सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


         *"अपने"*


"यथार्थ धरातल से जग में,


जूड़ पाते जो जीवन सपने।


सपनो की इस दुनियाँ में भी,


वो तो होते फिर से अपने।।


अपनत्व के अहसास संग फिर,


कुछ पल चलते साथी अपने।


जीवन पथ पर चलते- चलते,


कुछ तो सच होते सपने।।


स्वार्थ की धरती पर देखो,


कैसे-देख रहे वो सपने?


मोह-माया के बंधन संग,


कभी बन सके न वो अपने।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 17-07-2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः...*प्रथम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-25


कुपित भयो ऋषि परसुराम जी।


जब धनु तोरे सिरी राम जी ।।


   तुरत पधारे जहँ धनु टूटा।


   लागहि परसु-क्रोध-घट फूटा।।


पूछहिं पुनि-पुनि धनु को तोरा।


वहि का दिन महि पे अब थोरा।।


    तुरतहि ऊ नर काल समाई।


    चलि न सकै अब कछु चतुराई।।


अब धरि संभु रूप बिकरला।


डारे संग ब्याल उर माला।।


    अइहैं आसुतोष जग माँहीं।


    यहि मा कछु संसय अब नाहीं।।


सिवसंकर करिहैं संहारा।


यही तथ्य जानै जग सारा।।


    करी प्रहार परसु अब मोरा।


   जाइ पहुँचि जग नासहिं छोरा।।


जे केहु यहि मा भंजनहारा।


तुरत उठै निज नाम पुकारा।।


दोहा-कुपित होइ लछिमन उठे,कहन लगे रिसियाय।


        नहीं कोऊ कोमल इहाँ, जे छूए मुरुझाय ।।


        लखन-क्रोध प्रभु राम लखि,भय बिनम्र धरि धीर।


        कर जोरे मुनि तें कह्यौ, मैं दोषी गंभीर ।।


मैं मुनि तव दोषी-अपराधी।


दंड देउ मोंहि समुझि गताधी।।


    मम सँग तव बंधन जग जानै।


    बेद-पुरान-सास्त्र जेहि मानै।।


जित देखहुँ उत प्रभुहिं प्रभावा।


अंड-पिंड-स्वेतज महँ पावा।।


    स्थावर-सुगंध प्रभु-बासा।


   रूप-रंग-मकरंद-निवासा।।


बिनु तव कृपा जीव जग नाहीं।


होहि मरन प्रभु आयसु पाहीं।।


   बरसहिं अवनि जलद घनघोरा।


   चमकहिं चंद्र-सूर्य चहुँ ओरा।।


बिनु तव कृपा राम भगवाना।


होंहि न जग कदापि कल्याना।।


    अस सुनि कथनहि परसुराम कय।


    समुझे भेदहि परम-धाम कय ।।


रूद्र रूप धरि परसु पधारे।


राम रूप धरि जनकहिं तारे।।


   रामहिं भेद परसु जब जाने।


    भय संतुष्ट न जाय बखाने।।


दोहा-परसु गयो रामहिं समझु,राम परसु कै नाम।


        दोनउ रूपहिं एक छबि,परसु कहौ वा राम।।


                 डॉ0हरि नाथ मिश्र


                   9919446372 क्रमशः.....


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

बारिश का मौसम


बारिश का मौसम जब आये मन गाये मल्हार


तितली सा मन उड़ता फिरता देखे स्वप्न हज़ार


 


कण कण में अमृत रस बरसे सरसे पेड़ पहाड़


बारिश की नन्हीं बूंदों से सृजित हुई झनकार


 


तप्त धरा को जीवन देती प्राणदायिनी बरसात


नदी, तालाब, कुँए सब भर गए पानी हुआ अपार


 


मखमली हरियाली फैली चहुँ ओर छाया उल्लास


वन उपवन सब सुघड़ लगे हैं आया सावन मास


 


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


अवनीश त्रिवेदी 'अभय'

