डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


 


तब बोलाइ नाथ निज माया।


कल्यानी कहँ स्वयं बताया।।


    कह कल्यानी तें भगवाना।


     ब्रज महँ जाउ न देर लगाना।।


तहँ रह जसुमति पत्नी नंदा।


रोहिनि अपि सँग रहहि अनंदा।।


   जदपि नंद कै पत्नी औरउ।


   कंसहिं भय बस रहँ बहु ठौरउ।।


अहहिं अनंत सेष मम अंसा।


गरभ देवकी कै जदुबंसा।।


    ताहि निकारि तहाँ तें डारउ।


    तुरत रोहिनी गर्भइ धारउ।।


अब मैं तुरत ग्यान-बल-जोगा।


देवकि-गरभ बसब संजोगा।।


    कर प्रबेस कल्यानी तुमहीं।


     जसुमति-गरभ सुता बनि अबहीं।।


तुम्ह समरथ हर बिधि कल्यानी।


मुहँ माँगा बर देवहु दानी।।


धूप-दीप-नैवेद्य-चढ़ावा।


पूजि तुमहिं जग हर सुख पावा।।


     बहु-बहु जगह,बहुत अस्थाना।


     तुमहिं थापि जन पूजिहैं नाना।।


दुर्गा-बिजया-कुमुदा-काली।


कृष्ना-मधवी-माया आली।।


     मातु सारदा औरु अंबिका।


     कन्या कहिहैं तुमहिं चंडिका।।


रहहू तुमहिं बैष्णवी रूपा।


नाम इसानी जगत अनूपा।।


     रही नरयनी तोरा नामा।


      पूजिहैं सभ जन तुम्हरो धामा।।


दोहा-गरभ देवकी खैंचि के,रोहिनि गर्भइ जाइ।


        लीहहिं जन्महिं सेष जब,संकर्षन कहलाइ।।


         रही नाम बलभद्र अपि,औरु नाम बलराम।


         बल-पौरुष जग जानही,संकर्षन बलधाम।।


                     डॉ0 हरिनाथ मिश्र


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

एक गीत की तरह 


कोई आवाज़ आती है 


मीठी सी प्यारी सी 


कदाचित् वह कोयल है जो 


गीत गाती है 


हर सुबह हर शाम.........


 


जगाकर मेरे सुप्त हृदय को 


खो जाती है या 


छिप जाती है नीड़ में 


बस देखता रहता हूँ देर...तक 


उस छायादार बृक्ष को 


हर सुबह हर शाम...... ....


 


फिर जाती है नज़र 


सामने की खिड़की पर जो 


खुलती है ....फिर.....


बन्द हो जाती है..  


फिर खुलेगी जब......


मुझे नींद आने को होगी


देखता रहता हूँ उसी को 


हर सुबह हर शाम ...........


 


कितनी निष्ठावान है


वह कोयल वह चेहरा जो 


छिपाये हुए है हृदय में


कसक, वेदना और पीड़ा को 


और मैं.. ....चौंक पड़ता हूँ


ज़रा सी आहट पर 


कदाचित् वो.... आयें 


जोहता हूँ राह 


हर सुबह हर शाम..........


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश


संगीता श्रीवास्तव सुमन

मद्धम मद्धम बारिश की इन बूंदों का कहना है 


भीगे बादल से मिलकर इन झरनों को झरना है |


आते जाते हर मौसम की पीड़ा को हरता हूँ  


मन की अगन बुझाने वाले मेघों का कहना है ||


 


रिमझिम रिमझिम जब ये सावन छूता है तन मन को 


पोर पोर सकुचाती वसुधा तकती है उपवन को |


उजली उजली सी हरितिमा नवश्रृँगार करती है 


साजन की यादों की बिंदी माथे पर रखती है ||


इंतज़ार की सब घड़ियों में मुझको ही रहना है


मद्धम मद्धम बारिश की इन बूंदों का कहना है ......


 


गड़गड़ करती बिजली जब घन घन में होड़ मचाती 


बारिश की छमछम में तब पायलिया शोर मचाती |


मतवाला कजरा बह बह जब करता है मनमानी 


भीगे मन की कँदराओं से टपके टप टप पानी ||


बैरागी मन भी अकुलाता जिसको तप सहना है 


मद्धम मद्धम बारिश की इन बूंदों का कहना है .....


