अतुल पाठक "धैर्य"

क्यों है प्रिय शिव को सावन का महीना? (आलेख)


 


सावन में भगवान शिव की आराधना का अपना ही महत्व है। इस महीने भोलेनाथ की पूजा करने से सबकी मनोकामना पूरी होती है।


सम्पूर्ण भारत देश में सावन के महीने को एक महापर्व की तरह मनाया जाता है। यह रीति सदियों से चली आ रही है। भगवान शिव की पूजा करने का सर्वोत्तम माह है सावन का माह। इसलिए भगवान शिव को श्रावण का देवता भी कहा जाता है। पूरे उत्साह से भरे सभी भक्तजन सावन महोत्सव मनाते हैं। विशेषकर सावन के सोमवार में शिव जी की पूजा पूरी श्रद्धाभाव और विधिविधान से की जाती है। 


आओ जानें भगवान शिव को क्यों है प्रिय सावन का महीना? ऐसा माना जाता है कि सावन भगवान शिव का अतिप्रिय महीना है। इसके पीछे का रहस्य यह है कि दक्ष पुत्री माता सती ने अपने जीवन को त्याग कर कई वर्षों तक श्रापित जीवन जीया। उसके बाद उन्होंने हिमालय पर्वतराज के घर जन्म लिया और पार्वती कहलायीं।


पार्वती ने शिव जी को पाने के लिए पूरे सावन के महीने घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनकी मनोकामना पूरी की। अपनी भार्या से मिलाप के कारण भगवान शिव को सावन का महीना अत्यंत प्रिय है।


यही कारण है कि इस माह कुँवारी कन्या अच्छे वर प्राप्ति के लिए सोमवार को शिव जी का व्रत रखकर प्रार्थना करती हैं।


पौराणिक कथनानुसार सावन के महीने में ही समुद्र मंथन हुआ था जिससे निकले हलाहल विष को पीकर भगवान शिव ने सम्पूर्ण सृष्टि को इस विष से बचाया था। इसलिए भगवान शिव का एक नाम नीलंकठ भी है। इसके बाद देवताओं ने उन पर जल डाला था इसी कारण शिव अभिषेक में जल का विशेष महत्व है। 


@


जनपद हाथरस(उ.प्र.)


मोब-7253099710


अतुल पाठक "धैर्य"

कारगिल विजय दिवस(आलेख)


--------------------------------------


26 जुलाई 1999 एक ऐसा दिन था जिसे हरगिज़ भुलाया नहीं जा सकता क्योंकि उस दिन भारत ने कारगिल में पाकिस्तान से युद्ध में फ़तेह हासिल की थी।


इस युद्ध में भारत के वीर जांबाज़ सैनिकों ने खराब परिस्थितियों में भी निर्भीक होकर दुश्मनों से जमकर लोहा लिया और विजय प्राप्त की।


भारत और पाकिस्तान की सरहदों पर स्थित कारगिल दुनिया के सबसे ऊँचें और खराब मौसम परिस्थितियों वाला युद्ध क्षेत्र है। 1999 में हुआ युद्ध भारत और पाकिस्तान के टाइगर नामक पहाड़ी पर हुआ था जो कि श्रीनगर से 205 किलोमीटर की दूरी पर है। टाइगर नामक पहाड़ी पर मौसम बहुत ठंडा होता है जो कि रात में -45 डिग्री तक पहुंच जाता है। भारत ने निर्भीक होकर उनका सामना किया और जल्द ही बढ़ते भारतीय फौज़ के दबाव और अमेरिका के दबाव के कारण पाकिस्तान को अपनी फौज़ को पीछे हटाना पड़ा। इसके साथ ही भारतीय सेना ने उन इलाक़ों पर फिर से कब्ज़ा कर लिया जिस पर पाकिस्तान कब्ज़ा करने की कोशिश कर रहा था।


भारतीय फौज़ द्वारा किये गए इस संघर्ष को ऑपरेशन विजय नाम दिया गया और यह युद्ध आख़िरकार कुल 2 महीनों बाद 26 जुलाई 1999 को खत्म हुआ और भारत ने इसमें विजय पाई। तभी से यह दिन कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। 


कारगिल युद्ध एक ऐसी घटना है जो सदैव हर नागरिक के स्मृति पटल पर रहती है। हमारी भारतीय सेना एक माँ की तरह है जो निस्वार्थ भाव से काम करती है और बदले में कुछ नहीं मांगती है। कारगिल युद्ध में हमारी सेना के इस वीर बलिदान को कभी भी भुलाया जा सकता और यह हमें हमेशा प्रेरित करेगा। 


इस वीर बलिदान की कड़ी में एक नाम कैप्टन बत्रा का भी आता है जिन्होंने अपने जूनियर साथी लेफ्टिनेंट नवीन की जान बचाने के लिए अपनी जान भी कुर्बान कर दी।


जब कैप्टन बत्रा अपने कंधे पर उठाकर जूनियर लेफ्टिनेंट नवीन को सुरक्षित जगह पर ले जा रहे थे तभी पाक सैनिकों ने उन पर जानलेवा हमला बोल दिया जिससे एक गोली उनके सीने को भेदती हुई निकल गई। खून से लथपथ काया होने के बावज़ूद भी उन्होंने अपने साथी नवीन को सुरक्षित जगह पर पहुँचाया और पाक सेना के पाँच सैनिकों को मौत के घाट उतारा और खुद ने भारत माँ की आन में शहादत दे दी। कैप्टन बत्रा ने 10 पाक सैनिकों को मारकर पॉइंट 5140 चोटी पर तिरंगा फहराया। कैप्टन बत्रा की शहादत के बाद कैप्टन रघुनाथ(वर्तमान में रिटायर्ड कैप्टन) ने कमान संभाली और साथियों सहित दुश्मनों पर हमला बोला और पाक सेना के ग्रुप कमांडर इम्तियाज़ खां समेत 12 पाक सैनिकों को मौत के घाट उतारकर बर्फ़ीली चोटी पर भी तिरंगा फहराया।


यह थी वीर जांबाज़ सैनिकों की कारगिल फ़तेह की अमरकहानी। 


कारगिल विजय दिवस पर आओ मिलकर उन वीर शहीदों को नमन करें जिन्होंने देशप्रेम में अपना बलिदान दे दिया। 


जय हिन्द जय हिन्द की सेना 


@


जनपद हाथरस(उ.प्र.)


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार कामिनी गोलवलकर

कामिनी गोलवलकर 


पिता का नाम :-स्वा ए एल गोलवलकर 


जन्म तिथि :- 26 अगस्त 


जन्म स्थान :- ग्वालियर 


शिक्षा :- एम ए इतिहास , with computer, संगीत 


अभिरुचि :- साहित्य कविता कहानी लिखना 


सम्प्रति :-


प्रकाशित कृतियाँ :- 


सम्मान एवं उपलब्धियां :-श्री डी पी चतुर्वेदी सम्मान ,सहोदरी सोपान3


प्रकाशन :- देनिक भास्कर ,ज्ञान बोध ,समर सलिल ,काव्यांजली, काव्य. रागोली ,यूथ एजेंडा ,ई प्रायास पत्रिका ,विहँग प्रीति साझा संग्रह सहोदरी सोपान 3 कथा ,सहोदरी सोपान रचना , गीतिका मनोरम ,देनिक मेट्रो ,हमारा मेट्रो l 


प्रसारण :-


दूरभाष :-7770985164


 


ई मेल :- kamini kg7@gmail.com


 


पूरा पता "-157 सिंधी कालोनी कम्पू लशकर ग्वालियर मध्य प्रदेश 


Kamini Golwalkar 157Sindhi colony Lashkar Gwalior Madhya Pradesh 


pin code 474001


 


1)


माँ ही धरती माँ ही अम्बर


माँ होती है पालनहार


 


माँ से ममता सीखी हमने


माँ से सीखा है सत्कार


 


माँ ही धीरज माँ ही संयम


माँ से मिलता हमको प्यार


 


माँ ही दिल है माँ ही धड़कन


माँ ही है ईश्वर का प्यार


 


माँ ही पूरव माँ ही पशचिम


माँ ही उत्तर- दक्षिण का द्वार


 


माँ से ममता माँ से माया


माँ सृष्टि की रचनाकार.


 


(2)


बहुत प्यारी लगती है बेटियाँ


बहुत दुलारी लगती है बेटियाँ


बेटियाँ लागे सारा संसार हमे


बहुत न्यारी लगती है बेटियाँ


 


अपनी होती परछाई है बेटियाँ


इस धरा की अच्छाई है बेटियाँ


अहिल्या तारा मंदोदरी कुन्ती


द्रोपदी सभी कहलाई है बेटियाँ


 


धरा से गगन तक छाई है बेटियाँ


विश्व के पटल लहराई है बेटियाँ


कल्पना और सुनीता आंतरिक्ष


की दो परिया कहलाई है बेटियाँ


 


चारो और चर्चा में छाई है बेटियाँ


पीवीसिंधु ये पदक लाई है बेटियाँ


लक्ष्मीबाई दुर्गावती और इंद्रा गांधी


ने विश्व में पहचान बनाई है बेटियाँ


 


देश में खुशहाली यु लाई है बेटियाँ


सावन की घटा सी छाई है बेटियाँ


बधाई की शहनाइयां बजाई देश ने


उमड़ घुमड़ ख़ुशिया लाई है बेटियाँ


 


(3)


सुबह शाम करता बेलदारी


भोजन कि फिर भी मारा मारी


मिलती नही उसे उचित पगार


पल पल उसकी ये लाचारी


 


श्रमिकों के श्रम का हो सम्मान


सदा रखे खान पान का ध्यान


सब उनके हक की करते बात


यही सब उनका बड़ा सम्मान


 


देश के विकास में श्रमिको का दान 


इनकी मेहनत से ही देश का कल्यान 


पर्वतो को चीर के पथ बना डाले सारे 


सब मिलकर रखो सदा इनका ध्या


 


(4)


 


क्यों मोन तुम्हारा प्यार


नही इक़रार नही इंकार


कुछ ती करो इजहार


क्यों मोन तुम्हारा प्यार


 


मेरे मन के मीत 


मेरे दिल की प्रीत 


मेरा पहला गीत तुम हो


 


मेरा पहला प्यार


दिल की बहार तुम हो


सावन श्रंगार मन की


बहार तुम हो


 


बस कहदो तुम एक बार


मुझे हो गया तुम से प्यार


मुझे हो गया तुम से प्यार


क्यों मोन तुम्हारा प्यार


 


(5)


 


मुश्किल में मुस्काना सीखो


दर्दे दिल तुम गुनगुना सीखो


गमो का दौर आता जाता है 


तुम चट्टानों से लड़ना सीखो


 


