कुं जीतेश मिश्रा शिवांगी

कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते ।


कुछ सुनते तुम दुख दर्द मेरे कुछ अपने हिय की कह लेते ।।


 


तुम प्रेम की नदिया बनकर के मधुरिम सा राग बजा देते ।


मैं बहती कहीं लहर बनकर तुम खुद में हमें बसा लेते ।।


बनकर के अनोखा संगम ये परिभाषा प्रेम की गढ़ देता ।


मिलकर के हम इक दूजे से स्वछन्द धरा पे बह लेते ।।


 


कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते । (१)


 


पथरीली राहों पर चलकर गर कंटक भी आकर मिलते ।


वो साथ हमें पाकर पथ पर कंटक भी सुमन के ज्यों खिलते ।।


अर्धांग मेरे बनते यदि तुम अर्धांगिनी तेरी हो जाती ।


नयनों से अश्क बहें चाहे जो भी हो सितम मिल सह लेते ।।


 


कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते ।। (२)


 


लाते जो किनारे पर हमको इक पास किनारा कर लेते ।


हम हाथ थाम करके तेरा जीवन का सहारा कर लेते ।।


तुम बिखरो यदि तो सम्भालूँ मै इतना अधिकार हमें देना ।


इक दूजे के हो सहारे हम खुशियों को हमारा कर लेते ।।


 


कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते ।। (३)


 


कुं जीतेश मिश्रा शिवांगी


धौरहरा लखीमपुर खीरी


उत्तर प्रदेश


सुनीता असीम

देखा जो रौद्र रूप तेरा मैं सिहर गई।


करना नहीं था काम मुझे वो ही कर गई।


***


दिल तक उतर गई थी मुहब्बत की तिश्नगी।


लगती रही थी बात बुरी ये सुधर गई।


***


मुंह को फुला रखा था जमाने से आपने।


ये बात सोचने में मेरी शब सहर गई।


***


रिश्ता निभा रही थी मैं जी जान से सदा।


लेकिन मेरी कभी पे ही तेरी नज़र गई।


***


उस प्यार की चढ़ी थी ख़ुमारी घड़ी घड़ी।


वो रात से शुरू हुई सुबहा उतर गई।


***


सुनीता असीम


संजय जैन मुम्बई

न कोई मेरा है 


न ही में किसका।


आया हूँ में अकेला


तो अकेला ही जाऊंगा।


तो फिर क्यों किसी से


बनाये हम यहाँ संबंध।


सभी की सोच नहीं होती 


लोगो मेरे जैसी।


कितना जीना है हमको


और कब हम मर जायेंगे।


किसी को भी ये बाते 


जिंदगी की पता नहीं होती।


इसलिए तो हर इंसान 


जीवन जीता है मस्ती से।


और सारे यश आरामो को


भोगता अपने जीवन में।


यदि जीने मरने का समय


पता चल जाएगा उसको।


तो जिंदगी मस्ती से जीयेगा


या समय से पहले मर जायेगा।


विधाता ने यही तो राज


सभी से छुपा के रखा है।


और सभी की जिंदगी को


संसार में उलझा रखा है।


इसलिए उस चक्र में


सभी लोग जीते है।


और कुछ अच्छे तो 


कुछ बुरे कर्म वो करते है।


तभी तो स्वर्ग नरक को


सभी यही पर भोगते है।


जो समझ जाता है मानव धर्म 


वो अच्छे से जीवन जीता है।


तभी तो वो दान दया के 


 पथ पर चलता है।


और अपना अगला भव


यही पर निश्चित करता है।


और संसार में अकेला 


आता और जाता है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन मुम्बई


सुनील कुमार गुप्ता

 मान भी जाओ


 


कौन -अपना बेगाना यहाँ,


अब जीवन में -


जान भी जाओ।


अपने तो अपने होते साथी,


जीवन में अपने तुम-


साथी मान भी जाओ।


साथी साथी हो तुम साथी,


अब तो तुम-


सच मान भी जाओ।


अनबुझी पहेली है जीवन,


अब तो साथी -


इसको जान भी जाओं।


कल से आज और आज से कल,


बेहतर होगा जीवन में-


ये अब मान भी जाओ।


सद्कर्म और प्रभु भक्ति से,


मिलेगी शांति मन को-


साथी ये मान भी जाओ।।


 सुनील कुमार गुप्ता


 


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

हाथ-पाँव ढीले हुए,हुआ शिथिल जब गात।


तन-मन निष्क्रिय देखकर, देता सुत आघात।।


 


जिन हाथों की अँगुलियाँ,पकड़ चला जो आज।


पानी देना दूर कल,सुने न वह आवाज़ ।।


 


समझ बोझ पितु-मातु को,वृद्धाश्रम में डाल।


मुक्त मातु-पितु से उसे,मिलता सुख तत्काल।।


 


वृद्धाश्रम में वृद्ध-जन,यद्यपि पाते तोष।


पर तज निज गृह-स्वजन को,रखते मन में रोष।।


 


जिसे बनाया था स्वयं,छोड़ वही घर-द्वार।


वृद्धाश्रम में आ बसे,सुत,तुमको धिक्कार।।


 


भिन्न-भिन्न परिवेश के,वृद्धाश्रम में लोग।


रहें यहाँ परिवार सम,मिल-जुल कर सहयोग।।


 


