संपूर्णानंद मिश्र

         खो देता है 


   बुद्धि, विवेक मनुष्य 


   प्राप्त करने में इसको‌ 


   रेत देता है गला संबंधों का भी


     बड़ी ताकत होती है पैसे में


      थमाई जाती है 


     असहाय बूढ़े हाथों 


    में लाठियां इसीलिए 


      ताकि कर दे


 एक हस्ताक्षर कांपते हाथों से 


बंट जाता है पिता पैसों की तरह 


नहीं मिल पाता है प्रेम किसी का 


नोचने लगते हैं अपने ही उसे 


मिली होती है माहुर प्रेम- बोल में


          सोखकर रस 


उड़ जाते हैं सारे पक्षी 


  अपने- अपने घोंसलों में


   एहसास होना चाहिए


     जहां उसे अपनों का 


 स्वार्थ की बू आने लगती है वहां 


 घुट घुट कर जीने लगता है 


       ढह जाती है 


उसकी उम्मीदें आखिरी


      आत्मजन के 


  स्वार्थ रूपी जे० सी० बी० से


  निकल जाना चाहता है शेष जीवन की तलाश में


ढूंढने लगता है मुट्ठी भर


     जमीन अपनी


    किसी बृद्धाश्रम में


खून से सींचता है जीवन भर


  जिस परिवार- वाटिका को 


      उजड़ता देखकर


अंधेरा छा जाता है सामने उसके 


     छल लिया जाता है 


     आत्मीय जन द्वारा   


    दम तोड़ देती हैं अन्ततः


   जीने की उसकी ख़्वाहिशें 


 


संपूर्णानंद मिश्र


प्रयागराज फूलपुर


सुनीता असीम

दिल हमारा आज हमको आजमाना होगा।


आरज़ू इसमें उठेंगी तो दबाना होगा।


 ***


दिख रहा जैसा नहीं होता है सदा वैसा ही।


हर बशर का इस जहां में इक फ़साना होगा।


***


दूसरों के हो रहें आगोश में उसकी तो।


सोचकर भी ये न तुमको फिर गवारा होगा।


***


जो मिटा दे दुख जमाने में सभी के सारे।


क्या कहीं ऐसा भी कोई तो तराना होगा।


***


प्यार होगा और हो बरसात खुशियों की बस।


सोचती हूँ मैं यही ऐसा जमाना होगा।


***


सुनीता असीम


संजय जैन

पूर्णिमा का चांद


 


कही दीप जल रहे है


तो कही छाय पढ़ रही है।


कही दिन निकल रहा है


तो कही रात हो रही है।


मोहब्बत करने वालो को


क्या फर्क पड़ता है।


क्योंकि उन दोनों के तो


दिल से दिल मिल गये है।।


 


पूर्णिमा के चांद का


कुछ अलग महत्व है।


चांदनी रात का भी 


विशेष महत्व है।


मिलते है जब वो


इस सफेद चांदनी 


चादर के ताले।


तो रात रानी के फूल


चारो तरफ खुशबू बिखेर देती है।।


 


देख तमाशा ये कामदेव भी


धरती पर मोती बिखर देते है।


और सच्चे प्रेमियों को


मोहब्बत के लिए बुलाते है।


और खुद कामदेव सारे बाग में सुंदरता फैलाते है।


और पूर्णिमा के चांद का 


रमणीय दृश्य सभी को दिखाते है।।


और लोगो को मोहब्बत करना सिखाते है। 


मोहब्बत करना सिखाते है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन (मुम्बई)


डॉ0 रामबली मिश्र

विश्व परिधि में घूमो नियमित


          मात्रा भार 13, 16


 


विश्व परिधि में भ्रमण कर,


अपना कर विस्तार निरंतर।


एक-एक को देखकर,


चलते रहना बनकर सुन्दर।


सबको अपना समझकर,


बढ़ते रहना बना धुरंधर।


करो कल्पना नित सुघर,


सदा घूमना बने मनोहर।


करना सबसे स्नेह,


अपने उर में सबको रखकर।


पावन भाव विचार से,


रहना सबका मन मोहित कर।


चेतन प्रभु सा नृत्य कर,


मोहित होना मेघ-श्याम पर ।


त्याग मंत्र का जाप कर,


चलो राम बनवासी बनकर।


सत्य अहिंसा प्रेम का,


कर प्रचार तुम बापू बनकर।


महा पुरुष की राह गह,


चलते रहना एक राह पर।


सदा विश्व पर ध्यान रख,


कर कल्याण दिखो शिवशंकर।


विश्व क्षितिज को चूम कर,


रहो केन्द्र पर घूम-घूमकर।


सदा पूछना हाल तुम,


सूरज चंदा तारा बनकर।


 