फूलो से महकना सीखो


चिड़ियों से चहकना सीखो


लदी हुई डालियों से सदा


सदा झुककर रहना सीखो


 


 सूरज से सदा पावंदीे सीखो


कोयल से मीठी वाणी सीखो


ऋतुओ ने सिखाया हमको


मुश्किल में मुस्काना सीखो


 


फूलो की कोमलता सीखो


चाँद सी शीतलता सीखो


जीवन के पल पल को


खुशियों से भरना सीखो


 


हाथो को बार बार धोना सीखो


मुह पे मास्क लगाना सीखो


एक मीटर की सामाजिक दूरी 


लेन देन की तकरार न सीखो


 


(6)


 


बाबुल मैं छोटी चिड़िया तेरे आँगन में


एक कटोरी दाना पानी रखना आँगन में


भोर के साथ सफर पे निकल जाऊँगी


साझ ढ़ले घर दाना पाऊँगी आँगन में


 


बाबुल छोटे छोटे बच्चे मेरे नीड़ में


बाबुल जी खेलते है वो सदा भीड़ में


साप छछूंदर से उनको को है बचना


अपना जीवन बिताना तेरे नीड़ में


 


तिनके तिनके से नीड़ सजाया धूप में


आराम मिलते ही जरा सी,सी छाँव में


अपने बच्चों के साथ गीत गुनगुनाया


कलरव भी खूब मचाया हमने भोर में



 


 


 


 डॉ. निर्मला शर्मा  दौसा राजस्थान

यादों के साये


 उमड़ते -घुमडते बादलों के बीच 


टपकती बूंदों से सुमधुर बनते हैं गीत 


पक्षियों का सुनाई देता कर्णप्रिय संगीत 


सावन की घटा में याद आती है पुरानी रीत 


सबका आंगन में मिलकर सेवइयां बनाना


 थकान हो अगर तो चाय का प्याला थमाना


 ना कोई शिकायत ना शिकवा किसी से


 वह सावन के गीतों का मिल गुनगुनाना 


वो झूलों की पीगें बड़ी याद आए 


मोहल्ले की सब लड़कियां साथ गाएं


 वो रिश्तो का जमघट कहीं छँट गया है


 सावन या भादों का मंजर कहीं घट गया है 


वो यादों के साए बनिए स्मृतियां हैं 


नहीं अब वो आंगन नहीं रीतियां हैं


 हैं खाली सी सड़कें सूनी वीथियां हैं


 डॉ. निर्मला शर्मा


 दौसा राजस्थान


सुषमा दीक्षित शुक्ला

फूल से खुशबू कभी जुदा नहीं होती।


 


 पाकीज़गी प्यार की बेखुदा नहीं होती ।


 


है अगर कशिशे मोहब्बत रूह की।


 


 तो बाखूदा ये गुमशुदा नहीं होती।


 


 जंग ए उल्फत में अगर हार हो मुमकिन।


 


 इससे बेहतर तो इश्क की अदा नहीं होती ।


 


प्यार की राह में अगर मौत भी आए ।


 


 इससे प्यारी तो यार की कदा नहीं होती ।


 


फूल से खुशबू कभी जुदा नहीं होती ।


 


पाकीज़गी प्यार की बेखुदा नहीं होती ।


 


हो हासिले इश्क ,नहीं मुमकिन हरदम ।


 


 सुलह जज्बात से करके संभल जा ऐ ! दिल।


 


 टूटते दिल में वैसे भी कोई सदा नहीं होती।


 


 फूल से खुशबू कभी जुदा नहीं होती ।


 


पाकीज़गी की प्यार की बेख़ुदा नहीं होती ।


 



संगीता राजपूत " श्यामा


जन्म व जन्मस्थान - 12 मई 


कानपुर ( उत्तर प्रदेश ) 


संप्रति- लेखिका, कवयित्री 


प्रकाशित पुस्तके- श्यामला, माह विहंगम और नव पल्लव 


 


संपादन- मधुकर ( काव्य संग्रह) 


जय घोष ( कहानी संग्रह )


 


मान देश का करते हैं 


-------------------------- 


 


 


 


दुष्कर हो राहे जितनी 


छल छन्दो से डरते हैं 


दो सूखी रोटी खाकर 


मान देश का करते हैं ---- 


 


रूखा तन छाती भूखी 


पाटी में जय घोष लिखे 


करता गर्वित माटी को 


धूली जैसा मोल दिखे 


सर मेरे छप्पर की छत 


कुंदन सा मन रखते है 


दो सूखी-------- 


 


पावन धरणी पुण्यधरा 


रक्त समर्पित है तुम को 


धङक रही सांसे मेरी 


रक्षा का वचन है हम को 


बालक है हम भारत के 


भाव समर्पण लिखते हैं 


दो सूखी----------- 


 


सुन ऐ घाती भारत के 


क्यो विष भू पर घोलो तुम 


पीङा में है मानवता 


मत नागफनी तोलो तुम 


जर्जर धन गिरते आंसू 


हदय वीर का रखते है 


दो सूखी------------ 


 


 


✍ संगीता राजपूत 'श्यामा '


 


वेदना लेखनी की 


---------------------- 


 


बंध गयी लेखनी भी अब 


शब्द भी परतंत्र है 


चितकारते है वाक्य भी 


ओज का सूरज छिपा जा रहा 


 


तिलमिलाती अभिव्यक्ति कहती 


बोल भङकाऊ है हौकते 


रूंध गया गला सच का 


छलछंद नित रचा जा रहा 


 


स्तंभ चौथा कहते तुमको 


हो रहे अब मौन क्यो ? 


ऐ कलम, अब भी जा 


छोङ कर खोखली लाचारिया 


उदघोष करने को, वर्तमान है बुला रहा 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार गीता चौबे "गूँज" राँची झारखंड

गीता चौबे "गूँज" 


निवास : राँची, झारखंड


जन्मतिथि : 11 अक्तूबर


पति : श्री सुरेंद्र कुमार, अधीक्षण अभियंता 


शिक्षा :  स्नातकोत्तर (मगध विश्वविद्यालय)


साझा -संकलन : 


1 नीलाम्बरा


2 काव्य-शिखा


3 बज़्में हिंद 


एकल कविता-संग्रह : 


क्यारी भावनाओं की 


विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता, लघुकथा, आलेख, यात्रा-वृतांत आदि प्रकाशित होते रहना। प्रकाशित एकल कविता-संग्रह "क्यारी भावनाओं की" 


ब्लॉग : मन के उद्गार


कई मंचों द्वारा सम्मान एवं प्रशस्तिपत्र


विरासत में मिले साहित्यिक माहौल में मन के उद्गार को शब्दों में पिरोने की ललक, किन्तु पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन के बाद सक्रिय रूप से लेखन


ई-मेल : choubey.geeta@gmail.com


 


1. मन का पपीहा 


             *************


चल रे पपीहरा... 


पी कहां-पी कहां 


का मधुर गीत 


सुना दे जरा... 


पपीहे की पीहू पीहू


कोयल की कूहू कूहू


दिल में प्रेम को


तरंगित कर दे 


वहीं किसी विरहिणी के 


मन में तड़पन भर दे 


वही पपीहा 


वही पी कहां 


पर मन की सूरत 


तय करे 


मिलन या विरह 


जीवन की भी यही हालत 


सबकुछ दिखे वैसे 


जैसी मन में हो चाहत 


तो क्यूँ न पूरी हो 


मिलन की हसरत? 


क्यूँ करें विरह का स्वागत? 


तो चलें... 


मन के पपीहे को जगाएं 


जो तराने खुशियों के गाए 


            ************


2. कशिश 


           ********


कुछ लिखने की मेरे मन में 


एक कशिश जगी


उनींदी आँखों में


ख्वाहिशों की चाशनी पगी


 


खुद पर विश्वास किया तो 


सम्भावनाओं की आस पली


पंख तलाशने को आतुर मैं 


एक नए सफर पर चली


 


एक नया आयाम मिला


मिली एक ऊँचाई मेरे लेखन को


अपनी कविताओं में खोल दिया 


मैंने अपने अंतर्मन को


 


मेरी कविताओं में 


नव ऊर्जा की तपिश हो 


बदल सके जो समाज को 


ऐसी ग़ज़ब की कशिश हो 


             **********


3. जमीन 


          ********


भावनाओं की जमीन पर


बोये थे कुछ बीज सपनों के


कुछ मुरझा कर तोड़ गए दम


कुछ खिल उठे पा संग अपनों के


 


दम उन्हीं बीजों ने तोड़ा


जिनकी किसी ने हिफाजत न की


सपने भी वही चूर हुए


जिनकी किसी ने वकालत न की


 


उत्पादन के लिए जैसे जमीन की 


निराई- गुड़ाई जरूरी है 


वैसे ही सुविचारों की खेती के लिए 


साफ सुथरी भावनाएं जरूरी हैं 


 


भावनाओं की जमीन भुरभुरी हो चुकी है


कविता की क्यारियाँ लग चुकी हैं


बीज भी बोए जा चुके हैं


बस स्नेह के नीर से सींचना बाकी है। 


        *************


4.       माटी और कुम्हार 


             ********


एक दिन सपने में माटी कहे कुम्हार से। 


बातों को सुन लो मेरी जरा तुम प्यार से। 


इस बार तुम ऐसे अनोखे दीप बनाना, 


नेह भरी बाती जले करुणा की धार से। 


 


मातृभूमि की सोंधी मिट्टी को तुम लाना। 


धीरे-धीरे अहसास का पानी मिलाना। 


प्यार से हाँ थपथपाना उसको तुम यारा 


हल्के हाथों से रखकर फिर चाक हिलाना। 


 


प्रथम दीप माँ व मातृभूमि के नाम करना। 


द्वितीय पर अपने पुरखों के काम उकेरना। 


तदनंतर देशभक्त महापुरुषों के लिए, 


सुनो मेरी बात इंकार नहीं तुम करना। 


 


ऐसा दीप बाजार में बिकने आएगा। 


कौन खुद को खरीदने से रोक पाएगा? 


देशभक्ति के जज़्बे के सामने तो भला, 


कोई विदेशी सामान क्या टिक पाएगा? 


 


अपना देश,अपनी मिट्टी, अपने ही लोग। 


सच होगा सपना, और बनेगा सुसंयोग। 


होगी रोशनी, ठुमकती लक्ष्मी आएगी, 


कोई न भूखा होगा और न होगा रोग। 


 


फिर दिग दिगन्त में छा जाएगी खुशहाली। 


घर-घर में मन पाएगी सुन्दर दीवाली। 


सुनकर दीप की बात कुम्हार भी मुस्काया, 


दीपों की ऐसी लड़ियां निर्मित कर डाली । 


                ************


                     


5. नन्ही दूब 


        ********


बाग में मैंने देखी एक नन्ही सी दूब


जिसके भविष्य की सोच 


मेरा दिल गया डूब


क्या बचा पाएगी यह नन्ही सी जान


अपना अस्तित्व?