अंत समय में दे शरण,आश्रम ही भरपूर।


जिन्हें छोड़ परिजन गए,और देश को दूर।।


           


© डॉ0 हरिनाथ मिश्र


               


विनय साग़र जायसवाल

चाहिए कामयाब से पानी 


माँगिये जी जनाब से पानी


 


पानी लाने में देर पर डाँटा 


उसने फेंका इताब से पानी 


 


कल की नस्लों के वास्ते सोचें


खर्च कीजे हिसाब से पानी 


 


उनके गालों पे अश्क देखे हैं 


जैसे टपके गुलाब से पानी 


 


अपनी तासीर को ही खो बैठा


जब मिला है शराब से पानी 


 


प्यासी आँखों में तब चमक आई 


जब निचोड़ा तुराब से पानी 


 


ऐसी बस्ती में क्या रहें साग़र


जो मिले इंक्लाब से पानी 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


तुराब--मिट्टी


ऋचा मिश्रा रोली

नई सृष्टि निर्माण करें 


...........................


 


मैं ही जननी , मैं ही ज्वाला 


मैं ही भद्र-कराली हूँ ,


मैं ही दुर्गा , मैं चामुंडा ,


मैं ही खप्पर वाली हूँ !


 


सृष्टि सदा हँसती आँचल में 


नर को देती काया हूँ ,


मुझसा कोई नहीं जगत में 


धूप कहीं मैं छाया हूँ ।


 


त्यागमयी , करुणा की मूरत ,


देवी भी ,कल्याणी भी ,


मुझमें है संसार समाहित,यह 


गंगा का पानी भी ।


 


अन्नपूर्णा ,लक्ष्मी मैं ही हूँ ,आ 


जग का कल्याण करें ,


जहाँ सदा खुशियाँ बसती हैं


नई सृष्टि निर्माण करें !


 


ऋचा मिश्रा "रोली" (बलरामपुर)


उत्तर प्रदेश .


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

पंखुड़ी 


देख कर पंखुड़ी तरु-शिखा पर,


मन में क़ुदरत के प्रति प्रेम जागा।


भ्रम मेरे मन में जो पल रहा था-


तज के संसय तुरत मन से भागा।।


         आ गया अब समझ में मेरी,


         कि क़ुदरत की क्या है पहेली?


         सरिता की धारा-तरंगें-


         ज़िंदगी की हैं सच्ची सहेली।


        बोली-भाषा समझने लगा हूँ-


       तरु पे बैठा क्या कहता है कागा??तज के संसय....।।पर्वतों से उतरता ये झरना,


नृत्य-सङ्गीत की दास्ताँ है।


खुशबू-ए-ग़ुल जो पसरी यहाँ-


जान लो,नेक दिल गुलसिताँ है।


होले-होले ये बहती हवा भी-


कातती रहती जीवन का धागा।।तज के संसय.....।।


     बोली कोयल की मीठी सुहानी,


    रट पपीहा की पिव-पिव कहानी।


      बाग़ में गुनगुनाते जो भँवरे-


      उनमें सरगम की अद्भुत रवानी।


      पंछियों की चहक जो न समझे-


      उससे बढ़कर न कोई अभागा।।तज के संसय......।।


दौलते ज़िंदगी है प्रकृति जान लो,


बस ख़ुदा की नियामत इसे मान लो।


इबादत प्रकृति की,यही धर्म है-


इसकी सुरक्षा का ब्रत ठान लो।


मंदिर-मस्ज़िद यही तेरा गुरुद्वारा है-


प्रेमी क़ुदरत का होता सुभागा।।तज के संसय....।।


      चहक औ महक जो सुलभ है यहाँ,


      जल की धारा प्रवाहित तरल है यहाँ।


     खाते-पीते-उछलते सभी जंतु हैं-


     सबके जीवन में लय-ताल रहती यहाँ।


     प्रकृति की अमानत हैं वन-वृक्ष अपने-


     धन्य, इनसे जो अनुराग लागा।।तज के संसय......।।


प्रीति की रीति हमको सिखाते यही,


और हमको बताते डगर जो सही।। 


नेह जल से,पवन से,अगन से जो है-


वन्य प्राणी सिखाते हैं हमको वही।


सो रहा था हमारा जो मन आज तक-


ऐसी बातों के प्रति अब है जागा।।तज के संसय.....।।


           © डॉ0 हरिनाथ मिश्र


             


डॉ0 रामबली मिश्र

कितना कुण्ठित मानव लगता।


आत्म-प्रदर्शन की व्याकुलता।।


 


कितनी शोहरत उसे चाहिए?


छिपी हुई है घोर दीनता।।


 


परेशान है मानव इतना।


घेर चुकी है आज हीनता।।


 


पाने को सम्मान अपाहिज।


दिखा रहा असफल सक्रियता।।


 


मन से बौना दिल से कायर।


चाह रहा स्थायी संप्रभुता।।


 


मन से पिछड़ा बुद्धि अपावन।


दर्शाता अपनी निज शुचिता।।


 


कब कुण्ठा से मुक्ति मिलेगी?


कब आयेगी मन में मधुता??


 


आत्मतोष कबतक आयेगा?


कब जागेगी आत्म-तृप्तता??


 


आत्म-तृप्तता बिना असंभव।


आत्म-प्रदर्शन की अशुद्धता।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


डॉ बीके शर्मा

कौन हो तुम ?