एक सामायिक कुण्डलिया


 


जीवन के इस दौर में, संकट बढ़ता जाय।


कैसे सब इससे बचे, सूझै नही उपाय।


सूझै नही उपाय, पेट भूखे है सारे।


महँगाई बढ़ रही, आय है राम सहारे।


कहत 'अभय' समुझाय, हौसला रखिए सब जन।


मानो हर कानून, बचेगा तब ये जीवन।


 


अवनीश त्रिवेदी"अभय"


 


प्रस्तुत है एक सावनी मत्तगयंद सवैया


 


सावन की ऋतु है मनभावन खूब फ़ुहार पड़े मनुहारी।


बादल छाइ रहे नभ में बरसे घनघोर घटा कजरारी।


कंत बिना उर चैन मिले नहि रैन न बीति रही अब भारी।


धीर धरी नहि जाति सुनो अब आइ हरौ दृग प्यास हमारी। 


 


अवनीश त्रिवेदी 'अभय'


सीमा शुक्ला अयोध्या

बंजर धरती पर फिर से हरियाली लाएं


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


कटे कोटि तरु कानन में अब छांव कहां?


पीपल बरगद वाला है अब गांव कहां?


वीरानी बगिया में फिर से वृक्ष लगाएं।


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


सूखे हैं खलियान नहीं खेती से आशा।


डूबा कर्ज किसान नित्य है घोर निराशा।


घन में घेरे घटा चलो सावन बरसाएं।


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


शुद्ध हवा हो नीर धरा सबको बतलाएं।


इस विपदा में एक दूजे का साथ निभाएं।


सभी लगाएं वृक्ष चलो सबको समझाएं।


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


सीमा शुक्ला अयोध्या

घनघोर श्यामल ये घटा


नभ में अलौकिक छा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा,


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


घन बीच चमके दामिनी,


वन में शिखावल नृत्य है।


तरु झूमती है डालियां,


वसुधा मनोरम दृश्य है।


 


झींगुर, पपीहा, मोर, दादुर,


ध्वनि हृदय हर्षा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा,


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


कल कल करें पोखर नदी,


सनसन चले शीतल पवन।


गिरती सुधा रसधार बुझती


तप्त अवनी की अगन।


 


सुरभित धरा खिल खिल उठी


हर पीर मन बिसरा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा,


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


तन को भिगोती बूंद ये,


मन भाव की सरिता बहे।


विरहन नयन में नीर हो,


कविमन सरस कविता कहे।


 


धानी चुनर ओढ़े धरा


सबके हृदय को भा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


सीमा शुक्ला अयोध्या

कृषक-व्यथा 


.................


 


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मैं ,


दर्द मे जीते सदा जो


कुछ कथा उनकी लिखूँ मै ।


 


अन्नदाता एक पल ,करते 


नही विश्राम हो तुम ,


शीत हो या धूप , वर्षा 


नित्य करते काम हो तुम !


 


चीर कर सीना धरा का 


अन्न के मोती उगाते ,


भूख सहकर भी स्वयं नित


इस जहाँ को तुम खिलाते !


 


तुम कृषक हो अन्नदाता


देश का आधार हो तुम !


कर्ज में डूबे हुए , हालात 


से लाचार हो तुम !


 


है टपकती छत न तुमको


रात भर है नींद आती ,


ब्याह बिन बेटी पड़ी घर


है सतत चिंता सताती ।


 


सोचता है कौन अगणित


दर्द जो करते सहन तुम ,


हार जाते हो अगर , सर 


बाँध लेते हो कफन तुम !


 


सुधि नहीं जिसकी किसी को


कुछ दशा उनकी लिखूँ मैं !


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मै !


 


सोचती हूँ क्या लिखूँ जो भी 


यहाँ मजदूर हो तुम ,


बेबसी जीवन तुम्हारा 


हाल से मजबूर हो तुम !