ढेरों बड़े पौधों के बीच


माली काका का ध्यान 


कर पाएगी अपनी ओर आकृष्ट?


मैंने दी तसल्ली अपने मन को 


और समझाया 


हजारों लोग जन्म लेते हैं 


और यूँ ही मृत्य को प्राप्त होते हैं 


इस तुच्छ जीव 


दूब की नियति भी वही हो 


पर मैं गलत थी 


कोई भी चीज़ बेवजह नहीं होती 


किसी का भी जन्म-काल भले छोटा हो 


पर अकारण नहीं होता 


कल पूजा में पंडित जी ने 


दूब को अति आवश्यक बताया 


मैं दौड़ पड़ी बगीचे की ओर 


देखा वो नन्ही दूब 


मुस्करा रही थी 


मानो अपने महत्व का 


अहसास करा रही थी। 


     **************


 


 


 डॉ निर्मला शर्मा  दौसा राजस्थान

छाई हरियाली


 वर्षा की ऋतु परम मनोहर आई है आली 


सर्वत्र फैली है मखमली सुंदर हरियाली 


मन में भरे उमंग सकल जीवन में रस् भर जाए


 देखें जब मन हरियाली तो झूम -झूम कर गाये


 हरा रंग खुशहाली लाए हर मन हर्षाये


 नव पल्लव नव वल्लरियों से हर वृक्ष भर जाए


 पर्वत, मैदान, घर, आंगन, वन, उपवन सारे 


जाये जहाँ तक नजर वहाँ तक लगते सब प्यारे


 प्रकृति के हर रंग के साथ हरा रंग मिल जाए


 लगे सुहाना मन को अति प्रिय जुगलबंदी बड़ी सुहाय


 डॉ निर्मला शर्मा


 दौसा राजस्थान


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डा वीना गर्ग

 


डा वीना गर्ग


अवकाश प्राप्त हिंदी प्रवक्ता


शिक्षा-एम ए-हिंदी, संस्कृत, पीएचडी।


प्रकाशित पुस्तकें-काव्य संग्रह-आभास, फूलों के झरते पराग,चुन्नू मुन्नू रिंकी पिंकी बालगीत संग्रह।


सम्मान-वीरभाषा हिंदी साहित्य पीठ मुरादाबाद का ज्ञान रत्न सम्मान


सहारनपुर मंडल द्वारा साहित्य के क्षेत्र में सेवा के लिए सम्मान पत्र


आगमन संस्था द्वारा भावकलश सम्मान।


आकाशवाणी नजीबाबाद में काव्य पाठ एवं भेंट वार्ता।


विभिन्न साहित्यिक सामाजिक संगठनों संस्थाओं द्वारा असंख्य कार्यक्रमो में सम्मान ,निर्णायक,मुख्य आतिथ्य आदि


 


कविता -१


राधिका के श्याम


  -------------------


हम तो तेरे प्रेम में कान्हा


निस दिन आंसू पीती हैं


तकती रहती राह तुम्हारी


मरती हैं ना जीती हैं।


कहकर चले गए तुम हमसे


लौट के ब्रज में आओगे


अश्रु विमार्जन करके मोहन


हम संग रास रचाओगे


इसी आस में ओ मधुकर हम


अब तक बैठी रीती हैं।


कैसे भूलें कृष्ण तुम्हें


हमको तो आस तुम्हारी है


ये बिरहा का ताप दुःखद


दर्शन रस प्यास तिहारी है


तुम तो भूले ब्रज को गिरिधर


हम पर क्या-क्या बीती है।


कविता - २-


एक अकेला सूरज


--------------------------


करना सारा जग उजियारा


एक अकेला सूरज है


बाकी है कितना अंधियारा


एक अकेला सूरज है।


जग में तो संताप बहुत हैं


तमस घनेरा पाप बहुत हैं


कैसे दूर करेगा सारे,


एक अकेला सूरज है।


अभी धूप लेकर आएगा


करो प्रतीक्षा प्राची में तुम


हार न मानेगा ये फिर भी


बड़ा हठीला सूरज है।


लाली छाई है अंबर में


पूर्व दिशा रह-रह मुस्काती


उसका प्रियतम आया फिर से


नया नवेला सूरज है।


 


कविता -३


-उजाला


 ------------


अब कहां पाऊं उजाला


हर तरफ बिखरा अंधेरा


भीड़ में पाषाण जग की


खो गया है गीत मेरा।


हर हृदय पत्थर सरीखा


फूल सा कोमल मेरा मन


कौन जाने दर्द मेरा


कौन समझेगा ये उलझन


कब ढलेगी ये निशा


पाऊंगी कब खोया सवेरा।


सो गया सब जग न जाने


नींद क्यों रूठी है मुझसे


चांदनी को ओढ़ इठलाती-


निशा कहती है मुझसे


आज क्यों मेरे हृदय में


है उदासी का बसेरा।


 


कविता -४


-मेघों तुम आ जाओ


--------------------------


आज बहुत प्यासी है धरती


मेघों तुम आ जाओ


नये नवेले रूप धरो तुम


अम्बर पर छा जाओ।


डाली-डाली झूम उठे


ऐसा तुम रस बरसा दो


सूखी वसुधा को अपनी


जलधारा से सरसा दो


खेती कर दो हरी-भरी


तुम देर न करना नटवर


गेहूं की बाली से झूमे


खेत-खेत भी सजकर


मोती जैसे दानों से


ये धरा आज भर जाओ।


भूधर पर लहके हरियाली


महकें आमों के वन


फूटें उत्स पत्थरों से भी


झूमे कानन-कानन


विरहाकुला यक्षिणी को तुम


प्रिय संदेश सुनाओ।


 


कविता -५


-फूलों के झरते पराग


---------------------------


फूलों के झरते पराग -सी


मधुमय कोमल


सीपी-सी रहती हूं मैं


सागर के जल में


रंग उषा के मैं ही भरती


नील गगन में


दीप शिखा सी कभी झूमती


गहरे तम में


मोती बनकर जड़ी हुई


संसृति डाली पर


तुहिन-बिंदु बनकर छाई


मैं ही कण-कण में।


           


     ४५, द्वारिकापुरी, निकट पार्क


      मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश।


 


सुरेन्द्र पाल मिश्र पूर्व निदेशक भारत सरकार

द्वादश ज्योतिर्लिंग वन्दना की श्रंखला में        


 --- अष्टम्--


अष्टम् ज्योतिर्लिंग शम्भु का है गुजरात प्रान्त में स्थित।


श्री नागेश्वर नागनाथ जी विविध भोग आभूषण भूषित।


निकट द्वारका उत्तर पश्चिम अति रमणीय सदंग नगरी।


सद्भक्ति मुक्ति दायक प्रभु में शिव भक्तों की आस्था गहरी।


धार्मिक सुप्रिय शिव भक्त परम शिव की पूजा में लीन सदा।


दारुक राक्षस था शिव द्रोही उससे क्रोधित रहे सर्वदा।


एक दिवस जा रहे काम से श्री सुप्रिय नौका पर चढ़कर।


तत्क्षण उन्हें बन्दी बना कर डाला कारागृह के अंदर।


कारागृह में भी श्री सुप्रिय के सदा ध्यान में थे शिवशंकर।


ज्योतिर्लिंग रूप में प्रगटे शिव तेजोमय सिंहासन पर।


श्री सुप्रिय को दर्शन देकर निज पाशुपत अस्त्र प्रदान किये।


इससे दारुक का वध करके श्री सुप्रिय शिव के धाम गये।


श्री शिव के आदेशानुसार इसका नाम पड़ा नागेश्वर।


मैं शरण आपकी आया हूं कल्याण करो मेरा प्रभुवर।


चरण कमल रज शीश धरूं नित पूजूं तुम्हें सदा निष्काम।


हे शिवशंकर हे गंगाधर हे गौरीपति तुम्हें प्रणाम।


सुरेन्द्र पाल मिश्र पूर्व निदेशक भारत सरकार

द्वादश ज्योतिर्लिंग वन्दना की श्रंखला में   


 सप्तम्--- 


सप्तम् ज्योतिर्लिंग शम्भु का श्री रामेश्वर शुभ फलदायक।


तमिलनाडु प्रान्त में स्थित शिव भक्तों का सदा सहायक।


रावण की लंका नगरी पर जब चले आक्रमण को रघुवर।


जल पान किया रघुनंदन ने ताम्रपर्णी सागर संगम पर।


उसी समय नभ से यह वाणी ध्वनित हुई सागर के तट पर।


बिना किए पूजा मेरी तुम कैसे पीते हो जल रघुवर।


सुनकर यह पूजा की शिव की बालू से शिव लिंग बना कर।


विजय मिले रावण पर मुझको मांगा शिवशंकर से यह वर।


प्रगट हुए वर दिया राम को कर स्वीकार प्रार्थना सबकी


करने लगे निवास वहीं पर ज्योतिर्लिंग रूप में शिव जी।


चरण कमल रज शीश धरूं नित पूजूं तुम्हें सदा निष्काम


हे शिवशंकर हे गंगाधर हे गौरीपति तुम्हें प्रणाम


 


ओम नीरव कविता लोक कार्यशाला 67

कवितालोक की 67 वीं काव्यशाला का आयोजन प्रख्यात छंदकार इंजी. अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’ की अध्यक्षता और ओम नीरव के संयोजन-संचालन में सम्पन्न हुआ। काव्यपाठ का प्रारम्भ लखनऊ की कवयित्री भारती पायल की वाणी वंदना से हुआ। इसी क्रम में, 


मुरादाबाद से डॉ अर्चना गुप्ता ने वर्षा ऋतु का शब्द चित्र उकेरा- 


पावस ऋतु ने कर दिया, धरती का श्रृंगार 


गरज गरज कर मेघ भी, गायें मेघ मल्हार 


सावन के झूले लिये, आई है बरसात 


और गगन को मिल गया, इंद्रधनुष उपहार। 


---- 


सीतापुर से अरुण शर्मा ‘बेधड़क’ ने ओजमय काव्यपाठ करते हुए कहा- 


लाख शूल बिखरे हों पथ में, पथिक तो आगे बढ़ता है, 


चलकर अंगारों पर भी, इतिहास नया वो लिखता है। 


होती बाधक कहाँ विसंगति, राष्ट्र हितों के लक्ष्यों में, 


ऐसे वीर बांकुरों को कवि, शत शत वन्दन करता है।। 


--- 


बैतूल मध्य प्रदेश से भीमराव झरबड़े ने देश की सेना पर गर्व करते हुए कहा- 


तैयार है अब मौत का सामान सब। 


करने लगे हथियार भी अभिमान सब। 


विस्तार जो लेने लगी है सरहदें,


बन्दुकें होने लगी बलवान सब।। 


--- 


बाराबंकी से डॉ शर्मेश शर्मा ने कोरोना-त्रासदी में मधु रस घोलने का सुंदर प्रयास किया- 