 


फूलों की डाली बन झूले जब सखियों सँग कजरी 


महक महक जाती है गोरी अंग अंग भर कजरी। 


रंग बिरंगे फूलों पर यौवन कुछ इठलाता है 


बहती है जब पुरवाई हर सावन मधुमाता है |


चंचल शोख हवा के कानों ने रुनझुन पहना है  


मद्धम मद्धम बारिश की इन बूंदों का कहना है .....


 


@संगीता श्रीवास्तव सुमन


 छिंदवाड़ा मप्र


संगीता श्रीवास्तव सुमन

ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने ....


 


ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने ,


अवधपुरी के राम को , राम बनाया आपने | 


लीलाधर का खेल है , जग मोहित चहुँओर है ,


मनमोहक मुस्कान पर , काग भक्ति का शोर है |


मंगल उत्सव गान में , ख़ूब नचाया आपने ,


ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने |


 


राम भरत के प्रेम में , प्रेम भरत का ताज है ,


सीता हैं अनुगामिनी , प्रेम परीक्षा आज है |


राम नाम की धूम है , सजा अयोध्या धाम है ,


दीप दीप मिल जल रहे , राम जन्म अभिराम है ,


राम राम जप कर रहे , अलख़ जगाया आपने ,


ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने |


 


राम नाम जो भज रहा , ज़ाति पाति से और है ,


धरती सारी ही थमी , राम शरण ही ठौर है |


पश्चिम के भी सूर्य की , तुण्ड छटा श्री राम हैं ,


अपलक देख रही सृष्टि , दृश्य दृश्य ही राम हैं |


धर्म , नीति और ज्ञान को , ऐसे मिलाया आपने ,


ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने |


 


आज राम के धाम को , राम राज्य की चाह है ,


माटी ,पानी साथ ले , जनता उमड़ी राह है |


जैसे अड़चन लाँघते , महाबली हनुमान हैं , 


त्राहिमाम की इस घड़ी , रामलला वरदान हैं |


जग कल्याण निमित्त ही , हरि गुन गाया आपने ,


ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने |


 


@संगीता श्रीवास्तव सुमन


 छिंदवाड़ा मप्र


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

घर की हिलती दिवारें हैं 


आंख का पानी सूख गया है


सुख - दु:ख आना जाना है


अहंकार में सब डूब गया है।


 


यह जीवन एक बंजारा है


स्थिर को फिरता मारा मारा है


वर्तमान के सुख से देखो


सोच रहा सब स्थित हमारा है।


 


जिस दिन भिक्षुक हो जाओगे


धरे रह जायेंगे सब अहं, धन 


तब भावों को समझ पाओगे


कोई पास नहीं होगा सूनापन।


 


घर की मजूबत दिवारों को 


दीमक सा खुद ही चाल रहे 


कुटिल राजनीति के चालों से देखो


पानी पर पानी से पानी लिखते जा रहे।


 


जिसके इशारे से जग चलता है


सब रोता, सोता फिर हंसता है


आंखों के दुःख का खारा जल


अमृत की धारा सा बहता है।


 


भरा हुआ सब तुमको दिखता


अभिमानों में चूर हो गये हो


तुम्हें भरा अपना घर दिखता


खंडहर होने का समय हो गया हो।



    दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


     महराजगंज उत्तर प्रदेश।


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-32


 


