संजय जैन (मुम्बई)

*अपनो से डर*


विधा : कविता


 


न जाने कितनों को,


अपने ही लूट लिया।


साथ चलकर अपनो का,


गला इन्होंने घोट दिया।


ऊपर से अपने बने रहे,


और हमदर्दी दिखाते रहे।


मिला जैसे ही मौका तो,


खंजर पीठ में भौक दिया।।


 


ये दुनियाँ बहुत जालिम है,


यहां कोई किसी का नही।


इंतजार करते है मौके का,


जो मिलते भूना लेते है।


और भूल जाते है अपने


सारे रिश्ते नातो को।।


और अपना ही हित


ऐसे लोग देखते है।।


 


आज कल इंसान ही,  


इंसान पर विश्वास नही करता।


क्योंकि उसे डर, 


लगता है अपनो से।


की कही उससे विश्वासघात,


मिलने वाले न कर दे।


तभी तो अपनापन का,


अभाव होता जा रहा है।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


29/07/2020


संजय जैन (मुम्बई)

*संगनी का साथ..*


विधा : गीत


 


मैं अब कैसे बतलाऊँ, 


अपने बारे में लोगो।


कैसे करूँ गुण गान, 


अपने कामो का मैं।


बहुत कुछ सीखने को, 


मिला मुझे यहाँ पर।


और निकाले जीवन के, 


30 वर्ष यहाँ पर।।


 


मिला सब कुछ जीवन में,  


जो भी चाहा था हमनें।


करू कैसे मैं इंकार की,  


मिला नहीं अपनों का प्यार।


जो किये थे पूर्व जन्म में,  


कुछ अच्छे कर्म हमने।


तभी तो मिला है मुझको, 


आप सब से इतना प्यार।।


 


अब फिरसे शुरू करूँगा,


नई पारी की शुरुआत।


इस पारी में हमें मिलेगा,   


जीवनसंगनी का साथ।


पूरे जीवन करती रही, 


वो सब लोगो का ख्याल।


अब बारे मेरी आई है, 


रखूँगा उसका में ख्याल।।


 


उम्र के इस पड़ाव पर,


नहीं मिलता किसीका साथ।


सभी अपने जीवन को,  


जीते है अपने अपने अनुसार।


सही में हम दोनों को, 


मिला जीने का ये अवसर।


तो क्यों शामिल करे हम,  


औरो को इस कार्य में।।


 


निभाएंगे हम दोनों किये थे,


जो एक दूसरे से जो वादे।


सुखदुःख की हर घड़ी में, 


रहेंगे साथ अब हम दोनों। 


जिंदगी को संग जीने की, बहुत बड़ी सच्चाई है।


इसे जितने जल्दी तुम, 


समझ लोगे तुम प्यारो।


हकीकत खुद व्य करेगी, 


समय के आने पर।।


 


जय जिनेंद्र देव की


संजय जैन (मुंबई ) 


30/07/2020


संजय जैन (मुम्बई)

*कार्यशाला से सेवानिवृती* 


विधा : कविता


 


कर्मशाला से विदाई का


अब समय आ गया।


तो दिल की धड़कने 


बहुत तेजी हो गई।


और अपनो के प्यार के लिए,


दिल बहुत तड़पने लगा।


साथ जिनके काम किया,


अब उनसे विदा ले रहा हूँ।


और अपनी नई जिंदगी में


प्रवेश करने जा रहा हूँ।।


 


कितना उतार चढ़ाव भरा रहा,


मेरा कार्य क्षैत्र का सफर।


कितने पराये अपने बने,


और कितने अपने रूठ गये।


जो रूठे वो अपने थे,


जो पराये थे वो अपने बने।


क्योंकि सफर जिंदगी का,


इसी तरह से चलता है।


जिसके चलते कर्मशाला से,


मेरे सफर का अंत हो गया।।


 


सीने में कुछ राज अब हमेशा के लिए दफन हो गये।


और नई सोच के साथ


नई जिंदगी का उदय हो गया।


और उनकी साजिशों का,


आज पर्दाफाश हो गया।


और हमको संभालने का


समय रहते मौका मिल गया।


और अपने परायों का 


आज से खेल खत्म हो गया।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


31/07/2020


संजय जैन (मुम्बई)

*भाई बहिन का बंधन*


विधा : कविता


 


भाई बहिन का बंधन,


जिसको कहते रक्षाबंधन।


स्नेह प्यार से बंधा रहे,


भाई बहिन का रिश्ता।


इसलिए तो आता है,


हर साल ये रक्षा बंधन।


बहिना सबसे मिलती है,


मायके में इसदिन आकर।


दिल सबके खिल उठाते है,


बहिना से जो मिलकर।


भागम भाग की जिंदगी से,


मिल नही पाता हम सब।


इसलिए तो कृष्ण ने,


बना दिया ये रक्षा बंधन।


ताकि मिल सके भाई-बहिन,


इस बंधन के कारण ही।


और याद करे वो मिलकर,


अपने बचपन की यादों को।


श्रेष्ठि निर्माता ने ही तो,


रचा संसार कुछ ऐसा।


जिसमे सभी को दिया,


कुछ न कुछ तो ऐसा।


जिससे सभी में बना रहे,


स्नेह प्यार के संबधं बंधन।


और मिलजुल कर मनाते रहे,


होलो दिवाली और रक्षा बंधन।


रक्षा बंधन रक्षा बंधन।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


02/08/2020


डॉ प्रताप मोहन "भारतीय

*** अख़बार ***


वक़्त के साथ


काम करने के


तरीके भी बदल


जाते है


मेरे यार


पहिले


छप के बिकते


थे अख़बार


इन दिनों


बिक के


छप रहे है


अख़बार


   लेखक -


          डॉ प्रताप मोहन "भारतीय 308, चिनार - ऐ - 2 ओमैक्स पार्क वुड - बद्दी - 173205 (H P) मोबाइल - 9736701313


Email - DRPRATAPMOHAN@GMAIL.COM,


एस के कपूर श्री हंस बरेली।

शीर्षक- बच्चों को चमक ही


चमक नहीं , रोशनी चाहिये।


 


बच्चों को मंहगे त्यौहार नहीं,


उन्हें संस्कार दीजिये।


उनको अपनी अच्छी सीखों,


का उपहार दीजिये।।


आधुनिक खिलौने तो ठीक है,


परन्तु उनके लिए तो।


कैसे करें बड़ों से बात वह,


उचित व्यवहार दीजिये।।


 


बच्चों को अभिमान नहीं,


स्वाभिमान सिखाइये।


आलस्य नहीं गुण उनको,


काम के बताइये।।


बच्चों को चमक ही चमक,


नहीं चाहिये रोशनी।


दिखावा नहीं आदर आशीर्वाद,


का गुणगान दिखाइये।।


 


बच्चों को भी सिखाइये कैसे,


बनना है आत्मनिर्भर।


प्रारम्भ से ही बताइये कैसे,


चलना है जीवन सफर।।


अच्छी आदतें पड़ती हैं अभी,


कच्ची मिट्टी में ही।


जरूर सुनाइये कहानी साहस, 


की दूर करना उनका डर।।


 


नींव ही समय है बनने को,


बुलंद इमारत का।


कैसी होगी आगे की जिन्दगी,


उस इबारत का।।


आगे बढ़ने के गुण डालिये शुरू,


से ही भीतर उनके।


वह शुरू से ही पाठ पढ़ें मेहनत,


और शराफत का।।


 


रचयिता। एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


मो 9897071046


               8218685464


सत्यप्रकाश पाण्डेय

और चढ़े नहीं रंग है......


 


जड़ से लेकर चेतन में


बस तेरा ही तो रंग है


मुझे कहां फिर परवाह


जीवन मे तेरा संग है


 


जब मिलता बल तुमसे


हिय में उठती तरंग है


जीतूंगा जंग जगत की


जब कान्हा मेरे संग है


 


हे ब्रह्मांड के सृजनहार


रहे दर्शन की उमंग है


सत्य हृदय की ज्योति


ये जिंदगी तेरा अंग है


 


कालचक्र में पिसूं नहीं


रहे सतत तेरा रंग है


कृपा वृक्ष की छाया में


और चढ़े नहीं रंग है।


 


श्री माधवाय नमो नमः


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल---


 


चले हैं सारे परिंदे भी अब घरों की तरफ़


निगाहें मेरी भी उठ्ठीं कई दरों की तरफ़


 


तमाम रात भटकता फिरा हूँ सड़कों पर


यहाँ है कौन जो देखे मुसाफ़िरो की तरफ़


 


छुयेगा कैसे बुलंदी वो आसमानों की


जो देखता हो हमेशा से ही परों की तरफ़


 


लो इतनी हो गई रफ़्तार तेज़ मेरी भी


उड़ाई धूल है मैंने भी कुछ सरों की तरफ़


 


बला की प्यास है अब तक कहीं न बुझ पाई


गया था शौक से मैं भी समुंदरों की तरफ़


 


मैं अपनी जंग भी लड़ता कहाँ कहाँ तन्हा


खड़े थे सारे ही अपने सितमगरों की तरफ़


 


बना के बुत उसे पूजा है मुद्दतों हमने 


निगाहे-यार न उठ्ठी पुजारियों की तरफ़ 


 


गुलों की आरज़ू साग़र भी कैसे हम कर लें


उठाये जाते हैं पत्थर ही सरफिरों की तरफ़ 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


12/10/2017


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल महराजगंज, उत्तर प्रदेश।

वर्तमान के झरोखे संग


अब उम्र बीती जा रही


भविष्य के सपनों संग


दु:ख बढ़ती जा रही।


 


वर्ष पुराने ऐसे निकले


जैसे ओस बढ़ती जा रही


धूंधली सी तस्वीरें देखो


उस पार निकलती जा रही।


 


भविष्य के सपनों संग


दु:ख बढ़ती जा रही।


 


जीवन के परिवर्तन संग


नित नये चक्र चलती जा रही


उत्थान पतन तो क्रम ही है


अपार स्नेह बढ़ती जा रही।


 


भविष्य के सपनों संग


दु:ख बढ़ती जा रही।


 


जब अंधियारों से डरते थे


मां संग हो चलती जा रही


आज अंधेरों संग ही देखो


किसलय खिलती जा रही।


 


भविष्य के सपनों संग


दु:ख बढ़ती जा रही।


 


हंसी और अंश्रुओं में देखो


भीगते पलछिन बीती जा रही


वर्षों को देखो दिन सा बीते


श्वासों में सब ढलती जा रही।


 


भविष्य के सपनों संग


दु:ख बढ़ती जा रही।


 


रचना- दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


     महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार कुं० जीतेश मिश्रा" शिवांगी"


माता:- स्व० श्रीमती मनोरमा मिश्रा


पिता:- श्रीमान रामाधार मिश्रा (पुत्र स्वतन्त्रता संग्राम सैनानी)


