विनय साग़र जायसवाल

सारे अज़ीज़ उनकी हिमायत में आ गये


मजबूर होके हम भी सियासत में 


आ गये 


 


हाँलाकि ख़ौफ़ सबको सितमगर का था बहुत


कुछ लोग फिर भी मेरी वकालत में आ गये 


 


इतने हसीन जाल बिछाये थे आपने


हम ख़ुद शिकार होके हिरासत में आ गये 


 


सोचा नहीं नशे में हुकूमत के आपने 


अहबाब इतने कैसे बग़ाबत में आ गये 


 


हम तो इसी गुमान में लुटते रहे कि वो


आवारगी को छोड़ शराफ़त में आ गये


 


इतना फ़रेब उसकी निगाहों में था छुपा


उस पर यक़ीन करके मुसीबत में आ गये


 


शीशे में हमने उनको उतारा ही इस तरह


इनकार करते करते मुहब्बत में आ गये


 


*साग़र* हमारे बारे में क्या उड़ गई ख़बर 


सुनते ही जिसको आज वो हैबत में आ गये


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


नूतन लाल साहू

दोस्ती परिवार से कर लो


तेरा घर मंदिर,बन जायेगा


मातु पिता,गुरुजन की सेवा


जगत में जीवन है,दिन चार


दुःख में सुख में,हर पल बंदे


परिवार ही तेरा काम आयेगा


दोस्ती परिवार से कर लो


तेरा घर मंदिर बन जायेगा


बड़ी कठिनाई से यह नरतन,पाया है


मेरी मेरी कहकर,उम्र गुजार रहा है


मुठ्ठी बांधकर आया है,हाथ पसारे जायेगा


मीठे वचन बोल सबसे, अति सुख तू पायेगा


दोस्ती परिवार से कर लो


तेरा घर मंदिर बन जायेगा


झगड़ा कभी न किजिये,सब सन राखिये प्रीति


निंदक नियरे राखिये,आंगन कुटी छवाय


झगड़ा से घर उजड़त है,सत्य वचन इसे जान


जो नर दूसरो का आदर करे,उसका होता है कल्याण


दोस्ती परिवार से कर लो


तेरा घर मंदिर बन जायेगा


सुख के साथी अनेकोनेक है


वक्त पड़ा तब कोई नहीं है


धर्म कर्म कुछ कर ले


आखिर में तुम्हारा कोई नहीं है


पर पीड़ा सा पाप कोई नहीं है


परहित से ही पुण्य मिलेगा


नाता भला क्या है,जग से हमारा


दोस्ती ही बनेगा तेरा सहारा


दोस्ती परिवार से कर लो


तेरा घर मंदिर बन जायेगा


याद करो प्रभु श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती


अनेकोनेक कष्ट भोगा,सुदामा का परिवार


पर धर्म न खोया,प्रभु की भक्ति को बनाया सहारा


रंक से राजा बना,अमर हो गई वो गाथा


दोस्ती परिवार से कर लो


तेरा घर मंदिर बन जायेगा। 


 


नूतन लाल साहू


सत्यप्रकाश पाण्डेय

नग शिखरों से दौड़ पड़ी 


अपने प्रियतम से मिलने


ऊबड़खाबड़ पथरीले पथ


आँखों में स्वर्णिम सपने


 


कहीं सघन कांतार व्याप्त


कहीं दुर्गमता रोकें प्रवाह


कहीं शिलाखन्ड टूटकर 


विरहिणी की रोकें है राह


 


अविचल सी अव्यथित हो


वो तो चली लक्ष्य की ओर


सारे अवरोध तोड़ बढ़ रही


जिस रवि से मिलनी है भोर


 


छोड़ के सारे जग के बंधन 


उस असीम की ओर चली 


निज अस्तित्व मिटा देगी


गिरि उपवन का छोड़ चली


 


शैल उतंग से लगाव कहाँ 


न सुरभित कानन से मोह


नहीं वसुधा का आकर्षण


असहनीय उदधि बिछोह


 


पारावार ही मंजिल उसकी


उसी अनन्त की गोद प्रिय


चली उसी से मिलने सजनी


जगत छोड़ वह मोद प्रिय


 


वैसे ही यह जीवन सरिता


परमब्रह्म सागर से मिलने


क्यों न लालायित रहती है


इहि भव-सागर से तरने


 


उस असीम गोद में जाकर


जहां अनंत को मिले सहारा


जीव नदी के लिए अधिक न


इससे बढ़कर कोई किनारा।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

गहराती बदली यादों की,


कैसे-उभरे उससे मन?


यादों के साये में पल-पल,


व्याकुल रहा अपना मन।।


स्वार्थ में डूबा जो तन-मन,


यहाँ पाया न अपनापन।


चाहत संग-संग जग में फिर,


खोये रहे सपनो संग।।


पूरे होते जीवन सपने,


कुछ तो ऐसा करता तन।


सत्य-पथ अपनाते जो साथी,


फिर व्याकुल होता न मन।


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

आल्हा छंद पर रचना


 


वीर-वधू कहती हैं भैया,


   ‌‌ देखो हर दिन कर चित्कार।


बदला लिया नहीं साजन का,


                खत्म हो गए क्या हथियार।


 


वादा था ये लेंगे बदला,


                  बीस नहीं हम सौ को मार।


लेकिन सके नहीं बदले में,


                 मार अभी तक दो या चार।


 


क्या जवाब मैं दूॅ॑ साजन को,


                      जो पूछें मुझसे हर बार।


कब तक हम वीरों का बदला,


                     दुश्मन से लेगी सरकार।


 