जो मेरे गीतों में आती हो


मैं लिखता हूं गजल


तुम शब्द मेरे बन जाती हो


 


जब जब करता आंखें बंद


तुम कविता बन


दिल में उतर जाती हो 


कौन हो तुम ?


 


यह निष्फल शोध मेरा 


धिक् जीवन !


जो तुम्हें पहचान ना पाया 


है उर में छिपा एक भेद 


जिसे मैं खोल ना पाया 


फिर क्यों जीवन का हर क्षण 


तुम मेरे साथ बिताती हो 


कौन हो तुम ?


 


जो जुड़ी हो तुमसे 


नहीं भाग्य रेखाएं वे मेरे कर में 


बोध नहीं मुझको वह क्षण


उतर गए जब तुम मेरे उर मैं 


मैं हूं निरर्थक !


जो पाया जीवन भर खोया 


तुम आती हो क्यों 


पावन करने को पत्थर 


इस कंक्रीट उर में तुमने 


बीज यह कैसा बोया


फिर भी ऐसे बज्र कवि की


तुम पंक्ति क्यों बन जाती हो 


कौन हो तुम ?


जो मेरे गीतों में आती हो |


 


डॉ बीके शर्मा


उच्चैन भरतपुर राजस्थान


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल


किस कदर प्यार भरा है मैं ये मंज़र देखूँ


आ ज़रा पास तेरे दिल में उतर कर देखूँ


 


शेर कहता है भला कैसे सुखनवर देखूँ 


आ ग़ज़ल तुझको तरन्नुम में सजाकर देखूँ


 


तू जो कहता है तेरा दिल है समुंदर जैसा


माँग कर प्यार तेरे दिल का समुंदर देखूँ 


 


बावफ़ा है कि दग़ाबाज़ मुक़द्दर निकले 


आज़माकर मैं तुझे अपना मुक़द्दर देखूँ 


 


लाख किरदार बदलने की क़सम खाले यह


कैसे बदलेगा ज़रा रंग ये रहबर देखूँ


 


घर से निकला हूँ सफ़र का है इरादा लेकिन


कौन देखेगा मेरी राह पलट कर देखूँ


 


बाँधकर घर से चला हूँ मैं क़फ़न को सर पर


ज़ोर तेरा भी ज़रा आज सितम गर देखूँ


 


माँ की ममता है दुआओं का असर है *साग़र* 


और फिर साथ तुम्हारा है सफ़र कर देखूँ 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ. निर्मला शर्मा 

" ट्वीट वार "


आधुनिक युग का यह देखो, नया बना हथियार। 


अपनी जान बचाओ भाई, हो ना जाए तुम पर वार। 


ध्वनि से तीव्र गति है इसकी, चलता वेग सवार ।


आधुनिक युग का है भाइयों, यह धारदार हथियार।


 इतिहास के पन्नों में छिपे हैं,अनेक युद्धों के सार।


 होती थी गोलाबारी तब ,चलते शस्त्र अनेक प्रकार।


 ज्यों ज्यों पनपी मानवीय सभ्यता, बने विविध संचार।


 धरती पर साधनों का प्रतिदिन, होता नया विचार।


 लैटर बम फूटते सभा में, हुए हताहत सभी कुमार।


 यह कैसा अजूबा भाई!!, बिन धुएँ कैसे बना गुबार ।


 ट्वीट वार है शस्त्र अनोखा ,जिसका है अचूक सा वार।


 जिस पर साधा जाए निशाना ,लुट जाए उसका संसार। बुद्धिजीवी वर्ग का है यह ,ब्रह्मास्त्र सा अभेद वार ।


 कितना भी ताकतवर हो शत्रु, इसे ना सकता वह नकार सोशल मीडिया की स्थली पर, सबसे असरदार हथियार।


 पड़ जाए मुश्किल भारी गर ,अवश्य करो इसका व्यवहार तुरत हटे विपदा पल में ही , सपना हो जाए साकार।


 


 डॉ. निर्मला शर्मा 


दौसा राजस्थान


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

पैदा होता जब इंसान खुशियों


की होती बान।


जागते रिश्तों नातों


के अरमान।।


किसी की आँखों का तारा 


किसी का राज दुलारा ।।        


 


किसी का आरजू आसमान 


किसी के बुढ़ापे कीदिशा दृष्टि आसरा सहारा नन्ही सी


जान ।।     


 


घर, समाज ,कुल ,खानदान


के ना जाने कितने अरमान ।


बचपन जहाँ के अरमानो से अनजान मुस्कान ।।


हर गम से बेगाना जिंदगी का अलग अंदाज़।।


 


बचपन कब बीत गया पता ही नहीं चला किशोर की शोर नाम


रौशन करने का जोर ।।        


 


जो कुछ हासिल करना था हासिल कर जहाँ की हद की हद हैसियत में शुमार ।।  


 


अपने अंदाज़ आगाज़ का


जज्बा नौजवान।।


 


हर रिश्ते नातों के ख्वाबों की 


हकीकत नूर नज़र नाज़।।


 


जहाँ में तारीख का एक किरदार।।     


 


 


वक्त की अपनी रफ्तार गुजर गया बचपन का मासूम मुस्कान।।


किशोर का शोर जवानी की रवानी बीती आ गयी जिंदगी की साँझ।। तमाम रिश्ते नातों घर 


परिवार के नाज़ नखरों की जमी आसमाँ जहाँ । फुर्सत नहीं मिलती


लम्हे भर की दुनियां की शिकायते तमाम ।। अब तन्हा खुद की जिंदगी


के सफ़र का करता हिसाब किताब ।। जिंदगी में कुछ खोने पाने का अंजाम । जहाँ जिसके नीद जागने 


