सत्यप्रकाश पाण्डेय

वाचस्पति माँ हंस वाहिनी


मंगल मूरत ज्ञान दायिनी


स्वेत वसना वीणा वादिनी


सुर देवी पुस्तक धारिणी


 


पद्मासना हे सुर साम्राज्ञी


तुमसे ही हिय में आलोक


अज्ञान तमस हारिणी माँ


ज्योतिर्मय माँ हरती शोक


 


वरदा सुखदा मात शारदे


सदा आपका आशीष मिले


भव तारिणी दुख निवारिणी 


कृपा पा शब्द सुमन खिलें


 


कमलकांति हे वीणापाणि


मेरा जीवन हो देदीप्यमान


सत्य बने कृपा पात्र आपका


माते जग में पाऊँ सम्मान।


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ बीके शर्मा 

तू आती है हाथों में


लिख जाती जीवन जग


चीर ना पाई सीना मेरा


मैं तो हूं कोरा कागज -1


 


देवों के हाथों में आकर


तूने मुझ पर बार किया 


अच्छा था मैं कोरा कागज


लिख डाला बेकार किया 


 


यमराज ने भी तुझे दे डाला 


चित्रगुप्त के हाथों में 


सब कुछ गुप्त रखा उसने भी 


रख मेरी छाती पर पग


मैं तो हूं कोरा कागज -2


 


ऋषि मुनियों के हाथों आकर 


तूने वदों को है रच डाला 


धर्म ग्रंथ सब रच डाले 


कर डाला मुझको काला


 


सब्र न तुझको फिर भी आया 


छाती पर तूने लिख गाया 


पता नहीं क्यों साथी मेरे 


करती रही जीवन में ठग 


मैं तो हूं कोरा कागज -3


 


खींच लकीर तूने मुझ पर


कितने हिस्से कर डाले 


इतनी बड़ी भी थी ना कहानी 


कि तूने किस्से कर डाले


 


इतना होने पर भी हम तुम 


क्यों एक दूजे से मिल जाते 


छू जाती सांसे एक दूजे को


क्यों अधरों से रस बरसाते 


विपरीत दिशा में चल कर भी 


क्यों जाते एक दूजे से खग


मैं तो हूं कोरा कागज -4


 


मैं रहता बेचैन हमेशा


क्यों देखना पाया मुझको जग


तू चलने को बेताब हमेशा


क्यों समझ ना पाई 


मेरी दुखती रग 


मैं तो हूं कोरा कागज -5


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान 


सुनील कुमार गुप्ता

रह जायेगा यहाँ अकेला


 


"न मन मेरा-न तन मेरा फिर,


ये दुनियाँ दो पल का मेला।


साथी हो जीवन पथ पर फिर,


चलना तुमको फिर अकेला।।


अपना-अपना कह कर उनको,


साथी पल-पल जग मे खेला।


कौन-अपना बेगाना यहाँ,


साथी पग-पग लगा मेला।।


कर सके सद् कर्म उससे फिर,


जिसको- कहते ये है मेरा?


मिट जायेगा साथी ये तो,


रह जायेगा यहाँ अकेला।।"


 सुनील कुमार गुप्ता


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

मर्द को दर्द नहीं दर्द


कायर कमजोर का दामन।


जिम्मेदारी का बोझ लिये जीता जाता सुख दुःख से नाता।।    


 


कही पिता कही भाई 


रिश्तो की दुनियां में कुछ खोता


पाता जाता।।


रिश्तों की चक्की में पिसता 


रिश्तों की आरजू अरमानो का बोझ उठाता।।


करता जतन हज़ार पैसे चार कमाता दो रोटी के सिवा हक में कुछ नहीं आता।।


बेटी बेटों की फरमाईस शिक्षा दीक्षा आकांक्षाओं के आकाश


तले अवनि पे चलता जाता।।


थक कर घर जब आता सबकी


उम्मीदों का दाता।


माँ को चिन्ता बेटे की पत्नी को


परमेश्वर की हर मन के भवों चहरे


का विश्वाश जीवन के तमाम दर्द छुपाये खुद की मुस्कान से पुलकित रखता।।


पुरुष पुरुषार्थ गृहस्थ जीवन 


मर्म मर्यादा का मतलब महत्व कहलाता।।


चाहे जो भी तूफां आये चाहे जो


दुस्वारी हो शांत सरोवर मन में


उठती लहरो का स्वयं साक्षी 


बंद जुबां सब सहता जाता।।


 


बचपन माँ बाप के यश गौरव


की थाती कुल चिराग का लौ बाती


जवाँ जिंदगी लम्हों की खुशियाँ आशा लाती।।


संघर्षो का जीवन राहो में कभी


निखरता कभी पिघल चलते


समय काल की रौ में बहती जाती।।


रिश्ते नातो की दुनियां में पैदा


रिश्ते नातो से ही बिछड़ता जाता


माँ बाप का दुलारा अपने ही कंधे


पर माँ बाप को शमशान ले 


जाता।।


कभी काल क्रूर कसाई उसके


अरमानो का गला घोटाता फिर भी जीता जाता।।


चाहत की होली जलती जीवन


फिर भी नई आस्था के संग


जीवन का दायित्व निभाता।।


 


बेटा था माँ बाप की आँखों का


तारा राजदुलारा बाप बना दादा


नाना रिश्तों की दुनियां की परम्परा निभाता।।


 


कभी समाज के बहसी दरिंदो से


पाला पड़ जाता प्रतिकूल


काल को मान सिर झुका कर


आगे बढ़ जाता ।।                  


 


यही सत्य है


किसी राष्ट्र के आम समाज के


पुरुष मर्द का कायर कमजोर


नहीं कर्तव्य दायित्व की धारा में


टकराहट से दर किनार बहता जाता चलता जाता बहता जाता।।


 