कान में खुसुर फुसुर बतियाना छोड़ दिया। 


होटल पिकनिक माल घुमाना छोड़ दिया। 


दूर से ही अब फ्लाइंग किश कर लेता हूं। 


हमने उनको हाथ लगाना छोड़ दिया।। 


--- 


गोचर चमोली उत्तराखंड से भारती जोशी ने गीत के माधुर्य से रस विभोर कर दिया- 


जब भी बसन्त पायल पैरों में बाँध आया। 


तब-तब हृदय स्वयं का हमने उदास पाया।


संवेदना व्यथित थी कुछ मौन, व्यक्त कुछ थी, 


खोकर सिमट उन्हीं में नियमित समय बिताया। 


--- 


मोहमदी खीरी से आकाश त्रिपाठी ने घनाक्षरी छंद सुनाया- 


इश्क़ के नशे में झूम कर लिखने लगे तो,


गीत दर गीत सिर्फ प्यार हमने लिखा।


और यदि देश को ज़रूरत कभी पड़ी तो,


लेखनी से अपनी अँगार हमने लिखा।"


------- 


सीतापुर से इंजी अंबरीष श्रीवास्तव सावन की छटा का शब्दांकन कुछ इस प्रकार किया- 


सावन में देखो सखे, घटा घनघोर छायी,


चातक सा प्यासा मन, प्रिय को बुलाता है।


प्यासी हो निहारे मित्र, धरती जो खिली-खिली,


'अम्बर' ये हौले-हौले, रस बरसाता है।।


--- 


लखनऊ से भारती पायल ने युगीन संदर्भ में कटाक्ष करते हुए गीतिका सुनाई- 


लोगों की आँखों पर कैसे मोटे मोटे जाले हैं। 


संत बे फिरते जो बगुले, दिल के कितने काले हैं। 


बाज तुम्हारे पल मैं सारे पल में देती नोच मगर, 


मेरे मुंह पर मर्यादा के लटक रहे कुछ ताले हैं। 


--- 


लखनऊ से संचालक-संयोजक ओम नीरव ने गीत सुनाया- 


बार-बार क्यों वही कहानी कालचक्र दुहरा जाता है। 


रजनी की कालिमा दिवस के पन्नों पर बिखरा जाता है।


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप' तिनसुकिया,आसाम

डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"


 


गीत,गजल,कविताएँ, छन्द जैसे दोहा,चौपाई, घनाक्षरी,लघु कथाएं आदि में लेखन तथा असम प्रदेश की पृष्ठ भूमि पर रचित साझा उपन्यास बरनाली का प्रमुख सम्पादन किया है।


देश की प्रतिश्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा श्रेष्ठ रचनाकार,समाज भूषण,काव्य विदुषी एवम डॉक्टरेट की मानद उपाधी से सम्मानित हुई हूँ।


पाँच स्वरचित तथा कई साझा संकलन प्रकाशित हुए हैं। समाचार पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होती है।


वर्तमान में असम के तिनसुकिया में रहती हूँ।


Email-


Suchisandeep2010@gmail.com


 


कविता 1


                माँ शारदे वंदना


 


                (मदिरा सवैया)


 


शारद माँ कवि भारत के


     नित शीश झुका कर ध्यावत हैं।


ज्ञान भरो उर भीतर माँ


     कर जोर प्रभात मनावत हैं।


हाथ सदा सर पे रखना


      नवगीत सदा कवि गावत हैं।


उत्सव नित्य यहाँ रहता


      सुख जीवन का सब पावत हैं।


 


वास रहे चित मात सदा


      मन मूरत शारद की धरलें।


लोभ हरो छल दूर करो


     बस सत्य लिखें मन में करलें।


राह दिखा कर नेक सदा


    निज जीवन में खुशियाँ भर लें।


सत्य सनातन धर्म यही


    दुख दोष सभी जग के हर लें।


 


भाव दिए तुमने हमको


   यश लेखन शक्ति हमें वर दो।


छन्द लिखें कविता लिखलें


    गुण लेखन का सबमें भर दो।


जोड़ रहे कर मात सदा


     तुम ज्ञान अपार बहाकर दो


उच्च रहे यह धाम सदा


     'शुचि' नाम बड़ा जग में करदो।।


 


डॉ.शुचिता अग्रवाल"शुचिसंदीप"


तिनसुकिया,असम


 


कविता 2


देशभक्ति गीत


विष्णुपद छंद [सम मात्रिक]


 


 


     


इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी


हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।


 


वही खून फिर से दौड़े जो,भगतसिंह में था,


नहीं देश से बढ़कर दूजा, भाव हृदय में था,


प्रबल भावना देशभक्ति की,नेताजी जैसी,


इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी


हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।


 


वही रूप सौंदर्य वही हो,सोच वही जागे,


प्राणों से प्यारी भारत की,धरती ही लागे,


रानी लक्ष्मी रानी दुर्गा सुंदर थी कैसी,


इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी


हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।


 


गाँधीजी की राह अहिंसा,खादी पहनावा,


सच्चाई पे चलकर छोड़ा,झूठा बहकावा,


आने वाला कल सँवरे बस,डगर चुनी ऐसी,


इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी


हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।


 


वीर शिवाजी अरु प्रताप सा,बल छुप गया कहाँ,


आओ जिनकी संतानें थी,शेर समान यहाँ,


आँख उठाए जो भारत पर,ऐसी की तैसी,


इंग्लिस्तानी छोड़ सभ्यता,अपनाओ देशी


हिंदुस्तानी रहन-सहन हो,छोड़ो परदेशी।


 


#स्वरचित


डॉ.शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप*


तिनसुकिया,आसाम


 


 


कविता3


"ये बेटियाँ"


विधा-लावणी छन्द


 


 घर की रौनक होती बेटी, है उमंग अनुराग यही।


बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।।


 


जब हँसती खुश होकर बेटी, आँगन महक उठे सारा।


मन मृदङ्ग सा बज उठता है, रस की बहती है धारा।।


त्योंहारों की चमक बेटियाँ,मन मन्दिर की ज्योति है।


 प्रेम दया ममता का गहना,यही बेटियाँ होती है।।


महक गुलाबों सी बेटी है,कोयल की है कूक यही।


बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।।


 


बसते हैं भगवान जहाँ खुद, उनके घर यह आती है।


पालन पोषण सर्वोत्तम वह, जिनके हाथों पाती है।।


पल में सारे दुख हर लेती ,बेटी जादू की पुड़िया।


दादा दादी के हिय को सुख ,देती हरदम ये गुड़िया।।


माँ शारद लक्ष्मी दुर्गा का ,होती है सम्मान यही।


बेटी होती जान पिता की, है माँ का अभिमान यही।


 


मात पिता के दिल का टुकड़ा, धड़कन बेटी होती है।


रो पड़ता है दिल अपना जब ,दुख से बेटी रोती है।।


जाती है ससुराल एक दिन,दो कुल को महकाने को।


मीठी बोली से हिय बसकर, घर आँगन चहकाने को।।


बेटी की खुशियों का दामन, अपनी तो मुस्कान यही।


बेटी होती जान पिता की है माँ का अभिमान यही।


 


 डॉ.शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"


तिनसुकिया, असम


 


कविता 4


आसाम प्रदेश पर आधारित


     "दोहे"


 


 ब्रह्मपुत्र की गोद में,बसा हुआ आसाम।


प्रथम किरण रवि की पड़े,वो कामाख्या धाम।।


 


हरे-हरे बागान से,उन्नति करे प्रदेश।


खिला प्रकृति सौंदर्य से,आसामी परिवेश।।


 


धरती शंकरदेव की,लाचित का ये देश।


कनकलता की वीरता,ऐसा असम प्रदेश।।


 


ऐरी मूंगा पाट का,होता है उद्योग।


सबसे उत्तम चाय का,बना हुआ संयोग।।


 


हरित घने बागान में,कोमल-कोमल हाथ।


तोड़ रहीं नवयौवना,मिलकर पत्ते साथ।।


 


हिमा दास ने रच दिया,एक नया इतिहास।


विश्व विजयिता धाविका,बनी हिन्द की आस।।


 


#स्वरचित


शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप"


तिनसुकिया, आसाम


 


कविता5


*प्रेम-सगाई*


    विधा-लावणी छन्द


(सम्पूर्ण वर्णमाला पर एक अनूठा प्रयास)


 


*अ* भी-अभी तो मिली सजन से,


*आ* कर मन में बस ही गये।


*इ* स बन्धन के शुचि धागों को,


*ई* श स्वयं ही बांध गये।


 


*उ* मर सलोनी कुञ्जगली सी,


*ऊ* र्मिल चाहत है छाई।


*ऋ* जु मन निरखे आभा उनकी,


*ए* कनिष्ठ हो हरषाई।


 


*ऐ* सा अपनापन पाकर मन,


*ओ* ढ़ ओढ़नी झूम पड़ा,


*औ* र मेरे सपनों का राजा,


*अं* तरंग मालूम खड़ा।


 


*अ:* अनूठा अनुभव प्यारा,


*क* लरव सी ध्वनि होती है।


*ख* नखन चूड़ी ज्यूँ मतवाली,


*ग* हना हीरे-मोती है।


 


*घ* न पानी से भरे हुए ज्यूँ,


*च* न्द्र-चकोरी व्याकुलता।


*छ* टा निराली सावन जैसी,


*ज* रा जरा मृदु आकुलता।


 


*झ* रझर झरना प्रेम का बरसे,


*ट* सक उठी मीठी हिय में।


*ठ* हर गया हो कालचक्र भी,


*ड* र अंजाना सा जिय में।


 


*ढ* म-ढम ढोल नगाड़े बाजे,


*त* निक हँसी आ जाती है।


*थ* पकी स्वीकृत मौन प्रेम की,


*द* मक नयन में लाती है।


 


*ध* ड़क रहा दिल स्नेहपात्र पा,


*न* व नूतन जग लगता है।


*प्र* णय निवेदन सर आँखों पर,


*फा* ग प्रेम सा जगता है।


 


*ब* न्द करी तस्वीर पिया की,


*भ* री तिजोरी मन की है।


*म* हक उठी सूनी सी बगिया,


*य* ही कथा पिय धन की है।


 


*र* हना है अब साथ सदा ही,


*ल* गन लगी मन में भारी,


*व* ल्लभ की मैं बनूं वल्लभा,


' *शु* चि' प्रभु की है आभारी।


 