खून गिरा गलवान सजन का,


                 हर दिन कहता है चित्कार।


कोई तो बंदूक उठाए,


                      और करे दुश्मन संहार।


 


सूख न पाया इंतजार में,


                    बीते भले दिवस हैं साठ।


लहू देखना है दुश्मन का,


                      बाॅ॑धी है मैंने ये गाॅ॑ठ।


 


कोई तो प्रण पूरा कर दे,


                    पीर मुझे भारी है यार।


चैन कहो कैसे आएगा,


                     दुश्मन अभी रहा हूॅ॑कार।


 


देख पिय के रक्त की पीड़ा,


                    मेरे अॅ॑खियन बहती धार।


कोई तो उनसे बदला ले, 


                       विनय यही है बारंबार।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार रमेश कुमार सिंह रुद्र 

रमेश कुमार सिंह "रुद्र"  


पिता- श्री ज्ञानी सिंह, माता - श्रीमती सुघरा देवी।


    पत्नि- पूनम देवी, पुत्र-पलक एवं इशान 


जन्मतिथि- फरवरी 1985


मुख्य पेशा - माध्यमिक शिक्षक ( हाईस्कूल बिहार सरकार वर्तमान में कार्यरत उच्च माध्यमिक विद्यालय रामगढ चेनारी रोहतास-821104 )


शिक्षा- एम. ए. अर्थशास्त्र एवं हिन्दी, बी. एड. 


 साहित्य सेवा- साहित्य लेखन के लिए प्रेरित करना। 


     सह सम्पादक "साहित्य धरोहर" अवध मगध साहित्य मंच (हिन्दी)


     प्रदेश प्रभारी(बिहार) - साहित्य सरोज पत्रिका एवं विभिन्न पत्रिकाओं, साहित्यक संस्थाओं में सदस्यता प्राप्त।


     प्रधानमंत्री - बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन इकाई रोहतास सासाराम 


समाज सेवा - अध्यक्ष, शिक्षक न्याय मोर्चा संघ इकाई प्रखंड चेनारी जिला रोहतास सासाराम 


राज्य- बिहार 


पता  -


 पोस्ट- कर्मनाशा, थाना -दुर्गावती, जनपद-कैमूर पिन कोड-821105


मोबाइल - 9572289410 /9955999098/9473000080 


 मेल आई- rameshpunam76@gmail.com


                   rameshpoonam95@gmail.com 


लेखन मुख्य विधा- छन्दमुक्त एवं छन्दमय काव्य,नई कविता, हाइकु, गद्य लेखन। 


प्रकाशित रचनाएँ- देशभर के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में एवं  साझा संग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित। लगभग 600 रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं तथा 50 साझा संग्रहों एवं तमाम साहित्यिक वेब पर रचनाये प्रकाशित। 


साहित्य में पहला कदम- वैसे 2002 से ही, पूर्णरूप से दिसम्बर 2014 से।


 प्राप्त सम्मान विवरण -:


भारत के विभिन्न साहित्यिक / सामाजिक संस्थाओं से  80 सम्मान प्राप्त/चयनित। 


 


 


 


रचनाएं-:


1-


सरस्वती माँ 


वीणावादिनी ज्ञान दायिनी ज्ञानवान कर दे....


माँ रूपसौभग्यदायिनी नव रुप भर दे....


हंसवाहिनी श्वेतांबरी जग उज्ज्वल कर दे.....


वीणापाणिनि शब्ददायिनी शब्दों से भर दे....


ज्योतिर्मय जीवन 


तरंगमय जीवन


सभी जन प्रकाशयुक्त 


सभी जन ज्ञानयुक्त


अज्ञान निशा को


जीवों से दूर कर दे..... 


सत्य पथ सत्यमय


वीणा के तारों से 


विद्या-विनयमय


स्वरों की झंकारों से


सभी जीव-प्राणि को  


सुखद पल भर दे..... 


कमलासिनी कमलनयन से सभी को दृष्टि दे...


वाग्देवी माँ वागेश्वरी वाणी से सभी को वृष्टि दे.....


कमंडलधारिणी करकमलों से सभी को वृद्धि दे.....


बुद्धिदात्री ब्रम्भचारिणी सभी को सृष्टि दे.....


रमेश कुमार सिंह रुद्र


 


2-


माता माँ काली कहलाती,


करो माँ हम सबका उद्धार।


तेरे द्वारे हम आये हैं,


रुद्र करत है यही पुकार।-॥१॥


 


दरवाजे पर मेरे हो तुम,


कर दो मेरा बेड़ा पार।


धाम विनय लेकर आये है


रुद्र करत है यही पुकार।-॥२॥


 


माँ सुने है दुर्गा कहलाती,


माँ ही जीवन का आधार।


विग्न दूर करने आये हैं,


रुद्र करत है यही पुकार।-॥३॥


 


चरणों मे माथा टेके हैं,


कर दो नईया मेरा पार।


कष्ट निवारण हम आये है,


रुद्र करत है यही पुकार।-॥४॥


 


कष्टो मे हम सभी जीते है,


मिल गया कष्ट मुझे अपार।


निजात पाने हम आये है


रुद्र करत है यही पुकार।-॥५॥


 रमेश कुमार सिंह रुद्र


 


 


3- कविता मेरी काव्य रंगोली। 


 


विभिन्न रंगों की है ये टोली


इन्द्रधनुषी सुरत भोली


मौन रुप में दिखती हरदम


मन हृदय को करती चंचल


             सत्य राह आनन्द की झोली।


             कविता मेरी काव्य रंगोली।


 


