प्रिया चारण उदयपुर राजस्थान

शीर्षक-जीवन जीने का सलीका


 


सुबह माँ की मीठी आवाज़ से


सुप्रभात हो सूर्य नमस्कार से


 


फिर एक सुबह का भ्रमण हो


जिसमे चारो दिशाओ का गमन हो


 


मंदिर में प्रातः काल नित् जाऊ


मस्जिद पर भी दुआ माँग आऊ


गुरुद्वारे का लंगर भी चख आऊ


चर्च की मोमबत्ती से जीवन जग मगाऊ


 


अपनी सोच को उच्च कोटि का बतलाऊ


पर आचरण में तनिक भी अभिमान न दिखलाऊ


 


अपनी माँ के चरणों मे जन्नत तलाशता


अपने काम पर हर रोज़ निकल जाऊ


 


बुजुर्गों से आशीर्वाद पाता,


में अपने वतन को न्योछावर हो जाऊ


 


ना कुबेर का खजाना बनाऊ


न नेता का ठिकाना बनाऊ


जितना मिले उसमे खुशी से जीवन बिताऊँ


 


सीधा सरल जीवन जीने का सलीका


में सबको बतलाऊँ


 


प्रिया चारण


उदयपुर राजस्थान


दयानन्द त्रिपाठी"दया"*

बढ़ गयी है पीर ऐसी


जख़्म सारे दिख रहे


पाप हो या पुण्य हो


हम सभी तो पीस रहे।


 


कौन कहता है तूँ बच गया,


देखने में एक-दूसरे के मजे हैं सध गया।


 


आज मानव स्वयं जिंदा लाश हो


टूट कर सभी अभिलाषाएं गिर रहे


आंधियों के तेज ध्वनि से 


अब दीप जीवन के बुझ रहे।


 


रात क्या और दिन क्या सब एक हैं,


बाग मुर्गे की भोर में नहीं लालिमा में लग रहे।


 


देख दया नयनों का ओट लिए


अंश्रू अवसाद में छलक रहे


चारों ओर फैले हलाहल को पी


सत्य शिव को समर्पित कर रहे।


 


सोचता हूँ यदि स्वप्न सारे सुख दे गये,


चीख कर क्या हुआ टूट कर बिखर गये।


 


*रचना - दयानन्द त्रिपाठी"दया"*


 


लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


संजय जैन (मुम्बई

*खो न जाँऊ कही*


विधा : गीत


 


खो न जाँऊ कही,


अपने के बीच से।


इसलिए लिखता हूँ,


गीत कविता आपके लिए।


ताकि बना रहे संवाद,


हमारा आप के साथ।


और मिलता रहे सदा,


आप सभी का आशीर्वाद।।


 


दिल में जो आता है,


मैं वो लिख देता हूँ।


अपनी भावनाओं को,


आपके सामने रखता हूँ।


कुछ को पसंद आती है,


कुछ का विरोध सहता हूँ।


पर अपनी लेखनी को,


मैं निरंतर रखता हूँ।।


 


शिकायते है कुछ लोगों की,


तुम विषय पर नहीं लिखते हो। 


कृपा विषय पर लिखे,


और ग्रुप में प्रेषित करें।


पर बनावटी विचारों को,


मैं नहीं लिख पाता हूँ।


और उनकी आलोचनाओ का,


शिकार हो जाता हूँ।।


 


उम्र बीत जाती है,


अपनी छवि बनाने में।


यदि कदम डगमगा जाए,


तो रूठ अपने जाते है।


इसलिए मन की सुनकर,


मैं गीत कविताएं लिखता हूँ।


तभी तो यहां तक,


आज पहुंच पाया हूँ।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


17/07/2020


सत्यप्रकाश पाण्डेय

आँखें


 


मेरी आँखों की ज्योति 


तुमही आँखों का श्रृंगार


रहो सामने आँखों के


दे दो इतना सा उपहार


 


भर जाती हैं खुशियां


आँखें हो जाती खुशहाल


आँखों में पड़ती आँखें


मुझे लगता हुआ निहाल


 


जब दृष्टिपात होता है


झड़ते है आँखों से फूल


स्नेह की बारिश पाके


सारे गम जाता मैं भूल


 