निवास :- धौरहरा ,लखीमपुर खीरी ,उत्तर प्रदेश 


शिक्षा :- एम ए (हिन्दी साहित्य) कम्प्यूटर डिप्लोमा ।


सम्प्रति:- अध्यापिका 


सम्मान/ पुरस्कार :- साहित्य साधक सम्मान, विभिन्न साहित्यिक समूहों से प्राप्त प्रमाण पत्र , कई ई-प्रमाण पत्र और खेलकूद प्रतियोगिता सम्मान पत्र ।


रचनाएं-: काव्य रंगोली पत्रिका,साझा संकलन ,कई ई-बुक व पत्रिका,ब्लागर,समाचार पत्र में प्रकाशित रचनाएं ।


 


रचनाएं-:


 


                              (१)


 


शीर्षक- कुछ भी असम्भव नहीं


विधा- कविता


 


तुम चाहो तो सब सम्भव है,उज्जवल होगा भारत का कल ।


 


यदि करने पर तुम आ जाओ ।


यदि साहस से तुम डट जाओ ।।


मंजिल पर अपनी ध्यान रखो ।


तुम अडिग हो आगे बढ जाओ ।।


 


                तुम ठान लो जो कर सकते हो ।


                जिद साहस से बढ़ सकते हो ।।


                इस धरा पे जो भी क्रिया बनीं ।


                वो सभी क्रिया कर सकते हो ।।


 


यदि इतना कहा मेरा मानों ।


सब कुछ सम्भव हो जायेगा ।।


कुछ भी असम्भव नहीं धरा पर ।


यह भी साबित हो जायेगा ।।


 


                 तुम मानव हो अभिमान करो ।


                 इस जीवन का सम्मान करो ।।


                 हर ज्ञान दिया ईश्वर ने तुम्हें ।


                  युग निर्माता यह भान करो ।।


 


उठो ! बढ़ो ! भारत के कल ।


तुमसे उज्जवल है हर इक पल ।।


युग को बदलो निर्माण करो ।


बन उठो हर इक प्रश्नों का हल ।।


 


तुम चाहो तो सब सम्भव है,उज्जवल होगा भारत का कल ।


 


                              (२)


 


शीर्षक-: सावन


विधा-: गीत


 


 


सावन आया सावन आया झूम झूम के ।


मन ये मेरा नाचे सखी री घूम घूम के ।।


आया रे सावन आया रे आया रे सावन आया रे ।


मोरा मनभावन आया रे मोरा मनभावन आया रे ।।


 


सावन आया सावन आया.......


 


धूम मची है बागों में ऐसे ।


शिव शिवा झूल रहे झूलें हों जैसे ।।


प्रेम ऋतु प्रेम ऋतु बरसे झूम झूम के ।


 


मन ये मेरा नाचे सखी री घूम घूम के।।१।।


 


मधुबन में भी सखी झूले पडे हैं ।


श्याम श्यामा की प्यारी जोड़ी सजे है ।।


बंशी बाजे बाजे रे बाजे जाये तन झूम रे ।


 


मन ये मेरा नाचे सखी री घूम घूम के ।।२।।


 


शिव की करो पूजा गौरा संग रे ।


सावन में रे करो पावन अंग रे ।।


रिमझिम गिरें फुहारें शिव के चरण चीन के ।।


 


मन ये मेरा नाचे सखी री घूम घूम के ।।३।।


आया रे सावन आया रे आया रे सावन आया रे ।।


 


                              (३)


 


शीर्षक-: आगोश


विधा-: गीत


 


 


अपने आगोश मेरी माँ सदा भर कर मुझे रखना ।


छवि मैं हूँ तुम्हारी माँ ना खुद ऱसे कर जुदा रखना ।।


 


सृजन कर्ता तुम्हीं मेरी 


तुम्हीं से रूप पाया है ।


तपी हो तुम मेरी खातिर


तभी ये धूप छाया है ।।


समाकर खुद में माँ मुझको मुझे जग से बचा रखना ।


 


अपने आगोश मेरी माँ सदा भर कर मुझे रखना ।।


 


समाती हूँ आलिंगन में


खुद को महफूज पाती हूँ ।


दिया रोशन तुम्हीं से माँ


मैं इक मात्र बाती हूँ ।।


तुम्हारी छाया हूँ मैं माँ सजाकर के मुझे रखना ।


 


अपने आगोश मेरी माँ सदा भर कर मुझे रखना ।।


 


लेके दुख दर्द सब मेरे


हर इक गम से बचाती थी ।


नहीं आती थी जब निंदिया 


मुझे लोरी सुनातीं थी ।।


गया हो आसमाँ लेकर मेरी लोरी बचा रखना ।।


 


अपने आगोश मेरी माँ सदा भर कर मुझे रखना ।


छवि मैं हूँ तुम्हारी माँ ना खुद से कर जुदा रखना ।।


 


                               (४)


 


शीर्षक-: *एक बात जमाने से प्रियतम, गर तुम बोलो तो पूँछ ही लूँ ।


विधा-: गीत


 


 


इक बात जमाने से प्रियतम, यदि तुम बोलो तो पूछ ही लूँ ।


 


क्यों जलती है पगली दुनिया.....


जब हम और तुम मिल जाते है ।


जब प्रेम में होते है हम तुम ....


क्यों जल सब के दिल जाते है ??


 


एक बात जमाने से प्रियतम, यदि तुम बोलो तो पूछ ही लूँ ।।


 


हर सम्भव करते हैं प्रयास....


खो जायें हम इक दूजे में ।


क्या खो बैठेगी ये दुनिया.....


यदि मिल जायें इक दूजे में ।।


 


एक बात जमाने से प्रियतम, यदि तुम बोलो तो पूछ ही लूँ ।


 


यदि मिले नहीं इस जीवन...


हम जीते जी मर जायेंगे ।


इक जन्म नहीं काफी होगा ...


मन घट न कभी भर पायेंगे ।।


 


एक बात जमाने से प्रियतम, गर तुम बोलो तो पूछ ही लूँ ।


 


पर एक प्रश्न फिर उठता है


दुनिया से अलग नहीं हम भी।


दुनिया है तो खुशियाँ भी हैं


चलते हैं साथ सदा गम भी।


 


इक बात जमाने से प्रियतम, यदि तुम बोलो तो पूछ ही लूँ।


 


                                (५)


 


शीर्षक-: मजदूर


 


 


कमाने गये थे जो जीविका चलाने को ।


उनको क्या थी खबर मुसीबत आन पडे़गी ।।


थे सफर पर निकले जिस आजीविका की खातिर ।


कौन जानता था आफत में जान पडेगी ।।


उनको क्या थी खबर मुसीबत आन पडेगी ।।


 


छोडकर गाँव मोहल्ले गलियाँ अपनी ।


दूर देश को निकल पड़े थे ।।


दो जून की रोटी मिल जाये सभी को ।


सब छोड़कर घर अपने फुटपाथ पड़े थे ।।


प्रवासी बने आजीविका खातिर ये सोचकर ।


कि चादर आसमाँ की बनेगी ।।


 


उनको क्या थी खबर मुसीबत आन पडेगी ।।


 


अपनों को छोडकर चले थे....


आजीविका के लिए प्रवास पर ।


रिक्शा खींचकर मजदूरी करके.... चला रहे थे जिन्दगी इस आस पर ।।


मेहनत करके जो कमा पायेंगे...


घर परिवार की उससे खुशियाँ लायेंगे ।


याद उन्हें भी तो घर की आती है.....


मजदूर है तो क्या.....!!


घर का निवाला घर की रोटी उन्हें भी घर बुलाती है ।।


घर लौटने की उनकी चाह ।


चेहरे की मुस्कान बनेगी ।।


 


उनको क्या थी खबर मुसीबत आन पडेगी ।।


 


महामारी ने सबको झकझोर दिया है ।


रूख जिन्दगी का जाने किधर मोड़ दिया है ।।


साथ हों अपने और जिन्दगी बचे इस खातिर ।


जिन्दा रहने को सबने शहर छोड दिया है ।।


मजदूर है वो मजबूरी ओढ़ रहे है ।


नंगे पाँव जिम्मेदारी का बोझ उठाये .....


चिटकी धूप में मीलों दौड़ रहे है ।।


पाँवों के छालों ने सबको चूर किया है ।


मीलों की दूरी तय करने पर मजबूर किया है ।।


शायद यही था परिणाम जो आजीविका के लिए था ।


कौन जानता था कि इक रोज ये जिन्दगी ......


यूँ विवशता में राह पर आ बेजान पडेगी ।।


 


उनको क्या थी खबर मुसीबत आन पडेगी ।।


श्रेया कुमार नई दिल्ली

प्रेम गीत


"नज़र जो मिली उनकी नज़रों से"


@श्रेया कुमार


 


नज़र यू उठी उनकी ओर की जमाने की नजरों से,


यह नजरें चुपके से उनकी नजरों को 


निहार आई....


शिकवे थे ,बहुत शिकायतें भी थी बहुत....


पर जब देखा उनकी ओर तो उनकी भी नजरें हमारी ओर ही थी....


यु टकरा आई नज़रें....


 नज़रों से...


जैसे" समुद्र की लहरें" से टकराकर फिर शांत हो गई हो.....


 


मुस्कुराहट थी ....यू लबों पर


जैसे "नदी मिल आई हो समुंदर "से


जमाने की नजरों से चुरा कर....


यू उनसे आज नजरे मिल आई,


जैसे उनकी नज़रें भी कुछ कह रही हो मेरी नज़रों से....


"खामोशियां थी ,बहुत...


शोर कर रही थी जैसे" विरान- खंडहरों" में 


"कौतुहलता बहुत थी," हृदय "में 


धड़क-धड़क कर रही थी ...


नज़र जो मिली उनसे...


"गुनहगार -सी "हो गई थी यह... नजरें


निकल पड़ी.. नजरों से " आंसू "रूपी "मोती "बनकर..


"शिकायतें" बहुत थी... उनसे


यूं बहकी ...आज नजरें..


"मंदिरा -भरा, प्याला आंखों में..


"मद- मदमाती" नशे सी झूम गई..


क्योंकि


" मेरी नजरें उनकी नजरों से जो मिल गई"........