रंग बिरंगे भाव पड़े हैं


सबके मन साथ खड़े हैं


सुख दुख में साथ निभाते 


जिवनचर्या साथ बिताते 


             मिलती सबको मिठी बोली। 


             कविता मेरी काव्य रंगोली। 


 


जीवन में खुशहाली लाती 


रंगमय कर भाव दिखाती 


लाल हरा बैगनी पीला है 


सातरंगो से बना झीना है 


             पर्व त्योहार पर भरती रोरी। 


             कविता मेरी काव्य रंगोली। 


 


सबके मन को बहलाये 


थके हुए तन सहलाये


उदासियों के साथ निभाये


जीवन को सतरंगी बनाये


             कभी कभी संग खेले होली। 


             कविता मेरी काव्य रंगोली। 


 


नव वर्ष नव भाव लिए


नव रीति नव आस लिए


चलती है अविरल धारा 


सब लोग लिए एक नारा 


             नव वर्ष मुबारक है होनी। 


             कविता मेरी काव्य रंगोली। 


         रमेश कुमार सिंह रुद्र 


   


   


4-


माँ मुझे दो आर्शीवाद


 


माँ मुझे दो आर्शीवाद !!


          ममता बिन कैसे रह पांऊगी।


बचपन तेरी गोद बिताया,


                  कैसे वहाँ हँस पांऊगी। 


आँगन की एक फूल हूँ ,


                  खिलकर मुस्कुराऊंगी।


कदम चुमने तेरा ही मैं,


                  पुन: लौट कर आऊंगी।


आंचल की बगिया मैं तेरे,


                   पुन: चहकने आऊंगी।


सुमन लता चमेली बनकर,


                    सुगन्ध मैं फैलाऊंगी।


 


 


माँ मुझे दो आर्शीवाद !!


          ममता बिन कैसे रह पांऊगी।


मैं हूँ तेरी नन्ही चिड़िया ,


                कभी उड़कर आऊंगी।


पंख को तूने ही सहलाया,


                 इसके सहारे आऊंगी।


तेरे सिखाए हुनर को मैं,


               जाकर वहां दिखाऊंगी।


दुख आये या सुख आये,


               सहर्ष पार कर जाऊंगी।


तेरे ही आर्शीवचनो से,


            कठिन डगर चल पाऊंगी।


 रमेश कुमार सिंह रुद्र 


 


 


5-दीपक 


दीपक की रोशनी को इतना बढ़ाएँ


कि सबके हृदय में फूल खिल जाय।


दीपावली पर दीप इतना जलाएँ,


कि सबके यहाँ प्रकाश फैल जाय।


 


उदासी की दुनिया में खुशियाँ मनाएँ,


कि चारो तरफ खुशनुमा पल हो जाय।


अपने मन से ईर्ष्या, कलह, द्वेष हटा दें,


हृदय में स्वच्छता का वास हो जाय।


 


स्नेह का दिया इतना जलाएँ,


स्वार्थ का पर्दा आँखो से हट जाय।


इस पर्व पर ऐसा माहौल बनाएँ,


सबके अन्दर मधुर भाव आ जाय।



 


सत्यप्रकाश पाण्डेय

वाचस्पति माँ हंस वाहिनी


मंगल मूरत ज्ञान दायिनी


स्वेत वसना वीणा वादिनी


सुर देवी पुस्तक धारिणी


 


पद्मासना हे सुर साम्राज्ञी


तुमसे ही हिय में आलोक


अज्ञान तमस हारिणी माँ


ज्योतिर्मय माँ हरती शोक


 


वरदा सुखदा मात शारदे


सदा आपका आशीष मिले


भव तारिणी दुख निवारिणी 


कृपा पा शब्द सुमन खिलें


 


कमलकांति हे वीणापाणि


मेरा जीवन हो देदीप्यमान


सत्य बने कृपा पात्र आपका


माते जग में पाऊँ सम्मान।


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ बीके शर्मा 

तू आती है हाथों में


लिख जाती जीवन जग


चीर ना पाई सीना मेरा


मैं तो हूं कोरा कागज -1


 


देवों के हाथों में आकर


तूने मुझ पर बार किया 


अच्छा था मैं कोरा कागज


लिख डाला बेकार किया 


 


यमराज ने भी तुझे दे डाला 


चित्रगुप्त के हाथों में 


सब कुछ गुप्त रखा उसने भी 


रख मेरी छाती पर पग


मैं तो हूं कोरा कागज -2


 


ऋषि मुनियों के हाथों आकर 


तूने वदों को है रच डाला 


धर्म ग्रंथ सब रच डाले 


कर डाला मुझको काला


 


सब्र न तुझको फिर भी आया 


छाती पर तूने लिख गाया 


पता नहीं क्यों साथी मेरे 


करती रही जीवन में ठग 


मैं तो हूं कोरा कागज -3


 


खींच लकीर तूने मुझ पर


कितने हिस्से कर डाले 


इतनी बड़ी भी थी ना कहानी 


कि तूने किस्से कर डाले


 


इतना होने पर भी हम तुम 


क्यों एक दूजे से मिल जाते 


छू जाती सांसे एक दूजे को


क्यों अधरों से रस बरसाते 


विपरीत दिशा में चल कर भी 


क्यों जाते एक दूजे से खग


मैं तो हूं कोरा कागज -4


 


मैं रहता बेचैन हमेशा


क्यों देखना पाया मुझको जग


तू चलने को बेताब हमेशा


क्यों समझ ना पाई 


मेरी दुखती रग 


मैं तो हूं कोरा कागज -5


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान 


सुनील कुमार गुप्ता

रह जायेगा यहाँ अकेला


 


"न मन मेरा-न तन मेरा फिर,


ये दुनियाँ दो पल का मेला।


साथी हो जीवन पथ पर फिर,


चलना तुमको फिर अकेला।।


अपना-अपना कह कर उनको,


साथी पल-पल जग मे खेला।


कौन-अपना बेगाना यहाँ,


साथी पग-पग लगा मेला।।


कर सके सद् कर्म उससे फिर,


जिसको- कहते ये है मेरा?


