भादों आया हरित बसन ।
राग रंग कुछ मुझे न भाता ,
जब से मथुरा गया किशन।
सपना सा हो गया सभी कुछ,
हुई कहानी सी बातें ।
रह रह उठती हूक हृदय में ,
कौन सुने मन की बातें।
सोच रही थी अपने मन में,
किशन कन्हैया मेरा है ।
नहीं जानती थी गोकुल में,
पंछी रैन बसेरा है ।
सोची बात नहीं होती है,
होनी ही होकर होती।
हंसकर जीना चाह रही थी
लेकिन है आंखें बहती ।
सुषमा दीक्षित शुक्ला
गोवर्धन धारी हे! कान्हा,बन जाओ रखवारे ।
हे! कृष्णा हे! मोहन मेरे तुम बिन कौन उबारे ।
हर कोई है व्यथित यहाँ ,तो कोरोना के मारे ।
थोड़ी सी मुस्कान कन्हैया जग को दे दो प्यारे ।
तुम बिन मेरे कान्हा अब ये नइया कौन उबारे ।
तड़प उठी मानवता अब तो केवल तुम्हे पुकारे ।
हे!यदुनन्दन दया करो अब बिलख रहे हैं सारे ।
तुमने तो पहले भी कितने अनगिन असुर सँहारे।
दुष्ट कंस पूतना वकासुर एक एक कर मारे।
कोरोना का नाम मिटा दो राधा जी के प्यारे ।
हर कोई है व्यथित यहाँ तो कोरोना के मारे।
हे! कान्हा हे !मोहन मेरे तुम बिन कौन उबारे ।
सुषमा दीक्षित शुक्ला
सुनीता सैनी जी की लोकगीत की पुस्तक का लोकार्पण
काव्य रंगोली पटल पर आगामी रविवार 19 जुलाई 2020 को शाम 6 बजे zoom app के माध्यम से एक साहित्यिक वेबिनार का आयोजन किया जायेगा
जिसमें आप सभी का स्वागत है ।सुनीता सैनी गुड्डी जी वर्तमान में बेंगलुरु में रहती है उच्च शिक्षित परिवार और पति पत्नी दोनों ही उत्कृष्ठ कलाकार संगीत मय गीत संगीत प्रस्तोता जिनको याआप लांगो ने दूरदर्शन एवम tv चैनलों पर अक्सर देखा होगा ।उनकी पुस्तक का ऑनलाइन लोकार्पण काव्यरंगोली पटल पर बहुत ही गौरव की बात है।बहुत बड़ा परिचय है कहाँ तक लिखा जाए,सुंदरतम तरन्नुम में लिखे गए आकर्षक गीतों का संग्रहनीय संकलन है याआप सभी नीचे लिखी zoom आई डी से रविवार 6 बजे जुड़कर इस कार्यक्रम को सफल बनाये
https://us04web.zoom.us/j/2676971285?pwd=WmRnRWxrTlpQOW4rWU5QNndmWWN0Zz09
संतोषी दीछित -कानपुर
विधा-अवधी लोकगीत,रचनायें ,हिन्दी गज़ल ,गीत ,मुक्त लेखन,
उपलब्धि ,-तुलसी साहित्य सम्मान ,अतुल माहेश्वरी सम्मान अमर उजाला,कई प्रतिष्ठित संस्थाओं से सम्मान प्राप्त,प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में प्रकाशित रचनायें,वटीवी चैनल पर प्रसारण,