डॉ0रामबली मिश्र


हरिहरपुरी 


 


सुनील कुमार गुप्ता

       संस्कार


बचपन से मिलते सुसंस्कार,


मिटते सभी जीवन में-


मन छाये विकार।


सार्थक होता जीवन सारा,


महकता ख़ुशबू से-


सारा घर संसार।


संस्कारशील मानव पाता,


जीवन में अपने-


पग-पग ख़ुशियाँ अपार।


सद् संस्कारो से ही जीवन में,


महकती जीवन बगिया ,


मिलता अपनत्व-


अपनो का होता सत्कार।


सद् संस्कारो से ही तो साथी,


मिलता सम्मान-


सपने होते साकार।।"


 सुनील कुमार गुप्ता


डॉ निर्मला शर्मा 

वृद्धाश्रम


 जीवन के रंगमंच का 


आखिरी मंचन है वृद्धाश्रम 


जीवन काल का परिपक्व 


कालखंड है यह स्वशासन


क्या खोया ,क्या पाया, क्या था ?


जिसे मैं पूर्ण नहीं कर पाया


 एकाकी जीवन की चौखट पर


 मानसिक द्वंद्व का अंतर्द्वंद्व है 


गीता के ज्ञान का मिलता 


यहीं ज्ञान अवलंब है


 मानव जीवन के कष्ट से


 मिला मैं यहां जाना हर सत्य है 


विकल्पों का स्थान नहीं


 चलता यूँ ही जीवन है


 जीवन की पाठशाला का


यह भी मानो एक लंबा प्रसंग 


क्यों ??मैं प्रतीक्षारत हूं 


प्रतिध्वनियों के लिए


 नियम विज्ञान का 


जीवन में प्रतिध्वनित होता नहीं 


पानी के बुलबुले सी स्मृतियां 


बनकर मानो मिटती चली


 यादों की स्याही भी अब


 बह कर स्वतंत्र होने लगी


 चुभन भरी मन में


 कसक सी रहती है क्षण


  उसे जीवन का आधार बना


 उत्साह मैं स्वयं में भर लूं 


जीवन की आखरी शाम को


 जी भर कर जिंदादिली से जी लूं 


बढूं आगे अविरल 


क्यों देखूं पीछे मुड़कर 


खुशी पर किसी का पंजीकरण नहीं 


क्यों शुल्क भरुँ रोकर 


वृद्धाश्रम को कर्म क्षेत्र बनाकर


 क्यों ना चंद यादें सजा लूं 


अंतिम सफर में बढ़ते हुए 


स्वयं को प्रकाशमान सितारा बना लूं


 डॉ निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


निशा अतुल्य

ॐ गणपति नमो


प्रथम पूज्या


तुम बुद्धि प्रदाता 


दयावन्त हो।


 


गणपति हो


ॐ नमो नमः तुम्हें


सुख कर्ता हो 


 


दुःख हर्ता हो 


रिद्धि सिद्धि के स्वामी


गजानना हो ।


 


गौरी नँदन


हैं चार भुजा धारी


तुमको ध्याएँ ।


 


लम्बोदराय


मोदक अति प्यारे


भोग लगाऊँ ।


 


भाल चंदन 


सजे पिताम्बराय 


मूसा सवारी ।


 


नमन करें


कर जोड़ वंदन


जय तुम्हारी 


 


घर विराजो 


करो पूर्ण कामना


प्रभु हमारी ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

मीत सुलभ नवनीत कहँ , चले मनुज दुर्नीति।


तृष्णा अपरम्पार जग , दुर्लभ प्रकृति प्रीति।।१।।


 


शोक चिन्तना कवि सलभ , ध्रुव कोराना आज।


जब तक टीका न बने, पड़े काल की गाज।।२।।


 


रहें गेह में संयमित, कोरोना के काल।


आयुर्वेदिक चिकित्सा , रखे सभी खुशहाल।।३


 