मिट जायेगा साथी ये तो,


रह जायेगा यहाँ अकेला।।"


 सुनील कुमार गुप्ता


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

मर्द को दर्द नहीं दर्द


कायर कमजोर का दामन।


जिम्मेदारी का बोझ लिये जीता जाता सुख दुःख से नाता।।    


 


कही पिता कही भाई 


रिश्तो की दुनियां में कुछ खोता


पाता जाता।।


रिश्तों की चक्की में पिसता 


रिश्तों की आरजू अरमानो का बोझ उठाता।।


करता जतन हज़ार पैसे चार कमाता दो रोटी के सिवा हक में कुछ नहीं आता।।


बेटी बेटों की फरमाईस शिक्षा दीक्षा आकांक्षाओं के आकाश


तले अवनि पे चलता जाता।।


थक कर घर जब आता सबकी


उम्मीदों का दाता।


माँ को चिन्ता बेटे की पत्नी को


परमेश्वर की हर मन के भवों चहरे


का विश्वाश जीवन के तमाम दर्द छुपाये खुद की मुस्कान से पुलकित रखता।।


पुरुष पुरुषार्थ गृहस्थ जीवन 


मर्म मर्यादा का मतलब महत्व कहलाता।।


चाहे जो भी तूफां आये चाहे जो


दुस्वारी हो शांत सरोवर मन में


उठती लहरो का स्वयं साक्षी 


बंद जुबां सब सहता जाता।।


 


बचपन माँ बाप के यश गौरव


की थाती कुल चिराग का लौ बाती


जवाँ जिंदगी लम्हों की खुशियाँ आशा लाती।।


संघर्षो का जीवन राहो में कभी


निखरता कभी पिघल चलते


समय काल की रौ में बहती जाती।।


रिश्ते नातो की दुनियां में पैदा


रिश्ते नातो से ही बिछड़ता जाता


माँ बाप का दुलारा अपने ही कंधे


पर माँ बाप को शमशान ले 


जाता।।


कभी काल क्रूर कसाई उसके


अरमानो का गला घोटाता फिर भी जीता जाता।।


चाहत की होली जलती जीवन


फिर भी नई आस्था के संग


जीवन का दायित्व निभाता।।


 


बेटा था माँ बाप की आँखों का


तारा राजदुलारा बाप बना दादा


नाना रिश्तों की दुनियां की परम्परा निभाता।।


 


कभी समाज के बहसी दरिंदो से


पाला पड़ जाता प्रतिकूल


काल को मान सिर झुका कर


आगे बढ़ जाता ।।                  


 


यही सत्य है


किसी राष्ट्र के आम समाज के


पुरुष मर्द का कायर कमजोर


नहीं कर्तव्य दायित्व की धारा में


टकराहट से दर किनार बहता जाता चलता जाता बहता जाता।।


 


सुबह की लाली जैसा बचपन


दोपहर के शौर्य सूर्य सा जवां जज्बा ढलते शाम जैसा चौथापन


रात्रि के अंधेरो में खो जाता।।


 


रेंग रेंग कर जीता जीवन दर्द


जख्म के कितनी साथ लिये माटी


का इंसान आम रिश्तों नातो के मध्य दो गज जमीन पर चिर निद्रा में सो जाता रिश्ते नातो की ही यादो का हिस्सा ही रह जाता।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर


राजेंद्र रायपुरी

नशा सभी को कुछ ना कुछ है,    


                         मानो कहना भाई।


झूठ नहीं ये बात सही है, 


                         कहता राम दुहाई।


 


नशा किसी को तंबाकू का, 


                       चढ़ी किसी को दारू। 


और किसी को गाॅ॑जे का है, 


                       पीता जिसे समारू।


 


नशा किसी को धन-बल का या,   


                       भुज-बल का है भाई।


नशा उसे भी जिसने पद या, 


                            कोई कुर्सी पाई।


 


नशे में हैं देश के नेता,


                       संग सभी अधिकारी। 


जिधर देख लो उधर नशे की,


                             है फैली बीमारी।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

पोरा के तिहार


बड़ मगन हे, लइका अऊ सियान


आज हे, पोरा के तिहार


चुकी पोरा म, टुरी मन हा बनाही


ठट्ठा मठ्ठा के छत्तीसगढ़ी व्यंजन


टुरा मन हा,हंस हंस के खाही


गउकीन बड़,मजा आही


बड़ मगन हे, लइका अऊ सियान


आज हे, पोरा के तिहार


नंदिया बइला ला, सजाही


दाई ददा नइ जावय,खेत खार


बड़े बहिनी,देखत हो ही


ददा ह आज, तीजा लेगे बर आही


ददा हा देखत हे, कतका बेरा


रोटी ला बनाही


पहिली कस,नइ होवय


गांव गांव म, बइला के दौड़


बड़ सुग्घर, लागे संगवारी


मोर पहिली के गांव


बड़ मगन हे, लइका अऊ सियान


आज हे, पोरा के तिहार


पहिली पंसद,गुरहा चीला रोटी


देखके लार ह,टपक जाथे


फेर मजबूरी हे,सबले पहिली


नंदिया बइला ला, खवाथे


तभो ले,ठंडा ठंडा चीला रोटी हा


बड़ सुग्घर, लागथे


बड़ मगन हे, लइका अऊ सियान


आज हे, पोरा के तिहार


लइका मन मा हे,गंगाजल कस मया दुलार


बड़ पबरित हे, ये पोरा के तिहार


झुमत हे रुख राई,मौसम हे सुग्घर


मगन हे जम्मो परानी,मगन हे किसान


हवा चलय, सरसर


नरवा अऊ नंदिया म चलत हे धार


बड़ मगन हे, लइका अऊ सियान


आज हे, पोरा के तिहार


नूतन लाल साहू


डॉ बीके शर्मा

यदि होती ना मुझ में स्याही


ना उन्माद में यौवन का भरती


ना पग सीने पर रखती तेरे माही 


मैं लाज भी रखती तेरी प्रियतम 


यदि होती ना मुझ में स्याही-1


 


