सत्यप्रकाश पाण्डेय

अधरों की हाला..........


 


मुझको पिला दो अपने अधरों की हाला


व्याकुल है मेरा मन बिना तेरे मधुबाला


 


जब जब दुनियां के गमों ने मुझको घेरा


तब तब याद आती तेरी हिय मधुशाला


 


घने अंधकार ने रोकी है मेरी राहें भले ही


तुम हो तो आयेगा मेरे जीवन में उजाला


 


अकूत सम्पदाओं का बन जाऊँ मैं स्वामी


तुम नहीं तो जिंदगी का हरपल है काला


 


तेरी आँखों की मादकता से हो उन्मादी


भूलूँ जग की पीड़ा पल पल बने निराला


 


सत्य का ये जीवन अर्पित तुम्हें सुरबाला


मुझको पिला दो अपने अधरों की हाला।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

आफ़ताब 


हर रोज़ आफ़ताब को सलाम करना चाहिए,


रौशनी के घर को आदाब कहना चाहिए।


सोख के समंदर जो आब देता है-


ऐसे ताप- देव का एहतराम करना चाहिए।।


                                 हर रोज़ आफ़ताब.....।।


नित बिखेर रौशनी रवि तम भगाता है,


सोये हुये को दिनकर प्रातः जगाता है।


रवि-रश्मियों से जीवन धरती पे है पलता-


ऊर्जा-अजस्र स्रोत को प्रणाम करना चाहिए।


                              हर रोज़ आफ़ताब........।।


दिनकर-दिवाकर-भास्कर-सूरज इसी का नाम,


आकाश का भूषण यही,अनुपम-ललित-ललाम।


इसके बग़ैर लोक का कल्याण नहीं है-


पूजे बिना न इसको, कोई काम करना चाहिए।।


                           हर रोज़ आफ़ताब...........।।


आराध्य है ये सबका औ वंदनीय है,


अखण्ड तेज-पुंज सूर्य महनीय है।


अपार शक्ति-कोष का विराट रूप रवि-


सविता का स्मरण,सुब्ह-शाम करना चाहिए।।


                         हर रोज़ आफ़ताब............।।


सारे नक्षत्र इसके ही इर्द-गिर्द डोलते,


प्रकाश के समस्त मंत्र वेद बोलते।


रवि-रश्मियों से रहता समस्त व्योम व्याप्त-


रवि का महत्व-वर्णन,सरे आम करना चाहिए।।


                      हर रोज़ आफ़ताब...........।।


सारे कुदरती कृत्य का है केंद्र-विंदु सूर्य,


आबो-हवा औ मौसम का केन्द्र-विन्दु सूर्य।


सूर्य यदि नहीं तो ब्रह्माण्ड निष्प्रयोज्य-


प्रसन्न रवि रहे ऐसा काम करना चाहिए।।


       हर रोज़ आफ़ताब को सलाम करना चाहिए।।


         © डॉ0हरि नाथ मिश्र


         


डॉ0 रामबली मिश्र

सबसे कठिन मौनव्रतधारण।


बिन बोले होता उच्चारण।।


 


मौन यज्ञ में हवन करो मन।


ऊर्जा का हो केन्द्रित दर्शन।।


 


बनकर अन्तर्मुखी विचरना।


सदा शान्ति रथ पर चढ़ चलना।।


 


मौनव्रती बचता प्रपंच से।


बोल रहा सर्वोच्च मंच से।।


 


बिन उच्चारण सब कह देता।


बना हुआ है सर्व विजेता।।


 


सारे प्रश्नों का उत्तर है।


मौनव्रती सबसे सुन्दर है।।


 


अति प्रिय मानव सन्त सुहावन।


मौनव्रती मनसिद्ध लुभावन।।


 


हर मानव को शान्ति चाहिये।


मौनव्रती की राह चाहिये।।


 


डॉ0रामबली मिश्र


हरिहरपुरी 


डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र

कलुआ की मौत


 


 आज सुबह-सुबह ‌


   कलुवा कुत्ता


   ठंड लगने से


     मर गया 


बहुत वफादार था


एक सशक्त पहरेदार था


मानवीय मूल्यों में ‌कत्तई‌


नहीं विश्वास था


आदमियों के चाल-चलन


को दूर से ही भांपता था


खाकी वर्दी वाले ‌आदमियों‌


     से कांपता‌ था 


श्वेत कपड़ों वाले जीवों


को देखकर ही हांफता था 


खाकी व श्वेत वर्दी


वालों के नुकीले ‌दांतों 


का‌ उसे बोध था 


इसीलिए उनके पथ का


न ही वह अवरोध था


उसका यह प्रबल विश्वास था


इस बात का आस था


मेरा काटा हुआ बच सकता ‌है


लेकिन इन तथाकथितों‌ के ‌काटे 


   हुए से यमराज भी 


   नहीं ‌बचा सकता 


  वफादारी की कीमत 


   अदा करता था


 खाए हुए पत्तल में


कोई छेद नहीं करता था 


 इस मामले में उसने पुरुषों 


को‌ कई ‌बार चित्त ‌किया था ‌


लेकिन बेशर्मी की चादर


  लपेटे हुए आदमियों के 


   ऊपर इसका


कोई प्रभाव नहीं था


हर बार हारकर भी ‌


इन जानवरों ‌से आदमी ‌


कुछ ‌नहीं सीख पाया 


और आदमी, आदमी होकर


भी आदमी नहीं हो पाया 


 


 


डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र


प्रयागराज फूलपुर


संजय जैन

नही होती सुंदरता 


किसी के भी शरीर में।


ये बस भ्रम है 


अपने अपने मन का।


यदि होता शरीर सुंदर 


तो कृष्ण तो सवाले थे।


पर फिर भी सभी की 


आंखों के तारे थे।।


 