सुबह की लाली जैसा बचपन


दोपहर के शौर्य सूर्य सा जवां जज्बा ढलते शाम जैसा चौथापन


रात्रि के अंधेरो में खो जाता।।


 


रेंग रेंग कर जीता जीवन दर्द


जख्म के कितनी साथ लिये माटी


का इंसान आम रिश्तों नातो के मध्य दो गज जमीन पर चिर निद्रा में सो जाता रिश्ते नातो की ही यादो का हिस्सा ही रह जाता।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर


राजेंद्र रायपुरी

नशा सभी को कुछ ना कुछ है,    


                         मानो कहना भाई।


झूठ नहीं ये बात सही है, 


                         कहता राम दुहाई।


 


नशा किसी को तंबाकू का, 


                       चढ़ी किसी को दारू। 


और किसी को गाॅ॑जे का है, 


                       पीता जिसे समारू।


 


नशा किसी को धन-बल का या,   


                       भुज-बल का है भाई।


नशा उसे भी जिसने पद या, 


                            कोई कुर्सी पाई।


 


नशे में हैं देश के नेता,


                       संग सभी अधिकारी। 


जिधर देख लो उधर नशे की,


                             है फैली बीमारी।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

पोरा के तिहार


बड़ मगन हे, लइका अऊ सियान


आज हे, पोरा के तिहार


चुकी पोरा म, टुरी मन हा बनाही


ठट्ठा मठ्ठा के छत्तीसगढ़ी व्यंजन


टुरा मन हा,हंस हंस के खाही


गउकीन बड़,मजा आही


बड़ मगन हे, लइका अऊ सियान


आज हे, पोरा के तिहार


नंदिया बइला ला, सजाही


दाई ददा नइ जावय,खेत खार


बड़े बहिनी,देखत हो ही


ददा ह आज, तीजा लेगे बर आही


ददा हा देखत हे, कतका बेरा


रोटी ला बनाही


पहिली कस,नइ होवय


गांव गांव म, बइला के दौड़


बड़ सुग्घर, लागे संगवारी


मोर पहिली के गांव


बड़ मगन हे, लइका अऊ सियान


आज हे, पोरा के तिहार


पहिली पंसद,गुरहा चीला रोटी


देखके लार ह,टपक जाथे


फेर मजबूरी हे,सबले पहिली


नंदिया बइला ला, खवाथे


तभो ले,ठंडा ठंडा चीला रोटी हा


बड़ सुग्घर, लागथे


बड़ मगन हे, लइका अऊ सियान


आज हे, पोरा के तिहार


लइका मन मा हे,गंगाजल कस मया दुलार


बड़ पबरित हे, ये पोरा के तिहार


झुमत हे रुख राई,मौसम हे सुग्घर


मगन हे जम्मो परानी,मगन हे किसान


हवा चलय, सरसर


नरवा अऊ नंदिया म चलत हे धार


बड़ मगन हे, लइका अऊ सियान


आज हे, पोरा के तिहार


नूतन लाल साहू


डॉ बीके शर्मा

यदि होती ना मुझ में स्याही


ना उन्माद में यौवन का भरती


ना पग सीने पर रखती तेरे माही 


मैं लाज भी रखती तेरी प्रियतम 


यदि होती ना मुझ में स्याही-1


 


इस खूबसूरत दुनिया में


यदि करता ना कोई बेईमानी 


ना भला बुरा कोई मुझसे करवाता


तो मैं भी ना करती आनाकानी -2


 


पर सब ने अपने सुख की खातिर 


जो चाहा वो लिखवा डाला 


पाक साफ मुझे रहने ना दिया 


तुझको भी करवा डाला काला -3


 


नौचली आंखें काट दी गर्दन


 डर-डर थर-थर जान गवाई


मैं लाज भी रखती तेरी प्रियतम 


यदि होती ना मुझ में स्याही-4


 


देख मेरी तू मजबूरी प्रियतम 


जब तक चलती तेरी छाती


लोग भी छाती पर रखते हैं


ना चलती तो फेंक दी जाती 


भला-बुरा सब बकते हैं -5


 


तुम ना होते मैं ना होती 


ना होती जग में हंसाई 


ना पथ तू मेरा होता 


ना बनकर चलती मैं राही 


मैं लाज भी रखती तेरी प्रीयतम


यदि होती ना मुझ में स्याही-6


 


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


एस के कपूर श्री हंस

जिन्दगी रोज़ थोड़ी थोड़ी 


व्यतीत हो रही है।


कुछ कुछ जिन्दगी रोज़


ही अतीत हो रही है।।


जिन्दगी जीते नहीं आज


हमें जैसी जीनी चाहिये।


कल आएगी मौत सुनकर


बस भयभीत हो रही है।।


 


कांटों से कर लो दोस्ती गमों


से भी याराना कर लो।


हँसने बोलने को कुछ न


कुछ तुम बहाना कर लो।।


मायूसी मान लो रास्ता है


इक जिंदा मौत का।


हर बात लो नहीं दिल पर


मिज़ाज़ शायराना कर लो।।


 


जिंदगी जीनी चाहिये कुछ


अंदाज़ कुछ नज़रंदाज़ से।


हवा चल रही हो उल्टी फिर 


भी खुशनुमा मिज़ाज़ से।।


मिलती नहीं है खुशी बाजार


से किसी मोल भाव में।


बस खुश होकर ही जियो 


हालातों के लिहाज से।।


 


सुख से जीना है तो उलझनों 


को तुम सहेली बना लो।


मत हर छोटी बड़ी बात को


तुम पहेली बना लो।।


समझो जिन्दगी के हर


बात और जज्बात को।


नाचेगी इशारों पर तुम्हारे


जिंदगीअपनी चेली बना लो।।


 


एस के कपूर" श्री हंस"


बरेली।


विनय साग़र जायसवाल

बाक़ी हुरूफ़ जो ये मेरी दास्तां के हैं 


अहसान यह भी मुझ पे किसी मेहरबां के हैं


 