इस खूबसूरत दुनिया में


यदि करता ना कोई बेईमानी 


ना भला बुरा कोई मुझसे करवाता


तो मैं भी ना करती आनाकानी -2


 


पर सब ने अपने सुख की खातिर 


जो चाहा वो लिखवा डाला 


पाक साफ मुझे रहने ना दिया 


तुझको भी करवा डाला काला -3


 


नौचली आंखें काट दी गर्दन


 डर-डर थर-थर जान गवाई


मैं लाज भी रखती तेरी प्रियतम 


यदि होती ना मुझ में स्याही-4


 


देख मेरी तू मजबूरी प्रियतम 


जब तक चलती तेरी छाती


लोग भी छाती पर रखते हैं


ना चलती तो फेंक दी जाती 


भला-बुरा सब बकते हैं -5


 


तुम ना होते मैं ना होती 


ना होती जग में हंसाई 


ना पथ तू मेरा होता 


ना बनकर चलती मैं राही 


मैं लाज भी रखती तेरी प्रीयतम


यदि होती ना मुझ में स्याही-6


 


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


एस के कपूर श्री हंस

जिन्दगी रोज़ थोड़ी थोड़ी 


व्यतीत हो रही है।


कुछ कुछ जिन्दगी रोज़


ही अतीत हो रही है।।


जिन्दगी जीते नहीं आज


हमें जैसी जीनी चाहिये।


कल आएगी मौत सुनकर


बस भयभीत हो रही है।।


 


कांटों से कर लो दोस्ती गमों


से भी याराना कर लो।


हँसने बोलने को कुछ न


कुछ तुम बहाना कर लो।।


मायूसी मान लो रास्ता है


इक जिंदा मौत का।


हर बात लो नहीं दिल पर


मिज़ाज़ शायराना कर लो।।


 


जिंदगी जीनी चाहिये कुछ


अंदाज़ कुछ नज़रंदाज़ से।


हवा चल रही हो उल्टी फिर 


भी खुशनुमा मिज़ाज़ से।।


मिलती नहीं है खुशी बाजार


से किसी मोल भाव में।


बस खुश होकर ही जियो 


हालातों के लिहाज से।।


 


सुख से जीना है तो उलझनों 


को तुम सहेली बना लो।


मत हर छोटी बड़ी बात को


तुम पहेली बना लो।।


समझो जिन्दगी के हर


बात और जज्बात को।


नाचेगी इशारों पर तुम्हारे


जिंदगीअपनी चेली बना लो।।


 


एस के कपूर" श्री हंस"


बरेली।


विनय साग़र जायसवाल

बाक़ी हुरूफ़ जो ये मेरी दास्तां के हैं 


अहसान यह भी मुझ पे किसी मेहरबां के हैं


 


रह-रह के बिजलियों को है इनकी ही जुस्तजू 


तिनके बहुत हसीन मेरे आशियां के हैं


 


क़ुर्बानियाँ शहीदों की भूले हुए हैं लोग


गुमनाम आज नाम उन्हीं पासबां के हैं


 


इन रहबरों ने आज किताब-ए-हयात से


नोचे वही वरक जो मेरी दास्तां के हैं


 


फैला पड़ा है ख़ून समुंदर की शक्ल में


क़ातिल तेरी निगाह में मंज़र कहां के हैं


 


हँसते हुए ही दारो-रसन पर चढ़ेंगे हम


फ़रज़न्द हम भी दोस्तो हिंदोस्तां के हैं


 


इन तेज़ आँधियों का चराग़ों न ग़म करो


फानूस बन के लोग खड़े आशियां के हैं


 


आने न देंगे आँच तिरंगे की शान पर 


पाबंद हम तो आज भी अपनी ज़ुबां के हैं 


 


फिर मकड़ियों ने जाल बुने हैं जगह जगह 


ग़र्दिश में फिर नसीब क्या अपने मकां के हैं 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


संजय जैन

न जीत हूँ न मरता हूँ


न ही कोई काम का हूँ।


बोझ बन कर उनके


घर में पड़ा रहता हूँ।


हर आते जाते पर


नजर थोड़ी रखता हूँ।


पर कह नही सकता 


कुछ भी घरवालो को।


और अपनी बेबसी पर


खुद ही हंसता रहता हूँ।।


 


बहुत जुल्म ढया है हमने


लगता उनकी नजरो में।


सब कुछ अपना लूटकर


बनाया उच्चाधिकारी हमने।


तभी तो भाग रही दुनियाँ उनके आगे पीछे।


और हम हो गये उनको


एक बेगानो की तरह।


गुनाह यही हमारा है की


उनकी खातिर छोड़े रिश्तेनाते।


इसलिए अब अपनी बेबसी पर


खुद ही हंस रहा हूँ।।


 


खुदको सीमित कर लिया था 


अपने बच्चों की खातिर।


और तोड़ दिया थे


रिश्तेनाते सब अपनो से। 


पर किया था जिनकी खातिर


वो ही छोड़ दिये हमको।


पड़ा हुआ हूँ उनकी घर में


एक अंजान की तरह से।


और भोग रहा हूँ अब


अपनी करनी के फलों को।


तभी तो खुद हंस रहा हूँ


अपनी बेबसी पर लोगो।।


न जीत हूँ न मरता हूँ


न ही कोई काम का हूँ।


बोझ बन कर उनके


घर में पड़ा रहता हूँ।।


 


संजय जैन (मुम्बई)


सत्यप्रकाश पाण्डेय

है मेरी जिंदगी मेरा प्यार..