माथ नवाय धरेयु गुरु-चरना।


सबद अघाइ जाइ नहिं बरना।।


   गुरु-पद कमल,राम जनु दिनकर।


   छुवन जासु पंकज-दल-हितकर।।


राम-लखन धयि दुइनउँ भाई।


गुरु बसिष्ठ उर लिए लगाई।।


    केवट दूरइ करै प्रनामा।


    तुरत बताइ के आपुन नामा।।


राम-लखन मिलि-मिलि सबहीं के।


कुसल-छेमु पूछहिं धयि-धयि के।।


    बिकल देखि मातुहिं श्री रामा।


    कहहिं बिकट बिरंचि करनामा।।


प्रथम प्रनाम कैकेई कीन्हा।


दोष सबहिं निज माथे लीन्हा।।


    करहिं प्रनाम अरुंधति माता।


    गुरु-पत्नी सँग मातुहिं नाता।।


तब प्रभु राम लखन के साथा।


मातु सुमित्रहिं टेके माथा।।


   अंत मिले निज मातु कौसल्या।


   हृदय जासु सागर बतसल्या।।


दोहा-लइ असीष निज मातु-गुरु,लखन सहित प्रभु राम।


       चले कुटी निज बट तरे, सीय तकहिं अबिराम ।।


तुरत धाइ सीता तब निकसीं।


जल-तर होइ दूब जस बिगसीं।।


    करहिं प्रनाम छूइ प्रभु-चरना।।


    लागहि रंक पाइ कोउ रतना।।


गुरु-माता कै लेइ असीषा।


सोध मुदित जनु कोउ मनीषा।।


   मगन-मुदित धरि आँचर माथे।


   सीता गईं सासु जहँ साथे।।


सासुन्ह देखि सीय सकुचाईं।


बेलि बिटप जल बिनु मुरझाईं।।


    पाइ असीष सुहाग अमर कै।


    सिय बिहंग मन उड़ै चहकि कै।।


चरन छूइ सभ सासुन्ह सीता।


लीं असीष अनुकूल सप्रीता।।


दोहा-सासु देहिं ढाढ़स सियहिं, कहहिं बहुत समुझाइ।


        धीरजु धरि सभ कछु सहउ,दैव लिखा न मेटाइ।।


        सभें बोलाइ बसिष्ठ तहँ, नमन बिरंचहिं कीन्ह।


        दसरथ-मरन बताइ के,धीरजु सभ जन दीन्ह।।


                     डॉ0 हरिनाथ मिश्र


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


तब बोलाइ नाथ निज माया।


कल्यानी कहँ स्वयं बताया।।


    कह कल्यानी तें भगवाना।


     ब्रज महँ जाउ न देर लगाना।।


तहँ रह रोहिनि पत्नी नंदा।


गोप-गऊ सँग रहहि अनंदा।।


   जदपि नंद कै पत्नी औरउ।


   कंसहिं भय बस रहँ बहु ठौरउ।।


अहहिं अनंत सेष मम अंसा।


गरभ देवकी कै जदुबंसा।।


    ताहि निकारि तहाँ तें डारउ।


    तुरत रोहिनी गर्भइ धारउ।।


अब मैं तुरत ग्यान-बल-जोगा।


देवकि-गरभ बसब संजोगा।।


    कर प्रबेस कल्यानी तुमहीं।


     जसुमति-गरभ सुता बनि अबहीं।।


तुम्ह समरथ हर बिधि कल्यानी।


मुहँ माँगा बर देवहु दानी।।


धूप-दीप-नैवेद्य-चढ़ावा।


पूजि तुमहिं जग हर सुख पावा।।


     बहु-बहु जगह,बहुत अस्थाना।


     तुमहिं थापि जन पूजिहैं नाना।।


दुर्गा-बिजया-कुमुदा-काली।


कृष्ना-मधवी-माया आली।।


     मातु सारदा औरु अंबिका।


     कन्या कहिहैं तुमहिं चंडिका।।


रहहू तुमहिं बैष्णवी रूपा।


नाम इसानी जगत अनूपा।।


     रही नरयनी तोरा नामा।


      पूजिहैं सभ जन तुम्हरो धामा।।


दोहा-गरभ देवकी खैंचि के,रोहिनि गर्भइ जाइ।


        लीहहिं जन्महिं सेष जब,संकर्षन कहलाइ।।


         रही नाम बलभद्र अपि,औरु नाम बलराम।


         बल-पौरुष जग जानही,संकर्षन बलधाम।।


                     डॉ0 हरिनाथ मिश्र


      