क्योंकि सुंदरता होती है 


उसके कर्म और विचार में।


तभी तो लोग उसके प्रति


आकर्षित होकर आते है।


वह अपनी वाणी व्यवहार 


और चरित्र से जाना जाता है।


तभी तो लोग उसे 


अपना आदर्श बना लेते है।।


 


जो अर्जित किया हमने


अपने गुरुओं से ज्ञान।


वही ज्ञान को हम


दुनियाँ को सुनता है।


जिससे होता है एक 


सभ्य समाज का निर्माण।


फिर सभी को ये दुनियां,


सुंदर लगाने लगती है।


इसलिए संजय कहता है,


जमाने के लोगो से।


शरीर सुंदर नही होता


सुंदर होते उसके संस्कार।।


  


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


निशा अतुल्य

कितना हालाहल भरा है


जीवन की मधुशाला में 


क्रोध,ईर्षा भरा है दिल में 


प्रेम का प्याला खाली है ।


 


मेरा तेरा रहता मन में 


दंश चहुँ ओर दिखे


विष की तीव्रता इतनी


हर चेहरे पर दाग बड़े ।


 


दाग छुपाते तुम कर्मों के


अपने उजले कपड़ों से


काले मन,तन उजले हैं


जीवन के हलाहल में ।


 


कब तक ओढ़े रखोगें


झूठ के तुम नकाबों को


एक दिन चेहरा दिख जाएगा


झीने झीने तारों से ।


 


कुछ अमृत सच का भी चख लो


चाहे कपड़े हों मैले 


मन का दर्पण साफ़ अगर हो


जीवन में न हलाहल हो ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


शिवेन्द्र मिश्र शिव

लिखा स्वयं जिसने मुझे, जिससे मेरा नाम।


उस मां के श्रीचरण में,अपना पावन धाम।।01


 


माँ निज सुत को चूँमती, करती लाड़-दुलार।


उसकी इक मुस्कान पर, देती सब कुछ वार।।02


 


तन मन धन अर्पण करो, खुशियाँ भी दो वार।


फिर भी माँ का कर्ज 'शिव' सकते नहीं उतार।।03


 


सिर हो 'मां' की गोद में, उस पर मां का हाथ।


शिव को नित मिलता रहे,सुख यह "कामद्नाथ"।।04


 


मां संतति के वास्ते, हँसकर सहती पीर।


ठुकराती औलाद जब, होती बहुत अधीर।।05


 


हँसकर माता गर्भ में, सहती सुत की लात।


वृद्धावस्था में वही, पुत्र करे आघात।।06


 


माँ की ममता को नहीं, सकता कोई तोल।


त्याग, समर्पण, प्रेम की, माँ मूरत अनमोल।।07


 


 


सबके मानस पटल पर,रहती मां की छाप।


ममता रुपी सिंधु की, मत गहराई नाप।।08


 


छूकर माता के चरण, लेकर उनका प्यार।


सकल विश्व वो जीत ले,कभी न होवे हार।०9


 


स्वास्थ्य-लाभ की कामना, करुं मै आठों याम।


मिले मातु-पितु प्रेम नित, कभी न हो विश्राम।।10


 


छूमंतर हर दर्द को, करती माँ की फूक।


माँ का हर नुस्खा, दुआ, दोनों बहुत अचूक।।11


 


शिवेन्द्र मिश्र 'शिव'


मैगलगंज-खीरी (उ०प्र०)


रवि रश्मि अनुभूति

प्रदत्त पंक्ति ~ 


भूचालों की बुनियादों पर 


है सपनों का घर ।


 


  नव गीत 16 , 14 मात्रा भार 


********** *****************


भूचालों की बुनियादों पर 


है सपनों का घर 


दीप धरा है देहरी पर अब 


आ जाओ इस दर ।।


 


बुनियादें तो हैं पक्की ये 


सुन बिल्कुल मत डर ।


कच्चापन लेकिन यहाँ कभी 


नहीं मारता पर।।


यह सच है कि यहाँ कोई भी 


रहता न हो अमर ।।


 


पंछी चहकें सदा यहाँ ही 


उड़ते हैं फर फर ।


पवन चलती सदा इठलाती  


सनन सनन सर सर ।।


कभी - कभी गर्मी है सर्दी ।


काँपे हैं थर- थर ।।


 


दीवाने रहने के हम तो 


रहते सदा यहाँ ।


एक बार बस जाने पर फिर 


भटकें कहाँ कहाँ ।।


उड़ती हैं पतंगें भी यहाँ 


करती फ़र्र - फ़र्र ।


 


तूफ़ानी चले हवा को तो 


हम तो लेते जर ।


घर है हमारा सुन्दर सुनो 


फिर काहे का डर ।।


इसी में रहें तो गुज़रता 


ज़िंदगी का सफ़र ।।


 


(C) रवि रश्मि 'अनुभूति


       मुंबई ( महाराष्ट्र ) ।


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

देवों में निराले देव कहलाते महादेव , 


राम नाम की ये धुन जटा जूट धारी हैं।


 


गले में भुजंग साजे नाद डमरू का बाजे , 


सारा जग गुण गाता ये पिनाकधारी हैं। 


 


भक्त इनको मनाए द्वार दौड़े दौड़े आए , 


झोली खाली भर देते ये भोले भंडारी हैं।  


 


रुद्र महिमा सुनाता नित भोले को मनाता , 


बिगड़ी बनाने वाले देव त्रिपुरारी हैं। 


 


संदीप कुमार विश्नोई"रुद्र"