 


मानो बुझता दीपक हूं मैं


सूख गया आशा का तेल


लौ व्यथित झंझावातों से


था समापन पर जग खेल


 


प्राण रूप बाती जलकर


खेल रहे थी अंतिम दांव


टिमटिमाती सी लपटें भी


मानो चल रही उल्टे पांव


 


एक दुःखों की हवा तेज


दूजा कष्टों की भीषणता


उमड़ घुमड़ मेघ गर्जना


त्याग रहा मानो निजता


 


मद्विम हुई जीवन ज्योति


घोर निराशा मुझको घेरे


पुनः प्रखरता कैसे आये


रिक्तपात्र को स्नेह विखेरे


 


घोर निराशा लिए हिय में


खोज रहा आशा किरणें


स्नेह आपूरित प्राण दीप


जीवन बाती लम्बी करने


 


देख टूटती मेरी सांसों को


प्राची सा लेकर आलोक


मेरे व्रण मरहम से भरने


और मिटाने जीवन शोक


 


करने प्रज्ज्वलित लपटें


आई सुनहली उषा बनके


नहीं अकेले सत्य यहां पै


साथ रहूँ में ज्योति बनके


 


जीवन दायिनी बन मेरी


आई थामने दामन मेरा


प्रेम तेल से भर भाजन


दिया मुझको नव सवेरा


 


मेरी जीवन संगिनी वह


है मेरे सपनों का आधार


प्रेम मुहब्बत व हमसफ़र


है मेरी जिंदगी मेरा प्यार।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनीता असीम

जख़म अपने दिखाना चाहता हूं।


तुझे मरहम बनाना चाहता हूं।


***


नमक जख्मों पे डाला है किसीने।


न उनको अब छिपाना चाहता हूँ।


***


वफ़ा मेरी जफा जिसने बताई।


सबक उसको सिखाना चाहता हूं।


***


नहीं खूबी मेरी देखी थी जिसने।


उसी से दूर जाना चाहता हूं।


***


निराशा से घिरा है आज ये मन।


कि बाहों का ठिकाना चाहता हूं


***


कहूं झूठा किसे सच्चा कहूं अब।


हकीकत आजमाना चाहता हूँ।


***


मेरे भावों से खेला है सभीने।


सभी से दूर जाना चाहता हूं।


***


सुनीता असीम


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर

डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


2- पिता का नाम -श्री श्याम सिंह 


3- पति का नाम-दीपक कुमार सिंह 


4- स्थाई पता - डॉ पुष्पलता अधिवक्ता 


253,a साउथ सिविल लाइन मुजफ्फरनगर 251001 उत्तर प्रदेश 


5- फोन नं. 9810350330


6- जन्म तिथि -1968


7- शिक्षा- एम. ए .हिंदी,समाजशास्त्र, बी .एड.,एल. एल. बी .,पी- एच. डी .


8- व्यवसाय-अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट ,पूर्व प्राचार्य बी, एस ,एम जंधेड़ी डिग्री कॉलेज (सहारनपुर )


9- प्रकाशित रचनाओं का विवरण -असंख्य 


 


(अ) ऑनलाइन प्रकाशित रचनाओं की संख्या-असंख्य


(ब) हार्ड कापी में प्रकाशित रचनाओं की संख्या-असंख्य


10- व्यक्तिगत प्रकाशित पुस्तकों का विवरण -18


(अ) ऑनलाइन प्रकाशित पुस्तकों की संख्या- 3


पत्रिकाएँ -प्रणवाक्षर,अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक संसद ,आखर -आखर 


(ब) हार्ड कापी में प्रकाशित पुस्तकों की संख्या-18 


खण्ड काव्य -एक और उर्मिला,एक और वैदेही, एक और अहल्या,


उपन्यास-पृथ्वी पर नारायण,फीका लड्डू, दूसरा सूरज


कहानी -कबरबेहड़ा ,गुड़ियाएं


काव्य- मन का चाँद, अरे बाबुल काहे को मारे ,सूरज पर स्याही ,नदी कहती है ,पानी की देह ,


सूफी टप्पे -झांझर मीरा की


बाल गीत-पोषम पा ,दाब का बन्दा ,


निबंध -परत दर परत ,


लघु कथा -पानी के फूल


गद्य -कुँअर बेचैन के साहित्य में नारी विमर्श 


11- सम्मान का विवरण


(अ) ऑनलाइन प्राप्त सम्मान की संख्या-12


(ब) हार्ड कापी में प्राप्त सम्मान की संख्या-25 से ज्यादा सरकारी, गैर सरकारी,राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय 


 


1"अनंत "


देह से मुक्त होकर 


तैरने लगती हूँ आकाश में


पीड़ा के किनारों को तोड़कर


विहार करने लगती हूँ 


आनंद के महासागर में


देह की निर्रथकता को लेकर भी


खोजने लगती हूँ 


जीवन की सार्थकता


 शब्दों में


देह की शून्यता में भी 


पा जाती हूँ 


कामनाओं का चंद्रमा


तुम्हारे अहसास भर से


 बदल जाती है 


सरसता में नीरसता


पा जाती हूँ अनंत


डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


 


2.