मास्क बनाये घर स्वयं , लगा लगाएँ आप।


बचे पित्त अरु कफ़ से , दूरी मेल मिलाप।।४


 


धोएँ साबुन हाथ को , दिन में वारम्बार।


कोरोना से ख़ुद स्वयं , करें नियम उपचार।।५


 


मनुज शत्रु है स्वयं का , चले स्वार्थ के राह। 


खटमल पिस्सू जोंक सब,चूस प्रकृति रस चाह।।६।।


 


अवसादन अनिवार्य है , प्रकृति बनी अब कुप्त।


कोरोना अभिशाप बन, करे मनुज को सुप्त।।७।।


 


धन लालच में जग पड़ा , काट रहा है वृक्ष।


नदी पोखर सागर गिरि , आहत नभ अन्तरिक्ष।।८।।


 


बाढ़ भूस्खलन आपदा , भूकम्पन तूफान। 


वज्रपात हर व्याधियाँ , समझ प्रकृति अपमान।।९।।


 


लाखों लाशें बिछ रही, उजड़ा सुखद निकुंज।


मातम जग छायी हुई , मौन पड़ी अलिगूंज।।१०।।


 


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित)


नवदेहली


डॉ बीके शर्मा 

कौन हो तुम


 


इस ओर से 


उस छोर तक 


कर देती 


मुझको विचलित


देती दिल 


झकझोर तक 


कौन !


कौन हो तुम ?


 


भू से लेकर 


घनघोर तक 


करती उर मैं 


पायल सा शोर तक


एक कोर से 


एक कोर तक


कौन !


कौन हो तुम ?


 


शाम से लेकर 


भोर तक


सांसो की चलती 


डोर तक 


कर देती मुझको


चितचोर तक 


कौन!


कौन हो तुम है ?


 


है खोजता 


कोई तुम को 


इस छोर से 


उस छोर तक 


फैला अपने पंख 


सागर की हिलोरे तक 


कर देती मुझे


कमजोर तक 


आखिर 


कौन!


कौन हो तुम ?


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार लवी सिंह 


असिस्टेंट प्रोफ़ेसर 


शिक्षा विभाग 


इनवर्टीस विश्वविद्यालय


 


समाज सेविका


अध्यक्ष 


उम्मीद एक नया सवेरा वेल्फेयर सोसाइटी 


 


यूथ को-ऑर्डिनेटर 


बरेली


मानव उत्थान सेवा समिति 


 


पता:-


ग्राम- चराई डांडी 


पो- मुंडिया नबी बक्श 


तह- बहेड़ी 


जि- बरेली 


उत्तर प्रदेश 


पिन कोड- 243201


 


मेरी कलम से....


 


कविता 1-


कुछ हसेंगे तुम पर,


और कुछ दर्द बढ़ाएँगे,


ये बोलकर कि वो तुम्हें


ढाँढस बंधाएंगे,


कुरेदेंगे तुम्हारे ज़ख्मों को,


शब्दों के तीखे बाणो से,


अपने दो घड़ियाली आँसू दिखाकर,


तुमको बहुत रुलायेंगे।


पूछेंगे फिर वो अश्क तुम्हारे,


और तुम्हें झूठी दिलासा देकर


अहसानमंद कर जाएंगे।


 


2-


अपने ही अक्सर हार का कारण बन जाते हैं, 


कभी न भरने वाले घाव वो तुमको दे जाते हैं।


 


यूँ तो रखते हैं कंधे पर वो हाथ तुम्हारे,


और पीछे से पीठ पर चाकू भी,वो ही चलाते हैं।


 


दुनिया के रंज-ओ-गम से तो उभर आओगे,


अपनों के दिए दर्द हर पल रुलाते हैं।


 


3-


कैसी ये उदासी है.....


होली के रंग भी सब बेरंग से हैं 


जज़्बात मेरे कुछ बेढंग से हैं, 


यूँ तो दुनिया की भीड़ में हूँ 


फिर भी दिलो-दिमाग में चल रहे....


तेरे खयाल किसी मैदान-ए-जंग से हैं।


तेरे चले जाने का गम नहीं मुझको 


चूँकि तेरी खुशी में ही मेरी खुशी है,


हाँ अफसोस है तुझे खो देने का.... 