नूतन लाल साहू

मानवता ही धर्म 


पांच तत्व का बना शरीर 


धरती,गगन,जल,अग्नि,समीरा 


माया मोह का है,जंजीरा


किसी को सुख है,तो किसी को पीड़ा


सबसे पहले,तुम बेटा हो


तक़दीर हो, मां बाप का


अपना फर्ज भूल न जाना


मानवता ही धर्म है


कहीं की माटी,सोना उपजे


कहीं का माटी, सम्मान


कहीं की माटी,नेता उपजे


कहीं का माटी, फौजी जवान


ये कोरोना का कहर


सबको हिला दिया है


जो कभी न रोया हो


उनको भी रुला दिया है


फरिश्ता बन जा, दीन दुखियों का


मानवता ही धर्म है


सोच से ही, बुद्धि है


बुद्धि से ही,दृष्टि है


और दृष्टि से ही,सृष्टि है


पल में जीवन,पल में मृत्यु


पल पल परिवर्तन होता है


अनेकता में एकता,का नारा


हर कोई बहुत लगाते हैं


लोहा लेकर,वीर शहीदों ने


दी हमको,आजादी है


बम तोपो की होड़ मची है


नैतिकता घट आई है


देश भक्ति को छोड़ न जाना


मानवता ही धर्म है


छुरी भोकना सहज हुई हैं


पत्थर मारने का है, शौक


अभी तो प्यारे,अच्छा लग रहा है


पीछे होगी, पछतानी


आराम करना,हराम है


जीवन है, एक संग्राम


परहितकर,जीवन सफल बनाओ


मानवता ही धर्म है। 


 


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

रुलाती हैं यही आंखें हॅ॑साती हैं यही आॅ॑खें,


ख़ुशी या ग़म के आंसू हैं बताती हैं यही आॅ॑खें।


 


ज़रा तुम दूर ही रहना अधिक नज़दीक मत आना,


निशाना दूर तक हरदम लगाती हैं यही आॅ॑खें।


 


बड़ी मासूम लगती हैं मगर हैं तो नहीं वैसी,


सदा ही तीर आशिक़ पर चलाती हैं यही आॅ॑खें।


 


नहीं कोई है बच पाया नशे में ये डुबोती हैं,


कभी मदिरा,कभी प्याला तो साकी हैं यही आॅ॑खें।


 


भरा है प्यार इनमें तो भरी नफ़रत इन्हीं में है,


सुना है शूल राहों में बिछाती हैं यही आॅ॑खें।


            


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 रामबली मिश्र

वन्दनीय माँ का आदर हो


           


माँ के चरणों का वन्दन कर।


नित पूजन नित अभिनन्दन कर।।


 


नित गुणगायन करते रहना।


पारायण नित करते रहना।।


 


लिखते रहना उनपर कविता।


सदा बहाना लेखन-सरिता।।


 


लिये लेखनी भजन लिखो नित।


गा-गा भज अति मगन रहो नित।।


 


लिखते रह दोहा चौपाई।


करते रह माँ की सेवकाई।।


 


करो समर्पण खुद को माँ में।


लगा रहे मन विद्या माँ में।।।


 


माँ श्री को मत कभी छोड़ना।


नेह लगाये चलते रहना।।


 


माँ से सबकुछ तुझे मिलेगा।


काम दोश सब सहज मिटेगा।।


 


माँ-भक्ती विद्वत्ता देती।


दु:ख-दरिद्रता सब हर लेती।।


 


जो करता है माँ का ध्याना।


बन जाता वह स्वयं सुजाना।।


 


केवल माँ के संग रहो नित।


ज्ञान -गंग में स्नान करो निता।।


 


देख हंस नित बनो विवेकी।


ले वीणा सेवा कर जग की।।


 


पुस्तक पढ़ना पुस्तक लिखना।


कर में पुस्तक लिये चहकना।।


 


सर्व बनो सर्वत्र विचरना ।


बनकर पर्व पवित्र निखरना।।


 