दुतारांवाली तह0 अबोहर पंजाब


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

विश्व में जगह-जगह बुद्ध की विपश्यना से।


क्या मिला राष्ट्र को पंचशील की स्थापना से। 


 


हम शान्ति ओम् शान्ति का मंत्र बोलते रहे, 


पर सदा विचलित हुए शत्रु की प्रवंचना से। 


 


परतंत्रता की त्रासदी हजार वर्ष झेलकर, 


उबर नहीं सके विश्व बन्धुत्व की कामना से। 


 


दूसरों के आतिथ्य हेतु हम द्वार खोलते रहे, 


पर क्या पता वो शत्रु है ग्रस्त हैै दुर्भावना से। 


 


आज सत्य शान्ति करुणा उदारता को भूल, 


आोत-प्रोत हो गये हैं राष्ट्रीयता की भावना से।


 


अब सतर्क हो गये हैं गगन जल थल में हम, 


शत्रु डर गया है अब युद्ध की सम्भावना से। 


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश


सुनीता असीम

बीच में फासले हैं पहले ही।


 


दर्द के सिलसिले हैं पहले ही।


 


***


 


और उनको नहीं कुरेदो तुम।


 


जख्म अब तक हरे हैं पहले ही।


 


***


 


क्या बनाऐं किसीको अपना अब।


 


ग़ैर अपने बने हैं पहले ही।


 


***


 


अब तमन्ना नहीं गुलों की भी।


 


ख़ार दिल में खिले हैं पहले ही।


 


***


 


अब जुगत है न पास आने की।


 


दूर तो काफिले हैं पहले ही।


 


***


 


क्या शिकायत करें जमाने से।


 


खुद से शिकवे गिले हैं पहले ही।


 


***


 


सुनीता असीम


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सुरेन्द्र सिंह राजपूत 'हमसफ़र'

सुरेन्द्र सिंह राजपूत 'हमसफ़र'


*पिता* - स्व. श्री टीकाराम राजपूत 


*जन्मतिथि* - 26 / 09 /1964


*शिक्षा* - बी. कॉम. एवं आई. टी. आई. उत्तीर्ण 


*ऑफिस सेवा*-शासकीय पॉलीटेक्निक कॉलेज उज्जैन में लेब टेक्नीशियन के पद पर कार्यरत


*पता* - एल.आई.जी. - सी6/25 आवास नगर देवास मध्यप्रदेश पिन - 455001


*मोबाईल एवं वाट्सप नम्बर* - 9826929480


ईमेल आईडी - surendrasinghrajput64@gmail.com 


*काव्य विधा* - व्यंग्य,गीत, मुक्तक, आलेख, लघुकथा, कहानी, संस्मरण आदि ।


*प्रसारण* - आकाशवाणी इंदौर 


(सिहंस्थ विशेष काव्य गोष्ठी), भास्कर न्यूज़ चैनल ( कवि दरबार काव्य कार्यक्रम में काव्य प्रसारण)


*प्रकाशन* -- अनेकों पत्र पत्रिकाओं में काव्य प्रकाशन 


एवं दस साझा संकलनों में 30 कविताओं का प्रकाशन 


1- कस्तूरी कंचन 2015 


( आगमन साहित्य संस्था नई दिल्ली )


2 - काव्यदीप - 2015 


( इंदौर साहित्य साग़र इंदौर )


3 - पुष्पगन्धा - 2016


( आगमन साहित्य संस्था नई दिल्ली )


4 - संवेदना के स्वर 2017 - गायत्री साहित्य संस्थान दिल्ली


5 - काव्य साग़र 2017 


( इंदौर साहित्य साग़र इंदौर )


6 - अनुभूतियों के स्वर 2018 - गायत्री साहित्य संस्थान दिल्ली 


7 - नई रोशनी नई पहल 2018 ( प्रजातंत्र का स्तम्भ प्रकाशन दौसा राजस्थान )


8 - काव्य रंग 2018 - इंदौर साहित्य साग़र इंदौर


*प्राप्त सम्मान* -- 


1 - शहीद सुरेन्द्र सिंह गोहिल काव्यांजलि सम्मान 2015 ( ऐनाबाद देवास )


2 - डॉ कविता किरण प्रतिभा सम्मान 2019 ( दिल्ली )


3 - स्व. प्यारसिंह राजपूत स्मृति सम्मान 2016 (गुराड़िया खरगोन)


4 - साहित्य सृजन सम्मान 2017 (क्रांतिधरा मेरठ )


5 - राष्ट्र गौरव सम्मान 2017 


( सुरभी साहित्य संस्था खंडवा )


6 - काव्यदूत साहित्य सम्मान 2018 


( इंदौर साहित्य साग़र इंदौर)


7 - कविरत्न सम्मान 2018 


(सुरभी साहित्य संस्था खंडवा)


8 - स्वतंत्र सम्मान 2018


( इंदौर साहित्य सागर इंदौर )


9 - प्रजातंत्र का स्तम्भ सम्मान 2018 (दौसा राजस्थान)


*दायित्व* -- (1)संस्कृति साहित्य रचनालय 'संसार' देवास में महासचिव पद का निर्वहन


 (2) श्री लक्ष्मी बाबूलाल पारमार्थिक ट्रस्ट देवास में प्रधान सचिव का दायित्व निर्वहन 


*गतिविधियाँ* - नेपाल सहित देश एवं प्रदेश के अनेकों नगरों में साहित्यिक कार्यक्रमों व कवि सम्मेलनों में भागीदारी ।


 भवदीय 


सुरेन्द्र सिंह राजपूत 'हमसफ़र'


देवास मध्यप्रदेश


 


मेरी पाँच कविताएँ निम्नानुसार हैं --


कविता क्रमांक ( 1 )


 