दुख है अब तन्हा रहने का,


पर...सुकून.. कि तू खुश है। 


 


4-


रिश्तों को बनाना जितना आसान है,


निभाना उतना ही कठिन,


चूंकि बनाने में बस लम्हा लगता है


और निभाने में पूरी उम्र बीत जाती है।


 


पर........


 


अगर रिश्ता बनाया है,तो निभाना सीखो।


वक़्त चाहते हो,तो वक़्त देना सीखो।


रिश्तों में आयी दरार को मिटाना सीखो।


माना कि गम बहुत हैं,पर जीत इसी में है,


कि गम में भी मुस्कुराना सीखो।


 


5-


अब तू ही बता......


कि तुझसे मोहब्बत करुँ भी तो कैसे करुँ 


कोई तेरा बन गया,तू भी उसी का हो गया 


मैं तेरी बन के रहूँ भी तो कैसे रहूँ l


अब तू ही बता......


कि तेरे साथ चलूँ भी तो कैसे चलूँ 


तू ने हाथ किसी का थाम के रास्ता बदल लिया


मैं सफ़र को पूरा करुँ भी तो कैसे करूँ।


अब तू ही बता......


कि तेरे संग ज़िन्दगी जियुँ भी तो कैसे जियुँ 


तू ने साँसों को अपनी किसी के नाम कर दिया 


मैं जिंदा रहूँ भी तो कैसे रहूँ l 


अब तू ही बता.......


कि तुझे छोड़कर चली भी जाऊँ अगर 


तो खुदकशी करना गुनाह है मेरे मज़हब में 


मैं मरूं भी तो कैसे मरूं।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय

सत्य हृदय में युगलरूप..


 


बिन तेरे कौंन हमारा,बस तेरा एक सहारा।


युगलरूप के दर्शन से,बहे भक्ति की धारा।।


 


प्रकृति का जर्रा जर्रा,तेरी शक्ति से महके।


तेरी अवर्चनीयता से,जड़ चेतन सब चहके।।


 


सहस्र कमल सा सौंदर्य, सौम्य कांति तेरी।


राधा बल्लभ मुरलीधर, तुमसे प्रीति घनेरी।।


 


 


पद्मनाभ हे कमलकांति, कृपा बर्षाये रखना।


सत्य हृदय में युगलरूप, बिम्ब बनाये रखना।।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ. निर्मला शर्मा

( बाल कविता)        


वायरस


 


वायरस वायरस वायरस वायरस


जीवन का इसने छीना रस


सोना उठना खेल पढ़ाई


वायरस ने सब बन्द कराई


सारा दिन मोबाइल देखूं


पढूँ बैठ पर गेम न देखूँ


मन मेरा हर पल ललचाता


बाहर खेलूँ मचल वो जाता


लेकिन वायरस फिर आ जाता


कहता आओ मुझे चिढ़ाता


दोस्त सखा स्कूल भी छूटा


कैसा ये तारा है टूटा


सब कुछ लगता मुझ से रूठा


जीवन का हर सुख है छूटा


बैठ के मैं सोचूँ हर पल


वायरस का कैसे निकले हल???


डॉ. निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


संपूर्णानंद मिश्र

    तोड़ देती है


 


