निशा अतुल्य

चीर सीने को धरा के 


श्रृंगार सारा नोंच कर 


खड़े करें पत्थर के जंगल


हाल सब बे-हाल हैं ।


देखने को छोटी गौरैया 


नैन भी तरसे मेरे 


बाग तो सब ख़त्म हैं अब


कोकिल की कहाँ कुहुक हैं।


शीतल पवन का रुख है बदला


और सर्द मौसम कहाँ 


मेघ भी झंकार कर 


नृतन अब करते नहीं ।


दामिनी की चमक अब 


मुझको डराती नहीं 


ढूंढती हूँ छाँव मन की


जो कहीं मिलती नहीं ।


चल उठ मुसाफिर 


सोच कुछ,कदम आगे बढ़ा


न चले जो साथ कोई तेरे 


तू अकेला ही चला ।


नही कोई काम मुश्किल


मन में जो तू ठान ले


वृक्ष चल लगाए हम 


किनारे किनारे सड़क के।


मिल जाये जहाँ सूखी कोई धरा


आम,नीम, बबुल बो कर 


कर दें हम उसको हरा ।


शुद्ध होगी वायु तब


फूलों का तू चमन खिला


तितलियों के होंगे साये


हो भंवरो की गुँजार जब।


मेघ बरसेंगे घनाघन 


शुद्ध जल की भरमार हो


होगी धरा फिर सुन्दर


प्रकृति का शृंगार हो ।


 


निशा"अतुल्य"


शिवानी मिश्रा

समय के रथ का पहिया,


जो सवार को अपनी अनुभूतियों से


तेज और धीमी गति से चलने का


आभास करता रहता है।


पर समय सदा हीअपनी सम


गति से ही चलता जाता है।


साल दर साल आगे बढ़ता जाता है,


फिर एक दिन छोड़ जाता है वो यादें,


जो मानस पटल पर चित्रित हो जाती है,


और हम इंसान चाह कर भी,


समय को पकड़ नही पाते हैं।


क्योंकि वह निर्विरोध अपनी गति से बढ़ता जाता है।


 


 


शिवानी मिश्रा


प्रयागराज


अमित कुमार दवे

मैल तन से धोते जाओ,


हृदय निर्मल करते जाओ,


तन मन हर्षित करते जाओ,


बारिश में नित भीगते जाओ।।


 


शीतल शुभ्र मन कर जाओ,


विचार अब सार्थक कर जाओ,


नैत्रों को अब तर करते जाओ,


बारिश में नित भीगते जाओ।।


 


भाव तेरा-मेरा बहाते जाओ,


 नम संबंधों में होते जाओ,


शांत सहज नित होते जाओ,


बारिश में नित भीगते जाओ।।


 


सादर सस्नेह...


©अमित कुमार दवे,खड़गदा


डॉ0 रामबली मिश्र

गुरु पद सेवा जो नित करता,


उसका जीवन सफल है।


 


जो गुरु की करता नित निन्दा।


उसका जीवन विफल है।


 


गुरु सेवक बनता पुरुषार्थी,


फल देता पुरुषार्थ है।


 


गुरु आज्ञा को सिर पर रखना।


हो निर्द्वन्द्व सदा चलो।


 


गुरु से नेह लगाता जो भी,


परम प्रसाद मिले उसे।


 


गुरुद्रोही है प्रेत समाना,


कभी सुखी रहता नहीं।


 


जो गुरु में श्रद्धा रखता है,


ज्ञानी बन जाता वही।


 


गुरु को ही गोविन्द समझना।


भव सागर को पार कर।


 


गुरु के पग में चारों धामा।


गुरु सेवा अमृत सहज।


 


डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


सम्पूर्णानंद मिश्र 

कोख की आवाज


 