श्रेया कुमार


नई दिल्ली


मिलनसार अपार्टमेंट


प्रकाशन हेतु रचना


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार माधुरी पौराणिक शिक्षक झाँसी


शिक्षा Bsc M. A. BTC 


पता स्थायी। 157 सिंधिकोलोनी कम्पू लश्कर ग्वालियर मध्य प्रदेश


कविता कहानी लिखना ओर ड्राइंग ये मेरे बचपन से प्रिय विषय।


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


 


1मुझको ग़मों के साये में जीना सिखा गया ♀


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


वक़्त एसा मरहम जो सब कुछ भुलना सिखा गयi


बुझा बुझा सा मन में ,आसका दीपक जला गया


^


ढाइ आखरप्रेम का जिन्दगी जीना सिखा गया 


नफरत अपनों के दिलो में आग एसी लगा गया 


भाई भाई को आपस म लड़ा गया,


^^


पड़े लिखे लोगो का एसा जमाना आ गया 


अपने बुजुर्गो का ये सम्मान करना भुला गया


^^


आधुनिकता के नाम पर देश की संस्कृति को भुला गया ।।


आँखों से शर्म ह्या के सiरे परदे गिरा गया


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^(2)^^^^^^^^^^^^^


तुम्हे भूले तो लगा जिन्दगी भूल गई जेसे 


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


तुम्हे भूले तो लगा जिन्दगी भूल गई जेसे 


आसमा से देखा तो लगा जमी अपनी से जैसे 


^^


भीड़ में भी रह के देखा पर तनहा तब भी जैसे 


पराओ से क्या उम्मीद अपने भी पराये जैसे 


^^


एक तू न लगे तो जिन्दगी में कमी से जैसे 


मुस्कराते रहते हे पर अन्दर कुछ गमी सी जैसे 


^^


न बनी न ठनी फिर भी आँखों में कुBछ नमी सी जैसे 


तुम्हे भूले तो लगा जिन्दगी भूल गई जैसे


तम्हारे बिन माधुरी अधूरी सी लगे जैसे।।


^^^^^^^^^^^^^^(3)^^^^^^^^^^^


 


^क्या बात हे अपने ही .....


आज पीठ में खंजर भोखने लगे... 


.लोगो को छोरो हम तो ....


खुदअब अपनी बात से मुकरने लगे,,,,,


,,अब तो लोग भूल गये ...


घर के सामने से यु गुजरने ल गे.....


 न जाने क्यों .दुआ सलाम से भी लोग अब तो कतराने लगे,,


,,आज फिर लोग क्यों हम से डरने लगे।।


^^^^^^^^^^^^^(4)^^^^^^^^^^^^^^


छोटी छोटी बात पर मुझे आजमाना छोर दो 


अपने तो आखिर अपने होते ,अपनों से बात छुपाना छोर दो 


जख्म खाए हुए हे ,अब तो सताना छोर दो 


जा अब ना याद आ ,तुम यादो में आना छोर दो 


फासले हे अब तो सपनो में आना जाना छोर दो ।


दिल्लगी बहुत हो चुकी अब तो दिल लगाना छोर दो।


हम तो डरे हुए हे अब आँखे दिखाना छोर दो।।


^^^^^^^^^^^^^^(5)^^^^^^^^^^^^^ये मनवा ये मनवा चले हवा के जैसे ,


  कभी इधर कभी उधर उड़े जैसे ,


इसकी चाल का पता नही कैसे


ये बहके इधर उधर आंधी तूफान के जैसे ।।


कभी सच को माने कभी झूट को  


कभी प्रेम में डूबे तो कभी नफरत अछि लगे इसे ।।


न रहे एक जगह पे  


कभी शांति के दीप जलाता है


कभी आक्रामक हो जाता है


कभी आस का घर कर जाता  


कभी घोर निराशा में डूब जाता  


ऐसे।।


के मनवा ये मनवा चले हवा के जैसे।।


सामाजिक सरोकारों में दूरदर्शन एवं आकाशवाणी की भूमिका

आज के परिवेश में दूरदर्शन और आकाशवाणी की भूमिका,


परिचर्चा


साहित्य, संस्कृति और करोना की स्थिति में क्या है और कितनी सिद्दत से ये दोनों ' बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' के साथ साथ 'सत्यम् शिवम और सुन्दरम्' को साथ लेकर आगे बढ रहे है ,,,


 एक परिचर्चा ,जिसमें शामिल हुए-


भीम प्रकाश शर्मा, सहायक निदेशक कार्यक्रम नीति आकाशवाणी महानिदेशालय देहली ,


डा अमर नाथ 'अमर' वरिष्ठ साहित्यकार, मीडिया सलाहकार,


सुमन द्विवेदी,लेखिका, दूरदर्शन एंकर ,समाज सेवी,देहली


वार्ताकार डॉ इंदु झुनझुनवाला संपादक काव्य रंगोली बेंगलूरु 


Zoom meeting app द्वारा काव्य रंगोली फेसबुक समूह हेतु रिकार्ड किया गया कार्यक्रम दिनाँक 30 जुलाई 2020 समय 11 बजे प्रातः से


आप सभी का आत्मीय आभार ,अपना कीमती वक्त और अमूल्य विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए


वीडियो एवं पोस्ट देखे इस लिंक से 


https://www.facebook.com/groups/726215637462008/permalink/3156932247723656/


🙏🙏🙏💐💐💐


सुरेन्द्र पाल मिश्रा पूर्व निदेशक भारत सरकार

आज सावन सोमवार के अवसर पर भगवान शिव के दशम् ज्योतिर्लिंग की कथा तथा महिमा।


ज्योतिर्लिंग दशम् शम्भु का परम पुनीत श्री त्रियम्बकेश्वर।


गोदावरी तट महाराष्ट्र सह्य पर्वत के विमल शिखर पर।


रहतीं थीं जो ब्राम्हण महिला, महर्षि गौतम जी के तप बन।


हुई सभी की किसी बात पर ऋषि पत्नि अहल्या से अनबन।


ऋषि गौतम के अपकार हेतु मुनियों ने छल से काम लिया।


श्री गणनायक की अनुकम्पा से क्रतिम गौ का निर्माण किया।


ले जाकर खड़ी किया उसको गौतम के उपवन के अन्दर।


ऋषि लगे हटाने त्रण द्वारा गैया मर गई वहीं गिर कर।


तत्क्षण ही ब्राम्हण पहुंच गए बोले आश्रम में ना जाओ।


प्रायश्चित हित तुम धरती अरु गिरि ब्रम्ह परिक्रमा कर आओ।


विधिवत अपना स्नान करो पवित्र गंगा जी को लाकर।


पूजन अर्चन करो शम्भु का करोड़ एक शिव लिंग बनाकर।


ऋषि के कठोर तप पूजन से सन्तुष्ट हुए प्रभु शिवशंकर।


मुनिवर के सम्मुख प्रगट हुए ज्योतिर्लिंग रूप में आकर।


प्रभु बोले हैं निष्पाप आप दोषी तुम्हें बनाया छल से।


तब ऋषि गौतम ने विनती की श्री महादेव शिवशंकर सेग।


स्वीकार किया उनकी विनती पावन गंगा को धारण कर।


ज्योतिर्लिंग रूप में शिव जी स्थित हुए इसी स्थल पर।


सदा शिव त्रियम्बक महादेव गंगा प्रसिद्ध गौतमी गंगा।


त्रियम्बकेश्वर पाप विनाशक सदा रहें भक्तों के संगा।


चरण कमल रज शीश धरूं नित पूजूं तुम्हें सदा निष्काम।


हे शिवशंकर हे गंगाधर हे गौरीपति तुम्हें प्रणाम।


     सुरेन्द्र पाल मिश्र पूर्व निदेशक भारत सरकार।


मोबाइल नं ९९५८६९१०७८,८८४०४७७९८३


सुरेंद्र पाल मिश्र पूर्व निदेशक भारत सरकार

भगवान शिव के नवम् ज्योतिर्लिंग की कथा एवं महिमा।


             --- नवम्--- 


ज्योतिर्लिंग नवम् शम्भु का काशी विश्वनाथ अघनाशक।


पावन काशी नगरी स्थित दुःख त्राता पथ परम प्रकाशक।


प्रलयकाल श्री शिव काशी को निज त्रिशूल पर धारण करते।


सृष्टि काल में फिर से इसको यथास्थान धरती पर रखते।


सृष्टि कामना से शिव जी की यहीं तपस्या की श्रीहरि ने।


किया प्रसन्न यहीं शिव जी को तप द्वारा अगस्त मुनि वर ने।


परम पवित्र सनातन नगरी त्यागे जो भी प्राण यहां पर।


कहते तारक मंत्र श्रवण में देते परम धाम शिव शंकर।


पंच प्रधान तीर्थ अति पावन विश्वेश्वर आनन्द वाटिका।


केशव लोलार्क दशवाश्वमेध बिन्दु माधव अरु मणिकर्णिका।


इस कारण यह अविमुक्त क्षेत्र नगर मध्य विश्वेश्वर खण्ड।


इसके दक्षिण केदारखण्ड उत्तर दिशा में है कारखण्ड।


विवाहोपरान्त गोरी जी ने पति गृह जाने की इच्छा की।


आये पावन नगरी काशी पार्वती के संग शंकर जी।


विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग रूप माता संग स्थित इस नगरी।


दर्शन पूजन का फल अनन्त शिव भक्तों की आस्था गहरी।


चरण कमल रज शीश धरूं नित पूजूं तुम्हें सदा निष्काम।


हे शिव शंकर हे गंगाधर हे गौरीपति तुम्हें प्रणाम।


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार कुसुम सिंह अविचल कानपुर- (उ०प्र०)     

डॉ कुसुम सिंह *अविचल*


1145-प्लॉट, रतनलाल नगर


कानपुर-208022


उ०प्र०


व्यक्तित्व-


सेवानिवृत पूर्व अधिकारी पंजाब नेशनल बैंक-कानपुर मण्डल


वर्तमान--अध्यक्ष-संयोजक आगमन साहित्यिक समूह- कानपुर इकाई


संस्थापक अध्यक्ष--'श्री सत्यसन्देश...एक संकल्प" साहित्यिक संस्था ,कानपुर


कृतित्व--


कविता लेखन,वैचारिक आलेख लेखन में रुचि


प्रकाशित कविता संग्रह--


"अनुभूति से अभिव्यक्ति तक"-2016


"गागर से छलकता सागर"2018


"क्षितिज के उस पार"--2019


लघु कविता संग्रह--


"हिमनद"--2017


"लहरों में समन्दर"--2018


इसके अतिरिक्त समय समय पर कविताएं,लेख,समसामयिक आलेख दैनिक,साप्ताहिक,मासिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।साझा काव्य संग्रहों,संकलनों व पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।


विभागीय,स्थानीय व राष्ट्रीय संस्थाओं से अनेक साहित्यिक सम्मानों से सम्मानित।


समय समय पर विभागीय,स्थानीय व राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा आयोजित वैचारिक सम्मेलनों,संगोष्ठियों में वक्तव्य,संवाद व काव्यात्मक गोष्ठियों में मंचीय प्रस्तुतियां।


 


कविता--1


 


 


 


    महामारी कोरोनॉ संकट


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रक्तबीज सी व्याधि कोरोनॉ, पनप रही हर पल अबाध,