से जागती आज लम्हों भर के लिए करता प्यार का इंतज़ार।।


 


जिंदगी के सफ़र में बुढापा एक


पड़ाव शायद जिंदगी के मिलते


बिछड़ते रिश्ते नातों का अभ्यास


एहसास।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


नूतन लाल साहू

कर्म ही श्रेष्ठ है


सतपथ ही,जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे,हर उर में


भक्ति के मंदिर में,श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के,गुलाब खिलेंगे


जिस तरह मूर्ति को, दुध पिला रहे हैं


तरह तरह के, छप्पन भोग लगा रहे हैं


उसी तरह, गरीब की झोपड़ी में भी जाओ


उसे इसकी जरूरत कहीं ज्यादा है


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र,गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


सूर्य का रथ, रोज चलता है


साथ किरणों के रोज निकलता है


तू भी हंसता चल, हंसाता चल


लुटाता चल, हंसी के पल


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


समय से हार न जाओ,जीत बनकर मुस्कुराओ


पंछियों से,प्रेरणा लेकर भरे ऊंची उड़ाने


श्रृद्धा लगन समर्पण भाव से कर्म करो


काल चक्र को भी,भेद पाओगे


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


एकलव्य जैसा,दृढ़ निश्चय हो


भक्त प्रहलाद सा रखो,अटल विश्वास


जब तक चांद सितारे,नभ में रहेगा


युगों युगों तक चलता रहेगा,तेरा नाम


सतपथ ही जीवन का पथ हो


वेद मंत्र गुंजे हर उर में


भक्ति के मंदिर में, श्रृद्धा का दीप जला लो


जीवन में खुशियों के गुलाब खिलेंगे


 


नूतन लाल साहू


सुनील कुमार गुप्ता

   आशा-निराशा


 


बहुरंगी इस दुनियाँ में,


देखा अज़ब तमाशा।


अपनो संग चले जग में,


साथी मिली निराशा।।


देकर ख़ुशियाँ जीवन में,


कुछ तो उभरी आशा।


मिले अपनत्व का संसार,


फिर छाये न निराशा।।


मिले मंज़िल अपनी यहाँ,


बनी रहे ये आशा।


छाये गम की बदली भी,


मन में न हो निराशा।।


 सुनील कुमार गुप्ता


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मनमोहन से प्रीति हुई


लोकलाज सब भूल गई


कियो समर्पित जीवन


मैं जग के प्रतिकूल हुई


 


लो बाहों मैं माधव मेरे


तुम बिन नहीं मेरा कोई


जब से मिला सानिध्य


राधा तो कृष्णा में खोई


 


हरि हर लीन्हों मन मेरों


कमलकांति अलि भांति


मुझ चातकी को मोहन


तुम ही हो सींकर स्वाति।


 


युगलरूपाय नमो नमः


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-5


 


समदरसी प्रभु बानी मधुरा।


काटहु कष्ट नाथ जन मथुरा।।


    ई जग बिटप सनातन एका।


    देवहि प्रकृति आश्रयहि यहिका।।


दुइ फर लागहिं यहि तरु माहीं।


सुख-दुख जे जग सकल कहाहीं।।


     सत-रज-तम बस तीनहिं मूला।


     गुन ई तीनिउ जग नहिं भूला।।


धर्म-अर्थ अरु मोच्छइ-कामा।


रहहिं चारि यहि तरु कै नामा।।


     रसना-त्वचा-नासिका-लोचन।


      कानहिं पाँच ग्यान तरु रोचन।।


जनम-रहनि-परिवर्तन-बढ़ना।


षटहिं सुभाउ नष्ट अरु घटना।।


    छालहिं सात बृच्छ कै आहीं।


    धातू सातहिं जगत कहाहीं।।


रुधिर-मांस-रस-मेदा-मज्जा।


अस्थि-सुक्र तें बिटपै सज्जा।।


    साखा आठ-पाँच महभूता।


    अहंकार-मन-बुद्धि सबूता।।


नौ दुवार मुख खोड़र आहीं।


दस तरु- परनहिं प्रान कहाहीं।।


    ब्यान व प्रान-अपान-उदाना।


    नागइ-कृकल व कूर्म- समाना।।


देवयिदत्त-धनञ्जय प्राना।


दस ई प्रान जगत खलु जाना।।


   पंछी दूइ बिटप पर रहहीं।


   इस्वर-जीव जगत जे कहहीं।।


नाथ अधार तुमहिं भव तरु कै।


तुमहिं-बिकास-बिनास वही कै।।


दोहा-आबृत तव माया चितइ,खोज सकै नहिं सत्य।


         तत्व-ग्यान-ग्यानी पुरुष,कह प्रभु एक अमर्त्य।।


                       डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                         


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-35


 