कोख में ‌पल रही‌ बेटी 


 मां से कह रही है 


   अपनी व्यथा


सुनो मेरे जीवन की कथा 


नहीं जन्म लेना चाहती 


तुम भी मुझे ‌पाकर नहीं


  खोना चाहती 


कुछ दिन खेलकर 


 पढ़ने लिखने


   लग जाऊंगी


 थोड़ी बड़ी हो‌ने पर


ससुराल चली जाऊंगी 


न हीं रखेगा कोई आपकी


तरह मेरा ख्याल 


दहेज की खातिर ‌


रोज़ ताने सुनने पड़ेंगे


खुद से ही मन की


बात भी कहने पड़ेंगे


तुम भी ‌दर्द के ‌आंसू


 चाहकर भी नहीं 


पोछ पाओगी


घुट घुटकर जीवन 


जीना पड़ेगा 


अपमान ‌का बिष


निरंतर पीना पड़ेगा


अगर दहेज की मांग की 


कसौटी पर खरी नहीं


ऊतर पाऊंगी


तो फिर जिंदा ही 


जला दी जाऊंगी 


अगर ‌कहीं इससे बच गयी


तो किसी वहशी दरिंदों ‌की 


  बलि चढ़ जाऊंगी 


मुझे इस धरा पर मत लाओ


एक उपकार कर दो मां


कोख को ही सूना कर दो


बाहर नर भेड़िए ‌घूम रहे हैं 


किसी मां की कोख सूंघ रहे हैं


मुझे इस धरा पर मत लाओ ‌मां !


 


सम्पूर्णानंद मिश्र 


वरिष्ठ प्रवक्ता हिंदी


प्रयागराज फूलपुर


रवि ररश्मि अनुभूति

  यादों के झरोखों से 


 


जीवन के इस पड़ाव पर अब 


जब सोचूँ मैं उस अतीत को 


सुखद क्षणों के उन्हीं पलों को   


हर पल की सदा उस जीत को ।


 


कदम कदम संग साथ चल कर 


हर कष्ट को सदा दल दल कर 


खुद की न की परवाह तुमने 


जीत लिया मन मेरा तुमने 


किया समर्पित सदा प्रीत को 


हर पल की सदा उस जीत को .....


 


प्यार की परछाइयाँ पलतीं


क्षण की भी तन्हाइयाँ खलतीं   


साथ नहीं छोड़ा तुमने तो 


मुख न कभी मोड़ा तुमने तो 


सदा निभायी प्रीत - रीत तो 


हर पल की सदा उस जीत को .....


 


झरोखे याद के झाँकूँ जो 


लेखा - जोखा भी आँकूँ तो 


आल्हाद मन में होता है 


मन नयन भी तो भिगोता है 


गाऊँ फिर उस मिलन गीत को 


हर पल की सदा उस जीत को ....


 


(C) रवि ररश्मि 'अनुभूति '


संपूर्णानंद मिश्र

बचाती है विध्वंस से 


सृजनात्मकता सबको


रचती है एक नई दुनिया 


 जहां फ़र्क की भट्ठी में 


झोंकने से बचाया जा सकता है


 अमीरी और ग़रीबी को 


  ऊपर उठ जाता है 


इसको आत्मसात कर आदमी


 चावल खाकर मुट्ठी भर


 दरिद्रता दूर कर देता है


     सुदामा का 


धर्म निभाता है मित्रता का


शक्ति होती है सृजनशीलता में 


सदैव बचाती है विध्वंस से हमें 


कभी ढकेलती नहीं है


   रौरव नरक में 


  जीवन तलाशता है


  निर्माण में ही


नहीं मन में भाव आता है 


घोंसले को नष्ट करने का 


मुक्त हो जाता है सारे बंधनों से 


जल जाती है दर्प की रस्सियां 


उस सृजनात्मकता की आंच में


   भूमिका निभाता है 


   एक कुशल शिल्पी की 


    गढ़ने लगता है 


 अनगढ़ पत्थरों को


  प्राण फूंक देता है उसमें


   एक नव जीवन का 


   कोमल स्पर्श से 


उद्धार हो जाता है अहिल्या का 


अर्थ मिल जाता है जीवन का


 अंतर समझने लगती है 


     वह देवी 


    राम और इंद्र में 


ढूंढने लगता है स्वयं को सृजनशील व्यक्ति 


एक नए उद्देश्य के लिए 


खपा देता है सारी ज़िन्दगी 


मुक्त हो जाता है सारे द्वेष से 


  ढह जाती है 


सारी दीवारें भेद भाव की


समाहित हो जाती है 


   वह बूंद 


उस महासागर में 


 जहां प्राप्ति होती है 


 असीम आनंद की !