अदृश्य बना घातक विषाणु,मायावी दानव सी है साध,


श्वास हर रहा,प्राण ले रहा,कैसा फैलाया माया जाल,


आना होगा माँ असुर मर्दिनी ,खप्पर संग ले चंद्रहास।


 


संकट की है घड़ी विकट एकजुट होकर लड़ना होगा,


आपसी भेद भाव को भूल,कोरोनॉ अरि से भिड़ना होगा।


 


हो रहा विषैला पर्यावरण,यह सबसे बड़ी चुनौती है,


प्रकृति से छेड़छाड़ अनुचित,नितप्रति कर रही पनौती है।


 


क्रुद्ध हुई प्राकृतिक सृष्टि,प्रतिक्रियात्मक प्रकोप दिखाती है,


ऋतुचक्र कालक्रम बदल बदल,मानव को लक्ष्य बनाती है।


 


अब भी हम संभले नहीं अगर,यह आफत कहर मचाएगी,


प्राकृतिक चक्र यूँ ही टूटेगा,सृष्टि पर विपदा आएगी।


 


नित नई व्याधियों की आहट,नई नई विपदाओं की दस्तक,


वैज्ञानिक शोध पड़े चक्कर में,औषधि चिकित्सा ज्ञानप्रवर्तक।


 


मानव बम,मानव जनित विषाणु,खुद सर्जक दानव का मानव,


मानव-मूल्यों को भुला दिया,स्वयंभू मानव बना महादानव,


 


उलटी गिनती आरंभ हुई अब,बनना था विश्व की महाशक्ति


विध्वंसक विज्ञान ज्ञान लेकर,हो रही सृष्टि की महाविनष्टि।


 


विज्ञान हमारा सहयोगी,पर हावी जब हम पर होता है,


तो दनुजों की दुर्जेय शक्ति सा,निज अहंकार में खोता है।


 


मस्तिष्क संतुलन खो करके अनुचित करने लग जाता है दैवीय योग अस्तित्व छेड़, अपना प्रभुत्व समझता है।


 


है समय अभी सचेत हो हम,त्यागे विनाश के सब हथियार,


विश्वपटल समग्र होगा समृद्ध,ले विज्ञान ज्ञान के चमत्कार।


 


हैं भले धर्म सम्प्रदाय पृथक,है एक हमारा स्वर परचम,


मानव संस्कृति से एक है हम,भारत की शान न होगी कम।


 


स्वीकार हमें हरएक चुनौती,वरदान हमें नचिकेता सा,


जीवन अपना संघर्षशील,सौभाग्य अजेय विजेता का।


 


हम सजग रहें भयभीत नहीं,हम श्रेष्ठ सहिष्णु धैर्यवान,


वनवास नहीं गृहवास मिला है,समझो हम हैं भाग्यवन।


 


डटकर टक्कर देंगे इस व्याधि को,दुम दबा कोरोनॉ भागेगा,


सौगंध हमें अपनी संस्कृति की,विजयी भव अपना हिंदुस्तान।


                      जय हो भारत


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24-04-2020                 रचनाकार


8318972712             डॉ०कुसुम सिंह*अविचल*


9335723876             1145-रतनलाल नगर                कानपुर


208022(उ०प्र०


 


कविता-2


 


           आशा-किरण


           ************


माना कि संकट है घना,जीवन भी है कुछ अनमना,


झंझावातों से घिरा यह,विधि की है प्रस्तावना,


नैराश्य के वारिद से धूमिल,हो गयी आशा की किरणें,


है अमावस रात की लम्बी इसे पूर्णमास कर देंगे,


                             एक नया इतिहास रच देंगे,


                             फिर नई शुरुआत कर देंगे।


घुल गया है वायु में विष,श्वास लेते भी डर रहे हैं,


गतिमान जीवन थम गया है,क्लांत जीवन जी रहे हैं,


ऊर्जा को मूर्छा आ गयी,उल्लास बोझिल हो गया है,


पतझड़ सी उजड़ी शुष्कता को मधुमास कर देंगे,


                              एक नया इतिहास रच देंगे,


                              फिर नई शुरुआत कर देंगे।


लक्ष्य ओझल हो गया है,नेपथ्य में हैं पथिक सारे,


भंवर में है फंसा जीवन,दूर नज़रों से किनारे,


प्रकृति से खिलवाड़ करने की सजा हम पा रहे हैं,


भूल मानव से हुई है,अपराध का एहसास कर लेंगे,


                               एक नया इतिहास रच देंगे,


                                फिर नई शुरुआत कर देंगे।


जीवन की बगिया फिर खिलेगी,संगीत की धुन फिर बजेगी


सृजन होगा फिर नया,शुचि सत्य की नदियां बहेगी,


युग का नवल उत्थान होगा,साकार होंगे स्वप्न सारे,


कल्पनाएं नभ छुएंगी,प्रेम के सम्बंध पर विश्वास भर देंगे,


                                   एक नया इतिहास रच देंगे,


                                    फिर नई शुरुआत कर देंगे।


इस आपदा का अंत होगा,हर संभावना अंगड़ाई लेगी,


लहलहायेंगी फिर से फसलें,सोंधी मृदा फिर भू की होगी,


स्वीकार्य होगी सभ्य संस्कृति,आत्म निर्भर हम बनेंगे,


सद्गुणों से युक्त होकर,अवगुणों का प्रतिकार कर देंगे,


                                   एक नया इतिहास रच देंगे,


                                    फिर नई शुरुआत कर देंगे


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                                      रचनाकार


                                      डॉ०कुसुम सिंह *अविचल*


                                       कानपुर


 


         कविता--3


 


 


                          "सृष्टि सौंदर्य"


 


                           ***********


 


उदित जो प्राची से तुम प्रभाकर,


 


पश्चिम में अस्ताचल को गमन वो,


 


हमें बताना गति अपने पथ की,


 


ऊषा से गोधूलि तक का भ्रमण वो।


 


                वसुधा गगन संग क्षितिज बन उभरते,


 


                सरिता की लहरों में सतरंग भरते,


 


                चैतन्य करते धरा का जो जीवन,


 


                प्राणी जगत सुप्त का जागरण वो।


 


रजनी के नायक रजत पुंज अम्बर,


 


अपना ठिकाना बताते नहीं हो,


 


किधर से हो आते,किधर को हो जाते,


 


अधूरे या पूरे,जताते नहीं हो।


 


               तारों की बारात संग तुम कलानिधि,


 


               कलाओं से अपनी जगत को रिझाते,


 


               पूनम के चंदा की उपमा हैं अनुपम,


 


               अमावस में सूरत दिखाते नहीं हो।


 


बरस के झमाझम जो बादलों तुम,


 


इंद्रधनुषी छटा से गगन को सजाते,


 


सूचित हमें हो कि किस लय गति से,


 


धरणी को तुम यूँ भिगो करके  जाते।


 


                   पवन के झोकों बहो निरंतर,


 


                   दिशा ठिकाना हमे तुम बताना,


 


                   कि किस यति और किस मति से,


 


                   प्रवाह अपना बहाते चलते।


 


उपवन की कलियों जब तुम चटकना,


 


प्रफुल्लित हो करके तुम महकना,


 


रखना सुगन्धित महक बन्द अपनी,


 


बताना उसे जब तुम्हें हो बहाना।


 


                   भ्रमरों की गुंजन से गुंजित हो बगिया,


 


                   तितली भी फूलों का रस ले रही हो,


 


                   हरीतिम छटा में पुष्पों के सब रंग,


 


                   बेलों में डाली में जब तुम सजाना।


 


जो काट हिमखण्ड प्रस्तर से टकरा,


 


वन वन भटकती राहें बनाती,


 


हिमालय से चलकर बही हो जो गंगे,


 


अविरल विरल धार अपनी बहती।


 


                 भुवि पर उतर करके लहरों में बहती,


 


                 धरती की माटी को उर्वर बनाती,


 


                  राहों में नदियों नद संग समागम,


 


                  नियत लक्ष्य पा,जा उदधि में समाती।


 


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01-06-2019           रचनाकार


 


संपर्क सूत्र                  डॉ०कुसुम सिंह 'अविचल'


 


09453815403       1145--(प्लॉट स्कीम)


 


08318972712        रतन लाल नगर


 


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       कविता--4


 


 


 छू लेने दो अब मुझे शिखर


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रिश्तों का जंजाल हटा,हो जाऊं मुखर,हो जाऊं प्रखर,


अनुबंधों के कटिबन्ध हिले,छू लेने दो अब मुझे शिखर।


 


सम्बन्धों के लिए समर्पण ही,कर गया छलावा संग मेरे,


मैं रही सरलऔर सहज सदा,बिछे कपट जाल सम्मुख मेरे।


 


सम्बन्धों पर विश्वास सुदृढ,मेरी आँखों को भिगो गया,


नित धूल झौकता आंखों में,जीवन कटुता में डुबो गया।


 


अब सम्बंध सुहाते नहीं मुझे,हो गयी वितृष्णा इन सबसे,


अपनों ने ही किये प्रपंच,तो करूं शिकायत अब किससे।


 


खुद से ना कोई उपालम्भ,हर फर्ज निभाया शिद्दत से,


अपने ही छलते रहे सदा,खुद अपनी अपनी फितरत से।


 


रही अडिग जीवन पथ पर,बाधाएं विचलित कर न सकी,


हर मार्ग मिला,हर लक्ष्य मिला,सफलता ने मानों राह तकी।


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मो०9453815403             रचनाकार


      8318972712            कुसुम सिंग *अविचल*


      9335723876            कानपुर-208022 (उ०प्र०)


 


 


कविता-5


 


 


                              "रिक्तता"


                             *********


हरा भरा सुखदायी जीवन ,पलभर में ही रिक्त हो गया,


विचलित हुई गति जीवन की,भावी जीवन स्तब्ध हो गया,


छल-छद्म का त्रास मिला अपनों से,गैरों से कोई गिला नहीं,


सच का चोला ओढ़े था जो,अंतस से झूठा था,घात हो गया


 


अमिय कलश में गरल भरा, जीवन में हुआ भरम,


ज्ञात नहीं था छल का मुझको,इतना सरल नियम,


परिस्थितियां कुछ भिन्न हुई,कुछ वैसी ही बनी रही,


स्मृतियों के द्वार वेदना ने ले लिया जनम।


 


डगमग जीवन नैय्या डोली,अपनों ने जीवन खार किया,


चिन्तन लेखन पतवार बनी,बिखरे जीवन को निखार दिया,


जीवन से न कोई उपालम्भ,प्रारब्ध का लेखाजोखा है,


शुचिता धीरज दृढ़ता की शक्ति,जीवन प्रपंच को पार किया


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09453815403                रचनाकार


08318972712             


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ मीरा त्रिपाठी पांडेय मुंबई, महाराष्ट्र

*परिचय* : डॉ मीरा त्रिपाठी पांडेय


 