छिपता न आँखों में


कटुता छिपी है या प्यार


आँखें नहीं सामान्य


है इनमें विस्तृत संसार।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


भरत नायक "बाबूजी

चाणक्य नीति -----


(हिंदी दोहानुवाद)


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■बहूनां चैव सत्तवानां रिपुञ्जयः । वर्षान्धाराधरो मेधस्तृणैरपि निवार्यते॥


भावार्थ :


शत्रु चाहे कितना बलवान हो; यदि अनेक छोटे-छोटे व्यक्ति भी मिलकर उसका सामना करे तो उसे हरा देते हैं । छोटे-छोटे तिनकें से बना हुआ छप्पर मूसलाधार बरसती हुई वर्षा को भी रोक देता है । वास्तव में एकता में बड़ी भारी शक्ति है ।


 


★१- शक्ति संगठन में बड़ी, होती रिपु की हार।


ज्यों छत-तिनका रोक ले, वर्षा-तेज प्रहार।।


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■त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् । कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः॥


भावार्थ :


दुष्टों का साथ छोड़ दो, सज्जनों का साथ करो, रात-दिन अच्छे काम करो तथा सदा ईश्वर को याद करो । यही मानव का धर्म है ।


 


★२- साथ सुजन रह तज कुजन, निशिदिन करो सुकर्म।


करो ईश-आराधना, यही मनुज का धर्म।।


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■जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारे वस्तुशक्तितः॥


भावार्थ :


जल में तेल, दुष्ट से कहि गई बात, योग्य व्यक्ति को दिया गया दान तथा बुद्धिमान को दिया ज्ञान थोड़ा सा होने पर भी अपने- आप विस्तार प्राप्त कर लेते हैं ।


 


★३- तेल-वारि खल को कथन, पात्र ज्ञान उपकार।


रहकर मात्रा अल्प भी, पा जाते विस्तार।।


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■उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी । तादृशी यदि पूर्वा स्यात्कस्य स्यान्न महोदयः ॥


भावार्थ :


गलती करने पर जो पछतावा होता है, यदि ऐसी मति गलती करने से पहले ही आ जाए, तो भला कौन उन्नति नहीं करेगा और किसे पछताना पड़ेगा ?


 


★४- गलती करके बाद में, होता पश्चाताप।


कर्म-पूर्व यह सोच लो, होगी उन्नति आप।।


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■दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये । विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा॥


भावार्थ :


मानव-मात्र में किभी भी अहंकार की भावना नहीं रहनी चाहिए बल्कि मानव को दान, तप, शूरता, विद्वता, शुशीलता और नीतिनिपुर्णता का कभी अहंकार नहीं करना चाहिए । यह अहंकार ही मानव मात्र के दुःख का कारण बनता है और उसे ले डूबता है ।


 


★५- दान-शौर्य-तप-ज्ञान पर, कर न मनुज अभिमान।


कारण बनता दुःख का, अहंकार ही जान।।


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अनुवादक - 


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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एस के कपूर "श्री हंस"* *बरेली।*

*श्री गणेश गजानन।*


*करें स्तुति पावन।।*


 


श्री गणेश लंबोदर


विघ्नहर्ता भागे डर


अब रोज़ पूजा कर


*रिद्धि सिद्धि दो पुत्र*


 


श्री गणेश विनायक


हर दुःख सहायक


स्तुति बनाती लायक


*पहले पूजें मूरत*


 


दयावंत एकदंत


इनसे आरंभ अंत


पूजा करें साधु संत


*प्रातः देखें सूरत*  


 


मोदक का लागे भोग


शंकर पार्वती योग


प्रथम पूजते लोग


*पूर्ण हो जरूरत*


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।*


मोब। 9897071046


                    8218685464


नंदलाल मणि त्रिपाठी

जिंदगी एहसास अजीब


दोस्त दुश्मन के बीच गुजराती


दोस्त भी कभी नाम के।


मौका मतलब कस्मे वादे


दुश्मन कभी दोस्त दोस्ती का


मतलब समझाते।।


 


दोस्त कभी दुश्मन तो कभी 


दुश्मन दोस्त बन जाते।


जिंदगी में यकीन का सवाल


किस पे यकीन करे।


जिंदगी के सफ़र में मतलब का


हर रिश्ता हर रिश्ता कीमत का


सौदा।।


 