*स* कल सृष्टि सुखदायक लगती,


*ष* धा डगर है जीवन ही,


*ह* म बन जायें अब मैं-तुम से,


*क्ष* णिक नहीं आजीवन ही।


 


*त्रा* स नहीं,सुख की बेला है ,


*ज्ञा* त यही बस होता है।


 वर्णमाल सी ऋचा है जीवन,


 भाव भरा मन होता है।


 


 



सुरेन्द्र पाल मिश्र पूर्व निदेशक भारत सरकार।

द्वादश ज्योतिर्लिंग वन्दना की श्रंखला में


--- षष्ठम्---


षष्ठम् ज्योतिर्लिंग शम्भु का जग विख्यात श्री भीमशंकर।


पूना की उत्तर दिश स्थित है भीम नदी तट सह्याद्रि शिखर पर।


कुम्भकरण सुत भीम प्रतापी क्रुध राम द्वारा पितु वध पर।


वर्ष हज़ार तप कर ब्रम्हा से पाया उसने जग विजयी वर।


देव लोक को पराभूत कर किया आक्रमण कामरूप पर।


राज सुदक्षिण को बन्दी कर डाला कारागृह के अंदर।


पार्थिव शिवलिंग बना भूपति ने विधि वत की पूजन अर्चन।


किया प्रहार लिंग पर उसने होकर क्रोधित करके गर्जन।


छू भी ना पाई थी कृपाण प्रगट हुए तत्क्षण शिवशंकर।


हुंकार मात्र से शिव जी की हो गया भस्म राक्षस जलकर।


आनंदित ऋषि मुनि देवों ने करके स्तुति की यह विनती।


वास करें ज्योतिर्लिंग रूप मंगलमय हो सारी धरती।


स्वीकार किया सबकी विनती प्रभु करने लगे निवास वहीं।


अपवित्र क्षेत्र अब है पावन तीरथ ऐसा अन्यत्र नहीं।


चरण कमल रज शीश धरूं नित पूजूं तुम्हें सदा निष्काम। हे शिवशंकर हे गंगाधर हे गौरीपति तुम्हें प्रणाम।


      सुरेन्द्र पाल मिश्र पूर्व निदेशक भारत सरकार।


सुरेन्द्र पाल मिश्र पूर्व निदेशक भारत सरकार

द्वादश ज्योतिर्लिंग वन्दना की श्रंखला में


 --- पंचम ---


पंचम ज्योतिर्लिंगम् स्थित विहार प्रान्त सन्थाल परगना।


चिता भूमि में शिव गिरिजा संग वैद्यनाथ पद करूं बन्दना।


कठिन तपस्या की शिव जी की रावण ने कैलाश शिखर पर।


प्रगट हुए शिव फिर शिव जी बोले वर मांगो मम प्रिय लंकेश्वर।


रावण ने विनती की शिव से प्रभु वास करो लंका नगरी।


शिव जी ने ज्योतिर्लिंग दिया बोले ले जाओ निज नगरी।


पर इसे भूमि पर मत रखना होगा स्थित अन्यथा वहीं।


सम्भव फिर कभी नहीं होगा ले जाना इसको और कहीं।


ज्योतिर्लिंग शम्भु का लेकर लंकेश्वर ने प्रस्थान किया।


पथ में लगी तीब्र लघुशंका इक गोप बाल को देख लिया।


देकर ज्योतिर्लिंग बाल को वह निवृत होने चला गया।


लिंग भार से व्याकुल बालक रखकर वहीं अदृश्य हो गया।


लौटा रावण लगा उठाने पर उसको हिला नहीं पाया।


निज अंगुष्ठ का चिन्ह बनाकर रावण वापस लंका आया।


ब्रम्हा विष्णु तथा देवों ने विधि विधान से किया प्रतिष्ठित।


चले गए निज निज लोकों को करके श्रद्धा सुमन समर्पित।


वैद्यनाथ विख्यात जगत में ज्योतिर्लिंग अमित फलदायक।


मिलती भक्ति मुक्ति पूजन से पाप नाश में सदा सहायक।


चरण कमल रज शीश धरूं नित पूजूं तुम्हें सदा निष्काम।


हे शिवशंकर हे गंगाधर हे गौरीपति तुम्हें प्रणाम।


   


सुरेन्द्र पाल मिश्र पूर्व निदेशक भारत सरकार

द्वादश ज्योतिर्लिंग वन्दना की श्रंखला में


        --- चतुर्थ ---


चौथा ज्योतिर्लिंग शम्भु का पवित्र नर्मदा के तट पर।


ओंकारेश्वर के स्वरूप में प्रगट हुए शिव गौरीशंकर।


दो भागों में बंट गई यहां इस पावन सरिता की धारा।


मान्धाता पर्वत शम्भु पुरी कहलाया यह टापू सारा।


शिव जी का तप ओंम मन्त्र से मान्धाता ने इस तट पर।


ज्योतिर्लिंग रूप में प्रगटे गौरीपति श्री ओंकारेश्वर।


पावन ज्योतिर्लिंग स्वयंभू पर्वत सारा शिव रूप यहां।


शिवपुरी नाम भी है इसका ज्योतिर्लिंगम् दो रूप यहां।


दो रूप एक ज्योतिर्लिंगम् दूजा स्वरूप श्री अमलेश्वर।


नदी नर्मदा के दक्षिण तट ओंकारेश्वर से कुछ हटकर।


स्नान नर्मदा सरिता पावन दरशन पूजन शुभ फल दायक।


पार उतारे भवसागर के सत्पुरुषों का सदा सहायक।


चरण कमल रज शीश धरूं नित पूजूं तुम्हें सदा निष्काम।


हे शिव शंकर हे गंगाधर हे गौरी पति तुम्हें प्रणाम।


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकारस्नेहलता 'नीर' रुड़की,हरिद्वार

श्रीमती ,उत्तराखंड


शिक्षा-स्नाकोत्तर,बी.एड.


व्यवसाय--अध्यापन कार्य


रूचि-गीत,ग़ज़ल,दोहा,मुक्तक,कुण्डलिया,सवैया अनेक विधाओं में लेखन कार्य।


 


साझा संकलन


***********


1--तुहिल कण


2--कवयित्री सम्मेलन


3-दोहा दर्शन


4--आधी आबादी के दोहे


5--101 महिला गज़लकार


6--वूमन आवाज


7--साहित्य की धरोहर


 


दोहा समूह द्वारा दोहा शिरोमणि सम्मान


मुक्तक शिरोमणि सम्मान


 


साझा संकलन


***********


1--तुहिल कण


2--कवयित्री सम्मेलन


3-दोहा दर्शन


4--आधी आबादी के दोहे


5--101 महिला गज़लकार


6--वूमन आवाज


7--साहित्य की धरोहर


काव्य रंगोली तथा कई पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।


 


दोहा समूह द्वारा दोहा शिरोमणि सम्मान,


मुक्तक शिरोमणि सम्मान,


मातृभाषा संस्थान द्वारा हिंदी योद्धा का पद आदि


 


 


 गीत


*****


मापनी-11--13 पर यति।


 


अक्षर-अक्षर गूँथ,भाव का रस डाला है।


शब्द साधना गहन,गीत मुक्ता -माला है।


तुलसी सूर कबीर, गदाधर , मीरा बाई


कवि रहीम रसखान,भक्ति की सरित बहाई।


आदि काल से गीत, फला- फूला है जग में।


बसा सृष्टि के कण-कण,जीवन की रग-रग में।


 


वेद ऋचाएँ रचीं,जतन करके पाला है।


शब्द साधना गहन,गीत मुक्ता -माला है।


 


दोहा, छंद,कवित्त,गजल हो या चौपाई।


गीतों की रसधार,सभी में मधुर समाई।


जीवन का संगीत,हृदय पुलकित जब गाता।


ईश्वर में हो लीन,स्वर्ग सम सुख तब पाता।


 


मन वीणा के तार-तार झंकृत,हाला है।


शब्द साधना गहन,गीत मुक्ता -माला है।


 


ऋतुओं का है सखा,पंछियों का मधु कलरव।


श्लोक,मंत्र उच्चार,प्रणव का गुंजन वैभव।


वीरों में भर जोश,उन्हें फौलाद बनाता।


लय है स्वर है ताल,सुने जो भी लहराता।


 


प्रेमी का है प्रेम,भक्ति की मधुशाला है।


शब्द साधना गहन,गीत मुक्ता -माला है।


 


शब्द-शब्द हैं सुभग,व्यंजना से अनुप्राणित।


रसभीनी माधुर्य,रागिनी से अनुरंजित।


लिए खुशी की महक,पीर,अंतस् का क्रंदन।


गीत,प्रीति की रीति,प्रकृति का सुरभित चंदन।


 


कभी नेह का "नीर",कभी अंतर्ज्वाला है।


शब्द साधना गहन,गीत मुक्ता -माला है।


 


 


 


 कुण्डलिया


**********


 


रोटी के लाले पड़े,भटक रहे मजदूर।


काम, दिहाड़ी के बिना,आये घर से दूर।।


आये घर से दूर, कमाने को कुछ पैसे।


दिखा रहे दिन आज,निवाले मिलते कैसे।


कोई करता मौज,किसी की किस्मत खोटी।


विनती है भगवान,सभी को देना रोटी।।


 


मजदूरी में जुट गये, गयी पढ़ाई छूट।


भूख गरीबी ने लिया,सारा बचपन लूट।।


सारा बचपन लूट, न कोई छत है सिर पर।


करें रात दिन काम,जियें ये हर पल डर कर।


पालें पापी पेट,खड़ी पग-पग मजबूरी।


होते जो धनवान,नहीं करते मजदूरी।।


 


रोटी सूखी खा रहा,बेबस है मजदूर।


महँगाई की मार से,दीन-हीन मजबूर।।


दीन- हीन मजबूर,व्यथा अब किसे सुनाए।


बेटी हुई जवान,ब्याह की फिक्र सताए।


'नीर' बना कृशकाय,बदन पर फटी लँगोटी।


धन होता जो पास,चुपड़ कर खाता रोटी।।


 


करता है संसार भी,भारत का यशगान।


सोने की चिड़िया कहे, माने अति धनवान।


 माने अति धनवान,धरा सोना उपजाये।


चलती मंद बयार,सभी का मन महकाये।


चढ़े प्रगति सोपान,नहीं दुश्मन से डरता।


भरे न अंतस द्वेष,प्रेम सबसे है करता।


 


प्यारी माटी देश की,पावन मलय समान।


प्राणों से प्यारा वतन,अपना हिंदुस्तान।।


अपना हिंदुस्तान,न करना नफ़रत जाने।


चला प्रीति की रीत, जगत को आज सिखाने।


हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, सबमें यारी।


मिसरी जैसे बोल,हिन्द की हिंदी प्यारी।।


 