रह-रह के बिजलियों को है इनकी ही जुस्तजू 


तिनके बहुत हसीन मेरे आशियां के हैं


 


क़ुर्बानियाँ शहीदों की भूले हुए हैं लोग


गुमनाम आज नाम उन्हीं पासबां के हैं


 


इन रहबरों ने आज किताब-ए-हयात से


नोचे वही वरक जो मेरी दास्तां के हैं


 


फैला पड़ा है ख़ून समुंदर की शक्ल में


क़ातिल तेरी निगाह में मंज़र कहां के हैं


 


हँसते हुए ही दारो-रसन पर चढ़ेंगे हम


फ़रज़न्द हम भी दोस्तो हिंदोस्तां के हैं


 


इन तेज़ आँधियों का चराग़ों न ग़म करो


फानूस बन के लोग खड़े आशियां के हैं


 


आने न देंगे आँच तिरंगे की शान पर 


पाबंद हम तो आज भी अपनी ज़ुबां के हैं 


 


फिर मकड़ियों ने जाल बुने हैं जगह जगह 


ग़र्दिश में फिर नसीब क्या अपने मकां के हैं 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


संजय जैन

न जीत हूँ न मरता हूँ


न ही कोई काम का हूँ।


बोझ बन कर उनके


घर में पड़ा रहता हूँ।


हर आते जाते पर


नजर थोड़ी रखता हूँ।


पर कह नही सकता 


कुछ भी घरवालो को।


और अपनी बेबसी पर


खुद ही हंसता रहता हूँ।।


 


बहुत जुल्म ढया है हमने


लगता उनकी नजरो में।


सब कुछ अपना लूटकर


बनाया उच्चाधिकारी हमने।


तभी तो भाग रही दुनियाँ उनके आगे पीछे।


और हम हो गये उनको


एक बेगानो की तरह।


गुनाह यही हमारा है की


उनकी खातिर छोड़े रिश्तेनाते।


इसलिए अब अपनी बेबसी पर


खुद ही हंस रहा हूँ।।


 


खुदको सीमित कर लिया था 


अपने बच्चों की खातिर।


और तोड़ दिया थे


रिश्तेनाते सब अपनो से। 


पर किया था जिनकी खातिर


वो ही छोड़ दिये हमको।


पड़ा हुआ हूँ उनकी घर में


एक अंजान की तरह से।


और भोग रहा हूँ अब


अपनी करनी के फलों को।


तभी तो खुद हंस रहा हूँ


अपनी बेबसी पर लोगो।।


न जीत हूँ न मरता हूँ


न ही कोई काम का हूँ।


बोझ बन कर उनके


घर में पड़ा रहता हूँ।।


 


संजय जैन (मुम्बई)


सत्यप्रकाश पाण्डेय

है मेरी जिंदगी मेरा प्यार..


 


मानो बुझता दीपक हूं मैं


सूख गया आशा का तेल


लौ व्यथित झंझावातों से


था समापन पर जग खेल


 


प्राण रूप बाती जलकर


खेल रहे थी अंतिम दांव


टिमटिमाती सी लपटें भी


मानो चल रही उल्टे पांव


 


एक दुःखों की हवा तेज


दूजा कष्टों की भीषणता


उमड़ घुमड़ मेघ गर्जना


त्याग रहा मानो निजता


 


मद्विम हुई जीवन ज्योति


घोर निराशा मुझको घेरे


पुनः प्रखरता कैसे आये


रिक्तपात्र को स्नेह विखेरे


 


घोर निराशा लिए हिय में


खोज रहा आशा किरणें


स्नेह आपूरित प्राण दीप


जीवन बाती लम्बी करने


 


देख टूटती मेरी सांसों को


प्राची सा लेकर आलोक


मेरे व्रण मरहम से भरने


और मिटाने जीवन शोक


 


करने प्रज्ज्वलित लपटें


आई सुनहली उषा बनके


नहीं अकेले सत्य यहां पै


साथ रहूँ में ज्योति बनके


 


जीवन दायिनी बन मेरी


आई थामने दामन मेरा


प्रेम तेल से भर भाजन


दिया मुझको नव सवेरा


 


मेरी जीवन संगिनी वह


है मेरे सपनों का आधार


प्रेम मुहब्बत व हमसफ़र


है मेरी जिंदगी मेरा प्यार।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनीता असीम

जख़म अपने दिखाना चाहता हूं।


तुझे मरहम बनाना चाहता हूं।


***


नमक जख्मों पे डाला है किसीने।


न उनको अब छिपाना चाहता हूँ।


***


वफ़ा मेरी जफा जिसने बताई।


सबक उसको सिखाना चाहता हूं।


***


नहीं खूबी मेरी देखी थी जिसने।


उसी से दूर जाना चाहता हूं।


***


निराशा से घिरा है आज ये मन।


कि बाहों का ठिकाना चाहता हूं


***


कहूं झूठा किसे सच्चा कहूं अब।


हकीकत आजमाना चाहता हूँ।


***


मेरे भावों से खेला है सभीने।


सभी से दूर जाना चाहता हूं।


***


सुनीता असीम


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर

डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


2- पिता का नाम -श्री श्याम सिंह 


3- पति का नाम-दीपक कुमार सिंह 


4- स्थाई पता - डॉ पुष्पलता अधिवक्ता 


253,a साउथ सिविल लाइन मुजफ्फरनगर 251001 उत्तर प्रदेश 


5- फोन नं. 9810350330


6- जन्म तिथि -1968


7- शिक्षा- एम. ए .हिंदी,समाजशास्त्र, बी .एड.,एल. एल. बी .,पी- एच. डी .