काब्य यात्रा-2वर्ष
बहुत नीक कीन्हो,जो ठेका खोलि दीन्हो,
देश अशान्त रहे ,मूलौ घर मा तो रहे शान्ति
पैइसा कमावेक बरे ,घर की शान्ति छीनि लीन्हो,
बहुत नीक-----
अरे फिर ते झूमत अइहें ,नाली मा गिरिहें
करिहें गाली गलौज,बर्तन बेचिहें ,अबे तो
करउनाहे फैइला है,तुम तो नरक मा ढकेल दीन्हो
बहुत नीक-----
ऐइसेह नहिन खायेक नहिन ठेकान,बन्द हैं
स्कूल औ राशन की दुकान,डाक्टर बैइठ नही
रहे कहूं,मन्दिर के पट बन्द है,पाषाण होइ गे
भगवान,लेकिन दारू तो,भइया है जरूरी
नशेबाजन के है मजबूरी,चाहे देश होइ जावे
बरबाद,लेकिन कउनो फरक नहिन तुमका तुम
कहुक न चीन्हो
बहुत नीक-------
अबै का है अब जमिके फैइली करउना फिर
न रोयओ रोउना,
जिनके छूटि गै रहै,वऊ लेक बरे दारू ,दुकानन
के आगे बिछाये हैं बिछउना
अब का है अब जमिके ऐश है,चाहे फिर ते बरबाद
होइ जाये देश है,कुछ कऱउना बरबाद कर दिहिस
कुछ तुम बरबाद कर दीन्हो,
बहुत नीक ---
काविता 2
शीर्षक-हमार अवधी
-------------------------
हमारि अवधी मा सब कुछ पहियो-2
बाबा पहियो अजिया पहियो
अम्मा पहियो बप्पा पहियो
पहियो भइया भउजी
हमार ----
सांझ पहियो विहाने पहियो पहुड़े रहे
उताने पहियो,पहियो ,पाहुन पनहि
हमार--
चूल्हा पहियो चउका पहियो,तरकारिन
मा लउका ,पहियो,पहियो,पिसान अउ ताठी
हमार---
दइउ का तुम गरजत पहियो बिजुरि का
चमकत पहियो,पहियो रतिया कजरी
हमार---
लढ़िया पहियो ,बैलवा पहियो,घोड़ा पहियो
खड़खड़ा पहियों,पहियो भैंइसी,लैरवा
हमार---
जोन्ढी पहियो ,पनेथी पहियो ,गुल्लू पहियो,
अलउरी पहियो,पहियो जउर केरि जउरी
हमार---
कन्डा पहियो ,चैइला पहियो ,घूरे क्यार
मइला पहियो ,पहियो नापदान ,खरही,
हमार---
नीमी क्यार नीमाहारा पहियो,भूसे क्यार
भुसाहरा पहियो ,पहियो छपरा धन्नी
हमार---
पानी का पनिहारिन पहियो ,चुड़ियन
का चुड़िहारिन पहियो ,पहियोकामन
का नउनी
हमार---
पानी भरै का कलसा पहियो,खीचै कुंआ ते
इंडुरी पहियो,पहियों राब गुड़ पिन्नी
हमार---
बियाव अउर बुल्लउआ पहियो,साथै
क्यार सथउऱा,पहियो,पहियो बन्ना ,बन्नी
हमार--
पहियो बिटेवा अउर लरिकवा ,लड़त
मेहरिया अउर मंसवा ,पहियो ,गुत्थम
गुत्थी ,
हमार ---
सूर पहियो,तुलसी पहियो,आल्हा पहियो
लाला पहियो,पहियो तुम संतोषी ,
हमार----
संतोषी -कानपुर.