मौका परस्त इंसान जाँबाज


सरीखा।


मौके मतलब की नज़ाकत से 


नहीं वाक़िब इल्म का इंसान


नाकाबिल् जैसा।।   


 


कामयाब काबिल जिंदगी


मतलब मौके की तलाश


मौके पर मतलब का 


हथौड़ा।।


 


क़ोई मरता है तो मारने दो


कोई जलता है तो जलने दो


जिंदगी के जज्बे को जज्बा ही


रौंदता।।


 


खुद के दर्द गम की फ़िक्र नहीं


करती जिंदगी।


गैर की खुशियों के कफ़न ओढती


 मोहब्बत भी तिजारत धंधा।।


 


मोहब्बत से पहले ही जिंदगी


एक दूजे को फायदे नुक्सान


के तराजू पे तोलता।।


 


जिन्दंगी मतलब का जज्बा


जूनून खुदगर्जी की आशिक


अक्स अश्क की हद हसरत का मसौदा।।


 


मुश्किल है एक अदद मिलना


जिंदगी के सफ़र का सच्चा रिशता।


नफरत का दौर इस कदर हावी


नफ़रत में ही मोहब्बत का यक़ीन


जिंदगी के कारवां में भीड़ बहुत


फिर भी जिंदगी तनहा तनहा।।


 


ऊंचाई की परछाई यादो का सफ़र


तनहा ।


दुनियां के शोर में जिंदगी


अंधी दौड़ में भागती खुद के तलाश में खुद का पता पूछती


थक हार कर खुद का एतवार


कर लेती।।


 


चंद लम्हों में टूटता तिलस्म 


जहाँ रेविस्तान वहां बाढ़ 


जहाँ बाढ़ वहां रेगिस्तान।।


 


कभी बाढ़ शैलाभ तूफ़ान में


डूबती कभी रेगिस्तान में एक


बूँद को तरसती भटकती।।


 


कभी कश्ती लड़खाड़ाती भंवर


में फंस जाती डूबता इंसान संग


डूबने का करता इंतज़ार।।


 


किनारे पे खड़ी जिंदगियां सिर्फ


खुदा का करती गुहार कुछ कह


सुन लेती काश ऐसा होता काश


वैसा होता की चर्चा आम ।।


 


खुद के डूबने का अंदाज़ा ही नहीं


कब लड़खड़ा जायेगी हर उस जिंदगी की कश्ती जिसने ख्वाब 


बहुत सजाये हकीकत में जिंदगी


के लम्हे गवाए ।।                   


 


एक दूजे का खीचने में टांग जिन्दा जिंदगी को समझ के लाश।।


 


जिंदगी के लम्हे चार ,दो दूसरों के


लिये गढ्ढा खोदने में गुजर गए दो


खुद डूबने के डर की भय आह।।


 


जिंदगी में वक्त बहुत कभी कमबख्त वक्त की मार काश कश्मकश का अफ़सोस ।।


 


जिंदगी जागीर नहीं जिंदगी होश 


हद हकीकत का फलसफा जिंदगी उसी की जिसने जिया


दुनियां के दरमियान ।।           


 


ख़ुशी गम


में भी संजीदगी का संजीदा इंसान


का इल्म ईमान।।


 


क्योकि किस्सा है आम जिंदगी के सफर में गुजर जाते जो मुकाम


वो फिर नहीं आते ।।             


 


चाहे तो लो


गुनगुना गुजरा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा हाफिज खुदा तुम्हारा


की जिंदगी सरेआम।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

चांद सितारों सी ज्योति 


जगमग किया है जीवन


हे युगलरूप ह्रदय भूप


तुमसे बड़ा न कोई धन


 


मोरमुकुट सिर शोभित


प्रभु कर में मुरली साजे


संत हिय के सौम्य हार


कण कण में छवि राजे


 


अवर्चनीय अनुरागनीय


अनन्त अभेद अभिराम


अमरपति अभिनन्दनीय


आजानु बाहु अभिधाम


 


ललित कीर्ति ललना की


सत्य लोचन करे निहाल


लिए लालिमा लाल की


सुख देते रहो नन्दलाल।


 


