संजय जैन

किसको ढूंढ रहें हो


 


कल से कल तक में


आज को ढूंढ रहा हूँ।


जीवन के बीते पलो को,


आज में खोज रहा हूँ।


शायद वो पल मुझे


आज में मिल जाये।।


 


बीत हुआ समय,


कभी लौटकर नही आता।


मुंह से निकले शब्द,


कभी वापिस नही आते।


इसलिए बहुत तोलमोल कर,


शब्दो को सदा बोलना चाहिए।


जिससे सुनने वाला आपकी,


वाणी से आपका हो जाये।।


 


दिल और मन 


बहुत छोटे होते हैं।


दोनों पर वाणी का बहुत, जल्दी असर होता हैं।


जिससे कभी कभी बड़े, दुश्मन भी दोस्त बन जाती हैं।


और कभी कभी बने बनाये,


रिश्ते भी बिगड़ जाते हैं।।


 


वैसे तो इस युग में कोई, 


किसी का होता नहीं।


पर भी कुछ झूठे और


मायाचारी रिश्ते होते हैं।


जो दिल दिमाग और,


मन से सोचता हैं।


वो कलयुग में भी जीवन, 


हंसते खिलखिलाते जीत हैं।।


 


संजय जैन (मुम्बई)


जय जिनेन्द्र देव की


निशा अतुल्य

शिक्षा का महत्त्व बड़ा,


जो पढ़ा वो आगे बढा ।


अलख जगा शिक्षा की,


शिक्षा अपनाइए ।


 


बेटी का बचाव करो,


पाठशाला उसे भेजो।


पढ़ लिख नाम करें,


ऊपर उठाइए ।


 


स्वास्थ्य का भी रखो ध्यान,


स्वच्छता रहे महान ।


करे जब बेटी काम,


सम्मान बढ़ाइए ।


 


शिक्षा जब सँग चले ,


कार्य की क्षमता बढ़े ।


सँग मिल चलें सभी,


देश को बढ़ाइए ।


 


निशा"अतुल्य"


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जिंदगी आजमाने लगी है


चाँदनी मुस्कुराने लगी है


घने बादलों के साये मेंआरजू आसमाँ बताने लगी है।।


 


सुबह सूरज की मुस्कान


दिल के अरमाँ जागती है


कभी सावन के फुहारों में


वासंती बयारों में जिंदगी


मुस्कुराने लगी है।।


 


ख़ाबों की अंगड़ाई चाहतो तन्हाई


की परछाई दिल की


दस्तक मुहब्बत जगाने लगी है।।


जिंदगी मुहब्बत बताने लगी है।


 


जज्बे की जमीं को जन्नत


की है ख्वाहिस इरादों के


आईने जन्नत दिखाने लगी


है।।                                 


 


जिंदगी जिंदगी बताने लगी है।।


 


जिंदगी है मासूका 


मासूक है जहाँ ,जहाँ


जिंदगी में आशिकी अश्क


बेपनाह नज़राने हज़ार


जिंदगी मकसद से मिलने पास आने लगी है।।


 


जिंदगी का नसीब 


कभी गम के आसूं 


सबनम के मोती समन्दर


के किनारे कभी बैठा करता मोतियो का इन्तज़ार।


जिंदगी ख़ुशी औ गम बताने 


लगी है।।


 


जिंदगी सावन की घटावों


की अदाएं हवा के झोंको


में बिखरी जुल्फों में छिपी


चेहरा कभी सूरज की लाली है


कभी अँधेरा ही अँधेरा।।


जिंदगी जिंदगी का मतलब बताने लगी है।।


 


नशा है जिंदगी अंदाज़ जीने का


ना सकी है ,ना पैमाना, नजर आता नहीं मैख़ाना नशे में झूमती जिंदगी ।।


जिंदगी नसीहत का नशा बताने लगी है।।


 


नशा जूनून नशा सुरूर बिन


पिए शराब जिंदगी का नशा


लाज़बाब जिंदगी गाती हस्ती में


जिंदगी नशा नशेमन बताने लगी है।।


 


जिंदगी आग है जिंदगी ख़ाक है


परवाने सी जलती है दीवाने सी


भटकती है जिंदगी मायने मोहब्बत समझाने लगी है।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