कविता 3
विनाश
---------
हे प्रभु जी तुमने धरती पर कैसी लीला रचाई है
चारो तरफ मचा हाहा कारऔर मची तबाही है,
कहीं महामारी का है जोर ,कहीं युद्ध जैसे हालात
कहीं भूख ,बेगारी चीत्कार ,कहीं आ रहे चक्रवात,
अब तो पल पल हम सबको,मर मर कर जीना है ,
डर से भरा वर्ष ,दिन ,और काल महीना है,
जैसा बोया था हम सबने ,वही फसल है काट रहे,
जीवन जीने की ललक में ,अब मौत हैं बांट रहे,
कही आग कही पानी ,तो कहीं भूख है झेल रहे
झूठे आश्वासनों को देकर ,हम सबको है,लूट रहे,
प्रकृति से खिलवाड़ करने का ,यही नतीजा है,
आज तक सृष्टि की माया से ,यहां कौन जीता है,
अब भी समय है ,समझो और सम्भल जाओ,
दिन विनाश के दूर नही् धरती माता झुंझलायी है,
कविता4
बहुत दिनों के बाद मेरा अवधी में श्रंगार गीत पढ़ें
तोरी सांवरि सुरतिया ,लुभाय गयी रे
मोरे जियरा मां ,छुरिया चलाय गयी रे-2
नयना तोरे दुयी कजरारे,
चपल अउ चंचल कारे कारे,
तोरि चितवन बिजुरिया गिराय गई रे
तोरी----
चाल चले तो ,मधुवन ड्वाले,
कोयलिया सी बोली ब्वाले,
तोरि वानी मधुरता सुनाय गयी रे
तोरी-----
केश राशि घन हवे लहरावे,
बारै मा गजरा हवै बल खावै,
तोको मोरी नजरिया लगाये गयी रे,
देखि के तोका नाचै मयूरा,
हरषि उठा झूमै मन मोरा ,
बरखा बूंदन ते प्रीतिया बरसाय गयी रे
तोरी---
संतोषी दीछित-कानपुर
कविता 5
विकल मानवता पुकारे
----------------------------
जिये हम किसके सहारे
विकल मानवता पुकारे,
चहुं ओर तम है,उजियारे
का भ्रम है,बढ़ता वेग मन में
है उद्धेग मन में,कैसे पाये किनारे
विकल-----
निज अभिमान कितना,है अपनत्व
सपना,मित्थ्या संबधों में ,तोड़ना
अनुबन्धों में ,जायें कंहा पे प्यारे,
विकल-----
जंहा देखो तिमिर है,जीवन इक
भंवर है,जो निकला बच गया वो,
सफर में अब समर है,किसे हम
अब निहारें,
विकल-----
चलना काम अपना,जलना काम
अपना,कभी तो मेघ बरसेंगें ,
पड़ेगी फिर फुहारें ,
विकल-----
.
पड़ी जो बूंद सावन में,
हमें फिर याद तुम आये।
तुम्हारे साथ गुजरे पल,
घुमड़ नयनों में फिर छाये।
उठी फिर चाह जीवन में,
हुई इक आह सी मन में।
खुले फिर पृष्ठ यादों के।
जगी फिर आस सावन में।
बही जलधार नैनन में,
हमें फिर याद तुम आये।
तुम्हारे साथ गुजरे पल,
घुमड़ नयनों में फिर छाये।
चमकती चंचला घन में,
खिले हैं फूल उपवन में।
निहारूं जब छटा अद्भुत,
तुम्हे देखूं मैं चितवन में।
सजा फिर स्वप्न जीवन में,
हमें फिर याद तुम आये।
तुम्हारे साथ गुजरे पल,
घुमड़ नयनों में फिर छाये।
लता है झूमती मधुवन,
कोकिला कंठ भीगा वन।
बरसती बूंद जब रिमझिम,
कहां हो तुम बुलाए मन।
जगी फिर भावना मन में,
हमें फिर याद तुम आये।
तुम्हारे साथ गुजरे पल,
घुमड़ नयनों में फिर छाये।
सीमा शुक्ला अयोध्या।
काव्य रंगोली
निशा"अतुल्य"
सैलाब
16.7.2020
आँखों के सैलाब को ,
बांध दिया भीगी पलकों नें
कुछ तो तेरा मेरा सा है
एक दूजे का एक दूजे में ।
जीवन के संघर्षों का
कोई अंत नही होता है,
एक खत्म होता है जब तक
दूजा स्वयं ही आ जाता है ।
रुकना जीवन उद्देश्य नही है,
साँस सदा चलती रहती
ख़्वाब सुनहरे पलते रहते हैं,
चाहे पलकें भीगी रहती ।
नए सवेरे नित आतें हैं
रात सदा ढ़लती रहती
भीगी हो पलकें चाहे
आँख सदा हँसती रहती ।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
आप और मैं (कविता)
क्या आप है?
क्या मैं हूँ?