8- व्यवसाय-अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट ,पूर्व प्राचार्य बी, एस ,एम जंधेड़ी डिग्री कॉलेज (सहारनपुर )


9- प्रकाशित रचनाओं का विवरण -असंख्य 


 


(अ) ऑनलाइन प्रकाशित रचनाओं की संख्या-असंख्य


(ब) हार्ड कापी में प्रकाशित रचनाओं की संख्या-असंख्य


10- व्यक्तिगत प्रकाशित पुस्तकों का विवरण -18


(अ) ऑनलाइन प्रकाशित पुस्तकों की संख्या- 3


पत्रिकाएँ -प्रणवाक्षर,अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक संसद ,आखर -आखर 


(ब) हार्ड कापी में प्रकाशित पुस्तकों की संख्या-18 


खण्ड काव्य -एक और उर्मिला,एक और वैदेही, एक और अहल्या,


उपन्यास-पृथ्वी पर नारायण,फीका लड्डू, दूसरा सूरज


कहानी -कबरबेहड़ा ,गुड़ियाएं


काव्य- मन का चाँद, अरे बाबुल काहे को मारे ,सूरज पर स्याही ,नदी कहती है ,पानी की देह ,


सूफी टप्पे -झांझर मीरा की


बाल गीत-पोषम पा ,दाब का बन्दा ,


निबंध -परत दर परत ,


लघु कथा -पानी के फूल


गद्य -कुँअर बेचैन के साहित्य में नारी विमर्श 


11- सम्मान का विवरण


(अ) ऑनलाइन प्राप्त सम्मान की संख्या-12


(ब) हार्ड कापी में प्राप्त सम्मान की संख्या-25 से ज्यादा सरकारी, गैर सरकारी,राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय 


 


1"अनंत "


देह से मुक्त होकर 


तैरने लगती हूँ आकाश में


पीड़ा के किनारों को तोड़कर


विहार करने लगती हूँ 


आनंद के महासागर में


देह की निर्रथकता को लेकर भी


खोजने लगती हूँ 


जीवन की सार्थकता


 शब्दों में


देह की शून्यता में भी 


पा जाती हूँ 


कामनाओं का चंद्रमा


तुम्हारे अहसास भर से


 बदल जाती है 


सरसता में नीरसता


पा जाती हूँ अनंत


डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


 


2.


 "बताओ न?"


 


सुबह- सुबह मंदिर में बजती


घंटियों सा कुछ


मन की लहरों में मचलता सा कुछ


भावों के पुल से उभरकर


 नदी की छलछल से


कल -कल हँसी सा उछलता सा कुछ


चांदनी के पंखों पर ,स्वप्नों में


मुस्कराकर बदलता सा कुछ


दिल के तहखानों में दबे 


गीतों को छेड़कर पवित्र गहरा हरा भरा सा आलौकिक जलता सा कुछ 


हाथों से मासूम परिंदों सा फिसलता सा कुछ


संगीत सा बजता है रह-रहकर 


हृदय की वीणा में जब मिलते हो तुम


तुम्हारे साथ दुनियादारी को छोड़कर क्या है?


बनकर बिखरता बिखरकर बनता सा कुछ 


समझ नहीं सकी बताओ न?


डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


 


 


 3."शर्मीली देह"


 


पीले फूलों का घाघरा


 धानी चूनर पहनकर


इठला रही है धरती


म्रदु शीतल हाथों से 


छेड़ रहा है पवन


रात भर अश्कों से भीगी


विरह व्याकुल रही धरती


सुबह -सुबह आकर


सधस्नाता धरती के निचुड़ते हुए केशों कोमल अंगों को देखकर


मुस्करा उठा है सूरज


वह बना रही है चाय


परस रही है पकोड़े दही वड़े


मचल उठे हैं सूरज के हाथ दिल 


घबरा रही है धरती 


टूट न जाएं उसकी नाजुक चूड़ियों सी कोपलें


आक्रामक हो उठा है सूरज


मल रहा है गालों ,बाहों पर 


पीला सुनहरा गुलाल 


अंगड़ाई ले रहा है पवन


टूट गयी हैं कुछ नाजुक 


चूड़ियों सी कोपलें


थोड़ी रूठकर उन्मत सकुचाई सी खिलकर ढीली हो गयी है धरती की शर्मीली देह 


डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


 


4.


 "नदी कहती है "


 


तुममें समाते ही


 मिट जाएगा अस्तित्व 


फिर भी दौड़ती हूँ तुम्हारी ओर


तुम मुझमें हो मैं तुममें


दो सिरों वाले रक्षा सूत्र की तरह 


जब सूखने लगती हूँ


तुम्हीं भेजते हो पानी


बादलों के हाथ


और तुम भी पुकारते रहते हो मुझे


जानते हुए भी 


कि मुझे अस्तित्व में समेटते ही 


घुल जाएगी


तुम्हारे जीवन में


मेरे अश्कों की खारता


डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


253/a साउथ सिविल लाइन ,मुजफ्फरनगर


251002


उत्तर प्रदेश


 


 


 


 5."कुछ तो हो "


 


किस्मत का शरारा या अंधेरी रात के बाद उभरा सकारा


समुद्र से मन का खुला आसमां 


या नदी का किनारा


धड़कनों को धड़कनों के 


सलोने करों का सहारा 


या घनी वादियों की नजरों का 


धुआँ बुहारता उजियारा


मुट्ठी में पकड़ी हुई धूप या


 इन आँखों का सूरज सा तारा


दिल पर लगी मीठी दस्तक


या अठखेलियाँ करते सपनों से


पीछे छूटा नजारा


उलझे गेसुओं से निकली एक लट का इशारा या नयनों से अश्रु सा लिपटा 


नमकीन पानी का धारा


कुछ तो हो तुम


जो पुकार रहे हो मुझे


उत्सुक कर रहे हो 


मुड़ने के लिए 


जबकि साधना रत होक


निष्चेष्ट जा रही हूँ मैं


डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


 डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


253/a साउथ सिविल लाइन मुजफ्फरनगर 251002 


उत्तर प्रदेश


 


