एस के कपूर श्री हंस

अवधपुरी में हे राम तुम्हारा


बहुत स्वागत है।


वर्ष पाँच सौ पश्चात तुम्हारी


हुई यहाँ पर आगत है।।


करोडों की आस्था के जन


नायक हैं श्री राम।


भारत जन जन का विश्वास


ही मंदिर की लागत है।।


 


भव्य विशाल मंदिर का अब


सुंदर आकार होगा।


जो करोड़ों जन जन की


आस्था का आधार होगा।।


पुरातन संस्कार संस्कृति का


केंद्र होगा राम मंदिर।


भारतीय आस्था का दिव्य


स्वप्न अब साकार होगा।।


 


प्रभुराम तेरा वनवास लंबा था


मगर यह कट गया।


राम लला विराजमान आखिर


यह त्रिपाल हट गया।।


त्रेतायुग समान पुनः सूर्य उदय


होगा अयोध्या में।


भूमि पूजन के साथ ही मंदिर


निर्माण काम में डट गया।।


 


हमारी सांस्कृतिक विरासत


अब संसार देखेगा।


हमारी पौराणिक मान्यतायों


का मूर्त आकार देखेगा।।


नई पीढ़ी परिचित होगी


भारतीय इतिहास से।


अब हर कोई विश्व गुरु भारत


का लक्ष्य साकार देखेगा।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


संजय जैन

उम्र बीत जाती है,


जिंदगी को बनाने में।


मेहनत करनी पड़ती है,


लक्ष्य को पाने में।


तब कही जाकर मंजिल, हासिल कर पाते है।


और अपनी पहचान,


बना पाते है जमाने में।।


 


लोगों को हँसना तालियां बजबना,


कोई आसान काम होता नही।


खुदका दर्द पीकर 


जो हंसाये जग को।


वो बहुत जिंदा दिल 


इंसान होता है।


मुर्दा होते है वो 


 जो गमो में डूबे रहते है।


और जिंदा होते हुए 


मुर्दा बन जाते है।।


 


दाग जिंदगी पर 


तब लग जाता है।


बिना मूल्यांकन के 


अंक दिया जाता है।


और जिंदगी को तहबा 


कर दिया जाता है।


जिंदा रहते हुए 


मार देते उसे।


और बदनाम उसको


जग में कर देते है।।


 


संजय जैन (मुम्बई)


निशा अतुल्य

प्यार का एक मैं दीप जलाऊँ,


प्रियतम मन में तुम्हें बैठाऊँ ।


बैठो पास जरा तुम मेरे,


प्रेम गीत मैं तुम्हें सुनाऊँ।


प्यार का एक मैं दीप जलाऊँ,


प्रियतम मन में तुम्हें बैठाऊँ ।


 


बातें बहुत सी हैं कहनी, 


बोलो किस पल तुम्हें बताऊँ।


वो मीठी मीठी सी यादें,


सोच सोच कर मैं शरमाऊँ।


प्यार का एक मैं दीप जलाऊँ,


प्रियतम मन में तुम्हें बैठाऊँ ।


 


तुम तो मेरे प्राण प्रिय हो,


तुमको हर पल ही मैं रिझाऊँ


प्रेम प्रीत का बंधन अनुपम,


हर जन्म मैं साथ निभाऊँ।


प्यार का एक मैं दीप जलाऊँ,


प्रियतम मन में तुम्हें बैठाऊँ ।


 


कितना सुंदर सफर हमारा,


मिल कर इसको पार लगाऊँ


साथ सदा रहना तुम साथी,


बस ईश्वर से सदा मनाऊँ ।


प्यार का एक मैं दीप जलाऊँ,


प्रियतम मन में तुम्हें बैठाऊँ ।


 


निशा अतुल्य


प्रखर

ये जिंदगी पहले ही बहुत परेशां सी, अब और सवाली न कर।


तू करता ईमान का सौदा, सुन अब नमकहलाली न कर।।


मैं बिल्कुल मुतनईन हूँ उस बेवफा हिसाबी से,


प्रखर दलदल में सने तू , दलालो की दलाली न कर।।


 


दरी बिछायी है कब्जा भी होगा, बस मकां खाली न कर।


मौसम है मौका और दस्तूर भी,तू मतलबपरस्ती की जुगाली न कर।।


न जाने वो कौन सा मुहुर्त था, जौ तू मेरे गले पड़ी,


जर्जर हिलती दिवार हूँ मैं, तू अब और बदहाली न कर।।


 