 


संपूर्णानंद मिश्र


प्रयागराज फूलपुर


आशुकवि नीरज अवस्थी

श्री गणेश चतुर्थी 2020


राधेश्यामी छन्द


 


हे महादेव के पूत गजानन मातु पार्वती के लाला। 


चरणों में विघ्नविनाशक के नीरज के शब्दों की माला। 


सब कार्य पूर्ण होते उनके जो मन से तुम्हे मनाते हैं ।


हे धूम्रवर्ण हे सूप कर्ण हम भजन आपके गाते हैं ।।


हे वक्रतुंड हे एकदंत कितने ही नाम तुम्हारे हैं।


हे विकटमेव हे लंबोदर भक्तों को अतिशय प्यारे हैं ।


संकट नाशक गणपति पूजा को श्रद्धा से जो नर करते ।


उनके सारे कष्टों को आकर स्वयं विनायक है हरते ।


जीवन में खुशियों का डेरा खुल जाता किस्मत का ताला।


चरणों में विघ्न विनाशक के नीरज के शब्दों की माला ।


हे महादेव के पूत गजानन मातु पार्वती के लाला। 


चरणों में विघ्न विनाशक के नीरज के शब्दों की माला



आशुकवि नीरज अवस्थी


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

हे! गजमुख गणपति मंगलमूर्ति पधारो मेरे द्वार,


रिद्धि-सिद्धि के स्वामी तुम हरो कष्ट विकार।


 


हे! गिरिजानंदन दुख भंजन संतन हितकारी


हे! लंबोदर विनती करूं मैं बनो काज सिध्दिकारी।


 


हे! विघ्न विनाशक मात पिता के आज्ञाकारी,


जग के कष्ट हरो प्रभु व्याकुल आया शरण तुम्हारी।



  दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


    महराजगंज उत्तर प्रदेश।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

हे गणपति तेरे गुण गाना


विघ्न विनाशक करो कल्याना


प्रथम पूज्य तुम लम्बोदर


दोष निवारक स्वरूप सुजाना


 


शंकर सुत हे उमा लाडले


जन जन के भाग्य विधाता


हे गणपति हे जग नायक


तुमसे बड़ा न जगत में दाता


 


मात पिता के आज्ञाकारी


हे गजानन जगत भय हारी


जगत ताप मिटें प्रभु मेरे


सत्य आया है शरण तुम्हारी।


 


लम्बोदराय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय


राजेंद्र रायपुरी

जय गणनायक जय लंबोदर,


                    जय-जय कृपा निधान। 


तुम हो रिद्धि- सिद्धि के दाता।    


                       करो जगत कल्याण।


दुष्टों का तुम नाश करो,


                     भक्तों का संताप हरो। 


सद्बुद्धि देने को देवा,


                   सबके मन में वास करो। 


विनती है कर जोरि प्रभु, 


                         सब को दो ये ज्ञान। 


जो हरता है पीर पराई,


                         वो सच्चा इंसान।


 