श्री युगलरूपाय नमो नमः💐💐💐💐💐🙏🙏🙏🙏🙏


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


नूतन लाल साहू

अब तो चेत जा


महाकाल के डमरू बाजत हे


कोरोना ह अडबड़ बाढ़त हे


देख ले तैहर,ध्यान लगाके


कहना बरजना ल काबर नइ मानत हस


कर ले मौन साधना,सावधानी के


आशा के ज्योति जलही, अंतस मन मा


मास्क लगाके, दुरी बनाके चल


नइ मानस त, तहु लाइन लगाले


महाकाल के डमरू बाजत हे


कोरोना ह अडबड़ बाढ़त हे


देख ले तैहर,ध्यान लगाके


कहना बरजना ल,काबर नइ मानत हस


सोचत सोचत जिनगी हा जाहरा होगे


अंधियारी परगे आंखी मा


रेंगत रेंगत भुला भुला गेव


कलयुग के किस्सा बताये रीहिस मोला


महाकाल के डमरू बाजत हे


कोरोना ह अडबड़ बाढ़त हे


देख ले तैहर,ध्यान लगाके


कहना बरजना ल काबर नइ मानत हस


गुरुवर गुरुवर हे गुरुवर


तिही हमन के भाग विधाता


तिही हमन के जीवन दाता


तिही हावस परमेश्वर


जिहा प्रभु राम के ममा गांव हे


जिहा माता कौशल्या के मइके हे


अइसन महतारी,मोर छत्तीसगढ़ मा


हमर जिनगी ल, बचाले तै हर


महाकाल के डमरू बाजत हे


कोरोना ह अडबड़ बाढ़त हे


देख ले तैहर,ध्यान लगाके


कहना बरजना ल,काबर नइ मानत हस


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

दोहा छंद पर एक मुक्तक- - 


🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹


सावन आया आ चलें, 


                     हम भोले के द्वार।


गंगा जल अर्पित करें,


                    और करें जयकार।


दर्शन तो शायद मिले, 


                मंदिर हैं सब बंद,


कोरोना का है कहर,


                चहु दिश अबकी बार।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


         *"अपने"*


"यथार्थ धरातल से जग में,


जूड़ पाते जो जीवन सपने।


सपनो की इस दुनियाँ में भी,


वो तो होते फिर से अपने।।


अपनत्व के अहसास संग फिर,


कुछ पल चलते साथी अपने।


जीवन पथ पर चलते- चलते,


कुछ तो सच होते सपने।।


स्वार्थ की धरती पर देखो,


कैसे-देख रहे वो सपने?


मोह-माया के बंधन संग,


कभी बन सके न वो अपने।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 17-07-2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः...*प्रथम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-25