 


ये महल,अट्टालिका अपने 


करों से तुम बनाते ,


जिंदगी अपनी मगर तुम 


झोपड़ी में हो बिताते !


 


है लहू मिश्रित तुम्हारा 


जो बना संसार में है ,


बह रहा तेरा पसीना


खेत या व्यापार में है !


 


नित्य करते कर्म , सहते


दर्द हरपल तन तुम्हारे ,


पल रहे सुख,चैन के सपने 


कहाँ पर मन तुम्हारे !


 


धर्म क्या है , जाति क्या


इसकी नहीं परवाह तुमको ,


पेट भरने के लिए दो 


रोटियों की चाह तुमको !


 


हैं अनेकों स्वप्न लेकिन 


जिन्दगी भर तुम तरसते ,


गोद में माँ की सिमट कर


भूख से बच्चे बिलखते ।


 


हो कहाँ भगवन सुन लो 


हैं बड़ी दारुण व्यथायें ,


तुम हरो क्रंदन जहाँ के 


पीर , दुर्दिन की दशायें !


 


है द्रवित मन आज मेरा 


कुछ तृषा इनकी लिखूँ मैं ,


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मै !


दर्द में जीते सदा जो 


कुछ कथा उनकी लिखूँ मैं !


 


   सीमा शुक्ला अयोध्या।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*दोहा ग़ज़ल*


 


माँ की ममता अप्रतिम नैसर्गिक अनुराग।


दिल के टुकड़े के लिये सहज समर्पण त्याग।।


 


शिशु की सेवा में सतत रहती है लवलीन।


शिशु को निरखत हर समय समझत अति बड़ भाग।।


 


शिशु ही असली संपदा भरता माँ की गोद।


शिशु को सीने से लिये गाती अमृत फाग।।


 


शिशु ही माँ की आत्मा शिशु पालन ही धर्म।


शिशु से खिलती चहकती है माता की बाग।।


 


शिशु अति प्रिय उपहार है ईश्वर का वरदान।


शिशु ही अमृत पर्व है शिशु ही दिव्य सुहाग।।


 


शिशु पा कर माँ अति सुखी उर में नित मधु भाव।


शिशु से माँ शोभावती शिशु प्रति अनुपम राग।।


 


रचनाकार:


डॉ०रामबली मि5हरिहरपुरी


9838453801


प्रिया चारण

अपनेपन का ढोंग रचा है ,


हर मनुष्य समय संग गिरगिट बना है ।


तस्वीर में साथ जो था कल तलक,


आज वो अनजान बन निकला है ।


 


कैसे कहु कोन अपना, कोन पराया ,


यहाँ पैसों के खातिर भाई-भाई का कातिल निलकला है ।


 


प्रिया चारण ,उदयपुर राजस्थान


 


 


 


हर शख़्स को परखना है


संकट में जो साथ न दे,


उसका विश्वास न करना है


बलिदान का समय निकल गया


अब बहिष्कार करना है


 


प्रिया चारण


सुनीता असीम

थे जागे रात भर सोने न पाए।


किसी की याद थी रोने न पाए।


***


जलाया दीप हमने तो वफ़ा का।


रखा बस ध्यान ये बुझने न पाए।


 ***


कई रातें दिनों तक जागते थे।


अंधेरों को मगर धोने न पाए।


 ***


उन्हीं के साथ चलते हर कदम थे।


कदम इक उनके बिन चलने न पाए। 


*** 


बताना चाहते थे बात दिल की।


हुआ जब सामना कहने न पाए।


***


कसक दिल में उठी रोना भी चाहा।


जहाँ का सोचकर रोने न पाए।


***


सुनीता असीम


१८/७/२०२०


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*अष्टावक्र गीता*(दोहे )-5


प्रकृति परे मैं शांत हूँ, ज्ञान विशुद्ध स्वरूप।


रहा मोह संतप्त कह,विस्मित जनक अनूप।।


 


करूँ प्रकाशित विश्व को,और प्रकाशित देह।


मैं ही पूरा विश्व हूँ,कह नृप जनक विदेह।।


 