प्रखर


फर्रूखाबाद


डॉ बीके शर्मा 

धर्म त्याग हो जाए मगर 


कर्ता बनकर कर्म न छूटे 


जगती में लुट जाऊं चाहे 


जगती आकर मुझको लूटे


 


 सबका क्रोध जलाए मुझको


 पर क्रोध ना मेरा उर से फूटे


 परख तपन से होती स्वर्ण की


 फिर मर्म मेरे क्यों रहे अछूते 


 


नहीं जानता हित अनहित मैं


पर साथ तेरा ना मेरा छुटे


है सच्चा बंधन तेरा मेरा 


बाकी सारे रिश्ते झूठे


 


सुख कहां बिरंचि जगत में


चमत्कार हो चाहे अनूठे 


हो स्वार्थ मोह बलवान मगर


लग्न मेरी ना तुझसे टूटे 


 


जल जीवन वायु प्राण भूगर्भ 


पावक ज्योति अनंत मार्ग में 


मिलना प्रिय साथ तेरा ना छूटे 


 


थाम हाथ संग ले चल सकी


सामना तेरा मेरा अभी है बाकी..


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सीमा दूबे सांझ

सीमा दूबे सांझ


शहर जमशेदपुर झारखंड 


 गृहणी एवम् छात्रा 


मेरी पुस्तक - फरिश्ते


 अग्निशिखा मंच सम्मान पत्र


काव्य गोष्ठी सम्मान पत्र


आकाशवाणी रेडियो पर सम्मान पत्र


 


कविता -1


हौसलों का समय आ गया


 एकता के गीत को है दोहराना 


चल मिलकर सब भाईचारे को एक है बनाना 


रोक सको तो रोक लो हमें मजहबी झंझट में ना है आना 


इस युद्ध को हमें साथ मिलकर है हराना 


 आज साथ मिलकर सब बैठे हैं अपने अपने घरों में


कोई धर्म किसी के खिलाफ नहीं 


सबके कर्म एक ही हैं 


हम कल भी साथ थे और आज भी हैं 


हम कल भी साथ थे और आज भी हैं 


हौसलों का समय आ गया 


एकता के गीत को है दोहराना 


चल सब मिलकर चल मिलकर भाईचारे को एक है बनाना


 कब तक जीत पाएगा ये वायरस ये महामारी 


हम भारतवासी हैं सब पर भारी


 डटकर खड़े हैं जंगे मैदान में डटकर खड़े हैं जंगे मैदान में


 ऐसी कितनी मुश्किलों को हमने हर बार मात दे डाली 


गर्व है हमें अपनी मातृभूमि पर


  गर्व से कहते हैं हम हैं हिंदुस्तानी


 हौसलों का समय आ गया


 एकता के गीत को है दोहराना


 चल मिलकर सब भाईचारे को एक है बनाना


 कोरोना को है हराना शपथ है सब ने खाई 


वह कोई भी धर्म हो हिंदू ,मुस्लिम ,सिख, ईसाई  


फिर सब देशों ने भारत के हौसलों के आगे शीश झुकाई


 आज फिर एकता है रंग लाई 


हौसलों का समय आ गया 


एकता के गीत को है दोहराना चल मिलकर सब 


भाईचारे को एक है बनाना


 Seema Dubey (sanjh)


 


कविता- 2


लेखक की कलम


लिख रहा दिल की बात आज जाने क्या लिखेगा


 अरमानों के साथ या दुख भरे साज लिखेगा


 खुशियों के दामन थामे या दर्द की सौगात लिखेगा 


दर्द भरे शब्दों में वह अपनी बात लिखेगा


 प्यार भरी यादों में अपनी हर वो रात की याद लिखेगा


 कुछ पाकर झूम उठा खिलखिलाते हुए पुरानी डायरी मिले उसे पढ़कर पड़ रहा शरमाते हुए


 कहीं आंसुओं के सैलाब समेटेगा 


उठ सोच रहा जाने किस को कागज पर उकेरेगा


 कलम डूबा कर स्याही में बढ़ रहा कागज की ओर


 जाने किस को आज फिर जीवित करेगा 


रचना रचते रचते समय बीत गया


 मैं तो पात्र हूं नाटक का आज मेरा नाटक का अंत बहेगा सांझ की ठंडी हवा में उस प्रेमी का साथ लिखेगा 


जो पल गुजारे उसके साथ उन पलों को शब्दों में पिरो कर उस शब्दों की माला गूथे गा


  प्यार की खुशबू को कविता के रूप में बिखेरेगा


सीमा दुबे सांझ


 


कविता- 3


साजन न आए


 


ओ मेरे साजन इस बरस भी तुम घर ना आए


 तेरी सोच में निंदिया ना आए, बैरी क्यू भए तुम?