कुपित भयो ऋषि परसुराम जी।


जब धनु तोरे सिरी राम जी ।।


   तुरत पधारे जहँ धनु टूटा।


   लागहि परसु-क्रोध-घट फूटा।।


पूछहिं पुनि-पुनि धनु को तोरा।


वहि का दिन महि पे अब थोरा।।


    तुरतहि ऊ नर काल समाई।


    चलि न सकै अब कछु चतुराई।।


अब धरि संभु रूप बिकरला।


डारे संग ब्याल उर माला।।


    अइहैं आसुतोष जग माँहीं।


    यहि मा कछु संसय अब नाहीं।।


सिवसंकर करिहैं संहारा।


यही तथ्य जानै जग सारा।।


    करी प्रहार परसु अब मोरा।


   जाइ पहुँचि जग नासहिं छोरा।।


जे केहु यहि मा भंजनहारा।


तुरत उठै निज नाम पुकारा।।


दोहा-कुपित होइ लछिमन उठे,कहन लगे रिसियाय।


        नहीं कोऊ कोमल इहाँ, जे छूए मुरुझाय ।।


        लखन-क्रोध प्रभु राम लखि,भय बिनम्र धरि धीर।


        कर जोरे मुनि तें कह्यौ, मैं दोषी गंभीर ।।


मैं मुनि तव दोषी-अपराधी।


दंड देउ मोंहि समुझि गताधी।।


    मम सँग तव बंधन जग जानै।


    बेद-पुरान-सास्त्र जेहि मानै।।


जित देखहुँ उत प्रभुहिं प्रभावा।


अंड-पिंड-स्वेतज महँ पावा।।


    स्थावर-सुगंध प्रभु-बासा।


   रूप-रंग-मकरंद-निवासा।।


बिनु तव कृपा जीव जग नाहीं।


होहि मरन प्रभु आयसु पाहीं।।


   बरसहिं अवनि जलद घनघोरा।


   चमकहिं चंद्र-सूर्य चहुँ ओरा।।


बिनु तव कृपा राम भगवाना।


होंहि न जग कदापि कल्याना।।


    अस सुनि कथनहि परसुराम कय।


    समुझे भेदहि परम-धाम कय ।।


रूद्र रूप धरि परसु पधारे।


राम रूप धरि जनकहिं तारे।।


   रामहिं भेद परसु जब जाने।


    भय संतुष्ट न जाय बखाने।।


दोहा-परसु गयो रामहिं समझु,राम परसु कै नाम।


        दोनउ रूपहिं एक छबि,परसु कहौ वा राम।।


                 डॉ0हरि नाथ मिश्र


                   9919446372 क्रमशः.....


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

बारिश का मौसम


बारिश का मौसम जब आये मन गाये मल्हार


तितली सा मन उड़ता फिरता देखे स्वप्न हज़ार


 


कण कण में अमृत रस बरसे सरसे पेड़ पहाड़


बारिश की नन्हीं बूंदों से सृजित हुई झनकार


 


तप्त धरा को जीवन देती प्राणदायिनी बरसात


नदी, तालाब, कुँए सब भर गए पानी हुआ अपार


 


मखमली हरियाली फैली चहुँ ओर छाया उल्लास


वन उपवन सब सुघड़ लगे हैं आया सावन मास


 


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


अवनीश त्रिवेदी 'अभय'

एक सामायिक कुण्डलिया


 


जीवन के इस दौर में, संकट बढ़ता जाय।


कैसे सब इससे बचे, सूझै नही उपाय।


सूझै नही उपाय, पेट भूखे है सारे।


महँगाई बढ़ रही, आय है राम सहारे।


कहत 'अभय' समुझाय, हौसला रखिए सब जन।


मानो हर कानून, बचेगा तब ये जीवन।


 


अवनीश त्रिवेदी"अभय"


 


प्रस्तुत है एक सावनी मत्तगयंद सवैया


 


सावन की ऋतु है मनभावन खूब फ़ुहार पड़े मनुहारी।


बादल छाइ रहे नभ में बरसे घनघोर घटा कजरारी।


कंत बिना उर चैन मिले नहि रैन न बीति रही अब भारी।


धीर धरी नहि जाति सुनो अब आइ हरौ दृग प्यास हमारी। 


 


अवनीश त्रिवेदी 'अभय'


सीमा शुक्ला अयोध्या

बंजर धरती पर फिर से हरियाली लाएं


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


कटे कोटि तरु कानन में अब छांव कहां?


पीपल बरगद वाला है अब गांव कहां?


वीरानी बगिया में फिर से वृक्ष लगाएं।


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


सूखे हैं खलियान नहीं खेती से आशा।


डूबा कर्ज किसान नित्य है घोर निराशा।


घन में घेरे घटा चलो सावन बरसाएं।


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


शुद्ध हवा हो नीर धरा सबको बतलाएं।


इस विपदा में एक दूजे का साथ निभाएं।


सभी लगाएं वृक्ष चलो सबको समझाएं।


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


सीमा शुक्ला अयोध्या

घनघोर श्यामल ये घटा


नभ में अलौकिक छा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा,


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


घन बीच चमके दामिनी,


वन में शिखावल नृत्य है।


तरु झूमती है डालियां,


वसुधा मनोरम दृश्य है।


 


झींगुर, पपीहा, मोर, दादुर,


ध्वनि हृदय हर्षा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा,


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


कल कल करें पोखर नदी,


सनसन चले शीतल पवन।


गिरती सुधा रसधार बुझती


तप्त अवनी की अगन।


 


सुरभित धरा खिल खिल उठी


हर पीर मन बिसरा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा,


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


तन को भिगोती बूंद ये,


मन भाव की सरिता बहे।


विरहन नयन में नीर हो,


कविमन सरस कविता कहे।


 


धानी चुनर ओढ़े धरा


सबके हृदय को भा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


सीमा शुक्ला अयोध्या

कृषक-व्यथा 


.................


 


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मैं ,


दर्द मे जीते सदा जो


कुछ कथा उनकी लिखूँ मै ।


 


अन्नदाता एक पल ,करते 


नही विश्राम हो तुम ,


शीत हो या धूप , वर्षा 


नित्य करते काम हो तुम !