नूतन लाल साहू

करो न अभिमान


राजा अनेक हुये,पृथ्वी पर


रूप तेज और बहुत बलवान


तू छोड़ दें,वृथा अभिमान मानव


सब दिन होत न एक समान


सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को देखो


एक दिन था,संपत्ति मेरु समान


स्वप्न में ही किया दान सब कुछ


बिकना पड़ा,उन्हें पूरा परिवार


राजा अनेक हुये,पृथ्वी पर


रूप तेज और बहुत बलवान


तू छोड़ दें, वृथा अभिमान मानव


सब दिन होत न एक समान


स्वयं प्रभु राम और मां जानकी को देखो


एक दिन विचरण करते थे,पुष्पक विमान पर


जिन्हे रुदन करते,हम देखे


माता जानकी के वियोग पर


राजा अनेक हुये,पृथ्वी पर


रूप तेज और बहुत बलवान


तू छोड़ वृथा अभिमान मानव


सब दिन होत न एक समान


राजा युधिष्ठिर को ही देखो


एक दिन बैठे थे,धर्म सिंहासन पर


भगवान श्री कृष्ण का अनुचर होते हुये भी


रोक न पाया, द्रौपदी के चिर हरण को


राजा अनेक हुये,पृथ्वी पर


रूप तेज और बहुत बलवान


तू छोड़ दें, वृथा अभिमान मानव


सब दिन होत न एक समान


भुल न जाना,जग में देख ममता को


और देख कपट व्यवहार


किसका तू है,और है कौन तुम्हारा


स्वारत रत है,यह संसार


राजा अनेक हुये,पृथ्वी पर


रूप तेज और बहुत बलवान


तू छोड़ दें, वृथा अभिमान मानव


सब दिन होत न एक समान


 


नूतन लाल साहू


डॉ0 रामबली मिश्र

गुणगायन हो नित माता का।


पूजन नित्य जन्मदाता का।।


 


पले कोख में नौ माहों तक।


मत कृतघ्न बनना माता का।।


 


जिला-खिलाकर बड़ा किया जो।


साथ निभाना प्रिय माता का।।


 


दु:ख सह जिसने पाला-पोषा।


रखना ख्याल सदा माता का।।


 


संस्कार में जिसने ढाला।


वन्दन करना उस माता का।


 


जिसने प्राण तुझे माना है।


प्रण कर रक्षा कर माता का।।


 


तेरी खातिर सुख को त्यागा।


बन सेवक उस सुखदाता का।।


 


कर उपवास तुझे जो पोषा।


कर सम्मान अन्नदाता का।।


 


मत करना अपमान भूलकर।


चरण गहो देवी माता का।।


 


आँखों से मत ओझल करना।


समझ धाम प्रिय घर माता का।।


 


मातृ धाम अतिशय शुभ पावन।


चारों धाम यही माता का।।


 


राम -कृष्णा को भले न पूजो।


कर अभिनन्दन प्रिय माता का।।


 


सीखो माँ की बातों से सब।


जननी ही असली गुरु-माता।।


 


जो जननी को सदा पूजता।


खुद ही पूजनीय बन जाता।।


 


जो जननी को करत उपेक्षित।


जन्म-जन्म तक वह दु:ख पाता।।


 


माँ से ही सबकुछ मिलता है।


माँश्री का आशीष दिलाता।।


 


माँ का कृपापात्र जो बनता।


उस पर सदा प्रसन्न विधाता।।


 


माँ की हँसी-खुशी से बनते।


बेटी-बेटे ज्ञानी-ज्ञाता।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र


हरिहरपुरी 


 


एस के कपूर श्री हंस

अपनी वाणी से ही आदमी


खासों आम होता है।


 


आदमी की असली पहचान तो


उसकी जुबान से होती है।


होता दूसरों पर कितना वह


मेहरबान से होती है।।


हर दिल में जगह आदमी 


की यूँ ही नहीं बनती।


व्यक्ति की पहचान ही उसके


इसी भान से होती है।।


 


बोलिये यूँ कि दूसरों के दिल


में आप उतर जाईये।


सवेंदनायों का ज्वार बातों में


भर कर जरा लाईये।।


लफ्ज़ और लहज़ा जो जाकर


अंतर्मन को छू जाये।


मत बोलिये कभी यूँ कि दिल


से किसी के उतर आईये।।


 