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

अरजी गणेश जी से


मनमे पक्का हे,विश्वास


गणेश भगवान हा,कर दिहि कोरोना के नाश


रिद्धि सिद्धि के स्वामी हो


गिरजा नंदन,सब दुःख भंजन


संतन मन के हितकारी हो


महू ह,तोर शरन में आय हो


हर लेबे सबके पीरा ल


का लइका,का सियान अउ मइया मन हा


धरथे तोर ध्यान


मुसक तोर सवारी


मोरो ते हा,विनती सुन ले


पइया परो, मय तोर


तोर बुद्धि के आगे,सबके बुद्धि हारे


कतेक करो, मय बखान


मनमे पक्का हे विश्वास


गणेश भगवान हा,कर दिहि कोरोना के नाश


रिद्धि सिद्धि के स्वामी हो


गिरजा नंदन,सब दुःख भंजन


संतन मन के हितकारी हो


घर घर में,तोर पूजा होथे


विघ्न विनाशक,संकट मोचक


एक दंत,गज शुंड के धारी


लम्बा उदर तुम्हारा हे


वेद शास्त्र पुराण से ऊपर


तीनो लोक में,तोर किरती हे


फूल चढ़ाके,शीश नवाके


दीप धूप जलाके,प्रभु जी


अरजी करत हव तोर


मनमे पक्का हे विश्वास


गणेश भगवान हा,कर दिहि कोरोना के नाश


रिद्धि सिद्धि के स्वामी हो


गिरजा नंदन,सब दुःख भंजन


संतन मन के, हितकारी हो


 


नूतन लाल साहू


एस के कपूर श्री हंस

सफर जारी रखो जिन्दगी


की तस्वीर बदलने को।


 


अभी सफर में हूँ कि अभी


बहुत दूर जाना है।


जिन्दगी को दिये कई वादों


को निभाना है।।


पूरे करने हैं हर अधूरे से


अरमान दिल के।


ऊपर ऊंचे आसमां को छू


कर भी आना है।।


 


मशाल बन कर दुनिया के


लिये बेमिसाल बनना है।


रास्ता दिखाना औरों को कि


एक मिसाल गढ़ना है।।


देश की तकदीर तस्वीर बदलने


में हिस्सेदारी है निभानी।


लकीर से हट कर कुछ काम 


नया करना है।।


 


चीर कर अंधेरों को आशा की


नई किरण जगानी है।


हर भोर हमें कुछ नई सुनहरी


सी धुन सुनानी है।।


कर लिया काफी पर अभी भी


है काम बाकी बहुत।


मिलकर एक नई सी स्वर्णिम


दुनिया बनानी है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


निशा अतुल्य

हे


गणपति ,मंगलमूर्ति 


वक्रतुंड, महाकाय, गजानन


एकदंत, दयावन्त


पधारो।


 


चन्द्र


हंसे देख 


शाप आपसे पाया


हो कलंकी


घबराया।


 


किनी


विनती रोकर


चतुर्थी चंद्र वर्जित


कर,क्षमादान


दीना ।


 


गणपति


कर परिक्रमा


मात पिता की


प्रथम पूज्या


कहलाये ।


 


सँग


रिद्धि सिद्धि


शुभ लाभ तुम्हारे


संकट काटे


सारे ।


 


भावे


पान, सुपारी


मोदक,दूर्वा प्यारी


विद्या-बुद्धि


प्रदाता ।


 


भक्त 


तुम्हें नित


मन से ध्याते


समृद्धि, सुख


पाते।


 


कल्याण 


करें प्रभु


काटें भव फंदा


तारे जीवन 


से ।


 


निशा"अतुल्य"


सत्यप्रकाश पाण्डेय

प्रणय प्रलाप निराले....


 


तुम प्राण शक्ति हो मेरी, तुमसे ही प्राणों का संचार।


हे प्राण प्रिया तुमसे ही, है यह जीवन और संसार।।


 


प्राणों में प्राण बसे मेरे, प्राणों से ही प्राणों की रक्षा।


मेरे प्राणों की प्राण ज्योति,प्राण प्राण की लें परीक्षा।।


 


प्राण प्रणेता प्यार प्रतिष्ठा, प्राणों से प्राणों का पण पाले।


पल पल प्रेम प्रज्ज्वलित, प्रियतमा प्रणय प्रलाप निराले।।


 


प्रीति वारि की पर्जन्य प्रिया,प्रेम अंकुर का तुम परिमान।


समझ प्यार को पारितोष, हे प्रभंजना तुम जीवन आधान।।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


शिवेन्द्र मिश्र शिव

विघ्न-विनाशक गणपती, गिरिजासुवन गणेश।


लंबोदर, हे सिद्धिप्रिय, वक्रतुण्ड विघ्नेश।।०१


 