 दूर ही क्यों गए तुम ,वादा किया था जो वह तोड़ दिए?


  हुए साजन तुम तो पराए,


 रतिया में निंदिया न आए ,न दिल में चैन आए, 


ओ बैरी साजन, इस बरस भी तुम घर ना आए।।


 


 पपीहा कोई क्यों चीख गए ,


हो किस हाल में तुम मन घबराए ,


दर्द मन में उठे तन सुख सुख जाए ,


विरह मन को ठेस पहुंचाए ,क्या करूं मैं धीर कैसे धरु मै ,


क्यों विसारे साजन , इस बरस भी तुम घर ना आए।।


 


 मेरे माथे पर बिंदिया न भाए,दर्पण देखूं तो वह मुझे चिड़ाए


,चूड़ियो की खनखन मुझे सताए, हर आहट में मनवा चौक जाए, 


बैठे हैं घर के दरवाजे पर पलके बिछाए ,


क्यों भूले साजन ,इस बरस भी तुम घर ना आए ।।


 


काश यह मन संभल जाए ,अबकी साजन घर आ जाए, 


छुपा लो निगाहों में, कस लूं अपनी बाहों में,


 फिर न जाने दूं ,कसम देकर उन्हें बांध लू आंचल में


 काश मेरे साजन , इस बरस घर को लौट आए।।


सीमा दुबे सांझ


 


कविता- 4


स्त्री के अंतर्द्वंद की कहानी


 


कभी कभी न जाने 


मन में विप्लव छा जाता है 


दुविधा व्यतीत करती हैं 


शोकाकुल मन हो जाता है 


 क्यों बढ़ती और लिखती रही


 उत्पीड़न भ्रष्ट लोगों की निंदाओं की कहानी 


काश लिखा होता


 शाश्वत प्रेम काव्य तो मिली होती 


किसी के अतुल्य प्रेम की निशानी 


 


स्त्री अधीन है घर गृहस्ती 


सजाने का सामान होती है 


यदि यह मार्ग न चुन सके


 इच्छाओं की भली न दे सके


 तो अग्नि परीक्षा का आयाम होती


 


 स्त्री के अंतर्द्वंद की कहानी


 आज श्रृंगार खुद पर करती है


 वह भी पति का मान के रहता है


 खुद के लिए सजती है


 वह भी पति के साथ चला जाता है 


 


स्त्री के अंतर्द्वंद की कहानी


 तुम भूल गई थी


 तुम स्त्री हो तुम्हें परिभाषाएं 


बदलने का अधिकार नहीं 


तुम्हारा सोच तुम्हारा शोध 


निरंतर सरपंची पौरोष पर वार नहीं था 


 


स्त्री के अंतर्द्वंद की कहानी


शोध जो ऐसे सीता अनसूया 


की कहानी पढ़ रहे थे 


अपने पुरुषार्थ की 


परिभाषाएं गढ़ रहे थे


 


स्त्री के अंतर्द्वंद की कहानी


मन में बहुत विचार उत्पन्न हुए 


क्यों हर पल स्त्री उत्पीड़न का शिकार हुई


 क्या उनकी अभिलाषा है 


कुछ खास नहीं जो 


पूरी हो सके क्या उनमें बात नहीं


 स्त्री के अंतर्द्वंद के कहानी 


सीमा दुबे सांझ


 


कविता- 5


वह बचपन याद आता है 


वह स्कूल ना जाने का बहाना 


और जाने पर घंटों आंसू बहाना


 वह पेंसिल खो जाना 


और दूसरों की रबड़ चुराना


 आज याद आता है ......


वह जरा सी बात पर झगड़ा 


और गलतियों पर बेलन पढ़ना


 वह धूप में साइकिल चलाना 


और घर आकर बीमार पड़ जाना 


आज याद आता है .....