   टूट जाता है


 आदमी भूख के ज़्वर से 


   यह ख़तरनाक है 


    शरीर के ज़्वर  


  से बहुत ज़्यादा


   उतर जाता है 


सामान्य ज़्वर कुछ दिनों में ही 


हालांकि शरीर को


 यह भी तोड़ता है


लेकिन भूख तो


 कोमल- चित्त पर 


  हमला करता है


अंतर्मन तोड़ता है


गहरा घाव कर देता है 


दिल और दिमाग दोनों में 


    नष्ट कर देता है विवेक को


संज्ञाशून्य हो जाता है व्यक्ति 


  पार कर जाता 


     लक्ष्मण- रेखा 


अपने ही सिद्धांतों की       


मुफ़लिसी बड़े- बड़े 


साधकों को तोड़ देती है


  धर्म और अधर्म को 


  नहीं चीन्ह पाता है


 सिद्धहस्त संन्यासी भी 


 नीलाम कर देता है अपनी आत्मा को सरे-आम


    पेट की आग बुझाने के लिए


    चक्रधर जैसा ज्ञानी


 आत्मबिक्रेता हो जाता है


   चापलूसी का नर्तन


 करने लगता है दर्पी सम्राटों के 


  ईश्वर से भी ज़्यादा


 दयालु बताता है उन्हें 


मिथ्या- प्रशंसा के हथियार से लूट लेता ऐसे नृपों को 


यह भूख सब कुछ कराती है सामुद्रिक आग से


 भी ख़तरनाक होती है यह


 खा जाती है अपने ही अंडे को भूखी नागिन 


  नहीं बिचार कर पाती है 


   जन्या हूं इसकी मैं ही 


कोई ब्रहृमज्ञानी 


सुदामा जैसा ही    


बचा पाता है


 अपने को इस लपट से


   नारायण की इच्छा समझ 


    संतोष कर लेता है 


चावल के एक दाने से ही 


 


   संपूर्णानंद मिश्र


  प्रयागराज फूलपुर


  7458994874


सुनील कुमार गुप्ता

-दुनियाँ नई बसाते


कुछ तो होता जीवन में,


जिसको-फिर अपना कहते?


सुख की शीतल छाँव संग,


दर्द भी तुम यहाँ सहते।।


भूल जाते स्वार्थ अपना,


अपनो का संग निभाते।


परोपकार संग जग में,


साथी तुम कदम बढ़ाते।।


काँटे चुभते जिस पथ पर,


वहाँ फूल तुम्ही खिलाते।


कटुता न छाती फिर मन में,


तुम दुनियाँ नई बसाते।।


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

          सरिता


 


कल -कल कल-कल बहती सरिता,


                   दो पाटों के बीच।


बड़े प्रेम से जगह-जगह वो,


                    रही धरा को सींच। 


 


निकली पर्वत माला से है,


                   जाना सागर पास।


सहती लाखों कठिनाई पर,


                    होती नहीं उदास।


 


राह बनाते चलती है वो,


                 बिना किसी हथियार।


कहीं उछलती गिरे कहीं पर,


                   बनकर पतली धार।


 


विमुख लक्ष्य से कभी न होती,


                 सहकर कष्ट हजार।


 मिलती है साजन से जाकर,


                 साजन के ही द्वार।


 


रुकती नहीं कहीं वो पल भर,


                    बहती है दिन-रात।


समय सरीखे है सरिता भी,


                  सच मानो तुम तात।


 


नहीं माॅ॑गती कभी किसी से,


                      बाॅ॑टे दोनों हाथ।


प्यास बुझाए जीव-धरा की,


                   चलकर देखो साथ।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ. निर्मला शर्मा

जहाँ चाह वहाँ राह


 जहां चाह है वहां राह है 


कहते हैं सब दुनिया वाले


इंसान अगर ठाने जो मन में


 क्या है जो वह कर ना डालें


 सुविधाओं का अभाव रहेगा


 लक्ष्य मगर फिर भी ना डिगेगा


 कितनी भी ऊंची हो पहाड़ी


 पुरुषार्थ से रास्ता भी बनेगा 


चाहे कितनी गहरी हो नदियां


 निकलने का विकल्प वहां भी बनेगा


 कठिन डगर हो जीवन की जब


मानव करे जतन हर सम्भव


असम्भव को सम्भव वो बनादे


आसमान को चीर दिखादे


 जहां चाह है वहां राह है


 कहते नहीं ऐसे ही अनुभवी 


जीवन का है बड़ा फलसफा


रखो विश्वास का दिया जलाकर


डॉ. निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां वीणा धारणी वरदे


********************


हे मां वीणा धारणी वरदे


कला की देवी इस जीवन को


सुन्दरता से सुखमय कर दो


अपने अशीष की छाया से


मेरा जीवन मंगलमय कर दो।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


सरस सुधाकर शुभ वाणी से


अखिल विश्व को आलोकित कर दो


बुद्धि विवेक ज्ञान प्रकाश सबको देकर


सबका जीवन मंगलमय कर दो।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


तेरे चरणों में आकर मां


विश्वास का सम्बल मिलता है


जिस पर भी तुम करुणा करती हो


उसका जीवन धन-धान्य हो जाता है।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


 डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-3


 