निसि-दिन सिय सासुहिं सभ सेवहिं।


असिष सुहाग आँचरहिं लेवहिं।।


    कपटी-कुटिल कैकई सोचैं।


    अनभल सूल हृदय तिसु कोचैं।।


देखि राम-सिय-लखन सुभाऊ।


कैकेई रहि-रहि पछिताऊ।।


   बड़ अधर्म हमतें ई भयऊ।


   राम-लखन-सिय बन मा पठऊ।।


सीय-सुश्रुषा सासु अघाईं।


पाद चापु सिय देहिं ओघाईं।।


    लखिअस अनुपम मिलन सबहिं कै।


    मुदित होंहिं सुर-दसरथ नभ कै।।


सबके मन मा संसय भयऊ।


राम लौटि पुर अयउ न अयऊ।।


    निज-निज सोचि देहिं पुरवासी।


    राजा बनइँ राम बनवासी।।


कस होवै रामहिं अभिषेकू।


सोचहिं भरत उपाय अनेकू।।


    केहि बिधि चलैं अवध रघुराया।


     पर सूझै नहिं कोउ उपाया।।


दिवस भूखि नहिं नीदहिं रैना।


सोचि-सोचि नित भरत बेचैना।।


   गुरु बसिष्ठ तब सबहिं बुलाए।


    केहि बिधि राम चलहिं समुझाए।।


राम कृपालू,परम दयालू।


सकल बिस्व रामहिं परिपालू।।


   रामहिं अखिल जगत कै स्वामी।


    बड़ भागी जे प्रभु-पद-गामी।।


बिधि-बिधान-गति रामहिं समुझहिं।


प्रीति-भगति-बिस्वासहिं रीझहिं।।


   दिग-दिगंत-दिग्पाल समेता।


  जोगी-ऋषि-मुनि-संत चहेता।।


आगम-निगम-बेद-सर्वग्या।


चंद्र-सूर्य चमकहिं प्रभु-अग्या।।


    सलिल-अनल-महि-पवन-अकासा।


   प्रभु बिनु जगत न होय प्रकासा।।


प्रभु जस चहिहैं उहवइ होई।


तर्क-कुतर्क ब्यर्थ जग खोई।।


    सुनहु भरत हम अबहिं बिचारे।


     बन-प्रवास लउ कान्हें सारे।।


सत्रु-तुमहिं बन करउ निवासू।


अस कहु प्रभुहीं बिनू उदासू।।


सोरठा-गुरुहिं बसिष्ठ बिचार,जानि भरत प्रमुदित भए।


           कहहिं इ भागि हमार,जौं प्रभु मानहिं गुरु-बचन।।


           कहहु जाइ मुनिनाथ,हमरो मत बस इहहि अह।


           मनिहैं अब रघुनाथ,जे कछु मुनिवर अब कहहिं।।


                      डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                       


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार वीरेन्द्र सिंह राणावत


उपनाम वीरेन्द्र सिंह 'वीर'


जन्म 22 अप्रैल 1962 (पृथ्वी दिवस)


                      हाडौती (कोटा),    


        शिक्षा-दीक्षा मेवाड़ के ‎रावत भाटा में...


        


विधा. ओज, श्रृंगार, सामाजिक परिवेश


प्रकाशित कृति सफरनामा (काव्य संकलन)


सम्पादकीय 'अखिल भारतीय काव्य संकलन'       


                      धोरों की धरती से, वन्दे मातरम,  


                      शतरूपा, काव्य के रुद्राक्ष


सम्मान तुलसी सम्मान, भोपाल(म.प्र ),     


                       राजभाषा मनीषी-पश्चिमांचल 


                      ‎हिन्दी प्रचार समिति, वडोदरा     


                     ( गुज.), संगिनी ‎मासिक पत्रिका 


                     ( गुज.),महाराज कृष्ण जैन स्मृति 


                     सम्मान, शिलांग ‎(अरु.प्रदेश), ब्रज 


                     ‎गौरव-, ‎साहित्य मणि-बैतूल, 


                     काव्यकेसरी- ‎उदयपुर,साहित्य 


                    गौरव- आर्य समाज आर्य समाज


                    ‎‎‎रावतभाटा,अखिल भारतीय 


                    ‎वैचारिक मंच-लखनऊ, कस्तूरी 


                       कंचन-नोएडा, 4था शोशल 


                      मोडिया मैत्री सम्मलेन-बीकानेर   


                                 ‎सम्मान ‎आदि...  


सम्प्रति भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा  


                    विभाग रावत भाटा में कार्यरत  


स्थाई पता 'राणावत भवन' श्रीराम मंदिर के    


                    सामने, चारभुजा-झालर बावड़ी,  


                   रावतभाटा, 323307कोटा,(राज.)   


 दूरभाष 94132 76762, 


                 व्हा.962464 1011


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                                                                         ‎ १.


                                                                         


                                                                                     क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


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तुम ऋषि अगस्त्य के वंशज हो


जो चुल्लू में सागर पी डाले,


पन्द्रह अगस्त के तुम मतवाले


जो दुश्मन के सपने धो डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


दाधीच की तुमको मिली विरासत


संधान-समर में दे अस्थि वज्र,


हर बार मिले क्यों तुझे नसीहत


तू तो काल को वश में कर डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


परशुराम के तुम सुत कहलाते


जन-विहीन जो धरा कर डाले,


मीरा की माटी से तुम्हें रज मिली


जो विष को भी अमृत कर डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


शून्य को तू-परिपूर्ण करे


व्योंम को 🕉️से भर डाले,


आर्यभट्ट सा तू युग दृष्टा


चाणक्य, चंद्रगुप्त घड़ डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


तू ही पार्थ, तू ही प्रताप


तू ही कर्ण का सामर्थ्य भरे,


तुझमें ध्रुव, एकलव्य भी तू


अभिमन्यु क्षत व्यूह को कर डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा 


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


गोविन्द के सपूतों की तुम्हें शपथ


है तेरी भुजा में शिवा-भगत,


आ जाए 'वीर' अपनी करनी पर


तू सागर का भी मंथन कर डाले...


फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा


क्यों कर में भुजंग को हो पाले...


 


           वीरेन्द्र सिंह ' वीर '


 


२.


 


अद्भुत है कालों की गणना 


कौन मुक्त है किसे भुगतना 


 


कितने या कि लें एक जन्म


गांडीव धारी या फिर कर्ण


 


आरंभ युग कृष्णा का अंत


कौन कलि वीणा का संत 


 


क्यों किसको दें दोषारोपण 


और शेष अभी कितना ऋण


 


ऋण सुत तनया औ भार्या का 


श्रृंगार तुरंग असिदल आर्य का


 


गति पावक पावन सा चलना है 


तृण का भी ऋण तो फलना है 


 


बाती बन कुंडली बैठ भंवर


न सरित बहा तू लहर लहर


 


अग्नि सा जल उपवन प्रीत जला 


बाती बन जल 'वीर' तम तू जला...


 


           वीरेंद्र सिंह'वीर'


           १४/०५/२०२०


 


 


३.


 


 


प्रीत रंग जानू...


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जिनके रंग में रंगी है दुनिया 


उन पर रंग कैसो तूने डारो,


रंगो श्याम को राधा के रंग 


राधा ने श्यामल कर डारो...!


 


माखन मटकी कान्हा के सर 


टोली सखा राधा कर दी नी,


गज ग्वालिन से नटवर नाचे


हाथ गुलेल राधा रख दीनी...!


 


ओढ़े पितांबर वृषभानू तनया


लाल चुनर गिरधर रंग दीनी,


नौसर घुंघरू पग छलिया के 


वेणु अधर राधिका धर दीनी...!


 


मोर मुकुट कृष्णा के सोहे


शोभा करी वेणी गुंथ दीनी,


झुमकी टिकला भाए राधिका 


कुंतल भ्रमर लटकन दीनी...!


 


मैं रहो सूर प्रीत रंग जानू 


जानू कान्हा कि राधा मानूं,


जानो कछु 'वीर' जान ना पायो


कौन हाथ में कौन रंग आयो,


भर पिचकारी छींटे राधिका 


रंग कान्हा राधा पे चढ़ायो...


 


          वीरेंद्र सिंह'वीर'


          ०६/०५/२०२०


 


 


४.


 


 


रंग...


 


सूरज ने तो रंग दी रंगोली 


नीम निंबोली हो गई पीली, 


उर अंबिया के गदराए ऐसे 


चूनर कांधे से सरके जैसे...


 


बदरा फागुन के बहके बहके 


जल भर लाए हिम भी बरसे,


रंग केसु का निखरा ऐसे 


सिंदूर सजनिया बिखरा जैसे...


 


बदली हमने रंगों की आशा


भरने लगे धर्मों की भाषा,


सूरज को भगवा पहनाया


चांद को रंग सुआ रंगाया...


 


धूं -धूं करती जली होलीका


जली नवल धान की दाल,


प्रीत- प्रेम के रंग में छलावा 


रंग उड़ा ना कहीं उड़ी गुलाल....


 


थाल में अक्षत ना हीं चंदन


ना हीं जेष्ठ अनुज का वंदन,


अपने -अपने में थे गुम सारे 


कैसे कोई रंगो को उसारे...


 


मुख में राम बगल में छूरी 


अस्त्र शस्त्र की लगी है बोली,


होली रंग गयी लाल रंग में


कैसे रंगे 'वीर' निज मन की रंगोली...


 


    वीरेंद्र...


    १६/०३/२०२०


 


५.


 


 


 मंथन में...


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विश-अमृत, वरुणी औ चंद्र 


गज, मोहनी, धेनु ओ तुरंग


बटे देत्य, देव के भंजन में 


सरहद पर जो शीश चढ़ाता 


वह रत्न कहां था मंथन में...


 


एक लौभ था एक मोह था


शीर्ष सिंहासन एक खोह था 


सुरा सुंदरी संग सर मंचन में,


सरहद पर जो शीश चढ़ाता 


वह रत्न कहां था मंथन में...


 


तप साधना कोख में आए


मंत्राचार हो अवतार कहाऐ 


संहारक हुए थे रक्तबीज के,


सरहद पर जो शीश चढ़ाता 


वह रत्न कहां था मंथन में...


 


नीलकंठ हो गरल समाये 


वाल्मीक भी पुरषोत्तम गाए


रहे पवन पुत्र दुख भंजन में,


सरहद पर जो शीश चढ़ाता 


वह रत्न कहां था मंथन में...


 


शत सुत भी माटी पर वारूं


अश्रुसुमन न अंखियन तारूं


पालूं न सपोले अंचलन में...


सरहद पर जो शीश चढ़ाता 


वो रतन बसाऊं मैं कोखन में...