सात्विक बनकर ब्रह्म लोक चल।


माँ सरस्वती धाम चलाचल ।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र


हरिहरपुरी 


संपूर्णानंद मिश्र

रंग बदल लेता है इंसान


   अपनी- अपनी


 जरूरतों के मुताबिक 


गिरगिट भी रंग बदलता है


      पर उसका


 रंग बदलना स्वाभाविक होता है


हार्मोनल होता है


 प्राकृतिक होता है 


     हां कभी- कभी


 अपनी जान बचाने के लिए 


 शत्रु- दल की आंखों में धूल 


झोंकने के लिए भी होता है


     मनुष्य ने 


   रंग परिवर्तन के


  इस रण में उसे 


   पछाड़ दिया है 


 चित कर दिया है 


  महि- समर में 


  वह निश्चेष्ट पड़ा है


  इस रंग परिवर्तन में खूब प्रशिक्षण प्राप्त किया है 


आनलाइन भी शिक्षित और प्रशिक्षित होता रहता है


   इतना रंग बदलता है 


   कि कोई भी खा जाता है धोखा


   नहीं पहचान पाता है उसके 


   वास्तविक रंग- रूप को 


प्रेम के मुखौटे में छिपे स्वार्थ के विकृत चेहरे की पहचान 


   नहीं कर पाता है


      निष्णात होता है 


     रंग परिवर्तन में 


       गढ़ लेता है 


   परिभाषा भी प्रेम की


     बिछा देता है


   जाल कुछ दानों के


    फंसा लेता है 


उन निश्चछल कबूतरों को 


 जो भूख की ख़ातिर


     हो जाते हैं अंधे


   नहीं देख पाते हैं 


प्रेम की मलाई में


 प्रच्छन्न अपनी मृत्यु को


और किसी क्रूर बहेलिए का


   बन जाते हैं शिकार 


 


संपूर्णानंद मिश्र


प्रयागराज फूलपुर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

लाये प्रभात एक प्यारा...


 


हरित पीत व रक्त श्याम


आभा से जग अभिराम


अनुपम सौंदर्य से संपूर्ण


रचा अवर्चनीय भव राम


 


वह ज्योति रवि सोम में


विखेर रही सौम्य प्रकाश


आल्हादित वन उपवन


कण कण में मृदुल हास


 


मन्द मन्द मुस्कान लिए


अंर्तमन में लेकर आशा


स्वर्ण रश्मियों से घिरकर


नव जीवन की प्रत्याशा


 


अंधकार ललकार रहीं 


नवल सृजनता का संदेश


रज रज में लिए दिव्यता      


हरि विधु व शिव का भेष


 


कोई परा शक्ति जिसने


ये अखिल ब्रह्मांड संवारा


वही शक्ति आ सत्य को


लाये प्रभात एक प्यारा।


 


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

गरआदमी 


गर आदमी न होता एहसान फ़रामोश,


 माना इसे न जाता जल्लाद कभी का।।


         गर जानती ये दुनिया क्या फ़र्ज़-ए-इंसान?


         होता लहू न इतना बरबाद सभी का ।।


                                    गर आदमी न होता....


ऋतु में,हवा ,फ़ज़ा में होता अगर वजूद,


होता चमन यक़ीनन आबाद कभी का।।


                             गर आदमी न होता....


       होता अगर जो मेल कभी तल्ख़ -मधुर का


       यक़ीनन ये तल्ख़ होता मधुर स्वाद कभी का।।


                               गर आदमी न होता....


होता अगर निशंक ज़माने में कोई यहाँ,


यक़ीनन,वतन ये होता आज़ाद कभी का।।


                    गर आदमी न होता....


होता नहीं गर धर्म का उन्माद जहाँ में।


तो मिलता इसे भी जन्नती प्रसाद कभी का।।


गर आदमी न होता.....।।


   © डॉ0 हरिनाथ मिश्र


रश्मि लता मिश्रा

ईश्वर आ जाओ भजते।


 


मंदिर देखो तो सजते।


 


धीरज माँगा है चलते।


 


सूरज जाता है जलते।


 


छूकर ऊँचाई कहता।


 


आकर ज्वाला भी सहता।


 


चाँद रहा देखो नभ में।


 


झाँक रहा लेके कसमे।


 


बाग झरे देखो झरने।


 


बोल लगे मीठे बहने।


 


 


आकर माँगा है वर ये।


 


लेकर जाना है दर से।


 


 