दर्शन हो परमात्मा,तज तन भौतिक देह।


बिना किए कौशल कभी,मिले न प्रभु का स्नेह।।


 


फेन-बुलबुला-लहर से,नहीं विलग है नीर।


वैसे ही यह आत्मा,व्याप्त विश्व रह थीर।।


 


धागा ही तो वस्त्र है,यदि हो गहन विचार।


ऐसे ही हम मान लें,ब्रह्म सकल संसार ।।


              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


कुं० जीतेश मिश्रा"शिवांगी

समाज


 


*समाज एक शिक्षक है--:*


 


जो हमें सलीके से जीना सिखाता है ।


जो हमें नियमों में रहना सिखाता है ।।


व्यहार बनाना और निभाना सिखाता है ।


समाज कायदे कानून बनाता है ।।


समाज एक शिक्षक है जो हमें । 


हमारी पहचान दिलाता है ।।


 


 


*समाज एक घरौंदा है--:*


 


जो हमें पालता है पोषता है ।


हममें संस्कारों के बीज बोता है ।।


हमें अपनों का महत्व बताता है ।


रिश्तें नातों में बंधना और निभाना सिखाता है ।।


समाज ही है जो हमें हमारा अस्तित्व बताता है ।।


 


*समाज एक आधार--:*


 


जो मानव के जीवन को सही दिशा ले जाता है ।


मानव को समाज का रहन सहन बताता है ।।


समाज ही है जो हमें मान सम्मान दिलाता है ।


समाज ही है वो जो इक अनजानी.. 


जगह पर हमारा आधार बन जाता है ।।


 


*समाज में रीति और रिवाज है ।*


*ज्यों गीतों में सुर और साज है ।।*


*समाज के बिना मानव का अस्तित्व ही नहीं ।*


*समाज ही तो मानवता का आगाज है ।।*


 


 


स्वरचित.....


कुं० जीतेश मिश्रा"शिवांगी"


प्रवीण शर्मा ताल

*खेती*


 


हिदुस्तान में 70 प्रतिशत खेती, 


फिर भी शासन की कैसी मर्जी।


न खाद ,न यूरिया,न उपज मिले,


 अब किसान कहाँ लगाए अर्जी।।


 


 


खेत जोतने में ट्रेक्टर महंगा,


मजदूरों को मजदूरी में तँगा।


फिर भी किसान का कर्तव्य,


खेती ही उसका मुख्य धंधा।


 


खेत जोतने में भले बैल नही ,


तो अपनो को बनाता है बैल।


बनाकर राजदूत गाड़ी को,,, 


करता खेती भले महंगा हो तेल।।


 


धूप की तपन में तन को जलाता,


देखकर बादल को बड़ा मुस्काता।


खेती करना उसकी आदत हो गई


देकर अन्न उसकी इबादत हो गई।


 


 


तब जाकर खेती लहलहाती,


परिश्रम की बूंद में रोटी आती।


अगर सब नोकरी करने लगे,


पेट की भूख को कौन मिटाती।


 


न मकान न कपड़ा, बस यही ,


तन पर कुर्ता और पहने धोती।


गाँव में न कभी बिजली पहुँच,


 झोपड़ी में दियासलाई से ज्योति।


 


समस्याओ का अंबार किसान 


खेती करने वाला ही धोता,


फिर भी खेती कर देश के लिए


 अन्न भंडार भरने हेतु धन बोता।


 


पीड़ित है खेती करने वाला,


बेमौसम को सहन करने वाला।


यह भी कम नही इसकी देश भक्ति,


धरा को चीरकर उपज देने वाला।


 


 


जय जवान जय किसान


 


*✍️प्रवीण शर्मा ताल*


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जननी जन्म भूमि का 


जीवन यह उधार ।


माँ भारती की सेवा मे


जीना मारना जीवन का


परम् सत्य सत्कार।।


 