सच्चाई पर झूठ नित, करे वार पर वार।


फिर भी सच की जीत हो,और झूठ की हार।।


और झूठ की हार,झूठ का हो मुँह काला।


सच की जय जयकार,गले में पड़ती माला।


झूठ बहाए "नीर", करो जग में अच्छाई।


झूठ घटाता मान, और यश दे सच्चाई।।


 


बाती तेल विहीन है,अब विकास का दीप।


सूरज भी अँधियार को ,कहने लगा महीप।


कहने लगा महीप, रौशनी बंधक है अब।


पूछ रहे हैं लोग, मिलेंगें अच्छे दिन कब।


दूर दूर तक भोर,किसी को नजर न आती।


निकलेगा कब सूर्य, जलेगी कब अब बाती।।


 


राहें काँटों से भरी, जन-जन है बदहाल।


सबकी रक्षा के लिए, फिर आओ गोपाल।।


फिर आओ गोपाल,पाप व्यभिचार बढ़ रहा।


चीर हरण के पाठ, दुसासन रोज़ पढ़ रहा।।


नैनन बहता 'नीर' , द्रौपदी भरती आहें।


कृपा करो घनश्याम,दिखाओ सबको राहें।।


 


निष्कंटक राहें बने, चुभें न पग में शूल।


कृपा करो हे!साँवरे, जीवन हो अनुकूल।।


जीवन हो अनुकूल,भाग्य सबके ही जागें।


मिटें सभी मतभेद, मधुर रिश्ते रस-पागें।


बहे न नैना "नीर", सुनाई पड़ें न आहें।


स्वर्ग बने संसार, बने निष्कंटक राहें।।


 


बंजर धरती कर रहा,हर दुख से अनजान।


बढ़ती दैवी आपदा, जाग अरे नादान।।


जाग अरे नादान, धरा को हरी बना ले।


जल की कीमत जान ,बचा कर पुण्य कमा ले।


कट जायेंगे पेड़, दुखों का होगा मंजर।


पेड़ लगाओ खूब, रहे न धरती बंजर।।


 


 


मुक्तक


******


चलना सम्भल कर ,कठिन ये डगर है।


अडिग हौसले हैं,नहीं कोई डर है।


सदा श्यामसुंदर , सहारा बने हैं,


मिलेगी हमे जीत ,उनकी मेहर है।


(2)


गिरगिट से ज्यादा रंग तो इंसान बदलता ।


हर रोज़ वह जहान में भगवान बदलता ।।


बल से , मौहब्बत से , कभी नफ़रत से , घात से ,


छलने के रोज़ ही यहाँ सामान बदलता ।।


(3)


उम्र की मोहताज होती हैं कहाँ खुशियाँ कभी ।


प्रेम के रस में डुबोकर , कीजिए बतियाँ कभी।


ज़िन्दगी जिंदादिली है, यौं न मर-मर के जियो,


चाह का दीपक जला ,रौशन करो रतियाँ कभी !!


(4)


[क्या भरोसा श्वास का,रुक जाय कब आवागमन।


प्यार के दो बोल से ,तुम जीत लो हर एक मन।


कुछ नहीं मिलता जहाँ में, बीज नफ़रत के उगा,


आइए मिलकर रहें , हर ओर हो चैनो -अमन।


(5)


अँधेरे पर किसी जलते दिये का वार है कविता।


किसी असहाय के हक़ में उठा हथियार है कविता।


महकते फूल कलियों का महज गुणगान मत समझो,


हथेली पर गरीबों की रखा अंगार है कविता।


 


 


गीतिका 


२१२२/२१२२/२१२२/२१२


गुम हुआ बचपन बुढापे ने जवानी छीन ली


दौरे हाज़िर ने सुहानी जिंदगानी छीन ली


1


वक़्त की रफ़्तार ज्यादा काम ज्यादा उम्र कम 


वक़्त की इस दौड़ ने हर सावधानी छीन ली


2


दे गया दिलवर कसम मत याद अब करना मुझे


उस कसम ने इश्क की सारी कहानी छीन ली


3


आज सारा ही जहां सहमा घरों में क़ैद है


वायरस ने ही लबों की शादमानी छीन ली


4


है तरक़्क़ी की थमी रफ़्तार अब तो कू-ब-कू


साँसों की देखो कुरोना ने रवानी छीन ली


5


खेत ओ खलिहान से रखता न कोई वास्ता


आज शहरों ने जहां की बागवानी छीन ली


6


'नीर'मुफ़लिस बोलता मिलती उसे दुत्कार है


मुफ़लिसी ने देख लो अब हकबयानी छीन ली


 


 


 दोहे


*****


1


 कुमुदबन्धु को देख कर,खिले कुमुद- तालाब।


धवल दूधिया चाँदनी,नयन- सजन के ख्वाब।।


2


आज शर्म से जा छुपे,सभी बिलों में व्याल ।


अतिशय विषधर हो गया,मनुज ओढ़ कर खाल।।


3


अर्णव बनने के लिए ,बहती सरि दिन -रात।


अकर्मण्य नर आलसी,कब होते विख्यात।।


4


 कंचन की है मुद्रिका,माणिक जड़ी अमोल।


निरख रूपसी रूप निज,बैठी करे किलोल।।


5


बने कामिनी भामिनी,बने काल का गाल।


कामी, कपटी कापुरुष ,डाले जब छल- जाल।।


6


ज्ञान-विभा -विग्रह का,करो पुण्य नित काज।


तमस मिटे अज्ञान का,शिक्षित बने समाज।।


7


सकल सृष्टि है आपसे,आप सृष्टि के अक्ष।


हरि विपदा हर लीजिए,विनती करें समक्ष।।


8


दिनकर ने दर्शन दिए ,बीत गयी है रात।


कंचनमय धरती हुई,सुखमय हुआ विभात।


9


एक अम्बुजा रागिनी,कर्णप्रिया है खास।


एक सरोवर में खिले,एक विष्णु के पास।


10


करके कर्म महान नर,बन जाता महनीय।


देव तुल्य दर्ज़ा मिले,सदा रहे नमनीय।।


 


आनन्द खत्री'आनन्द'  बिसवां सीतापुर

पेड़ों को रहे हैं काट जंगलों को रहे छांट


   दुष्ट पापियों को भला कौन समझायेगा ।


एक कलाधारी जीव का हैं पद पाये वृक्ष


   सृष्टि का सुरम्य भाव कौन उमगायेगा।


मेघों के समूह को ये करते आकर्षित हैं,


   हरी भरी भूमि भला कौन सरसायेगा।


आनन्द हैं कर रहे विनय पुकार आज


   वृक्ष बिन जीवन को कौन हुलसायेगा।।


 



सुषमा दीक्षित शुक्ला

आखरी चराग़ बन जलती रही !!


 


ऐ! प्रियतम ,आज फिर आयी


कहीं से तुम्हारी तड़पती पुकार,,


 अश्रु धार से ,,कपोल नम है मेरे,,


 अवरुद्ध सा कण्ठ ,नयनों में नीर,, 


  सुलगती सी विरह वेदना ,,


बन चुकी धधकता दावानल ,


जो सहता वही जानता प्रियतम,


 छुपम छुपाई का खेल बचपने सा,, 


छोड़ दो प्रीतम ,छोड़ दो अब,


यह विरह वेदना है ,,


महारोग के दारुन दुख सी,,


काया और माया के बंधन ,


अब सही नहीं जाते ,,


ज्वार भाटे की नीर सी ,,


स्मृतियां आती हैं जाती हैं ,


मेरी रूह के धरातल पर ,,


 पाषाण बन चुकी ये आत्मा,


 नीरसता ने जमा दिया डेरा ,,


अब दर्द प्रतिबिंब है मेरा,,


 वह अनकही आधी अधूरी बातें,,


 जो उस रोज कहने वाले थे ,,


सुना दो इन हवाओं में घोलकर,,


  तमाम रात पिघलती रही ,,


 जहर पीती उगलती रही,,


 आखिरी चराग बन जलती रही,,


 खुद अपने ही साथ चलती रही,,


 तुम कहां थे ,,कहां गए थे तुम???


 



भरत नायक "बाबूजी"

भरत नायक "बाबूजी"


2- माता का नाम- स्व. चम्पादेवी नायक


 पिता का नाम- स्व. अभयराम नायक


सहधर्मिणी का नाम- श्रीमती राजकुमारी नायक


संतान- श्रीमती रजनी बाला चौधरी (बडी- पुत्री)


दुष्यंत कुमार नायक (छोटा- पुत्र)


3- स्थाई पता- लोहरसिंह, रायगढ़ (छ.ग.), पिन- 496100


4- मो. नं.- 9340623421


5- जन्म तिथि- 11- 06- 1956


जन्म स्थल- लोहरसिंह, रायगढ़ (छ.ग.)


6- शिक्षा- स्नातकोत्तर (हिंदी, समाज शास्त्र), बी. टी., रत्न


7- व्यवसाय- सेवा निवृत्त व्याख्याता


8- प्रकाशित रचनाओं की संख्या- पंच शताधिक


9- प्रकाशित पुस्तकों की संख्या- साझा संकलन- तीस, एकल- एक ("भोर करे अगवानी"- छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह)


10- काव्य पाठ का विवरण- दिल्ली सहित देश के विभिन्न भागों के सैकड़ों मंचों पर काव्य पाठ अध्यक्षता, मुख्य आतिथ्य,विशेष आतिथ्य एवं आकाशवाणी से प्रसारण।


11- सम्मान का विवरण- छ. ग. शासन, प्रशासन एवं भा. द. सा. अकादमी नयी दिल्ली से डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप सम्मान, अखिल भारतीय राष्ट्रीय कवि संगम छत्तीसगढ़ इकाई से वरिष्ठ साहित्यकार दिनकर सम्मान के साथ शताधिक विभिन्न सम्मान एवं अभिनंदन ।


12- लेखन- हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी भाषा में स्वतंत्र लेखन।


प्रतिनिधित्व- नवोन्मेष रचना मंच घरघोड़ा, रायगढ़ का संस्थापक अध्यक्ष, कला कौशल साहित्य संगम छत्तीसगढ़ का संस्थापक/अध्यक्ष, भरत साहित्य मंडल, लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.), अनेक साहित्यिक पटलों एवं साहित्यानुरागियों का मार्गदर्शन।


13- Email ID- bharatlalnaik3@gmail.com


...............................