*जन्म तिथी* : १ नवम्बर, मिर्ज़ापुर (उत्तर प्रदेश) ।


 


*शिक्षा* : एम. ए. (हिंदी साहित्य, राजनीति शास्त्र), पी. एच. डी - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 


बी.एड - मुंबई वि. वि 


ध्यान प्रशिक्षिका- महर्षि अंतराष्ट्रीय वि. वि, नॉएडा ।


 


*समाज सेवा* : अखिल भारतीय अपराजिता समाज सेवा संस्थान अध्यक्षा के रूप में सामाजिक, सांस्कृतिक व् पर्यावरणीय समाज सेवा का लगभग २० वर्षों की समाज सेवा ।


जागरूकता शिविर, नेतृत्व प्रशिक्षण शिविर, वार्ता, परामर्श द्वारा महिलाओं की समाज सेवा ।


 


*कार्य अनुभव* : प्रवक्ता, अकबर पीरभोय महाविद्यालय


विभागाध्यक्ष- हिंदी विभाग ।


 


*प्रकाशन एवं प्रसारण* : कविताओं, कहानियों एवं अन्य रचनाओं का पत्र पत्रिकाओँ में सत्त प्रकाशन ।


 


*प्रकाशन* : साझा संकलन: मुंबई की हिंदी कवयित्रियाँ,


सीप के मोती, काव्यप्रवाहिनी, काव्यतारंगिनी, जब जब याद आये..., अनुभव: कहानी संग्रह, काव्यधारा, रत्नावली ।


एकल संकलन: एक थी गौरी, अंतरमन के द्वार, उस मीरा से इस मीरा तक


एवं आकाशवाणी वाराणसी, इलाहाबाद, और मुंबई से प्रसारित कविताएँ ।


महाराष्ट्र साहित्य अकादमी में काव्य पाठ ।


 


_________________________


 


१. *समाधि के स्वर*


 


मैं ध्यान योगिनी हूँ...


   पल पल की मोहिनी हूँ...


 


मोहन की बातें करती हूँ...


   मैं ध्यान योग में रहती हूँ ।


 


आठों आयाम मेरा है...


   प्राणायाम का डेरा है...


 


आसमान में आसन है...


   इतना बड़ा सुशासन है ।


 


प्रत्याहार की बातें है...


    स्वल्पाहार सिखाते हैं...


 


आठों याम ध्यान में जाता...


    मानव मन प्रखर हो जाता ।


 


धारणा धारण करती हूँ...


  सतत् समाधि में रहती हूँ...।।


 


डॉ मीरा त्रिपाठी पांडेय


पुस्तक: उस मीरा से इस मीरा तक...


 


२. *नारी*


 


कर्म की उपासिनी,


   नारी, ही है कर्मिणी ।


धर्म की ध्वजा लिए,


   मौन की सजा लिए,


अधर्म की हतभागिनी ।


   जीवन की सहधर्मिणी,


आँचल में दूध लिए,


   नयन में दुकूल लिए,


मन में अनुकूल लिए,


   समाज प्रतिकूल लिए,


अनुबंध की है मानिनी,


   जगत् धर्मशालिनी ।


कर्म का हथौड़ा, हाथ में


   जगत् लिए साथ में ।


नेह की प्रवासिनी,


   जगत् की निवासिनी ।


मानव की सहधर्मिणी,


   जन्म से मरण तक ।


सत्यधर्म मानिनी ।।


 


३. *मन बंजारा भागे*


 


मन बंजारा भागे...


   नीले अंबर से आगे...


 


घनी धूप में रात हुई है...


   सपनों में बरसात हुई है...


मन से मन की बात हुई है...


   सोएँ जज़्बात हैं जागे...


 


मन बंजारा भागे... 


   नीले अंबर के आगे... ।।


 


संकल्प का बिछौना है...


    सुरभित मन का कोना है...


इस धरती से उस अंबर तक...


     सुंदर सपन सलोना है...


 


मन बंजारा भागे...


      नीले अंबर से आगे... ।।


 


अतल- वितल है... 


    मन सम- तल है...


 मन ही मन को भांपे...


    मन की गहरायी को नापे...


 


मन बंजारा भागे...


     नीले अंबर से आगे... ।।


 


राग- रागिनी संग ए डोले...


      ख़्वाबों के नित नए हिंडोले...


मन में ए अमृत रस घोले...


       मन के सब अन्तरतम खोले...


मन बंजारा भागे...


    नीले अंबर से आगे...।।


 


चंचन मन में दीप जलाएँ...


   आँधी से फिर उसे बचाएँ...।।


 


४. *" श्रम की सार्थकता "*


 


कर्म की जय बोलो,


    श्रम की महिमा तोलो ।


सृजन दिवस है, अखिल


                     विश्व में...


    कर्मरती पशु- पक्षी भी,


      हैं मानव सृष्टि में ।


 


कर्मरत मन है ।


     सुख दिवास्वप्न है ।


कर्म ही धर्म है ।


     कर्म ही पूजा ।


कर्मकार सा नहीं कोई दूजा ।


     कर्म है विश्वास ।


कर्म ही है आभास ।


 


श्रम ही है, जीवन संबल ।


      सृजन का पल -हर -पल ।


कर्म का ऐसा सुन्दर लेख ।


      श्रम ही है, जीवन आलेख ।


धरा का यही है, सच्चा सपूत ।


      अन्न ही है, हवन का हूत ।


 


कर्म का उत्कृष्ट नमूना...


       नारी सृष्टि का कोना- कोना ।।


 


५. *कोरोना-ए- कहर*


 


स्वर हुए खामोश अब तो,


    परछाइयाँ दिखती नहीं हैं 


हर तरफ पसरा अँधेरा,


     रौशनी भी गुम हुई अब ।


 


चाँद- सूरज तो वहीँ हैं, 


      धरा- गगन भी तो वही हैं ।


क्यों हुए खामोश स्वर है ?


      सम्वेदनाएँ थम-सी गयी क्यों ?


 


आला चमन भी वही है,


       अहले वतन भी वही है ।


प्रकृति से जितने दूर हुए, 


       उसकी सजा तो मिलनी थी ।


 


इस महामारी ने जीना,


        सबका दुश्वार किया ।


न आर किया न पार किया,


         बीच में डेरा डाल दिया ।।


 


© *


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार विवेक रंजन श्रीवास्तव जबलपुर

विवेक रंजन श्रीवास्तव


 


२८ जुलाई १९५९ में मण्डला के एक साहित्यिक परिवार में जन्म हुआ . इंजीनियरिंग की पोस्ट ग्रेडुएट शिक्षा के बाद विद्युत मण्डल में शासकीय सेवा . संप्रति मुख्यालय में मुख्य अभियंता के रूप में सेवारत हैं . १९९२ में पहली किताब आक्रोश नई कविताओ की छपी . फिर व्यंग्य की किताबें रामभरोसे , कौआ कान ले गया , मेरे प्रिय व्यंग्य , धन्नो बसंती और बसंत आई . मिली भगत नाम से एक सयुक्त वैश्विक व्यंग्य संग्रह का संपादन किया जिसमें दुनियांभर से ५१ व्यंग्यकारो के व्यंग्य शामिल हैं . व्यंग्य के नवल स्वर में सहभागिता . टी वी , रेडियो , पत्र पत्रिकाओ में निरंतर प्रकाशन .


संपर्क


बंगला नम्बर ए १ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर ४८२००८


मो ७०००३७५७९८


 


1


बीरबल तुम्हारी जाने कब


पकने वाली


खिचडी


जो तुमने पकाई थी कभी


उस गरीब को


न्याय दिलाने के लिये


क्यों आज न्याय के नाम पर


पेशी दर पेशी पक रही है


पक रही है पक रही है


खिचडी क्यों


बगुलों और काले कौऔ की ही गल रही है


और आम जनता


सूखी लकडी सी


देगची से


बहुत नीचे


बेवजह जल रही है


दाल में कुछ काला है जरूर


क्योंकि


रेवडी


सिर्फ अपनों को ही बंट रही है


रेवडी तो हमें चाहिये भी नहीं बीरबल


पर मुश्किल यह है कि


दो जून किचडी भी नहीं मिल रही है


 


Vivek Ranjan Shrivastava


 


2


 


वसीयत


 


माना


कि मौत पर वश नही अपना


पर प्रश्न है कि


क्या जिंदगी सचमुच अपनी है ?


हर नवजात के अस्फुट स्वर


कहते हैं कि ईश्वर


इंसान से निराश नहीं है


हमें जूझना है जिंदगी से


और बनाना है


जिदगी को जिंदगी


 


इसलिये


मेरे बच्चों


अपनी वसीयत में


देकर तुम्हें चल अचल संपत्ति


मैं डालना नहीं चाहता


तुम्हारी जिंदगी में बेड़ियाँ


तुम्हें देता हूँ अपना नाम


ले उड़ो इसे स्वच्छंद/खुले


आकाश में जितना ऊपर उड़ सको


 


सूरज की सारी धूप


चाँद की सारी चाँदनी


हरे जंगल की शीतल हवा


और झरनों का निर्मल पानी


सब कुछ तुम्हारा है


इसकी रक्षा करना


इसे प्रकृति ने दिया है मुझे


और हाँ किताबों में बंद ज्ञान


का असीमित भंडार


मेरे पिता ने दिया था मुझे


जिसे हमारे पुरखो ने संजोया है


अपने अनुभवों से


वह सब भी सौंपता हूँ तुम्हें


बाँटना इसे जितना बाँट सको


और सौंप जाना कुछ और बढ़ाकर


अपने बच्चों को


 


हाँ


एक दंश है मेरी पीढ़ी का


जिसे मैं तुम्हें नहीं देना चाहता


वह है सांप्रदायिकता का विष


जिसका अंत करना चाहता हूँ मैं


अपने सामने अपने ही जीवन में...


 


3


 


मुखौटे


 


बचपन में


मेरे खिलौनों में शामिल थी एक रूसी गुड़िया


जिसके भीतर से निकल आती थी


एक के अंदर एक समाई हुई


हमशकल एक और गुड़िया


बस थोड़ी सी छोटी आकार में !


 


सातवीं


सबसे छोटी गुड़िया भी बिलकुल वैसी ही


जैसे बौनी हो गई हो


पहली सबसे बड़ी वाली गुड़िया


सब के सब एक से मुखौटौ में !


 


बचपन में माँ को और अब पत्नी को


जब भी देखता हूँ


प्याज छीलते हुये या


काटते हुये पत्ता गोभी


परत दर परत , मुखौटों सी हमशकल


बरबस ही मुझे याद आ जाती है


अपनी उस रूसी गुड़िया की !


बचपन जीवन भर याद रहता है !