आप में ही ,मैं हूँ,
मैं ,मे ही आप है।
फ़लक पर पहुँचे तो आप हैं
ख़ाक पर ही रहा तो मैं ही रहा।
कभी आप बड़े रहे,तो कभी मैं बड़ा रहा,
आप से मैं निकला, मैं से आप निकले।
मैं रहा तो दुनिया ने न समझा,
आप बना तो दुनिया को ना समझा।
जब मैं रहा तो अपने जज्बातों को कुचलता गया,
जब आप बना तो लोगों के जज्बातों को कुचल दिया।
फर्क इतना ही रहा,
की मैं, मैं न रहा,
औऱ आप , आप न रहे,
इस आप और मैं के चक्कर में,
हम सिर्फ कठपुतली बन कर रह गये।
शिवानी मिश्रा
(प्रयागराज)
स्नेह संचार(कविता)
स्नेह सलिल सरिता में
जीवन उपवन का श्रृंगार करो,
बस जाने दो कण कण में
प्रेम रस सरिता को
स्नेह का ऐसा संचार करो।
सम्बन्धों की नेह डोर को
प्रेम मधुरता में बांध सको,
ऐसा तुम कुछ कार्य करो।
अपनत्व के भावों का
ह्रदय से सम्मान करो तुम,
स्नेह नदी के नीर सा
प्रेम- प्रणय व्यवहार करो।
फैला दो हर ह्रदय में प्रेम को
ऐसी स्नेह धारा प्रवाहयमान करो।
स्नेह सलिल सरिता में
जीवन उपवन का श्रृंगार करो।
दोहे- *सावन*
1.
इस सावन के मास में ,फ़रमाना कुछ गौर ।
मेरे उर में आ बसो ,तुम बन के सिरमौर ।।
2.
सावन की बरसात में ,धधक रही है प्यास ।
विरही मन कैसे करे ,अभिनंदन की आस।।
3.
करले मेरी बात पर ,सजनी अब तो गौर ।
इस सावन की आग में ,जला न तन मन और ।।
सावन का स्वागत करें ,आओ मिलकर मीत ।
तुम बारिश में नाचना ,मैं गाऊँगा गीत ।।
🖋️विनय साग़र जायसवाल
👉एक संशोधन के साथ पुन:
विभाजन : एक पीड़ा
*************†******************
मैं विभाजन की त्रासदी से उपजा नागरिक हूँ
अपने अस्तित्व को ढूँढता हुआ मुसाफिर हूँ
विधना ने कैसा ये क्रूर मज़ाक किया
पौधे को जैसे जड विहीन कर दिया
अपना जो था वो अपना न रहा
बेगानों मै मैं अस्तित्व ढूँढता रहा
इन धर्म-कर्म की बेड़ियों ने
मेरा अपना स्व भी छीन लिया
कभी आबाद था मेरा भी जहाँ
खुशहाल, सबल था परिवार वहाँ
एक आँधी ने सब कुछ नष्ट किया
जीवन को छिन्न- भिन्न कर दिया
सपने जो मेरी आँखों मैं बसे थे
अपने जो साथ हुआ करते थे
विभाजन के हवन मैं चढ़ी उनकी आहूति
सीने मैं सुलगती है वो घटना तभी की
लोगों ने अपने स्वार्थ मैं हमें मिटा डाला
उड़ते हुए परिंदों के परों को कुचल डाला
आज अपना न कोई वजूद है
न कोई दिखता है निशां
मतलबी इंसानों की महत्वाकांक्षा
का है ये दुष्परिणाम
आज माँगते हैं अधिकार तो हालत ये है
जिंदा हैं सरजमीं पर लेकिन निशां नहीं हैं
हम पेड़ों की वो डालियाँ हैं
जो टूटी एक बार
तो नसीब मैं सिर्फ गलियाँ हैं
थपेड़े हैं वक्त के और जीना क्या है
आँख हो जाती है नम
सोच ये जीना क्या है
कीजिये कोई जतन कि मैं भी जिंदा हूँ