 


१ - 


*शारदे! शुभ वरदान दे*


(गगनांगना छंद)


--------------------------------------------


विधान- १६+ ९= २५ मात्रा प्रतिपद, पदांत SlS, युगल पद तुकांतता।


-------------------------------------------


*शब्दों के संयोजन को माँ! सरगम-तान दे।


अतुल-अमल-अवधान शारदे! शुभ वरदान दे।।


साथ साधना के हिय सच्चा, भावन-भान दे।


घन-तम-अज्ञान नाश कर माँ! प्रभा-प्रतान दे।।


 


*स्वर- सुर समृद्ध सदा होवे, वर विश्वास दे।


शुचि-तुंग-तरंग-उमंग नयी, नित आभास दे।।


जड़ता का कर विनाश मन से, उर-उल्लास दे।


माता! हरकर संताप सभी, हृदय-हुलास दे।।


 


*बहा ज्ञान-गंगा कल्याणी, कर कल्याण दे।


संसार सकल सुखमय कर दे, भय से त्राण दे।।


जीवन का पथ आलोकित हो, ज्योति-प्रमाण दे।


जग-जीवन-धुन अनुरागित हो, पुलकित प्राण दे।।


 


*पुस्तक प्रतीक पुण्य-पाठ का, है तव हाथ में।


वीणा की धुन संदेश सदा, सुखकर साथ में।।


ज्ञान-विवेकी नीर-क्षीर का, भर दे माथ में।।


डोले जब धीरज तो देना, संबल क्वाथ में।।


 


*वेद-शास्त्र-उपनिषद सर्जना, ग्रंथ महान दे।


श्लोक-सूक्ति कल्याणी-कविता, नित नव गान दे।।


बुद्धि-प्रखर कर, हंसवाहिनी! परिमल ज्ञान दे।


परिपूरित झिलमिल तारों से, व्योम-वितान दे।।


****************************


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


*******************


 


२ - 


*माँ का अस्तित्व* (रोला छंद) -------------------------------------------


विधान- ११ एवं १३ मात्रा पर यति के साथ प्रतिपद २४ मात्रा, चार चरण, युगल पद तुकांतता। 


................................................


 


*माँ है जग-आधार, इसी में विश्व समाये।


माँ के बिन उपकार, जनम कोई कब पाये ??


पीकर माँ का दूध, छाँव ममता की पाये ।


जग में है विख्यात, किसे माता न सुहाये ??


 


*माँ तो है वरदान, हरे वह विपदा सारी।


सृष्टि-वृष्टि हर दृष्टि, मातु की प्यारी-न्यारी।।


ऋद्धि-सिद्धि हर तुष्टि, अतुल है अपार है माँ ।


विश्व-विशद-प्रतिरूप, स्वयं ही विहार है माँ ।।


 


*माँ तो सतत दयालु, काज हर करती पूरा ।


करती है माँ पूर्ण, पिता का प्यार अधूरा ।।


बुरी बला दे टाल, लगाती काला टीका।


पूजा की है थाल, ऋचा वेदों-सम नीका।।


 


*साँसों का सुरताल, हृदय में बन रहती है।


निज संतान-शरीर, रुधिर बनकर बहती है।।


जग-उपवन में फूल, बनी है सुगंध भी माँ ।


भाले निज परिवार, नेक है प्रबंध भी माँ ।।


 


*माँ का जो है त्याग, सोच लो मन में अपना।


क्यों लेते हो छीन? मातु का सुंदर सपना।।


जो है निज भगवान, मान दो माँ को आओ ।


जानो जग का तीर्थ, मातु-पद माथ-झुकाओ ।।


------------------------------------


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


------------------------------------


 


३ - 


*"अपना देश महान "*(सरसी छंद गीत)


****************************


विधान-16+ 11= 27 मात्रा प्रतिपद, पदांत Sl, युगल पद तुकांतता।


****************************


*लहराता है ध्वजा-तिरंगा, भारत की है शान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


देश हमारा प्यारा-न्यारा, इस पर है अभिमान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


 


*धोता पाँव सदा सागर है, मुकुट हिमालय माथ।


जीवनदायी बहतीं नदियाँ, प्रगति-लहर के साथ।।


हरियाली से खुशहाली का, मिला विमल वरदान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


 


*बहती सुरसरि है शुचिता की, रवितनया सम भाव।


सरस्वती-सत्संगति मिलती, रहे न द्वेष-दुराव।।


है सच संगम गहन-गुणों का, देव-लोक प्रतिमान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


 


*वीरों की यह धरा पुनीता, अमल अमोलक भान।


जाए जान न मान गँवाये, शूर-सुधीजन खान।।


मुस्लिम गीता गा सकते हैं, हिंदू पढ़ें कुरान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


 


*समरसता का सागर लहरे, हो नित नव शुचि भान।


इस मिट्टी पर मिट जायेंगे, रक्षित करने आन।।


"नायक" जप-तप-योग-भजन में, हो भारत-गुणमान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


**************************


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


*******************


 


४ - 


*"गंगा जीवनदायिनी"* (वर्गीकृत दोहे)


*****************************


¶गंगा जीवन दायिनी, धरती का शृंगार।


शैल-सुता अवदान से, है जग-जन-उद्धार।।1।।


(16गुरु,16लघु वर्ण, करभ दोहा)


 


¶गंगा है अति पावनी, मनुज करे निष्पाप।


हरती है अघनाशिनी, दैहिक-दैविक ताप।।2।।


(15गुरु,18लघु वर्ण, नर दोहा)


 


¶आयी लेकर स्वर्ग से, पावन-परिमल धार।


जल से धरती सींचकर, सतत करे उद्धार।।3।।


(13गुरु,22लघु वर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)


 


¶गंगोत्री से निकलकर, बहे नगर-वन-ग्राम।


गंगा सागर में मिले, गंगासागर धाम।।4।।


(15गुरु,18लघु वर्ण, नर दोहा)


 


¶बहती जाती है जहाँ, लगे स्वर्ग का भान।


मिट्टी करके उर्वरा, देती जीवन-दान।।5।।


(18गुरु,12लघु वर्ण, मण्डूक दोहा)


 


¶कठिन भगीरथ दिव्य तप, प्रण का है परिणाम।


मर्म महत मंदाकिनी, धायी धरती धाम।।6।।


(13गुरु, 22लघु वर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)


 


¶धाम त्रिवेणी बन बसा, संगम राज-प्रयाग।


पावन गंगा स्नान से, जीवन हो बेदाग।।7।।


(16गुरु, 16लघु वर्ण, करभ दोहा)


 


¶पावन गंगा ध्यान धर, लो परलोक सुधार।


कल्पवास कर माघ में, हो भवसागर पार।।8।।


(14गुरु, 20लघु वर्ण, हंस/मराल दोहा)


 


¶गंगाजल के पान से, मोक्ष मिले तन-प्राण।


माता है भवतारिणी, करती है कल्याण।।9।।


(17गुरु, 14लघु वर्ण, मर्कट दोहा)


 


¶गंगा में विष घुल रहा, चिंतन की है बात।


मानवकृत यह आपदा, जैविक जीवन घात।।10।।


(14गुरु, 20लघु वर्ण, हंस/मराल दोहा)


 


¶सरिता दूषित हो रही, करना गहन विचार।


गंगा के उद्धार से, मानव का उद्धार।।11।।


(16गुरु, 16लघु वर्ण, करभ दोहा)


 


¶अमिय सरिस सुरसरि सलिल, पावन परम प्रबोध।


गंगाजल पर हो रहे, नित-नित नूतन शोध।।12।।


(8गुरु, 32लघु वर्ण, कच्छप दोहा)


 


¶सुरसरि शोधन सोच पर, केन्द्रित हो अवधान।


महत जगत-कल्याण का, गंगा है वरदान।।13।।


(12गुरु, 24लघु, पयोधर दोहा)


 


¶धो लो मन के मैल को, क्या होगा कर जाप?


मन की गंगा साफ हो, मिटे सकल संताप।।14।।


(17गुरु,14लघु वर्ण, मर्कट दोहा)


 


¶गंगा महज नदी नहीं, है देवी-प्रतिमान।


"नायक" हर्षित हिय करो, माता के गुणगान।।15।।


(15गुरु, 18लघु वर्ण, नर दोहा)


*****************************


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


*******************


 


५ - 


*"महत्तम माता ममता"*


(कुण्डलिया छंद)


****************************


* गोदी माँ की चाहते, देव, मनुज, भगवान।


पालनहारे भी पले, माता का रख मान।।


माता का रख मान, जन्म धरती पर पाते।


पूरण करते काज, मातु का मान बढ़ाते।।


कह नायक करजोरि, कृपा माँ की मन-मोदी।


तरसे सकल जहान, पुनीता माँ की गोदी।।


*****************************


¶सह लेती हर कष्ट को, माता रहकर मौन।


जीती हित संतान के, माँ से बढ़कर कौन??


माँ से बढ़कर कौन? भान ईश्वर का जानो।


तेज-तपस्या-त्याग, रूप माँ का पहचानो।।


कह नायक करजोरि, समर्पित सुख कर देती।


माँ जीवन-आधार, दुःख चुपके सह लेती।।


*****************************


¶पावन माँ का नाम है, करती सबका त्राण।


सुख देती है दुःख हर, करती है कल्याण।।


करती है कल्याण, पुण्य पग पावन परिमल।


उमगत उदधि उदार, स्नेह शुचि निर्झर छल-छल।।


कह नायक करजोरि, ईश से बढ़ मनभावन।


प्रणतपाल प्रतिमान, पूज्य माँ-शुभ पद पावन।।


****************************


¶ममता-मर्म महान-महि, मातु महत मणि मान।


मुकुलित-मुखरित मातु-मन, महके मनः मकान।।


महके मनः मकान, मोम-मन मानो-माता।


मान मातु-मंतव्य, मोद मानस-मुस्काता।।


मंगल (नायक) मुद मन-मोर, मुदित-मति मान-मचलता।


मोहक-मधु-मकरंद, महत्तम माता-ममता।।


****************************



लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


*******************


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सविता मिश्रा, वाराणसी उत्तर प्रदेश l

सविता मिश्रा


पुत्री :- श्री राम नारायण मिश्रा


जन्मतिथि :- 29 दिसम्बर 1982


शिक्षा :- परास्नातक


कार्य क्षेत्र :- शिक्षा, समाज सेवा और काव्य लेखन


मूल निवासी :- सुसुवाही, वाराणसी उत्तर प्रदेश


काव्य यात्रा :- 2 साल से


अनेक मंचों से काव्य पाठ, Facebook, whatsapp से ऑनलाइन कवि सम्मेलन,


 


कविता - 1


 


शीर्षक :- मेरी माँ 


 


जो अपने हृदय की गहराई में अपार प्रेम रखती है,


जिसमें हर रंग साफ दिखाई देता है,


जो सुख की छांव मे अपने बच्चों को हमेशा रखती है,


जिसके चरणों में स्वर्ग होता है l l 1 l l


जो फूल, खुशबू, रंग, प्रकाश पुंज, ममता का सागर है,


जो ठंडक, प्रेम, आशीर्वाद, उपहार है l


जो भगवान से भी बढ़कर हैं,


कोई नहीं उससे बढ़कर है l l 2 l l


जो हमें बहुत प्यार, दुलार करती है,


संवारती, सजाती और समझाती है l 


जिससे मेरी सुबह और शाम है,


मेरे लिए चारों धाम है l l 3 l l


जो मेरे जीवन का आधार है,


जिसके बिना नहीं मेरा कोई आधार है l


कोई और नहीं, कोई और नहीं, और नहीं,


वो तो मेरी माँ है..... मेरी माँ है... माँ है l l 4 l l


मेरे लिए पूजनीय हैं मेरी माँ,


मेरे लिए अद्वितीय है मेरी माँ l


मैं तेरी हूँ परछाई माँ, 


ये बात जग में है छाई माँ ll 5 ll


तू तो मेरा जहान है माँ,


तू तो मेरे जीने का अरमान है माँ l


मेरे जीवन रूपी बगिया में दो महकते गुलाब है,


उसमे से मेरी माँ एक महकता हुआ एक गुलाब है l l 6 ll


 


सविता मिश्रा, कवियत्री, वाराणसी उत्तर प्रदेश l


9129578209. 