🌸 बच्चों के खेल 🌸


ज़माने के साथ ही 


अब बदल गए हैं बच्चों के खेल ।


वो दिन गए जब 


खेल बड़ा देते थे दिल के मेल ।


सुबह उठकर सीधे 


मैदान में दौड़ लगाया करते थे ।


दोस्तों को पाकर दिल के


कमल खिल जाया करते थे ।


फुटबॉल ,कबड्डी की 


टीमें बंट जाया करती थीं ।


पता ही नहीं चलता 


और दस बज जाया करती थी ।


जल्दी से घर भाग तैयार हो 


स्कूल जाते थे ।


शिक्षक के सम्मुख होते ही 


सिर झुक जाते थे ।


मस्ती ,आनन्द , 


ज्ञान , स्नेह सब मिलता था ।


ख़ुशियों से सराबोर 


वो जीवन चलता था ।


बदल गई है जीवनचर्या 


नये युग के आने से ।


बच्चों को सुख मिलता है


अब मोबाईल चलाने से ।


टी वी पर कार्टून देखते 


घण्टों बीत जाते हैं ।


मम्मी पापा कुछ बोलें 


तो उनको आँख दिखाते हैं ।


थोड़ी सी शिक्षा पाते ही 


गाड़ी मोबाईल लगता है ।


उसके बिना इस पीढ़ी का 


अब काम नहीं चलता है ।


कहाँ तक ज़िक्र करूँ मैं 


इस ज़माने की रफ़्तार का ।


बच्चों की नज़र में कोई मोल 


नहीं अब माँ बाप के प्यार का ।


"बच्चों के खेल" को अब 


मोबाईल निगल गया ।


दुनियाँ का हर खेल 


उन्हें मोबाईल में मिल गया ।


मेरे मोहल्ले का वो मैदान 


अब सूना नज़र आता है ।


जाने क्यों अब कोई बच्चा वहाँ


फुटबॉल खेलने नहीं जाता है....?


-- सुरेन्द्र सिंह राजपूत 'हमसफ़र'


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कविता क्रमांक ( 2 )


🌸 प्यासा पँछी 🌸


प्यासा मनवा, प्यासा पँछी 


भटक रहा संसार में ।


अपनी शरण में ले लो गुरुवर


चरणों के आधार में ।


अपनी शरण में.....


प्यासा मनवा......


 


लगता नहीं मन इस दुनियाँ में


कृपा आपकी मिल जाये ।


भव सागर में डोले नैया


उसको किनारा मिल जाये ।


 


पार लगा दो अब तो भगवन 


लेकर अपने दुलार में ।


अपनी शरण में ......


प्यासा मनवा.....


 


कोई नहीं जगत में अपना


समय ये कैसा आया है ।


नहीं सूझती राह किसी को 


अंधकार ये छाया है ।


 


उसका बेड़ा पार हुआ जो


डूबा आपके प्यार में ।


अपनी शरण में.....


प्यासा मनवा.....


 


बड़े दयालु आप हैं गुरुवर


सबको पार लगाया है ।


मिली आपकी भक्ति उसको


शरण आपकी आया है ।


 


अब न लगाओ देर गुरजी


भक्तों के उद्धार में ।


अपनी शरण में.....


प्यासा मनवा......


 


-- सुरेन्द्र सिंह राजपूत 'हमसफ़र'


देवास मध्यप्रदेश


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कविता क्रमांक ( 3 )


 


"कोरोना भगाना है"


 


सुनो भाईयों नारा ये


जन - जन तक पहुँचाना है ।


कोरोना हराना हमको 


कोरोना भगाना है ।


सुनो भाइयों नारा ये 


जन - जन तक पहुँचाना है ।


कोरोना हराना हमको 


कोरोना ........


 


महामारी है बड़ी ये घातक, 


दुनियाँ भर में फैली है ।


बढ़ती जाती है संक्रमण से,


नागिन बढ़ी विषैली है ।


इससे बचने के उपाय सब,


जनता को समझना है ।


कोरोना हराना हमको 


कोरोना भगाना है ।


सुनो भाइयों नारा ये 


जन - जन तक पहुँचाना है ।


कोरोना ..............


 


घर से बाहर कोई न जाये, 


न ही किसी से हाथ मिलाये ।


हाथों को साबुन से धोवें, 


मुँह पर अपने मास्क लगायें ।


निर्देशों का पालन करके 


ये समाज बचाना है ।


कोरोना हराना हमको 


कोरोना भगाना है ।


सुनो भाइयों नारा ये 


जन - जन तक पहुँचाना है 


कोरोना हराना हमको 


कोरोना ........


 


लॉक डाऊन है शहर हमारा, 


चीज़ ज़रूरी मिल जायेगी ।


जनता के सहयोग से भैया, 


बुरी घड़ी ये टल जायेगी ।


शासन के आदेश का पालन


करना और कराना है ।


कोरोना हराना हमको 


कोरोना भगाना है ।


सुनो भाईयों नारा ये 


जन - जन तक पहुँचाना है 


कोरोना हराना हमको


कोरोना ..................


--------0---------


-- सुरेन्द्र सिंह राजपूत 'हमसफ़र'


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कविता क्रमांक ( 4 )


 


🌸कल्याण करो माँ 🌸


 


हे जग जननी अम्बे माता 


इस जग का 'कल्याण करो' 


अखिल विश्व में रहे शांति 


'माँ' ऐसा वर प्रदान करो ।


हे जग जननी अम्बे माता


इस जग का ...............


 


त्राहि-त्राहि मची दुनियाँ में


महामारी ये कैसी आई ?