माँ के चरणों में शीश


चढाऊँ पाऊं जनम जीतनी बार


माँ का स्वाभिमान तिरंगा 


कफ़न हमारा सद्कर्मो


का सौभाग्य।।


 


आँख दिखाए जो भी


माँ को शान में करे गुस्तगी


चाहे जो भी हो चाहे जितना भी


ताकतवर हो रक्त से शत्रु


का तर्पण करूँ मैं बारम्बार।।


 


मेरे पूर्वज है राम ,कृष्ण,


परशुराम अन्यायी अत्याचारी के


काल।


धर्म युद्ध का कुरुक्षेत्र है मेरा


मंदिर ,मस्जिद ,गुरुद्वारा ,चर्च


धर्म युद्ध लिये जीवन का कर्म


क्षेत्र कुरुक्षेत्र का मैदान।।


 


अर्जुन युवा को ओज माँ


भारती की हर संतान।


गांडीव की प्रत्यंचा पंचजनन्य


का शंख नाद।।


 


माँ भारती के नौजवान की 


गर्जना से आ जाए भूचाल


विष्णु गुप्त चाणक्य चन्द्रगुप्त


अखंड माँ भारती के आँचल के


संग्राम संकल्प युग प्रेरणा


स्वाभिमान।।


 


मेरी माँ करुणा ममता की सागर


गागर अमन प्रेम शांति का पाठ


पढ़ाया अमन प्रेम शांति के दुश्मन का काल ढाल का शत्र


शात्र सिखाया।।


 


अपने लालन पालन के पल


प्रतिपल में मान सम्मान से 


जीना मारना सिखलाया।।


 


 माँ भारती की आरती पूजा 


बंदन पल प्रहर सुबह और शाम।


दिन और रात करते वीर सपूत


वीरों को जनने वाली संस्कार


संस्कृति की शिक्षा देने वाली


माँ भारती के लिये पल प्रति न्योछावर करने को प्राण।।


 


माँ भारती के वीर सपूतों के


ना जाने ही कितने नाम


हंसते हंसते माँ की चरणों में


कर दिया खुद के प्राणों का बलिदान।।


 


त्याग तपश्या की भूमि की है यही पुकार उठो मेरे


बीर सपूतो नौजवान।


आज मांगती हूँ मैं तुमसे


देती हूँ कस्मे ।।


 


लाड प्यार


ना हो मेरा बेकार


सीमाओं पे आक्रांता ने दी


है तुमको ललकार ।


 


भरना होगा तुमको हुंकार


गर्जना नहीं सिर्फ करना होगा पौरुषता


पराक्रम से आक्रांता का


मान मर्दन संघार ।।


 


मातृभूमि माँ भारती की


मर्यादा का रखना होगा मान।


अक्क्षुण अभ्यय निर्भय निर्विकार


माँ भारती मातृभूमि के तुम 


दुलार नौजवान।।


 


स्वाभिमान तिरंगा का सर पे बांधे


सफा पगड़ी जीवन मूल्यों उद्देश्यों का कफ़न तिरंगा साथ।।


 


जय माँ भारती जननी जन्म भूमि


के बंदन अभिनन्दन की सांसे धड़कन प्राण।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

गैरों को ज्ञान..........


 


यूं ही बने रहे अनाड़ी


खींचते रहे जिंदगी की गाड़ी


आँखें पथरा गईं मेरी


उन राहों को पाने के लिए


चलना चाहते अक्सर


जिन पर लोग कुछ पाने के लिए


पर हमें न मिली वह


सहज सरल समतल सी राह


निज जिंदगी की भांति


वक्रता लिए करती रहीं गुमराह


क्लिष्ट भी विशिष्ट भी


पल पल हमें भटकाती रहीं


न मुकाम न मंजिल


बिना लक्ष्य हमें चलाती रहीं


और हम है कि बेपथ हुए


न जाने कब से चले जा रहे हैं


खुद को कुछ मिला नहीं


गैरों को ज्ञान दिये जा रहे हैं।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0हरि नाथ मिश्र