वह शक्तिमान के लिए भाई से लड़ना


 और खींचतान में रिमोट का टूटना


 वह कहानियों की किताबें लाना 


स्कूल छोड़ कॉमिक्स में ही लग जाना


 आज याद आता है ....


छुआछूत का ज्ञान नहीं


 वह पैसे चुरा टॉफिया खाना


 वह दोस्तों संग मेला जाना 


और कुल्हड़ बर्फ को खाना


 आज याद आता है.......


         



दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

हलषष्ठी का पूजन है मनभावन,


भद्र पक्ष में आया है पर्व पावन।


सभी सुहागिनें करतीं पूजन वन्दन


संतानों की दीर्घायु का लेती वचन।


 


जन्मदिन हलधर का है क्रन्दन,


प्रिय कृष्णा का भी होता वन्दन।


श्रद्धा भाव से जो उन्हें पुकारते


सुख - समृद्धि जीवन भर पाते।


 


ऐसा सुन्दर फिर दिन है आई,


करते पूजन सब हलषष्ठी माई।


गौरी-गणेश का होता पूजन


शिव संग मां पार्वती का होता अर्चन।


 


महुआ, लाई और फूल चढ़ातीं,


सतरंगी कपड़ों का निशान पातीं।


छ अन्नों का भोग लगातीं,


छ ही कथा सुना श्रवण सुख पातीं।


 


हल से जोते बोये अन्न न खातीं


पसहर चावल से ही भोग लगातीं।


निराहार निर्जला व्रत हैं रखती


संतानों की सारी विपदाओं को हरतीं।


 


भैंस के दूध दही औ घी भी लातीं


पूजन अर्चन वन्दन में रम्ह जाती


हलषष्ठी माई आशिष हैं देती


सारी विपत्तियों को हर लेती।



दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


रवि रश्मि अनुभूति 

अवधपुरी में जन्म लिया है ।


पावन इस धरा को किया है ।।


प्रबल सभी भाग्य ले आये ।


कौशल्या सदन पुत्र सुहाये ।।


 


पुरुषोत्तम राम वे कहाये । 


कल्याण सभी का कर पाये ।।


गले माल सजे धनुर्धारी ।


सारी दुनिया रही पुजारी ।।


 


तेजस्वी राम ही बने थे ।


सौम्य बहुत वे वीर बने थे ।।


शीश मुकुट वाले सोहे थे ।


सभी ब्रह्मांड में मोहे थे ।।


 


मन में अपने राम बसा लो ।


बिगड़े अपने काम बना लो ।।


राम अयोध्या अब आये हैं ।


बादल खुशियों के छाये हैं ।।


 


अयोध्यानगरी अभी झूमे। 


खुशियों में तो अब सब घूमें ।।


भजन आरती अब सब गायें । 


मन में अब आध्यात्मिकता पायें ।।


 


सभी के हैं बस राम प्यारे ।


करते काम नेक सब न्यारे ।।


अब मंदिर में धूम मची है ।


सुन्दर झाँकी अभी सजी है ।।


 


सब जन मन में राम बसाओ ।


सभी जन खुशियाँ भी मनाओ ।।


मोहक छवि सब ही अपनाओ । 


राम के गुण सभी ही गाओ ।।


 


राम सबका भाग्य बनाते । 


पाप सभी के हैं कट जाते ।।


दुविधाओं में सुख देते हैं । 


कष्ट सभी के हर लेते हैं ।।


 


मन में सब ही राम बसाओ । 


राम नाम ही जपते जाओ ।। 


मन में राम बसेंगे जैसे । 


सुख - वर्षा हो वैसे - वैसे ।।


 


रवि रश्मि अनुभूति 


विवेक दूबे निश्चल

अश्क़ भरे आंखों में बहाये न गये ।


रूठ कर आज अपने मनाये न गये ।


 


कह गये बात तल्ख़ लहज़े में वो ,


नर्म अल्फ़ाज़ जुवां पे सजाये न गये ।


 


 उठाते रहे हर नाज़ बड़े सलीक़े से ,


अहसास फ़र्ज़ कभी दिलाये न गये ।


 


हो गये गैर अपने गैर की ख़ातिर ,


अपने कभी मग़र भुलाये न गये ।


 