रश्मि लता मिश्रा


बिलासपुर सी जी।


राम बिहारी पचौरी

अपनी दादी की नातिन हो तुम


अपने पापा की परी हो तुम 


अपनी मम्मी की लाडली हो तुम


अपने भाइयों की प्रिय बहन हो तुम


 अपने ससुर के लिए लक्ष्मी हो तुम


 अपने सासू मां की बिटिया हो तुम


 अपने ननद की भाभी हो तुम


दोनों कुल को तारने वाली देवी हो तुम


फूलों सी कोमल हृदय वाली हो तुम


माँ बाप की एक आह पर ही रोती हो तुम 


भाई के प्रेम में खुद को भुला देती हैं हो तुम 


बड़े नसीब वालों के घर जन्म लेती हो तुम


घर आँगन को खुशियों से भर देती हो तुम


देवालय में बजते शंख की ध्वनि हो तुम


देवताओं के हवन यज्ञ की अग्नि हो तुम


खुशनसीब हैं वो जिनके आँगन में हो तुम


जग की तमाम खुशियों की जननी हो तुम


खिलती हुई कलियाँ हो तुम


माँ-बाप का दर्द समझती हो तुम


घर को रोशन करती हो तुम


जिस घर में ऐसी बिटिया हो,


वह घर स्वर्ग बन जाता है


वहां साक्षात लक्ष्मी का वास हो जाता


 ऐसी बिटिया को राम बिहारी प्रणाम करता है


 


राम बिहारी पचौरी


भिंड (मध्य प्रदेश)


प्रिया चारण

विघ्न हरता मंगल करता देवो में देव ,


जो हर कार्य को सफल करता,,


मंगल कार्य का जो श्री गणेश है


गणनायक वो गौरी पुत्र मूषक नरेश है।


 


एक दंत है , प्रभु दयावान, प्रार्थना स्वीकृत है।


विद्या सागर, बुद्धि दाता प्रभु,


दिन दुःखी के आस तुम्ही ,


मोदक प्रिय, गौरी नन्दन गणेश ,


गणेश चर्तुथी को करे घर मे प्रवेश,,


 


मात पिता की परिक्रमा को चक्र ब्रह्माण्ड बताया,


जन जन को मात पिता का महत्व बताया।


 


कुबेर ख़जाना भोजन में खपाया,


अहंकार कुबेर जी का तोड़ दिखलाया,


तुलसी पत्र की महिमा को


कुबेर भण्डार से अधिक बतलाया,


 


मूषक को असवार लिए ,


इस बरस फिर बप्पा अवतार लिए ,


 


 


प्रिया चारण उदयपुर


सुनील कुमार गुप्ता

प्रेम का जीवन में महत्व


प्रेम तो प्रेम है जीवन में,


भूले न कभी साथी-


प्रेम का जीवन मे महत्व।


नफरत उपजे जब जब मन में,


मिट जाता है साथी-


प्रेम का जीवन में महत्व।


अपनत्व बढ़ता जब-जब ,


साथी समझ में आता-


प्रेम का जीवन में महत्व।


जब-जब मिटी पतझड़ की चुभन,


मधुमास का अहसास समझाता-


प्रेम का जीवन में महत्व।


नफरत से टूटे संबंध जुडे़ जब प्रेम से,


समझ में आया-


प्रेम का जीवन में महत्व।


अपनो से दूर रह कर ही जाना,


क्या-होता साथी-


प्रेम का जीवन में महत्व।


प्रेम बिन कुछ नहीं जीवन में,


जान सको तो जानो साथी-


प्रेम का जीवन में महत्व।।


 


 सुनील कुमार गुप्ता


संजय जैन

पानी है अनमोल,


समझो इसका मोल।


जो अभी न समझोगे,


तो सिर्फ पानी नाम सुनोगे।।


 


आने वाले वर्षों में,


पानी बनेगा एक समस्या ।


देख रहे हो जो भी तुम,


अंश मात्रा है विनाश का।


जो दे रहा तुमको संकेत।


जागो जागो सब प्यारे,


करो बचत पानी की तुम।


बूंद बूंद पानी की बचत से, 


भर जाएगा सागर प्यारा।।


 