आकाश मैं उड़ता हुआ
मैं भी स्वच्छंद परिंदा हूँ
✍️✍️ डॉ. निर्मला शर्मा
🙏🏻🙏🏻 दौसा राजस्थान
*अतुकांत दोहे-अभिनव प्रयोग*
तुकबन्दी के मोह का करो आज परित्याग।
रचनाएँ करते रहो हो स्वतंत्र आजाद।।
तुकबन्दी की फांस में फंस मत हो वर्वाद।
कर विचार की आरती रख विचार की बात।।
रचनाकार स्वतन्त्रता का पाये आनन्द।
माथापच्ची छोड़कर रचे अनवरत काव्य।।
सुन्दर भावों में बहो लिखते रहो सुलेख।
हो सुलेख से विश्व का युग-युग तक कल्याण।।
स्वरचित सुन्दर काव्य का करते रहना पाठ।
गा-गाकरके नाचना झूम-झूमकर कूद।
अतुकांत दोहे रचो बन ईश्वर सा मस्त।
तुकबन्दीगृह से निकल भरते रहो उड़ान।।
पस्त करो पाबंदियां चूमो गगन अनन्त।
तुकबन्दी की जाल को काट रचो अतुकांत।।
उत्तम शुद्ध विचार के यहाँ समर्थक लोग।
भावों का साहित्य में अब होता सम्मान।।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
गुजारिश
बस इतनी सी गुजारिश है जो गर मानो कहूँ तुमसे ।
मुझको तुमसे मोहब्बत है दूर कैसे रहूँ तुमसे ।।
शिकायत है अगर तुमको हमारी इन शरारत से ।
तो जीवन भर शरारत मैं कभी भी ना करूँ तुमसे ।।
सजाये तुमसे हैं सपने मेरे सपनों में आ जाओ ।
नहीं तुम गैर हो प्रियतम मेरे अपनों में आ जाओ ।।
तुम्हीं को देखकर जीती तुम्हीं पर जान देती हूँ ।
मेरा दिल बनके तुम धड़को धड़कनों में समाँ जाओ ।।
नजर में तुम समाये हो नहीं ये कह सकूँ तुमसे ।
हां मेरी जान बन बैठे दूर ना रह सकूँ तुमसे ।।
किया स्वीकार तुमको है मुझे स्वीकार तुम कर लो ।
एक पल की भी ये दूरी नहीं अब सह सकूँ तुमसे ।।
बस इतनी सी गुजारिश है जो गर मानो कहूँ तुमसे ।
मुझको तुमसे मोहब्बत है दूर कैसे रहूँ तुमसे ।।
स्वरचित.....
शिवांगी मिश्रा
लखीमपुर खीरी
उत्तर प्रदेश
वो चाँद प्यार बड़ा चाँदनी से करता है।
न उतना आदमी भी ज़िन्दगी से करता है।
*****
घड़ी घड़ी मैं तुझे माँगता था दिलबर।
मगर तू इश्क बड़ी सादगी से करता है।
*****
कि कल तलक जिसे परवाह भी नहीं थी मेरी।
दिया सदा वो मुझे शायरी से करता है।
******
किया करे था खुशी से कभी मेरी खातिर।
वो मेजबानी मेरी आजिज़ी से करता है।
******
मुझे जो देख गया भूल नाम जाने का।
वो याद भी मुझे तो दिल्लगी से करता है।
******
सुनीता असीम
१६/७/२०२०
जीवन परिचय
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नाम :
जन्म तिथि : 15 अगस्त 1972
जन्म स्थान : ग्राम -नुआँव
पोस्ट- चुनार
जिला- मिर्जापुर
पति :श्री अनिल कुमार सिंह
शिक्षा : बी. एड. ,एम. ए.
(हिन्दी एवं समाजशास्त्र)
पी-एच. डी. (हिन्दी)
संप्रति : व्याख्याता, सेंट जेवियर्स हाई स्कूल
बिलासपुर (छ. ग.)