माया लइ आयसु भगवाना।


पृथ्बी-लोकहि किया पयाना।।


    देवकि-गरभ खैंचि कल्यानी।


    उदर रोहिनी रखा भवानी।।


पुरवासी बड़ चिंतित भयऊ।


देवकि-गरभ नष्ट जे रहऊ।।


     भगतन्ह अभय करहिं भगवाना।


      हर बिधि नाथ करैं कल्याना।।


सकल कला सँग प्रबिसे नाथा।


मन बसुदेवहिं लइ निज गाथा।।


     रबि इव चमकि उठे बसुदेवा।


     भगवत ज्योति-तेज जे लेवा।।


बल-बुधि-बानी अतुल प्रभावा।


स्वयं प्रभू के बासू पावा ।।


    अरपेयु बासू प्रभु कै अंसा।


     देवकि-गरभ कृष्न जदुबंसा।।


प्राची दिसा चंद्र जस धारै।


गरभ देवकी अंस सम्हारै।।


     जे प्रभु सकल लोक कै बासा।


     बनी देवकी तासु निवासा।।


जस खल ग्यान-प्रकास न बाढ़इ।


जस घट दीप-जोति रह ठाढ़इ।।


वस नहिं बाढ़ै आभा-जोती।


जेलहि कंस देवकी सोती।।


   देवकि-मुख-मंडल-मुस्काना।


   प्रभु-आभा कंसइ पहिचाना।।


कहा मनहिंमन चिंतित कंसा।


जनु ई अहहि बिष्नु कै अंसा।।


    यहि तें बंदीगृह उजियारा।


     अब नहिं रहहि इहाँ अँधियारा।।


अवा देवकी गर्भहिं अंदर।


ग्राहक प्रानहिं मोर भयंकर।।


   लगा सोचने बिबिध उपाया।


   पर नहिं तासु बुद्धि कछु आया।।


सोरठा-लगा सोचने कंस, बचै प्रान अब मोर कस।


गर्भहिं बिसनू अंस,बधइ देवकी नहिं उचित।।


मिले अपजसहिं मोंहि,नारि गर्भिनी जदि बधहुँ।


नाम कलंकी होंहि,स्वारथ बस जदि बध करहुँ।।


               डॉ0 हरि नाथ मिश्र


               


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-33


 


सुनि पितु-मरन लखन-रघुनाथा।


सीय सहित सोचहिं धयि माथा।।


    झर-झर बहै दृगन तें आँसू।


     प्रभु-गति लखि सभ भए उदासू।।


सीय-लखन-गति बरनि न जाए।


जस हिमपात सस्य मुरुझाए।।


     मातुन्ह सजल भए सभ नैना।


     रुधित कंठ नहिं निकसै बैना।।


तब बसिष्ठ गुरु आयो उहवाँ।


छाय रहा बिषाद बहु जहवाँ।।


     कह रामहिं तुम्ह जानउ बिधिना।


      मिथ्या जगत बिरंचिहिं रचना।।


तुमहिं राम सर्बग्य गियानी।


सत्य-असत्य तुमहिं पहिचानी।।


     कब का होहि राम तुम्ह जानहि।


     काल गर्भ तव आयसु धारहि।।


धरि हिय धीर उठहु रघुबीरा।


मेटहु तुरत सबहिं कै पीरा।।


     सुनि गुरु-बचन उठे रघुनाथा।


     कर जोरे अवनत निज माथा।


निजकुल सँग तब करि असनाना।


कियो कर्म सभ पितु बिधि नाना।।


    गुरु बसिष्ठ जस आयसु देवहीं।


   निज पितु श्राद्ध राम वस करहीं।।


श्राद्ध बाद जब दुइ दिन बीता।


राम कहे तब गुरुहिं सभीता।।


    अवधपुरी अब सूनी होई।


    नाथ उहाँ पितु सुरपुर सोई।।


कैइसे चलै राज कै काजा।


आए भरतहिं सकल समाजा।।


     कंद-मूल-फल सबहिं न भाए।


     बन-यापन नहिं सबहिं सुहाए।।


नाथ मोर बस इहइ निवेदन।


पुरी जाहु सभ छाँड़ि तुरत बन।।


    अवधपुरी कै होय अकाजा।


    कैइसे चलै राज बिनु राजा।।


सभ समुझाइ जाहु मुनि नाथा।


कासे कहहुँ नाथ निज गाथा।।


    तुम्ह जानउ सभ बातिन्ह नीका।


    करउ नाथ भरतहिं कै टीका।।


सोरठा-सुनि रघुबर कै बात,भए बिकल पुरबासिहीं।


            मन न अबहिं आघात,कामद-गिरि-सोभा निरखि।।


 