बिन पानी कैसे जीयेंगे,


पड़े पौधे और जीव जंतु।


और पानी बिना मानव,


क्या जीवित रह पाएगा।


बिन पानी के वो,भी मर जायेगा।


और भू मंडल में कोई,  


नजर नही आएगा।


इसलिए संजय कहता है,


नष्ट न करो प्रकृति के सनसाधनों को।।


 


बचा लो पानी वृक्षो और पहाड़ों को।


लगाओ और लगवाओ, 


वृक्षो को तुम अपनो से।


कर सके ऐसा कुछ हम, 


तभी मानव कहलाओगे।


पानी विहीन भूमि में,


पानी को तुम पहुँचोगे।


और पड़ी बंजर भूमि को,


फिर से हराभरा कर पाओगे।


और एक महान कार्य करके,


दुनियां को दिखाओगे।।


 


 


संजय जैन (मुम्बई)


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

अविनाशी है आत्मा,यही सत्य तुम जान।


बुद्धिमान नर जान यह,धरे न धन का ध्यान।।


 


हृदय वासना में रमे,जब मन में अज्ञान।


कहे सीप को रजत यह,भ्रम बस मन नादान।।


 


उर्मि-स्रोत इस सिंधु इव, मैं उद्गम संसार।


चले कहाँ तुम तज मुझे,दीन-हीन-मतिमार।।


 


शुचि-सुंदर-चैतन्य इस,आत्मा की पहचान।


कर न सकोगे जान यह,इन्द्रिय-सुख-अभिमान।।


 


सभी प्राणियों में स्वयं,स्वयं रहे संसार।


यह रहस्य मुनि जान रख,यदि ममत्व,बेकार।।


 


             © डॉ0 हरिनाथ मिश्र


निशा अतुल्य

चीर सीने को धरा के 


श्रृंगार सारा नोंच कर 


खड़े करें पत्थर के जंगल


हाल सब बे-हाल हैं ।


देखने को छोटी गौरैया 


नैन भी तरसे मेरे 


बाग तो सब ख़त्म हैं अब


कोकिल की कहाँ कुहुक हैं।


शीतल पवन का रुख है बदला


और सर्द मौसम कहाँ 


मेघ भी झंकार कर 


नृतन अब करते नहीं ।


दामिनी की चमक अब 


मुझको डराती नहीं 


ढूंढती हूँ छाँव मन की


जो कहीं मिलती नहीं ।


चल उठ मुसाफिर 


सोच कुछ,कदम आगे बढ़ा


न चले जो साथ कोई तेरे 


तू अकेला ही चला ।


नही कोई काम मुश्किल


मन में जो तू ठान ले


वृक्ष चल लगाए हम 


किनारे किनारे सड़क के।


मिल जाये जहाँ सूखी कोई धरा


आम,नीम, बबुल बो कर 


कर दें हम उसको हरा ।


शुद्ध होगी वायु तब


फूलों का तू चमन खिला


तितलियों के होंगे साये


हो भंवरो की गुँजार जब।


मेघ बरसेंगे घनाघन 


शुद्ध जल की भरमार हो


होगी धरा फिर सुन्दर


प्रकृति का शृंगार हो ।


 


निशा"अतुल्य"


शिवानी मिश्रा

समय के रथ का पहिया,


जो सवार को अपनी अनुभूतियों से


तेज और धीमी गति से चलने का


आभास करता रहता है।


पर समय सदा हीअपनी सम


गति से ही चलता जाता है।


साल दर साल आगे बढ़ता जाता है,


फिर एक दिन छोड़ जाता है वो यादें,


जो मानस पटल पर चित्रित हो जाती है,


और हम इंसान चाह कर भी,


समय को पकड़ नही पाते हैं।


क्योंकि वह निर्विरोध अपनी गति से बढ़ता जाता है।


 


 


शिवानी मिश्रा


प्रयागराज


अमित कुमार दवे

मैल तन से धोते जाओ,


हृदय निर्मल करते जाओ,


तन मन हर्षित करते जाओ,


बारिश में नित भीगते जाओ।।


 


शीतल शुभ्र मन कर जाओ,


विचार अब सार्थक कर जाओ,


नैत्रों को अब तर करते जाओ,


बारिश में नित भीगते जाओ।।


 


भाव तेरा-मेरा बहाते जाओ,


 नम संबंधों में होते जाओ,


शांत सहज नित होते जाओ,


बारिश में नित भीगते जाओ।।


 


सादर सस्नेह...