वाणी से ही मनुष्य का हर


गुण गान होता है।


मान अपमान वाणी से ही व्यक्ति


का सम्मान होता है।।


अमृत जहर दोंनों ही हैं हमारी


जिव्हा में समाये।


अपने अंदाज़े बयाँ से ही आदमी


खासों आम होता है।।


 


एस के कपूर श्री हंस


बरेली।


सुनील कुमार गुप्ता

सत्य तो सत्य साथी जग में,


यहाँ मानो या न मानो।


चल कर उस पथ पर साथी फिर,


स्वयं को तुम पहचानो।।


बेगानो की बस्ती में भी,


साथी अपनो को जानो।


संग चले न चले वो जग में,


उनको अपना तो मानो।।


धन-वैभव ही पल-पल साथी,


लुभाए इस मन को मानो।


भक्ति संग जीवन पथ पर फिर,


मिले असीम आनंद जानो।।"


 


 सुनील कुमार गुप्ता


राजेंद्र रायपुरी

मुखिया यदि रूठा है घर का,


                     कर लीजै मनुहार।


हॅ॑सी- खुशी से जी पाए वो,


                     बचे हुए दिन चार।


 


नैया यदि हम घर को समझें,


                    मुखिया है पतवार।


वही किनारे लाता नैया,


                 फॅ॑सी अगर मझधार।


 


दुनिया उनसे भी देखी है,


                      करें नहीं तक़रार।


और नहीं कुछ इस बेला में,


                     उसे चाहिए प्यार।


 


होगी उसको अति पीड़ा यदि,


                   मिला नहीं वो प्यार।


जिसकी आशा की थी उसने,


                    हरे-भरे परिवार।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

आँखों के कोष हुए रीते 


हे माधव तेरे प्यार में


सबकुछ किया समर्पित


जो कुछ था संसार में


 


राधा बल्लभ मनमोहन


राधे से मत जाना दूर


कभी विरह से न तड़पूं


हमें न करना मजबूर


 


कालिंदी का ठंडा पानी


मेरा बदन जलाता है


श्याम सलोने तेरे बिना


पल भी रहा न जाता है।


 


जय श्री राधे रानी


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

दूसरा अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


माया अहहि असत्य अधारा।


प्रभू जगत सभ जगह पधारा।।


    प्रभू एक कह तत्वहिं ग्यानी।


    रूप अनेक कहहिं अग्यानी।।


प्रभू आतमा ग्यानहिं रूपा।


जग आवहिं धरि रूप अनूपा।।


    सकल चराचर-जग-कल्याना।


    बिबिध रूप प्रभु आना-जाना।।


रहइ एक जुग अरु जुग दूसर।


रूप अनेक एक प्रभु ऊपर।।


    दुष्ट-दलन करि संतन्ह-सेवहिं।


    अद्भुत सुख प्रभु सभ जन देवहिं।।


तुरत पार भव-सिंधु अपारा।


गोखुर इव लइ प्रभू-सहारा।।


    भगत-हितैषी,जग-कल्यानी।


     प्रेमी-भगत सकल जग जानी।।


प्रभू-कृपा सत्पुरुषहिं पावैं।


नाथ अनुग्रह तिनहिं लुटावैं।।


   भगति क भावहीन जन लोका।


    झूठहिं कह पाए परलोका।।


मूरख-बुद्धिहीन नहिं जानै।


माया सतत बँधा नहिं मानै।।


   जदपि कि ऊँचे पद आसीना।


   भगति हीन नर गिरै मलीना।।


पर जाकर पद-पंकज प्रीती।


गिरै न ऊ नर रखु परतीती।।


दोहा-जग-रच्छक,सुख-धाम प्रभु,करैं सदा कल्यान।


        दानी औरु कृपालु प्रभु,सभ जन लखहिं समान।।


                        डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                          9919446372


कालिका प्रसाद सेमवाल

हे मां जगदम्बा दया करो


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हे मां जगदम्बा दया करो,


हमें सत्य की राह बताओ,


कभी किसी को सताये नहीं,


ऐसी सुमति हमें देना मां।


 


 


हे मां जगदम्बा दया करो,


अपनी कृपा वर्षा करो,


हम अज्ञानी तेरी शरण में,


हमें सही राह बताना मां।


 


ये जीवन तुम्ही ने दिया है


राह भी तुम्हें बताओ मां


हो गई है भूल कोई तो,


राह सही बताओ मां।


 