 "बताओ न?"


 


सुबह- सुबह मंदिर में बजती


घंटियों सा कुछ


मन की लहरों में मचलता सा कुछ


भावों के पुल से उभरकर


 नदी की छलछल से


कल -कल हँसी सा उछलता सा कुछ


चांदनी के पंखों पर ,स्वप्नों में


मुस्कराकर बदलता सा कुछ


दिल के तहखानों में दबे 


गीतों को छेड़कर पवित्र गहरा हरा भरा सा आलौकिक जलता सा कुछ 


हाथों से मासूम परिंदों सा फिसलता सा कुछ


संगीत सा बजता है रह-रहकर 


हृदय की वीणा में जब मिलते हो तुम


तुम्हारे साथ दुनियादारी को छोड़कर क्या है?


बनकर बिखरता बिखरकर बनता सा कुछ 


समझ नहीं सकी बताओ न?


डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


 


 


 3."शर्मीली देह"


 


पीले फूलों का घाघरा


 धानी चूनर पहनकर


इठला रही है धरती


म्रदु शीतल हाथों से 


छेड़ रहा है पवन


रात भर अश्कों से भीगी


विरह व्याकुल रही धरती


सुबह -सुबह आकर


सधस्नाता धरती के निचुड़ते हुए केशों कोमल अंगों को देखकर


मुस्करा उठा है सूरज


वह बना रही है चाय


परस रही है पकोड़े दही वड़े


मचल उठे हैं सूरज के हाथ दिल 


घबरा रही है धरती 


टूट न जाएं उसकी नाजुक चूड़ियों सी कोपलें


आक्रामक हो उठा है सूरज


मल रहा है गालों ,बाहों पर 


पीला सुनहरा गुलाल 


अंगड़ाई ले रहा है पवन


टूट गयी हैं कुछ नाजुक 


चूड़ियों सी कोपलें


थोड़ी रूठकर उन्मत सकुचाई सी खिलकर ढीली हो गयी है धरती की शर्मीली देह 


डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


 


4.


 "नदी कहती है "


 


तुममें समाते ही


 मिट जाएगा अस्तित्व 


फिर भी दौड़ती हूँ तुम्हारी ओर


तुम मुझमें हो मैं तुममें


दो सिरों वाले रक्षा सूत्र की तरह 


जब सूखने लगती हूँ


तुम्हीं भेजते हो पानी


बादलों के हाथ


और तुम भी पुकारते रहते हो मुझे


जानते हुए भी 


कि मुझे अस्तित्व में समेटते ही 


घुल जाएगी


तुम्हारे जीवन में


मेरे अश्कों की खारता


डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


253/a साउथ सिविल लाइन ,मुजफ्फरनगर


251002


उत्तर प्रदेश


 


 


 


 5."कुछ तो हो "


 


किस्मत का शरारा या अंधेरी रात के बाद उभरा सकारा


समुद्र से मन का खुला आसमां 


या नदी का किनारा


धड़कनों को धड़कनों के 


सलोने करों का सहारा 


या घनी वादियों की नजरों का 


धुआँ बुहारता उजियारा


मुट्ठी में पकड़ी हुई धूप या


 इन आँखों का सूरज सा तारा


दिल पर लगी मीठी दस्तक


या अठखेलियाँ करते सपनों से


पीछे छूटा नजारा


उलझे गेसुओं से निकली एक लट का इशारा या नयनों से अश्रु सा लिपटा 


नमकीन पानी का धारा


कुछ तो हो तुम


जो पुकार रहे हो मुझे


उत्सुक कर रहे हो 


मुड़ने के लिए 


जबकि साधना रत होक


निष्चेष्ट जा रही हूँ मैं


डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


 डॉ पुष्पलता मुजफ्फरनगर


253/a साउथ सिविल लाइन मुजफ्फरनगर 251002 


उत्तर प्रदेश


 


 


सुनीता असीम

किसी के प्यार में पड़कर मिटा हालात हूँ मैं।


उजड़ता सा चमन हूँ और बीती बात हूँ मैं।


***


कलेजा चाक करके रख दिया मेरा किसीने।


खुदी अपने लिए बनता रहा। आघात हूं मैं।


***


दिलों पर टूटकर बिजली गिराती जो रही है।


डरों को पालती भीतर अंधेरी रात हूँ मैं।


***


बनाता औरतों को मैं ही अबला और सबला।


उसे दासी बनाते मर्द की ही जात हूँ मैं।


***


अनोखी ही हवा चलने लगी दुनिया में अब है।


दिखे अंजाम भी इसका अभी शुरुआत हूं मैं।


 


सुनीता असीम


शिवानी मिश्रा

समय नही होता,याद करने का,


वक़्त बेवक़्त ही याद कर लिया करो।


व्यस्तता के दौर में,


अपनो को भी जान लिया करो।


कोई दूर है,कोई पास है,


अपनो में भी कोई खास है,


उस अपने के हालातों को भी जान लिया करो।


जीवन है तो सम्बन्ध है,


उन सम्बन्धों को भी


खास बना लिया करो।


जमाने गये, जरूरत पड़ने पर


अपनों के काम आने के,


आज अपने ही गैर, 


गैर ही अपने काम आने लगे।


वक़्त के साथ सब कुछ बदलता है,


सुध कर लो,उस पल की


जब कुछ ख़ास याद आने लगे।


 


शिवानी मिश्रा


(प्रयागराज)