 सह गये हर चोट बड़े अदब से हम ,


ज़ख्म निश्चल कभी दिखाये न गये ।


     विवेक दूबे निश्चल


 डॉ बीके शर्मा 

कर चुका हूं मंथन तेरा 


आ करूं अभिनंदन तेरा 


तू ही अटल तू ही सत्य है 


स्वीकार मुझे है बंधन तेरा


आ करूं अभिनंदन तेरा 


 


तू ही चिर है तू ही स्थिर 


सब नष्टबान और अस्थिर 


है जीवन की यही अभिलाषा 


करता रहूं मैं बंदन तेरा 


आ करूं अभिनंदन तेरा 


 


वह रस कहां और मिलन में 


जो रस तेरे है आलिंगन में 


क्यों ना इसका पान करूं फिर 


तन भी तेरा मन भी तेरा 


आ करूं अभिनंदन तेरा 


 


तू सत्यम और सुंदरम


शिवोअहम् और बंदनम्


है निर्माण शांति प्रदम्


मालिक है रघुनंदन तेरा


आ करूं अभिनंदन तेरा


 


तुम मृत्यु हरी मुख की बानी


अखिल विश्व श्रुतियों की रानी 


चिर निद्रा हो योगेश्वर की


स्वीकार करो अभिवादन मेरा 


आ करूं अभिनंदन तेरा


 


 


 डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


संजय जैन

फूलों की सुगंध से, 


सुगन्धित हो जीवन तुम्हारा।


तारों की तरह चमके, 


जीवन तुम्हारा।


उम्र हो सूरज जैसी, 


जिसे याद रखे दुनियाँ सारा।


आप महफ़िल सजाएं ऐसी, 


की हम सब आये दुवारा।।


 


आपके जीवन में हजारो बार,  


मौके आये इस तरह के।


की लोग कहते कहते न थके, 


की मुबारक हो मुबारक हो।


जिंदगी जीने का 


ये तरीका तुम्हारा।


जिसमें खुशी होती है,


गम नहीं।


तभी तो जीते हो तुम, 


जिन्दा दिली से यहां पर।


और सभी के दिलो में,


प्रेमरस बरसते हो।।


 


अपनी दुआओं में,


आपने याद किया हमें।


तहे दिल से करते है,


हम अपाक शुक्रिया।


जिन्दगी बदत्तर या बेहतर रहे,


और चाहे जैसी भी रहे।


बस आपका साथ हमें,


जिंदगी भर मिलता रहे।


तभी तो आपकी दुआओ में हम शामिल हो पाएंगे।


और दुनियाँ को जिंदगी,


जीने का अंदाज छोड़ जाएंगे।।


 


 


संजय जैन (मुंबई )


सीमा शुक्ला

अधरों पर उठता प्रणय गान,


आशायित हो उठता विहान।


जब खुले पृष्ठ उन यादों के,


जब दिन हो सावन भादों के।


 


बहती मन भावों की सरिता।


तब तब मन लिखता है कविता।।


 


मन में नित भाव अमंद उठे


जब प्रेम हृदय बन छंद उठे।


हिय उठे कल्पना का सागर


अरमानों की छलके गागर।


 


जब स्वप्न पले हिय में अमिता


तब तब मन लिखता है कविता।


 


उर में अनुपम अनुराग उठे,


असहा नित हृदय विराग उठे,


जब पल पल पीर उभरती है,


चिर व्यथा नयन से बहती है।


 


जब जले चांद ज्यों हो सविता।


तब तब मन लिखता है कविता ।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


एस के कपूर श्री हंस

बाल कविता


 


बच्चे तुम ही हो भविष्य के


भारत भाग्य विधाता।


तुम से ही देश का कल


सुनहरा है हो पाता।।


आज का तेरा बचपन ही


कल की दुनिया होगी।


यही बात तो तुम्हें मैं हर 


रोज़ हूँ बतलाता।।


 


आज के तेरे खेल खिलौने


कल के यंत्र होंगें।


तेरी विद्या से ही सिद्ध


कल के मंत्र होंगें।।


तेरे कंधों पर ही भार होगा


सामाजिक तंत्र का।


तुझसे ही मजबूत राष्ट्र के


स्तम्भ गणतंत्र होंगें।।


 