योगाधिप, प्रथमेश, तुम, मंगलमूर्ति, कवीश।


सिद्धिविनायक, भुवनपति, शूपकर्ण अवनीश।।०२


 


एकदंत, एकाक्षरा, धूम्रवर्ण, ढुँढिराज।


गौरीनंदन, विघ्नहर, द्वैमातुर महाराज।।०३


 


मोदकप्रिय, शंकरसुवन, हे! गणाधि, शुभनाथ।


उमापुत्र, हेरम्ब, ढुँढि, गजमुख, दीनानाथ।।०४


 


एकदन्त गौरीतनय, मूषकराज गणेश।


सिद्धिविनायक मेटिए,तन-मन के सब क्लेश॥०५


 


प्रथम पूज्य श्री गणपती,वक्रतुण्ड बुद्धीश।


कष्ट हरो मंगल करो, जग में तुम अवनीश।।०६


 


विद्यावारिधि, गजबदन, अंबिकेय, सुरराय।।


कपिल, सुमुख, क्षेमंकरी, हो प्रभु सदा सहाय।।०७


 


शिवेन्द्र मिश्र 'शिव'


मैगलगंज-खीरी


संजय जैन

लाल बाग़ के राजा की महिमा


 


मन मोहक प्रतीमा है तेरी,


मजबूर करे लाल बाग़ आने के लिए,


दर्शन के लिए ।


मन मोहक प्रतीमा है 


तेरी ……….।।


हर कोई तरसता रहता है,


तेरी एक झलक दर्शन के लिए ,दर्शन के लिए ,


मन मोहक प्रतीमा है तेरी ………. ।।


 


 तस्वीर बनाए क्या कोई।


क्या कोई करे तेरा वर्णन।


रंगो छन्दो में समाये ना,


किस तरह तेरी मन मोहिकिता, मोहिकिता।


मन मोहक प्रतीमा है तेरी ……….।


एक आस है आत्मा में मेरी।


कोई जान न सके इस भेद के लिए।


मन मोहक प्रतीमा है तेरी ,


मजबूर करे लाल बाग़ आने के लिए ,


राजा के दर्शन के लिए, 


लाल बाग जाने के लिए ,


दर्शन के लिए।


मन मोहक प्रतीमा है तेरी,


मजबूर करे लाल बाग़ आने के लिए ,दर्शन के लिए ,


मन मोहक प्रतीमा है तेरी।।


 


संजय जैन (मुंबई )


कालिका प्रसाद सेमवाल

हंसी तुम्हारी लगती सुहानी


 


तुम्हारा मधुर रुप मेरी देखा तो


धवल चांदनी की किरण में नहाई


तुम्हारी सजल ज्योति देती दिखाई


यहां पुष्प कलियां नयन में हमारे


तुम्हारे सुघर रुप को नित संवारें


तुम्हारे नयन में निशा की निशानी।


 


तुम्हारे लिए रश्मि सूरज उगाए


तुम्हारे लिए दीप जलते अदाएं


तुम्हारे लिए तारिकाएं गगन में


निशा के समय पांति अपनी बिछायें


उभरती तुम्हारी मधुर सी जवानी।


 


चल रहा पवन अब तुम्हारे लिए


खिल रही है कली सब तुम्हारे लिए


गीत मैंने रचा यह तुम्हारे लिए


प्यार मेरा पहला है तुम्हारे लिए


हंसी यह तुम्हारी लगी है सुहानी।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड


डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र

कविता क्या तुमने जाना है


कवि के अथक परिश्रम को‌ पहचाना है


तुम ‌तक पहुंचने के लिए 


उसने ‌क्या- क्या नहीं खोया है


रातों की नींद ‌और दिनों ‌की‌ चैन


 उसने गंवाया है 


शब्दों के ‌मोती‌ लाने ‌हेतु


  मस्तिष्क के उदधि में 


  गोता‌ लगाया है 


तुम्हारे भावों को पाठकों के हृदय 


  तक सम्प्रेषित करने के लिए 


    अपने आंसुओं को 


       पानी की 


       तरह बहाया है 


    तुम केवल कवि के


     शब्दार्थ ‌नहीं हो 


न ही सीधा-सीधा भावार्थ हो


 अर्थों के महल को‌ 


खड़ा करने के लिए 


अपने अरमानों की


लाशों को भी उसने 


   दफ़नाया है 


तब जाकर कहीं अर्थों का


अमली ज़ामा ‌तुम्हें पहनाया है


तुम उसके आफ़ताबी चमक


     पर मत जाओ 


पत्थर से देव यात्रा की 


    इस सफ़र में अपनों से 


      शब्द-छेनियों की 


       कितनी मार खाया है 


     तब तुम्हारे वास्तविक रूप


          को पाया है


 


       डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र


        प्रयागराज फूलपुर


डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी

मेरे पावन मन की कविता


 


निकल बहो बन गंगा सरिता।


मेरे पावन मन की कविता।।


 


कहीं न रुकना बहती जाना।


मेरी मानवता की कविता।।


 


सारे जग में रच-बस जाना।


बनकर सबके दिल की कविता।।


 


भूखे-प्यासे का दु :ख हरना।


तप्त जगत को दे शीतलता।।


 


अपलक देख रहे सब तुझको।


खाओ तरस अब करो मित्रता।।


 


अक्षर-अक्षर शव्द-शव्द से।


भरना सबमें भाव सहजता।।


 


भाव प्रधान बने नित बहना।


भागे सबकी हृदय-दीनता।।


 


हरियाली बन दिखो चतुर्दिक।


जागे सबमें मधु-मादकता।।


 


मन में सबके बैठ निरन्तर।


बन जाना कान्हा की गीता।।


 


कदम-कदम पर दिखे विश्व में।


मेरे पावन मन की कविता।।


 


स्वर्ग उतर आये पृथ्वी पर।


लगे महकने अब मानवता।।


 


विषमय जीवन से सब उबरें।


स्थापित हो सत शिव सुन्दरता।।


 


लें अवतार परम प्रिय मानव।


बह जाये बयार नैतिकता।।


 


कविता रचने का मतलब यह।


जनमानस में भरे स्वच्छता।।


 


करे प्रहार कंस-रावण पर ।


स्थापित कृष्ण-राम-सभ्यता।।


 


ऐसा केवल कर सकती है।


मेरे पावन मन की कविता।।


 


जो नकारती दुष्प्रवृत्ति को।


वह अति उज्ज्वल पावन कविता।।


 


डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


सुनील कुमार गुप्ता

कटु वचनों से जीवन में,


आहत हुआ मन-


मिटती नहीं उसकी चुभन।


भूलने की उसको जीवन में,


साथी तुम यहाँ-


कितना भी करो जतन।


अपने हो कर भी साथी,


अपने नहीं-


अपनत्व का चाहे करो प्रयत्न।


मिट जाती है ख़ुशियाँ सारी,


अमृत भी बनती विष प्याली-


साथी जो मिटी न मन की चुभन।


करे जो साधना-अराधना,


होगी प्रभु कृपा -


मिटेगी मन बसी चुभन।


कटु वचनो से जीवन में,


आहत हुआ मन-


मिटती नहीं उसकी चुभन।।


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र

     ताकत होती है


 विध्वंस से अधिक निर्माण में


   निर्माण पलता है 


 विध्वंस के गर्भ में ही


   खेल चलता रहता है 


  सृष्टि में दोनों का अनवरत


 नहीं महसूस करनी चाहिए असहजता ऐसे समय में 


       हांलांकि 


दुःख देता है विध्वंस अक्सर 


   कभी- कभी 


 लकवा मार देता है 


 मनुष्य के साहस को भी 


लेकिन काम लेना चाहिए धैर्य से


 नियंत्रित करना चाहिए 


   मन के घोड़े को


 विवेक के रज्जू से


  पांच सौ वर्षों के 


वनवास की पूरी हो गई अवधि


हर लोगों ने माना अस्तित्व को 


 मर्यादा पुरुषोत्तम राम के 


     स्थापित होंगे 


अपने नियत स्थान पर


पराभव हुआ छलियों का 


 निष्प्रभावी हो जाती हैं


  मायावी शक्तियां 


कुछ चमत्कारी प्रदर्शन के बाद


   सेंकते रहते हैं निरंतर


     सियासी रोटियां


  विध्वंस के तावे पर 


    कुछ वंशवादी


नहीं बची खाने लायक किसी के गिर गए औधें मुंह 


 आई० सी० यू० में हैं आज


 ज़मीन अपनी ढूंढ़नी होगी उन्हें


  कि कहां खड़े हैं हम 


 चिंतन- मनन करना होगा कि


 घर- घर में हैं सबके राम 


घर- घर के हैं राम सबके


 बस इंतजार था वक्त का 


   लोहा मान गए 


सिकंदर और सुकरात दोनों 


नहीं होता वक्त, किसी का हमेशा


   जीवन में उतना ही


  फैलाओ साम्राज्य अपना 


    जितना महसूसते हो 


     सीखना चाहिए 


  जीव जंतुओं से भी


कछुआ उतना ही अंग अपना बाहर निकालता है 


जितनी ज़रूरत होती है उसे


ताकत अधिक होती है


 विध्वंस से अधिक निर्माण में


बस इंतजार करना होगा वक्त का 


 


डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र


स्नातकोत्तर शिक्षक, हिंदी


केन्द्रीय विद्यालय इफको


 फूलपुर प्रयागराज


सिन्धुजा श्रीवास्तव बेसिक टीचर -प्रा.वि.कुल्हनमऊ खास जौनपुर यू.पी.


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

मेरे प्रियतम का अमिट स्नेह 


जो पार क्षितिज तक चला गया


अमर सुहागिन मैं सदा रहूं


गोधूलि में प्रभू दीप जला गया।


 


मेरा जन्म हुआ तब शून्य प्रिये


तुझको पा हृदय प्रफुल्लित हुआ


तुम मुझमें अपना सुख देखो


प्रियतम सब तुझमें विलीन हुआ।


 


गौरा पार्वती ने घोर व्रत तप की


पाया अजन्मा शिव प्रेम प्रिये


गठबंधन ऐसा अलौकिक बंधन है


सतजन्मों के बंधन का प्रेम प्रिये।


 


गणपति संग शिवगौरा का पूजूं


व्रत हरितालिका से पाऊँ मैं आशीष


रहूं निर्जला व्रत मेरा है सौभाग्य 


श्रृंगार कर पाऊँ प्रियतमआशीष। 


 


मांग सिन्दूरी से भरा दें प्रभु आशीष 


मां गौरी के दीक्षा से लिया गृहस्थ मान


मेंहदी रची रहे प्रतिपल हाथों में


ये सब जीवन के अनमोल रत्न है भान। 


 


ईश ये विनती है सदा


दिजिए मुझको भी वरदान


तुझको है मेरा भाव समर्पित 


तुझमें रम्ह जाऊं ये मेरा अरमान। 



दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


महराजगंज उत्तर प्रदेश।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मिला अपनों से.........


 


मिला अपनों से मुझे धोका


मैं भूलकर भूल नहीं पाता


करता हूँ स्मरण जब उसका


तो वो जज्बात जगा जाता


 


छल फरेब कहें या मक्कारी


या मानें जीवन की परीक्षा


कहें पूर्व जन्मों का प्रारब्ध


या मान लें ईश्वर की इच्छा


 


निकल जायेंगे यह दिन भी


हमें कभी हसाते या रुलाते   


वक्त ही बन जायेगा मरहम


निकलेंगे वो घावों को पुराते


 


न मुझे कोई भय न आशंका


मेरे मीत श्री बांकेबिहारी हैं


करेंगे जीवन नाव की रक्षा


हरि के विश्वास की बारी है


 


करेंगी मदद बरसाने वाली


मेरे प्रति श्याम को रिझाने की


फसी झंझावातों में जिन्दगी


उसे मंजिल तक ले जाने की।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


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