                        डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                         


     


    काल गर्भ तव आयसु धारहि।।


नूतन लाल साहू

प्रेम का जीवन में महत्व


 


प्रेम बिना सुख चैन कहा,जीवन में


चाहे कर लो,लाख उपाय


ढाई अक्षर प्रेम,पढ़े तो


जीवन, पारस पत्थर बन जाय


स्वारत रत,इस संसार में


प्रेम रतन धन है, सार


प्यारे प्रभु से,प्रेम करे यदि


तो उतरै, भव पार


प्रेम बिना सुख चैन कहा,जीवन में


चाहे कर लो, लाख उपाय


ढाई अक्षर प्रेम, पढ़े तो


जीवन, पारस पत्थर,बन जाय


लख चौरासी,भोग के आया


बड़े भाग,मानुष तन पाया


चाहता जो परम सुख तो


करो हरि का,भजन प्यारे


प्रेम बिना सुख चैन कहा,जीवन में


चाहे कर लो, लाख उपाय


ढाई अक्षर प्रेम, पढ़े तो


जीवन, पारस पत्थर,बन जाय


प्रेम की है,अदभुत सौगात


प्रेम से बन जाती है,बात


है विचित्र, इसका गणित


जितनी हम बांटे इसे,उतना ही बढ़ता है संयोग


प्रेम बिना सुख चैन कहा,जीवन में


चाहे कर लो, लाख उपाय


ढाई अक्षर प्रेम, पढ़े तो


जीवन,पारस पत्थर बन जाय


यह दोष है,अपने कर्मो का


अथवा कहिएगा,भाग्य हीन


सब कुछ पाया हमने लेकिन


प्रेम का रहस्य,समझ न पाया


प्रेम बिना सुख चैन कहा,जीवन में


चाहे कर लो, लाख उपाय


ढाई अक्षर प्रेम, पढ़े तो


जीवन,पारस पत्थर बन जाय


नूतन लाल साहू


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

शीर्षकः इठलाती यौवन 


 


गंगा सम निर्मल पावन मुख,


चन्द्रप्रभा शीतल कान्ति मुखर।


नव अरुणिम अस्मित मधुराधर,


कमलनैन पाटल तनु सुन्दर।। 


 


लहराती गुम्फ़ित वेणी यह,


काली काली मतवाली शिखर।


नखशिख सुडौल सागर कपाल,


अभिनव लतिका कृश गात्र कमर।।


 


मतिवाली गति नितम्ब गज सम, 


रुनझन खनक घुंघरू पायल।


पहन चूड़ियाँ खनकाती कर, 


इठलाती यौवन चंचल चितवन।।


 


बिम्बाधर मुख कुसमित कपोल,


सम विन्ध्य हिमाद्रि वक्षस्थल।


दूज चन्द्रहास सुभाष मृदुल,


नव प्रीति हृदय उद्गार नवल।।  


 


अनुराग मनसि रमणीय प्रियम,


दिलदार बलम गुलज़ार चमन।


अभिलाष मिलन सपने चितवन,


आभास प्रियम आलिंगित तन।।


 


अलिगान चारु कुसमित कानन।


मधुपान रसिक रसराज प्रियम।


दमकी दामिनि आगत सावन,


लखि विरह प्रिया बरसा नभ घन।।


 


साजन सजनी अभिसार मुदित,


सोलह शृङ्गार मुग्धा हर्षित। 


नक्षत्र जटित परिधान भूषित,


निशिचन्द्र प्रिया मुख देख चकित।।  


 


भींगी काया घनघोर वृष्टि,


रमणी मधुशाला शुभ दर्शन।


एकांग वसन विधिलेख सृष्टि,


किसलय कोमल सरोज वदन।। 


 


पुलकित निकुंज मधुमास प्रिये,


गन्धमाद कुसुम सम भाव हिये।


सम लवंग लता तन्वी लचके,


जीवन मधुवन अभिराम धिये।।  


 


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित) 


नई दिल्ली


एस के कपूर श्री हंस

कुछ ऐसा करो कि जीवन यादों


की सौगात बन जाये।।


 