कृतियाँ : (1) महादेवी वर्मा के साहित्य
में नारी चिंतन (2013)
(2) भोजपुरी के संस्कारपरक
लोकगीत (2016)
(3) कुछ उनकी कुछ अपनी बातें
काव्य संग्रह (2017)
(4)इंतजार (कहानी संग्रह)
(2019)
(5)मंजिलें और भी हैं ...(2020)
(6)कविता संग्रह(यंत्रस्थ)
संपादन :
(1)प्रेरक सत्य कथाएँ (2017)
(2)डॉ. विष्णु पंकज मीडिया में
(2018)
(3)स्मारिका भाग -9
(छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग)
(2018)
(4)बिलासपुर अंचल की कवयित्रियाँ
(काव्य संग्रह )(2020 )
सम्मान :
(1) “आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी " सम्मान 08 नवम्बर 2009 ।
(2)“श्रेष्ठ शिक्षक "सम्मान 2012
(3)“श्रेष्ठ शिक्षक "सम्मान 2013
(4)“आदर्श शिक्षक" सम्मान 2014
(5)“राष्ट्रभाषा भूषण "पुरस्कार (2016)
(6)“समन्वय रत्न " सम्मान (2016)
(7)“रचना साहित्य” सम्मान (2016)
(8) “लोक साहित्य " सम्मान (2016)
(9)“राष्ट्रभाषा भूषण" पुरस्कार (2016)
(10)“सर्वश्रेष्ठ शिक्षक "सम्मान (2016)
(11)“ छत्तीसगढ़ रत्न " सम्मान (2017)
(12)“काव्य विभूषण दुष्यंत स्मृति "
सम्मान (2017)
(13)“काव्य शिरोमणि माखनलाल चतुर्वेदी
स्मृति "सम्मान (2017)
(14)“राष्ट्रीय सेवा" सम्मान (2017)
(15)“काव्य शिरोमणि रवींद्रनाथ टैगोर
स्मृति "सम्मान (2018)
(16) “महाकवि रामचरण हयारण ‘मित्र’
स्मृति” सम्मान (2018)
(17)“माता सावित्री फुले आदर्श शिक्षक”
सम्मान (2018)
(18)“हिन्दी साहित्य विभूषण ”
की मानद उपाधि (2018)
(18)“साहित्य रत्न ” सम्मान (2019)
(20)“साहित्य गौरव” सम्मान (2019)
(21)“लोकसाहित्य अलंकरण ”सम्मान (2020)
(22)“अटल बिहारी बाजपेयी स्मृति” सम्मान
(2020)
(23)"बिलासा साहित्य "सम्मान
(24) "हिन्दी काव्य गौरव अलंकरण "
विशेष -
बारह राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रों का प्रकाशन ।
शोध संगोष्ठियों में सहभागिता -
-अनेक राष्ट्रीय शोध- संगष्ठियों में शोध -आलेखों का वाचन एवं
सक्रिय सहभागिता ।
- समय- समय पर अनेक पत्र -पत्रिकाओं में
कविता, कहानी, लेख, समीक्षा आदि का प्रकाशन।
पता -राजीव विहार, सीपत रोड
गणेश स्वीट्स के सामने बिलासपुर
छत्तीसगढ़
मोबाइल न. 9907901875,9425280609
Email -dr. singhanita315@gmail.com
Website-www.dranitasingh2631.blogspot.com
YouTube - Dr. Anita Singh
कविता-1
मौत के द्वार
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जिंदगी से करते हुए खींच -तान
अब आ पहुँची हूँ मौत के द्वार।
कुछ ख्वाहिसें अधूरी
कुछ गुफ़्तगु अधूरी
कहना चाहती थी उनसे कुछ अल्फाज़ ।
अब आ ----------------।
जिसका न होना भी
कराता है होने का अहसास
ठहरना चाहती थी दो पल उनके साथ ।
अब आ -----------------।
सब कुछ पीछे छूट रहा है
गहरा रिश्ता भी टूट रहा है