संक्रमण से बढ़ती जाती ,


इसकी नहीं है कोई दवाई ।


 


'कोरोना' को जड़ से मिटा दो


ऐसा कोई विधान करो ,


अखिल विश्व में रहे शांति 


'माँ' ऐसा वर प्रदान करो ।


हे जग जननी..............


 


सारी दुनियाँ करे उन्नति 


सारे जगत में खुशियाँ छाए ।


विश्व बन्धु की जगे भावना


भारत 'विश्व गुरु' कहलाए ।


 


सत्कर्मों की राह चलें सब


वही राह आसान करो ।


अखिल विश्व में रहे शांति 


'माँ' ऐसा वर प्रदान करो ।


हे जग जननी ............


 


रहे जगत में भाई चारा 


इक - दूजे से प्यार करें ।


राष्ट्र धर्म हो सबसे बढ़कर 


इस पर सब कुछ वार करें ।


 


जाति धर्म के भेद मिटाकर 


राष्ट्र धर्म निर्माण करो ।


अखिल विश्व में रहे शांति 


'माँ' ऐसा वर प्रदान करो ।


हे जग जननि ............


 


अखिल विश्व में रहे शांति 


'माँ' ऐसा वर प्रदान करो ।


हे जग जननी अम्बे माता 


इस जग ...................


 


-- सुरेन्द्र सिंह राजपूत 'हमसफ़र'


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कविता क्रमांक ( 5 )


 


देशभक्ति गीत 


 


🌸 मेरा भारत देश 🌸


इसी देश मे जन्म लिया है ,


खाया इसी देश का अन्न ।


फिर क्यों न कुर्बान करें हम,


इस पर अपना तन-मन-धन ।


इसी देश में .................


इसी देश में खेले- कूदे ,


इसी में हम सब हुए जवान ।


इसी देश में पाया सब कुछ,


इसकी धरती बड़ी महान ।


इसकी पावन मिट्टी को हम,


करते सौ - सौ बार नमन ।


इसी देश में ..............


इसकी महिमा अज़ब निराली,


साथ में मनाते ईद दिवाली । 


कल-कल करती बहती नदियाँ,


खेतों में रहती हरियाली ।


इसकी गाथा गाकर हम भी,


करलें अपना जीवन धन्य ।


इसी देश में ..............


इस पर जन्में वीर शिवाजी ,


इसी में महाराणा प्रताप ।


गौतम बुद्ध की पावन धरती,


मिट जाते सारे सन्ताप ।


इस पर जिसने जनम लिया है,


धन्य हुआ उसका जीवन ।


इसी देश में ..............


आओ मिलकर क़सम उठाएं,


आँच न इस पर आने पाए ।


आपस में सब एक रहें हम,


'वन्देमातरम' मिलकर गाएं ।


मोह नहीं हमको प्राणों का,


इसके लिए सब कुछ अर्पण ।


इसी देश में .................


--


 


 


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


 


तब बोलाइ नाथ निज माया।


कल्यानी कहँ स्वयं बताया।।


    कह कल्यानी तें भगवाना।


     ब्रज महँ जाउ न देर लगाना।।


तहँ रह जसुमति पत्नी नंदा।


रोहिनि अपि सँग रहहि अनंदा।।


   जदपि नंद कै पत्नी औरउ।


   कंसहिं भय बस रहँ बहु ठौरउ।।


अहहिं अनंत सेष मम अंसा।


गरभ देवकी कै जदुबंसा।।


    ताहि निकारि तहाँ तें डारउ।


    तुरत रोहिनी गर्भइ धारउ।।


अब मैं तुरत ग्यान-बल-जोगा।


देवकि-गरभ बसब संजोगा।।


    कर प्रबेस कल्यानी तुमहीं।


     जसुमति-गरभ सुता बनि अबहीं।।


तुम्ह समरथ हर बिधि कल्यानी।


मुहँ माँगा बर देवहु दानी।।


धूप-दीप-नैवेद्य-चढ़ावा।


पूजि तुमहिं जग हर सुख पावा।।


     बहु-बहु जगह,बहुत अस्थाना।


     तुमहिं थापि जन पूजिहैं नाना।।


दुर्गा-बिजया-कुमुदा-काली।


कृष्ना-मधवी-माया आली।।


     मातु सारदा औरु अंबिका।


     कन्या कहिहैं तुमहिं चंडिका।।


रहहू तुमहिं बैष्णवी रूपा।


नाम इसानी जगत अनूपा।।


     रही नरयनी तोरा नामा।


      पूजिहैं सभ जन तुम्हरो धामा।।


दोहा-गरभ देवकी खैंचि के,रोहिनि गर्भइ जाइ।


        लीहहिं जन्महिं सेष जब,संकर्षन कहलाइ।।


         रही नाम बलभद्र अपि,औरु नाम बलराम।


         बल-पौरुष जग जानही,संकर्षन बलधाम।।


                     डॉ0 हरिनाथ मिश्र


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश

एक गीत की तरह 


कोई आवाज़ आती है 


मीठी सी प्यारी सी 


कदाचित् वह कोयल है जो 


गीत गाती है 


हर सुबह हर शाम.........


 


जगाकर मेरे सुप्त हृदय को 


खो जाती है या 


छिप जाती है नीड़ में 


बस देखता रहता हूँ देर...तक 


उस छायादार बृक्ष को 


हर सुबह हर शाम...... ....


 


फिर जाती है नज़र 


सामने की खिड़की पर जो 


खुलती है ....फिर.....


बन्द हो जाती है..  


फिर खुलेगी जब......


मुझे नींद आने को होगी


देखता रहता हूँ उसी को 


हर सुबह हर शाम ...........