तुझको भारत नव निर्माण


का बीड़ा उठाना है।


देश की रक्षा का भी तुझको


बिगुल बजाना है।।


तेरी बुनियाद पर खड़ी बुलंद


भारत की इमारत।


तुझको ही ऐसा अखंड विश्व


गुरु भारत बनाना है।।


 


तेरे नन्हें हाथ कल देश 


की नींव होंगें।


पूरे करने सपने राष्ट्र के


भी असीम होंगें।।


तुम ही बनोगे कल के बापू


सुभाष भगत सिंह।


तेरे कल में ही देश के


राम रहीम होंगें।।


 


तुम हो देश के कर्ण धार


कल की विरासत हो।


तुम ही तो कल की संसद


देश की सियासत हो।।


तुम ही हो रूपरेखा कल के


भारत इतिहास की।


तुम ही तो कल के देश


की इबादत हो।।


 


एस के कपूर श्री हंस


      बरेली


सुनील कुमार गुप्ता

       पहचान


अपनो को अपना कहने से,


क्यों- होता उनका अपमान?


इतने बड़े हो गये अपने,


कैसे- लेते उनका नाम?


संग-संग खेले बचपन में,


अब नही कोई पहचान।


रक्त संबंधों में भी साथी,


क्यों-हो गया ऐसा काम?


सींच नेह से जीवन-पथ को,


जिसने -दिया नव- आयाम?


ऐसे संबंधों को जग में,


मन करे पल-पल प्रणाम।।


 


-सुनील कुमार गुप्ता


सुषमा मोहन पांडेय

तुम्हीं मेरी आस्था हो, तुम्हीं मेरा विश्वास।


तेरी ही भक्ति में है मेरा विश्वास।


सुख हो या दुख मुझे कुछ भी न पता,


रहती हमेशा सिर्फ तुमसे ही एक आस।


 


 जबसे होश संभाला, तुझको ही अपना पाया,


चारो ओर मुझे कोई और, नजर न आया।


बंद नयन कर जो तुझे देखा है मैंने,


हरदम तुझको ही अपने करीब पाया।


 


मेरे सब कुछ तो तुम्हीं हो,


मेरा हँसना रोना भी तुम्हीं हो,


जो भी कुछ आज तक है मैंने पाया,


मेरे हर कर्म के साक्षी भी तुम्हीं हो।


 


पूजा, तपस्या, धर्म-अधर्म, कुछ


मुझे मालूम नहीं


पाप-पुण्य,ज्ञान-अज्ञान ये मैं जानूँ नहीं।


मेरी रोम रोम में बसे हुए हो, इतना मैं जानती हूँ


दृढ़ अहसास है मेरी आस्था का, और कुछ जानूँ नहीं।


 


 


सुषमा मोहन पांडेय


सीतापुर उत्तर प्रदेश


 


सुषमा मोहन पांडेय


 सीतापुर, उत्तरप्रदेश। 


सत्यप्रकाश पाण्डेय

अनुनय स्वीकार कीजे.... 


मुझे श्याम से मिला दे


जग जननी राधे रानी


मुझे कृपा पात्र बना दे


माते बृज की ठकुरानी


 


यहां मोह माया ने घेरा


दिखे चारों ओर अंधेरा


माँ तेरी भक्ति मिले तो


हो जायेगा शुभ्र सवेरा


 


तेरी अनुकम्पा पाऊँ तो


कान्हा भी अपना लेंगे


मझधार पड़ी जो नौका


वो निश्चय ही पार करेंगे


 


माँ सत्य तो बालक तेरा


करुणामयी शरण लीजे


पाऊँ मैं स्नेह की छाया


अनुनय स्वीकार कीजे।


 


श्री युगलरूपाय नमो नमः


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


विनय साग़र जायसवाल

मुफ़लिसी से मेरी यूँ चालाकियाँ चलता रहा 


ज़हनो-दिल में वो मेरे ख़ुद्दारियाँ भरता रहा


 


मैं करम के वास्ते करता था जिससे मिन्नतें


वो मेरी तक़दीर में दुश्वारियाँ लिखता रहा


 


मोतियों के शहर में था तो मेरा भी कारवाँ


फिर भला क्यों रेत से मैं सीपियाँ चुनता रहा


 


कहने को मुश्किल नहीं था दोस्तो मेरा सफ़र 


मेरा माज़ी राह में चिंगारियाँ रखता रहा


 