 


चीर कर सीना धरा का 


अन्न के मोती उगाते ,


भूख सहकर भी स्वयं नित


इस जहाँ को तुम खिलाते !


 


तुम कृषक हो अन्नदाता


देश का आधार हो तुम !


कर्ज में डूबे हुए , हालात 


से लाचार हो तुम !


 


है टपकती छत न तुमको


रात भर है नींद आती ,


ब्याह बिन बेटी पड़ी घर


है सतत चिंता सताती ।


 


सोचता है कौन अगणित


दर्द जो करते सहन तुम ,


हार जाते हो अगर , सर 


बाँध लेते हो कफन तुम !


 


सुधि नहीं जिसकी किसी को


कुछ दशा उनकी लिखूँ मैं !


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मै !


 


सोचती हूँ क्या लिखूँ जो भी 


यहाँ मजदूर हो तुम ,


बेबसी जीवन तुम्हारा 


हाल से मजबूर हो तुम !


 


ये महल,अट्टालिका अपने 


करों से तुम बनाते ,


जिंदगी अपनी मगर तुम 


झोपड़ी में हो बिताते !


 


है लहू मिश्रित तुम्हारा 


जो बना संसार में है ,


बह रहा तेरा पसीना


खेत या व्यापार में है !


 


नित्य करते कर्म , सहते


दर्द हरपल तन तुम्हारे ,


पल रहे सुख,चैन के सपने 


कहाँ पर मन तुम्हारे !


 


धर्म क्या है , जाति क्या


इसकी नहीं परवाह तुमको ,


पेट भरने के लिए दो 


रोटियों की चाह तुमको !


 


हैं अनेकों स्वप्न लेकिन 


जिन्दगी भर तुम तरसते ,


गोद में माँ की सिमट कर


भूख से बच्चे बिलखते ।


 


हो कहाँ भगवन सुन लो 


हैं बड़ी दारुण व्यथायें ,


तुम हरो क्रंदन जहाँ के 


पीर , दुर्दिन की दशायें !


 


है द्रवित मन आज मेरा 


कुछ तृषा इनकी लिखूँ मैं ,


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मै !


दर्द में जीते सदा जो 


कुछ कथा उनकी लिखूँ मैं !


 


   सीमा शुक्ला अयोध्या।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*दोहा ग़ज़ल*


 


माँ की ममता अप्रतिम नैसर्गिक अनुराग।


दिल के टुकड़े के लिये सहज समर्पण त्याग।।


 


शिशु की सेवा में सतत रहती है लवलीन।


शिशु को निरखत हर समय समझत अति बड़ भाग।।


 


शिशु ही असली संपदा भरता माँ की गोद।


शिशु को सीने से लिये गाती अमृत फाग।।


 


शिशु ही माँ की आत्मा शिशु पालन ही धर्म।


शिशु से खिलती चहकती है माता की बाग।।


 


शिशु अति प्रिय उपहार है ईश्वर का वरदान।


शिशु ही अमृत पर्व है शिशु ही दिव्य सुहाग।।


 


शिशु पा कर माँ अति सुखी उर में नित मधु भाव।


शिशु से माँ शोभावती शिशु प्रति अनुपम राग।।


 


रचनाकार:


डॉ०रामबली मि5हरिहरपुरी


9838453801


प्रिया चारण

अपनेपन का ढोंग रचा है ,


हर मनुष्य समय संग गिरगिट बना है ।


तस्वीर में साथ जो था कल तलक,


आज वो अनजान बन निकला है ।


 


कैसे कहु कोन अपना, कोन पराया ,


यहाँ पैसों के खातिर भाई-भाई का कातिल निलकला है ।


 


प्रिया चारण ,उदयपुर राजस्थान


 


 


 


हर शख़्स को परखना है


संकट में जो साथ न दे,


उसका विश्वास न करना है


बलिदान का समय निकल गया


अब बहिष्कार करना है


 