©अमित कुमार दवे,खड़गदा


डॉ0 रामबली मिश्र

गुरु पद सेवा जो नित करता,


उसका जीवन सफल है।


 


जो गुरु की करता नित निन्दा।


उसका जीवन विफल है।


 


गुरु सेवक बनता पुरुषार्थी,


फल देता पुरुषार्थ है।


 


गुरु आज्ञा को सिर पर रखना।


हो निर्द्वन्द्व सदा चलो।


 


गुरु से नेह लगाता जो भी,


परम प्रसाद मिले उसे।


 


गुरुद्रोही है प्रेत समाना,


कभी सुखी रहता नहीं।


 


जो गुरु में श्रद्धा रखता है,


ज्ञानी बन जाता वही।


 


गुरु को ही गोविन्द समझना।


भव सागर को पार कर।


 


गुरु के पग में चारों धामा।


गुरु सेवा अमृत सहज।


 


डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


सम्पूर्णानंद मिश्र 

कोख की आवाज


 


कोख में ‌पल रही‌ बेटी 


 मां से कह रही है 


   अपनी व्यथा


सुनो मेरे जीवन की कथा 


नहीं जन्म लेना चाहती 


तुम भी मुझे ‌पाकर नहीं


  खोना चाहती 


कुछ दिन खेलकर 


 पढ़ने लिखने


   लग जाऊंगी


 थोड़ी बड़ी हो‌ने पर


ससुराल चली जाऊंगी 


न हीं रखेगा कोई आपकी


तरह मेरा ख्याल 


दहेज की खातिर ‌


रोज़ ताने सुनने पड़ेंगे


खुद से ही मन की


बात भी कहने पड़ेंगे


तुम भी ‌दर्द के ‌आंसू


 चाहकर भी नहीं 


पोछ पाओगी


घुट घुटकर जीवन 


जीना पड़ेगा 


अपमान ‌का बिष


निरंतर पीना पड़ेगा


अगर दहेज की मांग की 


कसौटी पर खरी नहीं


ऊतर पाऊंगी


तो फिर जिंदा ही 


जला दी जाऊंगी 


अगर ‌कहीं इससे बच गयी


तो किसी वहशी दरिंदों ‌की 


  बलि चढ़ जाऊंगी 


मुझे इस धरा पर मत लाओ


एक उपकार कर दो मां


कोख को ही सूना कर दो


बाहर नर भेड़िए ‌घूम रहे हैं 


किसी मां की कोख सूंघ रहे हैं


मुझे इस धरा पर मत लाओ ‌मां !


 


सम्पूर्णानंद मिश्र 


वरिष्ठ प्रवक्ता हिंदी


प्रयागराज फूलपुर


रवि ररश्मि अनुभूति

  यादों के झरोखों से 


 


जीवन के इस पड़ाव पर अब 


जब सोचूँ मैं उस अतीत को 


सुखद क्षणों के उन्हीं पलों को   


हर पल की सदा उस जीत को ।


 


कदम कदम संग साथ चल कर 


हर कष्ट को सदा दल दल कर 


खुद की न की परवाह तुमने 


जीत लिया मन मेरा तुमने 


किया समर्पित सदा प्रीत को 


हर पल की सदा उस जीत को .....


 


प्यार की परछाइयाँ पलतीं


क्षण की भी तन्हाइयाँ खलतीं   


साथ नहीं छोड़ा तुमने तो 


मुख न कभी मोड़ा तुमने तो 


सदा निभायी प्रीत - रीत तो 


हर पल की सदा उस जीत को .....


 


झरोखे याद के झाँकूँ जो 


लेखा - जोखा भी आँकूँ तो 


आल्हाद मन में होता है 


मन नयन भी तो भिगोता है 


गाऊँ फिर उस मिलन गीत को 


हर पल की सदा उस जीत को ....


 


(C) रवि ररश्मि 'अनुभूति '


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