 


          वीरेंद्र सिंह'वीर'


       


 


                           ‎  ‎‎


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 रेत सी फ़िसलती जिंदगी


 


रेत सी फ़िसलती जिंदगी ,


पल दो पल की अनिश्चित,


जलभ्रमर में फँसी दुर्लभ ,


प्राणियों में श्रेष्ठतर मानवी,


अहंकारी मदोन्मत्त जिंदगी।


प्रकृति या यों कहें कुदरती ,


तोहफ़ा अनमोल धरोहर सम्पदा,


खुली सारी प्रकृति वसुन्धरा,


अन्तस्थल , भूतल ,जल, गगन,


शस्य श्यामला हरीतिमा ,


सर्वसौविध्य से भरपूर अनन्त,


खनिज सम्पदा ,नाना वन सम्पद,


सागर ,नदी , झील ,निर्झर, सरोवर,


सुरभित कुसुमित फलदार विविध तरु,


वनौषधियों से सुसज्जित हिमाद्रि आंचल,


रवि,शशि,वायु अनल नभ ,


षड्ऋतु विभक्त प्राणी सुलभ 


पर्यावरण जीवन्त निर्मल सुगम,


सब कुछ जो चाहत हो आम जीवन।


परन्तु अनवरत लिप्सा मानव मन ,


फँस मायाजाल लोभ ,छल कपट,


मिथ्या,हिंसा ,क्रोध, शोक संतप्त,


जीजिविषा अनन्त अहर्निश सुरसा सम,


कर क्षत विक्षत सुष्मित प्रकृति अन्तस्तल,


दीन दुःखी ,अवसादित दलित पीड़ित,


सड़कछाप लावारिस मजदूरों पर ,


ढाता कहर बन क्रूरकर्मा निशाचर,


दुर्दान्त ,दुष्कर्म अनवरत चलता पथ,


मानवीय नैतिक मूल्यों को कर तिरोहन,


त्याग न्याय ,शील कर्म विरत,


बस, केवल जिस किसी तरह भी,


आतुर भौतिकता के चकाचौंध फँस


बढ़ता निरत सफ़लता का आरोहण, 


एक तरफ़ दाने दाने को मोहताज़ ,


बिन गेह वसन कुछ पाने को 


अभिलाष मन, विकल दुःखार्त जन,


नित अवहेलित २१वीं सदी आज़ाद वतन,


शिक्षा ,सुख,इज्ज़त खुशियाँ नदारद,


मानो बन गई जिंदगी बंजर रेतीली,


मरुभूमि शुष्क निष्ठुर ज्वालामुखी सम,


सोपान सत्ता का चिरन्तन ,निर्माणक


नेता ,जेता विजेता प्रशासक वतन,


किन्तु अनवरत जीता पशुवत जीवन,


जन मन गणतन्त्र सब सुलभ ,


पर असफल तीन चौथाई आबादी,


कराहती ,सिसकती भूख, न्यायार्थ,


कोख से चिपका कर अपनी सन्तति,


असहाय दर्द को छिपा मौन चक्षु खोदर,


आज भी जूठे पत्तल चाटने को विवश,


संघर्षरत यायावर अबाध अनिश्चित पथी,


निर्माणक उत्पादक स्वयं दुनिया के,


सकल सुख सुविधा कृषि उद्योग तक,


रेल सड़क ,सेतु आलिशां महल,


पर खुद़ के लिए अम्बर छत 


आतप वारिस थिथुरन नित,


कैसी जिंदगी ,कैसी आजादी ,


बनकर खड़ी एक शाश्वत प्रश्न चिह्न,


जानता है मनुज सब कुछ यहीं,


छोड़ चल देगा किसी भी पल जहां ,


साथ न देगा प्रियतर तन सर्वाधिक मनुज,


जाएगा केवल अनकहे कमाये 


सुकीर्ति परहित अनमोल फल, 


पर स्वार्थी मनुज खो मति विवेक,


बिन रुके जीवन भर भागमभाग,


मरुस्थली रेत बन जलाता निरन्तर,


मानवता ,इन्सानियत खु़द की ज़मीर,


भूल सकल कर्तव्य समाज ए वतन,


बस दम्भी बन अर्थहीन करता ,


खूबसूरत लम्हें जिंदगी के अविरल,


दुर्लभ भाग्य से पाये पल दो पल,


बनाते हुए ज़हन्नुम ए कयामत,


पर जिंदगी फ़िसलती जाती 


बन रेत सी सब कुछ दहकती नीरस।


 


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


         नई दिल्ली


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-34


 