 


कितनी निष्ठावान है


वह कोयल वह चेहरा जो 


छिपाये हुए है हृदय में


कसक, वेदना और पीड़ा को 


और मैं.. ....चौंक पड़ता हूँ


ज़रा सी आहट पर 


कदाचित् वो.... आयें 


जोहता हूँ राह 


हर सुबह हर शाम..........


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त विवश


संगीता श्रीवास्तव सुमन

मद्धम मद्धम बारिश की इन बूंदों का कहना है 


भीगे बादल से मिलकर इन झरनों को झरना है |


आते जाते हर मौसम की पीड़ा को हरता हूँ  


मन की अगन बुझाने वाले मेघों का कहना है ||


 


रिमझिम रिमझिम जब ये सावन छूता है तन मन को 


पोर पोर सकुचाती वसुधा तकती है उपवन को |


उजली उजली सी हरितिमा नवश्रृँगार करती है 


साजन की यादों की बिंदी माथे पर रखती है ||


इंतज़ार की सब घड़ियों में मुझको ही रहना है


मद्धम मद्धम बारिश की इन बूंदों का कहना है ......


 


गड़गड़ करती बिजली जब घन घन में होड़ मचाती 


बारिश की छमछम में तब पायलिया शोर मचाती |


मतवाला कजरा बह बह जब करता है मनमानी 


भीगे मन की कँदराओं से टपके टप टप पानी ||


बैरागी मन भी अकुलाता जिसको तप सहना है 


मद्धम मद्धम बारिश की इन बूंदों का कहना है .....


 


फूलों की डाली बन झूले जब सखियों सँग कजरी 


महक महक जाती है गोरी अंग अंग भर कजरी। 


रंग बिरंगे फूलों पर यौवन कुछ इठलाता है 


बहती है जब पुरवाई हर सावन मधुमाता है |


चंचल शोख हवा के कानों ने रुनझुन पहना है  


मद्धम मद्धम बारिश की इन बूंदों का कहना है .....


 


@संगीता श्रीवास्तव सुमन


 छिंदवाड़ा मप्र


संगीता श्रीवास्तव सुमन

ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने ....


 


ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने ,


अवधपुरी के राम को , राम बनाया आपने | 


लीलाधर का खेल है , जग मोहित चहुँओर है ,


मनमोहक मुस्कान पर , काग भक्ति का शोर है |


मंगल उत्सव गान में , ख़ूब नचाया आपने ,


ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने |


 


राम भरत के प्रेम में , प्रेम भरत का ताज है ,


सीता हैं अनुगामिनी , प्रेम परीक्षा आज है |


राम नाम की धूम है , सजा अयोध्या धाम है ,


दीप दीप मिल जल रहे , राम जन्म अभिराम है ,


राम राम जप कर रहे , अलख़ जगाया आपने ,


ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने |


 


राम नाम जो भज रहा , ज़ाति पाति से और है ,


धरती सारी ही थमी , राम शरण ही ठौर है |


पश्चिम के भी सूर्य की , तुण्ड छटा श्री राम हैं ,


अपलक देख रही सृष्टि , दृश्य दृश्य ही राम हैं |


धर्म , नीति और ज्ञान को , ऐसे मिलाया आपने ,


ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने |


 


आज राम के धाम को , राम राज्य की चाह है ,


माटी ,पानी साथ ले , जनता उमड़ी राह है |


जैसे अड़चन लाँघते , महाबली हनुमान हैं , 


त्राहिमाम की इस घड़ी , रामलला वरदान हैं |


जग कल्याण निमित्त ही , हरि गुन गाया आपने ,


ऐसे कब हम जानते , चरित सजाया आपने |


 


@संगीता श्रीवास्तव सुमन


 छिंदवाड़ा मप्र


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

घर की हिलती दिवारें हैं 


आंख का पानी सूख गया है


सुख - दु:ख आना जाना है


अहंकार में सब डूब गया है।


 


यह जीवन एक बंजारा है


स्थिर को फिरता मारा मारा है


वर्तमान के सुख से देखो


सोच रहा सब स्थित हमारा है।


 


जिस दिन भिक्षुक हो जाओगे


धरे रह जायेंगे सब अहं, धन 


तब भावों को समझ पाओगे


कोई पास नहीं होगा सूनापन।


 


घर की मजूबत दिवारों को 


दीमक सा खुद ही चाल रहे 


कुटिल राजनीति के चालों से देखो


पानी पर पानी से पानी लिखते जा रहे।


 


जिसके इशारे से जग चलता है


सब रोता, सोता फिर हंसता है


आंखों के दुःख का खारा जल


अमृत की धारा सा बहता है।


 


भरा हुआ सब तुमको दिखता


अभिमानों में चूर हो गये हो


तुम्हें भरा अपना घर दिखता


खंडहर होने का समय हो गया हो।



    दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


     महराजगंज उत्तर प्रदेश।


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-32


 