त्याग-माहात्म्य-3


देहिं न साप-असीष सुजाना।


साप-असीष कर्म भगवाना।।


  पूजहिं सुजन सास्त्र अनुकूला।


कबहुँ न जाहिं धरम- प्रतिकूला।।


बिनु फल-इच्छा प्रभुहीं पूजैं।


सुजन-करम पूजन नहिं दूजैं।।


    धर्म-अर्थ बिनु मोछहि इच्छा।


    सेवहिं निर्बल सुजन सदेच्छा।।


देहु नाथ मों अन-भंडारा।


मम गृह करउ रतन-अगारा।।


     आइ बिराजउ मम गृह-द्वारे।


     अइस न त्यागी कबहुँ पुकारे।।


सुजन-प्रार्थना अरु उपवासा।


करै सबहिं जन बिगत निरासा।।


     पूजा सुफल होय निष्कामा।


     हिय महँ राखि नाथ छबि-धामा।।


त्यागी-सुजन-प्रार्थना-पूजा।


परहित मात्र औरु नहिं दूजा।।


    सबजन सुख हमरो सुख होई।


    अस बिचार जिसु,त्यागी सोई।।


गुरु-पितु-मातु सदा ते सेवहिं।


प्रभु-प्रसाद सेवा करि लेवहिं।।


    जग-कल्यानहिं निज कल्याना।


    रहइ भाव अस उरहिं सुजाना।।


त्यागी-सुजन बिरत सुख-भोगा।


ओनकर इच्छा बस सुख लोंगा।।


दोहा-निसि-दिन पूजहिं प्रभुहिं कहँ, त्यागी औरु सुजान।


        निज कल्यान न चाहहीं, चाहैं जग - कल्यान ।।


                  डॉ0हरि नाथ मिश्र


                    9919446372


कमल कालु दहिया

...


    " *भोर* "


*--------------------*


 


 


कालिमा का वक्त निगल रहा है,


 भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।


 


 धुमिल होकर डूब रहा


 यह सरोबार सा समंदर,


   आ रहा लालिमा फराते


 सूर्य बनके एक मंजर।


 


 खिलता कमल मुरझाने से झिलमिल रहा है,


भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।


 


    हर शेष तारा खामोश 


शायद इनका यही वक्त था,


   जिसने सबको मोह लिया 


वो चांद किसी और अस्त था।


 


 तपन इतनी पीपल की छांव पिघल रहा है,


 भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।


 


 स्वप्न तनिक विचलित हो


   यह पल किस और गया,


 छूट गई अनकही बातें


    जिंदगी का वो भोर में दोर गया।


 


 पलक से छत पर वह दिनकर खिल रहा है,


  भोर का आखिरी क्षण निकल रहा है।।


 


 


    रचनाकार 


*कमल कालु दहिया*


  जोधपुर, राजस्थान


मदन मोहन शर्मा 'सजल'