 


 


कविता - 2


 


शीर्षक :- अपने और अपनों


 


ना धन का साथ चाहिए, ना ही दौलत का साथ चाहिए मुझे l


बस अपनों के हाथ का साथ ही चाहिए मुझे ll


क्योंकि अपने है तो मैं हूँ l


अपनों से ही मैं हूँ ll


अपनों से ही मेरा मोल है l


अपनों के बीच ही मेरा मोल है ll


अपने नहीं तो कुछ भी नहीं हूँ मैं l


अपने है तो सब कुछ हूँ मैं ll


अपनों से ही आधार है मेरा l


बिन अपनों के निराधार हैं मेरा ll


अपने तो है पूँजी मेरी l


बिन अपनों के नहीं हैं कोई पूँजी मेरी ll


जीना भी है अपनो के लिए मुझे l


मरना भी है अपनों के लिए मुझसे ll


यही एक जहान है मेरा l


यही एक जीने का अरमान है मेरा ll


 


सविता मिश्रा कवियत्री वाराणसी उत्तर प्रदेश l


9129578209.


 


कविता :- 3


 


शीर्षक :- रक्तदान.... महादान...


विषय :- रक्तदान दिवस (14 जून )


 


आओ मिलकर रक्त दान करें हम सभी,


लोकहित के लिए कुछ काम करे हम सभी l


रक्तदान है महादान...... महादान,


इससे मिलता है किसी को जीवन दान l


ना होती है कमजोरी और ना कोई थकावट,


इससे मिलती है हम सभी को राहत l


घर - घर संदेश है हमे पहुँचाना,


हर एक की जान है हमे बचाना l


रक्त की हर एक बूंद का है अर्थ,


इसे करे ना हम कभी भी व्यर्थ l


हर एक बूंद रक्त की है कीमती,


मिलता है किसी को पुनः जीवन कीमती l


रक्तदान से होता है जनकल्यान,


सबको दे बस हम यही ज्ञान l


सविता मिश्रा, कवियत्री, वाराणसी उत्तर प्रदेश l


9129578209.


 


कविता :- 4 


शीर्षक :- मेरा पिता


विषय :- पितृ दिवस (21 जून )


 


मेरी इज्जत, मेरी साहस, मेरा स्वाभिमान है मेरा पिता ,


मेरे लिए तो मेरा भगवान है मेरा पिता l


मेरी हर एक खुशी का आधार है मेरा पिता,


मेरी जीवन रूपी बगिया का महकता एक गुलाब है मेरा पिता l


सारे जहां से न्यारा है मेरा पिता,


मेरे लिए सुपर स्टार, सुपर मैन है मेरा पिता l


मैं उसकी बेटी हूँ मेरा है भाग्य,


वो मेरा पिता है मेरा है सौभाग्य l


करती हूँ मैं शत शत वंदन,


करती हूँ मैं कोटि कोटि अभिवंदन l


सविता मिश्रा, कवियत्री, वाराणसी उत्तर प्रदेश l


9129578209.


 


कविता :- 5


विषय :- पर्यावरण दिवस (5 जून ) 


शीर्षक :- पेड़ - पौधे लगाओ


पेड़ - पौधे लगाओ, पेड़ - पौधे लगाओ l


पर्यावरण को बचाओ, पर्यावरण को बचाओ ll


पेड़ हमारे मित्र है, यह संदेश जन - जन तक पहुँचाओ l


इसकी उपयोगिता से जन- जन को जाग्रत करो ll


पेड़ों से ही स्वच्छ व शुद्ध मिलती है हवा l


इसी से ही शीतल मिलतीं है छाया ll


ताजे फल - फूल - सब्जी भी देते हैं हमे l


जङी - बूटी - औषधि से स्वास्थ भी रखते हैं हमे ll


जन्म से मृत्यु तक हमारा साथ देते हैं l


अपना सब कुछ हम पर हो न्यौछावर कर देते हैं ll


पेड़ नहीं तो धरा पर नहीं जीवन होगा l


यह बार अब हम सभी को ही समझना होगा ll


आओ हम सभी पर्यावरण को बचाने का संकल्प लें l


एक एक पेड़ लगाने का ही हम सभी विकल्प चुने ll



9129578209.


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश

चिट्ठी न कोई ख़बर आ रही है......... एक ग़ज़ल 


   """""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""


 


चिट्ठी न कोई ख़बर आ रही है, 


धड़कन हमारी ठहर जा रही हैं।


 


वो देती है मुझको वफ़ा की दुहाई,


वो तब से हरिक सू नज़र आ रही हैं।


 


सावन की रिमझिम फुहारें भी जैसे, 


जमीं पर गुलों सी बिखर जा रही हैं। 


 


वो ज़ुल्फ़ों की ज़ुल्मी काली घटाएँ,


जो रह रहके दिल के नगर जा रही है। 


 


मुझे जिनकी मुद्दत से जुस्तजू थी


वो आकर इधर अब उधर जा रही हैं।


 


दिल ने इबादत की रात और दिन, 


अब देखो तो वो किस क़दर जा रही हैं।


 


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०) मो० नं० 9919886297


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*दोहा ग़ज़ल*


 


चापलूस के जाल में कभी न फँसना यार।


बाहर से मीठा बनत भीतर है तलवार।।


 


बहुत अधिक चालाक है चापलूस की जाति।


मूर्ख बनाने का मिला है इनको अधिकार।।


 


मन में विष थाली सजी बाहर अमृत भोग।


टपकाते हैं प्रेम से सब पर रस की धार।।


 


सदा खुशामद में मगन हिल-मिल करते बात ।


काम बनाने के लिये करते सरहद पार।।


 


अति विचित्र जीवन चरित सभी काम आसान।


काम बनाने के लिये जोड़त सारे तार।।


 


कलियुग में अतिशय सफल चापलूस की कौम।


अधिकारी की मालिकिन के ये पहरेदार।।


 


हाँ में हाँ करना सदा इनका असली कर्म।


इसी नाव पर बैठकर करते जीवन पार।।


 


पीछे-पीछे दौड़ना ही इनका है धर्म।


झूठ प्रशंसा को सदा देते हैं रफ्तार।।


 


घर को अपने छोड़कर अधिकारी के संग।


घुमा करता रात-दिन अधिकारी का सार।।


 


अधिकारी को चाहिये चापलूस की फौज।


इनके बल पर दौड़ती अधिकारी की कार।।


 


चापलूस की जिन्दगी का मत पूछो हाल।


इन पर पड़ती है नहीं अधिकारी की मार।


 


चापलूस बनना कठिन स्वाभिमान से दूर।


अधिकारी का करत है निशिदिन शाखोच्चार।।


 


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0हरि नाथ मिश्र

त्याग-महात्म्य-2


तजि आलस कुरु बिनु फल-इच्छा।


सेवा-भाव त्याग कै सिच्छा ।।


   आलस त्यागि करहि जे करमा।


   निज गृह-काजु-दान-जगि-धरमा।।


लहहिं परम सुख अंतहिं काले।


अस जन प्रभु के भगत निराले।।


    परम दयालु-सुहृद,प्रभु-प्रेमी।


    करहिं श्रवन प्रभु-कथा सनेमी।।


अस जन त्यागी अहँ संसारा।


हरहिं अनाथ-कलेस अपारा।।


    बंधु-बांधवहिं,स्त्री-नौकर।


    सुत अरु सुता सबहिं कै होकर।।


एकहि भाव-सोच उर धारी।


सेवैं जस सेवहिं उपकारी।।


    पाठन-पठन-श्रवन प्रभु-लीला।


    करहिं त्यागि आलस गुनसीला।।


सकलै भोग लोक-परलोका।


मानि असत जग रहहिं असोका।।


    कबहुँ न माँगहिं अस बरदाना।


     करु प्रभु मोर अबहिं कल्याना।।


बरु चलि जाय प्रान अबिनासा।


पर नहिं माँगहिं भोग-बिलासा।।


    त्यागी जन जग जस प्रह्लादा।


    अगिनि प्रबेस कीन्ह अहलादा।।


दोहा-त्यागी माँगहिं कबहुँ नहिं, लोक औरु परलोक।


         भोग-बिलास न चाहि के,जग मा रहहिं असोक।।


                       डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


डॉ0हरि नाथ मिश्र

दोहा गीत(चीन के लिए चेतावनी)


भारत की प्रभुता अमिट, नहीं किसी आधीन।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


 


करो नहीं तुम मूढ़ता,सीमा को मत तोड़।


चाल तुम्हारी अति घृणित,अब ज़िद अपनी छोड़।।


पुनः किया गतिरोध तो, सत्ता लेंगे छीन।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


 


तेरी शोषण-नीति अब,नहीं करेगी काम।


तेरी झूठी शान का,होगा काम तमाम।।


सुनो खोल के कान तुम,नहीं हिंद है हीन।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


 


अब तो तेरी चीन सुन,नहीं गलेगी दाल।


समझ गया यह हिंद अब,तेरी टेढ़ी चाल।।


सीमा-रेखा लाँघ कर,कर न पाप संगीन।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


 


एक-एक को खींचकर, मारेंगे ये वीर।


समर-कला में निपुण अति, सब सैनिक गंभीर।।


विविध आयुधी-ज्ञान में,सेना सभी प्रवीन।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


 


तुम लोलुप,अति कुटिल तुम,यह तेरी पहचान।


मानवता को त्याग कर,मिथ्या धन-अभिमान।।


मानवता-उपकार ही, हिंद-मूल्य -प्राचीन ।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...