कभी किसी का बुरा न करुं,


दया भाव से हृदय भरो,


मस्तक तुम्हारे चरणों में हो,


ऐसी बुद्धि हमें दे दो मां।


 


हे मां जगदम्बा दया करो,


जग में न कोई किसी जीव को,


पीड़ा कभी न पहुंचाएं मां,


ऐसी सब की बुद्धि कर दो।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

द्वितीय चरण(श्रीरामचरितबखान)-36


 


चौदह बरिस अवधि नहिं भारी।


हम बन रहब उमिरि भर सारी।।


     जौं प्रभु राम अवधपुर जावहिं।


     ऋषि-मुनि सबहिं सरग-सुख पावहिं।।


रामराज-सुख सभ जन पइहैं।


सभ जन मुक्त कष्ट होइ जइहैं।।


     प्रभु रामहिं खलु अंतरजामी।


     भूत-भविष्य सबहिं कै स्वामी।।


भरत-बिचार जानि प्रभु रामा।


आए तुरत बसिष्ठहिं-धामा।।


    सीष नवा प्रभु करहिं निवेदन।


    करहु नाथ अनुकूल भरत-मन।।


भरत सुबुध जानहिं मरजादा।


सोचि उच्च जीवन बहु सादा।।


     नीति-निपुन ऊ धूरि धरम कै।


      कुल-भूषन,प्रेमी सभ जन कै।।


जे कछु चाह भरत कै होई।


मम इच्छा मुनि जानउ सोई।।


    भरत मोर अति परम सनेही।


    मातुहिं-पितुहिं-बंधु-बैदेही।।


सभकर हित सोचै मोर भाई।


मिलै भरत बड़ पुन्य-कमाई।।


दोहा-होय न कोऊ जगत महँ,भरत समान दयालु।


        निष्ठावान-प्रतिग्यदृढ़,नेही, परम कृपालु।।


                    डॉ0 हरिनाथ मिश्र


                   


आशुकवि नीरज अवस्थी

2 मुक्तक बिरह वियोग श्रंगार


 


किसी की याद में बेचैन क्यूं यह नैन रहते है।


प्रतीक्षा में तुम्हारी क्यूँ तरसते नैन रहते है।


समंदर आँख है मेरी हजारों ज्वार दिल में है,


तुम्हारी प्रीति में नीरज बरसते नैन रहते है।।


कुहासा रात का घर में बहुत मद्धिम उजाला है।


मेरी तनहाइयों के अक्स को दर्पण ने पाला है।


जरूरी है चले आओ, सभी मजबूरियां छोड़ो,


मिलन की आस में प्रतिपल बरसते नैन रहते है।



आशुकवि नीरज अवस्थी


संपूर्णानंद मिश्र

   तोड़ देती है


   टूट जाता है


 आदमी भूख के ज़्वर से 


   यह ख़तरनाक है 


    शरीर के ज़्वर  


  से बहुत ज़्यादा


   उतर जाता है 


 सामान्य ज़्वर 


कुछ दिनों में ही 


हालांकि शरीर को


 यह भी तोड़ता है


लेकिन भूख का ज़्वर तो


 कोमल- चित्त पर 


  हमला करता है


अंतर्मन तोड़ता है


गहरा घाव कर देता है 


दिल और दिमाग दोनों में 


    नष्ट कर देता है विवेक को


संज्ञाशून्य हो जाता है व्यक्ति 


  पार कर जाता 


     लक्ष्मण- रेखा 


अपने ही सिद्धांतों की       


मुफ़लिसी बड़े- बड़े 


साधकों को तोड़ देती है


  धर्म और अधर्म को 


  नहीं चीन्ह पाता है


 सिद्धहस्त संन्यासी भी 


 नीलाम कर देता है अपनी आत्मा को सरे-आम


    पेट की आग बुझाने के लिए


    चक्रधर जैसा ज्ञानी


 आत्मबिक्रेता हो जाता है


   चापलूसी का नर्तन


 करने लगता है


 दर्पी सम्राटों के दरबार में


  ईश्वर से भी ज़्यादा


 दयालु बताता है उन्हें 


मिथ्या- प्रशंसा के हथियार से लूट लेता ऐसे नृपों को 


यह भूख सब कुछ कराती है सामुद्रिक आग से


 भी ख़तरनाक होती है यह


 खा जाती है अपने ही अंडे को भूखी नागिन 


  नहीं बिचार कर पाती है 


   जन्या हूं इसकी मैं ही 


    कोई ब्रहृमज्ञानी 


  सुदामा जैसा ही    


    बचा पाता है


 अपने को इस लपट से


   नारायण की इच्छा समझ 


    संतोष कर लेता है 


चावल के एक दाने से ही 


 