माथ नवाय धरेयु गुरु-चरना।


सबद अघाइ जाइ नहिं बरना।।


   गुरु-पद कमल,राम जनु दिनकर।


   छुवन जासु पंकज-दल-हितकर।।


राम-लखन धयि दुइनउँ भाई।


गुरु बसिष्ठ उर लिए लगाई।।


    केवट दूरइ करै प्रनामा।


    तुरत बताइ के आपुन नामा।।


राम-लखन मिलि-मिलि सबहीं के।


कुसल-छेमु पूछहिं धयि-धयि के।।


    बिकल देखि मातुहिं श्री रामा।


    कहहिं बिकट बिरंचि करनामा।।


प्रथम प्रनाम कैकेई कीन्हा।


दोष सबहिं निज माथे लीन्हा।।


    करहिं प्रनाम अरुंधति माता।


    गुरु-पत्नी सँग मातुहिं नाता।।


तब प्रभु राम लखन के साथा।


मातु सुमित्रहिं टेके माथा।।


   अंत मिले निज मातु कौसल्या।


   हृदय जासु सागर बतसल्या।।


दोहा-लइ असीष निज मातु-गुरु,लखन सहित प्रभु राम।


       चले कुटी निज बट तरे, सीय तकहिं अबिराम ।।


तुरत धाइ सीता तब निकसीं।


जल-तर होइ दूब जस बिगसीं।।


    करहिं प्रनाम छूइ प्रभु-चरना।।


    लागहि रंक पाइ कोउ रतना।।


गुरु-माता कै लेइ असीषा।


सोध मुदित जनु कोउ मनीषा।।


   मगन-मुदित धरि आँचर माथे।


   सीता गईं सासु जहँ साथे।।


सासुन्ह देखि सीय सकुचाईं।


बेलि बिटप जल बिनु मुरझाईं।।


    पाइ असीष सुहाग अमर कै।


    सिय बिहंग मन उड़ै चहकि कै।।


चरन छूइ सभ सासुन्ह सीता।


लीं असीष अनुकूल सप्रीता।।


दोहा-सासु देहिं ढाढ़स सियहिं, कहहिं बहुत समुझाइ।


        धीरजु धरि सभ कछु सहउ,दैव लिखा न मेटाइ।।


        सभें बोलाइ बसिष्ठ तहँ, नमन बिरंचहिं कीन्ह।


        दसरथ-मरन बताइ के,धीरजु सभ जन दीन्ह।।


                     डॉ0 हरिनाथ मिश्र


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


तब बोलाइ नाथ निज माया।


कल्यानी कहँ स्वयं बताया।।


    कह कल्यानी तें भगवाना।


     ब्रज महँ जाउ न देर लगाना।।


तहँ रह रोहिनि पत्नी नंदा।


गोप-गऊ सँग रहहि अनंदा।।


   जदपि नंद कै पत्नी औरउ।


   कंसहिं भय बस रहँ बहु ठौरउ।।


अहहिं अनंत सेष मम अंसा।


गरभ देवकी कै जदुबंसा।।


    ताहि निकारि तहाँ तें डारउ।


    तुरत रोहिनी गर्भइ धारउ।।


अब मैं तुरत ग्यान-बल-जोगा।


देवकि-गरभ बसब संजोगा।।


    कर प्रबेस कल्यानी तुमहीं।


     जसुमति-गरभ सुता बनि अबहीं।।


तुम्ह समरथ हर बिधि कल्यानी।


मुहँ माँगा बर देवहु दानी।।


धूप-दीप-नैवेद्य-चढ़ावा।


पूजि तुमहिं जग हर सुख पावा।।


     बहु-बहु जगह,बहुत अस्थाना।


     तुमहिं थापि जन पूजिहैं नाना।।


दुर्गा-बिजया-कुमुदा-काली।


कृष्ना-मधवी-माया आली।।


     मातु सारदा औरु अंबिका।


     कन्या कहिहैं तुमहिं चंडिका।।


रहहू तुमहिं बैष्णवी रूपा।


नाम इसानी जगत अनूपा।।


     रही नरयनी तोरा नामा।


      पूजिहैं सभ जन तुम्हरो धामा।।


दोहा-गरभ देवकी खैंचि के,रोहिनि गर्भइ जाइ।


        लीहहिं जन्महिं सेष जब,संकर्षन कहलाइ।।


         रही नाम बलभद्र अपि,औरु नाम बलराम।


         बल-पौरुष जग जानही,संकर्षन बलधाम।।


                     डॉ0 हरिनाथ मिश्र


      


नूतन लाल साहू

मानवता ही धर्म 


पांच तत्व का बना शरीर 


धरती,गगन,जल,अग्नि,समीरा 


माया मोह का है,जंजीरा


किसी को सुख है,तो किसी को पीड़ा


सबसे पहले,तुम बेटा हो


तक़दीर हो, मां बाप का


अपना फर्ज भूल न जाना


मानवता ही धर्म है


कहीं की माटी,सोना उपजे


कहीं का माटी, सम्मान


कहीं की माटी,नेता उपजे


कहीं का माटी, फौजी जवान


ये कोरोना का कहर


सबको हिला दिया है


जो कभी न रोया हो


उनको भी रुला दिया है


फरिश्ता बन जा, दीन दुखियों का


मानवता ही धर्म है


सोच से ही, बुद्धि है


बुद्धि से ही,दृष्टि है


और दृष्टि से ही,सृष्टि है


पल में जीवन,पल में मृत्यु


पल पल परिवर्तन होता है


अनेकता में एकता,का नारा


हर कोई बहुत लगाते हैं


लोहा लेकर,वीर शहीदों ने


दी हमको,आजादी है


बम तोपो की होड़ मची है


नैतिकता घट आई है


देश भक्ति को छोड़ न जाना


मानवता ही धर्म है


छुरी भोकना सहज हुई हैं


पत्थर मारने का है, शौक


अभी तो प्यारे,अच्छा लग रहा है


पीछे होगी, पछतानी


आराम करना,हराम है


जीवन है, एक संग्राम


परहितकर,जीवन सफल बनाओ


मानवता ही धर्म है। 


 


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

रुलाती हैं यही आंखें हॅ॑साती हैं यही आॅ॑खें,


ख़ुशी या ग़म के आंसू हैं बताती हैं यही आॅ॑खें।


 


ज़रा तुम दूर ही रहना अधिक नज़दीक मत आना,


निशाना दूर तक हरदम लगाती हैं यही आॅ॑खें।


 


बड़ी मासूम लगती हैं मगर हैं तो नहीं वैसी,


सदा ही तीर आशिक़ पर चलाती हैं यही आॅ॑खें।


 