जो जुड़ा नहीं था वो था बहुत आगाध।
अब ------------------।
क्या खोया क्या पाया मैने
जब करने लगी हिसाब
तब भी था प्रिय तेरा ही कोमल एहसास।
अब ------------------।
चुन -चुन कर सहेज लाई हूँ
समृतियों के वंदनवार
पुनः आना तुम लेकर वही उजास।
अब ------------------।
ना गिला, ना शिकवा कोई
ढह गयी नफरत की दीवार
मेरी गलतियों को कर दो प्रभु अब तो माफ।
अब आ------------------।
डॉ. अनिता सिंह
कविता- 2
कोरोना काल में
************
हर तरफ सहमी सी खामोशी
कभी डराया तो कभी अस्थिर बनाया
पर सुकून का फल पाया है मैंने
इस करोना काल में।
तब समय के पीछे मैं भागती थी,
अब समय को मैंने अपनी हसरतों से सजाया है इस कोरोना काल में।
इस लाॅकडाउन में मैंने समय से दोस्ती कर ली है,
वह पल जो मुझे भाव नहीं देते थे
अब मुस्कुराते हैं मेरे समक्ष
इस कोरोना काल।
व्यस्तता में अपनों से बात नहीं कर पाती थी,
अब हर दिन माँ की ममता में डूबती इतराती हूँ इस कोरोना काल में।
ख्वाहिशें अधूरी रह जाती थी बच्चों की ,
अब स्नेह से सजाया है घर की बगिया को
इस कोरोना काल में।
कभी पढ़ती हूँ ,कुछ सृजन भी करती हूँ ,
ख्वाबों की दुनिया में इत्मीनान से गुजरती हूँ
इस कोरोना काल में।
परिवार के साथ खुद की भी देखभाल करती हूँ,
सज संवर कर ख्वाबों को नया आयाम देती हूँ इस कोरोना काल में।
कल तक व्यस्त थे हम संसार के मायाजाल में
अब मिला है अवसर प्रतिभा निखारने का
इस कोरोना काल में ।
माना कि सफर मुश्किल है दहशत में है दुनिया,
पर मैंने अपने अंतर्मन में आत्मविश्वास जगाया है इस कोरोना काल में ।
यह वक्त की आंधी है
एक दिन तो ठहर जाना है इसको ,
नहीं हम सबको डगमगाना है
इस कोरोना काल में।
डॉ . अनिता सिंह
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
मोबाइल नंबर-9907901875
कविता-3
सच -झूठ
झूठ ने एक दिन सच से पूछा
क्यों होती है दुनिया में
सच-झूठ की लड़ाई?
सच ने मासूमियत से जवाब दिया --
जो बोलते हैं ,सच का साथ दो
वही होते हैं झूठ के सगे भाई।
तभी तो सच आज वहशी पंजो में
जकड़ा छटपटा रहा है।
और झूठ!
झूठ ,बगल में खड़े हो
ठहाके लगा रहा है।
सच, सच है इसलिए
पंक्ति में पीछे खड़ा हो
आँसू बहा रहा है।
झूठ, झूठी चापलूसी कर
आगे बढ़ता जा रहा है।
सच के सामने
भले लोग शीश झुकाते हैं ।
पर झूठ के इशारों पर ही तो
कदम बढ़ाते हैं।
सच-झूठ का खेल अनोखा है।
सच के साथ हरदम होता धोखा है।
झूठ आज बेखौफ हो सोता है।
क्योंकि झूठ के साथ
चाटुकारों का आशीर्वाद है।
सच की जीत होती है, यह कहावत
आज सच को करती बेनकाब है।
बड़े -बड़े लोग
झूठ और मक्कारी के साथ हैं।
तभी तो सच आज झूठ के सामने
विवश और लाचार है।
डॉ. अनिता सिंह
राजीव विहार, सीपत रोड
(बिलासपुर छ. ग.)
मो. न. 9907901875
कविता-4
तुम मेरे ही तो हो..