प्रिया चारण


सुनीता असीम

थे जागे रात भर सोने न पाए।


किसी की याद थी रोने न पाए।


***


जलाया दीप हमने तो वफ़ा का।


रखा बस ध्यान ये बुझने न पाए।


 ***


कई रातें दिनों तक जागते थे।


अंधेरों को मगर धोने न पाए।


 ***


उन्हीं के साथ चलते हर कदम थे।


कदम इक उनके बिन चलने न पाए। 


*** 


बताना चाहते थे बात दिल की।


हुआ जब सामना कहने न पाए।


***


कसक दिल में उठी रोना भी चाहा।


जहाँ का सोचकर रोने न पाए।


***


सुनीता असीम


१८/७/२०२०


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*अष्टावक्र गीता*(दोहे )-5


प्रकृति परे मैं शांत हूँ, ज्ञान विशुद्ध स्वरूप।


रहा मोह संतप्त कह,विस्मित जनक अनूप।।


 


करूँ प्रकाशित विश्व को,और प्रकाशित देह।


मैं ही पूरा विश्व हूँ,कह नृप जनक विदेह।।


 


दर्शन हो परमात्मा,तज तन भौतिक देह।


बिना किए कौशल कभी,मिले न प्रभु का स्नेह।।


 


फेन-बुलबुला-लहर से,नहीं विलग है नीर।


वैसे ही यह आत्मा,व्याप्त विश्व रह थीर।।


 


धागा ही तो वस्त्र है,यदि हो गहन विचार।


ऐसे ही हम मान लें,ब्रह्म सकल संसार ।।


              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


कुं० जीतेश मिश्रा"शिवांगी

समाज


 


*समाज एक शिक्षक है--:*


 


जो हमें सलीके से जीना सिखाता है ।


जो हमें नियमों में रहना सिखाता है ।।


व्यहार बनाना और निभाना सिखाता है ।


समाज कायदे कानून बनाता है ।।


समाज एक शिक्षक है जो हमें । 


हमारी पहचान दिलाता है ।।


 


 


*समाज एक घरौंदा है--:*


 


जो हमें पालता है पोषता है ।


हममें संस्कारों के बीज बोता है ।।


हमें अपनों का महत्व बताता है ।


रिश्तें नातों में बंधना और निभाना सिखाता है ।।


समाज ही है जो हमें हमारा अस्तित्व बताता है ।।


 


*समाज एक आधार--:*


 


जो मानव के जीवन को सही दिशा ले जाता है ।


मानव को समाज का रहन सहन बताता है ।।


समाज ही है जो हमें मान सम्मान दिलाता है ।


समाज ही है वो जो इक अनजानी.. 


जगह पर हमारा आधार बन जाता है ।।


 


*समाज में रीति और रिवाज है ।*


*ज्यों गीतों में सुर और साज है ।।*


*समाज के बिना मानव का अस्तित्व ही नहीं ।*


*समाज ही तो मानवता का आगाज है ।।*


 


 


स्वरचित.....


कुं० जीतेश मिश्रा"शिवांगी"


प्रवीण शर्मा ताल

*खेती*


 


हिदुस्तान में 70 प्रतिशत खेती, 


फिर भी शासन की कैसी मर्जी।


न खाद ,न यूरिया,न उपज मिले,


 अब किसान कहाँ लगाए अर्जी।।


 


 


खेत जोतने में ट्रेक्टर महंगा,


मजदूरों को मजदूरी में तँगा।


फिर भी किसान का कर्तव्य,


खेती ही उसका मुख्य धंधा।


 


खेत जोतने में भले बैल नही ,


तो अपनो को बनाता है बैल।


बनाकर राजदूत गाड़ी को,,, 


करता खेती भले महंगा हो तेल।।


 


धूप की तपन में तन को जलाता,


देखकर बादल को बड़ा मुस्काता।


खेती करना उसकी आदत हो गई


देकर अन्न उसकी इबादत हो गई।


 


 


तब जाकर खेती लहलहाती,


परिश्रम की बूंद में रोटी आती।


अगर सब नोकरी करने लगे,


पेट की भूख को कौन मिटाती।


 


न मकान न कपड़ा, बस यही ,


तन पर कुर्ता और पहने धोती।


गाँव में न कभी बिजली पहुँच,


 झोपड़ी में दियासलाई से ज्योति।


 


समस्याओ का अंबार किसान 


खेती करने वाला ही धोता,


फिर भी खेती कर देश के लिए


 अन्न भंडार भरने हेतु धन बोता।


 


पीड़ित है खेती करने वाला,


बेमौसम को सहन करने वाला।


यह भी कम नही इसकी देश भक्ति,


धरा को चीरकर उपज देने वाला।


 


