पंखुड़ी
देख कर पंखुड़ी तरु-शिखा पर,
मन में क़ुदरत के प्रति प्रेम जागा।
भ्रम मेरे मन में जो पल रहा था-
तज के संसय तुरत मन से भागा।।
आ गया अब समझ में मेरी,
कि क़ुदरत की क्या है पहेली?
सरिता की धारा-तरंगें-
ज़िंदगी की हैं सच्ची सहेली।
बोली-भाषा समझने लगा हूँ-
तरु पे बैठा क्या कहता है कागा??तज के संसय....।।पर्वतों से उतरता ये झरना,
नृत्य-सङ्गीत की दास्ताँ है।
खुशबू-ए-ग़ुल जो पसरी यहाँ-
जान लो,नेक दिल गुलसिताँ है।
होले-होले ये बहती हवा भी-
कातती रहती जीवन का धागा।।तज के संसय.....।।
बोली कोयल की मीठी सुहानी,
रट पपीहा की पिव-पिव कहानी।
बाग़ में गुनगुनाते जो भँवरे-
उनमें सरगम की अद्भुत रवानी।
पंछियों की चहक जो न समझे-
उससे बढ़कर न कोई अभागा।।तज के संसय......।।
दौलते ज़िंदगी है प्रकृति जान लो,
बस ख़ुदा की नियामत इसे मान लो।
इबादत प्रकृति की,यही धर्म है-
इसकी सुरक्षा का ब्रत ठान लो।
मंदिर-मस्ज़िद यही तेरा गुरुद्वारा है-
प्रेमी क़ुदरत का होता सुभागा।।तज के संसय....।।
चहक औ महक जो सुलभ है यहाँ,
जल की धारा प्रवाहित तरल है यहाँ।
खाते-पीते-उछलते सभी जंतु हैं-
सबके जीवन में लय-ताल रहती यहाँ।
प्रकृति की अमानत हैं वन-वृक्ष अपने-
धन्य, इनसे जो अनुराग लागा।।तज के संसय......।।
प्रीति की रीति हमको सिखाते यही,
और हमको बताते डगर जो सही।।
नेह जल से,पवन से,अगन से जो है-
वन्य प्राणी सिखाते हैं हमको वही।
सो रहा था हमारा जो मन आज तक-
ऐसी बातों के प्रति अब है जागा।।तज के संसय.....।।
© डॉ0 हरिनाथ मिश्र