 


सुनीता असीम

किसी के प्यार में पड़कर मिटा हालात हूँ मैं।


उजड़ता सा चमन हूँ और बीती बात हूँ मैं।


***


कलेजा चाक करके रख दिया मेरा किसीने।


खुदी अपने लिए बनता रहा। आघात हूं मैं।


***


दिलों पर टूटकर बिजली गिराती जो रही है।


डरों को पालती भीतर अंधेरी रात हूँ मैं।


***


बनाता औरतों को मैं ही अबला और सबला।


उसे दासी बनाते मर्द की ही जात हूँ मैं।


***


अनोखी ही हवा चलने लगी दुनिया में अब है।


दिखे अंजाम भी इसका अभी शुरुआत हूं मैं।


 


सुनीता असीम


शिवानी मिश्रा

समय नही होता,याद करने का,


वक़्त बेवक़्त ही याद कर लिया करो।


व्यस्तता के दौर में,


अपनो को भी जान लिया करो।


कोई दूर है,कोई पास है,


अपनो में भी कोई खास है,


उस अपने के हालातों को भी जान लिया करो।


जीवन है तो सम्बन्ध है,


उन सम्बन्धों को भी


खास बना लिया करो।


जमाने गये, जरूरत पड़ने पर


अपनों के काम आने के,


आज अपने ही गैर, 


गैर ही अपने काम आने लगे।


वक़्त के साथ सब कुछ बदलता है,


सुध कर लो,उस पल की


जब कुछ ख़ास याद आने लगे।


 


शिवानी मिश्रा


(प्रयागराज)


संजय जैन

न हम हिन्दू न हम मुस्लिम


और न सिख ईसाई है।


हिंदुस्तान में जन्म लिया है तो 


पहले हम हिंदुस्तानी है।


आज़दी की जंग में 


इन सब ने जान गमाई थी।


तब जाकर हमको ये


आज़दी मिल पाई थी।


कैसे भूल उन सब को


वो भी हमारे बेटे थे।।


 


पर भारत माँ अब बेबस है


और अंदर ही अंदर रोती है।


अपने ही बेटों की करनी पर 


खून के आंसू पीती है।


धर्म निरपेक्षय देश हम 


सब ने मिलकर बनाया था।


पुनः खण्ड खण्ड कर डाला 


अपने देश बेटों ने।।


क्या हाल बना दिया


अपनी भारत माँ का अब।।


 


कितनी लज्जा कितनी शर्म 


आ रही है अपने बेटों पर।


भारत माँ रोती रहती 


एक कोने में बैठकर।


क्या ये सब करने के लिए


 ही हमने आज़दी पाई है।


और धूमिल कर डाले


आज़दी के उन सपनों को।


और मजबूर कर दिया


अपनो की लाशों पर रोने को।।


 


चल कहाँ से थे हम


कहाँ तक आ पहुंचे।


और कहां तक गिरना है


तुम बतला दो बेटों अब।


भारत माँ के बेटों को 


क्या बेटों के हाथों मरना है। 


नही चाहिए ऐसी आज़दी


जो भाइयों को लड़वाती है।


नही चाहिए ऐसी आज़दी 


जो अपास में लड़वाती है।


और मरे कोई भी दंगो में


पर माँ को ही रोना पड़ता है।


और बेटों की करनी पर 


शर्मिदा होना पड़ता है।


शर्मिदा होना पड़ता है।।


 


संजय जैन (मुम्बई) 


निशा अतुल्य

कितने सुन्दर कृष्ण कन्हिया


माँ मुझको तुम राधा बना दो


मुरली इनकी कितनी सुन्दर


बना मोर पँख मुझे सजा दो ।


 


मैं ले गगरी पनघट जाऊंगी


लहंगा चोली मुझे पहना दो


जब कान्हा फोड़ेगा गगरी


यशोदा माँ से उसे पिटवा दो।


 


छेड़गा जब कृष्ण कन्हैया


गोकुल में फिर रास रचा दो


सूरत से लगता है भोला 


माँ मुझको तुम कृष्ण दिला दो।


 


मुरली सुन सखियों सँग नाचूं


ग्वाल बाल सँग उसे नचा दो।


मेरा कान्हा बड़ा है प्यारा


माखन मिश्री इसे खिला दो ।


 


कितने सुन्दर कृष्ण कन्हिया


माँ मुझको तुम राधा बना दो ।


 


निशा अतुल्य


सत्यप्रकाश पाण्डेय

तुम्ही हो मेरा जीवन धन


 


हृदयांगम करलो सजनी


मेरे हिय उपवन के फूल


मिल जायेगा तेरा आश्रय


जीवन हो जाये अनुकूल


 


अंतर्मन के भाव प्रिय मैं


कैसे शब्दों में व्यक्त करूँ


तरल तरंगित स्नेह नीर मैं


सदा आँखों में लिए फिरूँ


 


तेरी छवि बसा के दिल में


मन के मनिका फेर रहा


हे अन्तरंग में स्थित मूर्ति


मनखग तुझे ही टेर रहा


 


भावों की प्रखर ज्योति से


झिलमिल है रोम रोम मेरे


मृदुल मनोहर पिक वाणी


गुंजायमान श्रुति लोम मेरे


 


मेरे आसक्त हिय को प्रिय


तुम दो प्रेम का आलम्बन


टूट न जाये सत्य प्रियतमा


तुम्ही हो मेरा जीवन धन।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


रत्ना वर्मा

" स्वतंत्रता की संघर्ष पूर्ण कहानी "


आओ सुनाती हूँ तुम्हे स्वतंत्रता संघर्ष की कहानी ,


 देश पर मर मिटेन वालों की संघर्ष पूर्ण जवानी। 


जब गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी थी भारत की आजादी। 


तब आजादी के ख्वाब देखने वाले वीर क्रांतिकारियों 


ने दी थी नारा इंकलाबी .....आओ सुनाती हूँ तुम्हे स्वतंत्रता संघर्ष की कहानी ......