============
अगर मेरी चाहत में तेरी चाहत
नहीं मिली तो क्या हुआ
तुम मेरे ही तो हो।
तेरी नजरों ने मेरी नजरें
नहीं पढ़ी तो क्या हुआ
तुम मेरे ही तो हो।
तेरी धड़कनो ने मेरी धड़कनो का
एहसास नहीं किया तो क्या हुआ
तुम मेरे ही तो हो।
तेरे दिल ने मेरे दिल की आवाज़
नहीं सुनी तो क्या हुआ
तुम मेरे ही तो हो।
जिंदगी की सफर में एक राह पर
साथ नहीं चले तो क्या हुआ
तुम मेरे ही तो हो।
तुम प्यार के बदले मुझे नफरत
करते हो तो क्या हुआ
तुम मेरे ही तो हो।
मैं करती रहूँगी यूँ ही तुमसे मुहब्बत दिल से
नहीं समझते तो क्या हुआ
तुम मेरे ही तो हो।
डॉ .अनिता सिंह
बिलासपुर छत्तीसगढ़
मो न. 9907901875
कविता-5
किताब है तू
इक धूँधला सा आइना है तू
आधा अधूरा सा मेरा ख्वाब है तू।
वक्त का टूटा लमहा है तू
मेरी आँखों में ठहरा सैलाब है तू।
न जुड़ पाये न अलग हुए
उलझा हुआ सा हिसाब है तू।
गुमनामी की भीड़ में गुम गये हो कहीं
जो गुम गया वही खिताब है तू ।
आती है हर पल तेरी खुशबू
तू ही बेला तू ही गुलाब है तू।
बहुत पढ़ने की कोशिश करती हूँ तुझे
पर धूँधले शब्दों की किताब है तू।
डॉ. अनिता सिंह
देवादिदेव महादेव.......
देवादिदेव महादेव,न देखा
कोई तुम जैसा अवढर दानी
आक धतूरे से ही रीझने वाले
तेरी नहीं कोई जग में सानी
सृष्टि हित में पी के हलाहल
नीलकंठ कहलाये स्वामिन
तुमसा कोई न भोले भंडारी
भस्मासुर को दे दिया कंगन
मान रखा भक्तों का तुमने
क्या नहीं किया देवों के देव
हे दिगम्बर हे बाघम्बर शम्भु
शिव सच में तुम हो महादेव
हे चन्द्रमौलि सिर गंग विराजे
ग्रीवा में विषधर शोभित हर
अंग अंग भस्मी से अलंकृत
फिर भी अनुपम रूप मनोहर
सब पर कृपा कैलाशपति की
रहे सत्य पर अनुराग तुम्हारा
हे महेश्वर जग मंगल कर्ता
हर पल रखना खयाल हमारा।
ॐ नमः शिवाय🙏🙏🙏🙏🙏🍁🍁🍁🍁🍁
सत्यप्रकाश पाण्डेय
कविता:-
*"बन जाता भगवान है"*
"मानव हो कर मानव सेवा,
करता जो इन्सान हैं।
मानवता की तो जग में फिर,
बाकी यही पहचान है।।
सेवा भाव संग जीवन में,
चलता जो इन्सान है।
काम,क्रोध,मद् लोभ का यहाँ,
बचता नहीं निशान है।।
सबके सुख की कामना यहाँ,
करता जो इन्सान है।
धरती पर रह कर भी वो तो,
बन जाता भगवान है।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःः 15-07-2020
मन में धीरज धर
घपटे अंधियारी देख के
झन भरमा मन ला तोर
रात पहाही अऊ आही
बड सुग्घर अंजोर
साधना कर जीवन के
कलमस मार भगाबो
पाप ताप संताप ला मन के
धो धो मइल छुड़ाबो
घपटे अंधियारी देख के
झन भरमा मन ला तोर
रात पहाही अउ आही
बड सुग्घर अंजोर
काम क्रोध अउ तिसना के
आंख म पर्दा पड़े हे
इही दानो सेना मन हा
बुद्धि नाश करे हे
घपटे अंधियारी देख के
झन भरमा मन ला तोर
रात पहाही अउ आही
बड़ सुग्घर अंजोर
फुटहा करम ला संवारे के बात
कतेक नीक रही तोर मोर बर
दुःख सुख प्रेम मया के गोठ
भाग संवारे के कर ले कुछ उदीम
घपटे अंधियारी देख के
झन भरमा मन ला तोर
रात पहाही अउ आही
बड़ सुग्घर अंजोर
अन्याय अउ अत्याचार के संग
अब तो जम के लड़ना हे
त्यागन असमंजस दुविधा ला
नवा बिहनिया अवइया हे
घपटे अंधियारी देख के
झन भरमा मन ला तोर
रात पहाही अउ आही
बड़ सुग्घर अंजोर
नूतन लाल साहू
पहले मन के रावण को मारो....... भले राम ने विजय है पायी, तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम रहे हैं पात्र सभी अब, लगे...