सफर में मुश्किलें चाहे


हज़ार क्यों न हों।


रास्तों में तकलीफों की


भरमार क्यों न हो।।


धारा के विपरीत ही तो


है चलना परीक्षा।


फिर चाहे कठनाईयों की


ही बौछार क्यों न हो।।


 


एक दिन तेरा भी जीवन


अतीत हो जायेगा।


होंगें कर्म अच्छे तो यादों


का गीत हो जायेगा।।


रहेगा घात प्रतिघात ही


जीवन में सदा।


बस मिलकर जमीं में मिट्टी


सा प्रतीत हो जायेगा।।


 


बनोगेअच्छे तो एक अनमोल


सौगात हो जायोगे।


बाद जीवन के भी तुम यादों


की बारात हो जायोगे।।


रहेगा जब जीवन में नफरतों 


का कुछ घाल मेल।


जान लो तुम फिर एक भूली


बिसरी बात हो जायोगे।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


विनय साग़र जायसवाल

पिलाओ जाम कोई हौसला बढ़ाने को


मैं जा रहा हूँ मुक़द्दर नया बनाने को


 


ख़ुलूसो-प्यार ज़रा एहतराम से मिलिये


बहार आई है जलवे हसीं लुटाने को


 


तुम्हारा प्यार ही है ज़िंदगी का सरमाया


हज़ार ख़ुशियाँ लुटा दूँ तुम्हें मनाने को


 


तुम्हें था कबसे मेरा इंतज़ार यह माना 


कि एक फोन ही करते कभी बुलाने को


 


ज़माने तुझसे शिकायत करूँ तो किस खातिर


किसी का प्यार ही काफी है मुस्कुराने को 


 


उसी की बात पे दुनिया ये सर झुकायेगी


दिखा रहा है जो इक रौशनी ज़माने को 


 


ये दूरियाँ हैं मुक़द्दर में किस कदर *साग़र* 


तड़प रहा हूँ गले से तुम्हें लगाने को 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ बीके शर्मा 

रुकने से तो अच्छा है 


फिर से पथ पर चल जाना


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पल-पल जलने से अच्छा है 


एक दिन का जल जाना 


रुकने से तो अच्छा है


फिर से पथ पर चल जाना -1


 


कौन बड़ा है कौन है छोटा


कौन है नीचे कौन है ऊंचा


इस जगती में जो भी आया


आज नहीं तो कल है जाना


रुकने से तो अच्छा है 


फिर से पथ पर चल जाना-2


 


 व्यर्थ यहां सब मदमाते 


एक दूजे पर दोष लगाते 


क्षण भर का यह यौवन है 


आज नहीं तो कल ढल जाना 


रुकने से तो अच्छा है 


फिर से पथ पर चल जाना-3


 


नहीं चाहते हम आक्रोश क्रांति 


सबको चाहिए अमन शांति


ना हो फिर से कोई महाभारत


हम चाहते हैं युद्धों का टल जना 


रुकने से तो अच्छा है


फिर से पथ पर चल जाना-4


 


यहां जीने का अधिकार सभी को 


यहां प्रकृति का यहां प्यार सभी को 


पृथक राग में भी सीखो तुम 


फिर से आपस में मिल जाना 


रुकने से तो अच्छा है 


फिर से पथ पर चल जाना -5


 


 


डॉ बीके शर्मा 


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


9828863402


कालिका प्रसाद सेमवाल

स्नेह की मधुर बयार हो


******************


स्नेह की मधुर बयार में 


पला प्रिये,


वियोग दीप में लिपट,


पतंग सा जला प्रिये।


चूमती धरा किरण उठी 


निहारती,


 


झूमती निशा गई उतारती 


आरती,


डोलती है मन्द वायु 


बोलती पपीहरी,


खोलती सुगंधि कोष 


मालती मनोहरी।


 


किन्तु दूर दूर मैं


उदास भाव से भरा,


वियोग धूप में सदा


तुषार सा गला प्रिये।


पास तुम रहो ,भले ही 


दूर आसमान हो,


प्रसन्न तुम रहो, भले ही 


रूठना जहां हो,


एक सूत में बंधे रहें,


विलग न प्राण हो,


चला रहे मनुष्य जब


कुचक्र के ही वाण हो।


 


रोम -रोम में भरी 


मधुर अनन्त कामना,


किन्तु दूर -दूर 


कौन जी सका भला प्रिये।।


*******************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


पिनकोड 246171


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