देखन चले सभें गिरि-सोभा।


पाछे छाँड़ि बिषादइ छोभा।।


    कामद गिरि, मंदाकिनि-तीरा।


    बन-धन प्रचुर,बायु अरु नीरा।।


बनबासिन मिलि हर्षित भवहीं।


जनु सभ रंक प्रचुर धन पवहीं।।


    कोल-किरातइ, भील-निषादू।


    रामहिं पा भे बिगत बिषादू।।


कंद-मूल-फल बिबिध प्रकारा।


तिन्हकर इहवयि रहा अहारा।।


    जब तें राम इनहिं सँग रहहीं।


    ते सभ रामराज-सुख लहहीं।।


कहुँ कूजति कोइल मृदु बैना।


पिव-पिव कहूँ पपीहा रैना।।


    नाचै बन मा मगन मयूरा।


    जंगल मंगल होंवहिं पूरा।।


सूकर-ससक, हिरन-मृग छौना।


उछरैं अस जस पाइ खिलौना।।


    हिंसक जीव अहिंसक सँगहीं।


    रामराज साथहिं सुख लहहीं।।


सिंह-गर्जना,गज-चिघ्घाड़ा।


तड़ित-तड़क जनु बजै नगाड़ा।।


    झर-झर झरै झरन गिरि-तीरा।


    सन-सन बहै सुगंध समीरा।।


बन महँ जहँ पुरबासी गयऊ।


बनबासी तिन्ह सेवा करऊ।।


    कंद-मूल-फल भरि-भरि दोना।


   तिनहिं खियावहिं दइ जनु सोना।।


हर्षित हिय सभ बन मा रहहीं।


निरखहिं जीव-जंतु बन चरहीं।।


दोहा-रामसरन मा आइके,प्रमुदित कोल-किरात।


         निसि-दिन पावहिं राम-सुख,सम्यक रोग-निजात।।


                         डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                          


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-4


 


भगिनी अहहि देवकी मोरी।


बध-अपकीरति बहु नहिं थोरी।।


     जे जग करै स्वजन अपमाना।


     भगिनी-बध ऊ जस नहिं पाना।।


करम क्रूरता कै जे करई।


संपति-उमिरि तासु बड़ घटई।।


    निंदहिं बाद मृत्यु सभ लोंगा।


     रौ-रौ नरक पाइ ऊ भोगा।।


अस सुबिचार कंस मन आवा।


जब प्रभु अंस गरभ लखि पावा।।


    चलत-फिरत अरु सोवत-जागत।


   बइठत-उठत व पीवत-खावत।।


जनम प्रतिच्छारत रह कंसा।


अइहैं जबहिं किसुन जदुबंसा।।


     इत-उत लखै लखै चहुँ ओरा।


     जहँ देखै तहँ किसुनहिं छोरा।।


सकल बिस्व महँ किसुन-कन्हाई।


जल-थल-नभ मा किसुनहिं पाई।।


    सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।


     आए ब्रह्मा देवन्ह लेवा ।।


बंदीगृह मा नारद लइ के।


सकल अनुचरहिं साथे धयि के।।


    स्तुति करन लगे सभ साथहिं।


    मधुर बचन नवाय निज माथहिं।।


सत संकल्प नाथ तुम्ह आहीं।


सत्यहिं साधन तुमहीं पाहीं।।


   सृष्टिहिं पूर्ब प्रलय के पाछे।


    स्थित जगत असत नहिं आछे।।


तुम्ह प्रभु सत्य मात्र जग एका।


जदपि जगत कै रूप अनेका।।


     जल-थल-तेजहि-बायु-अकासा।


     अहहिं पाँच सच जग कै आसा।।


इन्हकर कारन तुमहीं नाथा।


तुमहिं सतत रह इनके साथा।।


    नाथ तुमहिं परमारथ रूपा।


    दृस्यमान जग सकल अनूपा।।


दोहा-तुम्ह समदरसी नाथ हौ,परमारथ कै रूप।


        दाता-दानी तुमहिं प्रभु,सक्ती परम अनूप।।


               


डॉ0हरि नाथ मिश्र


               


नूतन लाल साहू

समय


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


आशा और विश्वास का


सम्बल रखे,संग संग


है विचित्र,इसका गणित


हर क्षण मिलेगा,नई उमंग


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


हास्य योग है, साधना


सारे रोग का है,निदान


चलो समय के साथ सब


संदेश यही सुनाता है


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है, बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी,समय उड़ान भरता है


समय आगे को बढ़ता है


समय कब पीछे,मुड़ता है


जो चला समय के साथ


वो हो गया,जग में महान


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


भाषण देना और हल्ला मचाना


कोई महानता नहीं है


समय है कला और समय है विज्ञान


जो पल पल रहता है,गतिवान


समय के पंख नही होते,पर


समय उड़ता है,बिन पंख के


चक्र घूमता है,नियत का


फिर भी समय,उड़ान भरता है


नूतन लाल साहू


सत्यप्रकाश पाण्डेय

हृदय में तुम्हें बसाऊं..


 


हे राधा के प्रियतम


हे मोहन कुंजबिहारी


व्यथित हूँ मैं स्वामी


दुःख हरो रासबिहारी


 


जग व्याधों से ग्रस्त


मैं भूला भक्ति पथ को


तेरे नाम की महिमा


शक्ति और समरथ को


 


दाता भाग्यविधाता


है सर्वस्य समर्पण मेरा


राधाबल्लभ कृष्णा


सदा करूँ स्मरण तेरा


 


आनन्द कंद मुरारी


आशीष तुम्हारा पाऊं


कैसे भी दुर्गम क्षण


हृदय में तुम्हें बसाऊं।


 


युगलरूपाय नमो नमः


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


कालिका प्रसाद सेमवाल

राम दूत तुम सबके रक्षक हो


तुम ही तो बल के धाम हो


हम सब तुमको वंदन करते है


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


तुम ही प्रेम के सच्चे स्वरूप हो


तुम्ही दया के सागर हो


तुम कष्ट हरण नाशक हो


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


तुम ही सबके रक्षक हो


जो भी तुम्हारा नाम जपे


उसकी हर विपदा टली


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


प्रभु श्रीराम के तुम अति प्रिय हो


केसरी नंदन सबको सुमति का दान दो


विद्या विनय का दान दो


तुम्हारे चरणों में एक फूल चढ़ाते है।


 


कालिका प्रसाद सेमवाल


रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


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