उपनाम वीरेन्द्र सिंह 'वीर'
जन्म 22 अप्रैल 1962 (पृथ्वी दिवस)
हाडौती (कोटा),
शिक्षा-दीक्षा मेवाड़ के रावत भाटा में...
विधा. ओज, श्रृंगार, सामाजिक परिवेश
प्रकाशित कृति सफरनामा (काव्य संकलन)
सम्पादकीय 'अखिल भारतीय काव्य संकलन'
धोरों की धरती से, वन्दे मातरम,
शतरूपा, काव्य के रुद्राक्ष
सम्मान तुलसी सम्मान, भोपाल(म.प्र ),
राजभाषा मनीषी-पश्चिमांचल
हिन्दी प्रचार समिति, वडोदरा
( गुज.), संगिनी मासिक पत्रिका
( गुज.),महाराज कृष्ण जैन स्मृति
सम्मान, शिलांग (अरु.प्रदेश), ब्रज
गौरव-, साहित्य मणि-बैतूल,
काव्यकेसरी- उदयपुर,साहित्य
गौरव- आर्य समाज आर्य समाज
रावतभाटा,अखिल भारतीय
वैचारिक मंच-लखनऊ, कस्तूरी
कंचन-नोएडा, 4था शोशल
मोडिया मैत्री सम्मलेन-बीकानेर
सम्मान आदि...
सम्प्रति भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा
विभाग रावत भाटा में कार्यरत
स्थाई पता 'राणावत भवन' श्रीराम मंदिर के
सामने, चारभुजा-झालर बावड़ी,
रावतभाटा, 323307कोटा,(राज.)
दूरभाष 94132 76762,
व्हा.962464 1011
ई.मेल veer62ranawat@gmail.com
१.
क्यों कर में भुजंग को हो पाले...
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तुम ऋषि अगस्त्य के वंशज हो
जो चुल्लू में सागर पी डाले,
पन्द्रह अगस्त के तुम मतवाले
जो दुश्मन के सपने धो डाले...
फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा
क्यों कर में भुजंग को हो पाले...
दाधीच की तुमको मिली विरासत
संधान-समर में दे अस्थि वज्र,
हर बार मिले क्यों तुझे नसीहत
तू तो काल को वश में कर डाले...
फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा
क्यों कर में भुजंग को हो पाले...
परशुराम के तुम सुत कहलाते
जन-विहीन जो धरा कर डाले,
मीरा की माटी से तुम्हें रज मिली
जो विष को भी अमृत कर डाले...
फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा
क्यों कर में भुजंग को हो पाले...
शून्य को तू-परिपूर्ण करे
व्योंम को 🕉️से भर डाले,
आर्यभट्ट सा तू युग दृष्टा
चाणक्य, चंद्रगुप्त घड़ डाले...
फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा
क्यों कर में भुजंग को हो पाले...
तू ही पार्थ, तू ही प्रताप
तू ही कर्ण का सामर्थ्य भरे,
तुझमें ध्रुव, एकलव्य भी तू
अभिमन्यु क्षत व्यूह को कर डाले...
फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा
क्यों कर में भुजंग को हो पाले...
गोविन्द के सपूतों की तुम्हें शपथ
है तेरी भुजा में शिवा-भगत,
आ जाए 'वीर' अपनी करनी पर
तू सागर का भी मंथन कर डाले...
फिर क्यों अरिदल खड़ा धरा
क्यों कर में भुजंग को हो पाले...
वीरेन्द्र सिंह ' वीर '
२.
अद्भुत है कालों की गणना
कौन मुक्त है किसे भुगतना
कितने या कि लें एक जन्म
गांडीव धारी या फिर कर्ण
आरंभ युग कृष्णा का अंत
कौन कलि वीणा का संत
क्यों किसको दें दोषारोपण
और शेष अभी कितना ऋण
ऋण सुत तनया औ भार्या का
श्रृंगार तुरंग असिदल आर्य का
गति पावक पावन सा चलना है
तृण का भी ऋण तो फलना है
बाती बन कुंडली बैठ भंवर
न सरित बहा तू लहर लहर
अग्नि सा जल उपवन प्रीत जला
बाती बन जल 'वीर' तम तू जला...