*"सपने संजो दिये"*


~~~~~~~~~~


संगदिल में बीज प्यार के बो दिये,


प्यासी अँखियों में सपने संजो दिये,


 


रहते थे कभी अपनी गिरेबां में,


इश्क के सफर में मदहोश खो गये,


 


अनजानी लगती थी राहें जिंदगी,


रास्ते मुहब्बत पहचाने हो गये,


 


खड़ी थी शक दीवारें चारों तरफ,


वफ़ा के दरिया बीच सब डुबो दिये,


 


हकीकत से रूबरू होना है मुश्किल,


प्रेम बारिश हुई अरमां भिगो दिये।


मदन मोहन शर्मा 'सजल'


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सिंधु-वंदना*


हे महाशक्ति!हे महाप्राण!मेरा वंदन स्वीकार करो।


कर दो संभव मैं तिलक करूँ,मेरा चंदन स्वीकार करो।।


           हे महाशक्ति,हे महाप्राण!....


युगों-युगों से इच्छा थी,कब तेरा दीदार करूँ?


नहीं पता चाहत थी कब से तेरा ख़िदमतगार बनूँ?


करूँ अर्चना तत्क्षण तेरी,मेरा क्रंदन स्वीकार करो।।


           हे महाशक्ति,हे महाप्राण!....


ललित ललाम निनाद तुम्हारा महाघोष परिचायक है।


जलनिधि का नीलाभ आवरण चित्त-हर्षक-सुखदायकहै।


करो कृपा मैं आसन दे दूँ, मेरा आसन स्वीकार करो।।


            हे महाशक्ति,हे महाप्राण!....


पूनम का वो चाँद सलोना जब अंबर पे होता है,


तू ले अँगड़ाई ऊपर उठ कर बाहों में भर लेता है।


बँधू प्रेम-धागे से तुझ सँग, मेरा बंधन स्वीकार करो।।


           हे महाशक्ति,हे महाप्राण!....


तू पयोधि-उदधि-रत्नाकर,जल-थल-नभ-चर पालक है।


प्रकृति-कोष. के निर्माता तू,जीवन-ज्योति-विधायक है।


चरण पखारूँ मैं भी तेरा,मेरा सिंचन स्वीकार करो।।


        हे महाशक्ति,हे महाप्राण!....।।


              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


               9919446372


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*सत्यार्थ समर्पण*


 


 सत्य का ही आग्रही बन कर चलो,


सत्य को स्वीकारना ही धर्म है।


 


सत्य पथ से जो नहीं मुख मोड़ता,


सत्य उसका चरण छूता मर्म है।


 


सत्य का संधान जिसका लक्ष्य है,


सत्य से विचलित कभी होता नहीं।


 


सत्य को जो जानता वह सुकवि है,


सत्य को रचता विधाता है वही।।


 


सत्य में जिसका परम अनुराग है,


सत्य का पाता वही बड़ भाग है।


 


सत्य ब्रह्मा विष्णु का शिव रूप है,


सत्य असली धर्मधारी भूप है।।


 


सत्य के कंधे से जो कंधा मिलाता,


धर्म का वह स्तूप है प्रिय धूप है।


 


सत्य का सम्मान करता है मनुज,


सत्य का अपमान करता है दनुज।


 


सत्य की चाहत परम सौभाग्य है,


सत्य से होना विमुख दुर्भाग्य है।


 


सत्य केवल देखता है सत्य को,


चूमता रहता सदा है सत्य को।


 


झूठ की दुनिया उसे अच्छी नहीं,


रात-दिन वह याद करता सत्य को।


 


जागरण में शयन में वह सत्य को,


बात में भी बोल में भी सत्य को।।


 


सत्य बनकर घूमता वह विश्व में,


सत्य का ही जाप करता विश्व में।


 


सत्य की राहें बनाता रात-दिन,


सत्य ध्वज लेकर मचलता विश्व में।


 


सत्य का लेकर विजयरथ दौड़ता,


पाप की अन्तिम जड़ों को रौंदता।।


 


सत्य का आसन सदा सर्वोच्च है,


सत्य ही पुरुषार्थ सच्चा मोक्ष है।


 


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


भरत नायक "बाबूजी

*"मैं वियोग श्रृंगार"* (सरसी छंद गीत)


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विधान - १६ + ११ = २७ मात्रा प्रति पद, पदांत Sl, चार चरण, युगल चरण तुकांतता।


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¶सावन आया बादल छाया, रिमझिम पड़े फुहार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


चैन न आया जिया जलाया, प्रबल वियोग-प्रहार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶कब आओगे सुध लाओगे? राह तकूँ मैं द्वार।