   संपूर्णानंद मिश्र


  प्रयागराज फूलपुर


संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

अमर हुआ है नाम पूजता है जग सारा , 


श्याम राधिका की जोड़ी सबको लुभाती है। 


 


बाँसुरी बजाते जब मदन गोपाल प्यारे , 


यमुना के तट राधा दौड़ी दौड़ी आती है। 


 


कदम्ब के तरु पीछे छुप के वो देखती है , 


मोहन की मुरली को कोसती ही जाती है। 


 


अधर से मुरली को श्याम जी हटाते जब , 


मोहन के संग रास राधा जी रचाती है। 


 


संदीप कुमार विश्नोई"रुद्र"


दुतारांवाली तह0 अबोहर पंजाब


सत्यप्रकाश पाण्डेय

आँखों के स्वर्णिम सपने.......


 


झील सी गहरी आँखों में


मैंने अपना प्रतिबिंब निहारा


अथाह हृदय सरोवर में


मन मराल तिरता था प्यारा


 


कुछ झोंके तो ऐसे आये


तन मन झुलसा गये हमारा


कहीं शीतल पवन चली


पुलकित की जीवन की धारा


 


कहीं आघात प्रत्याघात


दौड़ पड़े ले छल की तलवार


गला काट मुहब्बत का


वह करने लगे वार पर वार


 


समझे जिसे शीतल छाया


ज्वालामुखी सा लावा निकली


नवनीत सी कोमलता से


जीवन शकट हमारी फिसली


 


प्राकट्य हुआ उसका तो


समझे जीवन होगा खुशहाल


धूमकेतु सी निकली वह


प्रवृति देख सत्य हुआ बेहाल


 


काश जाह्नवी सी धारा


बन करके दुःख संताप हरे मेरे


आँखों के स्वर्णिम सपने


वह बाला,शायद पूर्ण करे मेरे।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


कुं जीतेश मिश्रा शिवांगी

कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते ।


कुछ सुनते तुम दुख दर्द मेरे कुछ अपने हिय की कह लेते ।।


 


तुम प्रेम की नदिया बनकर के मधुरिम सा राग बजा देते ।


मैं बहती कहीं लहर बनकर तुम खुद में हमें बसा लेते ।।


बनकर के अनोखा संगम ये परिभाषा प्रेम की गढ़ देता ।


मिलकर के हम इक दूजे से स्वछन्द धरा पे बह लेते ।।


 


कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते । (१)


 


पथरीली राहों पर चलकर गर कंटक भी आकर मिलते ।


वो साथ हमें पाकर पथ पर कंटक भी सुमन के ज्यों खिलते ।।


अर्धांग मेरे बनते यदि तुम अर्धांगिनी तेरी हो जाती ।


नयनों से अश्क बहें चाहे जो भी हो सितम मिल सह लेते ।।


 


कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते ।। (२)


 


लाते जो किनारे पर हमको इक पास किनारा कर लेते ।


हम हाथ थाम करके तेरा जीवन का सहारा कर लेते ।।


तुम बिखरो यदि तो सम्भालूँ मै इतना अधिकार हमें देना ।


इक दूजे के हो सहारे हम खुशियों को हमारा कर लेते ।।


 


कुछ पल ही सही मेरे प्रियतम तुम साथ हमारे रह लेते ।। (३)


 