 


मेरे बगीचे में प्रायः दिखता है


एक गिरगिटान


हर बार एक अलग पौधे पर ,


कभी मिट्टी तो कभी सूखे पत्तों पर


बिलकुल उस रंग के चेहरे में


जहाँ वह होता है


मानो लगा रखा हो उसने


अपने ही चेहरे का मुखौटा


हर बार एक अलग रँग का !


 


मेरा बेटा


लगा लेता है कभी कभी


रबर का कोई मास्क


और डराता है हमें ,या


हँसाता है कभी


जोकर का मुखौटा लगा कर !


 


मैँ जब कभी


शीशे के सामने


खड़े होकर


खुद को देखता हूँ तो


सोचता हूँ अपने ही बारे में


बिना कोई आकार बदले


मास्क लगाये


या रंग बदले ही


मैं नजर आता हूँ खुद को


अनगिन आकारों ,रंगो, में


अवसर के अनुरूप


कितने मुखौटे


लगा रखे हैं मैने !


 


विवेक रंजन श्रीवास्तव


 


किसना जो नामकरण संस्कार के अनुसार


मूल रूप से कृष्णा रहा होगा


किसान है ,


पारंपरिक ,पुश्तैनी किसान !


लाख रूपये एकड़ वाली धरती का मालिक


इस तरह किसना लखपति है !


मिट्टी सने हाथ ,


फटी बंडी और पट्टे वाली चड्डी पहने हुये,


वह मुझे खेत पर मिला,


हरित क्रांति का सिपाही !


किसना ने मुझे बताया कि ,


उसके पिता को ,


इसी तरह खेत में काम करते हुये ,


डंस लिया था एक साँप ने ,


और वे बच नहीं पाये थे,


तब न सड़क थी और न ही मोटर साइकिल ,


गाँव में !


इसी खेत में , पिता का दाह संस्कार किया था


मजबूर किसना ने, कम उम्र में ,अपने काँपते हाथों से !


इसलिये खेत की मिट्टी से ,


भावनात्मक रिश्ता है किसना का !


वह बाजू के खेत वाले गजोधर भैया की तरह ,


अपनी ढ़ेर सी जमीन बेचकर ,


शहर में छोटा सा फ्लैट खरीद कर ,


कथित सुखमय जिंदगी नहीं जी सकता ,


बिना इस मिट्टी की गंध के !


नियति को स्वीकार ,वह


हल, बख्खर, से


चिलचिलाती धूप,कड़कड़ाती ठंडऔर भरी बरसात में


जिंदगी का हल निकालने में निरत है !


किसना के पूर्वजों को राजा के सैनिक लूटते थे,


छीन लेते थे फसल !


मालगुजार फैलाते थे आतंक,


हर गाँव आज तक बंटा है , माल और रैयत में !


समय के प्रवाह के साथ


शासन के नाम पर,


लगान वसूली जाने लगी थी किसान से


किसना के पिता के समय !


अब लोकतंत्र है ,


किसना के वोट से चुन लिया गया है


नेता , बन गई है सरकार


नियम , उप नियम, उप नियमों की कँडिकायें


रच दी गई हैं !


अब  स्कूल है ,


और बिजली भी,सड़क आ गई है गाँव में !


सड़क पर सरकारी जीप आती है


जीपों पर अफसर ,अपने कारिंदों के साथ


बैंक वाले साहब को किसना की प्रगति के लिये


अपने लोन का टारगेट पूरा करना होता है!


फारेस्ट वाले साहेब ,


किसना को उसके ही खेत में ,उसके ही लगाये पेड़


काटने पर ,नियमों ,उपनियमों ,कण्डिकाओं में घेर लेते हैं !


किसना को ये अफसर ,


अजगर से कम नहीं लगते, जो लील लेना चाहते हैं, उसे


वैसे ही जैसे


डस लिया था साँप ने किसना के पिता को खेत में !


बिजली वालों का उड़नदस्ता भी आता है ,


जीपों पर लाम बंद,


किसना अँगूठा लगाने को तैयार है, पंचनामें पर !


उड़नदस्ता खुश है कि एक और बिजली चोरी मिली !


किसना का बेटा आक्रोशित है ,


वह कुछ पढ़ने लगा है


वह समझता है पंचनामें का मतलब है


दुगना बिल या जेल !


वह किंकर्तव्यविमूढ़ है , थोड़ा सा गुड़ बनाकर


उसे बेचकर ही तो जमा करना चाहता था वह


अस्थाई ,बिजली कनेक्शन के रुपये !


पंप, गन्ना क्रशर , स्थाई , अस्थाई कनेक्शन के अलग अलग रेट,


स्थाई कनेक्शन वालों का ढ़ेर सा बिल माफ , यह कैसा इंसाफ !


किसना और उसका बेटा उलझा हुआ है !


उड़नदस्ता उसके आक्रोश के तेवर झेल रहा है ,


संवेदना बौनी हो गई है


नियमों ,उपनियमों ,कण्डिकाओं में बँधा उड़नदस्ता


बना रहा है पंचनामें , बिल , परिवाद !


किसना किसान के बेटे


तुम हिम्मत मत हारना


तुम्हारे मुद्दों पर , राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जायेंगी


पर तुम छोड़कर मत भागना खेत !


मत करना आत्महत्या ,


आत्महत्या हल नहीं होता समस्या का !


तुम्हें सुशिक्षित होना ही होगा ,


बनना पड़ेगा एक साथ ही


डाक्टर , इंजीनियर और वकील


अगर तुम्हें बचना है साँप से


और बचाना है भावना का रिश्ता अपने खेत से !


विवेक रंजन श्रीवास्तव


5


झोपडी तुम इकाई हो


इमारतों की


तुम्हें नही मिटने देंगे


ये सरकारी दफ्तर


और उनमें काम करने वाले


तुम्हारी गिनती पर आधारित हैं


इनकी योजनायें


और उनका धन आबंटन


बरसात में बाढ़ आती है


तुम्हारी क्षति का आकलन होता है


सहायता राशि बंटती है


कुछ न कुछ इनके लिये भी बचती है


संवेदना के सर्वेक्षणों की


हवाई यात्रा


फोटो फ्रंट पेज पर छपती है


शीत लहर चलेगी


प्रकृति का नियम ही है


तुम्हारे आसपास


अलाव की माँग उठेगी


कोई समाज सेवी संस्था


तुम्हारे इलाके में कँबल बांटेगी


सरकारी अनुदान की आँच तापेगी


गर्मियों मे


आग लगने की


घटनायें भी होंगी ही


तब


घांस फूस बाँस के साथ


स्वाहा हो जायेंगे


तुम्हारे भीतर बुने गये


छोटे छोटे सपने


नेता जी बिना बुलाये आयेंगे


बहुत सी घोषणायें कर जायेंगे


झोपडी


तुम नेता जी का वोट बैंक हो


तुम्हें नही मिटने देंगी


उनकी आकांक्षायें


झोपडी


तुम्हारे चित्र कला है


तुम्हारी संस्कृति लोक जीवन है


तुम्हारी बेबसी


कथाकार का बिम्ब है


तुम्हारे अक्स में जिंदा है भारत


तुम्हें नहीं पता


तुम विकास के मैनेजमैंट का


कच्चा माल हो


और जनवादी चिंतन का आधार हो


जागो झोपडी


जागो


तुम्हारे हिस्से की नदी बही जा रही है


उसमें नहा रहे हैं


अफसरों के बंगले


और नेताओं की हवेलियां


क्रंदन कर रहा है तुम्हारे हिस्से का समुद्र


और झुका जा रहा है तुम्हारा आकाश


उठो जोपडी


पढ़ो विकास के पहाडे


तुम्हारी पूँजी है तुम्हारी सँख्या


तुम्हारी शक्ति है तुम्हारा श्रम


तुम्हें रिझाने चली आ रही हैं दुनियाँ


देखो छप्पर के सूराख से


सूरज झाँक रहा है


लेकर बेतहाशा सुरमई धूप


तुम्हारे हिस्से की


और घुसा आ रहा है


ताजी हवा का झोंका


तुम्हारा


पसीना पोंछने !


Vivek ranjan shrivastava


 


 


सावन


 


विवेक रंजन श्रीवास्तव


जबलपुर


 


किसे मालूम था ऐसा भी सावन आयेगा


मुंह ढ़ंके हैं सब अकेले समय ऐसा आयेगा


 


ब्रेकिंग खबरें हैं झमाझम टूटकर बरसात होगी


ये हवा तूफान मौसम सितम कितना ढ़ायेगा


 


गांव जा सकते नहीं हैं बंद ट्रेने सड़क साधन


है यहां सब बन्द अब बस ख्वाब तेरा आयेगा


 


देहरी पे आकर पड़ा है सामां पिछले चार दिन से


कोरोना मिट जाये उससे तब ये खोला जायेगा


 


पहली फुहारें रिमझीमी सोंधी खुश्बू खेत की


मंदिरों में भक्ति वाला सावन कब अब आयेगा    


 


आज भी उम्मीद है दुनियां को बस पुरुषार्थ से


बन रही हैं वैक्सीनें परचम कोई फहरायेगा


 


हक 


 


विवेक रंजन श्रीवास्तव


 


जबलपुर


 


 


हक को साबित करने खुद के , हक के खातिर जिद करो


 


अंधेरे ही रोशनी दिखलाएंगे  , हक के खातिर जिद करो


 


 


जीत ही बस लक्ष्य अंतिम , बढ़ते चलो चलते चलो


 


हार हारेगी जरूर हद से बढ़ कर, हक के खातिर जिद करो 


 


 


शहीदों की कुर्बानियां देती रहेंगी, हक के लिए वो हौसला


 


जो जिताएगा हमें हर हाल , हक के खातिर जिद करो 


 


 


हर बार सहते आए हो , मन मारकर फरमान उनके


 


जो जीतना है आज बाजी ,हक के खातिर जिद करो 


 


 


रोते लोगों को हंसाना, है सच्ची इबादत खुदा की 


 


कभी खुद को गुदगुदाओ, हक के खातिर जिद  करो 


 


 


विवेक रंजन


अतुल पाठक "धैर्य"

क्यों है प्रिय शिव को सावन का महीना? (आलेख)


 


सावन में भगवान शिव की आराधना का अपना ही महत्व है। इस महीने भोलेनाथ की पूजा करने से सबकी मनोकामना पूरी होती है।


सम्पूर्ण भारत देश में सावन के महीने को एक महापर्व की तरह मनाया जाता है। यह रीति सदियों से चली आ रही है। भगवान शिव की पूजा करने का सर्वोत्तम माह है सावन का माह। इसलिए भगवान शिव को श्रावण का देवता भी कहा जाता है। पूरे उत्साह से भरे सभी भक्तजन सावन महोत्सव मनाते हैं। विशेषकर सावन के सोमवार में शिव जी की पूजा पूरी श्रद्धाभाव और विधिविधान से की जाती है। 


आओ जानें भगवान शिव को क्यों है प्रिय सावन का महीना? ऐसा माना जाता है कि सावन भगवान शिव का अतिप्रिय महीना है। इसके पीछे का रहस्य यह है कि दक्ष पुत्री माता सती ने अपने जीवन को त्याग कर कई वर्षों तक श्रापित जीवन जीया। उसके बाद उन्होंने हिमालय पर्वतराज के घर जन्म लिया और पार्वती कहलायीं।


पार्वती ने शिव जी को पाने के लिए पूरे सावन के महीने घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनकी मनोकामना पूरी की। अपनी भार्या से मिलाप के कारण भगवान शिव को सावन का महीना अत्यंत प्रिय है।


यही कारण है कि इस माह कुँवारी कन्या अच्छे वर प्राप्ति के लिए सोमवार को शिव जी का व्रत रखकर प्रार्थना करती हैं।


पौराणिक कथनानुसार सावन के महीने में ही समुद्र मंथन हुआ था जिससे निकले हलाहल विष को पीकर भगवान शिव ने सम्पूर्ण सृष्टि को इस विष से बचाया था। इसलिए भगवान शिव का एक नाम नीलंकठ भी है। इसके बाद देवताओं ने उन पर जल डाला था इसी कारण शिव अभिषेक में जल का विशेष महत्व है। 


@


जनपद हाथरस(उ.प्र.)