नहीं कोई है बच पाया नशे में ये डुबोती हैं,


कभी मदिरा,कभी प्याला तो साकी हैं यही आॅ॑खें।


 


भरा है प्यार इनमें तो भरी नफ़रत इन्हीं में है,


सुना है शूल राहों में बिछाती हैं यही आॅ॑खें।


            


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 रामबली मिश्र

वन्दनीय माँ का आदर हो


           


माँ के चरणों का वन्दन कर।


नित पूजन नित अभिनन्दन कर।।


 


नित गुणगायन करते रहना।


पारायण नित करते रहना।।


 


लिखते रहना उनपर कविता।


सदा बहाना लेखन-सरिता।।


 


लिये लेखनी भजन लिखो नित।


गा-गा भज अति मगन रहो नित।।


 


लिखते रह दोहा चौपाई।


करते रह माँ की सेवकाई।।


 


करो समर्पण खुद को माँ में।


लगा रहे मन विद्या माँ में।।।


 


माँ श्री को मत कभी छोड़ना।


नेह लगाये चलते रहना।।


 


माँ से सबकुछ तुझे मिलेगा।


काम दोश सब सहज मिटेगा।।


 


माँ-भक्ती विद्वत्ता देती।


दु:ख-दरिद्रता सब हर लेती।।


 


जो करता है माँ का ध्याना।


बन जाता वह स्वयं सुजाना।।


 


केवल माँ के संग रहो नित।


ज्ञान -गंग में स्नान करो निता।।


 


देख हंस नित बनो विवेकी।


ले वीणा सेवा कर जग की।।


 


पुस्तक पढ़ना पुस्तक लिखना।


कर में पुस्तक लिये चहकना।।


 


सर्व बनो सर्वत्र विचरना ।


बनकर पर्व पवित्र निखरना।।


 


सात्विक बनकर ब्रह्म लोक चल।


माँ सरस्वती धाम चलाचल ।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र


हरिहरपुरी 


संपूर्णानंद मिश्र

रंग बदल लेता है इंसान


   अपनी- अपनी


 जरूरतों के मुताबिक 


गिरगिट भी रंग बदलता है


      पर उसका


 रंग बदलना स्वाभाविक होता है


हार्मोनल होता है


 प्राकृतिक होता है 


     हां कभी- कभी


 अपनी जान बचाने के लिए 


 शत्रु- दल की आंखों में धूल 


झोंकने के लिए भी होता है


     मनुष्य ने 


   रंग परिवर्तन के


  इस रण में उसे 


   पछाड़ दिया है 


 चित कर दिया है 


  महि- समर में 


  वह निश्चेष्ट पड़ा है


  इस रंग परिवर्तन में खूब प्रशिक्षण प्राप्त किया है 


आनलाइन भी शिक्षित और प्रशिक्षित होता रहता है


   इतना रंग बदलता है 


   कि कोई भी खा जाता है धोखा


   नहीं पहचान पाता है उसके 


   वास्तविक रंग- रूप को 


प्रेम के मुखौटे में छिपे स्वार्थ के विकृत चेहरे की पहचान 


   नहीं कर पाता है


      निष्णात होता है 


     रंग परिवर्तन में 


       गढ़ लेता है 


   परिभाषा भी प्रेम की


     बिछा देता है


   जाल कुछ दानों के


    फंसा लेता है 


उन निश्चछल कबूतरों को 


 जो भूख की ख़ातिर


     हो जाते हैं अंधे


   नहीं देख पाते हैं 


प्रेम की मलाई में


 प्रच्छन्न अपनी मृत्यु को


और किसी क्रूर बहेलिए का


   बन जाते हैं शिकार 


 


संपूर्णानंद मिश्र


प्रयागराज फूलपुर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

लाये प्रभात एक प्यारा...


 


हरित पीत व रक्त श्याम


आभा से जग अभिराम


अनुपम सौंदर्य से संपूर्ण


रचा अवर्चनीय भव राम


 


वह ज्योति रवि सोम में


विखेर रही सौम्य प्रकाश


आल्हादित वन उपवन


कण कण में मृदुल हास


 


मन्द मन्द मुस्कान लिए


अंर्तमन में लेकर आशा


स्वर्ण रश्मियों से घिरकर


नव जीवन की प्रत्याशा


 


अंधकार ललकार रहीं 


नवल सृजनता का संदेश


रज रज में लिए दिव्यता      


हरि विधु व शिव का भेष


 


कोई परा शक्ति जिसने


ये अखिल ब्रह्मांड संवारा


वही शक्ति आ सत्य को


लाये प्रभात एक प्यारा।


 


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

गरआदमी 


गर आदमी न होता एहसान फ़रामोश,


 माना इसे न जाता जल्लाद कभी का।।


         गर जानती ये दुनिया क्या फ़र्ज़-ए-इंसान?


         होता लहू न इतना बरबाद सभी का ।।


                                    गर आदमी न होता....


ऋतु में,हवा ,फ़ज़ा में होता अगर वजूद,


होता चमन यक़ीनन आबाद कभी का।।


                             गर आदमी न होता....


       होता अगर जो मेल कभी तल्ख़ -मधुर का


       यक़ीनन ये तल्ख़ होता मधुर स्वाद कभी का।।


                               गर आदमी न होता....


होता अगर निशंक ज़माने में कोई यहाँ,


यक़ीनन,वतन ये होता आज़ाद कभी का।।


                    गर आदमी न होता....


होता नहीं गर धर्म का उन्माद जहाँ में।


तो मिलता इसे भी जन्नती प्रसाद कभी का।।


गर आदमी न होता.....।।


   © डॉ0 हरिनाथ मिश्र


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