कुं जीतेश मिश्रा शिवांगी


धौरहरा लखीमपुर खीरी


उत्तर प्रदेश


सुनीता असीम

देखा जो रौद्र रूप तेरा मैं सिहर गई।


करना नहीं था काम मुझे वो ही कर गई।


***


दिल तक उतर गई थी मुहब्बत की तिश्नगी।


लगती रही थी बात बुरी ये सुधर गई।


***


मुंह को फुला रखा था जमाने से आपने।


ये बात सोचने में मेरी शब सहर गई।


***


रिश्ता निभा रही थी मैं जी जान से सदा।


लेकिन मेरी कभी पे ही तेरी नज़र गई।


***


उस प्यार की चढ़ी थी ख़ुमारी घड़ी घड़ी।


वो रात से शुरू हुई सुबहा उतर गई।


***


सुनीता असीम


संजय जैन मुम्बई

न कोई मेरा है 


न ही में किसका।


आया हूँ में अकेला


तो अकेला ही जाऊंगा।


तो फिर क्यों किसी से


बनाये हम यहाँ संबंध।


सभी की सोच नहीं होती 


लोगो मेरे जैसी।


कितना जीना है हमको


और कब हम मर जायेंगे।


किसी को भी ये बाते 


जिंदगी की पता नहीं होती।


इसलिए तो हर इंसान 


जीवन जीता है मस्ती से।


और सारे यश आरामो को


भोगता अपने जीवन में।


यदि जीने मरने का समय


पता चल जाएगा उसको।


तो जिंदगी मस्ती से जीयेगा


या समय से पहले मर जायेगा।


विधाता ने यही तो राज


सभी से छुपा के रखा है।


और सभी की जिंदगी को


संसार में उलझा रखा है।


इसलिए उस चक्र में


सभी लोग जीते है।


और कुछ अच्छे तो 


कुछ बुरे कर्म वो करते है।


तभी तो स्वर्ग नरक को


सभी यही पर भोगते है।


जो समझ जाता है मानव धर्म 


वो अच्छे से जीवन जीता है।


तभी तो वो दान दया के 


 पथ पर चलता है।


और अपना अगला भव


यही पर निश्चित करता है।


और संसार में अकेला 


आता और जाता है।।


 


जय जिनेन्द्र देव 


संजय जैन मुम्बई


सुनील कुमार गुप्ता

 मान भी जाओ


 


कौन -अपना बेगाना यहाँ,


अब जीवन में -


जान भी जाओ।


अपने तो अपने होते साथी,


जीवन में अपने तुम-


साथी मान भी जाओ।


साथी साथी हो तुम साथी,


अब तो तुम-


सच मान भी जाओ।


अनबुझी पहेली है जीवन,


अब तो साथी -


इसको जान भी जाओं।


कल से आज और आज से कल,


बेहतर होगा जीवन में-


ये अब मान भी जाओ।


सद्कर्म और प्रभु भक्ति से,


मिलेगी शांति मन को-


साथी ये मान भी जाओ।।


 सुनील कुमार गुप्ता


 


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

हाथ-पाँव ढीले हुए,हुआ शिथिल जब गात।


तन-मन निष्क्रिय देखकर, देता सुत आघात।।


 


जिन हाथों की अँगुलियाँ,पकड़ चला जो आज।


पानी देना दूर कल,सुने न वह आवाज़ ।।


 


समझ बोझ पितु-मातु को,वृद्धाश्रम में डाल।


मुक्त मातु-पितु से उसे,मिलता सुख तत्काल।।


 


वृद्धाश्रम में वृद्ध-जन,यद्यपि पाते तोष।


पर तज निज गृह-स्वजन को,रखते मन में रोष।।


 


जिसे बनाया था स्वयं,छोड़ वही घर-द्वार।


वृद्धाश्रम में आ बसे,सुत,तुमको धिक्कार।।


 


भिन्न-भिन्न परिवेश के,वृद्धाश्रम में लोग।


रहें यहाँ परिवार सम,मिल-जुल कर सहयोग।।


 


अंत समय में दे शरण,आश्रम ही भरपूर।


जिन्हें छोड़ परिजन गए,और देश को दूर।।


           


© डॉ0 हरिनाथ मिश्र


               


विनय साग़र जायसवाल

चाहिए कामयाब से पानी 


माँगिये जी जनाब से पानी


 


पानी लाने में देर पर डाँटा 


उसने फेंका इताब से पानी 


 


कल की नस्लों के वास्ते सोचें


खर्च कीजे हिसाब से पानी 


 


उनके गालों पे अश्क देखे हैं 


जैसे टपके गुलाब से पानी 


 


अपनी तासीर को ही खो बैठा


जब मिला है शराब से पानी 


 


प्यासी आँखों में तब चमक आई 


जब निचोड़ा तुराब से पानी 


 


ऐसी बस्ती में क्या रहें साग़र


जो मिले इंक्लाब से पानी 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


तुराब--मिट्टी


ऋचा मिश्रा रोली

नई सृष्टि निर्माण करें 


...........................