 


गीत अभी भी गुंजित होते हैं कानों में ...


तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें दूँगा आजादी ....


अधिकार से मैं ले कर रहूँगा स्वराज ....


नहीं डरूंगां ले कर रहूँगा आजादी ...


आओ सुनाती हूँ तुम्हे स्वतंत्रता संघर्ष की कहानी। 


 


 


स्वतंत्रता सेनानियों से पूछो ....जब संकल्प लिया था 


भारत छोड़ो .. .तब मर रही थी अंग्रेजों की नानी ...


हाँ हाँ यही कहानी ....उन्नीस सौ बेयालिस में ...


छिड़ा आन्दोलन सपना पूरा हुकआ उन्नीस सौ सैतालिस में ..... आओ सुनाती हूँ तुम्हे स्वतंत्रता संघर्ष की कहानी . ...


 


अल्प आयु में मारे गये अनगिनत वीर क्रांतिकारी,


 तब जा कर मिली हमें आजादी, वंदेमातरम का ...


जय घोष हुआ अपने दम पर जी जिंदगानी ...


सच्चे देश भक्त ने गाया यह गीत ...सरफरोशी की तमन्ना 


अब भी हमारे दिल में है देखना है जोर कितना बाजुए ।


 


 


 


 रत्ना वर्मा


 धनबाद -झारखंड


सुनील कुमार गुप्ता

पल-पल मन न रोता


थाम लेते मन की तड़पन,


जो साथी अपना होता।


अपनत्व की चाहत को फिर,


यहाँ पल-पल न रोता।।


छोड़ मंझधार में उनको,


साथी चैन संग सोता।


अपनत्व नहीं जीवन में,


क्यों-ये मन पल-पल रोता?


वही मिले जीवन में फिर,


साथी कर्मो संग बोता।


सद्कर्म हीन जीवन में फिर,


साथी पल-पल मन रोता।।"


 


सुनील कुमार गुप्ता


सत्यप्रकाश पाण्डेय

हर जीवन में दर्द बढ़ता ही जा रहा है


व्यथित है दुनियां कोरोना सता रहा है


 


कुछ तरस गये हैं अपनों से मिलन को


पीड़ित हैं कुछ दो जून के भोजन को


 


कहीं रोजगार तो कहीं चैन छिन गया 


हे माधव मानव का सकून छिन गया


 


करो स्नेह की बारिश श्री बांकेबिहारी


जग से यह पीड़ा हरो बृषभानु दुलारी


 


सत्य की जिंदगी भी नाथ तेरे हवाले


दुःख से रखो या सुख से हे मुरली वाले।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


राजेंद्र रायपुरी

भाग्योदय होता तभी,


                जब करते कुछ काम।


होता भाग्योदय नहीं ,


                    करने से आराम।


 


झूठ नहीं यह बात है,


                  सच मानो श्रीमान।


दुखी सदा रहते वही,


                   जो सोते हैं तान।


 


करे परिश्रम जो सदा,


                   सुखी वही इंसान।


जो माने कहना नहीं, 


                   समझो वो नादान।


 


सतत परिश्रम कीजिए, 


                   यदि करना उत्थान।


बिना परिश्रम तो नहीं,


                  मिले मान-सम्मान।


 


भाग्योदय का मानिए, 


                   केवल एक उपाय।


बिना कहे हो कर्म निज़,


                    कहता है कविराय।


 


             । राजेंद्र रायपुरी।


अविनाश सिंह

अटल थे वो


अटल ही रहेंगे


जय अटल।


 


सादा जीवन


सरल था स्वभाव


उच्च विचार।


 


नही डरते


अटल ही रहते


शत्रु काँपते।


 


शुरू की यात्रा


दिल्ली से लाहौर की


प्रथम यात्री।


 


रोड प्रोजेक्ट


जोड़ा गाँव-शहर


मुख्य उद्देश्य।


 


कोलकाता को


दिल्ली,चेन्नई,मुंबई


संग जोड़ा।


 


एक सपना


सबका हो विकास


रहे अटल।


 


दिया साहस


सैनिकों को बढ़ावा


जंग जिताया।


 


प्रथम मंत्री


दिया हिंदी व्याख्यान


गौरवान्वित।


 


किया उन्होंने


परमाणु परीक्षण


पोखरण में।


 


प्रसिद्ध कवि


ग्वालियर के लाल


ओज के कवि।


 


दिलाया जीत


कारगिल युद्ध में


चटाया धूल।


 


जहां भी रहे


किया देश का नाम


शान से रहे।


 


अटल नाम


अटल थे इरादे


काम अटल।


 


भारत रत्न


पद्म से विभूषित


थे वो अटल।


 


सफल नेता


पत्रकार व कवि


प्रधानमंत्री।


 


मृत्यु या हत्या


बिन्दु बिन्दु विचार


प्रमुख कृति।


 


कुशल नेता


बहुमुखी प्रतिभा


के थे वो धनी।


 


अविनाश सिंह


रंजना सिंह"शिक्षिका" बेगुसराय बिहार

इकाई।


2- पति का नाम - शशि भूषण सिंह(व्यवसाय))


3 संतान; एक पुत्री'दिव्या रंजन(आर्किटेक्ट)


एक पुत्र; विशाल भूषण(प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी)


4- पता -ग्राम,पोस्ट-भैरवार


भाया-मिर्जापुर वनद्वार


थाना-मुफ्फसिल


जिला-बेगूसराय


 5 फोन नं. - 7761097376 , 9570182068


6 जन्म तिथि - 11 / 11 / 1976


7जन्म स्थान - मोरतर (बिहार) प्रखंड:गढ़पुरा


जिला:बेगूसराय"बिहार"