वीरेंद्र सिंह'वीर'
१४/०५/२०२०
३.
प्रीत रंग जानू...
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जिनके रंग में रंगी है दुनिया
उन पर रंग कैसो तूने डारो,
रंगो श्याम को राधा के रंग
राधा ने श्यामल कर डारो...!
माखन मटकी कान्हा के सर
टोली सखा राधा कर दी नी,
गज ग्वालिन से नटवर नाचे
हाथ गुलेल राधा रख दीनी...!
ओढ़े पितांबर वृषभानू तनया
लाल चुनर गिरधर रंग दीनी,
नौसर घुंघरू पग छलिया के
वेणु अधर राधिका धर दीनी...!
मोर मुकुट कृष्णा के सोहे
शोभा करी वेणी गुंथ दीनी,
झुमकी टिकला भाए राधिका
कुंतल भ्रमर लटकन दीनी...!
मैं रहो सूर प्रीत रंग जानू
जानू कान्हा कि राधा मानूं,
जानो कछु 'वीर' जान ना पायो
कौन हाथ में कौन रंग आयो,
भर पिचकारी छींटे राधिका
रंग कान्हा राधा पे चढ़ायो...
वीरेंद्र सिंह'वीर'
०६/०५/२०२०
४.
रंग...
सूरज ने तो रंग दी रंगोली
नीम निंबोली हो गई पीली,
उर अंबिया के गदराए ऐसे
चूनर कांधे से सरके जैसे...
बदरा फागुन के बहके बहके
जल भर लाए हिम भी बरसे,
रंग केसु का निखरा ऐसे
सिंदूर सजनिया बिखरा जैसे...
बदली हमने रंगों की आशा
भरने लगे धर्मों की भाषा,
सूरज को भगवा पहनाया
चांद को रंग सुआ रंगाया...
धूं -धूं करती जली होलीका
जली नवल धान की दाल,
प्रीत- प्रेम के रंग में छलावा
रंग उड़ा ना कहीं उड़ी गुलाल....
थाल में अक्षत ना हीं चंदन
ना हीं जेष्ठ अनुज का वंदन,
अपने -अपने में थे गुम सारे
कैसे कोई रंगो को उसारे...
मुख में राम बगल में छूरी
अस्त्र शस्त्र की लगी है बोली,
होली रंग गयी लाल रंग में
कैसे रंगे 'वीर' निज मन की रंगोली...
वीरेंद्र...
१६/०३/२०२०
५.
मंथन में...
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विश-अमृत, वरुणी औ चंद्र
गज, मोहनी, धेनु ओ तुरंग
बटे देत्य, देव के भंजन में
सरहद पर जो शीश चढ़ाता
वह रत्न कहां था मंथन में...
एक लौभ था एक मोह था
शीर्ष सिंहासन एक खोह था
सुरा सुंदरी संग सर मंचन में,
सरहद पर जो शीश चढ़ाता
वह रत्न कहां था मंथन में...
तप साधना कोख में आए
मंत्राचार हो अवतार कहाऐ
संहारक हुए थे रक्तबीज के,
सरहद पर जो शीश चढ़ाता
वह रत्न कहां था मंथन में...
नीलकंठ हो गरल समाये
वाल्मीक भी पुरषोत्तम गाए
रहे पवन पुत्र दुख भंजन में,
सरहद पर जो शीश चढ़ाता
वह रत्न कहां था मंथन में...
शत सुत भी माटी पर वारूं
अश्रुसुमन न अंखियन तारूं
पालूं न सपोले अंचलन में...
सरहद पर जो शीश चढ़ाता
वो रतन बसाऊं मैं कोखन में...
वीरेंद्र सिंह'वीर'