 


मैं ही जननी , मैं ही ज्वाला 


मैं ही भद्र-कराली हूँ ,


मैं ही दुर्गा , मैं चामुंडा ,


मैं ही खप्पर वाली हूँ !


 


सृष्टि सदा हँसती आँचल में 


नर को देती काया हूँ ,


मुझसा कोई नहीं जगत में 


धूप कहीं मैं छाया हूँ ।


 


त्यागमयी , करुणा की मूरत ,


देवी भी ,कल्याणी भी ,


मुझमें है संसार समाहित,यह 


गंगा का पानी भी ।


 


अन्नपूर्णा ,लक्ष्मी मैं ही हूँ ,आ 


जग का कल्याण करें ,


जहाँ सदा खुशियाँ बसती हैं


नई सृष्टि निर्माण करें !


 


ऋचा मिश्रा "रोली" (बलरामपुर)


उत्तर प्रदेश .


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

पंखुड़ी 


देख कर पंखुड़ी तरु-शिखा पर,


मन में क़ुदरत के प्रति प्रेम जागा।


भ्रम मेरे मन में जो पल रहा था-


तज के संसय तुरत मन से भागा।।


         आ गया अब समझ में मेरी,


         कि क़ुदरत की क्या है पहेली?


         सरिता की धारा-तरंगें-


         ज़िंदगी की हैं सच्ची सहेली।


        बोली-भाषा समझने लगा हूँ-


       तरु पे बैठा क्या कहता है कागा??तज के संसय....।।पर्वतों से उतरता ये झरना,


नृत्य-सङ्गीत की दास्ताँ है।


खुशबू-ए-ग़ुल जो पसरी यहाँ-


जान लो,नेक दिल गुलसिताँ है।


होले-होले ये बहती हवा भी-


कातती रहती जीवन का धागा।।तज के संसय.....।।


     बोली कोयल की मीठी सुहानी,


    रट पपीहा की पिव-पिव कहानी।


      बाग़ में गुनगुनाते जो भँवरे-


      उनमें सरगम की अद्भुत रवानी।


      पंछियों की चहक जो न समझे-


      उससे बढ़कर न कोई अभागा।।तज के संसय......।।


दौलते ज़िंदगी है प्रकृति जान लो,


बस ख़ुदा की नियामत इसे मान लो।


इबादत प्रकृति की,यही धर्म है-


इसकी सुरक्षा का ब्रत ठान लो।


मंदिर-मस्ज़िद यही तेरा गुरुद्वारा है-


प्रेमी क़ुदरत का होता सुभागा।।तज के संसय....।।


      चहक औ महक जो सुलभ है यहाँ,


      जल की धारा प्रवाहित तरल है यहाँ।


     खाते-पीते-उछलते सभी जंतु हैं-


     सबके जीवन में लय-ताल रहती यहाँ।


     प्रकृति की अमानत हैं वन-वृक्ष अपने-


     धन्य, इनसे जो अनुराग लागा।।तज के संसय......।।


प्रीति की रीति हमको सिखाते यही,


और हमको बताते डगर जो सही।। 


नेह जल से,पवन से,अगन से जो है-


वन्य प्राणी सिखाते हैं हमको वही।


सो रहा था हमारा जो मन आज तक-


ऐसी बातों के प्रति अब है जागा।।तज के संसय.....।।


           © डॉ0 हरिनाथ मिश्र


             


डॉ0 रामबली मिश्र

कितना कुण्ठित मानव लगता।


आत्म-प्रदर्शन की व्याकुलता।।


 


कितनी शोहरत उसे चाहिए?


छिपी हुई है घोर दीनता।।


 


परेशान है मानव इतना।


घेर चुकी है आज हीनता।।


 


पाने को सम्मान अपाहिज।


दिखा रहा असफल सक्रियता।।


 


मन से बौना दिल से कायर।


चाह रहा स्थायी संप्रभुता।।


 


मन से पिछड़ा बुद्धि अपावन।


दर्शाता अपनी निज शुचिता।।


 


कब कुण्ठा से मुक्ति मिलेगी?


कब आयेगी मन में मधुता??


 


आत्मतोष कबतक आयेगा?


कब जागेगी आत्म-तृप्तता??


 


आत्म-तृप्तता बिना असंभव।


आत्म-प्रदर्शन की अशुद्धता।।


 


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी 


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