8 शिक्षा - स्नातकोत्तर(आधुनिक इतिहास)


          


         बी.एड


स्कूली शिक्षा;राँची(झारखंड)


8- व्यवसाय- शिक्षिका(उत्क्रमित मध्य विद्यालय,देवड़ा)


          गढ़पुरा"बेगूसराय"बिहार


10 साहित्यिक-उपलब्धियां 


1 नेपाल भारत मैत्री वीरांगना फाउंडेशन ,रौतहट द्वारा आयोजित तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय कवि कुम्भ महोत्सव में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर सम्मानित


2 विश्व पुस्तक मेला में नारायणी साहित्य अकादमी,नई दिल्ली द्वारा सम्मानित"।


3 हिंदी भाषा साहित्य परिषद(खगड़िया) द्वारा सम्मानित


4 पुष्पवाटिका परिवार द्वारा "सारस्वत सम्मान"


5 जयमंगला महोत्सव"2018" में जयमंगला      


                फाउंडेशन द्वारा।


6 भारत उत्थान न्यास,कानपुर एवं वृंदावन शोध संस्थान द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में 'सारस्वत सम्मान' से सम्मानित 


7 महिला सशक्तिकरण की दिशा में बेहतर कार्य करने के लिए दैनिक अखबार "प्रभात खबर "की ओर से वर्ष 2018 के लिए (बेगूसराय)"अपराजिता" सम्मान।


8 विश्व अंगिका साहित्य सम्मेलन द्वारा "कपिल सिंह मुनि अंग विभूति " सम्मान 


9 विजयानी फाउंडेशन,नई दिल्ली द्वारा सम्मानित


10 विश्व हिंदी लेखिका मंच द्वारा नारी चेतना प्रचार-प्रसार योजना के अंतर्गत प्रकाशित होने वाली साहित्य पत्रिका 'नारी शक्ति सागर" में रचनात्मक योगदान के लिए ''नारी शक्ति सागर' सम्मान से सम्मानित।


11- अनुभव


नारायणी साहित्य अकादमी ,बिहार इकाई की पूर्व अध्यक्ष


इंद्रप्रस्थ लिट्रेचर फेस्टिवल ,नई दिल्ली द्वारा बिहार प्रान्त की अध्यक्ष ।।


12 रचनाओं से सम्बंधित विवरण :-


अब तक कोई पुस्तक प्रकाशित नही हुई है परन्तु


दैनिक ,पाक्षिक,मासिक पत्र-पत्रिकाओं यथा कोसी टाइम्स,बिहार टाइम्स,हयात लेके चलो,पुष्पवाटिका ,समय प्रसंग,सरजमीं, युवाप्रवर्तक ,कानपुर से प्रकाशित होने वाली प्रतिष्ठित समाचार पत्र स्टेपआहेड, नारी शक्ति सागर साझा पुस्तक में, चैतन्य हिन्द धन्य पुस्तक में रचनाएँ प्रकाशित। रांची से प्रकाशित हिंदुस्तान,प्रभात खबर,नई दुनियां इत्यादि में आलेख,कविताएं,समीक्षा,साक्षात्कार आदि प्रकाशित ।।


अभिरुचि-शिक्षण,लेखन एवं महिलासशक्तिकरण हेतु विभिन्न तरह के कार्यक्रमों का आयोजन करवाना।


लेखन विधा; दोहा, छंद मुक्त कविता,लघु कथा,आलेख ,गज़ल इत्यादि


नाम - रंजना सिंह"शिक्षिका"


 


1 -स्वाभिमानिनी सीता


तू आदि शक्ति


जगत जननी


धरित्री के अतिरिक्त


नहीं सामर्थ्य था


किसी में कि वह नौ माह


अपनी कोख में


तुझे पल्लवित कर सके।


तू धर्मपरायण


कर्तव्यपरायण


स्वाभिमानिनी


प्रखर विदुषी


अद्भुत


तार्किक सक्षमता तुझमें


जीवन रूपी


पथरीली भूमि पर भी


राह बनाने वाली


महलो में पली


कोमलांगी


जनकनंदिनी


कठिन परिस्थिति में भी


बिना विलंब किये


साहसिक निर्णय लेनेवाली


चल पड़ी


उस मार्ग


जहाँ शूल ही शूल मिले


इतना था स्वयं पर विश्वास


कि लक्ष्मण रेखा भी


कमजोर न कर सका


आत्मबल तुम्हारा


 तू तो शक्ति की श्रोत थी


चाहती तो भस्म हो जाता रावण


और तू राम के पास वापस चली आती


किन्तु चुनौतियों को स्वीकारा तुमने


 श्री राम के स्वाभिमान व पुरुषार्थ


 रक्षार्थ हेतु


सबला होकर भी


अबला सी 


प्रतिक्षा में श्री राम के


अशोकवाटिका में


अपने आराध्य श्री राम 


नाम लिखती रही


फिर भी विधाता को दया न आई


वनवास तो पूरे हुए


किन्तु जीवन आंधियो से


घिरता रहा


और तू लव-कुश की माता बन


पुनः


रघुकुल को गौरव दिया


स्वयं पर आए लांक्षण का


ऐसा प्रत्युत्तर दिया


कि इतिहास राम से पूर्व,


तेरा नाम लेता रहा


जय सियाराम।। 


 


 


2 मन की गिरह


 


 


वक्त की करवट


ख्वाहिशों के महल को


मलबों में तब्दील कर


जीवन गति


बनाए रखने के लिए


नव विकल्प की संभावनाएं 


तलाश लेगी


जिंदगी सब्र की 


थपकियों से


अंतः के विचलन को


कम करने का 


अनवरत प्रयास जारी रखेगी


मगर


बालों की सफेदी


और चेहरे पर पड़ी


सिलवटों में दबी


स्त्री मन की गिरह


उसके श्वांस संग


वफ़ा निभाकर


जीवन के साथ चली जाएगी।।


 