मोब-7253099710


अतुल पाठक "धैर्य"

कारगिल विजय दिवस(आलेख)


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26 जुलाई 1999 एक ऐसा दिन था जिसे हरगिज़ भुलाया नहीं जा सकता क्योंकि उस दिन भारत ने कारगिल में पाकिस्तान से युद्ध में फ़तेह हासिल की थी।


इस युद्ध में भारत के वीर जांबाज़ सैनिकों ने खराब परिस्थितियों में भी निर्भीक होकर दुश्मनों से जमकर लोहा लिया और विजय प्राप्त की।


भारत और पाकिस्तान की सरहदों पर स्थित कारगिल दुनिया के सबसे ऊँचें और खराब मौसम परिस्थितियों वाला युद्ध क्षेत्र है। 1999 में हुआ युद्ध भारत और पाकिस्तान के टाइगर नामक पहाड़ी पर हुआ था जो कि श्रीनगर से 205 किलोमीटर की दूरी पर है। टाइगर नामक पहाड़ी पर मौसम बहुत ठंडा होता है जो कि रात में -45 डिग्री तक पहुंच जाता है। भारत ने निर्भीक होकर उनका सामना किया और जल्द ही बढ़ते भारतीय फौज़ के दबाव और अमेरिका के दबाव के कारण पाकिस्तान को अपनी फौज़ को पीछे हटाना पड़ा। इसके साथ ही भारतीय सेना ने उन इलाक़ों पर फिर से कब्ज़ा कर लिया जिस पर पाकिस्तान कब्ज़ा करने की कोशिश कर रहा था।


भारतीय फौज़ द्वारा किये गए इस संघर्ष को ऑपरेशन विजय नाम दिया गया और यह युद्ध आख़िरकार कुल 2 महीनों बाद 26 जुलाई 1999 को खत्म हुआ और भारत ने इसमें विजय पाई। तभी से यह दिन कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। 


कारगिल युद्ध एक ऐसी घटना है जो सदैव हर नागरिक के स्मृति पटल पर रहती है। हमारी भारतीय सेना एक माँ की तरह है जो निस्वार्थ भाव से काम करती है और बदले में कुछ नहीं मांगती है। कारगिल युद्ध में हमारी सेना के इस वीर बलिदान को कभी भी भुलाया जा सकता और यह हमें हमेशा प्रेरित करेगा। 


इस वीर बलिदान की कड़ी में एक नाम कैप्टन बत्रा का भी आता है जिन्होंने अपने जूनियर साथी लेफ्टिनेंट नवीन की जान बचाने के लिए अपनी जान भी कुर्बान कर दी।


जब कैप्टन बत्रा अपने कंधे पर उठाकर जूनियर लेफ्टिनेंट नवीन को सुरक्षित जगह पर ले जा रहे थे तभी पाक सैनिकों ने उन पर जानलेवा हमला बोल दिया जिससे एक गोली उनके सीने को भेदती हुई निकल गई। खून से लथपथ काया होने के बावज़ूद भी उन्होंने अपने साथी नवीन को सुरक्षित जगह पर पहुँचाया और पाक सेना के पाँच सैनिकों को मौत के घाट उतारा और खुद ने भारत माँ की आन में शहादत दे दी। कैप्टन बत्रा ने 10 पाक सैनिकों को मारकर पॉइंट 5140 चोटी पर तिरंगा फहराया। कैप्टन बत्रा की शहादत के बाद कैप्टन रघुनाथ(वर्तमान में रिटायर्ड कैप्टन) ने कमान संभाली और साथियों सहित दुश्मनों पर हमला बोला और पाक सेना के ग्रुप कमांडर इम्तियाज़ खां समेत 12 पाक सैनिकों को मौत के घाट उतारकर बर्फ़ीली चोटी पर भी तिरंगा फहराया।


यह थी वीर जांबाज़ सैनिकों की कारगिल फ़तेह की अमरकहानी। 


कारगिल विजय दिवस पर आओ मिलकर उन वीर शहीदों को नमन करें जिन्होंने देशप्रेम में अपना बलिदान दे दिया। 


जय हिन्द जय हिन्द की सेना 


@


जनपद हाथरस(उ.प्र.)


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार कामिनी गोलवलकर

कामिनी गोलवलकर 


पिता का नाम :-स्वा ए एल गोलवलकर 


जन्म तिथि :- 26 अगस्त 


जन्म स्थान :- ग्वालियर 


शिक्षा :- एम ए इतिहास , with computer, संगीत 


अभिरुचि :- साहित्य कविता कहानी लिखना 


सम्प्रति :-


प्रकाशित कृतियाँ :- 


सम्मान एवं उपलब्धियां :-श्री डी पी चतुर्वेदी सम्मान ,सहोदरी सोपान3


प्रकाशन :- देनिक भास्कर ,ज्ञान बोध ,समर सलिल ,काव्यांजली, काव्य. रागोली ,यूथ एजेंडा ,ई प्रायास पत्रिका ,विहँग प्रीति साझा संग्रह सहोदरी सोपान 3 कथा ,सहोदरी सोपान रचना , गीतिका मनोरम ,देनिक मेट्रो ,हमारा मेट्रो l 


प्रसारण :-


दूरभाष :-7770985164


 


ई मेल :- kamini kg7@gmail.com


 


पूरा पता "-157 सिंधी कालोनी कम्पू लशकर ग्वालियर मध्य प्रदेश 


Kamini Golwalkar 157Sindhi colony Lashkar Gwalior Madhya Pradesh 


pin code 474001


 


1)


माँ ही धरती माँ ही अम्बर


माँ होती है पालनहार


 


माँ से ममता सीखी हमने


माँ से सीखा है सत्कार


 


माँ ही धीरज माँ ही संयम


माँ से मिलता हमको प्यार


 


माँ ही दिल है माँ ही धड़कन


माँ ही है ईश्वर का प्यार


 


माँ ही पूरव माँ ही पशचिम


माँ ही उत्तर- दक्षिण का द्वार


 


माँ से ममता माँ से माया


माँ सृष्टि की रचनाकार.


 


(2)


बहुत प्यारी लगती है बेटियाँ


बहुत दुलारी लगती है बेटियाँ


बेटियाँ लागे सारा संसार हमे


बहुत न्यारी लगती है बेटियाँ


 


अपनी होती परछाई है बेटियाँ


इस धरा की अच्छाई है बेटियाँ


अहिल्या तारा मंदोदरी कुन्ती


द्रोपदी सभी कहलाई है बेटियाँ


 


धरा से गगन तक छाई है बेटियाँ


विश्व के पटल लहराई है बेटियाँ


कल्पना और सुनीता आंतरिक्ष


की दो परिया कहलाई है बेटियाँ


 


चारो और चर्चा में छाई है बेटियाँ


पीवीसिंधु ये पदक लाई है बेटियाँ


लक्ष्मीबाई दुर्गावती और इंद्रा गांधी


ने विश्व में पहचान बनाई है बेटियाँ


 


देश में खुशहाली यु लाई है बेटियाँ


सावन की घटा सी छाई है बेटियाँ


बधाई की शहनाइयां बजाई देश ने


उमड़ घुमड़ ख़ुशिया लाई है बेटियाँ


 


(3)


सुबह शाम करता बेलदारी


भोजन कि फिर भी मारा मारी


मिलती नही उसे उचित पगार


पल पल उसकी ये लाचारी


 


श्रमिकों के श्रम का हो सम्मान


सदा रखे खान पान का ध्यान


सब उनके हक की करते बात


यही सब उनका बड़ा सम्मान


 


देश के विकास में श्रमिको का दान 


इनकी मेहनत से ही देश का कल्यान 


पर्वतो को चीर के पथ बना डाले सारे 


सब मिलकर रखो सदा इनका ध्या


 


(4)


 


क्यों मोन तुम्हारा प्यार


नही इक़रार नही इंकार


कुछ ती करो इजहार


क्यों मोन तुम्हारा प्यार


 


मेरे मन के मीत 


मेरे दिल की प्रीत 


मेरा पहला गीत तुम हो


 


मेरा पहला प्यार


दिल की बहार तुम हो


सावन श्रंगार मन की


बहार तुम हो


 


बस कहदो तुम एक बार


मुझे हो गया तुम से प्यार


मुझे हो गया तुम से प्यार


क्यों मोन तुम्हारा प्यार


 


(5)


 


मुश्किल में मुस्काना सीखो


दर्दे दिल तुम गुनगुना सीखो


गमो का दौर आता जाता है 


तुम चट्टानों से लड़ना सीखो


 


फूलो से महकना सीखो


चिड़ियों से चहकना सीखो


लदी हुई डालियों से सदा


सदा झुककर रहना सीखो


 


 सूरज से सदा पावंदीे सीखो


कोयल से मीठी वाणी सीखो


ऋतुओ ने सिखाया हमको


मुश्किल में मुस्काना सीखो


 


फूलो की कोमलता सीखो


चाँद सी शीतलता सीखो


जीवन के पल पल को


खुशियों से भरना सीखो


 


हाथो को बार बार धोना सीखो


मुह पे मास्क लगाना सीखो


एक मीटर की सामाजिक दूरी 


लेन देन की तकरार न सीखो


 


(6)


 


बाबुल मैं छोटी चिड़िया तेरे आँगन में


एक कटोरी दाना पानी रखना आँगन में


भोर के साथ सफर पे निकल जाऊँगी


साझ ढ़ले घर दाना पाऊँगी आँगन में


 


