घर की हिलती दिवारें हैं
आंख का पानी सूख गया है
सुख - दु:ख आना जाना है
अहंकार में सब डूब गया है।
यह जीवन एक बंजारा है
स्थिर को फिरता मारा मारा है
वर्तमान के सुख से देखो
सोच रहा सब स्थित हमारा है।
जिस दिन भिक्षुक हो जाओगे
धरे रह जायेंगे सब अहं, धन
तब भावों को समझ पाओगे
कोई पास नहीं होगा सूनापन।
घर की मजूबत दिवारों को
दीमक सा खुद ही चाल रहे
कुटिल राजनीति के चालों से देखो
पानी पर पानी से पानी लिखते जा रहे।
जिसके इशारे से जग चलता है
सब रोता, सोता फिर हंसता है
आंखों के दुःख का खारा जल
अमृत की धारा सा बहता है।
भरा हुआ सब तुमको दिखता
अभिमानों में चूर हो गये हो
तुम्हें भरा अपना घर दिखता
खंडहर होने का समय हो गया हो।
दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
महराजगंज उत्तर प्रदेश।