संजय जैन

न हम हिन्दू न हम मुस्लिम


और न सिख ईसाई है।


हिंदुस्तान में जन्म लिया है तो 


पहले हम हिंदुस्तानी है।


आज़दी की जंग में 


इन सब ने जान गमाई थी।


तब जाकर हमको ये


आज़दी मिल पाई थी।


कैसे भूल उन सब को


वो भी हमारे बेटे थे।।


 


पर भारत माँ अब बेबस है


और अंदर ही अंदर रोती है।


अपने ही बेटों की करनी पर 


खून के आंसू पीती है।


धर्म निरपेक्षय देश हम 


सब ने मिलकर बनाया था।


पुनः खण्ड खण्ड कर डाला 


अपने देश बेटों ने।।


क्या हाल बना दिया


अपनी भारत माँ का अब।।


 


कितनी लज्जा कितनी शर्म 


आ रही है अपने बेटों पर।


भारत माँ रोती रहती 


एक कोने में बैठकर।


क्या ये सब करने के लिए


 ही हमने आज़दी पाई है।


और धूमिल कर डाले


आज़दी के उन सपनों को।


और मजबूर कर दिया


अपनो की लाशों पर रोने को।।


 


चल कहाँ से थे हम


कहाँ तक आ पहुंचे।


और कहां तक गिरना है


तुम बतला दो बेटों अब।


भारत माँ के बेटों को 


क्या बेटों के हाथों मरना है। 


नही चाहिए ऐसी आज़दी


जो भाइयों को लड़वाती है।


नही चाहिए ऐसी आज़दी 


जो अपास में लड़वाती है।


और मरे कोई भी दंगो में


पर माँ को ही रोना पड़ता है।


और बेटों की करनी पर 


शर्मिदा होना पड़ता है।


शर्मिदा होना पड़ता है।।


 


संजय जैन (मुम्बई) 


निशा अतुल्य

कितने सुन्दर कृष्ण कन्हिया


माँ मुझको तुम राधा बना दो


मुरली इनकी कितनी सुन्दर


बना मोर पँख मुझे सजा दो ।


 


मैं ले गगरी पनघट जाऊंगी


लहंगा चोली मुझे पहना दो


जब कान्हा फोड़ेगा गगरी


यशोदा माँ से उसे पिटवा दो।


 


छेड़गा जब कृष्ण कन्हैया


गोकुल में फिर रास रचा दो


सूरत से लगता है भोला 


माँ मुझको तुम कृष्ण दिला दो।


 


मुरली सुन सखियों सँग नाचूं


ग्वाल बाल सँग उसे नचा दो।


मेरा कान्हा बड़ा है प्यारा


माखन मिश्री इसे खिला दो ।


 


कितने सुन्दर कृष्ण कन्हिया


माँ मुझको तुम राधा बना दो ।


 


निशा अतुल्य


सत्यप्रकाश पाण्डेय

तुम्ही हो मेरा जीवन धन


 


हृदयांगम करलो सजनी


मेरे हिय उपवन के फूल


मिल जायेगा तेरा आश्रय


जीवन हो जाये अनुकूल


 


अंतर्मन के भाव प्रिय मैं


कैसे शब्दों में व्यक्त करूँ


तरल तरंगित स्नेह नीर मैं


सदा आँखों में लिए फिरूँ


 


तेरी छवि बसा के दिल में


मन के मनिका फेर रहा


हे अन्तरंग में स्थित मूर्ति


मनखग तुझे ही टेर रहा


 


भावों की प्रखर ज्योति से


झिलमिल है रोम रोम मेरे


मृदुल मनोहर पिक वाणी


गुंजायमान श्रुति लोम मेरे


 


मेरे आसक्त हिय को प्रिय


तुम दो प्रेम का आलम्बन


टूट न जाये सत्य प्रियतमा


तुम्ही हो मेरा जीवन धन।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


रत्ना वर्मा

" स्वतंत्रता की संघर्ष पूर्ण कहानी "


आओ सुनाती हूँ तुम्हे स्वतंत्रता संघर्ष की कहानी ,


 देश पर मर मिटेन वालों की संघर्ष पूर्ण जवानी। 


जब गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी थी भारत की आजादी। 


तब आजादी के ख्वाब देखने वाले वीर क्रांतिकारियों 


ने दी थी नारा इंकलाबी .....आओ सुनाती हूँ तुम्हे स्वतंत्रता संघर्ष की कहानी ......


 


गीत अभी भी गुंजित होते हैं कानों में ...


तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें दूँगा आजादी ....


अधिकार से मैं ले कर रहूँगा स्वराज ....


नहीं डरूंगां ले कर रहूँगा आजादी ...


आओ सुनाती हूँ तुम्हे स्वतंत्रता संघर्ष की कहानी। 


 


 


स्वतंत्रता सेनानियों से पूछो ....जब संकल्प लिया था 


भारत छोड़ो .. .तब मर रही थी अंग्रेजों की नानी ...


हाँ हाँ यही कहानी ....उन्नीस सौ बेयालिस में ...


छिड़ा आन्दोलन सपना पूरा हुकआ उन्नीस सौ सैतालिस में ..... आओ सुनाती हूँ तुम्हे स्वतंत्रता संघर्ष की कहानी . ...


 


अल्प आयु में मारे गये अनगिनत वीर क्रांतिकारी,


 तब जा कर मिली हमें आजादी, वंदेमातरम का ...


जय घोष हुआ अपने दम पर जी जिंदगानी ...


सच्चे देश भक्त ने गाया यह गीत ...सरफरोशी की तमन्ना 


अब भी हमारे दिल में है देखना है जोर कितना बाजुए ।


 


 


 


 रत्ना वर्मा


 धनबाद -झारखंड


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