बाबुल छोटे छोटे बच्चे मेरे नीड़ में


बाबुल जी खेलते है वो सदा भीड़ में


साप छछूंदर से उनको को है बचना


अपना जीवन बिताना तेरे नीड़ में


 


तिनके तिनके से नीड़ सजाया धूप में


आराम मिलते ही जरा सी,सी छाँव में


अपने बच्चों के साथ गीत गुनगुनाया


कलरव भी खूब मचाया हमने भोर में



 


 


 


 डॉ. निर्मला शर्मा  दौसा राजस्थान

यादों के साये


 उमड़ते -घुमडते बादलों के बीच 


टपकती बूंदों से सुमधुर बनते हैं गीत 


पक्षियों का सुनाई देता कर्णप्रिय संगीत 


सावन की घटा में याद आती है पुरानी रीत 


सबका आंगन में मिलकर सेवइयां बनाना


 थकान हो अगर तो चाय का प्याला थमाना


 ना कोई शिकायत ना शिकवा किसी से


 वह सावन के गीतों का मिल गुनगुनाना 


वो झूलों की पीगें बड़ी याद आए 


मोहल्ले की सब लड़कियां साथ गाएं


 वो रिश्तो का जमघट कहीं छँट गया है


 सावन या भादों का मंजर कहीं घट गया है 


वो यादों के साए बनिए स्मृतियां हैं 


नहीं अब वो आंगन नहीं रीतियां हैं


 हैं खाली सी सड़कें सूनी वीथियां हैं


 डॉ. निर्मला शर्मा


 दौसा राजस्थान


सुषमा दीक्षित शुक्ला

फूल से खुशबू कभी जुदा नहीं होती।


 


 पाकीज़गी प्यार की बेखुदा नहीं होती ।


 


है अगर कशिशे मोहब्बत रूह की।


 


 तो बाखूदा ये गुमशुदा नहीं होती।


 


 जंग ए उल्फत में अगर हार हो मुमकिन।


 


 इससे बेहतर तो इश्क की अदा नहीं होती ।


 


प्यार की राह में अगर मौत भी आए ।


 


 इससे प्यारी तो यार की कदा नहीं होती ।


 


फूल से खुशबू कभी जुदा नहीं होती ।


 


पाकीज़गी प्यार की बेखुदा नहीं होती ।


 


हो हासिले इश्क ,नहीं मुमकिन हरदम ।


 


 सुलह जज्बात से करके संभल जा ऐ ! दिल।


 


 टूटते दिल में वैसे भी कोई सदा नहीं होती।


 


 फूल से खुशबू कभी जुदा नहीं होती ।


 


पाकीज़गी की प्यार की बेख़ुदा नहीं होती ।


 



संगीता राजपूत " श्यामा


जन्म व जन्मस्थान - 12 मई 


कानपुर ( उत्तर प्रदेश ) 


संप्रति- लेखिका, कवयित्री 


प्रकाशित पुस्तके- श्यामला, माह विहंगम और नव पल्लव 


 


संपादन- मधुकर ( काव्य संग्रह) 


जय घोष ( कहानी संग्रह )


 


मान देश का करते हैं 


-------------------------- 


 


 


 


दुष्कर हो राहे जितनी 


छल छन्दो से डरते हैं 


दो सूखी रोटी खाकर 


मान देश का करते हैं ---- 


 


रूखा तन छाती भूखी 


पाटी में जय घोष लिखे 


करता गर्वित माटी को 


धूली जैसा मोल दिखे 


सर मेरे छप्पर की छत 


कुंदन सा मन रखते है 


दो सूखी-------- 


 


पावन धरणी पुण्यधरा 


रक्त समर्पित है तुम को 


धङक रही सांसे मेरी 


रक्षा का वचन है हम को 


बालक है हम भारत के 


भाव समर्पण लिखते हैं 


दो सूखी----------- 


 


सुन ऐ घाती भारत के 


क्यो विष भू पर घोलो तुम 


पीङा में है मानवता 


मत नागफनी तोलो तुम 


जर्जर धन गिरते आंसू 


हदय वीर का रखते है 


दो सूखी------------ 


 


 


✍ संगीता राजपूत 'श्यामा '


 


वेदना लेखनी की 


---------------------- 


 


बंध गयी लेखनी भी अब 


शब्द भी परतंत्र है 


चितकारते है वाक्य भी 


ओज का सूरज छिपा जा रहा 


 


तिलमिलाती अभिव्यक्ति कहती 


बोल भङकाऊ है हौकते 


रूंध गया गला सच का 


छलछंद नित रचा जा रहा 


 


स्तंभ चौथा कहते तुमको 


हो रहे अब मौन क्यो ? 


ऐ कलम, अब भी जा 


छोङ कर खोखली लाचारिया 


उदघोष करने को, वर्तमान है बुला रहा 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार गीता चौबे "गूँज" राँची झारखंड

गीता चौबे "गूँज" 


निवास : राँची, झारखंड


जन्मतिथि : 11 अक्तूबर


पति : श्री सुरेंद्र कुमार, अधीक्षण अभियंता 


शिक्षा :  स्नातकोत्तर (मगध विश्वविद्यालय)


साझा -संकलन : 


1 नीलाम्बरा


2 काव्य-शिखा


3 बज़्में हिंद 


एकल कविता-संग्रह : 


क्यारी भावनाओं की 


विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता, लघुकथा, आलेख, यात्रा-वृतांत आदि प्रकाशित होते रहना। प्रकाशित एकल कविता-संग्रह "क्यारी भावनाओं की" 


ब्लॉग : मन के उद्गार


कई मंचों द्वारा सम्मान एवं प्रशस्तिपत्र


विरासत में मिले साहित्यिक माहौल में मन के उद्गार को शब्दों में पिरोने की ललक, किन्तु पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन के बाद सक्रिय रूप से लेखन


ई-मेल : choubey.geeta@gmail.com


 


1. मन का पपीहा 


             *************


चल रे पपीहरा... 


पी कहां-पी कहां 


का मधुर गीत 


सुना दे जरा... 


पपीहे की पीहू पीहू


कोयल की कूहू कूहू


दिल में प्रेम को


तरंगित कर दे 


वहीं किसी विरहिणी के 


मन में तड़पन भर दे 


वही पपीहा 


वही पी कहां 


पर मन की सूरत 


तय करे 


मिलन या विरह 


जीवन की भी यही हालत 


सबकुछ दिखे वैसे 


जैसी मन में हो चाहत 


तो क्यूँ न पूरी हो 


मिलन की हसरत? 


क्यूँ करें विरह का स्वागत? 


तो चलें... 


मन के पपीहे को जगाएं 


जो तराने खुशियों के गाए 


            ************


2. कशिश 


           ********


कुछ लिखने की मेरे मन में 


एक कशिश जगी


उनींदी आँखों में


ख्वाहिशों की चाशनी पगी


 


खुद पर विश्वास किया तो 


सम्भावनाओं की आस पली


पंख तलाशने को आतुर मैं 


एक नए सफर पर चली


 


एक नया आयाम मिला


मिली एक ऊँचाई मेरे लेखन को


अपनी कविताओं में खोल दिया 


मैंने अपने अंतर्मन को


 


मेरी कविताओं में 


नव ऊर्जा की तपिश हो 


बदल सके जो समाज को 


ऐसी ग़ज़ब की कशिश हो 


             **********


3. जमीन 


          ********


भावनाओं की जमीन पर


बोये थे कुछ बीज सपनों के


कुछ मुरझा कर तोड़ गए दम


कुछ खिल उठे पा संग अपनों के


 


दम उन्हीं बीजों ने तोड़ा


जिनकी किसी ने हिफाजत न की


सपने भी वही चूर हुए


जिनकी किसी ने वकालत न की


 


उत्पादन के लिए जैसे जमीन की 


निराई- गुड़ाई जरूरी है 


वैसे ही सुविचारों की खेती के लिए 


साफ सुथरी भावनाएं जरूरी हैं 


 


भावनाओं की जमीन भुरभुरी हो चुकी है


कविता की क्यारियाँ लग चुकी हैं


बीज भी बोए जा चुके हैं


बस स्नेह के नीर से सींचना बाकी है। 


        *************


4.       माटी और कुम्हार 


             ********


एक दिन सपने में माटी कहे कुम्हार से। 


बातों को सुन लो मेरी जरा तुम प्यार से। 


इस बार तुम ऐसे अनोखे दीप बनाना, 


नेह भरी बाती जले करुणा की धार से। 


 


मातृभूमि की सोंधी मिट्टी को तुम लाना। 


धीरे-धीरे अहसास का पानी मिलाना। 


प्यार से हाँ थपथपाना उसको तुम यारा 


हल्के हाथों से रखकर फिर चाक हिलाना। 


 


प्रथम दीप माँ व मातृभूमि के नाम करना। 


द्वितीय पर अपने पुरखों के काम उकेरना। 


तदनंतर देशभक्त महापुरुषों के लिए, 


सुनो मेरी बात इंकार नहीं तुम करना। 


 


ऐसा दीप बाजार में बिकने आएगा। 


कौन खुद को खरीदने से रोक पाएगा? 


देशभक्ति के जज़्बे के सामने तो भला, 


कोई विदेशी सामान क्या टिक पाएगा? 


 


अपना देश,अपनी मिट्टी, अपने ही लोग। 


सच होगा सपना, और बनेगा सुसंयोग। 


होगी रोशनी, ठुमकती लक्ष्मी आएगी, 


कोई न भूखा होगा और न होगा रोग। 


 


फिर दिग दिगन्त में छा जाएगी खुशहाली। 


घर-घर में मन पाएगी सुन्दर दीवाली। 


सुनकर दीप की बात कुम्हार भी मुस्काया, 


दीपों की ऐसी लड़ियां निर्मित कर डाली । 


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5. नन्ही दूब 


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बाग में मैंने देखी एक नन्ही सी दूब


जिसके भविष्य की सोच 


मेरा दिल गया डूब


क्या बचा पाएगी यह नन्ही सी जान


अपना अस्तित्व?


ढेरों बड़े पौधों के बीच


माली काका का ध्यान 


कर पाएगी अपनी ओर आकृष्ट?


मैंने दी तसल्ली अपने मन को 


और समझाया 


हजारों लोग जन्म लेते हैं 


और यूँ ही मृत्य को प्राप्त होते हैं 


इस तुच्छ जीव 


दूब की नियति भी वही हो 


पर मैं गलत थी 


कोई भी चीज़ बेवजह नहीं होती 


किसी का भी जन्म-काल भले छोटा हो 


पर अकारण नहीं होता 


कल पूजा में पंडित जी ने 


दूब को अति आवश्यक बताया 


मैं दौड़ पड़ी बगीचे की ओर 


देखा वो नन्ही दूब 


मुस्करा रही थी 


मानो अपने महत्व का 


अहसास करा रही थी। 


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