 


3.व्यथा सदियों की रंजना


है !मनुष्य


मैं पर्वत,सागर,अम्बर,नदी,जंगल युक्त,


सुंदर जगत निर्माण की।


हृदय सुवासित करनेवाले,


सुगंधित पुष्प,कीट-पतंग,


पशु-पक्षी,जीव-जंतु तथा


उन सबमें श्रेष्ठ बुद्धिजीवी,


का निर्माण तुम हो।


सभी जीव के जीवन-यापन हेतु,


वातानुकूलित परिवेश दिया।


कई सदियों को आत्मसात करती हुई,


बिना रुके,बिना थके ,


तुहारे साथ चलती रही,


लेकिन तुम्हारी अति लिप्सा के स्वार्थ ने,


मेरे अस्तित्व को ही छिन्न-भिन्न कर डाला।


कभी तो तुम्हारी मनमानियों की समाप्ति हो,


इसी विचार से तुम्हे सचेष्ट करती रही,


भीतर ही भीतर सुलगती रही


कभी भूचाल बन फटती रही,


कभी बाढ़ बन उमड़ती रही।


फिर भी मेरी चेतावनी व्यर्थ गई,


तुम मेरे द्वारा निर्मित इस सुंदर जगत को,


अपनी व्यक्तिगत संपत्ति समझ बैठे।


मान बैठे स्वयं को ही सर्वशक्तिमान,


तुम्हारी इन करतूतों का परिणाम,


निरीह जीव-जंतु, भूमि,जल,वायु आदि,


भुगतने लगे।


जीवों को तुमने आश्रयविहीन कर दिया।


तोड़ दी तुमने अपनी उच्छृंखलता की सीमाएँ।


धर्म,जाति, सम्प्रदाय की आड़ में,


तुमने मानवता की हत्या की,


तुम्हारे अति सुविधाभोगी स्वभाव से,


जब मेरी सांसें अवरुद्ध होने लगी,


प्रतिदान स्वरूप हमने तुम्हें दंडित किया,


आज तुम्हारी भलाई कैद रहने में ही है।


तुम कैद हो,मैं स्वच्छंद हूँ।


तुमने मुझसे दूरी बढ़ाई,


मैं तुम्हे सबसे दूर कर दी।


और हाँ सुनो---"बंद रहो अपने घर मे


मुझे मेरे साथ सुखपूर्वक रहने दो।


,""कि जरूरत नही मुझे तुम्हारी"


 


 


4 शब्द


 


 


वर्णों के संयोजन से


करता मैं आकर ग्रहण


हर्ष,विषाद,घृणा,प्रेम


भावों के भिन्न-भिन्न रूपों का


मैं करता प्रतिनिधित्व


कभी जख्म कभी मरहम बन


और कभी बनता उद्गार


 


 


संवादों का मैं आधार


मिर्ची से भी ज्यादा तीखा


और मधु से ज्यादा मीठा


जब ढल जाता मैं वाणी में


 तब जिह्वा से मुखरित होता


  पड़ता हूँ सबके कानो में


 


 


एहसासों के धागों में गूंधकर


संबोधन,सांत्वना,विश्वास बनता


कभी आशा बन निखरता


तो कभी निराशा बन बिखरता


और जब कवि कलम से निःसृत होता


अनुभूति का पर्याय मैं बनता।।


 


 


 


 


5 देहरी


 


 


बचपन का सारा


प्यार-दुलार


नोंक-झोंक


मान-मनुहार


सबकुछ तो छोड़ आयी


देहरी के उसपार


 एक नई देहरी 


पार करने के लिए


साथ अपने


 अरमानों की पोटली


बाँध लायी थी


जिसे खर्च दी


मकान को घर बनाने में


कभी पति का हौसला बन


कभी सास-श्वसुर का सहारा बन


कभी सृजन-धारा बन


-'तन्मयता


"हाँ"


इसे भी तो


कई हिस्सों में बांट रखी


कभी दाल की छौंक में


कभी डिटर्जेंट में डूबे कपड़ों में


कभी त्योहारो के पकवानों में


कभी बच्चों के


 भविष्य निर्माण में


ताकि देहरी पर उकेरी


रंगोली की तरह


जीवन की सुंदरता


विद्यमान रहे


रह भी जाए शेष कुछ


तो मन का अरमान रहे


क्योंकि


उड़ान के बाद की थकान


मिटती है देहरी पर आकर ही


जो अंतर्मन को


सुकून से भर देती है।।


संदीप कुमार विश्नोई

जला कर राख तुम कर दो , उठाया नैन जो जाए , 


हमारे देश की सरहद , कभी दुश्मन न छू पाए। 


 


चलो सब शान से वीरो, तिरंगा साथ में ले कर , 


उड़ा दो शीश अरिदल के , कटारी हाथ में ले कर। 


बहुत पावन लगे मन को , हमारा पर्व आजादी , 


दिए बलिदान वीरों ने , बनी है गर्व आजादी। 


 


कहीं तोता कहीं मैना , कहीं बुलबुल यहाँ गाए , 


हमारे देश की सरहद , कभी दुश्मन न छू पाए। 


 


बही थी खून की नदियाँ , हमारे देश भारत में , 


चमकते वीर हैं बन के , सितारे देश भारत में। 


करो गुणगान भारत का , यही गुरु विश्व कहलाता , 


सुनो संदीप भारत का , तिरंगा आज लहराता। 


 


गगन में शान से झंडा , तिरंगा आज लहराए , 


हमारे देश की सरहद , कभी दुश्मन न छू पाए। 


 


संदीप कुमार विश्नोई "रुद्र"


जिला फाजिल्का पंजाब


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