जब आओगे तब आओगे, जोबन लागे भार।।


बतलाओगे पहनाओगे, बाहों का कब हार?


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶महकाओगे चहकाओगे, बोलो कब गुलजार?


सरसाओगे दहकाओगे, कब मैं पाऊँ प्यार?


तरसाओगे या आओगे? सूना मम संसार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶पिय पर वारी सखियाँ प्यारी, झूलें झूला डार।


मैं दुखियारी किस्मत-कारी, दिल पाये न करार।।


भूले सारी कसम हमारी, साजन कर इकरार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶करवट बदलूँ पलटत दहलूँ, हुई नींद से रार।


इत उत टहलूँ मैं हाथ मलूँ, पुरवा बहे बयार।।


कैसे दम लूँ कैसे बहलूँ? काटे कष्ट-कटार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶बरखा रानी पावस पानी, करे धरा शृंगार।


कब है धानी चुनर सुहानी, लाओगे भरतार??


मैं दीवानी रुत मस्तानी, चढ़ा प्रीति का ज्वार।


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


 


¶मन को पागूँ भ्रम में भागूँ, कर सोलह शृंगार।


विरहा रागूँ दामन दागूँ, हर शृंगार उतार।।


'नायक' जागूँ मूरत लागूँ, 'मैं वियोग शृंगार।'


तन सरसाया मन अकुलाया, हिय पिय करे पुकार।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह,रायगढ़,(छ.ग.)


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एस के कपूर "श्री हंस*" *बरेली।*

*खबरदार भू माफिया चीन।*


*अपनी सीमा में रहना।।।।।*


 


अब इस चीन का गरूर


चकनाचूर करना है।


बता दें चीन तुझको अब


दुनिया से डरना है।।


फैला कर कॅरोना का


वाइरस दुनिया में।


तुझको अपनी करनी का


फल अब भरना है।।


 


विस्तारवादी भू माफिया


के नाम से बदनाम है।


समझ रहा कि दुनिया तेरे


इरादों से अनजान है।।


अपनी शक्ति में हो गया


है तू अब जैसे अंधा।


पर याद रहे कि हमारा


तैयार तीर कमान है।।


 


तुझको समुद्र जमीं आसमां


हर जगह चाट डालेंगें।


घुसा अगर सीमा के अंदर


तो फिर काट डालेंगें।।


कर रहा कोशिश तू बनने


को आर्थिक बादशाह।


कसम माँ भारती कीअबकी


तुम्हें हम फाड़ डालेंगें।।


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।*


मोब 9897071046


                     8218685464


राजेंद्र रायपुरी।

सार छंद पर एक मुक्तक - -


 


डम-डम बम-बम डमरू बाजे,


                            बाबा जी के द्वारे।


नाच-कूदकर काॅ॑वरिया सब,


                           लगा रहे जयकारे।


रिमझिम-रिमझम सावन बरसे,


                            हवा चले पुरवाई।


फिर भी देखो भीड़ लगी है,


                            गंगा घाट किनारे।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मेरे माधव मेरे मनमोहन


तेरे दर्शन का अभिलाषी


हर पल तेरी बाट निहारूँ


बिन देखे आँखें है प्यासी


 


सांवरी सूरत हे मुरलीधर


देखत ही सब अघ कटें


भय के बादल छट जावें


सुख आवें सब दुःख हटें


 


रखना अनुग्रह मेरे प्रभु


प्राणों में बसना बन प्राण


सत्य जीवन हो परिष्कृत


करना स्वामी कल्याण।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः👏👏👏👏👏🌹🌹🌹🌹🌹


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


 


       *"मैं"*


"मिलता पग-पग जो मुझसे,


हँस कर उससे मिलता मैं।


मैं न मेरा मुझमें साथी,


क्या-कहूँ यहाँ तुमसे मैं?


पा लेता मंज़िल जग में,


जहाँ न बसता मुझमें मैं।


स्वार्थहीन होता जीवन,


परिचित न होता मेरा मैं।।


मैं-ही-मै है-संग मेरे,


छोड़ सका न जग में मैं।


मिलकर भी न मिला उनसे,


संग जो रहा मेरे मैं।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


 sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 18-07-2020


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