 


जय जवान जय किसान


 


*✍️प्रवीण शर्मा ताल*


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जननी जन्म भूमि का 


जीवन यह उधार ।


माँ भारती की सेवा मे


जीना मारना जीवन का


परम् सत्य सत्कार।।


 


माँ के चरणों में शीश


चढाऊँ पाऊं जनम जीतनी बार


माँ का स्वाभिमान तिरंगा 


कफ़न हमारा सद्कर्मो


का सौभाग्य।।


 


आँख दिखाए जो भी


माँ को शान में करे गुस्तगी


चाहे जो भी हो चाहे जितना भी


ताकतवर हो रक्त से शत्रु


का तर्पण करूँ मैं बारम्बार।।


 


मेरे पूर्वज है राम ,कृष्ण,


परशुराम अन्यायी अत्याचारी के


काल।


धर्म युद्ध का कुरुक्षेत्र है मेरा


मंदिर ,मस्जिद ,गुरुद्वारा ,चर्च


धर्म युद्ध लिये जीवन का कर्म


क्षेत्र कुरुक्षेत्र का मैदान।।


 


अर्जुन युवा को ओज माँ


भारती की हर संतान।


गांडीव की प्रत्यंचा पंचजनन्य


का शंख नाद।।


 


माँ भारती के नौजवान की 


गर्जना से आ जाए भूचाल


विष्णु गुप्त चाणक्य चन्द्रगुप्त


अखंड माँ भारती के आँचल के


संग्राम संकल्प युग प्रेरणा


स्वाभिमान।।


 


मेरी माँ करुणा ममता की सागर


गागर अमन प्रेम शांति का पाठ


पढ़ाया अमन प्रेम शांति के दुश्मन का काल ढाल का शत्र


शात्र सिखाया।।


 


अपने लालन पालन के पल


प्रतिपल में मान सम्मान से 


जीना मारना सिखलाया।।


 


 माँ भारती की आरती पूजा 


बंदन पल प्रहर सुबह और शाम।


दिन और रात करते वीर सपूत


वीरों को जनने वाली संस्कार


संस्कृति की शिक्षा देने वाली


माँ भारती के लिये पल प्रति न्योछावर करने को प्राण।।


 


माँ भारती के वीर सपूतों के


ना जाने ही कितने नाम


हंसते हंसते माँ की चरणों में


कर दिया खुद के प्राणों का बलिदान।।


 


त्याग तपश्या की भूमि की है यही पुकार उठो मेरे


बीर सपूतो नौजवान।


आज मांगती हूँ मैं तुमसे


देती हूँ कस्मे ।।


 


लाड प्यार


ना हो मेरा बेकार


सीमाओं पे आक्रांता ने दी


है तुमको ललकार ।


 


भरना होगा तुमको हुंकार


गर्जना नहीं सिर्फ करना होगा पौरुषता


पराक्रम से आक्रांता का


मान मर्दन संघार ।।


 


मातृभूमि माँ भारती की


मर्यादा का रखना होगा मान।


अक्क्षुण अभ्यय निर्भय निर्विकार


माँ भारती मातृभूमि के तुम 


दुलार नौजवान।।


 


स्वाभिमान तिरंगा का सर पे बांधे


सफा पगड़ी जीवन मूल्यों उद्देश्यों का कफ़न तिरंगा साथ।।


 


जय माँ भारती जननी जन्म भूमि


के बंदन अभिनन्दन की सांसे धड़कन प्राण।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

गैरों को ज्ञान..........


 


यूं ही बने रहे अनाड़ी


खींचते रहे जिंदगी की गाड़ी


आँखें पथरा गईं मेरी


उन राहों को पाने के लिए


चलना चाहते अक्सर


जिन पर लोग कुछ पाने के लिए


पर हमें न मिली वह


सहज सरल समतल सी राह


निज जिंदगी की भांति


वक्रता लिए करती रहीं गुमराह


क्लिष्ट भी विशिष्ट भी


पल पल हमें भटकाती रहीं


न मुकाम न मंजिल


बिना लक्ष्य हमें चलाती रहीं


और हम है कि बेपथ हुए


न जाने कब से चले जा रहे हैं


खुद को कुछ मिला नहीं


गैरों को ज्ञान दिये जा रहे हैं।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


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