दिल की हर दहलीज़ पर थे नफ़रतों के ज़ाविये


मैं तो हर इक रहगुज़र के दर्मियाँ डरता रहा


 


ख़त के हर अल्फाज़ में थीं इस कदर चिंगारियाँ


मेरे दिल के साथ मेरा आशियाँ जलता रहा


 


कोई आकर छेड़़ता रहता था रोज़ाना मुझे


मैं फ़कत दामन की अपने धज्जियाँ सिलता रहा


 


जब भी बाँहों में समेटे चूमना चाहा उसे


मेरे होंठो पर हमेशा उंगलियाँ धरता रहा


 


जीत की ख़्वाहिश थी साग़र उसके दिल में इस कदर


अपनी हारों पर मेरी क़ुर्बानियाँ करता रहा


 


विनय साग़र जायसवाल


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


अब ये रिश्ते बेमानी से लगते


जो राजनीति के शूलों पर है


ऐसे सम्बंधों का क्या करना


जो बर्बादी के तीरों पर हैं।


 


लांछित हैं सब ऐसे रिश्ते


जो विज्ञापन के अधिकारों पर हैं


साक्षी मान जिससे कुछ कहते तुम


ऐसे सम्बंधों में प्यार कहां पर है।


 


खबर सनसनीदार बनाने पर


देखो कितना सम्मान कहां है


इस पर तो अब ध्यान हमें है


सीधी सच्चाई अधिकार कहां है।


 


अब रिश्ते के मूल्यों को देखो


काट रहे हो क्यों रोकर


कर्मों के विश्वासों से जकड़ो


जन्म सम्बंधों को मारो ठोकर।


 


मिला एक निष्ठ श्रद्धा का


कितना सुन्दर सा फल है


रिश्ते की सच्चाई को देखो


अंगारों से जला सिर्फ बचा जल है।


 


चक्र समय का जीवन में चलता


दु:ख-सुख सुख-दु:ख का भान नहीं है


बैठा घात लगाये तेरे कर्मों पर अब


निष्ठुर समय तुझको ये अनुमान नहीं है।


 


छल-प्रपंच के चालों से जो


किस्मत के ताले खोल रहे हैं


देखो मर्यादा को तार-तार कर


जन्म-जन्म के पाप मोल रहे हैं।


 


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


महराजगंज, उत्तर प्रदेश ।


सुबोध कुमार

नींव से निर्माण तक


जन्म से निर्वाण तक


सुख-दुख साथ है चलते


चुनौतियों के संज्ञान तक


 


नीड बदलते रहते हैं


प्रकृति है परिवर्तनशील


लेती है सदा परीक्षाएं


परिंदों की उड़ान तक


 


कोहरा हो या पाला पड़े


परिंदा अपनी उड़ान भरे


पहली किरण है भोर की


उद्यम के परवान तक


 


जिसने इसको साध लिया


चुनौतियों को आघात दिया


प्रकृति से करी कदमताल


जीवन की पहचान तक


 


           सुबोध कुमार


रत्ना वर्मा धनबाद-

नमन मंच काव्य रंगोली 


     शिलान्यास पर मन के भाव


 


मन से मन का दीप जला लो,


प्रेम प्यार खुशी बरसा लो ।


बरसों बाद आज लौटे राम ,


फूलों से सजा अयोध्या धाम।


 


 


कली कली मुस्काई है ,


गीत खुशी की गाई है ।


प्रीत प्रेम का गागर ...


सरयू में छलक आई है ।


 


राम नाम का आज एक ,


नया इतिहास बना है ।


असुरी शक्तियों का विनाश कर,


वनवासी को अयोध्या धाम मिला है। 


 


निश्छल भाव शबरी के ,


मन को भाते हैं ....।


केवटी की वाणी में हम,


कथा सुनाते हैं ....।


 


पुरुषोत्तम श्री राम के


गुण हम गातें हैं ।


वही तो जीवन नैया 


पार लगातें हैं। ।


 


स्वरचित मौलिक रचना 


रत्ना वर्मा 


धनबाद- झारखंड


सत्यप्रकाश पाण्डेय

जीवन चमन के फूल..


 


मेरे जीवन चमन के फूल


आ तुझे हृदय से लगा लूँ


अरे न पहुँचे क्षति तुझको


खुद सुरभि से महका लूँ


 


अनछुआ मकरन्द वो तेरा


करूँ आस्वादन जी भरके


क्षितविक्षित नहीं हो कली


करूँ आलिंगन पलकों के


 


भरे यौवन कलश जो तेरे


लगें सोमरस के से प्याले


पीता हूँ नयनों की राह से


बनाये रखते वो मतवाले


 


भले क्लिष्ट संरचना प्रिय


लगतीं तुम सौम्यता मूर्ति


मुझ स्नेह आकिंचन को


आकर्षित करती विभूति


 


भरी अंग अंग में सुवास


करे सुवासित हिय आंगन


एक तमन्ना है मेरी सजनी


बना लो सत्य को साजन।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


प्रखर दीक्षित

भजन


 


*मोहना*


 


कंगना ले आयी बाजना


मैं दौडी चली आयी मोहना


 


मैं वृन्दावन की हौं गुजरिया


नेक बंसुरी सुनाय रे! सांवरिया।


तू रसराज छबोलो बांको,


मैं दौडी चली आयी......


 


सावन घन छाए नैनन मँह 


मेरी नींद गयी जाने चैन कँह


कजरारे कपोल उदास पैंजनी,


लागै सखि सुनो आंगना।।


मैं दौडी चली आयी.........


 


पनघट जमुना तट सुन परे


रसराज बिना रस कौन भरे


छछिया भर छाछ जो मांगै सखी,


अब सूने खरिक घट री दोहना।।


मैं दौडी चली आयी ..............


 


सिर मोर मुकट गल पीताम्बर


तुम पै वारी मैं मुरलीधर


रे! तू छलिया चितवन टेढी,


मतवारी रास रचाऊँ सोहना।।


मैं दौडी चली आयी ..............


 


*प्रखर दीक्षित*


*फर्रूखाबाद*


निशा"अतुल्य"

सावन फ़ुहार


7.8.2020


 


मनहरण घनाक्षरी 


 


बरखा बहार आई,


घनघोर घटा छाई ।


सावन फ़ुहार पड़े,


मन तरसाइये ।


 


पिया जी जो साथ रहें,


सावन न बेरी लगे।


झूला सँग साजन के,


खूब ही झुलाइये ।


 


सखियों के रंग रँगी,


मेहंदी हाथों में सजी।


कजरे की धार फिर,


तेज कर जाइए ।


 


याद जब साजन की,


आये तुम्हें घड़ी घड़ी।


मिलने की चाह फिर,


मन में जगाइए ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


सुनीता असीम

मुझे तेरी नज़र ने आज .....दीवाना बना डाला।


तेरी बातों ने मेरे दिल को अफ्साना बना डाला।


***


बड़ी संकरी गली हैं धर्म की इन रास्तों में भी।


हरिक घर में जहां ने एक बुतखाना बना डाला।


***


ग़मों से जो करो यारी रहो मदहोश फिर बनकर।


समंदर ने ग़मों के एक मयखाना बना डाला।


***


न आए काम सबके जो अकेला ही रहेगा वो।


खुदी को आज उसने सिर्फ बेगाना बना डाला।


***


करेगा दूर गुलशन से सभी के खार चुनकर जो।


उसे दुख दूर करने का ही पैमाना बना डाला।


****


सुनीता असीम


७/८/२०२०


##############


संजय जैन (मुम्बई

*तुम लिखवाते हो*


विधा : गीत


 


मेरे गीतों की 


सुनकर आवाज़ तुम।


दौड़ी चली आती 


हो मेरे पास।


और मेरे अल्फाजो को


अपना स्वर देकर।


गीत में चार चांद


तुम लगा देती हो।।


 


लिखने वाले से ज्यादा 


गाने वाले का रोल है।


चार चांद तब लग


जाते है गीतों में।


जब मेरे शब्दों को


दिलसे तुम गाती हो।


और गीत को अमर


तुम बना देती हो।।


 


मैं वो ही लिखता हूँ


जो दिलसे निकलता है।


एक एक शब्द मेरा 


खुद हकीकत कहता है।


तभी तो पढ़ने वाले भी


खुद गुनगुनाने लगते है।


और रचना को सार्थक


वो बना देते है।।


 


जय जिनेन्द्रा देव की


संजय जैन (मुम्बई)


07/08/2020


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...